शुक्रवार, दिसंबर 13, 2013

समलैंगिकता क्यों?

 
 
 समलैंगिकता क्यों?
समाज में समलैंगिक संबंधों को मानसिक बीमारी या प्राकृतिक विकृति से जोड़ कर देखा जाता रहा है। सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले से भारतीय समाज में ये संबंध फिर विवाद और बहस में हैं।
स  मलैंगिक संबंधों पर विवाद उतना ही पुराना है जितना कि ये संबंध हैं। प्रकृति या मानवीय विकृति अथवा किसी ज्ञात-अज्ञात कारण से इन संबंधों के लिए प्रेरित होने वाले लोग अपने अधिकारों की मांग करते रहे हैं। समलैंगिकता के पक्ष में  दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा 2009 में सुनाए गए फैसले को देश के कुछ संगठनों ने सांस्कृतिक और धार्मिक मूल्यों के खिलाफ बताया था। ये संगठन ही हाईकोर्ट के फैसले के विरोध में वे सुप्रीम कोर्ट गए थे। हाल ही के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने देश में समलैंगिक संबंधों को अपराध करार दे दिया है। मामले में सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति जीएस सिंघवी ने कहा, ‘समलैंगिक संबंधों को उम्रकैद की सजा वाला अपराध बताने वाली आईपीसी की धारा 377 में कोई संवैधानिक खामी नहीं है।’ उन्होंने इस विवादित मुद्दे पर आगे का निर्णय लेने के लिए पूरी प्रक्रिया और जिम्मेदारी को संसद की ओर धकेल दिया है। कोर्ट ने कहा कि संविधान से यह धारा हटाई जाए या नहीं यह देखना संसद का काम है।
अब इस मामले में एक बार फिर बहस, विवाद और निराशा का माहौल बन गया है। अदालत के ताजा फैसले को लेसबियन, गे, बाइ-सेक्शुअल और ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों ने इसे अधिकार वापस लेने जैसा बताया है। कुछ लोग कह रहे हैं कि जब दो पुरुष या दो महिलाएं सहमति से शारीरिक संबंध बनाते हैं तो यह अपराध क्यों है? लेकिन यह मामला सिर्फ इतना नहीं है, यह एक निजी भावनात्मक-शारीरिक क्षमता अक्षमताओं से भी जुड़ा है। इन संबंधों को इस अवधारणा से मुक्त होकर देखाना चाहिए कि ऐसे मामले समाज में गंदगी फैला रहे हैं।  इस मामले में ऐसे लोगों की बात भी सुनी जाना आवश्यक है। केवल विलासिता या यौन कुंठा के रूप में इस तरह के संबंधों को बनाना या अपनाना उचित नहीं कहा जा सकता। इसके समाधान के लिए ऐसे लोगों की शादी के लिए या संबंधों के लिए चिकित्सीय सेवाओं और   सुविधाओं का उपयोग कर सकते हैं। डॉक्टरों की टीम बता सकती है कि ऐसे लोगों के लिए उचित लैंगिक समाधान क्या हो सकता है। इस तरह के संबंधों  के मामले में यह दलील भी दी जा रही है कि जब इन लोगों को समाज ही गले नहीं लगा पाता है तो उन्हें उनका ही समाज बना बनाने को अधिकार तो हो सकता है। ये संबंध दोनों की जिंदगियों को सुखी और सुरक्षित बना सकता है, कम से कम किसी को शादी के मंडप में या किसी को बच्चे न होने की स्थिति में अथवा किसी को शादी के कई साल बीत जाने के बाद ये झटका तो नहीं लगेगा। उनका साथी असल में शारीरिक रूप से प्रजनन के लिए दुरुस्त नहीं था या नहीं है।  दूसरी तरफ समलैंगिकता कुछ लोगों के यौन अधिकारों पर बहस मात्र नहीं है। यह बहस भारतीय समाज के बुनियादी आदर्शों से जुड़ती हुई, परंपरा, समाज और ज्ञान-विज्ञान की मान्यताओं को खंगालती है तथा इस प्रक्रिया में वह सभ्यता और संस्कृति  में खोजबीन करने दूर तक जाती है। बहरहाल, इस बहस में पूर्वाग्रह छोड़कर संवेदनशीलता के साथ चलने पर ही किसी मानवीय तार्किक निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है।

लोकतंत्र में लाल बत्ती क्यों? 


लोकतंत्र में हर आदमी व्यवस्था का हिस्सा है फिर कुछ लोगों को खास होने विशेषाधिकार क्यों हो? लालबत्ती की अनाधिकृत चाहत सामंतवादी मानसिकता है।

सु प्रीम कोर्ट ने मंगलवार को अपने फैसले में कहा कि वाहन की छत पर लाल बत्ती का उपयोग केवल उच्च संवैधानिक पदों पर आसीन लोगों के वाहनों पर ही किया जाएगा, और नीली या अन्य रंगीन बत्ती का उपयोग आपात सेवाओं जैसे एम्बुलेंस, फायर ब्रिगेड और पुलिस के लिए होना चाहिए। यह आवश्यक सेवाओं के लिए है न कि रुतबे के प्रदर्शन के लिए। लाल बत्तीपर आया फैसला भारतीय लोकतंत्र में जनता के सम्मान का फैसला है। लोकतंत्र में सड़क पर सभी समान हैं और सभी का समय कीमती है। इस फैसले से यही अवधारणा पुष्ट होती है। सड़कों पर अव्यवस्था या ट्रैफिक जाम से बचने के लिए लाल बत्ती या पीली बत्ती का प्रयोग किया जाता है। वास्तव में इसके विराध में तर्क देने वाले कहते हैं कि प्रशासन के जिम्मेदारों का फर्ज बनता है कि वे पूरी व्यवस्था को सुधारें ताकि उनके साथ जनता को भी व्यवस्था ठीक मिले। लोकतंत्र में जनता से अलग होने का विशेषाधिकार किसी को नहीं है। लाल बत्ती का विरोध, जनहित याचिकाएं और सुप्रीमकोर्ट के हस्तक्षेप की वजह यही रही है कि ये बत्तियां अहंकार का प्रदर्शन होती जा रही थीं। इनसे जनता की स्वतंत्रता का हनन हो रहा था एवं अनाधिकृत लोग इनका दुरुपयोग कर रहे थे।
लाल बत्ती की परंपरा भारतीय लोकतंत्र में एक कुरीति है। अंग्रेज जब भारत के शासक थे, तब भी कलेक्टर या लाटसाहब लाल बत्ती व सायरन के साथ नहीं घूमते थे। न ही सुरक्षा के नाम पर इतना तामझाम होता था। आज लालबत्ती वाली गाड़ियों को देखते ही आम आदमी की आंखें फटी और सायरन की आवाज पर कान खड़े हो जाते हैं। इसका मतलब यह है कि कोई विशिष्ट व्यक्ति उस वाहन में है जिसके मार्ग में बाधा डालना खतरे से खाली नहीं है। आधुनिक लोकतंत्र में यह राजशाही का नया रूप है। नई कुरीति है। लाल बत्ती विशिष्टता का प्रतीक बन गई है। असल में लाल बत्ती और सुरक्षा तामझाम की मौजूदा प्रवृत्ति अधिकारियों की वजह से बढ़ी है। राजनेताओं में पहले इसका रोग नहीं था। आजादी से ठीक पहले भारत में जो अंतरिम सरकार बनी थी, उसके मंत्री ट्रेनों में तीसरे दर्जे में सफर करते थे क्योंकि यह महात्मा गांधी का निर्देश था, वे खुद तीसरे दर्जे में चलते थे। उस समय भी मंत्रियों के सचिव के रूप में तैनात होने वाले आईसीएस अधिकारी पहले दर्ज में चलते थे। स्टेशन पर जब ट्रेन पहुंचती थी, तो अधिकारी पहले दर्जे से उतरकर तीसरे दर्जे तक पहुंचते थे। नियमानुसार तो होना यह चाहिए था कि अधिकारी भी मंत्रियों के साथ के दर्जे आते और जनता के साथ तीसरे दर्जे में सफर करते। लेकिन उलटा हुआ। आजादी के बाद देश के नेता भी अधिकारियों के साथ पहले दर्जे के सवार हो गए और धीरे-धीरे अपने लिए सुविधाएं बढ़ाते गए। अगर सड़कों पर व्यवस्था खराब है, जाम है तो इसे सुधारा जाना चाहिए, ना कि लालबत्ती लगाना चाहिए। असल में लाल बत्ती लगा कर अपने को आम लोगों से अलग दिखाना एक सामंती प्रवृत्ति है, जिसके लिए लोकतंत्र में कोई जगह नहीं होनी चाहिए।


मंगलवार, दिसंबर 10, 2013

वृन्दावन की विधवाओं की स्थिति

एक साल पहले सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका में दावा किया गया था कि मथुरा की विधवाओं को सात से आठ घंटे तक भजन गाने पर सिर्फ 18 रुपए ही मिलते हैं। इनमें से अनेक विधवाओं के बच्चे भी हैं लेकिन वे उनकी देखभाल नहीं करते हैं। इस जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने वृन्दावन की विधवाओं की स्थिति पर सरकार के रवैये से नाराजगी जताई थी।  वृन्दावन की
विधवाओं की दयनीय स्थिति पर गौर करने के लिए राज्य महिला आयोग का गठन करने में विफल रहने पर यह सुझाव दिया था। न्यायमूर्ति डी के जैन और न्यायमूर्ति मदन बी लोकूर की खंडपीठ ने वृन्दावन की विधवाओं की दयनीय स्थिति को लेकर दायर जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान राज्य सरकार के रवैये पर अप्रसन्नता व्यक्त की।
न्यायालय ने राज्य सरकार से कहा था कि इन महिलाओं का रहने के लिए बेहतर वातावरण और पर्याप्त भोजन मुहैया कराने के अलावा उन्हें समुचित चिकित्सा सुविधा भी उपलब्ध कराई जाय। राष्ट्रीय महिला आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि मथुरा और वृन्दावन के आश्रमों में पांच से दस हजार विधवाएं भिखरियों जैसा जीवन गुजार रहीं हैं जहां उनका यौन शोषण भी होता है।     आयोग ने अपनी  रिपोर्ट में कहा था कि इनमें से 81 फीसदी महिलाएं निरक्षर हैं।
दूसरी तरफ संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून ने विधवाओं के अधिकारों के सम्मान के लिए विश्व समुदाय का आह्वान किया है। गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा वर्ष 2010 में अंतरराष्ट्रीय विधवा दिवस मनाना तय किया था। ताकि पूरे विश्व में विधवाओं की दुर्दशा सामने आ सके। विश्व में लगभग 24.5 करोड़ विधवाएं हैं। इनमें 11.5 करोड़ अत्यंत गरीबी में जीने को विवश हैं।
पुरुषों की अपेक्षा विधवा महिलाओं की स्थिति बुढ़ापे में अधिक दयनीय हो जाती है। वे तीन तरह की उपेक्षा झेलती हैं- एक तो सामान्य नागरिक के रूप में, दूसरे, महिला के रूप में और तीसरे, बुजुर्ग के रूप में। आंकड़े बताते हैं कि भारत में बूढ़े पुरुषों की अपेक्षा वृद्ध विधवा महिलाओं की संख्या12 प्रतिशत अधिक है, अपाहिज वृद्ध महिलाओं की संख्या अधिक है और गांव-घर में निरुद्देश्य पड़ी महिलाएं अधिक हैं। बुजुर्गो में विधवाएं भी विधुर की अपेक्षा अधिक मिलती हैं। वृद्ध महिला को समाज और परिवार बोझ के रूप में देखने लगता है क्योंकि वे बीमारियों के चलते अनुत्पादक, खर्चीली, निर्भर और असंतुष्ट बन जाती हैं, मन दुखी औ र असुरक्षित होने के नाते बीमारियां बढ़ जाती हैं, बीमारी के बढ़ते खर्च और देखभाल की जरूरत के चलते परिवार के सदस्य झल्लाने लगते हैं और वृद्ध महिलाओं को और भी निराशा और हीनभावना से ग्रस्त बना देते हैं। यह दुष्चक्र बन जाता है।
 ऐसी स्थिति में एस्ट्रोजे न नामक हार्मोन की कमी होती है, जो तमाम शारीरिक व मानसिक समस्याओं को जन्म देती है। तब वे या तो आत्म करुणा से ओत-प्रोत रहने लगती हैं या फिर चिड़चिड़ी और दूसरों को परेशान करने वाली बन जाती हैं। कई बार सास के रूप में औरत को देखें तो हमें ये प्रवृत्तियां गम्भीर रूप धारण करती नजर आती हैं, परंतु यह सब पति के मरने के बाद बेटे पर अत्यधिक और एकमात्र निर्भरता के चलते ही होता है, जहां बहू एक प्रतिद्वंद्वी और भविष्य की मालकिन के रूप में असुरक्षा-बोध बढ़ाने वाली लगती है।
विधवाओं के दुख सामंती सोच वाली, बेरोजगार औरतों या ग्रामीण उच्च-जातीय परिवारों में अधिक परिलक्षित होता है। शहरी वर्ग में यह स्थिति अकेलेपन और अवसाद में ग्रस्त दिखाई देती है। यहां विधवा महिलाएं अकेलेपन का शिकार होते हुए ओल्डऐज होम पहुंच जाती हैं। बहुत कम महिलाओं को यह मालूम है कि बचपन के प्रोटीनयुक्त खानपान और जवानी में लोहा और कैल्शियम व फॉलिक एसिड से परिपूर्ण पौष्टिक आहार बुढ़ापे को सुखद और स्वस्थ बनाता है।
निम्न आर्थिक हैसियत वाली ग्रामीण और शहरी विधवा महिलाओं को 55 की उम्र के बाद से स्वास्थ्य की समस्याएं घेरने लगती हैं, वे इधर-उधर से नुस्खे पता करके काम चलाने की कोशिश करती हैं और अपने शरीर को घसीटती रहती हैं ताकि परिवार में उनकी उपयोगिता किसी तरह बनी रहे, वरना उन्हें परिवार के लिए बेकार समझने में देर नहीं लगती। यहां भी भेदभाव अपनाया जाता है। ऐसे परिवारों में पौष्टिक आहार पुरुषों को दे दिया जाता है। क्योंकि पुरुष-प्रधान समाज में औरत का अपने लिए सोचना भी बुरी नजर से देखा जाता है। इन स्थितियों के कारण महिलाओं का बुढ़ापा काफी कष्टप्रद हो जाता है, पर तब तक देर हो चुकी होती है और मामला हाथ से निकल चुका होता है।
शायद इन्हीं वजहों से जब संयुक्त राष्ट्र ने महिलाओं पर ध्यान केंद्रित किया, तो सबसे अधिक जोर बुजुर्ग महिलाओं की स्थिति को सुधारने पर दिया। 1982 में संयुक्त राष्ट्र ने वियना में बुढ़ापे पर पहली जनरल असेंबली आयोजित की थी। इसमें वृद्ध महिलाओं के लिए सामाजिक कार्यक्रम और सामाजिक सुरक्षा की चर्चा हुई। 1990 में जनरल असेंबली ने बुजुर्गों के लिए अंतरराष्ट्रीय दिवस घोषित किया। 1991 में 46 वें सत्र में  विधवा महिलाओं के लिए कुछ विशेष सुविधाएं घोषित की गई। 2002 में संयुक्त राष्ट्र की बुढ़ापे पर द्वितीय विश्व असेंबली हुई और 2010 में 45वें अधिवेशन में भी विधवा एवं वृद्ध महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों और उन पर उठाए जाने वाले कदमों की रूपरेखा तय की गई, मसलन डायन प्रथा, वृद्ध विधवाओं की हत्या, आरोप लगाकर प्रताड़ित करना इत्यादि।
भारत में वृद्ध महिलाओं की   सम्पत्ति को हथियाने के लिए अकसर इस किस्म के कारनामों को दबंग लोगों द्वारा अंजाम दिया जाता रहा है। शहरों में ऐसी महिलाओं की हत्या का प्रतिशत भी अधिक है। गांवों में उनको जबरन बेदखली और काबिज होने की समस्या बेहद गंभीर है। भारत सरकार ने 1999 में बुजुर्गों के लिए राष्ट्रीय नीति बनाई पर महिलाओं की विशिष्ट स्थिति पर बहुत कम जोर रहा। ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं को वृद्ध महिलाओं पर केंद्रित स्कीमों के बारे में पता रहते हुए भी उनका लाभ उठा पाना संभव नहीं हो पाता। किसी भी हालत में औरतों को परिवार के पुरुष सदस्यों पर निर्भर रहना पड़ता है। शहरी क्षेत्रों में तो महिलाओं को लाभकारी स्कीमों की जानकारी नहीं रहती क्योंकि यदि वे घरेलू महिला हैं, उनका समाज से और भी कम सरोकार रहता है और संघर्ष करने की प्रवृत्ति भी कम रहती है। इसलिए इस बाबत महिलाओं को जानकारी और प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। प्रशासनिक अधिकारियों, चुनाव आयोग, बैंकों, अस्पतालों और स्वास्थ्यकर्मियों, रेलवे, हवाई जहाज और बस सेवाओं को वृद्ध विधवा महिलाओं के लिए विशेष सुविधाओं की व्यवस्था करनी चाहिए, पर इसके लिए महिला एवं बाल विकास मंत्रालय को एक विशेष प्रकोष्ठ वृद्ध विधवा महिलाओं की स्थिति का अध्ययन करने के लिए भी निर्मित करना चाहिए। साथ ही महिला संगठनों को भी वृद्ध विधवा महिलाओं, खासकर दलित-आदिवासी, गरीब, अल्पसंख्यक, अकेली और उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं की बुजुर्ग महिलाओं की आर्थिक, सामाजिक, मानसिक और शारीरिक स्थिति, उनके पोषण और उनकी निरक्षरता तथा उनके अपाहिज होने की स्थिति आदि पर अध्ययन करना चाहिए। उनके मुद्दे उठाए जाएंगे और उन्हें अपने निष्क्रिय जीवन से उबारकर उनके लिए सहकारी प्रयासों से  उत्पादकता बढ़ाई जाएगी तो उनका आत्मसम्मान कायम रह सकता है। नियमित स्वास्थ्य चेकअप, राशन व्यवस्था में वृद्ध विधवा महिलाओं के लिए कैल्शियम युक्त आटा, उनके इलाज के लिए सस्ते सब्सिडाइज्ड फूड कार्ड की व्यवस्था जरूरी है क्योंकि ऐसी विधवाओं के लिए किसी प्रकार की स्वास्थ्य बीमा उपलब्ध नहीं है। शिक्षा और उत्पादन से जुड़ा रहना अल्जाइमर डिजीज से बचाने में मदद करता है क्योंकि दिमाग सक्रिय रहता है और अपने जीवन की उपयोगिता भी महसूस होती है। जिन महिलाओं की मेहनत के चलते हमारा जीवन बेहतर और आत्मनिर्भर बना, क्या हम उनकी देखरेख के बारे में इतनी चिंता भी नहीं कर सकते?

कांग्रेस की हार

 


डीजल की कीमतों के बाद जब रोज की चीजें महंगी होने लगीं तो ग्राहक ने पूछा दाम क्यों बढ़े? दुकानदार ने कहा- डीजल बढ़ गया है। ग्राहक ने पूछा- डीजल किसने बढ़ाया तो उत्तर ‘कांग्रेस’ था। 

अ   ब चुनावों के नतीजों के बाद सिर्फ विचार और विश्लेषण ही बाकी बचा है। यह  काम तभी आता है जब उसे अमल में लाया जाए। इस तरह कांग्रेस की हार की कहानी बहुत पहले शुरू हो चुकी थी। जब कुछ महीने पहले हिसार लोकसभा उपचुनाव में कांग्रेस के खिलाफ 4-0 का नतीजा आया। एक उम्मीदवार की जमानत जब्त हो गई थी। यह एक कठोर संदेश था। लेकिन किसी ने यह पूछना आवश्यक नहीं समझा कि आखिर ऐसा क्यों हुआ? जनता इतनी नाराज क्यों है? इस घटना के बाद भी कांग्रेस कंपनियों को घाटे से बचाने के नाम पर हर हफ्ते डीजल और पैट्रोल की कीमतें बढ़ाने में लगी रही। डीजल की मामूली बढ़ोतरी ने खुदरा बाजार ने सामान्य चीजों की कीमतों को बढ़ाने की खुली छूट ले ली। कीमतें बढ़ने के बाद घटी नहीं। भले ही उनकी कीमतें थोक बाजार में घट गर्इं। थोक आंकड़ों में कीमतें कम-ज्यादा होती रहीं, लेकिन जनता को राहत नहीं मिल रही थी। कीमतों की बढ़ोतरी का सारा गुस्सा लोगों ने डीजल पैट्रोल पर निकाला। कांग्रेस महासचिव बीके हरिप्रसाद का कहना था कि हार अप्रत्याशित नहीं थी, जबकि पार्टी के उम्मीदवार की हिसार में जमानत जब्त हो गई थी। इसी समय टीम अन्ना के सदस्य अरविंद केजरीवाल ने कहा था कि हिसार का नतीजा जन लोकपाल विधेयक पर एक जनमत संग्रह है।
 केंद्र सरकार द्वारा आर्थिक सुधारों के नाम पर सृजित महंगाई को चुनाव में महंगाई और भ्रष्टाचार प्रमुख मुद्दे थे। एक प्रमुख नारा था-पेट्रोल महंगा, डीजल महंगा लेकिन भ्रष्टाचार सस्ता। कांग्रेसी नेताओं के पास इस चुनाव के दौरान भ्रष्टाचार दलील नहीं थी। कांग्रेस के पास राहुल गांधी के रूप में एक केंद्रीय शक्ति को सृजित करने वाला चेहरा था लेकिन वे जनता को एक सख्त और ताकतवर शासक की तरह आकर्षित नहीं कर सके। लोग कहने लगे कि राहुल अपनी पार्टी के बड़े नेताओं के पढ़ाने पर वही बोलते हैं जो उन्हें कहा जाता है। अन्ना के उस विशाल जन समर्थन को राहुल और उनकी पार्टी समझ ही नहीं सकी। इसके अलावा कांग्रेस पार्टी अपने पुराने वैचारिक नारों का ही इस्तेमाल करती रही जैसे कि भाजपा सांप्रदायिक है, जबकि भाजपा ने अपने आपको बदला है। मध्यप्रदेश इसका उदाहरण है। कांग्रेस की हार का एक कारण यह भी है कि उसके पास एकसूत्रता की कमी थी।  नेतृत्व में एक स्पार्क होना चाहिए वह कहीं दिखाई नहीं दिया। युवा नेतृत्व युवा और पहली बार मतदान कर रहे लोगों को आकर्षित नहीं कर सके। कांग्रेस के पास ऊर्जा नहीं थी।  सरकार व संगठन दोनों जीत के मुगालते में रहे। कांग्रेस नेता समझ ही नहीं पाए कि महंगाई व भ्रष्टाचार के अभियान में दम है। महंगाई से तो जनता जूझ ही रही है, उस पर से भ्रष्टाचार ने खाज का काम किया। चुनाव से पहले पेट्रोल व डीजल की कीमतों में बढ़ोतरी की बातें होती रहीं। मजदूर किसान एवं नौजवान सभी परेशान रहे। प्रधानमंत्री पद पर हैं लेकिन सत्ता में नहीं हैं। इसी राजनीतिक सच्चाई के कारण पार्टी दिशाहीन होती चली गई और एक हारी हुई पार्टी बन गई।

शुक्रवार, नवंबर 01, 2013

रंग बिरंगा



इस दुनिया में कौन है रंगा कौन है बिल्ला
नरियल खाले फेंक दे नट्टी खुल्ला

तोड़ के मर्म पते की बातें जग में कर दे हिल्ला
इस दुनिया में कौन है रंगा कौन है बिल्ला

पता नहीं किसने क्या कहा था किसके बारे में
जब नहीं था उसके पास जीवन का हिल्ला

तब वह था इस दुनिया का रंगा बिल्ला
लेकर चला गया चुप चुप अपने कर्मों का हिल्ला

लौट के आया ठहरा देखा कुरते में कुछ ऐसा
मारी चोट चौराहे पर भाग कोई कुत्ता सा चिल्ला

तोड़ तोड़ कर कर दी उसने दुनिया की पसली
जीवन का गणित नहीं समझा था बिल्ला

असुरक्षित था सब कुछ यहां वहां तक
केवल नेता करता रहा सुरक्षित अपना किल्ला

इतने दिन तक देख देख कर सोच रहा था
ये दुनिया को कौन चलाता है कौन बड़ा है बिल्ला

ये नहीं रुकेगा ये कबीर का चरखा है
कातेगा जब सूत निकलेगा दुनिया का पिल्ला

यहां वहां सब जगह हैं बिल्ला रंगा चारों ओर
ओड़ के आते हैं एक कहानी फिर करते हैं चिल्ला


रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
टॉप-12, हाईलाइफ कॉम्पलेक्स, चर्चरोड, जिंसी जहांगीराबाद, भोपाल, मप्र 462008
9826782660

खुशहाली का टर्नओवर

  ध  न सोना चांदी के रूप में तो है ही उसे आधुनिक युग में टर्नओवर के रूप में भी देखा जाता है। धन का त्यौहार धन तेरस पर धन की पूजा समृद्धि के अर्थों में की जाती है। आज व्यक्ति की जितनी समृद्धि का महत्व है उतना ही राष्ट्र की समृद्धि का भी है। अगर देश की समृद्धि के बिना निजी धन वैभव को बहुत अधिक महत्व नहीं दिया जा सकता है। आज हम अपनी समृद्धि ही नहीं देश के लिए भी खुशहाली की कामना कर सकते हैं। गत तिमाही में देश का समृद्धि यानी जीडीपी का हिसाब कुछ ठीक नहीं रहा। सितम्बर में समाप्त तिमाही में जीडीपी विकास दर पूर्व में लगाए गए अनुमानों से भी अधिक लुढ़क गई है। वर्ष भर पूर्व की तुलना में गिरावट डेढ़ फीसद (8.4 की तुलना में 6.9) है। अर्थव्यवस्था के आठ मुख्य क्षेत्रों में भारी गिरावट दर्ज की गई है। जिनमें स्टील, सीमेंट और कोयला भी शामिल है। इससे स्पष्ट है कि औद्योगिक क्षेत्र में गिरावट आ रही है। खनन क्षेत्र में तो विकास दर नकारात्मक हो गई है। कृषि क्षेत्र भी बेहतर नहीं है जिसकी विकास दर साल भर पूर्व के 5.4 से गिरकर 3.2 फीसद रह गई है। सिर्फ सेवा क्षेत्र में सरकारी खर्च की बढ़ोतरी ने विकास दर को कुछ संभाला है लेकिन सरकारी खर्च बढ़ने का परिणाम यह है कि राजकोषीय घाटा पहले सात माह में ही यह उसके 75 फीसद तक पहुंच गया है।
यह सारी बातें अर्थव्यवस्था की बिगड़ती सेहत
का संकेत हैं। आर्थिक चुनौतियां सिर्फ विदेशी कारणों से नहीं आई हैं। इसकी वजह घरेलू हालात भी हैं। राजनीतिक व्यवस्था का गतिरोध और घोटालों के खुलासों से काफी समय तक सरकार जरूरी फैसलों को टालती रही। अब जबकि उसने कुछ कड़े फैसले लिए हैं तो राजनीतिक फायदे से आगे न सोच पाने के विपक्षी नजरिए ने उन पर अमल को मुश्किल बना दिया है। तेज गति से विकास करने वाली कुछ अर्थव्यवस्थाओं में शामिल होने के बावजूद देश कई वजहों से आर्थिक परेशानियां झेल रहा है। विशाल जनसंख्या एवं भारी उपभोग की वजह से भारत आज दुनिया के सबसे बड़े बाजारों में शामिल हो चुका है। लेकिन आर्थिक कुप्रबंधन, नीतिगत स्तर पर शिथिलता, बड़े-बड़े घोटाले, लालफीताशाही, दूरदर्शी सोच का अभाव जैसे कई मसले हैं जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था दबावों का सामना कर रहा है। धन प्रबंधन के मामले में हमारी कमजोरी एक बड़ी परेशानी का कारण बनता जा रहा है। वित्तीय साक्षरता के मामले में भारत अभी तक बड़े स्तर पर कोई कोई कारगर प्रयास नहीं कर रहा। बेहतर धन प्रबंधन का सीधा संबंध तार्किक वित्तीय साक्षरता से होता है। देश में वित्तीय रूप से जितने लोग साक्षर होंगे उनमें वित्त प्रबंधन कला का विकास होगा। ऐसा नहीं होता है तो हम अपने देश की समृद्धि की कल्पना नहीं कर सकते। आज देश में तमाम तरह की चुनौतियां हैं जिन पर एक सख्त और दूरदर्शी राजनीतिक सोच की आवश्यकता है। धन के इस त्योहार पर हम अपने देश की समृद्धि के लिए एक मिनट सोचें। यही सोच हमें अपने साथ देश को समृद्धि लेकर आएगी।

रविवार, अक्टूबर 27, 2013

गांव से एक दिन......... कविताएं


 
रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति

   
आत्मकथ्य
मेरे लिए अपने आपको गांव या शहर में किसी भी रूप में बांटना मुश्किल होता है। खुद को और कविता को बांटना मेरे लिए संभव नहीं होता है। मैं समझ नहीं पाता कि वह कौन सी सीमा रेखा है जिससे समाज अलग अलग होता है। हम सुविधाओं के लिए खुद को अलग अलग सीमाओं में बांटते हैं लेकिन दरअसल वे कोई सीमा होती नहीं हैं। वे एक ऐसा बिंदु होती हैं जिसको हम सुविधा के लिए स्वीकार करते हैं। यहीं दूसरी बात ये है कि आखिर मैं क्यों नहीं बांट पाता? क्या कारण हैं कि ऐसा है? यहां अपनी बात एक उदाहरण से स्पष्ट करना जरूरी है। विज्ञान के नजरिये से देखें तो अंधेरा और उजाला कोई दो स्थितियों या पक्षों का प्रतीक नहीं हैं। वे प्रकाश कणों की विरलता और सघनता का स्तर ही होते हैं। जब बहुत अधिक प्रकाश कण होते हैं तो दिन होता है और जब वे धीरे धीरे कम होते जाते हैं, उनमें विरलता आती जाती है तो वे अंधेरे का निर्माण का भ्रम देते हैं। यानी स्केल एक ही होता है। अब जब स्केल एक है पैमाना एक है तो आप उसे दो अलग पक्ष जब करेंगे तो एक सुविधा के लिए करेंगे। यह सुविधा प्रशासन के लिए ठीक है कि रात हो गई तो लाइट की व्वस्था की जाए। या शहर से बाहर जंगल या गांव आ गए है तो विशेष चौकी की स्थापनाएं की जाएं लेकिन ये कविताओं के लिए भाव के लिए संभव नहीं हैं। कम से कम मैं अपनी जिम्मेदारी पर स्वीकार करता हूं कि मेरे लिए यह अलगाव स्वीकार नहीं.... यही कारण है कि मैं गांव को सभ्यता के स्केल के निम्मतम हिस्सों से उच्चतर हिस्सों की ओर आने वाले वर्ग की तरह देखता हूं।

1
गांव से एक दिन

मैं गांव में था तो सिर्फ गांव में नहीं था
कुछ गांव भी मुझमें था

चीजें सिर्फ गांव के मेढ़े तक नहीं थीं
कुछ इस तरफ और कुछ उस तरफ थीं
शहर सपनों की चादर में चिपक कर आता रहा
मैं शहर और गांव दोनों में खुद का जीता रहा

एक बस आती थी-धूल का बादल लिए
वह पहला गुब्बारा था जो शहर से गांव आया
उसी में कुछ हवाएं कुछ कल्पनाएं आती थीं
शहर कैसा होता है न जाने कितने किस्सों के साथ

जब मैंने शहर नहीं देखा था, पर शहर था
देखे थे रंगीन जगमगाते दृश्य
यह शहर टीवी की स्क्रीन से उतरा था
गांव के लड़कों के दिमाग में जाकर छुप गया था

गांव के आंगन में शहर आता था
बस में रखा थैला बन कर
बिस्कुट का एक पैकिट और कुछ खिलौने साथ
शहर में सब कुछ क्यों होता है?

आज सोचता हूं
मेरा गांव धीरे-धीरे शहर से चिपक रहा है
मैं एक नक्शे की तरह दोनों में दर्ज




2
पुल से लिपट कर रोती नदी

पुल बना और गांव सुंदर हुआ
नदी सूखी तो गांव ने इधर-उधर देखा
यह अचानक सब नहीं हुआ था लेकि न
उत्तर किसी के पास नहीं था

मेरे गांव के लोगों के लिए
कुछ मील दूर सुनाई पड़ता था किसी काम का शोर
वहां बजते रहते थे विशाल इंजिनों के सिलेंडर
धुंआ और मजदूरों की लंबी सासें जिंदा दिन रात
मिट्टी को अलटती मशीनों की लंबी भुजाएं

रात को भी नहीं रुकती थी आवाज की बाढ़
काम लगातार होता था गांव को पता नहीं था
पुल नदी के लिए बनाया था या सूखने के लिए

वे आवाजें एक दिन पूरी तरह शांत हो गर्इं
मशीनें खराब पुरजे छोड़ कर न जाने कहां चली गर्इं
आसमान से देवता देखते थे यह सब
गांव सोचता था किसी देवता की करामात है यह
जैसे ही काम रुका नदी ने सूखना शुरु कर दिया

पुल एक सूखी नदी पर एक स्मारक था अब
जिस पर वक्त ट्रकों की तरह गुजरने लगा था

नदी बीमार गाय की तरह गांव में आती है
जब भी पुल के नीचे से गुजरती है
शाम की रोशनी में पुल से लिपट कर रोती है

3


तुम्हारा गांव और तुम

मेरे दोस्त मुझे नहीं चाहिए गांव
नहीं चाहिए इन गांवों की तरीफ

यहां कांटे कीचड़ पत्थर हैं
मेरे गांव को शहर बना दो

मैं बदल रहा हूं अपना गीत
जब तुम आते हो अपने गांव
दो दिन में ही लौट पड़े हो
क्यों न रहे तुम अपने गांव?

खेत नहीं खलिहान नहीं फिर कैसा ये गांव बचा
बैल नहीं, तालाब नहीं फिर ये कैसा ये गांव रहा

कोई नहीं लौटता गांवों में रहने
शहरों का अपराध लिए तुम भी


धीरे धीरे बच कर यादों की नाव चलाते
ओ कवि तुम हमको भी शहर बुला लो 

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4

परंपराएं


जब गांव सरककर हाईवे पर दुकान खोल लेता है
अपने गांव को याद करना कितना मुश्किल हो जाता है
बेचता है गन्ने का रस, सिगरेट, चाय और पेटिस
यह न जाने कहां से आ जाता है अपने आप दुकानों में

न जाने कैसे लोग आते हैं यहां
बगल में दादी चीखती सी है-
मांगते क्यों है वही जो वे खाना चाहते हैं
हम खाते हैं वे क्यों नहीं खाते वह

ये शहर वाले भी कभी गांव वाले थे
लाल मिर्च की सब्जी और तेल वाला गुरगा
आज क्यों कहते हैं मिर्च कम शकर कम
मीठा खाना तो नहीं रहा बुरा जन्म भर से
फिर शहर में ये क्या करने लगे ऐसा
शक्कर भी नहीं गुड़ भी नहीं मिरचा भी नहीं

अरे हमारी तो परंपरा रही है मीठा खाने की
मिरचा में दगा मुरगा और ज्वार की रोटी

ये शहर वाले मिरचा भी नहीं खाने देते
मीठा भी खाने से डरते डराते हैं भला
सारी ज्वार तुला कर ले गए खेतों से
बीज भी न बचने दे रहे यहां

समेटते से लगते हैं मेरे गांव की परंपराएं
लड़कियां भी गांव में शहर की तरह पंसद करते हैं

एक दादी भी कुछ दिन वकालत करेगी गांव की
फिर चली जाएगी जलने और   में एक दिन के लिए आऊंगा
इसके बाद गांव जल्दी जल्दी शहर होने की कोशिश करेगा

कोई भी कुछ नहीं करेगा
सारे गांव वाले कम शकर और कम मिर्च खाने लगेंगे







  कैसे जानेंगे नेता गरीबी

गरीबी आर्थिक मजबूरी है और ऐसा दुष्चक्र है जो एक से दूसरी पीढ़ी तक चलता रहता है। क्या राहुल जानते हैं प्याज क्यों 100 रुपए किलो है। गरीबों के लिए सबसे मुफीद सब्जियां भी 60 रुपए किलो हैं।



म  ध्यप्रदेश के
देश की राजनैतिक व्यवस्था के लिए बने दल देश के लिए दलदल हो गए? शायद इसलिए कि देश की अल्पज्ञानी सामान्य जनता ने उनको परखने की कोई कसौटी निर्धारित नहीं की, नेतृत्व प्रतिभा हमारे विकास की प्राथमिकता में नहीं रहे। देश की 70 प्रतिशत जनता किसान है या खेती पर निर्भर है। नेतृत्व को उन पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। खेती-किसानी का यह संकट बहुत गहरा और बुनियादी है। बड़ी तादाद में किसानों की आत्महत्याओं में भी यह दिखाई देता है। सरकारी आंकड़ों पर ही गौर करें, तो वर्ष 1995 से लेकर 2011 तक इस देश में लगभग दो लाख 71 हजार किसान खुदकुशी कर चुके हैं। यानी हर साल औसतन 16 हजार किसान आत्महत्या कर रहे हैं। रोज 44 किसान देश के किसी न किसी कोने में आत्महत्या करते हैं। विडंबना यह है कि खेती और किसानों के गहराते संकट के बावजूद उन आर्थिक नीतियों और विकास के उस मॉडल को लेकर कोई पुनर्विचार नहीं हो रहा है, जिनके कारण यह संकट पैदा हुआ है। बल्कि सरकार आंख मूंदकर उसी रास्ते पर आगे बढ़ने पर आमादा है।
गरीबी का अर्थ है समाज में अधिक बेरोजगारी होना। हम देश को विकसित और अंतरराष्ट्रीय नेतृत्व की ओर ले जा रहे हैं या गरीबी-गरीबी का जाप करने के लिए चुनाव लड़ते हैं? अपने समाज के यथार्थ से दूर पश्चिम प्रेरित नीतियों कि वजह से देश का यह आलम है कि देश के बेरोजगारों का एक बहुत बड़ा वर्ग लगभग निष्क्रिय हो गया है। गांवों में गरीबी पसरी है और हमारे नेता उसे देखने जा रहे हैं। क्या गरीबी देखने की चीज है। साठ साल से राजनेता यह देख रहे हैं लेकिन किसी के पास ऐसी दूरदर्शी योजना नहीं है जो गरीबों का वास्तविक भला कर सके। चुनावी मौसम में गरीबी देखना और दिन-रात देश के लिए सोचना दो अलग चीजें हैं। आज देश को दूरदशर््िाता से परिपूर्ण नीतियों की दरकार है।
सागर से लगभग चालीस किलोमीटर दूर राहतगढ़ में कांग्रेस की सत्ता परिवर्तन रैली को संबोधित करते हुए राहुल गांधी ने कहा कि गांव के भोजन और पानी से उनका पेट खराब हो गया, लेकिन उन्हें अच्छा लगा।  नेताओं को पता होना चाहिए कि गांवों में क्या हो रहा है। कितनी गरीबी है। राहुल ने यह भी कहा कि मच्छरों ने उन्हें बेहद काटा, लेकिन गरीब के यहां रहकर उन्हें पता चला कि गांव के लोग किस तरह का जीवन जीते हैं और वास्तविक भारत यही है। अधिक से अधिक नेता इस तरह गांवों में जाएं और वहां के जीवन की वास्तविकता जानें। राहुले के ये विचार अपने आप में सही हैं लेकिन देश के नागरिकों की समस्याओं के समाधान के लिए पर्याप्त नहीं हैं। भारत की वास्तविकता को जानने के लिए चुनाव क्षेत्रों में ही नहीं, कहीं भी जाया जा सकता है। यह जानना भी जरूरी है कि कोई गरीब क्यों है? क्यों आज गांव पिछड़े हैं? देश का राजनीतिक नेतृत्व लोगों को रोजगार और उनकी आजीविका के साधनों को सुनिश्चित कर सका? क्यों हर चुनाव में बार-बार गरीबी की बात करनी होती है? क्या गरीबी से आगे की बात नहीं की जानी चाहिए?

बुधवार, अक्टूबर 09, 2013

तो फिर युद्ध कौन करता है 12

 
दोस्तो

कुछ कविताएं आपके लिए कुछ पुरानी हैं कुछ नई हैं। यह एक कवि गोष्ठी में पढ़ने के लिए चयनित की थीं। सोचा बंच में आपसे भी शेयर की जाएं। आपकी खरी प्रतिक्रिया का इंतजार है...
चलते चलते

चलते चलते रुकते रुकते
सफर ये तेरा पूरा हो

टूट के गिरता बादल पानी
बहता दरिया पूरा हो

महक रही है धूप सुनहरी
दिन ये तेरा पूरा हो

खिड़की में मुस्कान रखी है
घर ये तेरा पूरा हो

तेल मसाले कम और ज्यादा
छौंक तो तेरा पूरा हो

कार के आगे उड़ती तितली
जंगल तेरा पूरा हो

सड़कें जलती आग सरीखी
एसी तेरा पूरा हो

महीना निकले या अटके लेकिन
वेतन तेरा पूरा हो



 पूरा दिन




दिन ने मुझे इस कदर काम पे लगाया
मैं भाग के रात की गोद में छुप गया

सुबह पिता की अंगुली थी
पकड़ के बचपन गुजर गया

भागता हुआ जाता है दिन का छोर
मेरे हिस्से में रह जाती है थकावट भरी शाम

काम का पूरा दिन सिर पर खड़ा रहता है
बाजारों की भागदौड़ में चमकती दोपहर
मेरी पीठ पर सलीब सी टंग जाती है


मैं खींचता हूं पूरा दिन रोशनी से लहुलुहान
सूरज के घोड़े की तरह मैं दौड़ता हूं दुनिया में



 आजादी

सबसे कठिन है आजाद होने की घोषणा करना
आजाद हो जाना आदमी की सबसे बड़ी जिÞम्मेदारी है


 आजादी  माँगना सबसे बड़े भय का सामना करना है
जब हवाएँ सबको एक तरफÞ ले जा रही हो

प्रयत्नों के तिनके छोड़ कर
लोग खाली हाथों को लहराने लगें
तब कठिन हो जाता है आजÞादी की सीमा बताना
जब गुलामी को आजÞादी बताया जा चुका हो
जÞरूरत होती है ऐसी आजÞादी को पहचानना

अपनी आजादी की घोषणा
दुनिया की सबसे बड़ी कीमत चुकाने की शुरुआत है
ये शुरुआत किसी भी क्षण की जा सकती है
0000




कीमत

कीमत केवल शर्ट की नहीं होती
समय परिश्रम सीने में रखे ईमान और जीने की इच्छा का
उसमें शामिल होना जÞरूरी है
बहुत कम चीजÞों की कीमत रुपयों में होती है
हम ज़्यादातर चीजÞो की कीमतें अपने होने से चुकाते हैं

हमें भोर की लालिमा के लिए चुकाना होती है
मीठी नींद और बिस्तर की ऊब
चाँद को देखने के लिए शहर से बाहर जाने की कीमत
कार में बैठे कर काँच लगाने और सफÞर करने के लिए
हमें कीमत चुकाना होती है।

नदी के किनारे पर जाने और नहीं जाने के लिए
संगीतकार को सुनने और नहीं सुनने के लिए
चित्रकार के चित्रों को देखने और नहीं देखने के लिए
कविता को सुनने और नहीं सुनने के लिए
काम करने और नहीं करने की कीमत चुकाना होती है
हमें अपने होने के लिए एक एक सांस देना पड़ती है

पेड़ों की छाँव पाने के लिए
हवाओं में लहराने के लिए
धरती पर एक कदम चलने की कीमत चुकाना होती है
संसार में कुछ भी बेशकीमती नहीं है
कुछ भी ऐसा नहीं है जिसको कीमत न दी जा सके
कीमत केवल रुपयों से अदा नहीं होती



तो फिर युद्ध कौन करता है

वे युद्ध नहीं करते वे सिर्फ हाियार बनाते हैं
Ñ
कभी भी हथियार बनाना युद्ध करना नहीं होता?
वे मुनाफा कमा रहे हैं दुनिया भर से
और मुनाफा कमाना युद्ध करना नहीं हो सकता
मैं देखता हूं और मुझे ऐसा कहना पड़ता है

वे आक्रामक विज्ञापन और तूफानी माहौल बनाते हैं
लॉबिंग करते हैं ब्रांड, बाजार और हथियारों की
मैं फिर कहता हूं विज्ञापन करना युद्ध करना नहीं है

वे रिसर्च करते हैं धरती आसमान और आंतरिक्ष में
वे परमाुण से बिजली बनाते हैं और उससे कुछ बल्ब जलाते हैं
वे बांध बनाने के बाद उनके  सूखने के बारे में सोचते हैं

बिजली से बल्ब जलाना और नदियों के बारे में सोचना
युद्ध नहीं हो सकता -मेरा ऐसा कहना जरूरी है
और भी चीजें हैं- वे शांति की बातें करते हैं
हम सभी जानते हैं शांति की बातें युद्ध नहीं हो सकतीं?

वे संसाधनों को अपने हक में लिखते हैं
वे कहीं कब्जा करते हैं कहीं व्यापार का समझौता
कभी धरती से बहुत सा तेल निकाल लेते हैं
धरती से तेल निकालना युद्ध करना कैसे हो सकता है?

परंपराएं, शहर, गांव और जंगल उनके लिए
दुनिया में बाजारों से खाली जगहें हैं
राजधानियों में इन पर सरकारें संधियां करती हैं
वे उनके और हमारे देश को परस्पर नापते-तौलते हैं-
वे अपने साथ कभी  कोई फौजी नहीं लाते
व्यापारियों के अलावा उनके हवाई जहाज में कुछ नहीं होता
व्यापारियों को साथ लाना युद्ध है? इसे कौन युद्ध कहेगा?

मेरे देश परंपराओं को नष्ट करना वहां अपनी चीजें रखना
युद्ध कैसे हो सकता है- युद्ध तो हथियारों से लड़ा जाता है?
इसीलिए मुझे कहना पड़ रहा है कि वे युद्ध नहीं करते

वे शांति के प्र्रस्ताव लाते हैं और शांति से आते हैं
उन्हें पता है अशांति से बाजार डरता है
इसलिए शांति की बात को युद्ध नहीं कहा जा सकता

दुनिया में और भी कई चीजें हैं जो युद्ध नहीं हो सकतीं
जैसे कि फसलों के बीजों को बदल देना
खेती की तकनीक के बारे में और बातें करना
सरकारों को अपने प्रस्तावों के लिए राजी करना
यह सब करना युद्ध कैसे हो सकता है?

विज्ञापन देखकर और अखबारों को पढ़ कर
कभी नहीं समझा जा सकता कोई भी युद्ध
हमारी जगह उनका होना
या हमारे कुछ व्यापारियों का उनकी तरह हो जानाView blog
इस अदल बदल को युद्ध नहीं कहा जा सकता?
सवाल है कि युद्ध किस चीज को कहा जा सकता है?

कोई जानता हैं कि युद्ध क्या है? तो मैं जानना चाहता हूं
ताकि युद्ध के बारे में कुछ सही सही लिखा जा   सके!




   

समय की चादर


अभी समय की चादर को बिछाया है
दिन के तकिए को सिरहाने रखा है
जिÞंदगी का बहुत सा अधबुना हिस्सा यों ही पड़ा है

शहर में किस को मालूम है
अधबुनी जिÞंदगी कितनी कीमत माँगती है
कोई नहीं बताता प्यार के धागों का पता

अपने शहर को प्यार की खुमारी से देखते हुए
एक अजनबी की मुस्कान में मिलते हैं प्यार के धागे
जिÞंदगी ने अपनी मुस्कान को पूरा कर लिया है

आज दिन के तकिए पर सिर रख कर
जिÞंदगी समय के चादर पर सो रही है
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दोस्ती

दोस्तों एक राह पर साथ चलना नहीं होता
ये अहसास का सफÞर है पूरा नहीं होता

दोस्तों किसी बासीपन को लेकर नहीं चलती
इसकी राह में कोई कदम पुराना नहीं होता

दर्द जिसका चाँद-सा हो खुशी समंदर-सी
इसकी दोस्ती से कोई जहाँ बाकी नहीं होता।

जिÞंदगी की नर्सरी में हजÞार रिश्ते हैं
दोस्ती की महक वाला कोई रिश्ता नहीं होता

दर्द से लबरेज दोस्त है वादे मत करो
सामने चुप खड़े रहना कुछ काम नहीं होता



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एक उदास लड़की और मैं

कल मैं ही था उस उदास लड़की के साथ
मैंने ही उसे कहा था-
तुम्हारी उदासियाँ इस मॉल की रोशनियाँ हैं
कुछ क्षण रुक कर उसने कहा-
मैं अपने दोस्त को एक गिफ्ट छू कर आई हूँ
तब मेरी उँगलियों में बहुत उदासी थी
इसीलिए तो सारी लाइटें उदास हो गईं

चलो मैं अपन पर्स देखता हूँ मैं जÞरा-सा हँसा
और तुम भी अपना पर्स देखो
फिर कुछ दिनों तक मॉल की रोशनियाँ
हमारी आँखों में चमकती रहीं थीं



सब जगह तुम

रोजÞ काम से कमरे पर लौटता हूँ
अक्सर शाम तुम आसपास होती हो

मैं एक रंग से भर जाता हूँ
तुम शाम का रंग हो जाती हो
और मुझे शाम का रंग अच्छा लगता है
मेरी आँखों में फूलों की तरह खिलता है

मेरी आँखें फूलों की तरह दुनिया देखती हैं
और तुम सब जगह मुझे दिखाई देती हो।






आधा बिस्किट

तुम्हारे हाथों से तोड़ा आधा बिस्किट
संसार का सबसे खूबसूरत हिस्सा है
जहाँ कहीं भी आधा बिस्किट है

तुम कहाँ-कहाँ रख देती हो अपना प्यार
बिस्किटों में चारा के सुनहरे पन में
पानी के गिलास और विदा की सौंफ में

तुमने कोने कोने में रख दिया है
हर कहीं मिल जाता है तुम्हारा प्यार

नदियों की ये कैसी चिंता

 

नदी प्रदूषण भारत की बड़ी समस्या है। यह प्रतीकात्मक तरीकों से हल नहीं होने वाली। इसके लिए हमें उद्योग और समाज में ऐसे दूरगामी मॉडल की अवश्यकता है जो उन्हें स्वच्छ रख सके।


अ   खबारों में एक खबर है कि गंगा और यमुना में मूर्तियों को विसर्जित नहीं किया जा सकेगा? यह खबर अच्छी है और आश्चर्यजनक है। लेकिन दो कारणों से चकित करती है। इसके दो करण हैं। एक तो यह  कि कहीं यह नदियों के प्रदूषण से ध्यान हटाने की कोई बड़ी साजिश तो नहीं? और दूसरा यह कि मूर्तियां साल भर में कितना प्रदूषण करती हैं? और मूर्तियां ही क्यों प्रतिबंधित हैं? एक अनुमान के अनुसार चमड़े की फैक्ट्री एक दिन में जितना नदी को प्रदूषित करती है, आस्था से विसर्जित मूर्तियां उतना बीस साल में भी नहीं कर सकतीं। तब सवाल है कि पूरा ध्यान इन मूर्तियों पर इसलिए तो केंद्रित नहीं किया जा रहा है कि इससे बड़े प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों से जनता का ध्यान भंग हो। यहां यह सब कहने का अर्थ यह नहीं है कि रसायनिक रंगों से रंगी मूर्तियां पानी में डालना उचित है। प्रदूषण तो एक बूंद का भी हो तो गलत है लेकिन मूल मुद्दा है कि हम प्रदूषण के हर प्रकार पर बात करें। वह औद्योगिक भी हो, धार्मिक या किसी अन्य प्रकार का, प्रदूषण की संपूर्णता में बात होना चाहिए और हर नदी-नाले, तालाब कुए जैसे भी जल स्रोतों पर यह नियम लागू किया जाना चाहिए। भारतीय हर नदी को गंगा का ही रूप मानता है। वह आधुनिक विकास प्रक्रिया में प्राकृतिक जल संसाधनों का बेरहमी से दोहन और शोषण किए जाने से देश की सभी प्रमुख नदियां जल प्रदूषण, भूक्षरण, की समस्याओं से ग्रस्त हैं और प्रवाह मार्ग में बांध, नहर निर्माण, जल प्रवाह के कृत्रिम मार्ग बनाने की प्रक्रिया आदि से नदियों में उथलेपन, जमाव, प्रवाह गति में कमी आदि की समस्याएं उत्पन्न होने से नदियों का जल ग्रहण क्षेत्र भी कम हो रहा है। भारत की परम पवित्र नदी गंगा में प्रदूषण को लेकर देश भर में चिंता व्याप्त है। भारत सरकार समस्या से अनजान नहीं है। सरकार का प्रदूषण नियंत्रण मंडल और जलसंसाधन मंत्रालय राज्यों के सहयोग से नदियों की स्थिति का जायजा लेती रहती है। जलसंसाधन मंत्रालय की सरकारी रिपोर्ट बताती है कि केवल गंगा ही नहीं बल्कि यमुना, नर्मदा, चंबल, बेतवा, सोन, गोदावरी, कावेरी आदि सभी प्रमुख नदियां जलप्रदूषण की गंभीर समस्या से ग्रस्त हैं और दिनों दिन नदियों में प्रदूषण की समस्या गंभीर होती जा रही है।
गंगा देश की प्रमुख नदी है और उसे पवित्र बनाए रखना समाज की जिम्मेदारी है। अप्रैल 1985 में गंगा एक्शन प्लान की शुरुआत हुई और बीस सालों में इस पर 1200 करोड़ रुपये खर्च हुए। लेकिन हम वे चीजें नहीं हटाते जिनसे प्रदूषण फैलता है। ऋ षिकेश से लेकर कोलकाता तक गंगा के किनारे परमाणु बिजलीघर से लेकर रासायनिक खाद तक के कारख़ाने लगे हैं। उन्हें हटाने के लिए कोई योजना सरकार के पास नहीं है। जिन जनहित याचिकाओं पर यह फैसला आया है उनका प्रयास संपूर्ण प्रदूषण के लिए ध्यान केंद्रित करेगा और लोगों में यह जागरूकता आएगी कि नदियां सामाजिक जीवन का हिस्सा हैं उनकी सुरक्षा और स्वच्छता पहली प्राथमिकता होना चाहिए।

सीमांध्र की आग
वोट के लाभ और लोभ में लिए गए फैसले आग ही उगलते हैं। आंध्रप्रदेश का बंटबारा ऐसा ही फैसला साबित हो रहा है। इस आग में राजनीति रोटिंयां सेंक रही है और राज्य का विकास झुलस रहा है।

कें द्रीय मंत्रिमंडल ने पृथक तेलंगाना राज्य बनाने के सरकार के फैसले के साथ ही विरोध की दबी हुई चिंगारी आग की लपटों में बदल गई। हाल ही में इस विरोध को जगनमोहन रेड्डी ने यह कह कर नई हवा दी है कि राज्य को बांटने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी जिम्मेदार हैं और उनका एकमात्र लक्ष्य है राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाना। जगनमोहन रेड्डी सीमांध्र में बहुत लोकप्रिय हैं और उनके लिए राज्य का बंटवारा एक राजनीतिक वरदान साबित हो रहा है। तेलंगाना मुद्दे का फायदा उठाने में चंद्रबाबू नायडू जगन से पीछे  हैं क्योंकि उन्होंने काफी दिनों तक तेलंगाना बनाए जाने का विरोध नहीं किया था और उनका रवैया भी इधर उधर वाला रहा था। लेकिन कुल मिला कर यही कहा जा सकता है कि हर पार्टी और छोटे दल अपनी अपने चुनावी गणित में उलझे हैं और जनता को राज्य के बंटबारे की आग में झुलसने छोड़ दिया है।
 अलग राज्य की मांग को लेकर हिंसा और उपद्रव अब देश की राजनीतिक संस्कृति का अंग बन चुके हैं, लेकिन तेलंगाना के मामले में फिलहाल एक उलटी प्रक्रिया आकार ले रही है। वहां सीमांध्र के नाम से पुकारे जा रहे शेष आंध्र प्रदेश में राज्य के विभाजन के खिलाफ कहीं ज्यादा बड़े उपद्रव की रूपरेखा तैयार होती दिखाई पड़ रही है जबकि तेलंगाना को अलग राज्य बनाने का आंदोलन काफी पुराना है। यूपीए ने पिछले आम चुनाव में दबे ढंग से और उसके तुरंत बाद खुलकर इस आंदोलन के पक्ष में अपनी राय जाहिर की थी। ऐसे में अच्छा होता कि बीते पांच सालों में राज्य के व्यवस्थित विभाजन को लेकर सारी तैयारियां की जातीं। लेकिन जगनमोहन रेड्डी से कांग्रेस और यूपीए के जिम्मेदारों का कोई संवाद ही नहीं बन पाया। यह सब अचानक नहीं हो रहा है। कुछ सालों से आंध्र प्रदेश की राजनीति को जोड़े रखने वाले सूत्र पूरी तरह टूट चुके हैं और अलग राज्य का मामला वहां हिंसा   और घृणा का सबब बन गया है। सबसे बड़ी मुश्किल हैदराबाद को लेकर है क्योंकि पिछले दो दशकों से राज्य के सारे ही जिलों से पूंजी उठ-उठकर हैदराबाद और इसके आस-पास के इलाकों में आ रही है। तटीय आंध्र और रायलसीमा इलाकों के जिन लोगों ने लाखों-करोड़ों रुपए का निवेश, मकान, जमीन और फैक्टरियों में फंसा रखे हैं, और साथ में जो हजारों लोग  नौकरी करते हैं, उन सभी को हैदराबाद के तेलंगाना का हिस्सा बन जाने से अपनी पूरी दुनिया उजड़ती हुई लग रही है। सीमांध्र के लिए एक नई राजधानी और रोजी-रोटी देने वाला एक बड़ा औद्योगिक इलाका बनाना दस-बीस साल का काम है, जिसमें एक पूरी पीढ़ी खप जाएगी। ऐसे में लोगों को भरोसा दिलाने का काम बड़े राष्ट्रीय प्रयासों के जरिए ही हो सकता है। मुश्किल यह है कि अगले छह महीनों के चुनावी माहौल में इस तो क्या किसी भी मुद्दे पर न्यूनतम राष्ट्रीय सहमति बन पाने की भी कोई गुंजाइश नहीं है। ऐसे में सभी से शांत रहने और सारे मामले सुलझाने के लिए मुश्किल आशा ही की जा सकती है। आने वाले समय में बंटबारे की राजनीति अपना असर दिखाएगी।

बुधवार, सितंबर 18, 2013

रक्तअल्प महिलाएं


महिलाओं में कुपोषण की स्थिति गंभीर है। देश में पचास प्रतिशत से अधिक महिलाएं एनिमिक हैं। यह खानपान और चिकित्सा से जुड़ा गंभीर मसला है और हमारे प्रयास बेहद सीमित।

संसद की महिलाओं के पोषण से संबंधित काम काज देखने वाली केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय पर लोकसभा की प्राक्कलन समिति ने सरकार को इस बात के लिए पटकारा है कि देश में आज भी 70 प्रतिशत बच्चे और 60 प्रतिशत महिलाएं कुपोषण का शिकार हैं। देश तमाम प्रौद्योगिक विकास कर रहा है, संचार और तकनीकी के इस युग में इतना कुपोषण शर्म का विषय है। कुपोषण रोकने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन के नए ग्रोथ चार्ट  के बाद भी देश में बच्चों एवं महिलाओं की स्थिति जस की तस है। इससे लगता है िक हमारे सरकारों और उनके विभागों के बीच समन्वय का भारी अभाव है। कुपोषण खत्म करने के लिए जो योजनाएं लागू की गई हैं वे जमीनी स्तर पर प्रभावी नहीं हो पा रही हैं। आंगनवाड़ियों और स्वास्थ्य विभाग में व्यापक समन्वय की कमी है। अधिकांश बच्चों का वजन नहीं लिया जाता है। ऐसे में वास्तविकता का पता नहीं चल पाता। एक समय प्रधानमंत्री ने भी कुपोषण को देश के लिए राष्ट्रीय शर्म बताया था। लेकिन देश के लोगों के सामने एक यही नहीं, ऐसी न जाने कितनी राष्ट्रीय शर्में पानी भर रही हैं। सरकार और समाज दोनों के बीच कोई चेतना और समस्याओं के प्रति जुझारूपन देखने नहीं मिलता।
इसी समिति ने यह भी बताया है कि देश में बच्चों में कुपोषण 1998-99 के मुकाबले 2005-6 में 80 प्रतिशत हो गया। यानी कुपोषण की दर बढ़ी है। यह गंभीर मामला है कि हम जिस स्तर को स्थिर नहीं रख सके तो कम से कम उसे दुर्गति की ओर तो नहीं जाने दिया जाना चाहिए।
ग्रामीण क्षेत्रों में सुदृढ़ होती स्वास्थ्य व्यवस्थाए किसी सरकारी विज्ञापन का हिस्सा हो सकता है लेकिन वास्तविकताओं से इसका बहुत वास्ता नहीं होता। हर बार बजट बढ़ता है और हर बार कुपोषण भी सामने आता है। लेकिन हर बार कुपोषण, रक्त अल्पता, निरक्षरता की शिकार महिलाओं की संख्या करोड़ों में बाकी रहती है। कुपोषण और एनिमिक होने में कम उम्र में विवाह लड़कियों के लिए अभिशाप बन जाता है। यानी बाल विवाह भी देश में जारी है। आज देश में करीब 40 प्रतिशत लड़कियों का बाल विवाह होता। जिस वक्त संयुक्त राष्ट्र बाल विवाह को रोकने की बात कर रहा था ठीक उसी वक्त हरियाणा राज्य में एक राजनैतिक पार्टी के नेता 15 वर्ष में लड़कियों के विवाह की सलाह दे रहे थे।  भारतीय समाज, यहां का शासक वर्ग अपने हितों को बनाये रखने व राजनैतिक पार्टियां अपने चुनावी गणित की दृष्टि से पिछड़े सामंती मूल्यों को बनाये रखे हुये हैं। यही कारण है कि भ्रूण हत्या, बाल विवाह, दहेज प्रथा जैसी तमाम स्त्री विरोधी प्रथाएं और परंपराएं मौजूद हंै। शासक वर्ग इनका समाधान करने में कोई दिलचस्पी नहीं रखता है। वह मात्र कुछ रस्म अदायगी करके अपने कर्तव्य की इति श्री कर लेता है। आवश्यकता इस बात की है कि नीव में चोट करने वाले, व्यापक आंदोलन की शुरूआत हो। ये समस्याएं हैं तो इसका अर्थ है कि हम विकास के वास्तविक लक्ष्य को हासिल करने में एक असफल समाज हैं।

लालबत्ती: नया सामंतवाद
लालबत्ती समाज से अलग करती है। यह बयान लोकतंत्र के प्रति सच्ची भावना से पैदा हुआ है। हम सब भारतीय हैं और हमें अपने कामों से खास होना चाहिए न कि लालबत्ती लगा कर घूमने से।
ज ब किसी चीज को छुपाना होता है तो हर इंसान अपने आसपास तामझाम पैदा करता है। लालबत्ती एक ऐसा तामझाम है जिसमें जनता का प्रतिनिधित्व या सेवा करने वाला व्यक्ति खुद को छुपा लेता है। हूटर या लालबत्ती की आड़ में व्यक्ति सेवा नहीं अहंकार प्रदर्शित करता है। लाल बत्ती कार्य की सुविधा के लिए लगाई जाने वाली एक सुविधा थी लेकिन आज यह एक ऐसा प्रतीक बन गई है जिसमें विशिष्टाबोध समाया है। लोकतंत्र में औरों से खास दिखन के लिए लाल बत्ती नहीं जरूरी है कि हमारे काम खास हों। लाल बत्ती के मामले में कांग्रेस नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया का यह बयान लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुकूल है कि लाल बत्ती समाज से अलग करती है। एक नेता को, राजनीतिक समाज सेवा करने वाले व्यक्तित्व को लालबत्ती नहीं काम की आवश्यकता है। लालबत्ती के सदुपयोग की उतनी खबरें नहीं आतीं जितनी कि उससे मार्फत रौब गांठने महज स्टेटस सिंबल को साधने के लिए वाहनों में लालबत्ती और सायरन के दुरुपयोग पर सुप्रीम कोर्ट पूर्व में ही चिंता जता चुका है। केंद्र और राज्य सरकारों को इसके नियमों पर पुनर्विचार करने का सुझाव दिया था।  बड़े ओहदेवालों को छोड़कर इनका इस्तेमाल करने के बारे में अब वह नियम तय करेगी। कोर्ट ने कहा है कि निर्धारित नियम के मुताबिक सिर्फ एंबुलेंस, फायर बिग्रेड, पुलिस और सेना की गाड़ी में सायरन होना चाहिए बाकी सभी से इन्हें हटा दिया जाना चाहिए। लालबत्ती लगाने की अनुमति सिर्फ संवैधानिक पदों पर आसीन लोगों मसलन, राष्ट्रपति, राज्यपाल, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, संसद व विधानसभा के स्पीकर, मुख्य न्यायाधीश और राज्य के उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों को ही होनी चाहिए। ऐसे ही किसी कार्य के लिए निश्चित वाहन को छोड़कर अन्य किसी भी सरकारी वाहन में लालबत्ती लगाने की अनुमति नहीं होनी चाहिए। लालबत्ती कल्चर पर सुप्रीम कोर्ट का यह हस्तक्षेप   स्वागतयोग्य है। गुजरते वर्षो के साथ ये संस्कृति फैलती गई है। गाड़ियों के ऊपर लगी लालबत्तियां ताकत की निशानी बन गई हैं। देखा गया है कि अक्सर सत्ताधारी राजनीतिक दल अपने असंतुष्ट नेताओं को खुश करने के लिए लालबत्ती और सुरक्षाकर्मी की सुविधाएं दे देते हैं। दिल्ली का उदाहरण लें, तो यहां संवैधानिक अधिकारियों के अतिरिक्त अन्य कथित खास लोगों की सुरक्षा पर सरकार के लगभग बीस करोड़ रुपए हर महीने खर्च होते हैं, जहां 4000 से ऊपर कर्मी ऐसे लोगों की हिफाजत में तैनात हैं। यही हाल दूसरे राज्यों का भी है। जिस देश में पुलिसकर्मियों की संख्या प्रति एक लाख की आबादी पर सिर्फ 130 है । संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक यह 222 होनी चाहिए। वहां ये कितना महत्वपूर्ण मुद्दा है, समझा जा सकता है। वीआईपी की सुरक्षा के खास इंतजामों से जहां आमजन की सुरक्षा कमजोर होती है और राजकोष पर बेजा बोझ पड़ता है, वहीं आम नागरिक को भारी परेशानी भी झेलनी पड़ती है। यह रुझान खास और आम के बीच ऐसी खाई पैदा करता है, जो लोकतंत्र की मूल भावना के बिल्कुल खिलाफ है।
नई जिम्मेदारी अग्नि-5
अग्नि पांच के माध्यम से भारत ने फिर अपनी सामरिक वैज्ञानिक क्षमता को स्थापित किया है। मिसाइल परीक्षण सिर्फ ताकत का पर्याय नहीं हैं, ये देश को वैश्विक भूमिका के लिए आत्मविश्वास भी लेकर आते हैं।

भा रतीय मिसाइल वैज्ञानिकों ने देश की सैनिक ताकत को फिर विश्व में स्थापित किया है। मिसाइल परीक्षण का अर्थ सिर्फ सैनिक ताकत नहीं होता। यह एक देश की वैज्ञानिक प्रगति का सोपान भी है। परमाणु बम गिराने में सक्षम लांग रेंज की अग्नि-5 बैलेस्टिक मिसाइल का दोबारा सफल परीक्षण कर वैज्ञानिकों ने भारत से होड़ करने वाली ताकतों को संदेश दिया है कि हम किसी भी मिसाइली हमले का जवाब देने में पूरी तरह सक्षम हैं। बहरहाल,भारतीय मिसाइल कार्यक्रम की शुरुआत डॉ. कलाम के आने से हुई थी तो यह कहना अतिकथन नहीं होगा। कलाम 1962 में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन में आए। उन्हें प्रोजेक्ट डायरेक्टर के रूप में भारत का पहला स्वदेशी उपग्रह एस.एल.वी. तृतीय प्रक्षेपास्त्र बनाने का श्रेय हासिल हुआ। 1980 में इसरो लांच व्हीकल प्रोग्राम को परवान चढ़ाने का श्रेय भी उनको जाता है। डॉक्टर कलाम ने स्वदेशी लक्ष्य भेदी यानी गाइडेड मिसाइल्स को डिजाइन किया। अग्नि एवं पृथ्वी जैसी मिसाइलों को स्वदेशी तकनीक से बनाया। जब वे भारतीय रक्षा अनुसंधान एवं विकास संस्थान में निदेशक के तौर पर आए तब उन्होंने अपना सारा ध्यान गाइडेड मिसाइल के विकास पर केन्द्रित किया था। आज की अग्नि और पृथ्वी मिसाइल का सफल परीक्षण का श्रेय काफी कुछ उन्हीं को है। भारत की विभिन्न मिसाइलें देश की सुरक्षा प्रणाली का बेहद अहम हिस्सा हैं। इनमें कई जमीन से जमीन तक मार करने वाली मिसाइलें हैं तो कुछ जमीन से हवा में मार करने वाली। भारत के पास समुद्र में से दागी जा सकने वाली मिसाइलें भी हैं।
अग्नि मिसाइलें भारतीय मिसाइल प्रणाली की मुख्य रीढ़ हैं। देश में जो भी मिसाइल-परीक्षण किया जाता है,उस पर देश के करोड़ों लोगों की निगाह रहती है। इन्हें भारत की रक्षा-क्षमता और वैज्ञानिक-तकनीकी क्षमता का प्रमाण माना जाता है। इसे पड़ोसी डर और आशंका की नजर से देखते रहे हैं। इस सिलसिले में पाकिस्तान का नजÞरिया थोड़ा-सा अलग है। अग्नि-5 के परीक्षण पर दुनिया भर में हुई प्रतिक्रिया ने इस तथ्य को रेखांकित किया है कि चीन और पाकिस्तान के अलावा हमने कोई नए दुश्मन नहीं बनाए हैं। यहां तक कि भारत के परमाणु तथा अन्य सुरक्षा कार्यक्रमों पर तपाक से बयान जारी करने वाले आॅस्ट्रेलिया जैसे देशों ने भी इस बार कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं की। यह चीन के बरक्स उभरती हुई एक नई शक्ति के प्रति विश्व समुदाय की मौन स्वीकृति है। इतनी ज्यादा रेंज वाली मिसाइल की क्षमता अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस और ब्रिटेन के पास है। सैन्य लिहाज से तो शायद हमें इसकी जरूरत कभी न पड़े, लेकिन राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में इस तरह का कदम बेकार नहीं जाएगा। वह हमें विश्व के शक्ति-सम्पन्न देशों की कतार में खड़ा कर सकता है। उस कतार में, जहां अभी इंग्लैंड और फ्रांस जैसे देशों की भी उपस्थिति नहीं है, यानी अमेरिका, रूस और चीन की श्रेणी में। इस परीक्षण के बाद भारत दूरगामी राजनीतिक, कूटनीतिक और सैन्य संदर्भ नए आयाम हासिल करेगा।

मंगलवार, सितंबर 03, 2013

भूमि अधिग्रहण के अर्थ

  भूमि अधिग्रहण के अर्थ
उचित या अधिक मुआवजा किसी भी तरह परिवेश और पर्यावरण की क्षतिपूर्ति नहीं हो सकता। खेती की जमीन के बाद किसान परिवारों की आजीविका और पर्यावरण को सुनिश्चित किया जाना भी जरुरी है।

भू मि अधिग्रहण एक बहुत ही संवेदनशील प्रश्न रहा है और खाद्य सुरक्षा विधेयक के बाद संप्रग सरकार ने एक महात्वाकांक्षी ‘भूमि अधिग्रहण’ विधेयक को मंजूरी दे दी। अब किसानों की भूमि का जबरदस्ती अधिग्रहण नहीं किया जा सकेगा। विधेयक में ग्रामीण इलाकों में जमीन के बाजार मूल्य का चार गुना और शहरी इलाकों में दो गुना मुआवजा देने का प्रावधान है।
यह बिल उचित मुआवजे पर जोर देता है जिसमें शहरों में दुगुना और ग्रामीण इलाकों में बाजार मूल्य का चार गुना देने की बात कही गई है। लेकिन जो असल सवाल थे उन पर इसमें खास जोर नहीं दिया है। हम आज भी प्राकृतिक संसाधनों से संबंधित बिल या नीतियां बनाते वक्त सदैव मानव और उसके भौतिक-आर्थिक विकास को ही केंद्र में रखते हैं। हम भूल जाते हैं कि कुदरत के सारे वरदान इंसानों के लिए नहीं हैं। इन पर प्रकृति के दूसरे जीवों का भी हक है। कितने ही जीव व वनस्पतियां ऐसी हैं, जो हमारे लिए पानी, मिट्टी व हवा की गुणवत्ता सुधारते हैं। उन पर ध्यान देना हमें याद नहीं रहता। सरकार या उद्योगपति भूमि अधिग्रहण कर लेंगे लेकिन वहां रहने वाले पशु पक्षी वनस्पति और भूसंरचना को खराब करने का अधिकार उसे क्यों मिलेगा? क्या फैक्ट्री और कारखाने लगाना ही विकास है। जीवन की गुणवत्ता का कोई सवाल हमारे सांसद , सरकारें और पार्टियां नहीं करती हैं। लोकसभा की स्टैंडिंग कमेटी में सर्वदलीय सहमति होने के बावजÞूद भी कमेटी की सिफÞारिशों को लागू नहीं किया गया है। इस बिल पर जो ग्रुप आॅफ मिनिस्टर्स बना जिसमें वित्त मंत्री, कृषि मंत्री और वाणिज्य मंत्री शामिल थे उन्होंने ही इस बिल को कमजÞोर किया है।  भूमि अधिग्रहण के मामले में अब तक सभी सरकारों ने अपनी-अपनी नीति को सर्वश्रेष्ठ कहा है। भूमि अधिग्रहण को लेकर सभी सरकारें उद्योगों के साथ पूरी ताकत से खड़ी रही हैं। यह गलत तो नहीं है, लेकिन नए कानूनों में खेती, जंगल, मवेशी, पानी, पहाड़ और धरती से किसी को हमदर्दी नहीं है। 
पूर्व में अधिग्रहित औद्योगिक क्षेत्र बड़े पैमाने पर खाली पड़े हैं; बंजर भूमि का विकल्प भी हमारे पास है, लेकिन उसका इस्तेमाल हम करना नहीं चाहते। ताजा अधिग्रहणों में जरूरत से ज्यादा भूमि अधिग्रहण की शिकायतें हैं। खेती व खुद को बचाना है, तो भूमि तो बचानी ही होगी। किसान खेत के माध्यम से सिर्फ अपना पेट ही नहीं भरता; वह दूसरों के लिए भी फसलें उगाता है। उसके उगाये चारे पर मवेशी जिंदा रहते हैं। जिनके पास जमीनें नहीं हैं, ऐसे मजदूर व कारीगर अपनी आजीविका के लिए  कृषि भूमि व किसानों पर ही निर्भर करते हैं। इस तरह यदि किसी अन्य उपयोग के लिए बड़े पैमाने पर कृषि भूमि ली जाती है, तो इसका खामियाजा स्थानीय पर्यावरण को भी भुगतना पड़ता है। उन्हें कौन मुआवजा देगा? सवाल कई हैं इस बिल में निजी कार्यों के लिए उपजाऊ कृषि भूमि को हतोत्साहित करने का कोई प्रावधान नहीं है, बस अधिक पैसे देकर किसानों की भूमि लेना ही प्रमुख है।






सजा के बाद निराशा
उम्र और क्रूरता के बीच सीधा रिश्ता नहीं होता लेकिन जब क्रूरता उम्र पर हावी हो तो उम्र नहीं क्रूरता ही देखी जानी चाहिए। दामिनी रेप केस में नाबालिग को तीन साल की सजा मिली है।



दि ल्ली में गैंगरेप के नाबालिग यानी जिसकी उम्र अठारह साल से कुछ कम थी, को जुबेनाइल जस्टिस कोर्ट से सजा मिल चुकी है। इस सजा से पीड़ित का परिवार और सामाजिक रूप से सक्रिय लोग निराश हैं। लोगों के निराश होने का कारण लड़के को कम सजा होना नहीं, बल्कि उसकी क्रूरता के जो किस्से सामने आए थे, उसके अनुसार सजा न मिलने से निराश हैं। लड़के ने जो क्रूरता बरती थी उससे नहीं लगता है कि वह कानून व्यवस्था से डरने वाला  किशोर था। आज लोग इस कानून को बदलने की बात कर रहे हैं। बलात्कार को लेकर  भारतीय दंड संहिता में18 साल से कम उम्र में किए गए अपराध को बाल अपराध मानता है। इस बाल अपराध की अधिकतम तीन साल की सजा के साथ आरोपी को बाल सुधार गृह भेज देता है। यही कानून इस क्रूर अपराधी के बचने का कारण है। देश में हलचल मचाने वाले इस बर्बर गैंगरेप और हत्या के केस में आरोपी को फायदा मिल चुका है। दूसरी तरफ लड़की के पिता ने बालिग और नाबालिग का भेद मिटाने की अपील की है। पीड़िता के पिता ने कहा है कि बलात्कारी सिर्फ बलात्कारी है और उसे सख्त सजा दी जानी चाहिए। फांसी के अलावा कोई रास्ता नहीं होना चाहिए। यह विचार पीड़िता के परिजनों के हैं लेकिन बहस और विचार का मुद्दा है कि ऐसे नाबालिग जो क्रूरता और हत्या में शामिल हों, उनके मामले में उनकी मानसिकता को भी शामिल करना आवश्यक है। ऐसे मामले में भौतिक उम्र के आधार पर नाबालिग न माना जाए। उनकी मानसिक उम्र से भी उनके अपराध की गंभीरता को आंका जाना चाहिए।
आज दिल्ली के सर्वेक्षणों में यह बात साबित हो रही है कि नाबालिग की बड़े अपराधों में भागीदारी बढ़ रही है। ज्यादातर गलत काम करते हुए नाबालिग जानते हैं कि वे बच जाएंगे। ऐसे में यह छूट बेमानी हो जाती है। अब दूसरा सवाल है कि मौजूदा भारतीय कानून बलात्कार या महिलाओं के खिलाफ अपराध को   लेकर संवेदनशील नहीं है। जबकि ये वो इंसान है जो भले ही नाबालिग हो लेकिन उसने काम राक्षसों का किया। लड़की को टॉर्चर करने का सबसे जघन्य अपराध उस पर साबित हो चुका है। लड़की की मौत का सबसे बड़ा जिम्मेदार ये लड़का ही है। जांच में साबित हुआ है कि खुद को नाबालिग बताने वाले इस लड़के ने गैंगरेप के दौरान लड़की पर बेतरह जुल्म ढाए। हालांकि उतने ही दोषी वो लोग भी हैं जो इसके साथ थे या यह जिनके साथ था।
नाबालिगों के लिए बने कानून की बात करें तो नाबलिग कानून तब बनाया गया था जब समाज में इतनी आक्रामकता और हिंसा नहीं थी। जिन नौनिहालों को ध्यान में रख कर पहले के कानून बनाए गए थे..जिनसे यदा-कदा ही अपराध हो जाया करते थे। बच्चे तब अबोधता में ही रहा करते थे। लेकिन आज प्मासूमियत नहीं रहीं। नई पीढ़ी निरंकुश और स्वेच्छाचारी होने के कारण अपराध की ओर तेजी से अग्रसर है। बेहद क्रूर और विकृत मानसिकता वाले नए  नाबालिगों को सजा से मुक्त नहीं किया जा सकता।


पारिवारिक कलह निजी जीवन में अशांति का बड़ा कारण बन रही है। इससे स्त्री पुरुष दोनों परेशान हैं। लेकिन ऐसा क्यों हो रहा कि यह कलह अत्यंत हिंसक होती जा रही है।
पारिवारिक कलह में


इंदौर की घटना ने एक बार फिर पारिवारिक कलह के भयावह परिमाण उजागर किए हैं। परिवारों में खासकर एकल परिवार जिन्हें आजकल न्युक्लियर परिवार कहा जाता है, इनमें आपसी कलह के चलते हिंसा और आत्महत्या के मामले बढ़ रहे हैं। सामान्य रूप से यह कोई राजनीतिक संकट नहीं है लेकिन यह एक बड़े सामाजिक संकट के रूप में उभर कर सामने आ रहा है। परिवार में पति पत्नी के अलावा कोई नहीं होता। बच्चे पति पत्नी की लड़ाई को समझते नहीं हैं। इस कलह के दौरान वे सिर्फ मानसिक प्रताड़ना ही भुगतते रहते हैं और अक्सर गुमसुम रहने लगते हैं। पति-पत्नी की रोज रोज की लड़ाई, झगड़ा और कलह से क्रोध, आवेश, कुंठा और घृणा को ऐसा जहर बनता है जिसमें व्यक्ति हत्या अथवा आत्महत्या की और अग्रसर हो जाता है। करने के बाद उसे होश आता है कि आखिर उसने क्या कर डाला। इंदौर की इस घटना में भी क्रोध की पराकाष्ठा, पूर्व में चल रही कलह से पैदा घृणा और व्यक्ति की हताशा प्रमुख है। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि हत्या अथवा आत्महत्या अंतर्मुखी और बहिर्मुखी व्यक्तित्व का हिस्सा होती हैं। पारिवारिक कलह में आत्म-हत्या करने का निर्णय एक ‘फ्रिक्शन आॅफÞ सेकेण्ड का निर्णय’ है, जब बच्चों अथवा बड़ों का मन बिलकुल हताश हो जाता है. हताश होने के बहुत सारे कारण हों सकते हैं लेकिन किसी भी परिस्थिति में उनका आत्म-विश्वास टूटना या फिर परिस्थितियों का सामना करने की मानसिक विफलता अधिक महत्वपूर्ण होता है. उस वकÞ्त ‘अच्छे’ या ‘बुरे’ का निर्णय करने में वे विल्कुल नाकाम होते हैं. कभी-कभी वे यह भी सोचते है हों शायद ऐसा करने से सभी परिस्थितियां ‘अनुकूल’ हों जाएंगी। लेकिन यह सिर्फ अहंकार का टकराव बन कर रह जाता है। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि आम तौर पर परिवार में कलह, चाहे संयुक्त परिवार ही क्यों न हों, परिवार का कोई भी सदस्य अपनी किसी एक गलती को छिपाने के लिए एक अलग तरह का व्यवहार करने लगता है, जो सामान्य नहीं होता। उसका यह असामान्य व्यवहार प्राय: शक के दायरे में आ जाता है और फिर होती है कलह। यह अक्सर पति -पत्नी के बीच ज्यादा दिखता  है, जो न केवल बच्चों की मानसिक दशा को नकारात्मक तरीके से प्रभावित करता है बल्कि अंत में आत्म-हत्या करने की ओर भी उन्मुख करता है। इनमें अधिकांशत: पुरुष ही आगे होते हैं। पिछले वर्ष 2011 में कुल 33,000 ऐसी आत्म हत्याएं हुर्इं जिसमें पुरुषों की संख्या पैसठ फीसदी से ज्यादा थी। जीवन का अंत किसी भी स्थिति में समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। इस मनोदशा की उत्पत्ति अधिकाशत: परिवार से होती है, जहां विभिन्न परिस्थितियों में जन्म लेती है। कार्यस्थल और परिवार के बीच समन्वय न होना भी इसका कारण है। पारिवारिक बंधनों की जकड़न, सहनशीलता की कमी, पारिवारिक अकेलापन आदि के साथ एकल परिवारों में सामाजिक लुब्रीकें ट की कमी देखी जा रही है, इससे पैदा हताशा आत्मघात की ओर धकेलती है।

शुक्रवार, अगस्त 30, 2013

संसद की सर्वोच्चता की चिंता



  हमारे सांसद निहित स्वार्थों के उदाहरण बनते जा रहे हैं। संसद की सर्वोच्चता की चिंता, जनप्रतिनिधि कानून में बदलाव जनता की आकांक्षा के खिलाफ, संसद अपने भविष्य की चिंता में डूबा हुआ समूह दिखाई देने लगी है।


आपराधिक मामलों में सजा पाए सांसदों को चुनाव मैदान से दूर रखने की सुप्रीम कोर्ट की कोशिशों को हमारे माननीय सांसदों ने नकार दिया है। राजनीतिक पार्टियों ने राजनीतिक अपराधिकरण के खिलाफ जनता के सामने खूब गाल बजाए हैं लेकिन असल जगह पर वे प्रतिरोध न कर सकीं।  कैबिनेट ने जनप्रतिनिधित्व कानून में बदलाव के फैसले को मंजूरी दे दी है। यह सब सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर संसद का पलट वार ही है। सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका पर कहा था कि अगर किसी आपराधिक मामले में सांसद या विधायक को दो साल से ज्यादा की सजा मिली तो उससे वोट देने का अधिकार छिन जाएगा और वो चुनाव भी नहीं लड़ सकेगा। लेकिन मानसून सत्र से पहले एक सर्वदलीय बैठक में तमाम दलों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सख्त रुख दिखाते हुए इसे बदलने की अपील की थी। इसी विरोध के कारण सरकार जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(4) में बदलाव कर दिया। यह सरकार और राजनीतिक निहित स्वार्थों की मिलीभगत थी। हमारे संविधान का यह अजीब लचीलापन है कि कानून तोड़ने वाला अपराधी ही नए कानून का निर्माता बन जाता है। जबकि देश का सामान्य नागरिक आपराधिक छवि वाले जनप्रतिनिधियों  से  परेशान  है।  राजनीतिक परिदृश्य में उनकी संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। इससे समाज में अपराधियों को प्राश्रय मिलता है और आपराधिक मानसिकता वाले लोग हावी होते हैं। सामाजिक कार्यकर्ता ओमिका दुबे द्वारा दायर याचिका पर गौर करें तो देश में मौजूद 4835 सांसदों और विधायकों में से 1448 के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं। आपराधिक छवि वाले जनप्रतिनिधियों की संख्या में निरंतर बढ़ोत्तरी हो रही है। यह अपराध का राजनीतिकरण है। नामजद और सजायाफ्ता दोषियों को चुनाव लड़ने का अधिकार जनप्रतिनिधित्व कानून के जरिये मिला हुआ था लेकिन इस विधि-सम्मत व्यवस्था के विपरीत संविधान के अनुच्छेद 173 और 326 में प्रावधान है कि न्यायालय द्वारा अपराधी करार दिए लोगों के नाम मतदाता सूची में शामिल नहीं किए जा सकते हैं। यहां सवाल उठता है कि जब संविधान के अनुसार कोई अपराधी मतदाता नहीं बन सकता है तो वह जनप्रतिनिधि बनने के लिए निर्वाचन प्रक्रिया में भागीदारी कैसे कर सकता है? जनहित याचिका इसी विसंगति को दूर करने के लिए दाखिल की गई थी।  न्यायालय ने केन्द्र सरकार से पूछा था कि यदि अन्य सजायाफ्ता लोगों को निर्वाचन प्रक्रिया में हिस्सा लेने का अधिकार नहीं है तो सजायाफ्ता सांसदों व विधायकों को यह सुविधा क्यों मिलनी चाहिए? लेकिन सरकार ने कहा कि वह इस व्यवस्था को नहीं बदलना चाहती। उसने नहीं बदला। हितों के टकराव में सबसे पहले शुचिता पराजय होती है, इस संशोधन में देश की सभी राजनीतिक पार्टियों की स्वीकृति थी। हमारे नेता नहीं चाहते कि राजनीति से अपराधी दूर रहें। इस संशोधन के बाद नेताओं का दागी अतीत, वर्तमान और भविष्य में भी जनप्रतिनिधित्व करता रहेगा।

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युवाओं की कमजोरी
लोकतंत्र में हिंसा की राजनीति स्वीकार्य नहीं हो सकती। भय, भेदभाव और असहिष्णुता जैसे दुर्गुण लोकतंत्र में वैचारिक कमजोरी से आते हैं। लोकतंत्र के लिए युवाओं को वैचारिक दृढ़ता हासिल करना चाहिए।


म ध्यप्रदेश में युवक कांग्रेस में अध्यक्ष पद के उम्मीदवारों के बीच जमकर हंगाम हुआ। हंगामा विचार विमर्श के माध्यम से होता तब भी ठीक था लेकिन इसमें कुछ उम्मीदवार हथियारों के साथ आए थे और कुछ ने इनका इस्तेमाल भी किया। क्या यह युवाओं में लोकतांत्रिक मानसिकता का हास है? ऐसी घटनाएं लगभग सभी पार्टियों में कभी न कभी हुई हैं। लोकतंत्र में धमकी, लोभ, भय, भेदभाव और मानसिक प्रताड़ना का कोई स्थान नहीं है। मानसिक सक्षमता और वैचारिक ताकत ही लोकतंत्र का असली चरित्र है। इसका कारण है कि हम युवाओं को यह विश्वास नहीं दिला सके हैं कि लोकतंत्र में जीत हथियारों की ताकत नहीं सेवा और वैचारिक ताकत से हासिल की जाती  है। इस घटना की व्याख्या ऐसे भी हो सकती है कि कहीं गलत लोग ही इस लोकतंत्र का हिस्सा होने की कोशिश तो नहीं कर रहे हैं। युवा देश के  लोकतांत्रिक इतिहास को नहीं समझेगा, तब तक वह समाज में एक बड़ी जिम्मेदारी के लिए तैयार हो सकता। लोकतंत्र में कच्ची मानसिकता और अधैर्य हथियारों की ओर ले जाता है। क्या युवाओं को लोकतंत्र का अर्थ सिर्फ चुनाव जीतना ही बताया गया है? अगर ऐसा है तो हम सब एक बड़ी भूल कर रहे हैं।
इतिहास को देखें तो भारत की राजनीति को दिशा देने वाले युवाओं में भगत सिंह का नाम सम्मान से लिया जाता है। हिन्दुस्तान के इतिहास में युवा भगत सिंह का होना एक बड़ी घटना थी। मात्र 23 साल की उम्र में उन्होंने देश के विकास के लिए कितने सपने देख डाले थे। देश के युवा उनके इशारों पर फांसी के फंदे को भी चूमने के लिए तैयार रहते थे। उस समय मतवालों की फौज ने ही देश की राजनीति में युवाओं को आगे आने के लिए पथ-प्रदर्शन किया। लेकिन आज यह स्थति नहीं है और बेशक स्थितियां बदली हैं लेकिन आधारभूत तत्व नहीं बदले हैं। प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक व स्तंभकार फ्रेंकलिन पी   एडम्स ने लिखा था- ‘इस देश की परेशानी यह है कि यहां ऐसे कई नेता हैं, जिन्हें अपने तजुर्बे के आधार पर यकीन हंै कि वे लोगों को हमेशा बेवकूफ बना सकते हैं।’ यही चीज हमारे देश के लोकतंत्र में भी लागू होती है। यहां भी कुछ वरिष्ठ नेता सोचते रहते हैं कि वे हमेशा लोगों को भ्रमित करते रह सकते हैं जबकि ऐसा नहीं है। युवा सक्षम और मानसिक रूप से समृद्ध होता जा रहा है। देश में 50 फीसदी से ज्यादा आबादी 40 साल से कम उम्र वाले लोगों की है। यही आंकड़े हमें दुनिया का यंग लोगों को लोकतंत्र बनाते हैं। यही नौजवान किसी भी समाज और देश की सबसे बड़ी ताकत हैं और सबसे बड़े संसाधन भी। किसी देश के विकास की तकदीर युवाओं के माध्यम से लिखी और बदली जाती है। जयप्रकाश नारायण ने भी संपूर्ण क्रांति का सपना इन युवाओं के भरोसे ही देखा था। लेकिन जब युवा भटक जाता है तो विध्वंस की ओर जाता है जहां वह हर चीज नष्ट करने लगता है। हथियारों से लोकतंत्र की लड़ाई नहीं जीती जाती। हमें लोकतंत्र को इस मानसिकता से बचाना है।


चुनौतियों की सुरक्षा
खाद्य सुरक्षा बिल देश के उस आत्मविश्वास का प्रतीक है जिसके बदले देश अपने लोगों को भोजन दे सकता है। दूसरा सवाल ये है कि अगर महंगाई बढ़ती है तो इसका उलटा असर भी हो सकता है।


अंतत: यूपीए सरकार खाद्य सुरक्षा बिल के सहारे लोकसभा चुनावों की नैया पार लगाने के लिए अपने ड्रीम प्रोजेक्ट में सफल हो गई है। यानी बिल पास हो गया है। जनता को अब सस्ती दरों पर अनाज मिलेगा। लेकिन जरूरी सवाल यह है कि देश की जो मौजूदा आर्थिक और वित्तीय स्थिति है, उसमें सरकार फूड सिक्यॉरिटी बिल के अतिरिक्त भार को कैसे संभालेगी?  इस बिल के साथ ही कुछ प्रमुख चुनौतियां भी उभर कर आ रही हैं। बाजार के जानकारों के अनुसार खाद्य सुरक्षा अधिनियम लागू होने के बाद सरकार को अपनी आमदनी में हर साल कम से कम 10-15 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी करनी होगी। अर्थ व्यवस्था के जानकारों के अनुसार बिल के लागू होने के बाद पहले साल का खर्च करीब 1.25 लाख करोड़ रुपये अनुमानित है। यह 2015 तक 1.50 लाख करोड़ रुपए तक पहुंच जाएगा। अहम बात है कि हर साल आबादी बढ़ने के साथ फूड सिक्यॉरिटी बिल का बजट भी बढ़ता जाएगा। इसके साथ ही कीमतों पर कंट्रोल भी किया जाना जरूरी होगा। फूड बिल के तहत राज्यों को सब्सिडी देने के जो दिशा-निर्देश तैयार किए गए हैं, उसके तहत राज्यों को खुले बाजार से वस्तुएं खरीदने की छूट होगी। हालांकि, केंद्र सरकार तय करेगी कि राज्य खुले बाजार से किस सीमा तक महंगी चीजें खरीद सकते हैं? सवाल यह है कि अगर चीजें सरकारी सीमा से ज्यादा महंगी हो गईं तो क्या होगा? मार्केट सर्वे एजेंसी विनायक इंक के प्रमुख विजय सिंह का कहना है कि सरकार को अब थोक और खुले बाजार दोनों की कीमतों में संतुलन बनाए रखना होगा, जोकि एक टेढ़ी खीर है। देश की आर्थिक स्थिति की बात करें तो यह सरकार की महत्वाकांक्षी योजना हो सकती है लेकिन बहुत अधिक और आर्थिक मोर्चे पर बहुत अधिक सुविचारित नहीं कहा जा सकता।  इस समय सरकार के खर्चों पर बात करें तो कुल खर्चा 16.90 लाख करोड़ रुपए है और देश की  कुल आय 12.70 लाख करोड़ रुपये है। इसमें वित्तीय घाटा 5.2 प्रतिशत जीडीपी की तुलना में है।  इस वित्तीय घाटे के अलावा भी कुछ बड़ी दिक्कतें हैं जैसे कि डॉलर के मुकाबले रुपये में गिरावट का लगातार बने रहना। शेयर मार्केट से विदेशी निवेशकों का पलायन, बढ़ती महंगाई, देश से बाहर जाता भारतीय कंपनियों का निवेश, विकास दर में गिरावट आने की आशंका आदि सरकार के सामने बड़ी चुनौतियां होंगी। हालांकि इस पूरे मामले को सिर्फ निराशजनक नजरिये से ही  नहीं देखा जाना चाहिए। सरकार के पास कुछ विकल्प हैं। जैसे कि आमदनी बढ़ाने के लिए टैक्स कलेक्शन में भारी वृद्धि करनी होगी।  इनकम और सर्विस टैक्स का दायरा भी बढ़ाना होगा। निर्यात में कम से कम हर साल 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी के सुनिश्चित प्रयास करना होंगे। आयात में कम से कम हर साल 20 प्रतिशत की कटौती करना होगी। इससे सरकार इस योजना के लिए बजट का संतुलन बना सकती है। लेकिन यह सब कैसे होगा यह सरकार की कुशलता पर निर्भर करता है। 


चुनाव आयोग और मतदाता


निष्पक्ष चुनावों की सारी जिम्मेदारी आयोग निर्वाहन करता है। भारत में चुनाव आयोग की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। लेकिन कालाधन लिए उम्मीदवार और कुछ लोभी मतदाता निष्पक्षता में बड़ी बाधा हैं।                                                                                                                                                                                                                                            

बा त सिर्फ टाटा के कहने की नहीं है। देश की आम जनता भी कई महीनों से चुटकुलों में कहती रही है कि इस देश को कोई नहीं चलाता, यह रामभरोसे चल रहा है। आज हालात ये हो गए हैं कि देश के एक जिम्मेदार और अनुभवी उद्योगपति को राजनेताओं पर बात करना पड़ रही है। नेतृत्व के संकट की बात कहना पड़ रही है। क्यों? इसका एक ही कारण है कि वास्तव में देश को एक सख्त, अनुशासित और मजबूत नेतृत्व की आवश्यकता है। टाटा के कथन के कोई राजनीतिक अर्थ न भी निकाले जाएं तो हमें अपने देश की चिंता करने का अधिकार तो है। देश की अर्थ व्यवस्था पूरे विश्व का हिस्सा है। सफल विदेशनीति के बिना अच्छी अर्थ व्यवस्था संभव नहीं। अफगानिस्तान में भारत के मित्र इस डर से अपनी वफादारी बदल रहे हैं कि 2014 में नाटो सेनाओं की वापसी के बाद वहां पाकिस्तान का प्रभुत्व हो   जाएगा। इधर भारत का राजनीतिक तंत्र ऐसे बर्ताव कर रहा है जैसे कुछ भी गलत नहीं है। वाकई भारत नेतृत्व के संकट का सामना कर रहा है। सोनिया गांधी के पास शक्तियां हैं, लेकिन कोई सरकारी जवाबदेही नहीं है, मनमोहन सिंह के पास जिम्मेदारी है, किंतु कोई शक्ति नहीं है। आज वोट कबाड़ने वाली अदूरदर्शितापूर्ण राजनीति, सख्ती की कमी, भ्रष्टाचार, महंगाई का बार-बार चलने वाला चाबुक, सरकार का अनुशासनहीन मंत्रीमंडल, छोटे दलों की ब्लैकमेलिंग, उनके निहित स्वार्थों की राजनीति और राष्ट्रीय मुद्दों के प्रति ओछा नजरिया आदि, एक लंबी फेहरिश्त है। किसी को पता नहीं देश का राजनीतिक नेतृत्व जनता को छोड़ किसको नेतृत्व दे रहा है। देश की सीमाओं पर हमले हो रहे हैं। सरकार इस मामले में शुतुरमुर्ग की तरह मुंह छिपा लेती है। यह देश असफल कूटनीति, कमजोर अर्थ व्यवस्था और घटिया विदेश नीति को ढोता हुआ लगता है। ये सारी बातें हमें एक सख्त नेतृत्व की मांग की बात करती हैं। देश के नेताओं में किसी विषय पर कोई गंभीरता नहीं नजर आती। वे बचकाने बयान देते हैं।  फेसबुक पर मजाक उड़ता है तो वे उसे ही संपादित करने की बात करने लगते हैं। यह जनता को प्यार करने वाला और दूरदर्शिता से भरा राजनीतिक नेतृत्व नहीं हो सकता। कोई भी व्यक्ति या पार्टी  देश का प्रधानमंत्री बनने के लिए राजी होता है तो इसका मतलब है कि उस देश के नागरिकों के सुख-दुख का जिम्मेदार भी उसे होना होगा। जिम्मेदारियों से बच कर देश का विश्वास नहीं जीता जा सकता। अगर रतन टाटा ने कहा है कि देश में नेतृत्व की कमी के कारण आर्थिक समस्याएं गहरा रही हैं तो उन्होंने गलत नहीं कहा है।  देश को ऐसे नेताओं की जरूरत है जो आगे आकर देश का नेतृत्व करें। इसका अर्थ है कि किसी को नेतृत्व के लिए धकेल कर आगे न किया जाए। देश के जिम्मेदार राजनीतिक वर्ग को एक दिशा में काम करने की जरूरत है। राष्ट्रहित से ऊपर, निजी एजेंडों पर काम नहीं होना चाहिए। आर्थिक स्थिरता सफल राजनीतिक नेतृत्व का प्रतीक कही जा सकती है। उम्मीद है देश के नेता सामूहिक रूप से इस बात के निहितार्थ समझेंगे।

रविवार, अगस्त 25, 2013

MONDAY, APRIL 20, 2009

कीमत है कम

बाजार है बड़ा-मगर कीमत नहीं है
खूबसूरत मॉल है सुन्दर सी शॉपी है
मगर कीमत है कम

छोटी-छोटी कीमत पे बिकता है सब
कला भी है यहां मगर कीमत है कम

कीमत के टैग पे जैसे टंगा है सब
धीरे-धीरे ही सही, बिकता है सब

मैंने भी देखी दुनिया, मैं भी हूं यहीं का
मैंने भी खोला मॉल, मेरे अपने दिल का

लोग आए बहुत-दुनिया के दिलेर बनकर
कोई चैक लाया-हाथों से ख्याति लिखकर
कोई आया मॉल में, रुपयों का रूमाल रखकर
कोई आया यूं ही, जेबों में जिज्ञासा लेकर

मेरे मॉल में है सबका स्वागत
मेरे मॉल में है सबकी आगत
लोग हंसते हैं अपने स्वगत
कुछ लोग यहां हैं बड़े बेगत


मेरे सीने की जागीर मेरे दिल का मॉल है
द्वार पर शहरियों का अजीब हाल है
मॉल में हर तरफ मुहब्बत का जाल है
मॉल में एक से बढ़कर एक सामान है

प्यार की मूरत है, लौंडी खूबसूरत है
कर ले कोई मैरिज, खुली सूरत है


सोच में बैठे हैं सब सर माथे को लिए
मैंनेजमैंट की डिग्री में कहीं ये व्यापार नहीं
व्यापार की दुनिया में ये कैसा व्यापार है
माल है और सजा है सब
बिकने की शर्त पे रख है सब

मगर लोगों का कैश है रखा है सब
न चलता है न फु दकता है
कुछ तो मायूस हो लौट गए
कुछ जिद्दी हैं अहंकारी डटे हैं

इस दुनिया से बाहर रखा क्या है
कहते हैं माल कुछ लेके जाएंगे यहां से
ये कौन समझाए उनको
इस माल में चलता नहीं डालर

इस माल में चलते हैं वे सिक्के
जिनपे कीमत भी खुद खोदना है
न सरकार है न टैक्स है यहां
बस कीमत थोड़ी देना है यहां
मेरे सीने की जागीर पर खुला दिल का माल है
यहां चलता है सिक्का मगर किसी और का नहीं

रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
आपके सुझावों और कविता में प्रयोग, बिम्ब, शीर्षक आदि के सुधार के लिए विचार और सलाह आमंत्रित है।

शुक्रवार, अगस्त 23, 2013

न रेंद्र दाभोलकर की हत्या

  अंधविश्वास और जादू टोना के खिलाफ संघर्ष कर रहे पेशे से डॉक्टर नरेंद्र दाभोलकर की शहादत के बाद महाराष्ट्र सरकार ने अंधविश्वास एक्ट लाने का फैसला किया है जबकि यह बहुत पहले होना चाहिए था।


रेंद्र दाभोलकर की हत्या से यह तो साबित हो गया है किसी व्यक्ति को भूत प्रेत और जादू टोना से नहीं मारा  जा सकता। जादू टोना और अंध विश्वास की दम पर जनता को गुमराह करने वाले उनके दुश्मन थे। दाभोलकर की शहादत ने यह तो साबित कर दिया है कि वैज्ञानिक सोच के दुश्मन इस लोकतंत्र में पल रह हैं। इस विज्ञान की प्रधानता वाले समय में सबसे अधिक अंध आस्था और अंधविश्वासों से भरे काला जादू टोने टोटकों को जिस माध्यम ने सबसे प्रचारित किया है उनमें मीडिया की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। अंध विश्वास के कारण होने वाले अपराधों की आधिकारिक रिपोर्टें बताती हैं कि  केवल असम जैसे छोटे राज्य में 2001 से लेकर 2012 तक डायनों की मान्यता के चलते 61 लोग मारे जा चुके हैं। लेकिन आज तक एक भी मामले में सजा नहीं हुई है। जो लोग डायन बताकर हत्या करते हैं, वे बच निकलते हैं, क्योंकि ऐसे मामलों में कोई गवाह  नहीं मिलता है। इसके अलावा किसी एक को दोषी बताना संभव नहीं होता क्योंकि यह काम भीड़ करती है।
आज इलेक्ट्रिोनिक मीडिया, इंटरनेट आदि साधनों के माध्यम से धन बढ़ाने वाले अधंविश्वास, सामाजिक भेदभाव बढ़ाने वाले अंधविश्वासों ने समाज ेमें विज्ञान की महत्ता, ईमानदारी, सादगी जैसे विचारों को एक तरफ रख दिया है।  अंधआस्था की आंधी में वैज्ञानिक लोकतंत्रिक विचारधारा में रहने वालों को भी प्रभावित किया है। कई नेता समाज सेवा की जगह इन अंध आस्थाओं को बढ़ावा देते रहे हैं। श्रद्धा और अंधश्रद्धा में फर्क है। श्रद्धा हमें विवेकवान बनाती है। अंधश्रद्धा विवेक को खारिज कर देती है, तर्क का तिरस्कार करती है। श्रद्धा किस जगह पहुंच कर अंधश्रद्धा का रूप ले लेती है, यह अकसर मालूम नहीं चलता। लोग अंधश्रद्धा को ही धर्म तक समझ लेते हैं। आज से करीब छह शताब्दी पहले संत कबीरदास ने अंधश्रद्धा की अमानवीयता को शिद्दत से महसूस किया था। कबीर संत थे। ईश्वर में गहरा यकीन करते थे। लेकिन, ईश्वर के विधान के नाम पर समाज में व्याप्त अंधविश्वासों की उन्होंने आलोचना की। अंधविश्वासों के नाम पर होनेवाले सामाजिक भेदभाव, अस्पृश्यता की अमानवीयता के खिलाफ आधुनिक वैज्ञानिक सोच वाले लोगों  ने लंबा संघर्ष किया। दाभोलकर उनमें से एक थे। इस आस्था में छिपे शोषण को उजागर किया। आज तमाम तरक्की के बावजूद 21वीं सदी में भी यह संघर्ष आसान नहीं हुआ है, बल्कि मौत का खेल हो गया है!  पेशे से डॉक्टर रहे दाभोलकर तंत्र-मंत्र, जादू-टोना व दूसरे अंधविश्वासों को दूर करने के मिशन में जिस तरह से लगे हुए थे। वह धर्म के स्वयंभू ठेकेदारों को कभी रास नहीं आया। दाभोलकर की हत्या एक व्यक्ति की हत्या नहीं है, यह एक लंबे समर्पण के  बाद वैज्ञानिक तार्किक आधुनिक विचारों की हत्या है। उन्हें आधुनिक कबीर की संज्ञा दी जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। आज अंधविश्वास और भेदभाव को रोकना लोक कल्याणकारी सरकारों की प्राथमिकता में शामिल होना चाहिए।

शुक्रवार, अगस्त 09, 2013

बाजार आनलाइन

 

भारत में इंटरनेट उपयोग करने वाले आज दस फीसदी लोग ही आनलाइन शॉपिंग करते हैं।  आने वाले समय में इंटरनेट पर शॉपिंग करने वालों की संख्या में काफी इजाफा होगा। कंपनियां तैयार हैं।

आने वाले आॅनलाइन वक्त की आहट तकनीकी और बाजार दोनों में दिखाई देने लगी। हाल ही में देश की सबसे बड़ी आॅनलाइन शापिंग वेबसाइट फ्लिपकार्ट ने 1200 करोड़ जुटाकर आॅनलाइन बिजनेस में नई हलचल पैदा कर दी। देश में बढ़ रहे ई-बाजार में पैठ जमाने के लिए आॅनलाइन शॉपिंग कंपनियां कमर कस रही हैं। अमेजन की एंट्री के बाद तो देश में ई-कॉमर्स का बिजनेस बेहद गरम हो गया है। एक साल पहले 3000 रुपये का फोन और 1 रूपये में इंटरनेट जैसे नारे नए ग्राहकों का बूम लेकर आते हैं। यह इसलिए भी सफल होने जा रहा है कि इसमें ग्राहक को घर से बाहर नहीं निकलना होता है। टेलीकॉम कंपनियों का ये पैंतरा आॅनलाइन शॉपिंग वेबसाइटों को बहुत भा रहा है। दरअसल स्मार्टफोन पर इंटरनेट के बढ़ते चलन ने छोटे शहरों के खरीदारों को सीधे इन वेबसाइटों से जोड़ दिया है। आॅनलाइन शॉपिंग वेबसाइटों के मुताबिक छोटे शहरों के खरीदारों की संख्या लगातार बढ़ रही है। टेक्नोपेक के अनुमान के मुताबिक 2020 तक भारत में ई-कॉमर्स का कारोबार 12 लाख करोड़ रूपए का हो जाएगा। दरअसल ये दौड़ इसी बाजार पर कब्जा जमाने की है।  इस साल अब तक आॅनलाइन शॉपिंग कंपनियां करीब 1000 करोड़ रूपये जुटा चुकी हैं। और हाल ही में अकेले फ्लिपकार्ट ने 1200 करोड़ रूपये जुटाए हैं। कंपनियों के मुताबिक भारत में ई-कॉमर्स का दूसरा दौर शुरू हो चुका है। हालांकि ई-कॉमर्स कंपनियों की लागत अभी भी ’यादा है। इसलिए अधिकतर आॅनलाइन कंपनियां मार्केटप्लेस मॉडल को अपना रही है जहां थर्ड पार्टी सीधे अपना सामान बेच सकती हैं। जानकारों के मुताबिक भारत में इंटरनेट उपयोग करने वाले सिर्फ दस फीसदी लोग ही आॅनलाइन शॉपिंग करते हैं। आगे आने वाले समय में इंटरनेट पर शॉपिंग करने वालों की संख्या में काफी इजाफा होगा।
देश की प्रमुख चाय कम्पनी गुडरिक अंतराष्ट्रीय बाजार में आॅनलाइन बिक्री करने के लिए अपने वेबसाइट में सुधार कर रही है। गुडरिक ब्रिटेन की कैमेलिया पीएलसी समूह की कम्पनी है। कई छोटी बड़ी कंपनियां भी इस कारोबार में पूरी तरह तैयार होकर उतर रही हैं।
गुडरिक जैसी कई कंपनियों ने घरेलू और अंतराष्ट्रीय बाजार में एक साथ आॅनलाइन बिक्री करने के लिए अपनी कम्पनियों ने पहले ही वेबसाइट में सुधार करने के लिए एजेंसियों को नियुक्त कर लिया है। कई कंपनियों के उच्च अधिकारियों के अनुसार अगले छह महीने में अंतराष्ट्रीय ई-सेलिंग के लिए भारतीय वेबसाइटों व्यापक रूप से सुधार होने जा रहा है। वर्तमान में जो  सॉफ्टवेयर उपयोग किए जा रहे हैं वे सिर्फ भारत में ई-सेलिंग के लिए ठीक है। लेकिन अंतराष्ट्रीय बिक्री में दिक्कत आती है। आने वाले समय में ई बाजार की यह अवधारणा बाजार की मुख्यधारा होगी। देश की कंपनियों और इस विषय के जानकारों को रोजगार मिलेगा लेकिन इस सेवा में होने वाली दिक्कतों के लिए कानून की आवश्यकता भी होगी।

कागज और पर्यावरण

 आलेख

कागज और पर्यावरण

रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
टॉप -12, हाई लाइफ कॉम्पलेक्स चर्च रोड, जहांगीराबाद, भोपाल
संपक्र 0755 4057852
982682660


कागज हमारे चारों तरफ है और हर रोज इस्तेमाल में भी आता है। हम शायद ही कभी यह एहसास करते हैं कि हम जिस कागज पर लिख रहे हैं वह हजारों एकड़ जंगल की लड़की को काट कर बनाया गया है। कागज हमारे जंगलों को कितना नष्ट कर रहा है, इसके तथ्यों की जानकारी हमें पर्यावरण को हो रहे नुकसान को बता सकती है। दस जुलाई कागज विहीन दिवस है। इस दिन स्कूली बच्चों और कार्यालयों में कागज का इस्तेमाल नहीं करने की परंपरा है।
इस परंपरा को तोड़ने के लिए देश में कई संस्थाएं, आयोग और कंपनियां अपने स्तर पर काम कर रहे हैं।  यहां कुछ उदाहरण दिए जा रहे हैं जो कागज को बचाने के माध्यम से जंगल बचाने की मुहीम तक जाते हैं। बीमा नियामक एवं विकास प्राधिकरण (आईआरडीए) बीमा पॉलिसियों को कागज विहीन करने व इसके लिए एक कोष की स्थापना पर विचार कर रहा है। यह व्यवस्था शेयर बाजार के डीमैट खातों की तर्ज पर की जाएगी। आईआरडीए के सदस्य सुधीन रॉय चौधरी ने इस बारे में जानकारी देते हुए कहा कि हालांकि यह प्रस्ताव प्रारंभिक स्तर पर है। लेकिन आने वाले समय में निगम के ग्राहक बीमा पॉलिसियों को कागजी स्वरूप में रखने की बजाय डीमैट व कागज विहीन स्वरूप में रख सकेंगे। हालांकि शेयर बाजार की तरह कागज विहीन पॉलिसी अनिवार्य नहीं, बल्कि ऐच्छिक होगी व ग्राहक के पास इसे लेने या न लेने का विकल्प होगा। इसके लिए एक पृथक व स्वायत्त संस्था का गठन किया जाएगा। इस संस्था का नियमन भी आईआरडीए ही करेगा। यह एक समाचार है जो हमें बताता है कि पेपर लेस होने की दिशा में हम किस तरह कदम बढ़ा रहे हैं।
कागज को खर्च करने में कई उद्योग और संस्थाएं हैं जहां कागज एक बार इस्तेमाल होने के बाद बेकार हो जाता है। यह मात्रा बेहद अधिक होती है। हमारी संसद में जब कुछ लाइनों का एक प्रश्न पूजा जाता है तो उसमें खर्च होने वाले कागज का अनुमान लगाया जा सकता है। इस संबंध में जो जानकारी है उससे अनुमान लगाया जा सकता है कि हम कितना कागज खत्म करते हैं। संसद के किसीसत्र में प्रश्नकाल के दौरान पूछे गए हरेक सवाल पर गृह मंत्रालय का जवाब करीब 113 पृष्ठों में होता है। मीडिया में बांटने के लिए इसकी औसतन 500 प्रतियां तैयार की जाती हैं। इस प्रकार महज एक प्रश्न पर कुल मिलाकर करीब 56,500 पृष्ठों की खपत होती है। रिकॉर्ड के अनुसार, गृह मंत्रालय को नियमित तौर पर भेजे गए प्रश्नों की संख्या (821) सबसे अधिक है, जिसके बाद 665 प्रश्नों के साथ वित्त मंत्रालय का स्थान है। इस कवायद की न केवल वित्तीय लागत बल्कि इस पर खर्च होने वाले कागज की मात्रा पर गौर करने से ही दिमाग चकरा जाता है। इसलिए कागज बचाओ अभियान के तहत संसद अब प्रश्नकाल की प्रक्रिया को कागज रहित बनाने की तैयारी करती रही है लेकिन अभी उस पर अमल करने जैसा कुछ सामने नहीं आया है। इसके तहत सरकार अब प्रश्नकाल के दौरान सवाल-जवाब की मुद्रित प्रति बांटने के बजाय कागज बचाने की हर संभव उपाय करने की कोशिश कर रही है। वास्तव में पर्यावरण के अनुकूल यह पहल पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) के दिमाग की उपज है।
पीआईबी के अधिकारियों ने बताया कि शुरू में एक संसदीय समिति विभिन्न कार्यालयों में कागज का उपयोग कम करने के उपायों पर विचार कर रही थी। समिति ने कागज के उपयोग में कटौती करने का सुझाव दिया और कई सांसदों और नौकरशाहों ने इस पहल का स्वागत किया। उधर, पीआईबी ने प्रश्नकाल के दौरान मीडिया को सवाल-जवाबों की मुद्रित के बजाय इलेक्ट्रॉनिक प्रारूप में देने का सुझाव दिया। पीआईबी के एक अधिकारी ने कहा, प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों मीडिया समाचार एकत्रित करने के लिए नियमित तौर पर आॅनलाइन प्लेटफॉर्म एक्सेस करता है। ऐसे में संसद में पूछे गए सवालों को आॅनलाइन एक्सेस करने में उसे कोई कठिनाई नहीं होगी। उन्होंने कहा कि यह हमारी ई-गवर्नेंस और कागज विहीन कार्यालय पहल का हिस्सा है। फिलहाल लोकसभा में 545 सदस्य और राज्यसभा में 250 सदस्य हैं जिन्हें नियमित तौर पर प्रश्नकाल के दौरान पूछे गए सवाल-जवाबों की मुद्रित प्रतियां दी जाती हैं। हालांकि राज्यसभा ने 1 मार्च, 2013 से सवालों की मुद्रित प्रतियां बांटना बंद कर दिया है, लेकिन लोकसभा में संसद के अगले सत्र से ही इस पर रोक लगाई जा सकती है। बहरहाल, पीआईबी के प्रयास से संसद में कागज के उपयोग पर लगाम लगेगी। पहले मीडिया में बांटने के लिए प्रश्नकाल के सवाल-जवाबों की 500 प्रति मुद्रित की जाती थीं, लेकिन इस बजट सत्र से संसद में बांटने के लिए केवल 200 प्रतियां ही मुद्रित की जाएंगी। पीआईबी की प्रधान महानिदेशक नीलम कपूर ने कहा, हम कुछ समय से ऐसा करने पर विचार कर रहे थे। हमने सीडी इत्यादि में सवाल-जवाब भेजने के लिए सभी मंत्रालयों के सचिवों को पत्र लिखा। ऐसा संभव होने पर हमने प्रश्न पत्रों को मुद्रित प्रारूप में वितरण पर रोक लगाने का निर्णय लिया।
इस दिशा में इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद भी बहुत सहायता कर रहे हैं। करेंसी और अन्य प्रकार से कागज के उपयोग पर अंकुश लगेगा। भारत में 10 वर्षों के भीतर एक अरब लोग मोबाइल फोन के संपर्क माध्यम से जुÞड जाएंगे और स्वास्थ्य, शिक्षा   और सामाज सेवा सहित सब कुछ मोबाइल फोन सेवा के जरिए संपन्न होगा। इस तरह तीन दशक के भीतर सभी तरह का लेने-देन डिजिटल हो जाएगा, लिहाजा कागज के नोट लुप्त हो जाएंगे। यह अनुमान व्यक्त किया है सार्वजनिक सूचना, अधोसंरचना और उन्नयन पर प्रधानमंत्री के सलाहकार तथा राष्ट्रीय नवप्रवर्तन परिषद के अध्यक्ष सैम पित्रोदा ने। पित्रोदा का मानना है कि वर्तमान में वैश्विक स्तर पर लगभग पांच अरब मोबाइल फोन के उपयोग और प्रति वर्ष जारी होने वाले 10 अरब से अधिक के्रडिट कार्ड एवं डेबिट कार्ड के कारण 30 वर्षो के भीतर कागज के नोटों की अहमियत लगभग समाप्त हो जाएगी। कैसियो डिजिटल डायरी के अनुसंधानकर्ता पित्रोदा ने अपने ताजा नवप्रवर्तन डिजिटल वैलेट के बारे में बातचीत के दौरान कहा, तीन दशक के भीतर लेने-देन डिजिटल हो जाएगा, लिहाजा कागज के नोट लुप्त हो जाएंगे। पित्रोदा ने आईएएएनएस के साथ एक साक्षात्कार में कहा, यदि आप अपने घर और कार्यालय को कागज विहीन बना सकते हैं, तो बैंक, व्यापार और अपने बटुए को क्यों नहीं? पित्रोदा ने अपने इस विचार को अपनी हालिया प्रकाशित पुस्तक द मार्च आॅफ मोबाइल मनी: द फ्यूचर आॅफ लाइफस्टाइल मैनेजमेंट व्यक्त किया है। पित्रोदा ने कहा, मोबाइल टेलीफोन सेवा उपलब्ध कराने वाली हर कंपनी इसे अपनाएगी। प्रति उपभोक्ता औसत राजस्व में कमी के कारण डिजिटल बटुआ अधिक उपभोक्ताओं को आकर्षित कर सकता है। यह पूरी तरह सुरक्षित है। पित्रोदा की पुस्तक भारत में मोबाइल फोन के विकास पर केंद्रित है, जो कि देश में तेजी के साथ जीवन शैली में शुमार होता जा रहा है। पित्रोदा ने कहा, मोबाइल क्रांति किसी बÞडी रेलगÞाडी के आने जैसा है।
इस समय  देश में 65 करोÞड से अधिक लोग मोबाइल फोन संपर्क से जुÞडे हुए हैं, जबकि चीन में 79.50 करोÞड लोग मोबाइल फोन से जुÞडे हुए हैं। मोबाइल प्रतिदिन माह कई हजार टन बचाने का लोकप्रिय माध्यम बनने जा रहा है। क्योंकि डिजिटल रूप में रसीदों के आने से यह बचत होगी। कागज वनों की खपत का सबसे बड़ा उपभोग्ता है। जंगल बचाने के लिए हम बडेÞ स्तर पर कागज के उपयोग से दूर होना ही होगा। रिसाइकिल के लिए नवीनतम तकनीकों के प्रति उत्सुक होना होगा। कागजविहीन दिवस का अर्थ यही है कि हम कागज के उपयोग से होने वाले पर्यावरणीय नुकसानों को समझ सकें।

रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति,  ग्रीनअर्थ वि वे सोसयटी, मप्र के निदेशक
ग्रीनअर्थ जैविक खेती और पर्यावरण के लिए काम करने वाल संस्थान है

मंगलवार, जुलाई 23, 2013

सूदखोरों का शोषण


 

निजी तौर पर ब्याज पर नकद रकम देना और फिर उसका चार गुना वसूल करना, गांव कस्बों से लेकर प्रदेश की राजधानी में
शोषण का यह कारोबार धड़ल्ले से चल रहा है।



  ध्यप्रदेश के भोपाल में एक व्यक्ति ने सूदखोरों से परेशान होकर रेलवे ट्रैक पर कूद कर आत्म हत्या कर ली। यह एक सामान्य सी खबर हो सकती है लेकिन इसके पीछे सूदखोरी का दुष्चक्र दिखाई दे रहा है। भोपाल जैसे शहरों में जो हालात हैं वह बेहद भयानक हैं। सूदखोरी ने हजारों लोखों परिवारों का जीन दुस्वार कर दिया है। आजादी से पहले सूदखोरी की प्रथा को प्रेमचंद ने भारतीयों के लिए नरक निरूपित किया था।  इसमें गिरने के बाद शायद ही कोई एक दो पीढ़ी तक उबर पाता हो। आज पीढ़ी नहीं लेकिन राज्य के गली कूचों में फैले सूदखोरों द्वारा इनता शोषण किया जा रहा है कि लोगों का पूरा जीवन नरक बन जाता है। गलियों में, झुग्गियों में पलने वाले सूदखोरों ने एक समानांतर पैसे को ब्याज पर देने और उगाहने की क्रूर व्यवस्था बना रखी है। इस व्यवस्था में केवल शराबी, सट्टेबाज और आलसी ही नहीं हैं। बल्कि वे लोग अधिक हैं जो रोज कमाते खाते हैं। निम्न मध्यमवर्ग की बस्ती की हर गली में एक हजार दो हजार पांच हजार दस हजार देने वाले लोग मिल जाएंगे। इनका ब्याज सौ रुपए पर बीस तीस या चालीस रूपए प्रति माह होता है। कई दफा तो सीधा दोगुना भी। इस वेआवाज शोषण के दुष्चक्र में उन लोगों की तादाद अधिक है जो गांव से आकर बसे हैं। मजदूरी और मामूली नौकरी से अपना जीवन बसर करते हैं। रोज का धंधा करने वाले, रेहड़ी, ठेला आदि पर कारोबार करने वाले लोगा अक्सर दो चार हजार रुपए इसी तरह ब्याज पर रुपया लेकर अपना धंधा करते हैं। जब समय पर नहीं चुका पाते तो उनका ब्याज भी मूलधन में बदल जाता है और उनको एक साल में पांच हजार रुपए के बदले पच्चीस हजार भी चुकाना होते हैं। नहीं चुकाने पर धमकी, प्रताड़ना, जबरन वसूली, मारपीट के माध्यम से प्रताड़ित किया जाता है। जो लोग इस तरह सूदखोरी का शिकार होते हैं, वे गरीब और कमजोर तबकों के होते हैं और कई बार उनके परिवार को भी नहीं पता होता कि इतने ऊंचे ब्याज पर कर्ज लिया है।
इस मामले में प्रशासन और पुलिस की भूमिका बहुत कारगर नहीं है। सूदखोर अपने पैसे की दम पर धमकी और मारपीट को थाने तक पहुंचने ही नहीं देता है। ऐसे भी देखने में आया है कि पुलिस के सिपाही धन उगाही में सूदखोरों का सहयोग करते हैं। कई लोगों को पता नहीं रहता कि सूदखोरी भी एक अपराध है। सूदखोरी को उजागर करना, लोगों को इस मामले संवेदनशील बनाना जरूरी है। ब्याज सप्ताहिक 10 प्रतिशत है। याने प्रतिमाह 40 प्रतिशत और वार्शिक 480 प्रतिशत, जिसके तहत कर्ज में सिर्फ पैसा ही लगाया जाता है। जो सबसे खतरनाक है। इसके तहत कर्ज के बदले महाजन के पास जेवर, जमीन व मवेशी रखा जाता है। इसमें सबसे क्रूर बात यह है कि जेवर, जमीन व मवेशी की कीमत वास्तविक मूल्य से 400 फिसदी कम निर्धारित होती है तथा निर्धारित समय पर कर्ज वापस नहीं करने की स्थिति में जेवर, जमीन व मवेशी महाजन का हो जाता है। अधिकांश मामलों में कर्ज वापस नहीं होता है। इस तरह से समाज का एक बडा तबका कर्ज का जीवन जीता है और महाजन इसका लाभ उठाते ह तथा प्रशासन सिर्फ मूकदर्शक बना रहता है। सरकार ने कानून बनाकर सूदखोरी पर रोक लगा रखी है। उल्लंघन पर सजा का भी प्रावधान है। लेकिन पर्याप्त बैंकिंग सुविधाओं के अभाव में बहुत से लोग साहूकारों के चंगुल में फंस कर कर्ज के भंवर जाल में फंस रहे हैं। कई तो मौत को गले लगाने मजबूर हो रहे हैं।





शुक्रवार, जुलाई 19, 2013

दो पैसे के लिए लोगों का धर्म-कर्म सब बिक रहा है

 
बच्चों को भोजन देने में जितनी लापरवाही इस देश में हो रही है उसे देख कर लगता है कि हम किसी आत्माविहीन देश में रह रहे हैं, जहां दो पैसे के लिए लोगों का धर्म-कर्म सब बिक रहा है।





बिहार में मध्यान्ह भोजन त्रासदी में बच्चे अपने जीवन को जीने से पहले ही मौत की तरफ धकेल दिए गए। मध्यान्ह भोजन खाने से बीमार पड़ने जैसे शिकायतें तो आती रहती थीं लेकिन उसमें जहर भी हो सकता है यह कल्पना से परे है। इस
त्रासदी के बाद केन्द्र सरकार ने निगरानी समिति गठित करने का निर्णय किया है जो आपूर्ति किये गए भोजन की गुणवत्ता को देखेगी। उम्मीद की जाती है कि समिति मौजूदा मध्याह्न भोजन निगरानी समिति के प्रयासों को आगे बढ़ाने में मदद करेगी जो साल में दो बार बैठक करती है और राज्यों को किसी तरह की कमी के बारे में सचेत करती है। बिहार के सारण जिले में जहरीला मध्यान्ह भोजन से बच्चों की मौत सिर्फ दुखद है। इसने देश को झकझोरा है। भारत में सरकारी कामकाज गरीबों के लिए कोई मुद्दा ही नहीं है। मिलावटी राशन, खाने के सामान, मिठाइयां, सब कुछ  मिलावट की भेंट चढ़ता जा रहा है। सब कुछ जहरीला हो रहा है।  स्कूलों में खाना खाने वाले बच्चे समाज के सबसे कमजोर तबकों से आते हैं, इसलिए वे ही इसे खाने का खतरा उठाते हैं। अगर यह योजना बच्चों का सिर्फ पेट भरने के लिए नहीं, बल्कि उनके लिए अच्छा पोषण सुनिश्चित करने के लिए है, तो इसमें सबसे ज्यादा ध्यान खाने की गुणवत्ता पर दिया जाना जरूरी है। लेकिन भ्रष्टाचार और लापरवाही इतनी अधिक है कि कहीं  ठीक खाना बच्चों को मिल रहा हो, तो यह उन बच्चों का सौभाग्य है। वरना तो हमारा प्रशासन और इसके लिए जिम्मेदार लोगों ने अपना कर्तव्य और ईमान सब कुछ बेच दिया है। घटना के बाद  राजनेता बयानबाजी करके राजनीतिक लाभ लेना चाहते हैं, उन्हें भी एक बार  सोचना होगा कि इस भ्रष्टाचार और लापरवाह तंत्र को बनाने में उनकी जवाबदेही भी है। इससे पहले भी मध्यान्ह भोजन की गड़बड़ियों को सुधारने की कोशिशें की गईं थीं। ये कोशिशें नाकारा साबित हुईं, क्योंकि इस कार्यक्रम का दारोमदार जिन लोगों पर है, उन्हें ही इस कार्यक्रम पर यकीन नहीं है। हमारे देश में अच्छी योजनाएं बनती हैं, उनके पीछे अच्छे उद्देश्य होते हं, लेकिन उन पर अमल इसलिए नहीं हो पाता, क्योंकि जिन लोगों को लागू करना है, वे इसे नौकरी का हिस्सा मानते हैं। हमारे प्रशासन में किसी को जवाबदेह बनाने की कोई कोशिश नहीं होती। जिन अधिकारियों और शिक्षकों को ग्रामीण बच्चों को पढ़ाने और भोजन देने का काम सौपा जाता है, वे यह मानकर चलते हैं कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले और मिड डे मील खाने वाले बच्चे समाज के निम्न और कमजोर लोगों के बच्चों के लिए है। यह वर्ग मानता है कि इन बच्चों को जैसा भी भोजन मिल जाए, वही काफी है। उस भोजन की गुणवत्ता उनके लिए कोई मायने नहीं रखती। इस घटना के बाद जैसे कि खबरें आ रही हैं कि इस भोजन में जहर था तो यह और भी दुखद है। इस देश में बच्चों के साथ इतनी क्रूरता की जा सकती है तो यह हद दर्जे कि हम किसी आत्माविहीन देश में रह रहे हैं, जहां दो पैसे के लिए लोगों का धर्म-कर्म सब बिक रहा है।