रविवार, अक्तूबर 27, 2013

गांव से एक दिन......... कविताएं


 
रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति

   
आत्मकथ्य
मेरे लिए अपने आपको गांव या शहर में किसी भी रूप में बांटना मुश्किल होता है। खुद को और कविता को बांटना मेरे लिए संभव नहीं होता है। मैं समझ नहीं पाता कि वह कौन सी सीमा रेखा है जिससे समाज अलग अलग होता है। हम सुविधाओं के लिए खुद को अलग अलग सीमाओं में बांटते हैं लेकिन दरअसल वे कोई सीमा होती नहीं हैं। वे एक ऐसा बिंदु होती हैं जिसको हम सुविधा के लिए स्वीकार करते हैं। यहीं दूसरी बात ये है कि आखिर मैं क्यों नहीं बांट पाता? क्या कारण हैं कि ऐसा है? यहां अपनी बात एक उदाहरण से स्पष्ट करना जरूरी है। विज्ञान के नजरिये से देखें तो अंधेरा और उजाला कोई दो स्थितियों या पक्षों का प्रतीक नहीं हैं। वे प्रकाश कणों की विरलता और सघनता का स्तर ही होते हैं। जब बहुत अधिक प्रकाश कण होते हैं तो दिन होता है और जब वे धीरे धीरे कम होते जाते हैं, उनमें विरलता आती जाती है तो वे अंधेरे का निर्माण का भ्रम देते हैं। यानी स्केल एक ही होता है। अब जब स्केल एक है पैमाना एक है तो आप उसे दो अलग पक्ष जब करेंगे तो एक सुविधा के लिए करेंगे। यह सुविधा प्रशासन के लिए ठीक है कि रात हो गई तो लाइट की व्वस्था की जाए। या शहर से बाहर जंगल या गांव आ गए है तो विशेष चौकी की स्थापनाएं की जाएं लेकिन ये कविताओं के लिए भाव के लिए संभव नहीं हैं। कम से कम मैं अपनी जिम्मेदारी पर स्वीकार करता हूं कि मेरे लिए यह अलगाव स्वीकार नहीं.... यही कारण है कि मैं गांव को सभ्यता के स्केल के निम्मतम हिस्सों से उच्चतर हिस्सों की ओर आने वाले वर्ग की तरह देखता हूं।

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गांव से एक दिन

मैं गांव में था तो सिर्फ गांव में नहीं था
कुछ गांव भी मुझमें था

चीजें सिर्फ गांव के मेढ़े तक नहीं थीं
कुछ इस तरफ और कुछ उस तरफ थीं
शहर सपनों की चादर में चिपक कर आता रहा
मैं शहर और गांव दोनों में खुद का जीता रहा

एक बस आती थी-धूल का बादल लिए
वह पहला गुब्बारा था जो शहर से गांव आया
उसी में कुछ हवाएं कुछ कल्पनाएं आती थीं
शहर कैसा होता है न जाने कितने किस्सों के साथ

जब मैंने शहर नहीं देखा था, पर शहर था
देखे थे रंगीन जगमगाते दृश्य
यह शहर टीवी की स्क्रीन से उतरा था
गांव के लड़कों के दिमाग में जाकर छुप गया था

गांव के आंगन में शहर आता था
बस में रखा थैला बन कर
बिस्कुट का एक पैकिट और कुछ खिलौने साथ
शहर में सब कुछ क्यों होता है?

आज सोचता हूं
मेरा गांव धीरे-धीरे शहर से चिपक रहा है
मैं एक नक्शे की तरह दोनों में दर्ज




2
पुल से लिपट कर रोती नदी

पुल बना और गांव सुंदर हुआ
नदी सूखी तो गांव ने इधर-उधर देखा
यह अचानक सब नहीं हुआ था लेकि न
उत्तर किसी के पास नहीं था

मेरे गांव के लोगों के लिए
कुछ मील दूर सुनाई पड़ता था किसी काम का शोर
वहां बजते रहते थे विशाल इंजिनों के सिलेंडर
धुंआ और मजदूरों की लंबी सासें जिंदा दिन रात
मिट्टी को अलटती मशीनों की लंबी भुजाएं

रात को भी नहीं रुकती थी आवाज की बाढ़
काम लगातार होता था गांव को पता नहीं था
पुल नदी के लिए बनाया था या सूखने के लिए

वे आवाजें एक दिन पूरी तरह शांत हो गर्इं
मशीनें खराब पुरजे छोड़ कर न जाने कहां चली गर्इं
आसमान से देवता देखते थे यह सब
गांव सोचता था किसी देवता की करामात है यह
जैसे ही काम रुका नदी ने सूखना शुरु कर दिया

पुल एक सूखी नदी पर एक स्मारक था अब
जिस पर वक्त ट्रकों की तरह गुजरने लगा था

नदी बीमार गाय की तरह गांव में आती है
जब भी पुल के नीचे से गुजरती है
शाम की रोशनी में पुल से लिपट कर रोती है

3


तुम्हारा गांव और तुम

मेरे दोस्त मुझे नहीं चाहिए गांव
नहीं चाहिए इन गांवों की तरीफ

यहां कांटे कीचड़ पत्थर हैं
मेरे गांव को शहर बना दो

मैं बदल रहा हूं अपना गीत
जब तुम आते हो अपने गांव
दो दिन में ही लौट पड़े हो
क्यों न रहे तुम अपने गांव?

खेत नहीं खलिहान नहीं फिर कैसा ये गांव बचा
बैल नहीं, तालाब नहीं फिर ये कैसा ये गांव रहा

कोई नहीं लौटता गांवों में रहने
शहरों का अपराध लिए तुम भी


धीरे धीरे बच कर यादों की नाव चलाते
ओ कवि तुम हमको भी शहर बुला लो 

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परंपराएं


जब गांव सरककर हाईवे पर दुकान खोल लेता है
अपने गांव को याद करना कितना मुश्किल हो जाता है
बेचता है गन्ने का रस, सिगरेट, चाय और पेटिस
यह न जाने कहां से आ जाता है अपने आप दुकानों में

न जाने कैसे लोग आते हैं यहां
बगल में दादी चीखती सी है-
मांगते क्यों है वही जो वे खाना चाहते हैं
हम खाते हैं वे क्यों नहीं खाते वह

ये शहर वाले भी कभी गांव वाले थे
लाल मिर्च की सब्जी और तेल वाला गुरगा
आज क्यों कहते हैं मिर्च कम शकर कम
मीठा खाना तो नहीं रहा बुरा जन्म भर से
फिर शहर में ये क्या करने लगे ऐसा
शक्कर भी नहीं गुड़ भी नहीं मिरचा भी नहीं

अरे हमारी तो परंपरा रही है मीठा खाने की
मिरचा में दगा मुरगा और ज्वार की रोटी

ये शहर वाले मिरचा भी नहीं खाने देते
मीठा भी खाने से डरते डराते हैं भला
सारी ज्वार तुला कर ले गए खेतों से
बीज भी न बचने दे रहे यहां

समेटते से लगते हैं मेरे गांव की परंपराएं
लड़कियां भी गांव में शहर की तरह पंसद करते हैं

एक दादी भी कुछ दिन वकालत करेगी गांव की
फिर चली जाएगी जलने और   में एक दिन के लिए आऊंगा
इसके बाद गांव जल्दी जल्दी शहर होने की कोशिश करेगा

कोई भी कुछ नहीं करेगा
सारे गांव वाले कम शकर और कम मिर्च खाने लगेंगे







  कैसे जानेंगे नेता गरीबी

गरीबी आर्थिक मजबूरी है और ऐसा दुष्चक्र है जो एक से दूसरी पीढ़ी तक चलता रहता है। क्या राहुल जानते हैं प्याज क्यों 100 रुपए किलो है। गरीबों के लिए सबसे मुफीद सब्जियां भी 60 रुपए किलो हैं।



म  ध्यप्रदेश के
देश की राजनैतिक व्यवस्था के लिए बने दल देश के लिए दलदल हो गए? शायद इसलिए कि देश की अल्पज्ञानी सामान्य जनता ने उनको परखने की कोई कसौटी निर्धारित नहीं की, नेतृत्व प्रतिभा हमारे विकास की प्राथमिकता में नहीं रहे। देश की 70 प्रतिशत जनता किसान है या खेती पर निर्भर है। नेतृत्व को उन पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। खेती-किसानी का यह संकट बहुत गहरा और बुनियादी है। बड़ी तादाद में किसानों की आत्महत्याओं में भी यह दिखाई देता है। सरकारी आंकड़ों पर ही गौर करें, तो वर्ष 1995 से लेकर 2011 तक इस देश में लगभग दो लाख 71 हजार किसान खुदकुशी कर चुके हैं। यानी हर साल औसतन 16 हजार किसान आत्महत्या कर रहे हैं। रोज 44 किसान देश के किसी न किसी कोने में आत्महत्या करते हैं। विडंबना यह है कि खेती और किसानों के गहराते संकट के बावजूद उन आर्थिक नीतियों और विकास के उस मॉडल को लेकर कोई पुनर्विचार नहीं हो रहा है, जिनके कारण यह संकट पैदा हुआ है। बल्कि सरकार आंख मूंदकर उसी रास्ते पर आगे बढ़ने पर आमादा है।
गरीबी का अर्थ है समाज में अधिक बेरोजगारी होना। हम देश को विकसित और अंतरराष्ट्रीय नेतृत्व की ओर ले जा रहे हैं या गरीबी-गरीबी का जाप करने के लिए चुनाव लड़ते हैं? अपने समाज के यथार्थ से दूर पश्चिम प्रेरित नीतियों कि वजह से देश का यह आलम है कि देश के बेरोजगारों का एक बहुत बड़ा वर्ग लगभग निष्क्रिय हो गया है। गांवों में गरीबी पसरी है और हमारे नेता उसे देखने जा रहे हैं। क्या गरीबी देखने की चीज है। साठ साल से राजनेता यह देख रहे हैं लेकिन किसी के पास ऐसी दूरदर्शी योजना नहीं है जो गरीबों का वास्तविक भला कर सके। चुनावी मौसम में गरीबी देखना और दिन-रात देश के लिए सोचना दो अलग चीजें हैं। आज देश को दूरदशर््िाता से परिपूर्ण नीतियों की दरकार है।
सागर से लगभग चालीस किलोमीटर दूर राहतगढ़ में कांग्रेस की सत्ता परिवर्तन रैली को संबोधित करते हुए राहुल गांधी ने कहा कि गांव के भोजन और पानी से उनका पेट खराब हो गया, लेकिन उन्हें अच्छा लगा।  नेताओं को पता होना चाहिए कि गांवों में क्या हो रहा है। कितनी गरीबी है। राहुल ने यह भी कहा कि मच्छरों ने उन्हें बेहद काटा, लेकिन गरीब के यहां रहकर उन्हें पता चला कि गांव के लोग किस तरह का जीवन जीते हैं और वास्तविक भारत यही है। अधिक से अधिक नेता इस तरह गांवों में जाएं और वहां के जीवन की वास्तविकता जानें। राहुले के ये विचार अपने आप में सही हैं लेकिन देश के नागरिकों की समस्याओं के समाधान के लिए पर्याप्त नहीं हैं। भारत की वास्तविकता को जानने के लिए चुनाव क्षेत्रों में ही नहीं, कहीं भी जाया जा सकता है। यह जानना भी जरूरी है कि कोई गरीब क्यों है? क्यों आज गांव पिछड़े हैं? देश का राजनीतिक नेतृत्व लोगों को रोजगार और उनकी आजीविका के साधनों को सुनिश्चित कर सका? क्यों हर चुनाव में बार-बार गरीबी की बात करनी होती है? क्या गरीबी से आगे की बात नहीं की जानी चाहिए?

बुधवार, अक्तूबर 09, 2013

तो फिर युद्ध कौन करता है 12

 
दोस्तो

कुछ कविताएं आपके लिए कुछ पुरानी हैं कुछ नई हैं। यह एक कवि गोष्ठी में पढ़ने के लिए चयनित की थीं। सोचा बंच में आपसे भी शेयर की जाएं। आपकी खरी प्रतिक्रिया का इंतजार है...
चलते चलते

चलते चलते रुकते रुकते
सफर ये तेरा पूरा हो

टूट के गिरता बादल पानी
बहता दरिया पूरा हो

महक रही है धूप सुनहरी
दिन ये तेरा पूरा हो

खिड़की में मुस्कान रखी है
घर ये तेरा पूरा हो

तेल मसाले कम और ज्यादा
छौंक तो तेरा पूरा हो

कार के आगे उड़ती तितली
जंगल तेरा पूरा हो

सड़कें जलती आग सरीखी
एसी तेरा पूरा हो

महीना निकले या अटके लेकिन
वेतन तेरा पूरा हो



 पूरा दिन




दिन ने मुझे इस कदर काम पे लगाया
मैं भाग के रात की गोद में छुप गया

सुबह पिता की अंगुली थी
पकड़ के बचपन गुजर गया

भागता हुआ जाता है दिन का छोर
मेरे हिस्से में रह जाती है थकावट भरी शाम

काम का पूरा दिन सिर पर खड़ा रहता है
बाजारों की भागदौड़ में चमकती दोपहर
मेरी पीठ पर सलीब सी टंग जाती है


मैं खींचता हूं पूरा दिन रोशनी से लहुलुहान
सूरज के घोड़े की तरह मैं दौड़ता हूं दुनिया में



 आजादी

सबसे कठिन है आजाद होने की घोषणा करना
आजाद हो जाना आदमी की सबसे बड़ी जिÞम्मेदारी है


 आजादी  माँगना सबसे बड़े भय का सामना करना है
जब हवाएँ सबको एक तरफÞ ले जा रही हो

प्रयत्नों के तिनके छोड़ कर
लोग खाली हाथों को लहराने लगें
तब कठिन हो जाता है आजÞादी की सीमा बताना
जब गुलामी को आजÞादी बताया जा चुका हो
जÞरूरत होती है ऐसी आजÞादी को पहचानना

अपनी आजादी की घोषणा
दुनिया की सबसे बड़ी कीमत चुकाने की शुरुआत है
ये शुरुआत किसी भी क्षण की जा सकती है
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कीमत

कीमत केवल शर्ट की नहीं होती
समय परिश्रम सीने में रखे ईमान और जीने की इच्छा का
उसमें शामिल होना जÞरूरी है
बहुत कम चीजÞों की कीमत रुपयों में होती है
हम ज़्यादातर चीजÞो की कीमतें अपने होने से चुकाते हैं

हमें भोर की लालिमा के लिए चुकाना होती है
मीठी नींद और बिस्तर की ऊब
चाँद को देखने के लिए शहर से बाहर जाने की कीमत
कार में बैठे कर काँच लगाने और सफÞर करने के लिए
हमें कीमत चुकाना होती है।

नदी के किनारे पर जाने और नहीं जाने के लिए
संगीतकार को सुनने और नहीं सुनने के लिए
चित्रकार के चित्रों को देखने और नहीं देखने के लिए
कविता को सुनने और नहीं सुनने के लिए
काम करने और नहीं करने की कीमत चुकाना होती है
हमें अपने होने के लिए एक एक सांस देना पड़ती है

पेड़ों की छाँव पाने के लिए
हवाओं में लहराने के लिए
धरती पर एक कदम चलने की कीमत चुकाना होती है
संसार में कुछ भी बेशकीमती नहीं है
कुछ भी ऐसा नहीं है जिसको कीमत न दी जा सके
कीमत केवल रुपयों से अदा नहीं होती



तो फिर युद्ध कौन करता है

वे युद्ध नहीं करते वे सिर्फ हाियार बनाते हैं
Ñ
कभी भी हथियार बनाना युद्ध करना नहीं होता?
वे मुनाफा कमा रहे हैं दुनिया भर से
और मुनाफा कमाना युद्ध करना नहीं हो सकता
मैं देखता हूं और मुझे ऐसा कहना पड़ता है

वे आक्रामक विज्ञापन और तूफानी माहौल बनाते हैं
लॉबिंग करते हैं ब्रांड, बाजार और हथियारों की
मैं फिर कहता हूं विज्ञापन करना युद्ध करना नहीं है

वे रिसर्च करते हैं धरती आसमान और आंतरिक्ष में
वे परमाुण से बिजली बनाते हैं और उससे कुछ बल्ब जलाते हैं
वे बांध बनाने के बाद उनके  सूखने के बारे में सोचते हैं

बिजली से बल्ब जलाना और नदियों के बारे में सोचना
युद्ध नहीं हो सकता -मेरा ऐसा कहना जरूरी है
और भी चीजें हैं- वे शांति की बातें करते हैं
हम सभी जानते हैं शांति की बातें युद्ध नहीं हो सकतीं?

वे संसाधनों को अपने हक में लिखते हैं
वे कहीं कब्जा करते हैं कहीं व्यापार का समझौता
कभी धरती से बहुत सा तेल निकाल लेते हैं
धरती से तेल निकालना युद्ध करना कैसे हो सकता है?

परंपराएं, शहर, गांव और जंगल उनके लिए
दुनिया में बाजारों से खाली जगहें हैं
राजधानियों में इन पर सरकारें संधियां करती हैं
वे उनके और हमारे देश को परस्पर नापते-तौलते हैं-
वे अपने साथ कभी  कोई फौजी नहीं लाते
व्यापारियों के अलावा उनके हवाई जहाज में कुछ नहीं होता
व्यापारियों को साथ लाना युद्ध है? इसे कौन युद्ध कहेगा?

मेरे देश परंपराओं को नष्ट करना वहां अपनी चीजें रखना
युद्ध कैसे हो सकता है- युद्ध तो हथियारों से लड़ा जाता है?
इसीलिए मुझे कहना पड़ रहा है कि वे युद्ध नहीं करते

वे शांति के प्र्रस्ताव लाते हैं और शांति से आते हैं
उन्हें पता है अशांति से बाजार डरता है
इसलिए शांति की बात को युद्ध नहीं कहा जा सकता

दुनिया में और भी कई चीजें हैं जो युद्ध नहीं हो सकतीं
जैसे कि फसलों के बीजों को बदल देना
खेती की तकनीक के बारे में और बातें करना
सरकारों को अपने प्रस्तावों के लिए राजी करना
यह सब करना युद्ध कैसे हो सकता है?

विज्ञापन देखकर और अखबारों को पढ़ कर
कभी नहीं समझा जा सकता कोई भी युद्ध
हमारी जगह उनका होना
या हमारे कुछ व्यापारियों का उनकी तरह हो जानाView blog
इस अदल बदल को युद्ध नहीं कहा जा सकता?
सवाल है कि युद्ध किस चीज को कहा जा सकता है?

कोई जानता हैं कि युद्ध क्या है? तो मैं जानना चाहता हूं
ताकि युद्ध के बारे में कुछ सही सही लिखा जा   सके!




   

समय की चादर


अभी समय की चादर को बिछाया है
दिन के तकिए को सिरहाने रखा है
जिÞंदगी का बहुत सा अधबुना हिस्सा यों ही पड़ा है

शहर में किस को मालूम है
अधबुनी जिÞंदगी कितनी कीमत माँगती है
कोई नहीं बताता प्यार के धागों का पता

अपने शहर को प्यार की खुमारी से देखते हुए
एक अजनबी की मुस्कान में मिलते हैं प्यार के धागे
जिÞंदगी ने अपनी मुस्कान को पूरा कर लिया है

आज दिन के तकिए पर सिर रख कर
जिÞंदगी समय के चादर पर सो रही है
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दोस्ती

दोस्तों एक राह पर साथ चलना नहीं होता
ये अहसास का सफÞर है पूरा नहीं होता

दोस्तों किसी बासीपन को लेकर नहीं चलती
इसकी राह में कोई कदम पुराना नहीं होता

दर्द जिसका चाँद-सा हो खुशी समंदर-सी
इसकी दोस्ती से कोई जहाँ बाकी नहीं होता।

जिÞंदगी की नर्सरी में हजÞार रिश्ते हैं
दोस्ती की महक वाला कोई रिश्ता नहीं होता

दर्द से लबरेज दोस्त है वादे मत करो
सामने चुप खड़े रहना कुछ काम नहीं होता



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एक उदास लड़की और मैं

कल मैं ही था उस उदास लड़की के साथ
मैंने ही उसे कहा था-
तुम्हारी उदासियाँ इस मॉल की रोशनियाँ हैं
कुछ क्षण रुक कर उसने कहा-
मैं अपने दोस्त को एक गिफ्ट छू कर आई हूँ
तब मेरी उँगलियों में बहुत उदासी थी
इसीलिए तो सारी लाइटें उदास हो गईं

चलो मैं अपन पर्स देखता हूँ मैं जÞरा-सा हँसा
और तुम भी अपना पर्स देखो
फिर कुछ दिनों तक मॉल की रोशनियाँ
हमारी आँखों में चमकती रहीं थीं



सब जगह तुम

रोजÞ काम से कमरे पर लौटता हूँ
अक्सर शाम तुम आसपास होती हो

मैं एक रंग से भर जाता हूँ
तुम शाम का रंग हो जाती हो
और मुझे शाम का रंग अच्छा लगता है
मेरी आँखों में फूलों की तरह खिलता है

मेरी आँखें फूलों की तरह दुनिया देखती हैं
और तुम सब जगह मुझे दिखाई देती हो।






आधा बिस्किट

तुम्हारे हाथों से तोड़ा आधा बिस्किट
संसार का सबसे खूबसूरत हिस्सा है
जहाँ कहीं भी आधा बिस्किट है

तुम कहाँ-कहाँ रख देती हो अपना प्यार
बिस्किटों में चारा के सुनहरे पन में
पानी के गिलास और विदा की सौंफ में

तुमने कोने कोने में रख दिया है
हर कहीं मिल जाता है तुम्हारा प्यार

नदियों की ये कैसी चिंता

 

नदी प्रदूषण भारत की बड़ी समस्या है। यह प्रतीकात्मक तरीकों से हल नहीं होने वाली। इसके लिए हमें उद्योग और समाज में ऐसे दूरगामी मॉडल की अवश्यकता है जो उन्हें स्वच्छ रख सके।


अ   खबारों में एक खबर है कि गंगा और यमुना में मूर्तियों को विसर्जित नहीं किया जा सकेगा? यह खबर अच्छी है और आश्चर्यजनक है। लेकिन दो कारणों से चकित करती है। इसके दो करण हैं। एक तो यह  कि कहीं यह नदियों के प्रदूषण से ध्यान हटाने की कोई बड़ी साजिश तो नहीं? और दूसरा यह कि मूर्तियां साल भर में कितना प्रदूषण करती हैं? और मूर्तियां ही क्यों प्रतिबंधित हैं? एक अनुमान के अनुसार चमड़े की फैक्ट्री एक दिन में जितना नदी को प्रदूषित करती है, आस्था से विसर्जित मूर्तियां उतना बीस साल में भी नहीं कर सकतीं। तब सवाल है कि पूरा ध्यान इन मूर्तियों पर इसलिए तो केंद्रित नहीं किया जा रहा है कि इससे बड़े प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों से जनता का ध्यान भंग हो। यहां यह सब कहने का अर्थ यह नहीं है कि रसायनिक रंगों से रंगी मूर्तियां पानी में डालना उचित है। प्रदूषण तो एक बूंद का भी हो तो गलत है लेकिन मूल मुद्दा है कि हम प्रदूषण के हर प्रकार पर बात करें। वह औद्योगिक भी हो, धार्मिक या किसी अन्य प्रकार का, प्रदूषण की संपूर्णता में बात होना चाहिए और हर नदी-नाले, तालाब कुए जैसे भी जल स्रोतों पर यह नियम लागू किया जाना चाहिए। भारतीय हर नदी को गंगा का ही रूप मानता है। वह आधुनिक विकास प्रक्रिया में प्राकृतिक जल संसाधनों का बेरहमी से दोहन और शोषण किए जाने से देश की सभी प्रमुख नदियां जल प्रदूषण, भूक्षरण, की समस्याओं से ग्रस्त हैं और प्रवाह मार्ग में बांध, नहर निर्माण, जल प्रवाह के कृत्रिम मार्ग बनाने की प्रक्रिया आदि से नदियों में उथलेपन, जमाव, प्रवाह गति में कमी आदि की समस्याएं उत्पन्न होने से नदियों का जल ग्रहण क्षेत्र भी कम हो रहा है। भारत की परम पवित्र नदी गंगा में प्रदूषण को लेकर देश भर में चिंता व्याप्त है। भारत सरकार समस्या से अनजान नहीं है। सरकार का प्रदूषण नियंत्रण मंडल और जलसंसाधन मंत्रालय राज्यों के सहयोग से नदियों की स्थिति का जायजा लेती रहती है। जलसंसाधन मंत्रालय की सरकारी रिपोर्ट बताती है कि केवल गंगा ही नहीं बल्कि यमुना, नर्मदा, चंबल, बेतवा, सोन, गोदावरी, कावेरी आदि सभी प्रमुख नदियां जलप्रदूषण की गंभीर समस्या से ग्रस्त हैं और दिनों दिन नदियों में प्रदूषण की समस्या गंभीर होती जा रही है।
गंगा देश की प्रमुख नदी है और उसे पवित्र बनाए रखना समाज की जिम्मेदारी है। अप्रैल 1985 में गंगा एक्शन प्लान की शुरुआत हुई और बीस सालों में इस पर 1200 करोड़ रुपये खर्च हुए। लेकिन हम वे चीजें नहीं हटाते जिनसे प्रदूषण फैलता है। ऋ षिकेश से लेकर कोलकाता तक गंगा के किनारे परमाणु बिजलीघर से लेकर रासायनिक खाद तक के कारख़ाने लगे हैं। उन्हें हटाने के लिए कोई योजना सरकार के पास नहीं है। जिन जनहित याचिकाओं पर यह फैसला आया है उनका प्रयास संपूर्ण प्रदूषण के लिए ध्यान केंद्रित करेगा और लोगों में यह जागरूकता आएगी कि नदियां सामाजिक जीवन का हिस्सा हैं उनकी सुरक्षा और स्वच्छता पहली प्राथमिकता होना चाहिए।

सीमांध्र की आग
वोट के लाभ और लोभ में लिए गए फैसले आग ही उगलते हैं। आंध्रप्रदेश का बंटबारा ऐसा ही फैसला साबित हो रहा है। इस आग में राजनीति रोटिंयां सेंक रही है और राज्य का विकास झुलस रहा है।

कें द्रीय मंत्रिमंडल ने पृथक तेलंगाना राज्य बनाने के सरकार के फैसले के साथ ही विरोध की दबी हुई चिंगारी आग की लपटों में बदल गई। हाल ही में इस विरोध को जगनमोहन रेड्डी ने यह कह कर नई हवा दी है कि राज्य को बांटने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी जिम्मेदार हैं और उनका एकमात्र लक्ष्य है राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाना। जगनमोहन रेड्डी सीमांध्र में बहुत लोकप्रिय हैं और उनके लिए राज्य का बंटवारा एक राजनीतिक वरदान साबित हो रहा है। तेलंगाना मुद्दे का फायदा उठाने में चंद्रबाबू नायडू जगन से पीछे  हैं क्योंकि उन्होंने काफी दिनों तक तेलंगाना बनाए जाने का विरोध नहीं किया था और उनका रवैया भी इधर उधर वाला रहा था। लेकिन कुल मिला कर यही कहा जा सकता है कि हर पार्टी और छोटे दल अपनी अपने चुनावी गणित में उलझे हैं और जनता को राज्य के बंटबारे की आग में झुलसने छोड़ दिया है।
 अलग राज्य की मांग को लेकर हिंसा और उपद्रव अब देश की राजनीतिक संस्कृति का अंग बन चुके हैं, लेकिन तेलंगाना के मामले में फिलहाल एक उलटी प्रक्रिया आकार ले रही है। वहां सीमांध्र के नाम से पुकारे जा रहे शेष आंध्र प्रदेश में राज्य के विभाजन के खिलाफ कहीं ज्यादा बड़े उपद्रव की रूपरेखा तैयार होती दिखाई पड़ रही है जबकि तेलंगाना को अलग राज्य बनाने का आंदोलन काफी पुराना है। यूपीए ने पिछले आम चुनाव में दबे ढंग से और उसके तुरंत बाद खुलकर इस आंदोलन के पक्ष में अपनी राय जाहिर की थी। ऐसे में अच्छा होता कि बीते पांच सालों में राज्य के व्यवस्थित विभाजन को लेकर सारी तैयारियां की जातीं। लेकिन जगनमोहन रेड्डी से कांग्रेस और यूपीए के जिम्मेदारों का कोई संवाद ही नहीं बन पाया। यह सब अचानक नहीं हो रहा है। कुछ सालों से आंध्र प्रदेश की राजनीति को जोड़े रखने वाले सूत्र पूरी तरह टूट चुके हैं और अलग राज्य का मामला वहां हिंसा   और घृणा का सबब बन गया है। सबसे बड़ी मुश्किल हैदराबाद को लेकर है क्योंकि पिछले दो दशकों से राज्य के सारे ही जिलों से पूंजी उठ-उठकर हैदराबाद और इसके आस-पास के इलाकों में आ रही है। तटीय आंध्र और रायलसीमा इलाकों के जिन लोगों ने लाखों-करोड़ों रुपए का निवेश, मकान, जमीन और फैक्टरियों में फंसा रखे हैं, और साथ में जो हजारों लोग  नौकरी करते हैं, उन सभी को हैदराबाद के तेलंगाना का हिस्सा बन जाने से अपनी पूरी दुनिया उजड़ती हुई लग रही है। सीमांध्र के लिए एक नई राजधानी और रोजी-रोटी देने वाला एक बड़ा औद्योगिक इलाका बनाना दस-बीस साल का काम है, जिसमें एक पूरी पीढ़ी खप जाएगी। ऐसे में लोगों को भरोसा दिलाने का काम बड़े राष्ट्रीय प्रयासों के जरिए ही हो सकता है। मुश्किल यह है कि अगले छह महीनों के चुनावी माहौल में इस तो क्या किसी भी मुद्दे पर न्यूनतम राष्ट्रीय सहमति बन पाने की भी कोई गुंजाइश नहीं है। ऐसे में सभी से शांत रहने और सारे मामले सुलझाने के लिए मुश्किल आशा ही की जा सकती है। आने वाले समय में बंटबारे की राजनीति अपना असर दिखाएगी।