बुधवार, सितंबर 12, 2012

  नर्मदा की डूब में

जमीन छीन कर विस्थापन का दर्द देना, न्याय नहीं हो सकता। आधुनिक विकास और ग्रोथ के नाम पर सरकारें आदिवासी, वंचित और गरीब तबकों के साथ ऐसा करते हैं। उनको पूरा मुआवजा मिलना ही चाहिए।




न र्मदा नदी में जल सत्याग्रह कर रहे लोगों की आवाज दो हफ्ते बाद भी भोपाल तक पहुंची है। आधुनिकता का यह अभिशाप देश के उन लाखों लोगों को भुगतना पड़ रहा जिनकी जमीनों पर शहरों के लिए सुविधा-संसाधनों का विकास किया गया है। चाहे बिजली परियोजनाएं हों या फिर नदियों को प्रदूषित करने वाली तमाम फैक्ट्रियां और कारखाने। सरकारें इन इलाकों में रहने वाले लोगों के प्रति उपेक्षित रवैया अपनाती रही हैं। स्थानीय लोग कुछ संगठनों के माध्यम से विरोध प्रदर्शन करते रहे हैं। लेकिन यह भी सवाल करने योग्य है कि बिना प्रताड़ित हुए या परेशान हुए कोई इस तरह के आंदोलन क्यों करेगा? नर्मदा नदी पर बांध बनाए जाने और उसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन का इतिहास पुराना है। बिजली और सिंचाई की कमी को दूर करने के लिए 80 के दशक में नर्मदा घाटी विकास योजना की रूपरेखा तैयार की गई थी। परियोजना के मुताबिक 1312 किलोमीटर लंबी नर्मदा नदी पर 30 बड़े, 135 मध्यम और 3000 छोटे बांध बनाए जाने थे। सरदार सरोवर और इंदिरा सागर बांध नर्मदा नदी पर बनाए जाने वाले सबसे बडेÞ बांधों में से एक हैं। नर्मदा जल सत्याग्रह इसलिए नहीं हो रहा है कि सत्याग्रही बांध को ध्वस्त करना चाहते हैं। यह तो उन विस्थापन नियमों के अनुसार क्षतिपूर्ति की मांग  के लिए हो रहा है। मध्यप्रदेश के खंडवा के निचले इलाकों में रहने वाले लोगों को अन्यत्र बसाए बिना नर्मदा नदी पर ओंकारेश्वर बांध में पानी 189 मीटर से बढ़ाकर 193 मीटर करने के विरोध में यह सत्याग्रह हो रहा है। नर्मदा बचाओ आंदोलन से जुड़े लोगों का आरोप है कि मध्य प्रदेश सरकार कोर्ट के आदेश की भी अनदेखी कर रही है, जिसमें पानी बढ़ाने से 6 महीने पहले लोगों को कहीं और बसाने की बात कही गई थी। ओंकारेश्वर बांध में पानी 190 मीटर तक पहुंच चुका है और इसका असर घोगल, कामनखेड़ा जैसे 28 दूसरे गांवों पड़ रहा है। पानी में फसलें   डूबकर गल रही हैं।
 शासकीय कंपनी एनएचडीसी पिछले कई वर्षों से विद्युत उत्पादन प्रारंभ कर चुकी है और इस दौरान उसने सैकड़ों करोड़ रुपए का आर्थिक लाभ भी कमाया है। लेकिन वह पुनर्वास नीति के अनिवार्य प्रावधान कि परिवार के वयस्क सदस्य को जमीन के बदले जमीन दे, का पालन नहीं कर रही है। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने अंतरिम निर्णय में इंदिरा सागर बांध से बेदखल होने वालों के लिए भी जमीन के बदले जमीन के सिद्धांत को स्वीकार कर इस संबंध में मध्यप्रदेश शासन को निर्देश भी दिए हैं। लेकिन शासन, प्रशासन एवं कंपनी की हठधर्मिता के चलते इस आदेश का क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा है। सत्याग्रहियों के गिरते स्वास्थ्य से सरकार भी चिंतित हो उठी है। सत्याग्रही अपील कर रहे हैं कि ओंकारेश्वर बांध का जलस्तर 189 मीटर एवं इंदिरा सागर बांध का जलस्तर 260 मीटर पर लाएं और सभी विस्थापितों को जमीन के बदले जमीन एवं अन्य पुनर्वास सुविधाएं प्रदान करें। सरकार को इस मामले में त्वरित न्यायोचित कदम उठाना चाहिए।




कुरियन की क्रांति
भारत की दुग्ध क्रांति के सूत्रधार डॉ. कुरियन को अब हम नहीं देख पाएंगे लेकिन उनके द्वारा स्थापित संस्थाओं में युगों तक दिखाई देंगे। सहकारिता में नए प्रयोगों के लिए आज ये देश उनका आभारी है।

देश में दुग्धक्रांति के जनक डॉ. वर्गीज कुरियन नहीं रहे। 26 नवंबर 1921 को केरल में जन्में श्री कुरियन ने शनिवार की शाम गुजरात के नांदेड में अंतिम सांस ली। किसानों के हितों, कृषि एवं देश के विकास में उनका अमूल्य योगदान है। अपने लंबे सेवाभावी करियर में डॉ। कुरियन ने सहकारी डेरी विकास के नए माडल की स्थापना करके दुग्धक्रांति की कार्ययोजना तैयार की और भारत को दुनिया का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक देश बनाया। दूसरे शब्दों में दूध की नदियों वाला देश बनाया। कुरियन ने 1949 में 28 साल की उम्र में गुजरात के आंणद में कदम रखा और देश की सबसे बड़ी दुग्ध उत्पाद संस्था की स्थापना कर किसानों के जीवन में क्रांतिकारी बदलाव लाए। वर्ष 1955 में उनके सानिध्य में बनी एशिया की सबसे बड़ी डेयरी से प्रतिदिन 20 हजार लीटर दूध-उत्पादन से शुरुआत हुई। एक छोटी सी संस्था से गांव-गांव से इकठ्ठा किए दूध को एक जगह इकठ्ठा करना शुरू किया। यही छोटी सी चीज थी जिसमें अमूल जैसा एक महान ब्रॉड का भविष्य दर्ज था। कुरियन ने दूध खराब न हो और देश के कोने तक पहुंचे इसके नई तकनीकों का विकास किया। सबसे महत्वपूर्ण बात ये थी कि इस मॉडल में बिचौलिये नहीं थे। किसानों का मॉडल किसान ही चला रहे थे। धीरे-धीरे इस मॉडल से लाखों किसान जुड़े जिससे गुजरात और देश के सहकारी दूध उद्योग की तासीर और तस्वीर ही बदल गई। इसके बाद अमूल ब्रांड आया। डॉ। कुरियन की मेहनत और लगन ने हिन्दुस्तान में ही नहीं बल्कि दुनियाभर में अमूल को बेहतरीन दूध प्रोडक्ट्स के रूप में स्थापित किया। डॉ। कुरियन को आधुनिक दुनिया का सबसे महान कृषि नेता भी कहा जाता है। उनके पास देश और किसानों के लिए गजब की दूरदर्शी सोच थी। अमूल डॉ। वर्गीस कुरियन का सपना था जो एक क्रांति में तब्दील हो गया।
आजादी के वक्त डेयरी उद्योग कुछ प्राइवेट हाथों में था। इसमें किसानों का शोषण होता था और किसानों की सहभागिता भी नहीं थी। डॉ. कुरियन ने जो बीड़ा उठाया उसने गुजरात ही नहीं देश के किसानों को नया मॉडल दिया। उनके नेतृत्व में 1970 के दशक में दुग्ध क्रांति की ऐसी शुरुआत की, जिसके दम पर भारत दुग्ध उत्पादन करने वाले दुनिया के प्रमुख देशों में शामिल है। उन्होंने देखा समझा कि देश में बड़ी संख्या में किसान गाय-भैंस पालते हैं। कुरियन ने किसानों को उनकी भैंस के बल पर आर्थिक रूप से मजबूत बनाने के लिए पहली बार भैंस के दूध का पाउडर बनाने की पहल की जिसने भारत को दुनिया में भैंस के दूध का पाउडर बनाने वाला पहला देश बनाया। आज अमूल के लिए देश के एक करोड़ से अधिक किसान प्रति दिन दो करोड़ लीटर से अधिक दूध का उत्पादन कर रहे हैं, देश के घर-घर तक दूध पहुंचाने का सपना सच करने वाले शख्स ने अपनी आंखें हमेशा के लिए बंद कर लीं लेकिन उनकी सच्ची आंखें  वे लाखों किसान हैं जो उनकी संस्था में अनवरत काम कर रहे हैं। कर्मवीर कुरियन को नमन।



एक समय की बात है... | युग - ज़माना

एक समय की बात है... | Ravindra Swapnil par Kunal Singh

शुक्रवार, सितंबर 07, 2012

ठाकरे बनाम बिहारी

 मानवीय समाज एक सीधी साधी संरचना नहीं है। राज ठाकरे जैसे लोग समाज में पैदा होते रहे हैं। दूसरी तरफ जब हम एक देश हैं तो अपराधी पकड़ने गई मुंबई पुलिस को नीतीश सरकार ने धमकी क्यों दी?

बिहार वालों के खिलाफ विवादास्पद बयान देकर महाराष्ट्र नव निर्माण सेना प्रमुख राज ठाकरे एक बार फिर सभी राजनीतिक पार्टियों के निशाने पर आ गए हैं। बयान ने विभिन्न पार्टियों के नेताओं के गुस्से को इतना भड़का दिया है कि उन्होंने राज के खिलाफ राजद्रोह का मामला चलाने की मांग कर डाली है। साथ ही उन्होंने राज को याद दिलाया है कि देश का संविधान देश के हर नागरिक को यह अधिकार देता है कि वह कहीं भी बस सकता है। लेकिन नेताओं की बयानबाजी में जो सामने आ रहा है राज की धमकी के निहितार्थ उससे आगे के हैं। राज ठाकरे की सीमित राजनीति को समझने के लिए उनके बयानों के क्षेत्रवाद की कई परतों को खोलने की आवश्यकता है। राज ठाकरे ने आजाद मैदान की हिंसा के बाद बड़ा मोर्चा निकाला था। उन्होंने इससे पुलिस और मीडिया की हमदर्दी हासिल की थी लेकिन उसके बाद उन्होंने फिर बिहार बनाम महाराष्ट्र की राजनीति शुरू कर दी। पहले भोजपुरी फिल्म एक बिहारी सब पर भारी के प्रदर्शन पर बवाल मचाया, हिंदी न्यूज चैनलों को टार्गेट किया। आलोचना के बाद राज ने पलटी खाते हुए कहा कि वे मराठी और अंग्रेजी मीडिया की नहीं हिंदी चैनल की बात कह रहे हैं। दूसरी तरफ उन्होंने यह भी सही ही कहा है कि अंग्रेजी चैनल तो वैसे ही आसमान में उड़ते हैं क्योंकि उन्हें यहां से ज्यादा अमेरिका और ओबामा की फिक्र रहती है। उन्होंने हिंदी चैनलों को दो-टूक कहा कि उनके खिलाफ खबरें प्रसारित करना और बहस में लोगों को बुलाकर चर्चा करना बंद करें। अन्यथा महाराष्ट्र में चैनल नहीं चलने देंगे।
               मीडिया के लिए इस प्रकार की निर्देशित करने वाली धमकी एक गंभीर खतरे का संकेत भी है। इस सारी उठापटक और उनकी चारों ओर से होने वाली आलोचना के बाद  राज ने कहा कि उन्होंने बिहार के बारे में जो कुछ कहा उसका गलत अर्थ लगाया गया। गलत अर्थ क्या लगाया, गलत अर्थ तब लगाया जा सकता है जब उसमें गलत अर्थ लगाने की गुंजाइश होती है।  हां राज ने मनसे सम्मेलन में बिहार के मुख्य सचिव द्वारा मुंबई पुलिस को भेजे पत्र, जिसमें बिहार सरकार को सूचित किए बिना आरोपी को पकड़कर लाने पर न्यायिक कार्रवाई की बात कही गई है, को सम्मेलन में भुनाने की कोशिश की। उन्होंने कहा कि जब मैं परप्रांतियों का मामला उठाता हूं तो लोग यह तर्क देते हैं कि देश का प्रत्येक नागरिक हर प्रांत में बिना रोकटोक आ जा सकता है। मेरा उनसे सवाल है कि अगर ऐसा है तो फिर एक राज्य की पुलिस दूसरे राज्य में क्यों नहीं जा सकती। यह बातें तर्क के आधार पर सही हैं। हमें ऐसी व्यवस्थाओं के प्रति भी ध्यान देना होगा जिसमें पुलिस का काम त्वरित हो सके। यह सही है कि सूचित करना फिर अनुमति लेना त्वरित कार्रवाही पर नकेल लगाने जैसा है। कुल मिला कर राज के व्यवहार संवैधानिक प्राधिकार के लिए चुनौती बन गए हैं।



मंगलवार, सितंबर 04, 2012

   अपना मास्टर प्लान

देश के अधिकांश शहरों में मास्टर प्लान नहीं है जबकि मास्टर प्लान विकास के लिए जरूरी है। शहरों में आधारभूत सुविधाओं के बिखराब और कचरे से भरे शहरों के पीछे मास्टर प्लान न होना बड़ा कारण है।

देश के 7000 हजार शहरों और कस्बों के विकास के लिए अपना मास्टर प्लान होना चाहिए, लेकिन केवल 24 प्रतिशत शहर-कस्बे ही ऐसे हैं जिनके पास मास्टर प्लान है। देश के लिए यह सबसे बड़ी अदूरदर्शिता है। स्थानीय निकायों और सरकार की यह बड़ी असफलता है।  सन 2011 की जनगणना के आधार पर वर्तमान समय में देश के 7935 शहरों में 37.71 करोड़ लोग रह रहे हैं जो देश की कुल जनसंख्या का लगभग 31 प्रतिशत हैं। ऐसे में शहरों के विकास से संबंधित प्रयासों और इसके लिये आवश्यक मास्टर प्लान को बनाने की आवश्यकता पर चर्चा करने का यह सही समय भी है।
भारत में बढ़ते शहरीकरण की प्रवृत्ति का विश्लेषण करें तो यह स्पष्ट होता है कि देश के ग्रामीण क्षेत्रों में विगत वर्षों के दौरान किये गये सामाजिक व आर्थिक विकास योजनाओं का लाभ सभी लोगों तक समान रूप से नहीं पहुंचर रहा है।  आर्थिक और सामाजिक विकास के विभिन्न प्रयासों का लाभ न मिलने के कारण वंचित और पिछड़े वर्ग के लोग रोजी-रोटी की तलाश में शहरों की ओर जाने को मजबूर हुये हैं। इसी प्रकार शिक्षा के क्षेत्र में किये जा रहे प्रयासों से लोगों को नये ज्ञान और दक्षताओं को पाने का अवसर तो मिला किन्तु आस-पास के क्षेत्रों में काम करने के अवसरों के न मिलने के कारण लोग शहर की ओर रूख करते रहे। शहरों में कम पढ़े-लिखे और अकुशल लोगों के लिये शारीरिक श्रम करके रोजी कमाने के अवसर हैं तो साथ ही पढ़े-लिखे और कुशल लोगों के लिये बैंकिंग, बीमा, शिक्षा, रिसर्च, व्यापार और उद्योग जैसे क्षेत्रों में काम करने के अवसर मिल रहे हैं।
आबादी के कारण शहरी क्षेत्रों में सेवाओं देने वाले संस्थानों पर निरन्तर दबाव बढ़ रहा है। इसका सबसे यादा प्रभाव स्थानीय शहरी निकायों पर पड़ा है जिनके ऊपर 74वें संविधान संशोधन के बाद से स्थानीय आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रमों को लागू करने की जिम्मेदारी दी गयी है। बढ़ती आबादी के अनुपात में स्थानीय शहरी निकायों में संसाधनों (वित्तीय और मानवीय) में बढ़त न होने के कारण स्थानीय शहरी निकाय लोगों को मूलभूत सुविधाओं जैसे पीने का साफ पानी, चौड़ी सड़क, बिजली, साफ-सफाई, गंदे पानी के निकासी के लिये नालियां भी उपलब्ध कराने में स्वयं को सक्षम नहीं महसूस कर रहे हैं।भारत में बढ़ते शहरों के कारणों को जानने का प्रयास करें तो यह प्रतीत होता है कि शहरों का विकास प्रायº राजनीतिक नजरिये से किया जा रहा है न कि लोगों की जरूरतों और स्थानीय आवश्यकताओं के आधार पर। छोटे और मझोले शहरों में 80 प्रतिशत कचरों का अनियमित प्रबंधन और इससे जुड़े निपटान की समस्या को कभी भी और कहीं भी देखा जा सकता है। इसी प्रकार बढ़ते शहरीकरण के कारण आवागमन के साधनों की बढ़ती संख्या तो बढ़ी है कि किन्तु शहरों की संकरी सड़कें और बाजार क्षेत्र में अनधिकृत रूप से बढ़ते कब्जे के कारण अनियंत्रित यातायात और बढ़ते जाम की समस्या विकराल रूप ले रही है।


दो साल की सजा


सा त जून 2010 को फैसला देते हुए यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड के पूर्व अध्यक्ष केशव महेंद्रा सहित सात आरोपियों को धारा 304-ए  के तहत दो साल की सजा और एक लाख रुपए  के जुर्माने की सजा सुनाई थी। धारा 304-ए लापरवाही से किए कृत्य से व्यक्ति या व्यक्तियों की मृत्यु होने के लिए लागू की जाती है। हजारों लोगों के मौत के लिए जिम्मेदार अरोपियों को मात्र दो साल की सजा! यह  गैस पीड़ितों के लिए दोहरी त्रासदी थी। इस मामूली सजा पर दुनिया भौंचक थी और आश्चर्य है कि सीबीआई ने इस फैसले को अपनी जीत घोषित कर रही थी। इस जीत के संदर्भ क्या थे और कैसे यह जीत थी, यह सीबीआई ने किसी को नहीं बताया।  जिस धारा के तहत यह मामला चल रहा था उसमें न्यायालय इससे अधिक सजा दे भी नहीं सकता था। बाद में सरकार ने उच्चतम न्यायालय में एक ‘क्यूरेटिव पिटीशन’ दायर की थी, जिसमें सभी आरोपियों को धारा 304 भाग 2 (गैरइरादतन हत्या ) के लिए सजा  का प्रस्ताव था। सुप्रीम कोर्ट ने यह कह कर इस याचिका को 11 मई, 2011 को खारिज कर दिया था कि इसे सेशन कोर्ट में दायर किया जाए। इस पर सीबीआई ने भोपाल के जिला एवं सत्र न्यायालय में यह याचिका दायर की थी। अब गुनाहगारों के लिए माकूल सजा के लिए लगाई गई अर्जी भी खारिज हो गई तो ये दूसरी बड़ी त्रासदी बन गई। कुल मिला कर 27 साल गुजरने के बाद भी गैस पीड़ितों के लिए न्याय दूर होती रेगिस्तानी मरीचिका में बदलता जा रहा है।
खारिज हुई याचिका के कानूनी लूप होलों को सीबीआई ठीक तरह से नहीं भर सकी। अपराधियों को वह सजा नहीं मिली जिसकी गैसपीड़ितों को उम्मीद थी। कानून के जानकारों का भी मानना है कि सीबीआई ने इस केस के सभी चरणों में गलती पर गलती की है। ट्रायल कोर्ट में आरोप सुनिश्चित किए गए थे, उसी समय आपत्ति लेकर धारा को बढ़ाने की अर्जी दी जा सकती थी लेकिन ऐसा नहीं किया गया। इसके बाद जब सबूत प्रस्तुत हुए, उस वक्त भी सीबीआई सजा बढ़ाने के लिए अपना पक्ष रख सकती थी। इसके अलावा कई और मौके थे, लेकिन सीबीआई ने सजा बढ़ाने के लिए इनका इस्तेमाल   नहीं किया। कोर्ट ने भी सीबीआई की खामियों को गिनाते हुए अर्जी खारिज की है। हालांकि यह मात्र सब्र करने जैसी बात है कि रिवीजन याचिका खारिज होने का असर आगे की जाने वाली अपील पर नहीं होगा।
लेकिन इस मामले में राज्य यानी सीबीआई की भूमिका को कम करके नहीं आंका जा सकता। न्याय के बीच में आने वाले अवरोधों पर भी गौर करना आवश्यक है। यह मामला गैस पीड़ित अधिकांश गरीबों को बांटे गए राहत के अलावा ऐतिहासिक सुधारों से भी जुड़ा है। सजा अगर अधिक मिलती तो यह साबित होता है कि औद्योगिक लापरवाही भी एक अपराध है। गैस का रिसाव दुर्घटनावश नहीं, यह पैसे बचाने की आपराधिक 

ठाकरे बनाम बिहारी
मानवीय समाज एक सीधी साधी संरचना नहीं है। राज ठाकरे जैसे लोग समाज में पैदा होते रहे हैं। दूसरी तरफ जब हम एक देश हैं तो अपराधी पकड़ने गई मुंबई पुलिस को नीतीश सरकार ने धमकी क्यों दी?
बिहार वालों के खिलाफ विवादास्पद बयान देकर महाराष्ट्र नव निर्माण सेना प्रमुख राज ठाकरे एक बार फिर सभी राजनीतिक पार्टियों के निशाने पर आ गए हैं। बयान ने विभिन्न पार्टियों के नेताओं के गुस्से को इतना भड़का दिया है कि उन्होंने राज के खिलाफ राजद्रोह का मामला चलाने की मांग कर डाली है। साथ ही उन्होंने राज को याद दिलाया है कि देश का संविधान देश के हर नागरिक को यह अधिकार देता है कि वह कहीं भी बस सकता है। लेकिन नेताओं की बयानबाजी में जो सामने आ रहा है राज की धमकी के निहितार्थ उससे आगे के हैं। राज ठाकरे की सीमित राजनीति को समझने के लिए उनके बयानों के क्षेत्रवाद की कई परतों को खोलने की आवश्यकता है। राज ठाकरे ने आजाद मैदान की हिंसा के बाद बड़ा मोर्चा निकाला था। उन्होंने इससे पुलिस और मीडिया की हमदर्दी हासिल की थी लेकिन उसके बाद उन्होंने फिर बिहार बनाम महाराष्ट्र की राजनीति शुरू कर दी। पहले भोजपुरी फिल्म एक बिहारी सब पर भारी के प्रदर्शन पर बवाल मचाया, हिंदी न्यूज चैनलों को टार्गेट किया। आलोचना के बाद राज ने पलटी खाते हुए कहा कि वे मराठी और अंग्रेजी मीडिया की नहीं हिंदी चैनल की बात कह रहे हैं। दूसरी तरफ उन्होंने यह भी सही ही कहा है कि अंग्रेजी चैनल तो वैसे ही आसमान में उड़ते हैं क्योंकि उन्हें यहां से ज्यादा अमेरिका और ओबामा की फिक्र रहती है। उन्होंने हिंदी चैनलों को दो-टूक कहा कि उनके खिलाफ खबरें प्रसारित करना और बहस में लोगों को बुलाकर चर्चा करना बंद करें। अन्यथा महाराष्ट्र में चैनल नहीं चलने देंगे।
 मीडिया के लिए इस प्रकार की निर्देशित करने वाली धमकी एक गंभीर खतरे का संकेत भी है। इस सारी उठापटक और उनकी चारों ओर से होने वाली आलोचना के बाद  राज ने कहा कि उन्होंने बिहार के बारे में जो कुछ कहा उसका गलत अर्थ लगाया गया। गलत अर्थ क्या लगाया, गलत अर्थ तब लगाया जा सकता है जब उसमें गलत अर्थ लगाने की गुंजाइश होती है।  हां राज ने मनसे सम्मेलन में बिहार के मुख्य सचिव द्वारा मुंबई पुलिस को भेजे पत्र, जिसमें बिहार सरकार को सूचित किए बिना आरोपी को पकड़कर लाने पर न्यायिक कार्रवाई की बात कही गई है, को सम्मेलन में भुनाने की कोशिश की। उन्होंने कहा कि जब मैं परप्रांतियों का मामला उठाता हूं तो लोग यह तर्क देते हैं कि देश का प्रत्येक नागरिक हर प्रांत में बिना रोकटोक आ जा सकता है। मेरा उनसे सवाल है कि अगर ऐसा है तो फिर एक राज्य की पुलिस दूसरे राज्य में क्यों नहीं जा सकती। यह बातें तर्क के आधार पर सही हैं। हमें ऐसी व्यवस्थाओं के प्रति भी ध्यान देना होगा जिसमें पुलिस का काम त्वरित हो सके। यह सही है कि सूचित करना फिर अनुमति लेना त्वरित कार्रवाही पर नकेल लगाने जैसा है। कुल मिला कर राज के व्यवहार संवैधानिक प्राधिकार के लिए चुनौती बन गए हैं।