गुरुवार, अगस्त 21, 2014

अभिनेता और अभिनय


आलोक चटर्जी का यह आलेख  युवाओं के लिए आँख खोलने वाला है.
                                                   पीपुल्स समाचार से साभार                          - रवीन्द्र  स्वप्निल प्रजापति
    अभिनय की दुनियां में इन दिनों नये युवाओं की भरमार है। बाहर से देखें तो यह सुखद लगता है, कि इतनी बड़ी संख्या में युवा अभिनय के क्षेत्र में आ रहे हैं, और इसे संभावनाओं के रूप में देख रहे हैं, परन्तु मुझे एक अभिनेता, अभिनय-शिक्षक और रंग निर्देशक के तौर पर लगातार यह महसूस होता रहा है कि दरअसल इसमें बहुत कुछ छद्म है, जैसे उदाहरण के लिये मैं पाता हूं कि अधिकतर युवा अपने शैक्षणिक सत्रों की छुटटियों के दौरान इसे समय बिताने और नये लोगों से परिचय का एक अच्छा अवसर मानते हैं। परन्तु नाटक के दूसरे या तीसरे प्रदर्शन में ही वे कोई न कोई बहाना बनाकर नदारत हो जाते हैं। कुछ युवा मात्र सिनेमाई व्यक्तित्वों की छाआएं लेकर आते हैं और जब पाते हैं कि यहां कठोर अनुशासन, समर्पण, निरन्तरता, प्रतिभा को निखारने के लिये बहुत आवश्यक है, तो वे अपनी दमित इच्छाओं को लिये शनैः शनैः रंगमंच से दूर हो जाते हैं। कुछ युवा इसलिए भी आते हैं कि पर्सनलिटी ग्रूमिंग की क्लासेस के लिये बिना कोई शुल्क चुकाये ये एक अच्छा माध्यम है। इसके बाद कुछ युवा अवश्य ऐसे होते हैं जो अपने कार्य में निरन्तरता रखते हैं और कुछेक वर्षों तक रंगमंच में बने रहते हैं। उसके बाद विवाह, पिताजी का रिटार्यमेंट, मां की बीमारी आदि का सहारा लेकर वह अभिनय और रंगमंच से तौबा कर लेता है। जो युवा अपने कैरियर के रूप में इसे अपनाना चाहते हैं, वे अवश्य रूके रहते हैं, परन्तु उनके साथ कार्य करते हुये यह स्पष्ट होता है कि हमारे युवा सुबह का अखबार भी शायद ही पड़ते हों, साहित्य कविता, दर्शन और मनोविज्ञान की पढ़ाई-लिखाई तो दूर, आज के समाज की जानकारियों का अभाव तक दिखायी देता है। यह अधिकतर युवाओं को ऐसे अभिनेता बनने के लिये प्रेरित करता है, जो मात्र अपने संवाद रटकर और बोलकर, अभिनय हो गया, ये मान लेता है, या तो वो बाजार में एक उत्पाद की तरह स्वयं को प्रस्तुत करने की कोशिश करता है। समस्या ये है कि यदि अभिनेता का आंतरिक जगत संवेदनहीन है, भावना शून्य है, कल्पनाशीलता का आधार नहीं है, तो वह मात्र मंच पर मेकअप और काॅस्ट््यूम में आयेगा और अपने संवाद बोलकर चला जायेगा। वो कोई अनुभूतियों का संसार, चरित्र का द्वंद और भावना की तीव्रता दर्शकों तक पहुंचाने में नितांत असमर्थ होगा। ऐसा अभिनय और प्रस्तुति निर्जीव ही कही जा सकती है, और ऐसे अभिनेता को मैकेनिकल, हैम ऐक्टर कहना उचित होगा। दर्शक भी ऐसी प्रस्तुतियों से जल्दी ही ऊबकर या थियेटर के बारे में यही एक धारणा लेकर, मनोरंजन का कोई दूसरा माध्यम चुन लेता है। महानगरों और मैट्रो शहरों में प्रयोगवादी अभिनय का बोलवाला है, जहां अभिनेता आधे समय वीडियो पर दिखता है, अर्थपूर्ण संवाद बहुत कम होते हैं, भारी भरकम बजट खर्च करके सेट और लाइटिंग का साउण्ड के साथ ऐसा भ्रम जाल तैयार किया जाता है, जो दर्शकों को भ्रमित कर सके। एन्वायरमेंटल थियेटर के नाम पर दर्शकों को दस जगह घुमा-घुमाकर एक ही प्रस्तुति के अलग-अलग दृृश्य दिखलाये जाते हैं, जाहिर है यह मात्र बौद्धिक कलावाजी और बौद्धिक विलासिता का ही परिचायक है। हमारा देश, एक ऐसा देश है, जहां निरक्षर लेकिन समझदार दर्शक हैं, तो कस्बाई और शहरी लोग भी, हम सब बचपन में संगीत सुनते थे। भारतीय संस्कृति में अभिनय को यज्ञकर्म माना गया है, जहां हवन करने वाला अभिनेता है, हवन कुंड अभिनय-स्थल है, हवन सामग्री आलेख है, और उसमें पड़ती आहुतियां अभिनेता के मनोभाव हैं, इससे उत्पन्न अग्नि, प्रस्तुति है और हवन सामग्री के धुएं से वहां बैठे दूसरे व्यक्ति को जो मिल रहा है, वही रस है, रसानुभूति है। हमारे देश में जहां लोग पढ़ना-लिखना नहीं जानते, वहां भी सदियों से लोक परंपराएं अपनी अनगढ़ शैली और और रूप में उपस्थित हैं। सांस्कृृतिक बहुलता वाले हमारे देश में किसी प्रांत के भाषा-भाषी को कभी भी निरक्षर होने के मात्र से ही पंडवानी, कुडिआट््म, यक्षगान, भागवतकथा, रामलीला आदि के प्रसंग प्रस्तुति देखकर समझ, ना आते हों, ऐसा नहीं है, वरन्् इसके विपरीत ही है। आज भी चमकते महानगर की सड़कों, ऊंची अट््टालिकाओं और गाड़ियों के शोर में भी जो लोग शामिल हैं वे किसी ग्रामीण या कस्बाई क्षेत्र से ही वहां काम करने आये हैं। आधुनिकता और प्रयोगशीलता की परिभाषा गढ़ते हुये हमें इसे ध्यान में रखना होगा। मात्र विदेशी प्रस्तुतियों की नकल और उनके गढ़े सत्य को अपना सत्य समझ लेने की भूल ही यह विरोधाभास पैदा कर रही है। ज़ाहिर है, एक अभिनेता और रंगमंच समाज से ही आता है, समाज का ही उत्पाद है, और समाज के लिये ही है। इसीलिए अभिनेता को चिरंतर अध्ययनशील, घूमन्तू, निरन्तर कुछ नया सीखने की ललक मन में रखकर ही इस यात्रा पर अपना पहला कदम बढ़ना होगा। वह समस्त संस्कृतियों का अध्ययन करे, विश्व प्रसिद्ध साहित्य को पढ़े लेकिन पहले अपनी संस्कृति को जान ले, अपने भारतीय रचनाकारों को पढ़ ले और देश के भिन्न प्रांतों में खाना भी खाना चाहिये, और वहां का पहनावा भी, तभी वह जीवन्त, संवेदनशील, आधुनिक भारतीय व्यक्ति बनेगा, जिसके पास अपनी सोच होगी, अपनी संस्कृति की महक होगी, और विश्व की जानकारी भी, तभी वह अपने अभिनय को अधिक यूनिर्वसल या सार्वभौमिक बना सकेगा। इन सब बातों के लिये कड़ी मेहनत, लंबा अभ्यास और निरन्तर समर्पण चाहिये, इनके अभाव में हम एक जीवनहीन अभिनय, की रचना करने वाले अभिनेता होंगे, जो चाहे तो लाउडस्पीकर लगाकर भी अपना संवाद बोल दे, दर्शकों पर इसका कोई सार्थक प्रभाव नहीं पड़ेगा। आज हमारे देश में दिल्ली, बंबई, चेन्नई, कोलकाता से लेकर शाहजहांपुर, अलीगढ़, इलाहाबाद, लखनऊ, पटना, भोपाल, जबलपुर कहां पर रंगमंच नहीं हो रहा है ? पिछले वर्षों में संस्क्ृति के क्षेत्र में आर्थिक अनुदानों की एक सुनामी भी आयी हुयी है, जिसने संस्कृति के कुछ दुकानदारों को संस्कृति का राष्ट्रीय रोजगार कार्यक्रम बना लिया है। परन्तु न तो नया दर्शक वर्ग बन रहा है, न ही मील का पत्थर कहे जाने वाली प्रस्तुतियां हो रही हैं। इसके मूल में है, कमज़ोर और असंवेदनशील अभिनेता, और उसका अभिनय। आज आवश्यकता इस बात की है कि सबसे पहले अभिनेता सुबह जल्दी उठना सीखे, उसके पास अपनी फिजीकल फिटेनस का एक कार्यक्रम होना चाहिये, उसके बाद बौद्धिक तैयारी और फिर निरंतर अभ्यास। नींद आने तक पढ़ना, सतत्् सीखने को तैयार रहना, रोज़ नयी-नयी जानकारियां जुटाना, जब तक यह उसके दैनिक कार्यक्रम में शामिल नहीं होना, समस्याएं बनी रहेंगी। यदि हम चाहते हैं कि रंगकर्म का वास्तविक विकास हो, तो हमें अभिनेता और उसके प्रशिक्षण कार्यक्रम पर ध्यान देना ही होगा। शौकिया रंगमंच में काम करने वाले रंगमंच का समर्पण सराहनीय है, परन्तु मात्र उससे काम चलने वाला नहीं है। इसे एक व्यवसायिक और प्रोफेशनल कार्यक्रम की भांति लेना ही होगा, आप स्वयं ही सोचें, क्या आप अपने बच्चे को ऐसे स्वीमिंग पूल में छोड़ना पसंद करेंगे ? जहां बचाने वाला व्यक्ति स्वयं ही तैरना न जानता हो ? क्या आप बिना जांच किये किसी से भी अपना महंगा इलैक्ट्रानिक उपकरण सही करवाते हैं ? जो इस काम में नितांत असमर्थ हो या फिर आप हंसी मजाक करते हुये बतियाते हुये, बिजली या गैस के उपकरणों से छेड़खानी करना पसंद करेंगे, तो फिर अभिनय को ऐसे हल्के में लेने का अर्थ आखिर क्या है ? यह तो अत्यन्त ही सुसंस्कृत सभ्य और आधुनिक विचारों वाले व्यक्ति का ही कार्य हो सकता है, कि वो अभिनय के क्षेत्र में आये और स्वयं को एक अभिनेता के रूप में स्थापित करे। जयसुंदरी, बाल गंधर्व, उत्पल दत्त, शंभू मित्रा, मनोहर सिंह, नसीरूद््दीन शाह, ओमपुरी ऐसे ही अभिनेता हैं, जिन्होंने मात्र अभिनय ही नहीं किया, उसे इतना विस्तारित किया कि वो समूची विश्व संस्कृतियों में अनुगुंजित होने लगा। उनके अभिनय ने समाज को संदेश भी दिया, तो चेतावनियां भी, मनोरंजक हंसने के क्षण भी दिये तो कहीं बरवस रूला भी गये। मानव मन पर अपनी अमिट छाप होड़ देते हैं ये लोग, जो किसी साधारण स्तर के अभिनेता या किसी मीडियोकर के लिये कभी संभव नहीं होता, कि वो उस स्तर को जान ले, समझा ले, छू ले, जहां अभिनय के ये ऋषि, महर्षि, ब्रह्मश्री बैठे हैं। अब हम सब बहुत समय गंवा चुके, अवसर आ गया है कि तुरंत ही प्रेरणा लेकर कार्य करना प्रारंभ किया जाये, क्योंकि जब प्रारंभ होगा तभी अभिनेता का स्वयं के व्यक्तित्व से भी साक्षात्कार होगा, क्योंकि अभिनय अपने मूल रूप में व्यक्ति अभिनेता की आंतरिक जगत की खोज है।

दिनांक 21.8.2014  
- आलोक चटर्जी, भोपाल में नाट्य विद्यालय से जुड़े हैं 

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