सोमवार, जून 04, 2012

बंद के बहाने से


बंद विरोध प्रदर्शन का विपक्षी नजरिया है। लेकिन जब यह राजनीतिक हंगामा करके झंडा फहराने तक सीमित हो जाता है तो इसके राजनीतिक असर भी बहुत कम हो जाते हैं।



पेट्रोल की कीमतों में हुए इजाफे के खिलाफ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) और वामदलों की ओर से आयोजित बंद को जनता का समर्थन मिला। बंद की इस पूरी प्रक्रिया में पेट्रोल की बढ़ती कीमतें और महंगाई के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार माना जा रहा है। पेट्रोल-डीजल की कीमतें महंगाई का आधार विकसित करती हैं। ट्रांसपोर्टेशन से जुड़ा होेने के कारण पेट्रोलियम पर मामूली सी बढ़ोतरी व्यापारियों द्वारा कीमतें बढ़ा कर मुनाफा वसूलने का जरिया बन जाती हैं।  निम्न मध्यवर्ग जिसके हाथ में न अपनी मेहनत का मूल्य बढ़ाने की क्षमता है और वेतन। इस महंगाई से त्रस्त है। लोक कल्णकारी राज्य की परिकल्पना के बीच देश की 60 प्रतिशत कामकाजी जनता  सुप्त आक्रोश से भरती जा रही है। सरकारें अपनी खुफिया एजेंसियों के भरोसे जनमानस की विचारों को टटोलती जरूर रहती हैं लेकिन जनता की वास्तविक हकीकत तो उसके बीच रह कर  उससे बात करने से ही पता चलेगी। सरकार में बैठे नेता कहते हैं कि पेट्रोल की कीमतें अन्तरराष्ट्रीय बाजÞार के  हिसाब से निर्धारित होंगीं। लेकिन जब कच्चे तेल की कीमत 125  डॅलर प्रति बैरल से घटकर 108 डालर हो गर्इं तो पेट्रोल की कीमत बढ़ाने का क्या मतलब है?
 पिछले सात वर्षों में वित्तीय संकटों के दौरान वित्तमंत्रियों के आश्वासन भी सामान्य जैसे लगने लगे हैं। भयावह आर्थिक परिस्थितियों के बावजूद किसी पक्ष से कोई समाधान नहीं मिलता है। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है की जुआघरों की तजर्Þ पर चल रही भारतीय अर्थव्यवस्था के विद्वान स्थितियों के विवेचन और सुधार में नाकाम साबित हुए हैं। जिनमें हमारे देश के प्रधानमंत्री भी हैं। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में पूंजीवाद के नियंत्रण के गहन सिद्धांतों की समीक्षा करें तो अमेरिकी नीति निर्माताओं ने जो मानक जनहितों की रक्षा के लिए तय किए थे, उनका सबसे ज्यादा दुरुपयोग पूंजीवादियों ने किया है। मुक्त बाजÞार व्यवस्था में सरकार के राजनीतिक नियंत्रण से बाहर विशाल औद्योगिक घराने विकसित हो गए। इसके नतीजा बाजÞार का मूल्य नियंत्रण  औद्योगिक समूहों के हाथों में चला गया। आज हमारी सरकारें विकास के नाम पर इसी रास्ते पर चली जा रही हैं।
 जनता को क्रूर होती महंगाई से बचाने का एक तरीका यह है कि आर्थिक नीतियों और उपभोक्ता की सुरक्षा के लिए उत्पादन और वितरण के काम पर सामाजिक नियंत्रण होना बहुत जÞरूरी है। पूंजी के साम्राज्य को निजी घरानों के लाभ कमाने की प्राथमिकता वाले तंत्र से बाहर लाना पड़ेगा। कभी देश में यह व्यवस्था थी। नेहरू ने जिस मिश्रित अर्थव्यवस्था की बात की थी, उसमें इसको जोड़ा गया था। लेकिन  90 के दशक से उसको तबाह करने का काम शुरू किया और आज वह ख़त्म हो चुकी है। अब महत्वपूर्ण क्षेत्रों में निजी कंपनियों का दबदबा है और उनके सामने सरकार लाचार है। सरकार की यह लाचारी अगर बार-बार जनता के सामने आई तो जनता की नजर से उसका औचित्य खत्म हो जाएगा। अभी समय है कि सरकारें जनता के अर्थशास्त्र की उपेक्षा करना बंद करना सीख लें।

कोई टिप्पणी नहीं: