बुधवार, जून 20, 2012






 


राजनीति के राष्ट्रपति

शिवसेना ने अब प्रणव मुखर्जी का समर्थन कर दिया है।यह समर्थन नीति और विचारों के आधार पर नहीं, अवसरवाद और राजनीतिक नफे नुकसान के गणित पर आधारित है।


शि वसेना ने अपना पाला बदल लिया है। वैचारिक असहमतियों और विरोधों को राजनीतिक अवसरवाद किस प्रकार अलग रख देता है, यह शिवसेना के उदाहरण से साफ हो जाता है। भाजपा की वैचारिक सहयोगी शिवसेना की इस पलटी से देश का राजनीतिक विश्लेषण करने वाला वर्ग चकित है। एक प्रकार से सभी क्षेत्रीय दलों का कुछ ऐसा ही रुझान होता है। वे अपने अस्तित्व के लिए अवसरवाद के टट्टू पर जब तब सवार हो जाते हैं। चाहे वह राष्ट्रपति चुनाव हो या कोई दूसरा।
राष्ट्रपति चुनाव को लेकर एनडीए में असमंजस की स्थिति अभी भी बनी है, लेकिन उसके घटक दल शिवसेना ने अपना रुख जता दिया है। शिवसेना पार्टी राष्ट्रपति चुनाव में यूपीए के उम्मीदवार प्रणव मुखर्जी का समर्थन करेगी।   अपनी वैचारिक छवि के मुखौटे को एक तरफ रख दिया है। शिवसेना ने अपना रुख पहले साफ नहीं किया था। उसने अपना रुख उस वक्त साफ किया जब मुखर्जी ने पार्टी प्रमुख बाल ठाकरे और उनके बेटे उद्धव ठाकरे से बातचीत की। दूसरी तरफ यह भी कहा जा रहा है कि भाजपा की वैचारिक सहयोगी शिवसेना ने राष्ट्रपति चुनाव मेें एनडीए द्वारा अपना उम्मीदवार नहीं चुने जाने पर भी निराशा जताई है। शिवसेना की निराशा जायज भी है। वह क्षेत्रीय दल होने के नाते सर्वप्रथम अपने हितों को प्राथमिकता देती है। शिवसेना की यह निराशा इसलिए बढ़ रही थी कि राष्ट्रपति का नाम तय नहीं होने से अपने रिश्तों को लेकर कोई राजनीतिक मोलभाव नहीं कर पा रही थी। 2007 के राष्ट्रपति चुनाव में भी शिवसेना ने एनडीए के उम्मीदवार भैरों सिंह शेखावत का समर्थन नहीं किया था। तब पार्टी ने यूपीए उम्मीदवार प्रतिभा पाटिल का समर्थन किया था क्योंकि वह महाराष्ट्र की हैं।
दूसरी तरफ भाजपा कोर समूह की बैठक में संगमा का समर्थन करने की संभावना बनी है। राष्ट्रपति पद की दौड़ में ए.पी.जे अब्दुल कलाम के शामिल होने से इनकार किए जाने के बाद भाजपा के कोर ग्रुप की बैठक में संगमा के नाम पर विचार किया गया। इस बैठक में यूपीए उम्मीदवार प्रणव मुखर्जी का विरोध नहीं करने और जेडीयू के रुख समेत पार्टी की रणनीति पर भी बातचीत की गई। लेकिन बीजेपी की यह कसरत कमजोर संकल्प के कारण देखने दिखाने भर की साबित हो रही है। पूरे घटनाक्रम को देखें तो भाजपा फैसले न ले पाने वाली पार्टी बनती लग रही है।
भाजपा की दूसरी दिक्कत 2014 के लोकसभा चुनावों को देखते हुए है। वह एआईडीएमके और बीजेडी जैसे दलों को अपने साथ लाने की संभावना को नजर में रखते हुए राष्ट्रपति चुनाव में मुकाबला होना चाहिए। कलाम दौड़ से बाहर हो चुके हैं।  पूर्व लोकसभा अध्यक्ष पी.ए. संगमा को समर्थन दिए जाने की संभावना है। यह संभावना तभी कारगर होगी जब भारतीय जनता पार्टी अपने चरित्र को एक स्थिरता दे। फिलहाल भाजपा इतने जोड़-घटाने में उलझी है कि उत्तर लिखने से पहले ही उसके पेपर का समय पूरा हो जाएगा।




बेलगाम ताकत के दुख


पुलिस जैसी ताकतवर संस्था जब अनियंत्रित और विवेकहीन हो जाती है तो वह अपनों को मारने लगती है। राजनीतिक कार्यकता और समाज सेवक की हत्या इसका उदाहरण बन कर सामने आई है।


पुलिस द्वारा नरसिंहपुर के एक गांव में  समाजसेवी की हत्या कर दी गई। यह घटना पुसिल के बेलगाम होने के कई उदाहरणों में से एक है। कहीं पुलिस ने शांतिपूर्ण किसानों पर गोलियां बरसार्इं हैं तो कहीं संवेदनशील प्रदर्शनों को असंवेदनशील नजरिये से निबटने की कोशिश में उसे हिंसक बना दिया है। यदि इस तरह की समस्याओं और घटनाओं को समाधानों की ओर गंभीरता से विचार करें तो, यह मामला सीधे न तो राजनीतिक कहा जा सकता है और न ही गैर राजनीतिक। मध्यप्रदेश में पुलिस द्वारा प्रताड़ना और गोली से मृत्यू होने की घटनाओं की कई शिकायतें हैं। जनसुनवाई और मानवअधिकार के आंकड़ों में सबसे अधिक शिकायत पुसिल प्रताड़ना की होती हैं। ये प्रताड़नाएं बड़ कर जनता की मौत का पैगाम भी बन जाती हैं। यह समस्या सभी राज्यों की पुलिस की है। लगभग सभी राज्यों में पुलिस द्वारा जनता के मौत के आंकड़ों में बढ़ोतरी हुई है।
पुलिस के बेलगाम होने, असंवेनशील होने और विवेकपूर्ण तरीकों को न अपनाए जाने के पीछे कुछ न कुछ कारण रहे होते हैं। स्थानीय राजनीतिक दबाव और संरक्षण इसमें प्रमुख हैं। दूसरे कारणों पर गौर करें तो  पुलिस को अच्छा प्रशिक्षण न मिलना भी है। पुलिस अधिकारी और पुलिस कर्मी पुरानी मानसिकता से ग्रस्त हैं। वे समझते हैं कि वे जनता को नियंत्रित करने, उसे सबक सिखाने के लिए तैनात किए गए हैं। उनमें जिम्मेदारी की भावना नहीं है कि वे जनता के ही प्रहरी हैं।  ह्यूमन राइट्स वॉच के एशिया क्षेत्र निदेशक ब्रैड एडम्स कहते हैं, ‘भारत तेजÞी से आधुनिक हो रहा है लेकिन पुलिस अभी भी पुराने तरीकों से काम करती है। वो गालियों और धमकी से काम चलाते हैं।
अब समय आ गया है कि सरकार बात करना बंद करे और पुलिस प्रणाली में सुधार किया जाए।’ दिल्ली के पूर्व आयुक्त अरूण भगत का कहना है कि  ‘जो ऊपर के रैंक पर हैं उनका भविष्य बेहतर है लेकिन जो कांस्टेबल है हेड कांस्टेबल है   उसका फ्रस्ट्रेशन तो देखिए। उससे गÞलतियां होगीं ही। इसे बदलने की जÞरुरत है।’रिपोर्ट के अनुसार कई पुलिसकर्मियों ने बातचीत के दौरान माना कि वो आम तौर पर गिरफ्Þतार लोगों को प्रताड़ित करते हैं। कई पुलिसकर्मियों का कहना था कि वो कÞानून की सीमाएं जानते हैं लेकिन वो मानते हैं कि अवैध रूप से हिरासत में किसी को रखना और प्रताड़ित करना जÞरूरी होता है। रिपोर्ट का कहना है कि जब तक पुलिसकर्मियों को चाहे वो किसी भी पद पर हों, मानवाधिकार उल्लंघन के लिए सजÞा नहीं दी जाएगी तब तक पुलिस कभी भी जिÞम्मेदार नहीं हो सकती है।
इसमें राज्यों की पुलिस की असफलताओं का भी जिÞक्र है। रिपोर्ट के अनुसार पुलिसवाले कÞानून की परवाह नहीं करते, पुलिसकर्मियों की संख्या कम है और उनके प्रोफेशनल मानदंड भी अच्छे नहीं हैं। पुलिसकर्मी कई मौकों पर लोगों की उम्मीदों पर पूरे नहीं उतरते हैं। पुलिस सुधार इसलिए जरूरी हैं क्यो कि जनता बदल रही है। समाज बदल रहा है।

ravindra swapnil prajapati

गुरुवार, जून 14, 2012

मध्यप्रदेश में मनरेगा, सच के सामने चिदंबरम , जोशी मोदी और भाजपा

 
 मध्यप्रदेश में मनरेगा


किसी राष्ट्रीय कल्याणकारी योजना को सफल बनाना और उसके लाभ जनता तक पहुंचाना सरकारों की जिम्मेदारी है। मनरेगा के क्रियान्वयन में मध्यप्रदेश राज्यों में तीसरे क्रम पर आ गया है।


म हात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) एक व्यापक ग्रामीण समाज के लिए वरदान साबित हुई है। बेशक इसमें भ्रष्टाचार के मामले भी सामने आते रहे हैं इसके बाद भी उसने गांवों में रोजगार देकर  52 लाख परिवारों को लाभान्वित किया है। मनरेगा के द्वारा ग्रामीण मजदूर और खेतीहर मजदूर किसानों के लिए रोजगार के अवसरों को गारंटी के साथ उपलब्ध कराना रहा है। इस योजना में 2011-12 में ग्रामीण अंचलों में जरूरतमंदों को रोजगार उपलब्ध करवाने के लिए राशि खर्च करने के क्रम में मध्यप्रदेश देश में तीसरे स्थान पर रहा है। प्रदेश में इस अवधि में 3,520 करोड़ रुपये रोजगार देने वाली योजनाओं पर खर्च किए गए हैं और 1797 लाख मानव दिवसों का रोजगार उपलब्ध करवाया गया है। इस दौरान 2 लाख 44 हजार ग्रामीण परिवारों को 100 दिवस का रोजगार दिया गया है। देश के अन्य राज्य राजस्थान, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और बिहार राशि खर्च करने के मामले में मध्यप्रदेश से पीछे रहे हैं। मनरेगा में देश भर का बजट 40 हजार करोड़ रुपए रहा है। मध्यप्रदेश ने अपने हिस्से का बजट समयानुसार खर्च कर यह साबित किया है कि वह राष्ट्रीय योजनाओं के क्रियान्वयन में भी राज्यों में शीर्ष पर है।
प्रदेश में मनरेगा के सुचारु क्रियान्वयन के लिये कई उल्लेखनीय प्रयास हुए हैं। शिकायत निवारण नियम तैयार किए गए हैं और सामाजिक अंकेक्षण पर व्यापक जोर दिया जा रहा है। निर्माण कार्यों की गुणवत्ता और समयावधि में निर्माण पूरे करने के मकÞसद से 1291 संविदा उप यंत्रियों की भर्ती की कार्रवाई अंतिम चरण में है। मनरेगा में प्रत्येक ग्राम-पंचायत में ग्राम रोजगार सहायकों की नियुक्ति ग्राम-पंचायतों द्वारा करने का निर्णय लिया गया है। इन ग्राम रोजगार सहायकों को लैपटॉप तथा कम्प्यूटर भी उपलब्ध करवाए जा रहे हैं। इस व्यवस्था से मनरेगा के कार्यों के नियंत्रण तथा बजट व्यवस्था को सुचारु बनाने में आसानी होगी।
मनरेगा के तहत अब तक बुनियादी विकास कार्यों और ग्रामीणों की बेहतरी के लिए सबसे अच्छी योजना रही है। मध्यपदेश में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के जरिये शुरुआत से अब तक विकास कार्यों और ग्रामीणों की बेहतरी के लिए लगभग 18 हजार करोड़ राशि खर्च की जा चुकी है। इससे 9 लाख 78 हजार से अधिक कार्य हुए हैं। लेकिन मनरेगा में भी धन के दुरुपयोग के मामले आए हैं। प्रदेश सरकार ने भ्रष्टाचार के मामलों को सख्ती से रोका भी है। यही कारण है कि मनरेगा के क्रियान्वयन में लापरवाही और गड़बड़ी के मामलों में प्रदेश में अब तक 2,143 शासकीय कर्मचारियों-अधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाई की गई है। इसके बावजूद, योजना के लाभों को और अधिक सटीक तरीके से हितग्राहियों तक पहुंचाने की आवश्यकता है। किसी भी बड़ी योजना में उत्कृष्ट परिणामों के लिए निरीक्षण एवं अवलोकन की निरंतरता बनी रहनी चाहिए।

सच के सामने चिदंबरम


मामला खत्म करने के लिए दायर पी चिदंबरम की याचिका को निचली अदालत ने 4 अगस्त 2011 को खारिज कर दिया था, अब हाईकोर्ट ने भी केस चलते रहने का फैसला दिया है।


पी चिदम्बरम की दिक्कतें कम या अधिक होने से इस केस का कोई वास्ता नहीं है। जैसा कि मीडिया में कहा जा रहा है कि यह सरकार और चिदम्बरम के लिए बड़ा झटका है। क्यों है यह झटका? जो सच रहा है इस केस में अदालत उसके लिए ही तो सामने लाने की कोशिश कर रही है। वास्ता सरकार को या गृहमंत्री को झटके का नहीं है, इसका वास्ता सच के सामने आने का है। चिंदबरम ने चुनावी परिणामो ंको कैसे प्रभावित किया था और यदि यह सच साबित होता है तो फिर चिदम्बरम सजा भुगतेंगे। यह न झटका है और न कोई अनोखी बात। अपराध सिद्ध होने पर आप अपराध की सजा हासिल करेंगे। इस मामले में चिदम्बरम की याचिका पर अदालत का यह फैसला मायने रखता है। मद्रास हाई कोर्ट की मदुरै बेंच ने गृहमंत्री पी. चिदंबरम के निर्वाचन विवाद में उनके खिलाफ केस जारी रखने का आदेश दिया है। कोर्ट ने कहा कि चिदंबरम के खिलाफ इस मामले में पर्याप्त सबूत हैं। चिदंबरम ने दलील दी थी कि कन्नपन की याचिका में कई खामियां हैं, लिहाजा इसे खारिज किया जाए। मामला 2009 के शिवगंगा लोकसभा चुनावों में मतगणना के दौरान चिदंबरम के विरोधी प्रत्यासी राजा कन्नपन अपने नजदीकी उम्मीदवार चिदंबरम पर बढ़त बनाए हुए थे। लेकिन आखिर में कन्नपन 3,354 वोटों से हार गए थे।  कन्नपन ने 25 जून 2009 को चिदंबरम की जीत को मद्रास हाईकोर्ट में चुनौती दी।  कन्नपन ने आरोप लगया कि चुनाव में वह जीते थे, लेकिन डाटा एंट्री आॅपरेटर ने गड़बड़ी कर उनको मिले वोट चिदंबरम के खाते में डाल दिए थे। सवाल ये उठता है कि ये आरोप सही हो जाते हैं तो चिदंबरम के राजनीतिक व्यक्त्वि का कितना हास होगा? देश के लोकतांत्रिक राजनीतिक माहौल को कितना आघात लगेगा? चिदंबरम जब एयरसेल मैक्सिस डील पर उठे विवाद में भावनात्मक अपील करते हैं कि कोई चाहे तो मेरे सीने में खंजर मार दे लेकिन मेरी ईमानदारी पर शक न करे। तो यह उनकी प्रतिबद्ध   ईमानदारी का सबब बन जाता है, लेकिन अदालत के फैसले के बाद उनकी करनी, नीति और नीयत के साथ-साथ उनकी संसद सदस्यता भी सवालों के घेरे में आ  रही है।
चिदंबरम का यह मामला यूपीए सरकार की प्रतिष्ठा का मामला भी बनता जा रहा है। चिदंबरम सरकार में गृहमंत्री हैं और निश्चय ही विपक्ष इस मामले को सरकार की प्रतिष्ठा से जोड़ेगा। ऐसा लगता है कि सरकार में सख्त फैसले लेने और उन पर अमल करने की नैतिक साहस की भारी कमी है। जो चल रहा है चलने दो की स्थिति दिखाई देती है। प्रधानमंत्री के ईमानदार होने के बाद भी, उन्हें अपने फैसलों के लिए जिम्मेदार होना ही होगा। समय पर फैसले न लेना उतना ही घातक है जितना कि फैसले ही न लेना। सरकार इस स्थिति  में कोई अंतर नहीं कर पा रही है। ऐसा लगता है कि कार्यपालिका ने देश में सब कुछ अदालतों के भरोसे छोड़ दिया है। आगे जो भी होगा सबूतों के आधार पर अदालत के फैसले से सामने आएगा। फिलहाल अदालत के फैसले ने चिदम्बरम को शक के घेरे से बाहर नहीं किया है।

जोशी मोदी और भाजपा


भारतीय जनता पार्टी में कमजोर केंद्रीय नेतृत्व का अभाव झलकने लगा है। मोदी और जोशी मामला हदें पार कर चुका है और यह पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र का गला घोटने जैसा है।


 शुक्रवार को घटनाक्रम बहुत तेजी से घटा। भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय  कार्यकारिणी से संजय जोशी को इस्तीफा देने के लिए मजबूर कर चुके मोदी ने उन्हें बीजेपी छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया।  पार्टी के अनुसार संजय जोशी ने पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी को चिट्ठी लिखकर पार्टी के सभी दायित्वों से मुक्त करने का आग्रह किया था, जिसे पार्टी ने स्वीकार कर लिया  है। इसके कुछ ही देर बाद मीडिया में पार्टी की ओर से आधिकारिक बयान भी जारी कर दिया गया।
संजय जोशी ने नरेंद्र मोदी की वजह से पार्टी छोड़ने का फैसला किया। मोदी ने भी पार्टी छोड़ने की धमकी दी थी।  नितिन गडकरी मामले को राष्ट्रीय स्तर की कुशलता से सुलझा नहीं पाए। उन्होंने किसी बड़ी पार्टी के केंद्रीय अधिकारी होने के नाते अनुशासन को भी नहीं बनाए रख पा रहे हैं। ऐसा लगता है कि भारतीय जनता पार्टी में भीतरी तानाशाही का जन्म गुजरात से हो गया है। हालांकि जोशी ने कहा कि वह नहीं चाहते कि पार्टी में उनकी वजह से कोई समस्या पैदा हो। लेकिन समस्या तो अब शुरु हुई है।  भाजपा में मोदी युग उसके राजनीतिक और वैचारिक विघटन के साथ अपनी शुरुआत कर चुका है।
जोशी और मोदी की ये दुश्मनी बीस साल पुरानी है। मोदी के आने से पहले केशुभाई के साथ उस समय चुनावों में संजय जोशी ही हारे थे। संजय जोशी की  पार्टी में वैचारिक और संघ कार्यकर्ताओं में तो पकड़ है लेकि  जनता का साथ उन्हें नहीं मिलता रहा है। केशुभाई, वाघेला, सुरेश महेता, आडवाणी, बाजपेयी, सुषमा, जेटली, वसुंधरा, जेठमलानी सब ने संजय जोशी को गुजरात में साथ दिया था तबभी और वह चुनाव भाजपा हार गई थी। जब मोदी ने कमान संभाली तो भाजपा चुनाव जीती थी।  उत्तर प्रदेश 2012 के चुनावों में मोदी को कमान न दे कर फिर संजय जोशी को कमान दी और भाजपा फिर हारी।  यही कारण है कि संजय को उनकी मांद संघ में ही पहुंचा दिया गया है।   जोशी के साथ मोदी ने हर लड़ाई में जीत हासिल कर ली है। लेकिन मोदी जिस तरह अपने राजनीतिक अभियान में आगे बढ़ रहे हैं क्या वे यह भी देख रहे हैं कि देश की जनता उनको कैसे देख रही है।
आखिर पार्टी के अंदर का लोकतंत्र खत्म किया जा सकता है तो देश के लोकतंत्र को भी मोदी खतरनाक हो सकते हैं? इसका सबूत है। बिहार के उपमुख्यमंत्री और बीजेपी नेता सुशील मोदी ने इशारों-इशारों में नरेंद्र मोदी पर हमला किया है। सुशील मोदी ने कहा कि कोई भी नेता पार्टी से बड़ा नहीं हो सकता। यह भी कहा कि जिस तरह से संजय जोशी को कार्यकारिणी से इस्तीफा दिलवाया गया वह ठीक नहीं है। सुशील मोदी ने कहा कि बीजेपी एक लोकतांत्रिक पार्टी है और ऐसे में किसी को ये कोशिश नहीं करनी चाहिए कि वह अपनी बात पार्टी पर थोप दे।  पार्टी के लिए जोशी की इस ‘कुर्बानी’ से साफ हो गया है कि से बीजेपी का बवाल थमने के बजाय और बढ़ेगा।
                                                                                                             Ravindra swapnil prajapti


सोमवार, जून 04, 2012

बंद के बहाने से


बंद विरोध प्रदर्शन का विपक्षी नजरिया है। लेकिन जब यह राजनीतिक हंगामा करके झंडा फहराने तक सीमित हो जाता है तो इसके राजनीतिक असर भी बहुत कम हो जाते हैं।



पेट्रोल की कीमतों में हुए इजाफे के खिलाफ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) और वामदलों की ओर से आयोजित बंद को जनता का समर्थन मिला। बंद की इस पूरी प्रक्रिया में पेट्रोल की बढ़ती कीमतें और महंगाई के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार माना जा रहा है। पेट्रोल-डीजल की कीमतें महंगाई का आधार विकसित करती हैं। ट्रांसपोर्टेशन से जुड़ा होेने के कारण पेट्रोलियम पर मामूली सी बढ़ोतरी व्यापारियों द्वारा कीमतें बढ़ा कर मुनाफा वसूलने का जरिया बन जाती हैं।  निम्न मध्यवर्ग जिसके हाथ में न अपनी मेहनत का मूल्य बढ़ाने की क्षमता है और वेतन। इस महंगाई से त्रस्त है। लोक कल्णकारी राज्य की परिकल्पना के बीच देश की 60 प्रतिशत कामकाजी जनता  सुप्त आक्रोश से भरती जा रही है। सरकारें अपनी खुफिया एजेंसियों के भरोसे जनमानस की विचारों को टटोलती जरूर रहती हैं लेकिन जनता की वास्तविक हकीकत तो उसके बीच रह कर  उससे बात करने से ही पता चलेगी। सरकार में बैठे नेता कहते हैं कि पेट्रोल की कीमतें अन्तरराष्ट्रीय बाजÞार के  हिसाब से निर्धारित होंगीं। लेकिन जब कच्चे तेल की कीमत 125  डॅलर प्रति बैरल से घटकर 108 डालर हो गर्इं तो पेट्रोल की कीमत बढ़ाने का क्या मतलब है?
 पिछले सात वर्षों में वित्तीय संकटों के दौरान वित्तमंत्रियों के आश्वासन भी सामान्य जैसे लगने लगे हैं। भयावह आर्थिक परिस्थितियों के बावजूद किसी पक्ष से कोई समाधान नहीं मिलता है। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है की जुआघरों की तजर्Þ पर चल रही भारतीय अर्थव्यवस्था के विद्वान स्थितियों के विवेचन और सुधार में नाकाम साबित हुए हैं। जिनमें हमारे देश के प्रधानमंत्री भी हैं। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में पूंजीवाद के नियंत्रण के गहन सिद्धांतों की समीक्षा करें तो अमेरिकी नीति निर्माताओं ने जो मानक जनहितों की रक्षा के लिए तय किए थे, उनका सबसे ज्यादा दुरुपयोग पूंजीवादियों ने किया है। मुक्त बाजÞार व्यवस्था में सरकार के राजनीतिक नियंत्रण से बाहर विशाल औद्योगिक घराने विकसित हो गए। इसके नतीजा बाजÞार का मूल्य नियंत्रण  औद्योगिक समूहों के हाथों में चला गया। आज हमारी सरकारें विकास के नाम पर इसी रास्ते पर चली जा रही हैं।
 जनता को क्रूर होती महंगाई से बचाने का एक तरीका यह है कि आर्थिक नीतियों और उपभोक्ता की सुरक्षा के लिए उत्पादन और वितरण के काम पर सामाजिक नियंत्रण होना बहुत जÞरूरी है। पूंजी के साम्राज्य को निजी घरानों के लाभ कमाने की प्राथमिकता वाले तंत्र से बाहर लाना पड़ेगा। कभी देश में यह व्यवस्था थी। नेहरू ने जिस मिश्रित अर्थव्यवस्था की बात की थी, उसमें इसको जोड़ा गया था। लेकिन  90 के दशक से उसको तबाह करने का काम शुरू किया और आज वह ख़त्म हो चुकी है। अब महत्वपूर्ण क्षेत्रों में निजी कंपनियों का दबदबा है और उनके सामने सरकार लाचार है। सरकार की यह लाचारी अगर बार-बार जनता के सामने आई तो जनता की नजर से उसका औचित्य खत्म हो जाएगा। अभी समय है कि सरकारें जनता के अर्थशास्त्र की उपेक्षा करना बंद करना सीख लें।

अन्ना-बाबा का तप



अन्ना का आंदोलन एक पवित्र जिद है। इससे देश के लोग प्रभावित होते रहे हैं। बाबा रामदेव के शामिल होने के बाद भी आंदोलन के पास दीर्घकालीन वैचारिक आधार का अभाव बना हुआ है।



अन्ना और बाबा रामदेव नई सीखों शिक्षाओं के साथ फिर राजनीतिक तपिश बढ़ाने दिल्ली में हैं। एक दिन के इस अनशन पर कुछ नई चीजें भी देखने मिली हैं। पहली ये कि मंच से किसी नेता या भ्रष्ट नेता का नाम नहीं लिया जाएगा हालांकि अरविंद केजरीवाल ने नेताओं के नाम लिए। नाम नहीं लेने वाला सुधार आंदोलन को व्यापक आधार देने के लिए किया गया है। इससे यह लगता है कि बाबा और अन्ना की जुगलबंदी में आंदोलन करने वालों ने यह  सीख ही लिया है कि किसी नेता का नाम लेने से आंदोलन व्यक्ति केंद्रित हो जाता है और उसका आधार भी सिकुड़ता है।
भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ संसद मार्ग पर एक दिन के अनशन में बाबा रामदेव और अन्ना हजारे ने अपने मतभेदों को झुठलाने की कोशिश की और आंदोलन को सशक्त बनाने-बताने का प्रयास भी किया। इस आंदोलन में अन्य पक्षों को भी मोर्चे के तरह खोला है। बाबा ने एफडीआई को ब्लैक मनी की चाबी बताया और आईपीएल पर भी सवाल उठाए। इससे लगता है कि बाबा आंदोलन को व्यापक सांस्कृतिक परिवर्तन का हिस्सा भी बनाने जा रहे हैं। दूसरी तरफ अन्ना हजारे ने कहा कि बाबा रामदेव के साथ आने से आंदोलन की ताकत बढ़ी है। काफी देर बाद टीम अन्ना सीख सकी है कि बड़े आंदोलन व्यक्तिगत नहीं होते। उनको जहां से सहयोग सहायता मिले वह स्वीकार करना चाहिए। अन्ना के आने से और बाबा के एक मंच होने से एक खास तरह का आंदोलनकारी माहौल बनाने में सफल हो सकते हैं।  इस एकता से सरकार भी दबाव में आ सकती है। मंच पर अरविंद केजरीवाल और बाबा रामदेव में मतभेद सामने आए हैं। बाबा द्वारा नाम न लेने की नसीहत देने पर केजरीवाल मंच से चले गए। यानी आंदोलन में मतभेदों को छुपाया नहीं जा सका है।
बाबा ने जो विचार व्यक्ति किए उनमें पिछली भूलों से सबक लिया दिखाई देता है, जब वे कहते हैं कि आंदोलन किसी पार्टी के खिलाफ नहीं है। आंदोलन हम क्रोध और प्रतिशोध के साथ नहीं बल्कि पूरे होश और बोध के साथ कर रहे हैं। रामदेव ने यह भी कहा कि जो लोग आरोप लगाते हैं कि योगगुरु अर्थव्यवस्था की बात कैसे कर सकता है तो वे कह रहे थे कि योग के साथ अर्थशास्त्र का भी अध्ययन किया है और योग की किताबों के साथ अर्थशास्त्र की किताबें भी लेकर चलता हूं। ये पता नहीं है कि बाबा आधुनिक अर्थशास्त्र पढ़ रहे हैं या प्राचीन।  अन्ना ने कहा कि बाबा रामदेव और उनके साथ आने से ताकत बढ़ी है। अन्ना ने रामदेव का साथ स्वीकार करके आंदोलन को टीम अन्ना की चौकड़ी से बाहर निकाल लिया है। टीम अन्ना तार्किक है लेकिन जनता के करीब नहीं पहुंच पाती। अन्ना और बाबा में भारतीय जनता से संवाद की क्षमता अधिक है। इस सब के बाद भी अभी इस आंदोलन के राजनीतिक आर्थिक वैचारिक आधारों में बहुत कमजोरी दिखाई देती है। यह आंदोलन भ्रष्टचार को तो खत्म करना चाहता है लेकिन उसके अन्य प्रभावों के अध्ययन और विश्लेषण में अभी बहुत पीछे है।


रविवार, जून 03, 2012

रणनीति को खोती हुई पार्टी



 भारतीय जनता पार्टी ताकतवर विपक्षी दल से वंचित और अपनी रणनीति को खोती हुई पार्टी में बदलती जा रही है। हालिया तीन प्रकरणों से उसकी छवि अस्पष्ट और वैचारिक रूप से कमजोर दल की हुई है बल्कि उसके राजनीतिक मुद्दों पर ढुलमुल रवैये से भी जनता में उसके प्रति उपेक्षा -भाव पैदा हो रहा है।  इसके पीछे तार्किक आवधारणाएं मौजूद हैं। भाजपा के तीन प्रकरणों में पहला है उत्तरप्रदेश चुनावों में बाबू सिंह  कुशवाह का भाजपा में स्वागत करना। आडवाणी ने उत्तर प्रदेश चुनाव के दौरान भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रहे बसपा के नेताओं को पार्टी में शामिल करने के गडकरी के फैसले की आलोचना की थी। हाल ही में आडवाणी ने ब्लॉग में लिखा है कि ‘उत्तर प्रदेश विधानसभा के परिणाम, भ्रष्टाचार के आरोप में मायावती द्वारा निकाले गए मंत्रियों का भाजपा में स्वागत किया जाना। इन सब घटनाओं ने भ्रष्टाचार के विरूद्ध पार्टी के अभियान को कुंद किया है। उस समय भी आडवाणी सहित कई वरिष्ठ नेताओं ने इसका विरोध किया था। दूसरा प्रकरण है मोदी का, जिसमें सुनील जोशी को राष्ट्रीय कार्यकारिणी से बाहर बैठाया गया। और तीसरा प्रकरण मध्यप्रदेश के अध्यक्ष प्रभात झा का कमल संदेश का संपादकीय है। उन्होंने नितिन गडकरी और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर अपरोक्ष रूप से हमला बोला है। मुखपत्र में बिना किसी का नाम लिए कहा गया है कि पार्टी के कुछ नेताओं को आगे बढ़ने की जल्दबाजी है। पार्टी के बुनायदी ढांचे को नजर अंदाज कर आगे बढ़ने की ललक गलत है। जैसे-जैसे एक नेता प्रगति करता है उसकी सोच और समझ में भी प्रगति होनी चाहिए।
भाजपा का अंदरुन अंधड़ यहीं खत्म होने का नाम नहीं लेता। इसमें जेठमलानी भी इस तेज बहती हवा में अपना मुक्का तानते हैं। बीजेपी सांसद राम जेठमलानी ने पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी को 23 मई को कड़ा पत्र लिखा है। उन्होंने बीजेपी नेताओं पर आरोप लगाया है कि वे संप्रग सरकार के दूसरे शासनकाल में बड़े पैमाने पर व्याप्त भ्रष्टाचार पर चुप्पी साध आपसी मतभेद में ही उलझे हैं। देश भ्रष्टाचार के खिलाफ उत्तेजनापूर्ण कार्रवाई चाहता है।  सरकार प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रपति पद के लिए मैदान में उतारने की योजना बना रही है। बीजेपी इस मुद्दे पर चुप है, जिससे जनता समझेगी कि उसके पास भी कुछ छुपाने लायक है। जेठमलानी ने जो लिखा है वह जनता की अपेक्षाओं का सीधा वर्णन है। वे और भी बातें लिखते हैं जैसे कि देश समझ चुका है कि गरीबी और अभावग्रस्तता चारों ओर फैले भ्रष्टाचार और मुख्य रूप से हमारे वर्तमान शासकों द्वारा राष्ट्रीय संपत्ति की बड़े पैमाने पर लूट के कारण है। कमोबेश पूरे देश का मानना है कि मौजूदा केंद्रीय मंत्रिमंडल के आधे सदस्यों को जेल में होना चाहिए। जबकि बीजेपी के नेता एक दूसरे की टांग खींचने में व्यस्त हैं। सच यह है कि भारतीय जनता पार्टी अब अपने कमजोर पक्षों के ओवर फ्लो को झेल रही है। आने वाले वक्त में उसे देश का सशक्त विपक्षी गठबंधन तैयार करना था। अब भी समय है भाजपा गलतियों से सीखे और पुर्नस्थापित होकर मैदान में आए।
ravindra swapnil prajapati