मंगलवार, दिसंबर 12, 2017

September 3, 2007

रवीन्‍द्र स्‍वप्‍निल प्रजापति






जनता में बदलता देश 



मेरा देश ४७ में जनता की तरह पैदा हुआ था
जिसे मैं प्यार नहीं करता था
दया दिखाता था या फिर गोली मार देता था
मैं इतना गतिशील था उस समय
कि हर चेहरा मेरा ही चेहरा हो जाता था


जब भी कुछ बदलने की कोशिश करता-तब
मैं गांधी हो जाता और देश हरिजन
मैं नेहरु हो जाता और देश जनता
पिछले पचास साल से मैं राजनीति होता रहा
और देश पब्लिक
समाज सेवक होता तो देश एनजीओ
लेखक बना तो देश प्रेमचन्द का होरी और गोबर
मेरे कवि के लिए देश-विमर्श और सरोकार बनता रहा


पिछले पचास सालों से सब मुझे पहचानने की कोशिश कर रहे हैं
वे नारे लगाते हुए मेरे पास से निकल जाते हैं
ठीक मेरी बालकनी के नीचे से
या कभी-कभी पांच फुट चौड़ी गली में
एक सिपाही को खड़ा करके निकल जाते हैं


उनके दूर निकल जाने के बाद
जब सायरनों की आवाजें गुम हो जाती हैं
मैं देखता हूं सन्नाटे को चीरता हुआ
कहीं यह मैं ही तो नहीं था-अन्दर महीन तार सा कांपता है
मेरा ही कोई रूप भगम-भाग में छिटका हुआ


मैं एक नागरिक की हैसियत से भी नहीं कहता
मुझे अपने देश से प्यार है
और मैं नहीं कहता पूंजीपतियों को गोली मार दूंगा
मैं नहीं कहता कि वामपंथियों की दलाली
और दोहरी मानसिकता का भंडाफोड़ कर दूंगा
आज मेरे दावे ओजोन में छेदों की तरह खतरनाक हो गए हैं
आने वाले समय में मेरे लिये देश भक्त होना
दकियानूस होने का दूसरा नाम भी हो सकता है
क्योंकि मैंने आधी सदी अपने गांव की सड़कों के गड्डे
ठीक करने में निकाल दी
और इस दौरान देश
दुनिया के लिए बाजार में बदल गया
जहां मैं अपनी ही चीजों को देश की जगह मार्केट का हिस्सा समझने लगा


मुझे नहीं मालूम था कि ऐसी कल्पना करनी होगी
कि देश से साबुन की तरह
एक ही रेस्टहाउस में
समाजवादी भी नहायेगा और पूंजीवादी भी


मैं कहना चाहता हूं देश का कुछ भी बेचो
खरीदो और किसी से भी व्यापार करो
जब पेड़ पौधों जंगलों पर्वतों में संपदा को अनुमान की आंखों में भरो
तब जंगल के पास और पहाड़ की तलहटी में जो छोटा शहर है
उसे सिर्फ जनता मत समझना
वहां देश के लोग रहते हैं
मेरे देश के लोग जिसे मैं प्यार नहीं करता।

शनिवार, अक्तूबर 14, 2017

https://hindi.pratilipi.com/ravindra-prajapati-swapnil/papa-bura-lagta-hai
एक ऐसी कहानी जिसे पढ़ कर आप जिंदगी के एक नए अनुभव और त्रासदी को महसूस करेंगे
जरूर पढ़िए

सोमवार, अगस्त 24, 2015

जो लोग जीवन या विचारधारा को एक पक्षीय देखते हैं, वे विजय बहादुर सिंह के साथ नहीं रह सकते


                                                                                                             रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति


जिनसे हम ताकत लेते हैं और इतना संजो लेते हैं कि वह आपको सालों या जीवनभर तक काम में आए, उन पर कुछ भी लिखना तलवार की धार पर चलना या किसी अपरिचित से संतुलन को सहेजने की तरह होता है। मैं नहीं जानता कि विजय बहादुर सिंह मेरे लिए क्या हैं, लेकिन जो हैं वह एक अव्यक्त और अपरिभाषित छांव हैं जहां उनके विचार पत्तों की तरह मेरे आसपास बिखरे होते हैं। जब भी कहीं होता हूं और जीवन का कोई न कोई पक्ष, सर के मार्फत उस स्थिति, या उस परिवेश में झलक रहा होता है। विजय बहादुर सिंह इसी तरह मेरे लिए परिभाषित होते हैं। हर जगह हर परिस्थिति में। मैंने ऐसा कभी नहीं सोचा कि उनसे नियमित मिला जाए। कई बार न मिल कर में उनके बीच में अधिक होता हूं। पिछले एक साल से यह स्थिति बनी है। कई बार मैं उनसे मिलने जाता हूं और डिपो चौराहे से यूटर्न लेकर वापस आॅफिस में बैठ जाता हूं।
आज में सोचता हूं कि विजय बहादुर सिंह सर से एक सीखा हुआ समय मैं किस प्रकार जी रहा हूं। मुझे जो मिलता उनसे, उसमें जिंदगी का हर पक्ष समाहित होता है। वह चाहे विचार हों, चाहे पक्ष या विपक्ष हो, समाज हो, परंपराएं हों या फिर लेखन हो, आज विजय बहादुर सिंह सब तरह से मेरे लिए एक व्यक्तित्व से अधिक पूरा परिवेश हैं। यहां परिवेश के रूप में वे जीवन के तमाम अनुशासन सिखाते हुए साथ होते हैं।
मेरा और विजय बहादुर सिंह का रिश्ता किसी शब्दिक परंपरा से परिभाषित नहीं होता, मेरा और उनका साथ होना एक दृष्टिकोण का निर्माण करता है।
आज मुझे लगता है कि मैं आज भी उनके साथ कई रूपों में साथ हूं। यह महसूस होना किसी भी संवाद के लिए एक जरूरी अनुशासन है।
विजय बहादुर सिंह मेरे दृष्टिकोण का निर्माण करने वाली प्रक्रिया के अभिभावक हैं। वे आलोचक अधिक हैं और मैं कवि अधिक हूं। कविता को समझने के प्रारंभिक दिनों में शब्द और अर्थ की कई परतें मैंने देखी हैं। कई साक्षात्कार किए हैं।
सर के लिए अनिवार्य शर्त है जिसे जीना है। अच्छे से जीना है। उनके लिए किसी की वैचारिक स्तर पर आलोचना करना, किसी के फरेब को नष्ट करना या उस पर हमला करना एक जरूरी प्रक्रिया है। वे मानवीय स्तर पर कुछ और सोच सकते हैं लेकिन वैचारिक स्तर पर हर किसी कवि या लेखक को नहीं बख्शते हैं। कविता पहचानने और उसमें निहित फरेब को पहचाना मैंने सर से सीखता रहा हूं।
क्योंकि वे कहते हैं कि आखिर चीजें एक परतीय नहीं होतीं। उनमें कई परतें होती हैं। इस निष्पत्ति के अनुसार कोई भी चीज एक पक्षीय नहीं हो सकती। इसमें विचार भी शामिल हैं। इस एक बात में हमारे कई दर्शन समाहित होते हैं। विजय बहादुर सिंह ने मेरे लिए लंबी यात्राएं रखीं।
मैं उनके कारण ही विविधता में चीजों को, विचारों और विचारधाराओं को देखना सीखा। जो लोग जीवन या विचारधारा को एक पक्षीय देखते हैं, वे विजय बहादुर सिंह के साथ नहीं रह सकते। क्यों? इसका कारण है वे आपकी चेतना को झकझोरते हैं, और यह बहुत कम लोगों को पसंद आता है। कई लोग बड़ी रुचि से मिलने जाते हैं और लौटते समय कहते हैं कि अरे विजय बहादुर सिंह तो बहुत मुश्किल व्यक्ति हैं। क्या मुश्किल हैं? क्योंकि वे आपके जड़ विचारों को हिला देते हैं।
ऐसा ही एक बार का उदाहरण है। दो युवा भोपाल से मिलने पहुंचे। उनमें से एक सरकारी इंजीनियर हो चुके थे और एक किसी आॅफिस में अधिकारी। दोनों साहित्य कविता में रुचि के चलते मिलने आए थे। विदिशा में विजय बहादुर वाली गली के उस घर में प्रवेश करते ही उनको अपने जूते उतारना पड़े। फिर मूंग की दाल, विदिशा वाला नमकीन और पुदीना वाली चने की दाल रिंगे ने उनकेसामने रखी। बहुत देर तक बातें होती रहीं। सर ने स्पष्ट कर दिया था कि मैं अभी कुछ नहीं खा सकता। वे इससे प्रभावित थे कि इतना स्वादिष्ट नमकीन में से डाक साहब कुछ नहीं खा रहे।
करीब तीस चालीस मिनट की बात हो चुकी थी। उस बात चीत में नमकीन भी खत्म हो रहा था लेकिन इतना खत्म नहीं हो पा रहा था कि प्लेटें साफ हो जाएं। उनमें जो नमकीन बचा है उसे पूरा खा लिया जाए। लेकिन उन युवाओं को लग रहा होगा कि प्लेटें पौंछ कर खा लीं तो अशिष्टता, और दूसरी तरफ सर को लग रहा था कि एक चम्मच नमकीन, दाल के कुछ दाने कचरे में फेंकने के लिए छोड़ना श्रम की कीमत का अपमान। बनाने वाले मजदूर की मेहनत का अपमान। अन्न का अपमान आदि।
उस समय मैं, श्रीकांत रिंगे और शैलेंद्र भावसार वहां थे। हम सर के सामने इन सब चरणों से निकल आए थे लेकिन वे दोनों युवा शिष्ट अधिकारी शायद अपने जीवन का, विजय बहादुर सिंह के सानिध्य में पहला चरण पार करने वाले थे।
बातचीत खत्म हो गई।
कुछ देर पहले जो बातचीत की जा रही थी उसमें कहा जा रहा था कि किसानों की समस्या क्या है? मजदूरों की समस्या क्या है? श्रम और पैसे का बंटबारा इतना असंगत क्यों होता जा रहा है।
उस समय किसानों और मजदूरों की बातें इस तरह होती थीं। आज तो इस तरह की बात करना आवश्यक नहीं समझा जाता, क्योंकि चमक-दमक में मजदूरों को सजा दिया गया है। कंपनी उनको ड्रेस देती है। बस अब लाखों करोड़ों युवाओं को 10 से बारह घंटे वातानुकूलित शो रूम अथवा मॉल में खड़े खड़े गुजारना होते हैं। या लाखों गार्ड दरवाजे पर   नीली-काली ड्रेस और टोप लगा कर खड़े रहते हैं। ये वो खेतीहर मजदूर हैं जो गांवों में ट्रैक्टर, थ्रेशर, हार्वेस्टर आने से बेरोजगार हुए। खेतों और खलिहानों से मानवीय श्रम  सिमट गया। खेतों की कटनई खत्म हो गई और वे सब शहर आ गए। आज उनको ही यहां खड़े रह कर प्रोडक्ट बेचना होते हैं। उनको महीने में मिलता है साढ़े पांच हजार, सात हजार या नौ हजार, किसी किसी को तेरह भी मिल जाता लेकिन किसी किसी को।
ये सजे धजे लाखों करोड़ों लड़के लड़कियां, मजदूरों, शोषित किसानों के समान ही हैं। इनके चेहरे कुपोषण से पिचके होते हैं। इनके चेहरे पर कोई भाव नहीं, बस एक रोबोट की तरह शो रूमों में, बड़ी दुकानों में, मॉल और स्टोरों में व्यस्त हैं।
ये सब शहर की झुग्गियों में रहते हैं। किसी सुविधाविहीन बस्ती के किसी मकान के एक कमरे में पांच लोग शेयर करके रहते हैं। उनको श्रम का पूरा हक नहीं मिलता।
कौन जिम्मेदार है? मध्यवर्ग को सपोर्ट करने वाली सरकारी नीतियां? लिजलिजे नीतिनिर्माता, जनप्रतिनिधि और सुरक्षित शोषण में लिप्त उच्च अधिकारी। शहरों में गांवों से आने वाले इस तरह के युवाओं का सिलसिला उस समय शुरु ही हुआ था लेकिन आज गांव शहरों की तरफ बाढ़ की तरफ आ रहा है और दूसरी तरफ देश का मध्यवर्ग सबसे लिजलिजे स्वरूप में फैल रहा है। नौकरीपेशा और व्यापार धंधे में मस्त इस वर्ग को देश की कोई चिंता नहीं है। यह समस्याओं पर बहुत गंभीरता से विचार नहीं करता। यह पूरा वर्ग भेड़चाल में यकीन करता है। एक सुरक्षित और खोल में बंद जीवन बिताता है। आदि आदि। गांव के ये युवा कुछ सालों बाद मध्यवर्ग के रूप में जड़ों से कटे हुए एक परिवार के रूप में शहर की सबसे पिछड़ी बस्ती का हिस्सा हो जाता है।
इस लंबी बातचीत का अंत अभी बाकी है।
दोनों युवा अधिकारी जाने के लिए तत्पर हो रहे थे। फिर आपसे मिलेंगे, हम आपको रचनाएं दिखाएंगे जैसे अंतिम चरण के संवाद कर रहे थे।
तभी सर की नजर उन प्लेटों पर पड़ी। करीब चार चम्मच नमकीन बचा होगा। उसमें अंकुरित मूंग भी थी। सर ने उनसे पूछा- क्या आप दोनों को श्रम के सम्मान का अर्थ पता है? वो एक दम हक्का बक्का और उठते-उठते बैठ गए। कुछ क्षण के बाद झिझकते  हुए  उन्होंने कहा-‘ नहीं डाक साब।’
ये जो आप प्लेट में नमकीन छोड़ कर जा रहे हैं। वह कचरे में चला जाएगा। क्या कोई किसान इतना अन्न इस तरह प्लेट में छोड़ सकता है? वह जानता है कि उसका एक दाना कितने श्रम से पैदा होता है। कितनी मेहनत के बाद वह खाने लायक का सृजन कर पाता है। इसीलिए किसानों को देखिए एक एक दाना बीनता है। हम इस तरह इसलिए छोड़ देते हैं कि हम उसके श्रम की पूरी कीमत नहीं चुकाते।
आपको ये सब पूरा खाना चाहिए। एक प्लेट को मैंने उठा कर, उसकी अंकुरित मूंग के कुछ दाने हथेली पर रख कर खा लिए। इसके बाद दोनों ने आहिस्ता से चम्मच से नमकीन के संपूर्ण कणों को सहेज लिया। बात जाने की हुई। दोनों उठे और सर की और पांव लागू करने लगे। फिर जूते पहने और दरवाजे के बाहर खड़े होकर कुछ और बातचीत।
मैं भी उनके ही साथ अपने रुम पर बाहर जाने के लिए बाहर निकल लिया। मैं सर से जाने के लिए नहीं पूछता था। मैं उनकी आंखों में देखता और वे मेरी बॉडीलैंग्वेज से समझ जाते थे कि अब मुझे जाना है। वे या तो बोलते ठीक है तुम जाओ। जो बातें हुई हैं उन पर विचार करना। या फिर सिर हिला देते, उसका मतलब भी यही होता ठीक है जाओ।
 मैं उनके पीछे गली के मोड़ पर आ गया था। वे आपस में बतिया रहे थे, साला ये कोई बात है प्लेटें खाली करवा लीं। ये तो इंसल्ट है। उन्होंने मुझे देखा और फिर वे दूर चले गए।
सर ने मुझसे आज तक नहीं पूछा कि वे बाद में क्या कह रहे थे और न मैंने कभी इसकी चर्चा की। मैंने उनको कभी फिर सर के यहां नहीं देखा।
सर का यह जो शिक्षण है, यह कमाल का है। बार बार सर के घर या उनसे मिलने वालों ने ऐसे कई चरण पार किए हैं।

रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
101, आरएमपी नगर, फेस- 1, विदिशा मप्र
9826782660


गुरुवार, जनवरी 29, 2015

 
भारतीयता के बिना सार्थक नहीं रंगकर्म 
आलोक चटर्जी
प्रसिद्ध नाट्य निर्देशक


भारतीय मूल्य को समझे बगैर सार्थक रंगमंच वहीं साकार हो सकता है। समूचा विश्व एक ग्लोबल विलेज है, तो संस्कृति के क्षेत्र में अपसंस्कृति आ रही है शोर मचा रही है। कुछेक अनजान है कुछ बेखबर भी, तो कुछ बहती गंगा में हाथ धोने की कोशिश कर रहे हैं। परंतु भारतीय मूल्य को समझे बगैर सार्थक रंगमंच वहीं साकार हो सकता है।

ज ब मैं सार्थक रंगमंच की बात करता हूं तो यह स्पष्ट है कि मेरा अभिप्राय उस रंगमंचीय स्वरूप से हुआ, जो भारतीय हो, विश्व संवेदन की धड़कनें उसमें हो, और स्थानीयता की उसमें सुगंध हो। आज सबसे बड़ी परेशानी यह है कि रंगमंच का शोर खूब मचाया जा रहा है, परंतु उसमें मौलिकता और दर्शन बोध का स्पष्ट अभाव है। शहरों विशेषकर मेट्रो में प्रायोगिक रंगमंच का शोर है, जहां रंगकर्मी सबसे पहले यही भूल जाता है कि वो किस समाज में रह रहा है? कैसा वातावरण है? कौन दर्शन है?
यह मूल प्रश्न छोड़कर वह अपनी एक ख्याली इंटेलेक्चुअल दुनिया की रचना करता है। विदेशी प्रस्तुतियों की छाप उनके नाटक के पोस्टर डिजाइन, सेट, एक्टिंग और आलेख तक में झलकती हैं। ऐसे अधिकतर कलाकार स्वयं छोटे कस्बों, गांवों से आते हैं, और अपनी कमतरी का एक सुपीरियर कॉम्प्लेक्स को ढकता है। वो रहन-सहन भी वैसा ही अपनाता है। बेतरतीब बाल या देशज पहनावा उसकी पहचान होती है। दूसरी ओर कुछ लोग देसी रंगमंच का ढोल पीट रहे हैं। ये और भी नकली रंगकर्मी हैं जो शहरों में शहरी लोगों के साथ फोक थियेटर कर रहे हैं। दर्शक भी शहरी हैं फिर इसका क्या औचित्य? असल में विश्व एवं भारतीय साहित्य का अभाव, इनमें है, इसलिए वे स्थानीय रचना या देशज चीजÞों को रंगमंच पर एक प्रदर्शनी की भांति प्रस्तुत करके स्वयं को भारतीय संस्कृति से जुड़ा स्वयंभू घोषित कर देते हैं या किसी किसी भी नाटक में छह आठ गाने डाल देते हैं। ये संगीतकार या संगीत मर्मज्ञ नहीं होते, बल्कि हारमोनियम वादक होते हैं। विधिवत संगीत शिक्षा भी उन्होंने नहीं ली होती है, ना ही वे कारणों के व्याकरण या रंगमंचीय संगीत की सौंदर्यानुभूति को समझते हैं। वे मात्र एक रंगीन वातावरण, कुछ गाने, सुरताल, एकाध नृत्य, और सूत्रधार-समूह से कोई भी नाटक मंच पर प्रस्तुत कर देते हैं। संभ्रांत दर्शक भी जो मूल रूप से किसी छोटे शहर का ही होता है, वो इसे जड़ों से जुड़ा रंगमंच कहता है।
वास्तव में यह जड़ों से नहीं जुड़ा वरन एक जड़ रंगमंच की स्थापना करता है। अभिनय करने वालों को भी सुविधा हो जाती है कि अधिक गहराई में जाने की कोई जÞरूरत ही नहीं। तीसरी तरफ कुछ राजनीतिक आग्रह-दुराग्रह रखने वाले कलाकार भी हैं जो प्रत्येक प्रस्तुति की तुलना और व्याख्या अपने परिचित दर्शन से मिलाकर करते हैं और उसी के अनुरूप ही अपनी प्रतिक्रिया देते हैं। दर्शकों में भी अपने परिचित अधिक होने से सार्थक आलोचना की गुंजाइश ही समाप्त हो जाती है। चौथी ओर संस्कृति विभाग द्वारा दी गई अनुदान प्रस्तुतियां हैं, जो धड़ल्ले से हो रही हैं। उनमें क्या और कितना सार्थक है यह एक विचारणीय प्रश्न है।
कई लोग अखवारी कटिंग के आधार पर आलेख तैयार कर रहे हैं, और नाटककार भी बन बैठे हैं। पांच-छह लोगों के संवाद पर आधारित इन नाटकों में अधिक खर्च भी नहीं होता है, और अधिकतर राशि का व्यक्तिगत प्रयोग कर लिया जाता है। पांचवी ओर फेस्टीवल ग्रांट थियेटर का बोलबाला है। अपने शहर के दो, एक अपना, एक दूसरे शहर का नाटक ले लो और राज्य स्तरीय समारोह हो गया। इसमें भी एक गुप्त शर्त है कि तुम अपने फेस्टीवल में हमें बुलाओ, तो हम अपने फेस्टीवल में तुम्हें बुलाएंगे। कम खर्च अधिक मुनाफे का यह व्यवसाय भी जÞोरों से चल रहा है। छठी ओर कुछ लोग आउटडेटेड टीवी  या रिटायर्ड फिल्म कलाकार को एक मुख्य भूमिका में लेकर मल्टीमीडिया स्टार थियेटर कर रहे हैं, और लाखों कमा रहे हैं।
सातवीं ओर अंतिम छोर पर एक धड़-रंगकर्मियों का भी है, जो सोच विचार के रंगमंच में विश्वास करते हैं। पढ़ने-लिखने और रंगमंच के व्याकरण-शास्त्र को समझने करने की ललक रखते हैं, और जिनके हृदय में रंगमंच एक आंदोलन है, निरंतर सृजन प्रक्रिया है। ये रंगकर्मी पुरस्कारों की दौड़ में भी विश्वास नहीं करते और अपने कार्य द्वारा समाज और जीवन को एक सोच प्रदान करते हैं, या एक दिशा देनें की चेष्टा अवश्य करते हैं। यह वो अल्पसंख्यक कलाकर्मियों का समूह है, जो निरंतर रंगमंच की प्रतिष्ठा एवं गौरव के लिए प्रयत्नशील है। कहा जा सकता है कि सार्थक रंगमंच की यात्रा यहां इस ऊबड़-खाबड़ क्षेत्र से प्रारंभ होती है, जहां समर्पण, निष्ठा, सजगता सर्वप्रथम है। अधिकतर रंगकर्मी यह भूल बैठे हैं कि हमारे देश में निरक्षर, गरीब, बेरोजगारों के साथ आंचलिक, जनजातीय समूह भी हैं, और सबके अपने सांस्कृतिक मूल्य हैं, समझ है और सोच है।
ऐसे में भारतीयता ही वो तत्व है जो सबको एक सूत्र में बांध सकता है, सबके मित्र मूल्यों को मोतियो की भांति पिरोकर एक सुंदर माला बना सकता है। और हमारे समाज परिवार की धड़कनें उसमें समाहित करता है। हमारे खेत, नदियों, पहाड़, जंगल और जानवर तक हमारे सांस्कृतिक मुल्यों और विरासत में शामिल है। हमारी रचना का केंद्र कभी कोई पीपल का पेड़ तो कभी गांव का पनघट, तो कभी घर का दालान, कहीं दादी की पोथी सब हमारी चेतना के केंद्र में होता है,   उसी के बीच में आकर लेता है कोई विचार जो किसी घटना में किन्हीं चरित्रों द्वारा अभिव्यक्त होती है।
मानवीय संवेदना, करुणा, मंगलकामना एवं समूचे विश्व यहां तक कि अंतरिक्ष के मंगल की कामना भी सामूहिक सपने, सामूहिक भारतीय चेतना में अजब धारा के समान प्रवाहित है। त्याग, नैतिकता, कर्त्तव्यपरायणता भारतीय दर्शन के भी मूल में है और चेतना के भी। यही वो तत्व है जिनमें मिलकर भारतीय सांस्कृतिक दृष्टि का विकास होता है, जो विभिन्न कला माध्यमों में मित्र रूपांकर प्राप्त करता है। परिवार हमारे समाज और संस्कृति के केंद्र में है। यहां एकांवासी अवसादग्रस्त व्यक्ति नहीं है उसकी त्रासदी भी नहीं है और व्यक्तिगत उल्लास भी नहीं। सब कुछ सामाजिक है, सामूहिक है इसलिए कहते भी हैं - कल्ल्िरंल्ल अ१३ ्रल्ल २ङ्मू्री३८ ङ्म१्रील्ल३ ंल्ल िूङ्म’’ीू३्रङ्मल्ल यही सामूहिकता ही विभिन्न भावों ने एक कालखंड और समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं। यहां यूरोप की भांति मुझसे उपजÞी त्रासदी नहीं वरन् युद्ध का विचार ही त्रासदी है क्योंकि वो विध्वंस को रचता है, और रचनाशील को क्रियाहीन। ऐसे ही उल्लास भी सामूहिक है जो हमारे सभी त्योहारों में प्रमुख रूप से देखा जा सकता है। यहां तक कि मृत्यु भी पुर्नजन्म का एक द्वार है। जर्जर वस्त्र रूपी शरीर को आत्मा द्वारा छोड़ देना मात्र है। यही वो भारतीय मूल्य है जिन्होंने हमारी सांस्कृतिक मूल्यों की रचना की और एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत तैयार की। भारत वो देश है जो कई बार अतीत के बाहरी आकांक्षाओं से जीता गया, पर कोई भी इस देश की संस्कृति को नहीं तोड़ पाया और उसी ने भारत राष्ट्र के अखंड गौरव का गान किया। बड़ी से बड़ी सभ्यता और संस्कृतियों की रुचि भारतीय संस्कृति, रंगमंच और कला का कुछ बिगाड़ नहीं पाई वरन् इससे प्रभावित हो गई। इसके मूल्य में भारतीय मूल्य और दर्शन ही है। आज अब समूचा विश्व एक ग्लोबल विलेज है, तो संस्कृति के क्षेत्र में अपसंस्कृति आ रही है शोर मचा रही है। कुछेक अनजान है कुछ बेखबर भी, तो कुछ बहती गंगा में हाथ धोने की कोशिश कर रहे हैं। परंतु भारतीय मूल्य को समझे बगैर सार्थक रंगमंच वहीं साकार हो सकता है। मात्र अनुकरण या नकल हमें तात्कालिक लाभ अवश्य दे सकता है, परंतु समाज का दर्शकों का उससे कोई लेना-देना नहीं। ना ही वो हमारी भारतीय रंगमंच के श्रेष्ठ प्रतिमानों को छूने के भी           समर्थ हैं।
कला एक साधना है, व्यवसाय नहीं और वो व्यवसाय तो बिल्कुल भी नहीं, जहां बिना सोच विचार की मंडली को मनोरंजन मान लेने की भूल होगी, वहां मनोरंजन का अर्थ यानि मन को रंजित करने वाला ही विकृत हो जाएगा और सार्थक रंगमंच की स्थापना और प्रयोग तो दूर, कल्पना में भी असाध्य हो जाएगी। हमें इस दिशा में सोचने और कुछ करने की आवश्यकता है, और वो भी अभी और तुरंत।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं)

मंगलवार, सितंबर 02, 2014

सिद्धांत और आदर्शों पर आधारित राजनीति के संदर्भ में महात्मा गांधी

सिद्धांत और आदर्शों पर आधारित राजनीति के संदर्भ में महात्मा गांधी
- जगमोहन
हम महात्मा गांधी को राष्ट्र पिता कहते हैं, किंतु उनकी जयंती और पुण्यतिथि पर भाषणबाजी और कुछ समारोहों के आयोजन के अलावा इस बात की जरा भी परवाह नहीं करते कि उन्होंने अपने अद्भुत नेतृत्व के दौरान क्या किया और क्या संदेश दिया? हिंदुत्व पर उनके गहन विचारों के बारे में तो हमारा बिल्कुल ही ध्यान नहीं है, जो न केवल व्यक्तिगत जीवन को उच्चतम आदर्शों से संबद्ध करते हैं, बल्कि राजनीति को श्रेष्ठ और सेवान्मुख भी बनाते हैं। डा. एस राधाकृष्णन और महात्मा गांधी के बीच धर्म पर रोचक बातचीत हुई थी। डा. राधाकृष्णन ने महात्मा गांधी से तीन सवाल पूछे थे: आपका धर्म क्या है? आपके जीवन में धर्म का क्या प्रभाव है? सामाजिक जीवन में इसकी क्या भूमिका है?
गांधीजी ने पहले सवाल का उत्तार दिया: मेरा धर्म है हिंदुत्व। यह मेरे लिए मानवता का धर्म है और मैं जिन भी धर्मों को जानता हूं उनमें यह सर्वोत्ताम है। दूसरे सवाल के उत्तार में गांधीजी ने कहा-आपके प्रश्न में भूतकाल के बजाय वर्तमान काल का प्रयोग खास मकसद से किया गया है। सत्य और अहिंसा के माध्यम से मैं अपने धर्म से जुड़ा हूं। मैं अक्सर अपने धर्म को सत्य का धर्म कहता हूं। यहां तक कि ईश्वर सत्य है, कहने के बजाय मैं कहता आया हूं-सत्य ही ईश्वर है। सत्य से इनकार हमने जाना ही नहीं है। नियमित प्रार्थना मुझे अज्ञात सत्य यानी ईश्वर के करीब ले जाती है। तीसरे सवाल पर महात्मा गांधी का जवाब था, ''इस धर्म का सामाजिक जीवन पर प्रभाव रोजाना के सामाजिक व्यवहार में परिलक्षित होता है या हो सकता है। ऐसे धर्म के प्रति सत्यनिष्ठ होने के लिए व्यक्ति को जीवनपर्यंत अपने अहं का त्याग करना होगा। जीवन के असीम सागर की पहचान में अपने एकात्म का समग्र विलोप किए बिना सत्य का अहसास संभव नहीं है। इसलिए मेरे लिए समाजसेवा से बचने का कोई रास्ता नहींहै। इसके परे या इसके बिना संसार में कोई खुशी नहीं है। जीवन का कोई भी क्षेत्र समाजसेवा से अछूता नहीं है। इसमें ऊंच-नीच जैसा कुछ नहीं है। दिखते अलग-अलग हैं किंतु हैं सब एक।''
गांधीजी का कहना था कि जितनी गहराई से मैं हिंदुत्व का अध्ययन कर रहा हूं उतना ही मुझमें विश्वास गहरा हो जाता है कि हिंदुत्व ब्रहांड जितना ही व्यापक है। मेरे भीतर से कोई मुझे बताता है कि मैं एक हिंदू हूं और कुछ नहीं। सही अर्थों में महात्मा गांधी हिंदुत्व को मानवता के प्रति सेवा का ध्येय मानते हैं। उनके लिए जीव ही शिव है। मानव सेवा ही प्रभु सेवा है। यह भावना ही महात्मा गांधी को राजनीति की ओर खींच लाई। वह रेखांकित करते हैं कि मेरे भीतर के राजनेता ने एक भी निर्णय नहीं थोपा। अगर मैं आज राजनीति में भाग लेना चाहता हूं तो बस इसलिए कि राजनीति ने आज हमें किसी सांप की तरह पूरी तरह जकड़ लिया है। चाहे कोई कितना भी प्रयास करे, इसके चंगुल से नहीं बच सकता। मेरी इच्छा इस जकड़न से मुकाबला करने की है। महात्मा गांधी सोचते थे कि इससे मुकाबला करने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि श्रेष्ठता की ओर ले जाने वाली शक्ति हिंदुत्व का सहारा लेकर राजनीति को नि:स्वार्थ सेवा के उच्च प्रतिमानों पर स्थापित किया जाए। सत्य, अहिंसा और शोषितों के कल्याण की भावना उन्होंने वेदों से ली। इस वेदांतिक भावना को अपने जीवन की कसौटी पर परखकर और अपने राजनीतिक फैसलों का आधार बना कर उन्होंने भारत के सामाजिक और राजनीतिक जीवन में संचारित किया। स्वतंत्रता संग्राम को जन आंदोलन में बदलने की गांधीजी को बड़ी सफलता सत्य, अहिंसा, त्याग, तपस्या के आदर्शों के प्रति उनके समर्पण के कारण मिली। भारतीयों के दिमाग में महात्मा गांधी की यह छवि युगों तक बसी रहेगी। अपनी आत्मकथा में गांधीजी ने लिखा है- ''मैंने अपने आध्यात्मिक अनुभवों से ही शक्तियां संचित की हैं।''
गांधीजी ने राजनीति में शुचिता और धर्मपरायणता को मूर्त रूप दिया। उनका विश्वास था-सिद्धांतों से विमुख राजनीति मौत का फंदा है, यह राष्ट्र की आत्मा का नाश कर देती है। वे अपने विश्वास पर जीवनपर्यंत अडिग रहे और भारत का नैतिक कद इतना ऊंचा किया, जो विश्व इतिहास में अनूठा है। राजनीति के उद्देश्य के संदर्भ में भारत पूरी तरह महात्मा गांधी के विचारों की अवहेलना कर चुका है, जिसका परिणाम है कि आज तरह-तरह की समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं। ये समस्याएं जातिवाद, क्षेत्रवाद के दायरे में निजी लाभ उठाने की प्रवृत्तिा, भयानक भ्रष्टाचार, लापरवाह उपभोक्ता वाद और गरीबों के प्रति बेरुखी के रूप में हमारे सामने हैं। अगर मौजूदा रुख में बदलाव नहीं आता तो इनकी संख्या में गुणात्मक वृद्धि होगी। देश पूरी तरह से सिद्धांतविहीन राजनीति और अव्यवस्था की सांप की बांबियों से घिर जाएगा। राजनीति के सांपों का सामना करने के बजाय हमारे राजनेता उनके साथ रहने की कला सीख गए हैं। इसी कारण आज हमारी संसद में सौ से अधिक ऐसे सदस्य हैं जिनका आपराधिक रिकार्ड है। इनमें से 34 तो हत्या, बलात्कार, अवैध वसूली जैसे संगीन मामलों में आरोपी हैं। इनमें से कुछ तो केंद्रीय मंत्रिमंडल में भी स्थान पा चुके हैं। राज्य और नगरपालिका के स्तर पर तो हालात और भी खराब हैं। वे पूर्ण रूप से पैसा, ताकत, अपराध, भ्रष्टाचार और जातिवाद में डूबे हैं। फलस्वरूप हमारा शिक्षित और तुलनात्मक रूप से संपन्न वर्ग उदासीन हो गया है। हमारी गरीब जनता षड्यंत्रों का शिकार हो रही है। अधिकांश राजनेता यह मंत्र भूल गए हैं कि विरूपताओं पर आधारित जीत अस्थायी होती है, किंतु इसकी बर्बादी युगों-युगों तक कायम रहती हैं। भारत में अधिकांश लोग राजनीति को हिकारत की निगाह से देखते हैं। उनका मानना है कि राजनेता स्वार्थी और अनुचित साधनों से सत्ता हथियाने वाले होते हैं। राजनेता अपने गलत कामों को कुतर्कों के आधार पर सही ठहराते हैं। उनके लिए सत्ता ही सब कुछ है-सिद्धांत और नैतिकता कुछ नहीं। महात्मा गांधी भारत की राजनीति को बिल्कुल अलग दिशा में ले जाना चाहते थे, जिससे यह लोगों, समाज और राष्ट्र की बेहतरी में योगदान दे सके।

शुक्रवार, अगस्त 22, 2014

पारिजात Night Flower

पारिजात के वृक्ष को छूने से मिटती है थकान

क्या कोई ऐसा भी वृक्ष है,जिसं छूने मात्र से मनुष्य की थकान मिट जाती है। हरिवंश पुराण में ऐसे ही एक वृक्ष का उल्लेख मिलता है,जिसको छूने से देव नर्तकी उर्वषी की थकान मिट जाती थी। पारिजात नाम के इस वृक्ष के फूलो को देव मुनि नारद ने श्री कृश्ण की पत्नी सत्यभामा को दिया था। इन अदभूत फूलों को पाकर सत्यभामा भगवान श्री कृष्ण से जिद कर बैठी कि परिजात वृक्ष को स्वर्ग से लाकर उनकी वाटिका में रोपित किया जाए। पारिजात वृक्ष के बारे में श्रीमदभगवत गीता में भी उल्लेख मिलता है। श्रीमदभगवत गीता जिसमें 12 स्कन्ध,350 अध्याय व18000 ष्लोक है ,के दशम स्कन्ध के 59वें अध्याय के 39 वें श्लोक , चोदितो भर्गयोत्पाटय पारिजातं गरूत्मति। आरोप्य सेन्द्रान विबुधान निर्जत्योपानयत पुरम॥ में पारिजात वृक्ष का उल्लेख पारिजातहरण नरकवधों नामक अध्याय में की गई है।
सत्यभामा की जिद पूरी करने के लिए जब श्री कृष्ण ने परिजात वृक्ष लाने के लिए नारद मुनि को स्वर्ग लोक भेजा तो इन्द्र ने श्री कृष्ण के प्रस्ताव को ठुकरा दिया और पारिजात देने से मना कर दिया। जिस पर भगवान श्री कृष्ण ने गरूड पर सवार होकर स्वर्ग लोक पर आक्रमण कर दिया और परिजात प्राप्त कर लिया। श्री कृष्ण ने यह पारिजात लाकर सत्यभामा की वाटिका में रोपित कर दिया। जैसा कि श्रीमदभगवत गीता के श्लोक, स्थापित सत्यभामाया गृह उधान उपषोभन । अन्वगु•र्ा्रमरा स्वर्गात तद गन्धासलम्पटा, से भी स्पष्ट है। भगवान श्री कृष्ण ने पारिजात को लगाया तो था सत्यभामा की वाटिका में परन्तु उसके फूल उनकी दूसरी पत्नी रूकमणी की वाटिका में गिरते थे। लेकिन श्री कृष्ण के हमले व पारिजात छीन लेने से रूष्ट हुए इन्द्र ने श्री कृश्ण व पारिजात दोनों को शाप दे दिया था । उन्होन् श्री क्रष्ण  को शाप दिया कि इस कृत्य के कारण श्री कृष्ण को पुर्नजन्म यानि भगवान विष्णु के अवतार के रूप में जाना जाएगा। जबकि पारिजात को कभी न फल आने का शाप दिया गया। तभी से कहा जाता है कि पारिजात हमेशा के लिए अपने फल से वंचित हो गया। एक मान्यता यह भी है कि पारिजात नाम की एक राजकुमारी हुआ करती थी ,जिसे भगवान सूर्य से प्यार हो गया था, लेकिन अथक प्रयास करने पर भी भगवान सूर्य ने पारिजात के प्यार कों स्वीकार नहीं किया, जिससे खिन्न होकर राजकुमारी पारिजात ने आत्म हत्या कर ली थी। जिस स्थान पर पारिजात की कब्र बनी वहीं से पारिजात नामक वृक्ष ने जन्म लिया। इसी कारण पारिजात वृक्ष को रात में देखने से ऐसा लगता है जैसे वह रो रहा हो, लेकिन सूर्य उदय के साथ ही पारिजात की टहनियां और पत्ते सूर्य को आगोष में लेने को आतुर दिखाई पडते है। ज्योतिश विज्ञान में भी पारिजात का विशेष महत्व बताया गया है।
पूर्व वैज्ञानिक एवं ज्योतिष के जानकार गोपाल राजू की माने तो धन की देवी लक्ष्मी को प्रसन्न करने में पारिजात वृक्ष का उपयोग किया जाता है। उन्होने बताया कि यदि ,ओम नमो मणि़•ाद्राय आयुध धराय मम लक्ष्मी़वसंच्छितं पूरय पूरय ऐं हीं क्ली हयौं मणि भद्राय नम, मन्त्र का जाप 108 बार करते हुए नारियल पर पारिजात पुष्प अर्पित किये जाए और पूजा के इस नारियल व फूलो को लाल कपडे में लपेटकर घर के पूजा धर में स्थापित किया जाए तो लक्ष्मी सहज ही प्रसन्न होकर साधक के घर में वास करती है। यह पूजा साल के पांच मुहर्त होली,दीवाली,ग्रहण,रवि पुष्प तथा गुरू पुष्प नक्षत्र में की जाए तो उत्तम है। यहां यह भी बता दे कि पारिजात वृक्ष के वे ही फूल उपयोग में लाए जाते है,जो वृक्ष से टूटकर गिर जाते है। यानि वृक्ष से फूल तोड़ने की पूरी तरह मनाही है।
इसी पारिजात वृक्ष को लेकर गहन अध्ययन कर चुके रूड़की के कुंवर हरि सिंह यादव ने बताया कि यंू तो परिजात वृक्ष की प्रजाति भारत में नहीं पाई जाती, लेकिन भारत में एक मात्र पारिजात वृक्ष आज भी उ.प्र. के बाराबंकी जनपद अंतर्गत रामनगर क्ष्ोत्र के गांव बोरोलिया में मौजूद है। लगभग 50 फीट तने व 45 फीट उंचाई के इस वृक्ष की ज्यादातर शाखाएं भूमि की ओर मुड़ जाती है और धरती को छुते ही सूख जाती है।
एक साल में सिर्फ एक बार जून माह में सफेद व पीले रंग के फूलो से सुसज्जित होने वाला यह वृक्ष न सिर्फ खुशबू बिखेरता है, बल्कि देखने में भी सुन्दर लगता है। आयु की दृष्टि से एक हजार से पांच हजार वर्ष तक जीवित रहने वाले इस वृक्ष को वनस्पति शास्त्री एडोसोनिया वर्ग का मानते हैं। जिसकी दुनियाभर में सिर्फ 5 प्रजातियां पाई जाती है। जिनमें से एक डिजाहाट है। पारिजात वृक्ष इसी डिजाहाट प्रजाति का है। कुंवर हरि सिंह यादव अपने षोध आधार पर बताते है कि एक मान्यता के अनुसार परिजात वृक्ष की उत्पत्ति समुन्द्र मंथन से हुई थी । जिसे इन्द्र ने अपनी वाटिका में रोप दिया था। कहा जाता है जब पांडव पुत्र माता कुन्ती के साथ अज्ञातवास पर थे तब उन्होने ही सत्यभामा की वाटिका में से परिजात को लेकर बोरोलिया गांव में रोपित कर दिया होगा। तभी से परिजात गांव बोरोलिया की शोभा बना हुआ है। देशभर से श्रद्धालु अपनी थकान मिटाने के लिए और मनौती मांगने के लिए परिजात वृक्ष की पूजा अर्चना करते है। पारिजात में औषधीय गुणों का भी भण्डार है। पारिजात बावासीर रोग निदान के लिए रामबाण औषधी है। पारिजात के एक बीज का सेवन प्रतिदिन किया जाये तो बावासीर रोग ठीक हो जाता है। पारिजात के बीज का पेस्ट बनाकर गुदा पर लगाने से बावासीर के रोगी   को बडी राहत मिलती है। पारिजात के फूल हदय के लिए भी उत्तम औषधी माने जाते हैं। वर्ष में एक माह पारिजात पर फूल आने पर यदि इन फूलों का या फिर फूलो के रस का सेवन किया जाए तो हदय रोग से बचा जा सकता है। इतना ही नहीं पारिजात की पत्तियों को पीस कर शहद में मिलाकर सेवन करने से सुखी खासी ठीक हो जाती है। इसी तरह पारिजात की पत्तियों को पीसकर त्वचा पर लगाने से त्वचा संबंधि रोग ठीक हो जाते है। पारिजात की पत्तियों से बने हर्बल तेल का भी त्वचा रोगों में भरपूर इस्तेमाल किया जाता है। पारिजात की कोंपल को अगर 5 काली मिर्च के साथ महिलाएं सेवन करे तो महिलाओं को स्त्री रोग में लाभ मिलता है। वहीं पारिजात के बीज जंहा हेयर टानिक का काम करते है तो इसकी पत्तियों का जूस क्रोनिक बुखार को ठीक कर देता है। इस दृश्टि से पारिजात अपनेआपमें एक संपूर्ण औषधी भी है।
इस वृक्ष के ऐतिहासिक महत्व व दुर्लभता को देखते हुए जंहा परिजात वृक्ष को सरकार ने संरक्षित वृक्ष घोषित किया हुआ है। वहीं देहरादून के राष्ट्रीय वन अनुसंधान संस्थान की पहल पर पारिजात वृक्ष के आस पास छायादार वृक्षों को हटवाकर पारिजात वृक्ष की सुरक्षा की गई। वन अनुसंधान संस्थान के निदेशक डा. एसएस नेगी का कहना है कि पारिजात वृक्ष से चंूकि जन आस्था जुडी है। इस कारण इस वृक्ष को संरक्षण दिये जाने की निरंतर आवश्यकता है। इस वृक्ष की एक विषेशता यह भी है कि इस वृक्ष की कलम नहीं लगती ,इसी कारण यह वृक्ष दुर्लभ वृक्ष की श्रेणी में आता है। भारत सरकार ने पारिजात वृक्ष पर डाक टिकट भी जारी किया। ताकि अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर पारिजात वृक्ष की पहचान बन सके।

श्रीगोपालनारसन एडवोकेट    

गुरुवार, अगस्त 21, 2014

अभिनेता और अभिनय


आलोक चटर्जी का यह आलेख  युवाओं के लिए आँख खोलने वाला है.
                                                   पीपुल्स समाचार से साभार                          - रवीन्द्र  स्वप्निल प्रजापति
    अभिनय की दुनियां में इन दिनों नये युवाओं की भरमार है। बाहर से देखें तो यह सुखद लगता है, कि इतनी बड़ी संख्या में युवा अभिनय के क्षेत्र में आ रहे हैं, और इसे संभावनाओं के रूप में देख रहे हैं, परन्तु मुझे एक अभिनेता, अभिनय-शिक्षक और रंग निर्देशक के तौर पर लगातार यह महसूस होता रहा है कि दरअसल इसमें बहुत कुछ छद्म है, जैसे उदाहरण के लिये मैं पाता हूं कि अधिकतर युवा अपने शैक्षणिक सत्रों की छुटटियों के दौरान इसे समय बिताने और नये लोगों से परिचय का एक अच्छा अवसर मानते हैं। परन्तु नाटक के दूसरे या तीसरे प्रदर्शन में ही वे कोई न कोई बहाना बनाकर नदारत हो जाते हैं। कुछ युवा मात्र सिनेमाई व्यक्तित्वों की छाआएं लेकर आते हैं और जब पाते हैं कि यहां कठोर अनुशासन, समर्पण, निरन्तरता, प्रतिभा को निखारने के लिये बहुत आवश्यक है, तो वे अपनी दमित इच्छाओं को लिये शनैः शनैः रंगमंच से दूर हो जाते हैं। कुछ युवा इसलिए भी आते हैं कि पर्सनलिटी ग्रूमिंग की क्लासेस के लिये बिना कोई शुल्क चुकाये ये एक अच्छा माध्यम है। इसके बाद कुछ युवा अवश्य ऐसे होते हैं जो अपने कार्य में निरन्तरता रखते हैं और कुछेक वर्षों तक रंगमंच में बने रहते हैं। उसके बाद विवाह, पिताजी का रिटार्यमेंट, मां की बीमारी आदि का सहारा लेकर वह अभिनय और रंगमंच से तौबा कर लेता है। जो युवा अपने कैरियर के रूप में इसे अपनाना चाहते हैं, वे अवश्य रूके रहते हैं, परन्तु उनके साथ कार्य करते हुये यह स्पष्ट होता है कि हमारे युवा सुबह का अखबार भी शायद ही पड़ते हों, साहित्य कविता, दर्शन और मनोविज्ञान की पढ़ाई-लिखाई तो दूर, आज के समाज की जानकारियों का अभाव तक दिखायी देता है। यह अधिकतर युवाओं को ऐसे अभिनेता बनने के लिये प्रेरित करता है, जो मात्र अपने संवाद रटकर और बोलकर, अभिनय हो गया, ये मान लेता है, या तो वो बाजार में एक उत्पाद की तरह स्वयं को प्रस्तुत करने की कोशिश करता है। समस्या ये है कि यदि अभिनेता का आंतरिक जगत संवेदनहीन है, भावना शून्य है, कल्पनाशीलता का आधार नहीं है, तो वह मात्र मंच पर मेकअप और काॅस्ट््यूम में आयेगा और अपने संवाद बोलकर चला जायेगा। वो कोई अनुभूतियों का संसार, चरित्र का द्वंद और भावना की तीव्रता दर्शकों तक पहुंचाने में नितांत असमर्थ होगा। ऐसा अभिनय और प्रस्तुति निर्जीव ही कही जा सकती है, और ऐसे अभिनेता को मैकेनिकल, हैम ऐक्टर कहना उचित होगा। दर्शक भी ऐसी प्रस्तुतियों से जल्दी ही ऊबकर या थियेटर के बारे में यही एक धारणा लेकर, मनोरंजन का कोई दूसरा माध्यम चुन लेता है। महानगरों और मैट्रो शहरों में प्रयोगवादी अभिनय का बोलवाला है, जहां अभिनेता आधे समय वीडियो पर दिखता है, अर्थपूर्ण संवाद बहुत कम होते हैं, भारी भरकम बजट खर्च करके सेट और लाइटिंग का साउण्ड के साथ ऐसा भ्रम जाल तैयार किया जाता है, जो दर्शकों को भ्रमित कर सके। एन्वायरमेंटल थियेटर के नाम पर दर्शकों को दस जगह घुमा-घुमाकर एक ही प्रस्तुति के अलग-अलग दृृश्य दिखलाये जाते हैं, जाहिर है यह मात्र बौद्धिक कलावाजी और बौद्धिक विलासिता का ही परिचायक है। हमारा देश, एक ऐसा देश है, जहां निरक्षर लेकिन समझदार दर्शक हैं, तो कस्बाई और शहरी लोग भी, हम सब बचपन में संगीत सुनते थे। भारतीय संस्कृति में अभिनय को यज्ञकर्म माना गया है, जहां हवन करने वाला अभिनेता है, हवन कुंड अभिनय-स्थल है, हवन सामग्री आलेख है, और उसमें पड़ती आहुतियां अभिनेता के मनोभाव हैं, इससे उत्पन्न अग्नि, प्रस्तुति है और हवन सामग्री के धुएं से वहां बैठे दूसरे व्यक्ति को जो मिल रहा है, वही रस है, रसानुभूति है। हमारे देश में जहां लोग पढ़ना-लिखना नहीं जानते, वहां भी सदियों से लोक परंपराएं अपनी अनगढ़ शैली और और रूप में उपस्थित हैं। सांस्कृृतिक बहुलता वाले हमारे देश में किसी प्रांत के भाषा-भाषी को कभी भी निरक्षर होने के मात्र से ही पंडवानी, कुडिआट््म, यक्षगान, भागवतकथा, रामलीला आदि के प्रसंग प्रस्तुति देखकर समझ, ना आते हों, ऐसा नहीं है, वरन्् इसके विपरीत ही है। आज भी चमकते महानगर की सड़कों, ऊंची अट््टालिकाओं और गाड़ियों के शोर में भी जो लोग शामिल हैं वे किसी ग्रामीण या कस्बाई क्षेत्र से ही वहां काम करने आये हैं। आधुनिकता और प्रयोगशीलता की परिभाषा गढ़ते हुये हमें इसे ध्यान में रखना होगा। मात्र विदेशी प्रस्तुतियों की नकल और उनके गढ़े सत्य को अपना सत्य समझ लेने की भूल ही यह विरोधाभास पैदा कर रही है। ज़ाहिर है, एक अभिनेता और रंगमंच समाज से ही आता है, समाज का ही उत्पाद है, और समाज के लिये ही है। इसीलिए अभिनेता को चिरंतर अध्ययनशील, घूमन्तू, निरन्तर कुछ नया सीखने की ललक मन में रखकर ही इस यात्रा पर अपना पहला कदम बढ़ना होगा। वह समस्त संस्कृतियों का अध्ययन करे, विश्व प्रसिद्ध साहित्य को पढ़े लेकिन पहले अपनी संस्कृति को जान ले, अपने भारतीय रचनाकारों को पढ़ ले और देश के भिन्न प्रांतों में खाना भी खाना चाहिये, और वहां का पहनावा भी, तभी वह जीवन्त, संवेदनशील, आधुनिक भारतीय व्यक्ति बनेगा, जिसके पास अपनी सोच होगी, अपनी संस्कृति की महक होगी, और विश्व की जानकारी भी, तभी वह अपने अभिनय को अधिक यूनिर्वसल या सार्वभौमिक बना सकेगा। इन सब बातों के लिये कड़ी मेहनत, लंबा अभ्यास और निरन्तर समर्पण चाहिये, इनके अभाव में हम एक जीवनहीन अभिनय, की रचना करने वाले अभिनेता होंगे, जो चाहे तो लाउडस्पीकर लगाकर भी अपना संवाद बोल दे, दर्शकों पर इसका कोई सार्थक प्रभाव नहीं पड़ेगा। आज हमारे देश में दिल्ली, बंबई, चेन्नई, कोलकाता से लेकर शाहजहांपुर, अलीगढ़, इलाहाबाद, लखनऊ, पटना, भोपाल, जबलपुर कहां पर रंगमंच नहीं हो रहा है ? पिछले वर्षों में संस्क्ृति के क्षेत्र में आर्थिक अनुदानों की एक सुनामी भी आयी हुयी है, जिसने संस्कृति के कुछ दुकानदारों को संस्कृति का राष्ट्रीय रोजगार कार्यक्रम बना लिया है। परन्तु न तो नया दर्शक वर्ग बन रहा है, न ही मील का पत्थर कहे जाने वाली प्रस्तुतियां हो रही हैं। इसके मूल में है, कमज़ोर और असंवेदनशील अभिनेता, और उसका अभिनय। आज आवश्यकता इस बात की है कि सबसे पहले अभिनेता सुबह जल्दी उठना सीखे, उसके पास अपनी फिजीकल फिटेनस का एक कार्यक्रम होना चाहिये, उसके बाद बौद्धिक तैयारी और फिर निरंतर अभ्यास। नींद आने तक पढ़ना, सतत्् सीखने को तैयार रहना, रोज़ नयी-नयी जानकारियां जुटाना, जब तक यह उसके दैनिक कार्यक्रम में शामिल नहीं होना, समस्याएं बनी रहेंगी। यदि हम चाहते हैं कि रंगकर्म का वास्तविक विकास हो, तो हमें अभिनेता और उसके प्रशिक्षण कार्यक्रम पर ध्यान देना ही होगा। शौकिया रंगमंच में काम करने वाले रंगमंच का समर्पण सराहनीय है, परन्तु मात्र उससे काम चलने वाला नहीं है। इसे एक व्यवसायिक और प्रोफेशनल कार्यक्रम की भांति लेना ही होगा, आप स्वयं ही सोचें, क्या आप अपने बच्चे को ऐसे स्वीमिंग पूल में छोड़ना पसंद करेंगे ? जहां बचाने वाला व्यक्ति स्वयं ही तैरना न जानता हो ? क्या आप बिना जांच किये किसी से भी अपना महंगा इलैक्ट्रानिक उपकरण सही करवाते हैं ? जो इस काम में नितांत असमर्थ हो या फिर आप हंसी मजाक करते हुये बतियाते हुये, बिजली या गैस के उपकरणों से छेड़खानी करना पसंद करेंगे, तो फिर अभिनय को ऐसे हल्के में लेने का अर्थ आखिर क्या है ? यह तो अत्यन्त ही सुसंस्कृत सभ्य और आधुनिक विचारों वाले व्यक्ति का ही कार्य हो सकता है, कि वो अभिनय के क्षेत्र में आये और स्वयं को एक अभिनेता के रूप में स्थापित करे। जयसुंदरी, बाल गंधर्व, उत्पल दत्त, शंभू मित्रा, मनोहर सिंह, नसीरूद््दीन शाह, ओमपुरी ऐसे ही अभिनेता हैं, जिन्होंने मात्र अभिनय ही नहीं किया, उसे इतना विस्तारित किया कि वो समूची विश्व संस्कृतियों में अनुगुंजित होने लगा। उनके अभिनय ने समाज को संदेश भी दिया, तो चेतावनियां भी, मनोरंजक हंसने के क्षण भी दिये तो कहीं बरवस रूला भी गये। मानव मन पर अपनी अमिट छाप होड़ देते हैं ये लोग, जो किसी साधारण स्तर के अभिनेता या किसी मीडियोकर के लिये कभी संभव नहीं होता, कि वो उस स्तर को जान ले, समझा ले, छू ले, जहां अभिनय के ये ऋषि, महर्षि, ब्रह्मश्री बैठे हैं। अब हम सब बहुत समय गंवा चुके, अवसर आ गया है कि तुरंत ही प्रेरणा लेकर कार्य करना प्रारंभ किया जाये, क्योंकि जब प्रारंभ होगा तभी अभिनेता का स्वयं के व्यक्तित्व से भी साक्षात्कार होगा, क्योंकि अभिनय अपने मूल रूप में व्यक्ति अभिनेता की आंतरिक जगत की खोज है।

दिनांक 21.8.2014  
- आलोक चटर्जी, भोपाल में नाट्य विद्यालय से जुड़े हैं 

बुधवार, जून 11, 2014

भोपाल का बड़ा ताल




भोपाल का बड़ा ताल । शाम का सिंदूरी सूरज ताल के भाल पर चमक रहा था जैसे कि राजा भोज तिलक लगा कर उस तरफ खड़े हैं। ताल की लहरें शाम की धूप की लाल  झीनी भीनी साड़ी पहने थीं। लहरें ऐसी चमक रही थीं जैसे उसकी चूनर चमकीली किनार हो।
मैं कई सालों बाद भोपाल आया था और घर आने के बाद सबसे पहला ख्याल आया ताल  के किनारों पर कुछ पल बिताऊं। यहां पहुंच कर मुझे अपने पिता के करीब होने जैसा अहसास हुआ। जैसे ये किनारे मेरे पिता की अंगुली है। सच वह कुर्सी जिस पर मैं कभी बैठता था आज भी वहीं थी बस उसका रंग बदल गया था। उस कुर्सी पर बैठ कर मैं सोचा करता था कि ताल  मेरा दोस्त भी है और मेरा पिता भी। उसके किनारे पर मेरे मन में कई ख्याल आते थे।
....
कई बार ताल  में तैरती नाव देख कर लगता था कोई विचार इस ताल  में तैर रहा है। सच कहूं तो मुझे ताल  ने अपना सब कुछ दिया। जीवन की लहरों से लड़ने की ताकत ताल  की लगातार उठती लहरें दे रही थीं।
 इसके किनारों पर जलते विदग्ध हृदयों को शीतलता देने वाले हवा के झोंकों में रखी ठंडक राहत देती है। प्यार देती है उस आग को सहन करने वाली। ताल  के ये किनार कई बार आंसुओं से भीगे हैं। इन आंसुओं में कई कहानियां हैं जो यहीं इन किनारों में दफन हैं। कहीं वादा किया किसी ने तो कहीं बदलते वक्त के साथ सिर्फ दोस्ती है कमिटमेंट नहीं। हम प्यार करेंगे और करते रहेंगे जब तक चलता रहेगा। फिर किसी दिन आके यहीं तोड़ देंगे वह कसम जो किसी गांठ की तरह हमने बांधी थी।
आज में कई सालों बाद भोपाल की ताल  पर टहल रहा हूं। बहुत कुछ इसके किनारों को बदल दिया है। पक्के कर दिए हैं। पर वो पत्थरों पर बैठ कर पानी को झूले की अभिलाषा यहां पूरी नहीं होती। पानी के करीब रहने का अहसास इंसान की आदिम भूख रही है। शायद इंसानी सभ्यता और आदिम जमाने में भी इंसान को पानी  चाहिए होता था। सच में यह ताल भी जब बनाया गया होगा तो यही सोच कर कि इंसान पानी के करीब रहेगा। भोपाल के इस ताल को मैं अपने दिल में वैसे ही दर्ज करता हूं जैसे आंखों में पिता की यादें।
अब यहां इस ताल पर वैसी शांति नहीं है। लोगों की भीड़ शाम को बहुत बढ़ जाती है। मुझे लगता है कि इस भीड़ में हम भी हैं। ये सारे चेहरे ताल  के किनारे अपने अपने होने का अर्थ खोजते हैं।
मुझे बढ़ती भीड़ कई बार परेशान करती लेकिन मैंने इस भीड़ में भी अब ताल  के साथ रहना सीख लिया है। आइए आप भी सभ्यता के हजारों साल पुराने इस ताल  से  दोस्ती कर सकते हैं। बस उसके किनारों पर जाना होगा।

शुक्रवार, मई 23, 2014

मर्दों के खिलाफ अभियान

देवयानी भारद्वाज
तुर्की में औरतों ने मर्दों के खिलाफ अभियान चलाया है कि सार्वजनिक वाहनों का उपयोग करते समय वे अपने पैर समेट कर बैठें। पहली बार इस खबर को पढ़ते ही हल्की-सी हंसी आती है और फिर शुरू होता है यादों का सैलाब। पिछले कुछ सालों से तो शायद उम्र बढ़ने के साथ कुछ ऐसा आत्मविश्वास आ गया है कि बगल की सीट पर बैठा व्यक्ति अगर कोहनी अड़ाए तो मैं भी मजबूती से अपने हाथ को वहीं टिका कर बैठ जाती हूं। लेकिन बात सिर्फ कुर्सी के हत्थे पर कोहनी टिकाने भर की नहीं है।
कुछ ही दिन पहले दिल्ली की मेट्रो में यात्रा के दौरान भीड़ कुछ ज्यादा थी। सभी लोग खड़े थे और सबके शरीर आपस में रगड़ भी रहे थे। लेकिन अचानक मैंने महसूस किया कि मेरे ठीक पीछे एक व्यक्ति इस तरह सट कर खड़ा था कि उसने अंदर तक एक लिजलिजे अहसास से भर दिया। इसके बाद मैं अपनी पूरी कोहनी उसके सीने में गड़ा कर खड़ी रही। लेकिन व्यक्ति अपनी जगह से टस से मस नहीं हुआ। आप प्रतिरोध भी करना चाहें तो कहा जाएगा कि क्या करें, भीड़ है, सभी लोग एक-दूसरे से सटे खड़े हैं, आपको ही एक व्यक्ति के सट कर खड़े होने पर एतराज क्यों...! दरअसल, यह व्यक्ति के अपने और अन्य के निजी स्पेस की इतनी परिष्कृत समझ की अपेक्षा रखता है जो हमारे समाज में खोजने पर भी बहुत मुश्किल से मिलती है।
ऐसा नहीं है कि निजता का यह अतिक्रमण सिर्फ अनजान लोग करते हों। मुझे याद आता है कि एक सहकर्मी को मेरे साथ यात्रा पर जाना था। हम लोगों को एक के बाद एक कई शहरों में जाना था और इस क्रम में कहीं बस और कहीं ट्रेन बदलते हुए हम यात्रा कर रहे थे। मैंने एकाधिक बार यह महसूस किया कि बस में साथ बैठने के दौरान कभी उनका पैर तो कभी उनका कंधा मेरे साथ टकरा जाता था। लोकल बसों में दो-चार बार मैंने इन स्थितियों को नजरअंदाज किया, खुद थोड़ा दूर हट कर बैठ गई या अपने हाथ-पैर समेट लिए। आखिर ऐसी स्थिति आई जब आसपास की सीट पर हम पूरी रात बस की यात्रा पर थे। दिन भर की थकान के कारण मेरी आंख लग जाती और फिर वही! कभी उनका घुटना और कभी कोहनी रगड़ खाते रहे। मुझे उन्हें कहना ही पड़ा- ‘महाशय, आप अपने हाथ-पैर समेट कर बैठें। मुझे इससे असुविधा हो रही है।’
मेरे लिए यह कहना पर्याप्त असुविधाजनक था, क्योंकि आप अपने परिचित के इरादे पर संदेह व्यक्त कर रहे हैं। लेकिन सवाल यह था कि क्या उन्हें यह अहसास नहीं होना चाहिए कि वे अपनी सहकर्मी के निजी स्पेस की अवहेलना

कर रहे हैं? यह जो निजी और पारस्परिक जगह है, यह लोगों की आपसी बनावट पर भी निर्भर करती है। मुझे याद है कि बहुत साल पहले यात्रा के ही दौरान एक मित्र ने पूछा था कि क्या मैं तुम्हारे कंधे पर सिर टिका सकता हूं? इस पूछने में पारस्परिक स्पेस का सम्मान था। एक लंबी मित्रता और सघन संवाद के बाद यह पूछा जाना दो व्यक्तियों के बीच जिस अंतरंगता को व्यक्त करता है, उसकी परिणति अनिवार्य रूप से दैहिक संबंधों में हो, यह जरूरी नहीं। लेकिन दुर्भाग्य से न इस निजता का सम्मान होता है और न उस निजी स्पेस का, जिसकी बात हम ऊपर कर आए हैं।बस, रेल, हवाई जहाज और अन्य सार्वजनिक जगहों पर पैर फैला कर बैठने वाले मर्दों को इस बात का अहसास तक नहीं होता कि वे दूसरे के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण कर रहे हैं। कई बार तो प्रतिरोध करने पर काफी भोंडे जवाब भी सुनने को मिलते हैं। दरअसल, यह पैर फैलाना तो सांकेतिक अभिव्यक्ति है इस बात की कि वे अपने और अपनी साथी महिलाओं के स्पेस को कैसे परिभाषित करते हैं। इसकी शुरुआत भी कहीं घर से ही होती है। जब हम अपनी छोटी-छोटी लड़कियों को बैठने का सलीका सिखा रहे होते हैं, तभी हम अपने लड़कों को भी यह नहीं सिखा पाते। इस सिखाने के पीछे हमारा सोच क्या है? अक्सर लड़कियों को सलीका इसलिए सिखाया जाता है कि और लोग देखेंगे तो भद्दा लगेगा और लड़की के साथ अश्लील हरकत हो सकती है। लेकिन लड़कों को जो सीखना है, वह यह कि वे भी शालीनता का खयाल रखें, क्योंकि ऐसा नहीं करके वे अपने आसपास मौजूद महिलाओं का अपमान कर रहे हैं। इस शालीनता की बात हमें उस समाज में करनी है, जिसमें पुरुष कहीं भी सड़क किनारे पेशाब करने खड़े हो जाते हैं और उस वक्त भी शर्म उन्हें नहीं आती, बल्कि पास से गुजरने वाली औरतों को ही शर्मिंदा होना होता है!

शुक्रवार, मई 09, 2014

विजया सती ki ek achchi post

 कोरिया गणराज्य की राजधानी सिओल PDF Print E-mail >आपके विचार

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विजया सती
 कोरिया गणराज्य की राजधानी सिओल चारों ओर छोटे पर्वतों से घिरी है, बीच में हान नदी बहती है। यह शहर साठ के दशक के बाद तेजी से घनी आबादी वाले महानगर के रूप में विकसित हुआ। प्रोफेसर राय कई वर्षों से इस देश के दक्षिणी भाग में हिंदी शिक्षण कर रहे हैं। सर्दी के अंत में नया परिचय हुआ उनसे। आने वाले बसंत के लिए हमें आगाह किया उन्होंने- ‘यहां नंगे पेड़ों पर फूल पहले आते हैं और फिर हरियाली। बसंत यहां धमाके के साथ आता है।’ फिर जाना कि ‘चेरी-ब्लोसम’ बसंत के आरंभ का यही उत्सव है, जब सर्दी की ठंडी हवाएं और शून्य से नीचे पहुंचता तापमान विदा होता है और कतारबद्ध पेड़ चेरी के हल्के पीले और सफेद रंग के फूलों से लद जाते हैं। जरा ठंड कम होते ही ऐसे अनेक उत्सव आरंभ होते हैं, जब सैलानी इन खिले अद्भुत फूलों के बीच टहलते हुए शहर को इसके सुंदरतम रूप में देख सकते हैं। यह अच्छे मौसम, फूलों के सौंदर्य, बढ़िया भोजन और परंपरागत संस्कृति का आनंद लेने का अवसर होता है।
पहले-पहल जापानी शासन के समय यहां चेरी के खिलने के अवसर को उत्सव के रूप में परिचित कराया गया था। जापान द्वारा द्वितीय विश्वयुद्ध में समर्पण के बाद यह उत्सव आज भी मनाया तो जाता है, मगर इसके आरंभ के एक विवादास्पद पहलू को नजरअंदाज नहीं किया गया था और आधिपत्य के प्रतीक के रूप में देखे गए बहुत से चेरी के वृक्ष एक समय काट दिए गए थे। इस कटु सत्य के बावजूद देखने में यही आया कि शहर में प्रकृति को बचाए रखने की मुहिम तेज है। अगर पहाड़ के ऊपर घर बसे हैं तो सड़क सुरंग से होकर जा रही है। पेड़ों को काटे बिना पुल बनाए गए हैं। पत्थरों के बीच हरियाली समेटी गई है और फूल खिलाए गए हैं।
हान नदी के किनारे प्रकृति के साथ तकनीकी विकास का अनूठा संगम देखने को मिला। नदी के हर कोने से सिर ताने खड़ी इमारतें दिखाई देती हैं, जिनके नमूने अधुनातम तकनीक को प्रदर्शित करते हैं। नदी के तट की ओर जितना बढ़ते जाते हैं, आधुनिक जीवन की छवियां साकार होती जाती हैं। वर्जिश के लिए जुटे नवीनतम उपकरण, नदी किनारे लंबी सैर की खातिर अकेले या साथी के साथ मस्ती से चलाने के लिए नए नमूनों की साइकिलें, स्केटिंग करते बच्चे, हवा से बचने के लिए टेंट के भीतर लेटे-बैठे-सोए नगरवासी। नदी के चारों ओर दृष्टि दूर-दूर जहां तक जाती है, वहां तक दिखाई देता है बहुमंजिली इमारतों का जाल, जिनमें रिहाइश, दफ्तर और होटल हैं। लेकिन प्रकृति के बीच आना, उसके साथ घुल-मिल जाना भी यहां के वासी नहीं भूले हैं। इसलिए छुट्टी का दिन छोटे-छोटे पहाड़ों पर चढ़ने का दिन

है। सिर्फ बच्चे और युवाओं के लिए नहीं, बल्कि अधिकतर उम्रदराज लोगों के लिए भी! इन्हीं छोटे पहाड़ों में कुछ भीतर प्रविष्ट हो जाने पर घने पेड़ों के झुरमुटों के बीच स्वाभाविक रूप से टूटे पड़े लकड़ी-लट्ठों को यथावत संजो कर पर्वतारोहियों के बैठने-सुस्ता लेने के जो स्थान बनाए गए हैं, वे दूर-दूर तक रम्य दृश्य देखने के लिए भी उपयुक्त हैं। ठंडे प्रदेशों में धुपहला दिन जीवन का बड़ा उल्लास होता है। बच्चे-बूढ़ों सहित परिवार मौज के लिए बाहर निकल आते हैं। भारत में हम गरमी के सताए हुए लोग, जहां छाया भी छाया चाहती है, इस दृश्य को देख उल्लसित हो जाते हैं। धूप की मांग है, तरह-तरह के हैट लगाए धूप में टहलते तमाम लोग मगन हैं। भारी जनसमूह हान नदी के किनारे उमड़ पड़ा है, हरी-भरी घास का सुख लेने को। देश का यह सुप्रसिद्ध विश्वविद्यालय भी तकनीक के चरम विकास के साथ-साथ प्रकृति के नैसर्गिक सौंदर्य को अपने में समेटे खड़ा है। यह विदेशी भाषाओं के अध्ययन-शिक्षण का विशिष्ट केंद्र है। विश्व के अनेक भागों के शिक्षक अपनी मातृभाषा पढ़ाने यहां आए हैं। विश्वविद्यालय सही मायने में मुक्त है। इसकी कोई चारदिवारी नहीं है, बंद कर दिया जाने वाला कोई मुख्य द्वार नहीं है। आप किसी भी कोने से प्रविष्ट हो सकते हैं। भारतीय भाषा हिंदी के विभाग के अतिरिक्त यहां भारत अध्ययन संस्थान की दिशा भी भारत है।
भारत के साथ अपने सांस्कृतिक संबंध को यह देश इस रूप में याद करता है कि किसी समय अयोध्या की एक राजकुमारी का विवाह यहां के राजकुमार के साथ हुआ। भारत में भी इस तथ्य को मान्यता मिली और दोनों देशों ने पारस्परिक सहमति से राजकुमारी की स्मृति में एक स्मारक अयोध्या प्रशासन के सहयोग से मार्च 2001 अंकित किया। हरिऔध की एक बूंद सरीखी जब यहां पहुंच गई हूं तो इन दो समानताओं के अतिरिक्त कि दोनों देशों का स्वाधीनता दिवस एक ही तिथि को है और पराधीनता से मुक्ति के बाद दोनों देशों का विभाजन भी हुआ, कुछ अधिक की खोज में दत्तचित्त होना चाहती हूं!

सोमवार, अप्रैल 14, 2014

भारतीय होना ‘वाइड’ होना है

 

मनोज श्रीवास्तव
विचारक एवं कवि 
यह साक्षात्कार करीब तीन साल पहले लिया गया था ब्लॉग पर आज  प्रस्तुत है।

लिखने की क्या प्रेरणाएं रही हैं?
मैं जिस तरह की दुनिया में हूं, वहां बहुत तरह की साजिशें हैं। कोई अपने कर्तव्य में कितना ही दत्तचित हो, लेकिन कुछ लोग उसके खिलाफ षड्यंत्रों की एक विकृत मन:स्थिति में रहते ही हैं। उन सबके बीच लिखने में जिंदगी की अनिश्चितताओं और अवसादों को जैसे एक आश्वस्ति सी मिलती है, लगभग वैसी ही जैसे कुछ भाग्यशाली लोगों को मेडीटेशन में मिलती है। जब आप लोगो की हिट लिस्ट में हों, यह जानकर अच्छा लगता है कि आपने किसी नए आइडिया को हिट किया है। जब वे अपनी संकीर्णताओं में ही रमे हैं, आपकी रचना आपको अर्थवत्ता की और आल्टीट्यूड्स तक ले गई है। रचना रति नहीं है, मुक्ति है। जब लोग शब्द का व्यापार कर रहे हों, जब शब्द तक पैक हो रहा हो- तब रचना का शब्द अचानक जैसे खेल-खेल में बिना किसी मोल-तोल के आप तक आ पहुंचता है, मन जैसे धन्यता के एक भाव से भर जाता है। रचना में ‘चांस’ का जो एक अनुतत्व है, वह किसी आशीष-सा लगता है। जहां पैकेज न मिलने पर शब्द भी चरित्र हत्या पर उतारू हो जाता हो, वहां शब्द की वह सारस्वत सत्ता देखना है कि वह समकक्ष सृष्टि-सा लगे, द्वितीय निर्मिति-सा लगे, एक अलग की कृतार्थता है। तात्कालिक की क्षुद्रताओं के पार जैसे कहीं लगातार ढांढस बंधाते हुए, लगातार सम्बल देते हुए, एक सनातन का उजास-सा है। लिखना जितना कोई चीज पैदा होना है, उतना ही कोई खोजना भी है। जब हम कविता लिखते हैं, तो कला को नहीं चुन रहे होते हैं। जीवन जीने की एक खास शैली को चुन रहे होते हैं।

 बहुत ‘वाइड रेंज’ है, यह कैसे हासिल किया करते रहे हैं?
रेंज का बहुत विस्तृत होना कम से कम मेरे लिए तो मेरे अपने प्रोफेशन का नतीजा है, जो किसी व्यक्ति को भिन्न-भिन्न भूमिकाओं में रखता है। मनुष्य समाज और परिस्थितियों के जितने ज्यादा आयाम इसमें दिखाई पड़ते हैं, वे तो किसी यायावर को ही उपलब्ध होते होंगे। दूसरे संभवत: भारतीय होना ही व्यापक रेंज का होना है। यह देश है ही विविधता का। दृष्टि जो व्यापकत्व भारत में है, वह न तो हिटलर को नसीब हुआ और न मुसोलिनी को, न लेनिन को और न माओ को, न गद्दाफी को और न सद्दाम हुसैन को। भारतीय होना ‘वाइड’ होना है।

 लिखने में व्यस्तता के बाद भी इतनी निरंतरता, यह किस स्तर पर मैनेज करते हैं, यह कैसे संभव बनाते हैं?
लिखना जितना इल्युमिनेशन है- चमकना है, उतना ही वह कहीं इंक्युबेशन भी है। कुछ भीतर ही भीतर पकता-सा रहता है। लोगों का ध्यान उस ‘चमकने’ पर जाता है और वे उसे ही रचना कहते हैं- लेकिन थोड़ा तवज्जो इस ‘पकने’ पर दें। हो सकता है, यह फल का पकना न हो, घाव का पकना हो। ‘दुनिया ने तजुर्बातो- हवादिस की शकल में/ जो कुछ दिया है मुझे वही लौटा रहा हूं मैं। इसलिए व्यस्तता निरन्तरता की दुश्मन नहीं है। व्यस्तता निरंतरता को मुमकिन बनाती है। यदि लिखना सिर्फ एक फ्लैश है, तब तो उसमें वक्त लगता ही नहीं है। लेकिन यदि लिखना अनुभवों का परिपाक है, तो वह इस व्यस्तता के कारण ही संभव हो पाता है। हर तरह के लोग मिलते हैं, देवता भी कि जिनके पास जाकर मन को मलिनता भी काई की तरह छंट जाती है और वे भी जो किसी दूसरे को उठता हुआ देखना बर्दाश्त ही नहीं कर पाते। लिखना इन तरह-तरह के तजुर्बों के बीच किसी तरह की व्यवस्था या ‘आर्डर’ ढूंढने की कोशिश है।
लेकिन हो सरकता है कि यह खुद अपने आप में ‘डिस्आर्डर’ हो, व्याधि हो, रोग- सा हो लगा हुआ। एलिस फ्लाहर्टी ने जिसे ‘मिडनाइट डिसीज’ कहा है: ‘मध्यरात्रि की बीमारी’। कई बार जब मैं देर से सोने के बावजूद बीच रात में उठकर लिखने बैठ जाता हूं तो यह बात सच भी लगने लगती है। तो एक तरफ वर्कोहलिज्म और दूसरी तरफ लिखने की यह असाध्य बीमारी जिसे हाइपरग्राफिया कहते हैं। यह आदमी तो गया काम से। ये तो क्रॉनिक बीमारियों से ग्रस्त है। लेकिन बीमारियां बस इतनी ही। एजरा पाउंड की तरह स्किजोफ्रेनिया नहीं, राबर्ट लुई स्टीवेंसन की तरह कौकेन लेकर लिखना नहीं, कॉलरिज की तरह मैनिक डिप्रेशन नहीं, गुस्ताब फ्लाबेर की तरह मिर्गी नहीं। उन सबने असाधारण बीमारियों के साथ असाधारण कुछ लिखा। लेकिन जहां लिखने को ही बीमारी समझा जाए, वह समाज स्वयं कितना बीमार हो गया है, यह कौन पता लगाएगा।

 कई बार लगता है लेखन आपके सोच का भी विस्तार है, ऐसे में अपनी रचना प्रक्रिया  बताएं?
जिसे विशेषज्ञता कहा जाता है, उस अर्थ में दर्शन- शास्त्र या विचारणा का अध्ययन मेरा नहीं है। यह तो क्षेत्रज्ञ लोगों का काम है। क्षेत्र के क्षेत्रपों का। मैं न तो धर्म और अध्यात्म के ‘डॉमेन’ में कोई विशेषज्ञ गति रखता हूं, न ‘लॉजिक’ के। बल्कि साहित्य या आलोचना को भी ‘स्वत्व’ के भाव से नहीं देख पाता। वहां तो इतने जमींदार हो गये हैं कि मेरी हैसियत भूमिहीन मजदूर जैसी है। आई.ए.एस. हो जाना लेखन की इस दुनिया में जर्बदस्त परायापन पैदा करता है। हालांकि जितने भी आई.ए.एस. लेखक हुए हैं, वे पहले लेखक थे और बाद में आई.ए.एस. बने। प्राय: सभी ने उस बचपन में लिखना शुरू किया जिस पर सभी का समान हक होता है। लेकिन आई.ए,एस. में आते ही वे ‘‘हैव्स’’ में शुमार कर दिये गये। उसका   प्रतिशोध उसे साहित्य में भूमिहीन मजदूर बनाकर ले लिया जाता है। कई लोग इसी दूसरपन से उबरने के लिए रचना के स्तर पर कॉमरेड हो जाते हैं अऔर एक जमींदारी के नागरिक बन जाते हैं। मैं अनागरिक ही रहा। किसी खेमेमें शमिल होा या कोई खेमा खड़ा करना दोनों में ही मेरी अरुचि थी। शिविरों में चिंतन-कक्ष होते हैं और वे वहां चिंतन- मनन करते भी होंगे। लेकिन मुझे लगता रहा कि चिंतन से कहीं अलग एक चिन्ता भी है जो हमें जिंदगी के मायने समझने का मौका देने के लिए एक दरवाजा भी खोलती है। उस चिंता में लगता है कि कुछ लिखे जाने की जरूरत है।  लोग चिन्ता को साइकोथिरेपी से जोड़ते हैं, मैंने लेखन से जोड़ा। शिविरों के चिंतन-कक्ष में दूसरे से युद्ध की रणनीति बनती है, लेकिन रचना तो बहुत हद तक अरण्य में छूट जाने का साहस है।

 सामाजिक संदर्भों पर भी आप काफी गौर करते हैं, ये कैसे... आपकी विचार-प्रक्रिया का स्रोत- बिन्दु क्या है...?
ये सामाजिक संदर्भ अपने किस्म का अरण्य है। अरण्य कोई पिछले जमाने की प्रकृति की क्रोड़ नहीं जिसमें ऋषियों की ऋचाएं संपन्न हुर्इं। यह जंगल तो जैसे प्रतिदिन हम पर हल्ला बोलता है। यह जंगल किसी तरह का असमाप्त शून्य नहीं है। यह तो कांक्रीट का जंगल है। यहां सियारों की आवाजें भी हैं और गीदड़ों की भी। यह अरण्य औपनिवेशिक लेखकों के द्वारा कार्बनाइज्ड जंगल है। कैसा- कैसी घात लगाकर यहां भारतीय आत्मविश्वास का शिकार किया गया है, किया जा रहा है। बात इसकी नहीं है कि दुनिया भारतीय और गैर- भारतीय के बाइनरी भेदों में बांटी जा सकती है। बात इसकी है कि शिकार कौन है, तीर किसे लग रहे हैं, खून किसका बह रहा है और आप शिकारी के साथ क्यों हैं?


 कई बार आप (कई रचनाओं में) जवाब दे रहे होते हैं। ऐसा किस कारण से होता है?
एक न एक दिन तो उन्हें जवाब मिलना ही था। मंैने जवाब न दिया होता, किसी और ने दिया होता। एकतरफा ट्रेफिक था। एकांगी मार्ग। जैसे कि भारतीय मनीषा सिर्फ झेलने के लिये ही बनी हो। मैंने पशुपति, वंदेमातरम्, कुरान, शक्ति, तुलसी, हनुमान आदि पर लिखा है क्योंकि इन सबके खिलाफ औपनिवेशिक और उलटपंथी लेखकों ने क्या- क्या नहीं कहा? ‘सेक्रेड’ को पवित्र को अतिक्रमित करना, अपने तरह का शौर्य हो सकता है, लेकिन जब वह चयन करके हो तब क्या। बकरा बुद्धि के लोग जब हमारे देश की प्रतिष्ठा- पुस्तकों को गड़रियों के गीत बतलायें और हमारे थाती- पुरूषों को कवि- कल्पना, तो उन्हें अनुत्तरित क्यों जाने दिया जाये? इतिहास सिर्फ वही सवाल नहीं करेगा जो हमारे विद्वान इतिहासकार करते हैं, वह उस तरह के सवाल भी करेगा जो उनकी विद्वता के बावजूद नहीं किये जा रहे।
( साक्षात्कार : मनोज श्रीवास्तव से रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति)

रविवार, अप्रैल 06, 2014

ओशा के विचार रोने की जो कला है,

  मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि बच्चे के रोने की जो कला है, वह उसके तनाव से मुक्त होने की व्यवस्था है और बच्चे पर बहुत तनाव है। बच्चे को भूख लगी है और मां दूर है या काम में उलझी है। बच्चे को भी क्रोध आता है। और अगर बच्चा रो ले, तो उसका क्रोध बह जाता है और बच्चा हलका हो जाता है, लेकिन मां उसे रोने नहीं देगी। मनसविद् कहते हैं कि उसे रोने देना; उसे प्रेम देना, लेकिन उसके रोने को रोकने की कोशिश मत करना। हम क्या करेंगे? बच्चे को खिलौना पकड़ा देंगे कि मत रोओ। बच्चे का मन डाइवर्ट हो जाएगा। वह खिलौना पकड़ लेगा, लेकिन रोने की जो प्रक्रिया भीतर चल रही थी, वह रुक गई और जो आंसू बहने चाहिए थे, वे अटक गए और जो हृदय हलका हो जाता बोझ से, वह हलका नहीं हो पाया। वह खिलौने से खेल लेगा, लेकिन यह जो रोना रुक गया, इसका क्या होगा? यह विष इकट्ठा हो रहा है।
मनसविद् कहते हैं कि बच्चा इतना विष इकट्ठा कर लेता है, वही उसकी जिंदगी में दुºख का कारण है। और वह उदास रहेगा। आप इतने उदास दिख रहे हैं, आपको पता नहीं कि यह उदासी हो सकता था न होती; अगर आप हृदयपूर्वक जीवन में रोए होते, तो ये आंसू आपकी पूरी जिंदगी पर न छाते; ये निकल गए होते। और सब तरह का रोना थैराप्यूटिक है। हृदय हलका हो जाता है। रोने में सिर्फ आंसू ही नहीं बहते, भीतर का शोक, भीतर का क्रोध, भीतर का हर्ष, भीतर के मनोवेश भी आंसुओं के सहारे बाहर निकल जाते हैं। और भीतर कुछ इकट्ठा नहीं होता है। तो स्क्रीम थैरेपी के लोग कहते हैं कि जब भी कोई आदमी मानसिक रूप से बीमार हो, तो उसे इतने गहरे में रोने की आवश्यकता है कि उसका रोआं-रोआं, उसके हृदय का कण-कण, श्वास-श्वास, धड़कन-धड़कन रोने में सम्मिलित हो जाए; एक ऐसे चीत्कार की जरूरत है, जो उसके पूरे प्राणों से निकले, जिसमें वह चीत्कार ही बन जाए। हजारों मानसिक रोगी ठीक हुए हैं चीत्कार से। और एक चीत्कार भी उनके न मालूम कितने रोगों से उन्हें मुक्त कर जाती है। लेकिन उस चीत्कार को पैदा करवाना बड़ी कठिन बात है। क्योंकि आप इतना दबाए हैं कि आप अगर रोते भी हैं तो रोना भी आपका झूठा होता है। उसमें आपके पूरे प्राण सम्मिलित नहीं होते। आपका रोना भी बनावटी होता है। ऊपर-ऊपर रो लेते हैं। आंख से आंसू बह जाते हैं, हृदय से नहीं आते। लेकिन चीत्कार ऐसी चाहिए, जो आपकी नाभि से उठे और आपका पूरा शरीर उसमें समाविष्ट हो जाए। आप भूल ही जाएं कि आप चीत्कार से अलग हैं; आप एक चीत्कार ही हो जाएं। तो कोई तीन महीने लगते हैं मनोवैज्ञानिकों को आपको रुलाना सिखाने के लिए। तीन महीने निरंतर प्रयोग करके आपको गहरा किया जाता है। करते क्या हैं इस थैरेपी वाले लोग? आपको छाती के बल लेटा देते हैं जमीन पर। आपसे कहते हैं कि जमीन पर लेटे रहें और जो भी दुºख मन में आता हो, उसे रोकें मत, उसे निकालें। रोने का मन हो रोएं; चिल्लाने का मन हो चिल्लाएं।
तीन महीने तक ऐसा बच्चे की भांति आदमी लेटा रहता है जमीन पर रोज घंटे, दो घंटे। एक दिन, किसी दिन वह घड़ी आ जाती है कि उसके हाथ-पैर कंपने लगते हैं विद्युत के प्रवाह से। वह आदमी आंख बंद कर लेता है, वह आदमी जैसे होश में नहीं रह जाता, और एक भयंकर चीत्कार उठनी शुरू होती है। कभी-कभी घंटों चीत्कार चलती है। आदमी बिलकुल पागल मालूम पड़ता है, लेकिन उस चीत्कार के बाद उसकी जो-जो मानसिक तकलीफें थीं, वे सब तिरोहित हो जाती हैं।
यह जो ध्यान का प्रयोग मैं आपको कहा हूं, ये आपके जब तक मनावेग-रोने के, हंसने के, नाचने के, चिल्लाने के, चीखने के, पागल होने के- इनका निरसन नहो जाए, तब तक आप ध्यान में जा नहीं सकते। यही तो बाधाएं हैं। आप शांत होने की कोशिश कर रहे हैं और आपके भीतर वेग भरे हुए हैं, जो बाहर निकलना चाहते हैं। आपकी हालत ऐसी है, जैसे केतली चढ़ी है चाय की। ढक्कन बंद है। ढक्कन पर पत्थर रखे हैं। केतली का मुंह भी बंद किया हुआ है और नीचे से आग भी जल रही है। वह जो भाप इकट्ठी हो रही है, वह फोड़ देगी केतली को। विस्फोट होगा। दस-पांच लोगों की हत्या भी हो सकती है। इस भाप को निकल जाने दें। इस भाप के निकलते ही आप नए हो जाएंगे और तब ध्यान की तरफ प्रयोग शुरू हो सकता है।

ओशा के विचार

बुधवार, जनवरी 01, 2014

प्रताड़ना के आरोप :कई सवाल

  ज ब भी किसी बड़ सभ्रांत वर्ग के व्यक्ति पर रेप या यौन प्रताड़ना के आरोप लगते हैं तो कई सवाल भी सामने आ खड़े होते हैं। हाल ही में गिरीश वर्मा पर एक महिला ने रेप का आरोप लगाया है। ऐसे कई मामले वर्षों पुराने होते है तो कुछ एक नए। रेप और यौनप्रताड़ना को लेकर समाज में शिकायतों की संख्या बड़ी है अथवा रेप की संख्या बड़ी है। दोनों पक्ष गौर से देखने पर यह लगता है कि  महिलाओं ने रेप जैसे अपराध करने वाले अपराधी से प्रतिकार की क्षमता हासिल की है। इसमें कानून की सुरक्षा तो है ही त्वरित कार्यवाही से भी शिकायतों का प्रतिशत बढ़ा है। राजनीति और सामाजिक ताकत के गठजोड़ ने इस तरह के अपराधों का जन्म होता है। यह एक सामाजिक समस्या के साथ, ताकत के दुरुपयोग की समस्या है। स्त्रियों के प्रति दृष्टिकोण का भी मामला है। हालांकि रेप के लेकर कई तरह की रिसर्च भी हुए हैं जिनमें पाया गया है कि यह मात्र कानून से नियंत्रित की जाने वाली समस्या नहीं है। इसमें सामाजिक सोच और अनियंत्रित कामेच्छा दोनों शामिल हैं, जो किसी पल विशेष में इंसान के दिमाग पर जबर्दस्त तरीके से हावी हो जाती है। इसी अनियंत्रित कामेच्छा को संतुष्ट करने के लिए वह रेप जैसी हिंसा की ओर कदम बढ़ा देता है। लेकिन इस मामले में हुई तमाम रिसर्च इस बात को प्रमाणित करती नजर आती हैं कि एक रेपिस्ट के मस्तिष्क में होने वाली मनोवैज्ञानिक उथल-पुथल में सेक्शुअल डिजायर से ज्यादा महिला पर हावी होने और उसे कष्ट में देखने की चाह होती है और इसे पूरा करने के लिए ऐसे लोग सेक्स को माध्यम बनाता है। सेक्स करने की सामान्य और सहज प्राकृतिक इच्छा इस काम में गौण हो जाती है। रेप आधुनिक सभ्यता के प्रति अपराध है।
किसी रेपिस्ट की सोच, उसके दिमाग के काम करने का तरीका और आगे बढ़कर अपनी इस घिनौनी सोच को अंजाम तक पहुंचा देने की पूरी प्रक्रिया में मानव सेक्शुअलिटी सबसे काला पक्ष है। तमाम विशेषज्ञ बरसों से उन मनोवैज्ञानिक ताकतों और दबावों को जानने-समझने की कोशिश करते रहे हैं, जो किसी इंसान को रेप जैसे अपराध के लिए प्रेरित करते हैं। शोधों में रेपिस्ट के मस्तिष्क को पढ़ने के लिए बहुत समय पहले कनाडा में एक रिसर्च की गई, जिसमें महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रही सोच ही प्रमुख थी। प्रमुख रूप से महिलाओं के प्रति सैडिस्ट अप्रोच। रेप की घटनाओं को अंजाम देने से पहले ऐसे लोग ज्यादातर नशे में पाए गए हैं। महिलाओं को लेकर वे पूर्वाग्रहों से ग्रस्त भी थे। महिलाओं के प्रति उनके मन में इज्जत के भाव नहीं थे। कई बार ये सामान्य लोगों में उनकी सामाजिक आर्थिक हैसियत से भी यौन प्रताड़ना का जन्म होता है। दूसरी तरफ यह भी सच है कि कुछ मामले बदले की भावना से भी लगाए जाते रहे हैं। सहमति से सेक्स को बलात्कार का रूप देना, किसी के द्वारा देखने के बाद सार्वजनिक होने के डर से भी ऐसे मामले सामने आते रहे हैं। वास्तव में इस बारे में अधिक वस्तुनिष्ठ होने की आवश्यकता है। महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों का प्रतिकार अब सामाजिक परिवर्तन का हिस्सा हो चुका है। समाज को यह स्वीकार करना होगा।

शुक्रवार, दिसंबर 13, 2013

समलैंगिकता क्यों?

 
 
 समलैंगिकता क्यों?
समाज में समलैंगिक संबंधों को मानसिक बीमारी या प्राकृतिक विकृति से जोड़ कर देखा जाता रहा है। सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले से भारतीय समाज में ये संबंध फिर विवाद और बहस में हैं।
स  मलैंगिक संबंधों पर विवाद उतना ही पुराना है जितना कि ये संबंध हैं। प्रकृति या मानवीय विकृति अथवा किसी ज्ञात-अज्ञात कारण से इन संबंधों के लिए प्रेरित होने वाले लोग अपने अधिकारों की मांग करते रहे हैं। समलैंगिकता के पक्ष में  दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा 2009 में सुनाए गए फैसले को देश के कुछ संगठनों ने सांस्कृतिक और धार्मिक मूल्यों के खिलाफ बताया था। ये संगठन ही हाईकोर्ट के फैसले के विरोध में वे सुप्रीम कोर्ट गए थे। हाल ही के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने देश में समलैंगिक संबंधों को अपराध करार दे दिया है। मामले में सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति जीएस सिंघवी ने कहा, ‘समलैंगिक संबंधों को उम्रकैद की सजा वाला अपराध बताने वाली आईपीसी की धारा 377 में कोई संवैधानिक खामी नहीं है।’ उन्होंने इस विवादित मुद्दे पर आगे का निर्णय लेने के लिए पूरी प्रक्रिया और जिम्मेदारी को संसद की ओर धकेल दिया है। कोर्ट ने कहा कि संविधान से यह धारा हटाई जाए या नहीं यह देखना संसद का काम है।
अब इस मामले में एक बार फिर बहस, विवाद और निराशा का माहौल बन गया है। अदालत के ताजा फैसले को लेसबियन, गे, बाइ-सेक्शुअल और ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों ने इसे अधिकार वापस लेने जैसा बताया है। कुछ लोग कह रहे हैं कि जब दो पुरुष या दो महिलाएं सहमति से शारीरिक संबंध बनाते हैं तो यह अपराध क्यों है? लेकिन यह मामला सिर्फ इतना नहीं है, यह एक निजी भावनात्मक-शारीरिक क्षमता अक्षमताओं से भी जुड़ा है। इन संबंधों को इस अवधारणा से मुक्त होकर देखाना चाहिए कि ऐसे मामले समाज में गंदगी फैला रहे हैं।  इस मामले में ऐसे लोगों की बात भी सुनी जाना आवश्यक है। केवल विलासिता या यौन कुंठा के रूप में इस तरह के संबंधों को बनाना या अपनाना उचित नहीं कहा जा सकता। इसके समाधान के लिए ऐसे लोगों की शादी के लिए या संबंधों के लिए चिकित्सीय सेवाओं और   सुविधाओं का उपयोग कर सकते हैं। डॉक्टरों की टीम बता सकती है कि ऐसे लोगों के लिए उचित लैंगिक समाधान क्या हो सकता है। इस तरह के संबंधों  के मामले में यह दलील भी दी जा रही है कि जब इन लोगों को समाज ही गले नहीं लगा पाता है तो उन्हें उनका ही समाज बना बनाने को अधिकार तो हो सकता है। ये संबंध दोनों की जिंदगियों को सुखी और सुरक्षित बना सकता है, कम से कम किसी को शादी के मंडप में या किसी को बच्चे न होने की स्थिति में अथवा किसी को शादी के कई साल बीत जाने के बाद ये झटका तो नहीं लगेगा। उनका साथी असल में शारीरिक रूप से प्रजनन के लिए दुरुस्त नहीं था या नहीं है।  दूसरी तरफ समलैंगिकता कुछ लोगों के यौन अधिकारों पर बहस मात्र नहीं है। यह बहस भारतीय समाज के बुनियादी आदर्शों से जुड़ती हुई, परंपरा, समाज और ज्ञान-विज्ञान की मान्यताओं को खंगालती है तथा इस प्रक्रिया में वह सभ्यता और संस्कृति  में खोजबीन करने दूर तक जाती है। बहरहाल, इस बहस में पूर्वाग्रह छोड़कर संवेदनशीलता के साथ चलने पर ही किसी मानवीय तार्किक निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है।

लोकतंत्र में लाल बत्ती क्यों? 


लोकतंत्र में हर आदमी व्यवस्था का हिस्सा है फिर कुछ लोगों को खास होने विशेषाधिकार क्यों हो? लालबत्ती की अनाधिकृत चाहत सामंतवादी मानसिकता है।

सु प्रीम कोर्ट ने मंगलवार को अपने फैसले में कहा कि वाहन की छत पर लाल बत्ती का उपयोग केवल उच्च संवैधानिक पदों पर आसीन लोगों के वाहनों पर ही किया जाएगा, और नीली या अन्य रंगीन बत्ती का उपयोग आपात सेवाओं जैसे एम्बुलेंस, फायर ब्रिगेड और पुलिस के लिए होना चाहिए। यह आवश्यक सेवाओं के लिए है न कि रुतबे के प्रदर्शन के लिए। लाल बत्तीपर आया फैसला भारतीय लोकतंत्र में जनता के सम्मान का फैसला है। लोकतंत्र में सड़क पर सभी समान हैं और सभी का समय कीमती है। इस फैसले से यही अवधारणा पुष्ट होती है। सड़कों पर अव्यवस्था या ट्रैफिक जाम से बचने के लिए लाल बत्ती या पीली बत्ती का प्रयोग किया जाता है। वास्तव में इसके विराध में तर्क देने वाले कहते हैं कि प्रशासन के जिम्मेदारों का फर्ज बनता है कि वे पूरी व्यवस्था को सुधारें ताकि उनके साथ जनता को भी व्यवस्था ठीक मिले। लोकतंत्र में जनता से अलग होने का विशेषाधिकार किसी को नहीं है। लाल बत्ती का विरोध, जनहित याचिकाएं और सुप्रीमकोर्ट के हस्तक्षेप की वजह यही रही है कि ये बत्तियां अहंकार का प्रदर्शन होती जा रही थीं। इनसे जनता की स्वतंत्रता का हनन हो रहा था एवं अनाधिकृत लोग इनका दुरुपयोग कर रहे थे।
लाल बत्ती की परंपरा भारतीय लोकतंत्र में एक कुरीति है। अंग्रेज जब भारत के शासक थे, तब भी कलेक्टर या लाटसाहब लाल बत्ती व सायरन के साथ नहीं घूमते थे। न ही सुरक्षा के नाम पर इतना तामझाम होता था। आज लालबत्ती वाली गाड़ियों को देखते ही आम आदमी की आंखें फटी और सायरन की आवाज पर कान खड़े हो जाते हैं। इसका मतलब यह है कि कोई विशिष्ट व्यक्ति उस वाहन में है जिसके मार्ग में बाधा डालना खतरे से खाली नहीं है। आधुनिक लोकतंत्र में यह राजशाही का नया रूप है। नई कुरीति है। लाल बत्ती विशिष्टता का प्रतीक बन गई है। असल में लाल बत्ती और सुरक्षा तामझाम की मौजूदा प्रवृत्ति अधिकारियों की वजह से बढ़ी है। राजनेताओं में पहले इसका रोग नहीं था। आजादी से ठीक पहले भारत में जो अंतरिम सरकार बनी थी, उसके मंत्री ट्रेनों में तीसरे दर्जे में सफर करते थे क्योंकि यह महात्मा गांधी का निर्देश था, वे खुद तीसरे दर्जे में चलते थे। उस समय भी मंत्रियों के सचिव के रूप में तैनात होने वाले आईसीएस अधिकारी पहले दर्ज में चलते थे। स्टेशन पर जब ट्रेन पहुंचती थी, तो अधिकारी पहले दर्जे से उतरकर तीसरे दर्जे तक पहुंचते थे। नियमानुसार तो होना यह चाहिए था कि अधिकारी भी मंत्रियों के साथ के दर्जे आते और जनता के साथ तीसरे दर्जे में सफर करते। लेकिन उलटा हुआ। आजादी के बाद देश के नेता भी अधिकारियों के साथ पहले दर्जे के सवार हो गए और धीरे-धीरे अपने लिए सुविधाएं बढ़ाते गए। अगर सड़कों पर व्यवस्था खराब है, जाम है तो इसे सुधारा जाना चाहिए, ना कि लालबत्ती लगाना चाहिए। असल में लाल बत्ती लगा कर अपने को आम लोगों से अलग दिखाना एक सामंती प्रवृत्ति है, जिसके लिए लोकतंत्र में कोई जगह नहीं होनी चाहिए।


मंगलवार, दिसंबर 10, 2013

वृन्दावन की विधवाओं की स्थिति

एक साल पहले सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका में दावा किया गया था कि मथुरा की विधवाओं को सात से आठ घंटे तक भजन गाने पर सिर्फ 18 रुपए ही मिलते हैं। इनमें से अनेक विधवाओं के बच्चे भी हैं लेकिन वे उनकी देखभाल नहीं करते हैं। इस जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने वृन्दावन की विधवाओं की स्थिति पर सरकार के रवैये से नाराजगी जताई थी।  वृन्दावन की
विधवाओं की दयनीय स्थिति पर गौर करने के लिए राज्य महिला आयोग का गठन करने में विफल रहने पर यह सुझाव दिया था। न्यायमूर्ति डी के जैन और न्यायमूर्ति मदन बी लोकूर की खंडपीठ ने वृन्दावन की विधवाओं की दयनीय स्थिति को लेकर दायर जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान राज्य सरकार के रवैये पर अप्रसन्नता व्यक्त की।
न्यायालय ने राज्य सरकार से कहा था कि इन महिलाओं का रहने के लिए बेहतर वातावरण और पर्याप्त भोजन मुहैया कराने के अलावा उन्हें समुचित चिकित्सा सुविधा भी उपलब्ध कराई जाय। राष्ट्रीय महिला आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि मथुरा और वृन्दावन के आश्रमों में पांच से दस हजार विधवाएं भिखरियों जैसा जीवन गुजार रहीं हैं जहां उनका यौन शोषण भी होता है।     आयोग ने अपनी  रिपोर्ट में कहा था कि इनमें से 81 फीसदी महिलाएं निरक्षर हैं।
दूसरी तरफ संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून ने विधवाओं के अधिकारों के सम्मान के लिए विश्व समुदाय का आह्वान किया है। गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा वर्ष 2010 में अंतरराष्ट्रीय विधवा दिवस मनाना तय किया था। ताकि पूरे विश्व में विधवाओं की दुर्दशा सामने आ सके। विश्व में लगभग 24.5 करोड़ विधवाएं हैं। इनमें 11.5 करोड़ अत्यंत गरीबी में जीने को विवश हैं।
पुरुषों की अपेक्षा विधवा महिलाओं की स्थिति बुढ़ापे में अधिक दयनीय हो जाती है। वे तीन तरह की उपेक्षा झेलती हैं- एक तो सामान्य नागरिक के रूप में, दूसरे, महिला के रूप में और तीसरे, बुजुर्ग के रूप में। आंकड़े बताते हैं कि भारत में बूढ़े पुरुषों की अपेक्षा वृद्ध विधवा महिलाओं की संख्या12 प्रतिशत अधिक है, अपाहिज वृद्ध महिलाओं की संख्या अधिक है और गांव-घर में निरुद्देश्य पड़ी महिलाएं अधिक हैं। बुजुर्गो में विधवाएं भी विधुर की अपेक्षा अधिक मिलती हैं। वृद्ध महिला को समाज और परिवार बोझ के रूप में देखने लगता है क्योंकि वे बीमारियों के चलते अनुत्पादक, खर्चीली, निर्भर और असंतुष्ट बन जाती हैं, मन दुखी औ र असुरक्षित होने के नाते बीमारियां बढ़ जाती हैं, बीमारी के बढ़ते खर्च और देखभाल की जरूरत के चलते परिवार के सदस्य झल्लाने लगते हैं और वृद्ध महिलाओं को और भी निराशा और हीनभावना से ग्रस्त बना देते हैं। यह दुष्चक्र बन जाता है।
 ऐसी स्थिति में एस्ट्रोजे न नामक हार्मोन की कमी होती है, जो तमाम शारीरिक व मानसिक समस्याओं को जन्म देती है। तब वे या तो आत्म करुणा से ओत-प्रोत रहने लगती हैं या फिर चिड़चिड़ी और दूसरों को परेशान करने वाली बन जाती हैं। कई बार सास के रूप में औरत को देखें तो हमें ये प्रवृत्तियां गम्भीर रूप धारण करती नजर आती हैं, परंतु यह सब पति के मरने के बाद बेटे पर अत्यधिक और एकमात्र निर्भरता के चलते ही होता है, जहां बहू एक प्रतिद्वंद्वी और भविष्य की मालकिन के रूप में असुरक्षा-बोध बढ़ाने वाली लगती है।
विधवाओं के दुख सामंती सोच वाली, बेरोजगार औरतों या ग्रामीण उच्च-जातीय परिवारों में अधिक परिलक्षित होता है। शहरी वर्ग में यह स्थिति अकेलेपन और अवसाद में ग्रस्त दिखाई देती है। यहां विधवा महिलाएं अकेलेपन का शिकार होते हुए ओल्डऐज होम पहुंच जाती हैं। बहुत कम महिलाओं को यह मालूम है कि बचपन के प्रोटीनयुक्त खानपान और जवानी में लोहा और कैल्शियम व फॉलिक एसिड से परिपूर्ण पौष्टिक आहार बुढ़ापे को सुखद और स्वस्थ बनाता है।
निम्न आर्थिक हैसियत वाली ग्रामीण और शहरी विधवा महिलाओं को 55 की उम्र के बाद से स्वास्थ्य की समस्याएं घेरने लगती हैं, वे इधर-उधर से नुस्खे पता करके काम चलाने की कोशिश करती हैं और अपने शरीर को घसीटती रहती हैं ताकि परिवार में उनकी उपयोगिता किसी तरह बनी रहे, वरना उन्हें परिवार के लिए बेकार समझने में देर नहीं लगती। यहां भी भेदभाव अपनाया जाता है। ऐसे परिवारों में पौष्टिक आहार पुरुषों को दे दिया जाता है। क्योंकि पुरुष-प्रधान समाज में औरत का अपने लिए सोचना भी बुरी नजर से देखा जाता है। इन स्थितियों के कारण महिलाओं का बुढ़ापा काफी कष्टप्रद हो जाता है, पर तब तक देर हो चुकी होती है और मामला हाथ से निकल चुका होता है।
शायद इन्हीं वजहों से जब संयुक्त राष्ट्र ने महिलाओं पर ध्यान केंद्रित किया, तो सबसे अधिक जोर बुजुर्ग महिलाओं की स्थिति को सुधारने पर दिया। 1982 में संयुक्त राष्ट्र ने वियना में बुढ़ापे पर पहली जनरल असेंबली आयोजित की थी। इसमें वृद्ध महिलाओं के लिए सामाजिक कार्यक्रम और सामाजिक सुरक्षा की चर्चा हुई। 1990 में जनरल असेंबली ने बुजुर्गों के लिए अंतरराष्ट्रीय दिवस घोषित किया। 1991 में 46 वें सत्र में  विधवा महिलाओं के लिए कुछ विशेष सुविधाएं घोषित की गई। 2002 में संयुक्त राष्ट्र की बुढ़ापे पर द्वितीय विश्व असेंबली हुई और 2010 में 45वें अधिवेशन में भी विधवा एवं वृद्ध महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों और उन पर उठाए जाने वाले कदमों की रूपरेखा तय की गई, मसलन डायन प्रथा, वृद्ध विधवाओं की हत्या, आरोप लगाकर प्रताड़ित करना इत्यादि।
भारत में वृद्ध महिलाओं की   सम्पत्ति को हथियाने के लिए अकसर इस किस्म के कारनामों को दबंग लोगों द्वारा अंजाम दिया जाता रहा है। शहरों में ऐसी महिलाओं की हत्या का प्रतिशत भी अधिक है। गांवों में उनको जबरन बेदखली और काबिज होने की समस्या बेहद गंभीर है। भारत सरकार ने 1999 में बुजुर्गों के लिए राष्ट्रीय नीति बनाई पर महिलाओं की विशिष्ट स्थिति पर बहुत कम जोर रहा। ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं को वृद्ध महिलाओं पर केंद्रित स्कीमों के बारे में पता रहते हुए भी उनका लाभ उठा पाना संभव नहीं हो पाता। किसी भी हालत में औरतों को परिवार के पुरुष सदस्यों पर निर्भर रहना पड़ता है। शहरी क्षेत्रों में तो महिलाओं को लाभकारी स्कीमों की जानकारी नहीं रहती क्योंकि यदि वे घरेलू महिला हैं, उनका समाज से और भी कम सरोकार रहता है और संघर्ष करने की प्रवृत्ति भी कम रहती है। इसलिए इस बाबत महिलाओं को जानकारी और प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। प्रशासनिक अधिकारियों, चुनाव आयोग, बैंकों, अस्पतालों और स्वास्थ्यकर्मियों, रेलवे, हवाई जहाज और बस सेवाओं को वृद्ध विधवा महिलाओं के लिए विशेष सुविधाओं की व्यवस्था करनी चाहिए, पर इसके लिए महिला एवं बाल विकास मंत्रालय को एक विशेष प्रकोष्ठ वृद्ध विधवा महिलाओं की स्थिति का अध्ययन करने के लिए भी निर्मित करना चाहिए। साथ ही महिला संगठनों को भी वृद्ध विधवा महिलाओं, खासकर दलित-आदिवासी, गरीब, अल्पसंख्यक, अकेली और उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं की बुजुर्ग महिलाओं की आर्थिक, सामाजिक, मानसिक और शारीरिक स्थिति, उनके पोषण और उनकी निरक्षरता तथा उनके अपाहिज होने की स्थिति आदि पर अध्ययन करना चाहिए। उनके मुद्दे उठाए जाएंगे और उन्हें अपने निष्क्रिय जीवन से उबारकर उनके लिए सहकारी प्रयासों से  उत्पादकता बढ़ाई जाएगी तो उनका आत्मसम्मान कायम रह सकता है। नियमित स्वास्थ्य चेकअप, राशन व्यवस्था में वृद्ध विधवा महिलाओं के लिए कैल्शियम युक्त आटा, उनके इलाज के लिए सस्ते सब्सिडाइज्ड फूड कार्ड की व्यवस्था जरूरी है क्योंकि ऐसी विधवाओं के लिए किसी प्रकार की स्वास्थ्य बीमा उपलब्ध नहीं है। शिक्षा और उत्पादन से जुड़ा रहना अल्जाइमर डिजीज से बचाने में मदद करता है क्योंकि दिमाग सक्रिय रहता है और अपने जीवन की उपयोगिता भी महसूस होती है। जिन महिलाओं की मेहनत के चलते हमारा जीवन बेहतर और आत्मनिर्भर बना, क्या हम उनकी देखरेख के बारे में इतनी चिंता भी नहीं कर सकते?

कांग्रेस की हार

 


डीजल की कीमतों के बाद जब रोज की चीजें महंगी होने लगीं तो ग्राहक ने पूछा दाम क्यों बढ़े? दुकानदार ने कहा- डीजल बढ़ गया है। ग्राहक ने पूछा- डीजल किसने बढ़ाया तो उत्तर ‘कांग्रेस’ था। 

अ   ब चुनावों के नतीजों के बाद सिर्फ विचार और विश्लेषण ही बाकी बचा है। यह  काम तभी आता है जब उसे अमल में लाया जाए। इस तरह कांग्रेस की हार की कहानी बहुत पहले शुरू हो चुकी थी। जब कुछ महीने पहले हिसार लोकसभा उपचुनाव में कांग्रेस के खिलाफ 4-0 का नतीजा आया। एक उम्मीदवार की जमानत जब्त हो गई थी। यह एक कठोर संदेश था। लेकिन किसी ने यह पूछना आवश्यक नहीं समझा कि आखिर ऐसा क्यों हुआ? जनता इतनी नाराज क्यों है? इस घटना के बाद भी कांग्रेस कंपनियों को घाटे से बचाने के नाम पर हर हफ्ते डीजल और पैट्रोल की कीमतें बढ़ाने में लगी रही। डीजल की मामूली बढ़ोतरी ने खुदरा बाजार ने सामान्य चीजों की कीमतों को बढ़ाने की खुली छूट ले ली। कीमतें बढ़ने के बाद घटी नहीं। भले ही उनकी कीमतें थोक बाजार में घट गर्इं। थोक आंकड़ों में कीमतें कम-ज्यादा होती रहीं, लेकिन जनता को राहत नहीं मिल रही थी। कीमतों की बढ़ोतरी का सारा गुस्सा लोगों ने डीजल पैट्रोल पर निकाला। कांग्रेस महासचिव बीके हरिप्रसाद का कहना था कि हार अप्रत्याशित नहीं थी, जबकि पार्टी के उम्मीदवार की हिसार में जमानत जब्त हो गई थी। इसी समय टीम अन्ना के सदस्य अरविंद केजरीवाल ने कहा था कि हिसार का नतीजा जन लोकपाल विधेयक पर एक जनमत संग्रह है।
 केंद्र सरकार द्वारा आर्थिक सुधारों के नाम पर सृजित महंगाई को चुनाव में महंगाई और भ्रष्टाचार प्रमुख मुद्दे थे। एक प्रमुख नारा था-पेट्रोल महंगा, डीजल महंगा लेकिन भ्रष्टाचार सस्ता। कांग्रेसी नेताओं के पास इस चुनाव के दौरान भ्रष्टाचार दलील नहीं थी। कांग्रेस के पास राहुल गांधी के रूप में एक केंद्रीय शक्ति को सृजित करने वाला चेहरा था लेकिन वे जनता को एक सख्त और ताकतवर शासक की तरह आकर्षित नहीं कर सके। लोग कहने लगे कि राहुल अपनी पार्टी के बड़े नेताओं के पढ़ाने पर वही बोलते हैं जो उन्हें कहा जाता है। अन्ना के उस विशाल जन समर्थन को राहुल और उनकी पार्टी समझ ही नहीं सकी। इसके अलावा कांग्रेस पार्टी अपने पुराने वैचारिक नारों का ही इस्तेमाल करती रही जैसे कि भाजपा सांप्रदायिक है, जबकि भाजपा ने अपने आपको बदला है। मध्यप्रदेश इसका उदाहरण है। कांग्रेस की हार का एक कारण यह भी है कि उसके पास एकसूत्रता की कमी थी।  नेतृत्व में एक स्पार्क होना चाहिए वह कहीं दिखाई नहीं दिया। युवा नेतृत्व युवा और पहली बार मतदान कर रहे लोगों को आकर्षित नहीं कर सके। कांग्रेस के पास ऊर्जा नहीं थी।  सरकार व संगठन दोनों जीत के मुगालते में रहे। कांग्रेस नेता समझ ही नहीं पाए कि महंगाई व भ्रष्टाचार के अभियान में दम है। महंगाई से तो जनता जूझ ही रही है, उस पर से भ्रष्टाचार ने खाज का काम किया। चुनाव से पहले पेट्रोल व डीजल की कीमतों में बढ़ोतरी की बातें होती रहीं। मजदूर किसान एवं नौजवान सभी परेशान रहे। प्रधानमंत्री पद पर हैं लेकिन सत्ता में नहीं हैं। इसी राजनीतिक सच्चाई के कारण पार्टी दिशाहीन होती चली गई और एक हारी हुई पार्टी बन गई।

शुक्रवार, नवंबर 01, 2013

रंग बिरंगा



इस दुनिया में कौन है रंगा कौन है बिल्ला
नरियल खाले फेंक दे नट्टी खुल्ला

तोड़ के मर्म पते की बातें जग में कर दे हिल्ला
इस दुनिया में कौन है रंगा कौन है बिल्ला

पता नहीं किसने क्या कहा था किसके बारे में
जब नहीं था उसके पास जीवन का हिल्ला

तब वह था इस दुनिया का रंगा बिल्ला
लेकर चला गया चुप चुप अपने कर्मों का हिल्ला

लौट के आया ठहरा देखा कुरते में कुछ ऐसा
मारी चोट चौराहे पर भाग कोई कुत्ता सा चिल्ला

तोड़ तोड़ कर कर दी उसने दुनिया की पसली
जीवन का गणित नहीं समझा था बिल्ला

असुरक्षित था सब कुछ यहां वहां तक
केवल नेता करता रहा सुरक्षित अपना किल्ला

इतने दिन तक देख देख कर सोच रहा था
ये दुनिया को कौन चलाता है कौन बड़ा है बिल्ला

ये नहीं रुकेगा ये कबीर का चरखा है
कातेगा जब सूत निकलेगा दुनिया का पिल्ला

यहां वहां सब जगह हैं बिल्ला रंगा चारों ओर
ओड़ के आते हैं एक कहानी फिर करते हैं चिल्ला


रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
टॉप-12, हाईलाइफ कॉम्पलेक्स, चर्चरोड, जिंसी जहांगीराबाद, भोपाल, मप्र 462008
9826782660

खुशहाली का टर्नओवर

  ध  न सोना चांदी के रूप में तो है ही उसे आधुनिक युग में टर्नओवर के रूप में भी देखा जाता है। धन का त्यौहार धन तेरस पर धन की पूजा समृद्धि के अर्थों में की जाती है। आज व्यक्ति की जितनी समृद्धि का महत्व है उतना ही राष्ट्र की समृद्धि का भी है। अगर देश की समृद्धि के बिना निजी धन वैभव को बहुत अधिक महत्व नहीं दिया जा सकता है। आज हम अपनी समृद्धि ही नहीं देश के लिए भी खुशहाली की कामना कर सकते हैं। गत तिमाही में देश का समृद्धि यानी जीडीपी का हिसाब कुछ ठीक नहीं रहा। सितम्बर में समाप्त तिमाही में जीडीपी विकास दर पूर्व में लगाए गए अनुमानों से भी अधिक लुढ़क गई है। वर्ष भर पूर्व की तुलना में गिरावट डेढ़ फीसद (8.4 की तुलना में 6.9) है। अर्थव्यवस्था के आठ मुख्य क्षेत्रों में भारी गिरावट दर्ज की गई है। जिनमें स्टील, सीमेंट और कोयला भी शामिल है। इससे स्पष्ट है कि औद्योगिक क्षेत्र में गिरावट आ रही है। खनन क्षेत्र में तो विकास दर नकारात्मक हो गई है। कृषि क्षेत्र भी बेहतर नहीं है जिसकी विकास दर साल भर पूर्व के 5.4 से गिरकर 3.2 फीसद रह गई है। सिर्फ सेवा क्षेत्र में सरकारी खर्च की बढ़ोतरी ने विकास दर को कुछ संभाला है लेकिन सरकारी खर्च बढ़ने का परिणाम यह है कि राजकोषीय घाटा पहले सात माह में ही यह उसके 75 फीसद तक पहुंच गया है।
यह सारी बातें अर्थव्यवस्था की बिगड़ती सेहत
का संकेत हैं। आर्थिक चुनौतियां सिर्फ विदेशी कारणों से नहीं आई हैं। इसकी वजह घरेलू हालात भी हैं। राजनीतिक व्यवस्था का गतिरोध और घोटालों के खुलासों से काफी समय तक सरकार जरूरी फैसलों को टालती रही। अब जबकि उसने कुछ कड़े फैसले लिए हैं तो राजनीतिक फायदे से आगे न सोच पाने के विपक्षी नजरिए ने उन पर अमल को मुश्किल बना दिया है। तेज गति से विकास करने वाली कुछ अर्थव्यवस्थाओं में शामिल होने के बावजूद देश कई वजहों से आर्थिक परेशानियां झेल रहा है। विशाल जनसंख्या एवं भारी उपभोग की वजह से भारत आज दुनिया के सबसे बड़े बाजारों में शामिल हो चुका है। लेकिन आर्थिक कुप्रबंधन, नीतिगत स्तर पर शिथिलता, बड़े-बड़े घोटाले, लालफीताशाही, दूरदर्शी सोच का अभाव जैसे कई मसले हैं जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था दबावों का सामना कर रहा है। धन प्रबंधन के मामले में हमारी कमजोरी एक बड़ी परेशानी का कारण बनता जा रहा है। वित्तीय साक्षरता के मामले में भारत अभी तक बड़े स्तर पर कोई कोई कारगर प्रयास नहीं कर रहा। बेहतर धन प्रबंधन का सीधा संबंध तार्किक वित्तीय साक्षरता से होता है। देश में वित्तीय रूप से जितने लोग साक्षर होंगे उनमें वित्त प्रबंधन कला का विकास होगा। ऐसा नहीं होता है तो हम अपने देश की समृद्धि की कल्पना नहीं कर सकते। आज देश में तमाम तरह की चुनौतियां हैं जिन पर एक सख्त और दूरदर्शी राजनीतिक सोच की आवश्यकता है। धन के इस त्योहार पर हम अपने देश की समृद्धि के लिए एक मिनट सोचें। यही सोच हमें अपने साथ देश को समृद्धि लेकर आएगी।