शनिवार, अप्रैल 07, 2012

दुनिया की सबसे बड़ी किताब

पंकज घिल्डियाल
जब हम बच्चे थे, हमारे मिडल स्कूल के हेडमास्टर जी हमसे एक सवाल अक्सर पूछा करते थे- अच्छा बच्चो, बताओ दुनिया की सबसे बड़ी किताब कौन सी है। यह उनका प्रिय सवाल था और इसे वे हर क्लास के बच्चों से पूछते थे। हमें भी इस सवाल में बहुत मजा आता था। हमारी किताबें ज्यादा से ज्यादा सौ-सवा सौ पेज की होती थीं। हेडमास्टर जी जब अपने मोटे शीशे वाले चश्मे के पीछे आंखें बड़ी-बड़ी करके बताते थे कि वह एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका है, तो उसकी मोटाई और वजन के बारे में हम तरह-तरह के अनुमान लगाते थे। अब से दो दशक पहले तक इंटरनेट इस तरह घर-घर में उपलब्ध नहीं था। तब जानकारी का सबसे विश्वसनीय और स्रोत एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका को ही माना जाता था।

पुस्तक प्रेमियों के लिए यह सचमुच मायूस करने वाली खबर है कि कई वाल्यूम वाली गहरे भूरे रंग की यह किताब अब प्रकाशित नहीं होगी। इसे सिर्फ डिजिटल फॉर्मेट में ही देखा जा सकेगा। कई वाल्यूम में छपने वाली एनसाइक्लोपीडिया में ज्ञान-विज्ञान से संबंधित हर उस चीज की जानकारी सार रूप में प्रामाणिक तथ्यों के आधार पर देने का प्रयास किया जाता था, जिसमें मनुष्य की दिलचस्पी हो सकती थी। सबसे पहले इस पुस्तक का प्रकाशन सन् 1768 में स्कॉटलैंड से हुआ। इसकी इतनी प्रतिष्ठा थी कि 1950 व 60 दशक में यह सबसे महंगी किताबों की फेहरिस्त में शामिल थी। किताबों के कद्रदान इसे हर हाल में अपना बनाना चाहते थे। अभी जिस तरह लोग घर और कार की किश्तें चुकाते हैं, ठीक उसी तरह लोग इस किताब को भी लोग किश्त पर खरीदते थे।

1990 में एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका की रेकॉर्ड बिक्री हुई। उस वर्ष अकेले अमेरिका में ही इसकी 1 लाख 20 हजार कॉपियां बिकीं। इसी दौर में इंटरनेट भी धीरे-धीरे अपने पैर पसार रहा था। नतीजा यह हुआ कि इसकी बिक्री घटने लगी। आते-आते हालात यहां तक पहुंच गए कि 2010 में छपी एनसाइक्लोपीडिया की 12000 कॉपियों में से सिर्फ 8000 को ही खरीदार मिल सके। तभी से यह चर्चा शुरू हो गई थी कि इसे आगे छापना शायद संभव न हो। पेपर पर इसका पिछला संस्करण दो साल पहले प्रकाशित किया गया था। इसके कुल 32 खण्डों में 65 हजार से अधिक लेख शामिल हैं। फिलहाल इसकी चार हजार प्रतियां बिकने के लिए शेष हैं।

ब्रिटैनिका ने इस किताब का डिजिटल अवतार 1981 में शुरू किया। इसकी सीडी 1989 में जारी की गई। 1994 वह वर्ष था जब एनसाइक्लोपीडिया इंटरनेट पर उपलब्ध हुई। इसके ऑनलाइन एडिशन के अपने फायदे हैं। कुछ जानकारी तो इसमें मुफ्त मिल जाती है , जबकि सालाना शुल्क चुका कर आप बाकी जानकारियों तक भी पहुंच बना सकते हैं। हर दो साल पर प्रकाशित होने वाले 32 खंडों के प्रिंटेड संस्करण की कीमत करीब 1400 अमेरिकी डॉलर है , लेकिन इसके ऑनलाइन संस्करण के लिए अब प्रति वर्ष केवल 70 अमेरिकी डॉलर चुकाने होंगे। प्रति माह 1.99 से 4.99 अमेरिकी डॉलर तक ऑनलाइन सदस्यता शुल्क देकर भी इसमें मौजूद सूचनाओं का लाभ उठाया जा सकता है। दुनिया के नामी - गिरामी बुद्धिजीवी ब्रिटैनिका के लिए जानकारी प्रदान करते हैं। 100 स्थायी संपादकों के अलावा संबंधित ज्ञान शाखा के विशेषज्ञ यह तय करते हैं कि विभिन्न स्त्रोतों से मिली जानकारी को कैसे पेश किया जाए।

ऐसा नहीं है कि आज अचानक ब्रिटैनिका ने पहली बार खुद को बदला है। 1768 से 2012 के बीच 244 वर्षों में इसने बहुत से बदलाव देखे हैं। बच्चों के लिए 1934 में 12 खंडों में ब्रिटैनिका जूनियर का पहली बार प्रकाशन हुआ , जिसे 1947 में बढ़ाकर 15 खंडों का कर दिया गया। 1963 में इसी का नाम बदल कर ब्रिटैनिका जूनियर एनसाइक्लोपीडिया रख दिया गया। फिलहाल इसका मालिकाना हक स्विस अरबपति ऐक्टर जैकी साफरा के पास है। इसका मुख्यालय शिकागो में है। मजेदार बात यह है कि इतने साल बाद भी लोगों के बीच इसकी विश्वसनीयता में कोई कमी नहीं आई। 1991 से अमेरिका में प्रकाशित होने के बावजूद इसकी वर्तनी ब्रिटिश अंग्रेजी ही है।

वर्चुअल दुनिया में आए दिन तथ्यों की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े होते रहे हैं। क्या हम - आप इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी पर पूरी तरह से भरोसा कर पाते हैं ? शायद नहीं। अक्सर हमें ये फैक्ट भी ठीक उसी तरह बेगाने लगते हैं जैसे नेट पर बनाए गए अजनबी फ्रेंड। आमतौर पर ब्रिटैनिका की सत्यता पर सवाल नहीं उठते। लेकिन पिछले कुछ समय में हुए विवादों ने पुस्तक प्रेमियों को कुछ निराश जरूर किया है। संपादकीय चयन के कारण ब्रिटैनिका की अक्सर आलोचना होती रही है। कहा जाता है कि कुछ बातों को अधिक जगह देने के कारण ये जरूरी मुद्दों को कम तरजीह देते हैं। जैसे इसके 15 वें अंक में बाल साहित्य , मिलिटरी डेकोरेशन और एक प्रसिद्ध फ्रेंच कवि को शामिल करना भूल गए। इसके अलावा ग्रैविटी के न्यूटन सिद्धांत को लेकर भी कुछ विवाद खड़े हुए। ब्रिटैनिका की आलोचना अक्सर इस बात को लेकर भी होती रही है कि उसके कुछेक एडिशन समय के अनुसार अपडेट नहीं हैं। एक आयरिश न्यूजपेपर ' द इवनिंग हैरल्ड ' ने फरवरी 2010 में ब्रिटैनिका पर देश के इतिहास से जुड़े कुछ अशुद्ध तथ्य शामिल करने का आरोप लगाया था।

ऑनलाइन व्यवस्था के जरिये सूचनाएं मुफ्त या कम दरों पर उपलब्ध हो जाती हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि सूचना का यह माध्यम अधिक सुविधाजनक है। आज तो स्मार्ट फोन भी जानकारी परोस रहे हैं। सटीक जानकारियों के लिए प्रसिद्ध ब्रिटैनिका का ऑनलाइन संस्करण कितनी लोकप्रियता पाता है , यह तो वक्त ही बताएगा , मगर इंटरनेट के जानकर मानते हैं कि यह माध्यम ब्रैंड को कमजोर करता है। ब्रिटैनिका के रेकॉर्ड कहते हैं कि दुनिया भर के करीब 10 लाख लोग उसकी ऑनलाइन सर्विस का फायदा उठा रहे हैं। ब्रिटैनिका के सामने सबसे बड़ी चुनौती विकीपीडिया है। विकीपीडिया जहां अपने यूजर्स को जानकारी अपलोड और एडिट करने के कई विकल्प देता है , वहीं ब्रिटैनिका बरसों पुरानी साख के दम पर ऐसे ही कुछ विकल्प अप्रूवल सिस्टम के साथ दे सकता है। विकीपीडिया का बहुत सा काम तो उसके यूजर्स ही करते है , जबकि ब्रिटैनिका के साथ एक पूरी टीम काम करती है। 

हिंदुस्तान समाचार से साभार 

रविवार, अप्रैल 01, 2012

अमृता प्रीतम का एक प्रसंग

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अपने लेखन के शुरुआती दिनों से जुड़ा एक प्रसंग अमृता प्रीतम ने एक पत्रिका के स्तम्भ में बताया:-
“वो दिन आज भी मेरी आँखों के सामने आ जाता है… और मुझे दिखती है मेरे पिता के माथे पर चढ़ी हुई त्यौरी. मैं तो बस एक बच्ची ही थी जब मेरी पहली किताब 1936 में छपी थी. उस किताब को बेहद पसंद करते हुए मेरी हौसलाफजाई के लिए महाराजा कपूरथला ने मुझे दो सौ रूपये का मनीआर्डर किया था. इसके चंद दिनों बाद नाभा की महारानी ने भी मेरी किताब के लिए उपहारस्वरूप डाक से मुझे एक साड़ी भेजी.
कुछ दिनों बाद डाकिये ने एक बार फिर हमारे घर का रुख किया और दरवाज़ा खटखटाया. दस्तक सुनते ही मुझे लगा कि फिर से मेरे नाम का मनीआर्डर या पार्सल आया है. मैं जोर से कहते हुए दरवाजे की ओर भागी – “आज फिर एक और ईनाम आ गया!”
इतना सुनते ही पिताजी का चेहरा तमतमा गया और उनके माथे पर चढी वह त्यौरी मुझे आज भी याद है.
मैं वाकई एक बच्ची ही थी उन दिनों और यह नहीं जानती थी कि पिताजी मेरे अन्दर कुछ अलग तरह की शख्सियत देखना चाहते थे. उस दिन तो मुझे बस इतना लगा कि इस तरह के अल्फाज़ नहीं निकालने चाहिए. बहुत बाद में ही मैं यह समझ पाई कि लिखने के एवज़ में रुपया या ईनाम पाने की चाह दरअसल लेखक को छोटा बना देती है.”


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Ravindra Swapnil Prajapati