शुक्रवार, अगस्त 31, 2012

मुलायम चोट!




मुलायम सिंह वर्तमान राजनीति परिदृश्य को देख कर जिस प्रकार की राजनीतिक चोटें कर रहे हैं वह किसी बड़े ऐजेंडे को लक्षित करता है। लेकिन यह भी तय है कि वे अपनी राह खुद कठिन बनाते जा रहे हैं।

कोल ब्लॉक आवंटन पर घिरी यूपीए सरकार और कांग्रेस के लिए मुलायम सिंह यादव मुश्किल की हड्डी बन गए हैं। कांग्रेस को झटका देते हुए मुलायम सिंह ने तीसरे मोर्चे की राजनीतिक खिचड़ी बनाने के लिए बीरबल की तरह बांस पर टांग दी है। यूपीए और एनडीए से बाहर के दलों को साथ लेकर मुलायम ने कोल ब्लॉक आवंटन की जांच सीधे सुप्रीम कोर्ट के जज से करवाने की मांग उठा कर सरकार को चौंका दिया है।
मुलायम सिंह यादव बदलते राजनीतिक परिदृश्य में जिस तरह की राजनीतिक चोटें कर रहे हैं, उससे लगता है कि यह प्रवृत्ति ‘मुलायम चोट’ नाम से नया राजनीति मुहावरा न गढ़ दे। तीसरे मोर्चे की सम्भावना पर उनके बयान से राजनीतिक दलों में संम्राम सा छिड़ गया है। समाजवादी पार्टी के सुप्रीमों मुलायम सिंह ने तीसरे मोर्चे की सम्भावना जता अगली सरकार बनाने का वक्तव्य क्या दिया सभी तरफ से बयानों की बौछार लग गई। कोई उन्हें दिन में प्रधानमंत्री के सपने देखने वाले मुंगेरी लाल की याद दिलाने लगा तो कोई उनके बयान से मन ही मन सशंकित हो उठा।  इन सब के बीच चैनल वालों ने भी जम कर बहती हवा में खूब भूसा उड़ाया। इससे भी चारों ओर चर्चाओं का दौर शुरू हो गया। धुंआधार बहसों में  आडवाणी को भुला दिया गया। कभी उन्होंने अपने ब्लॉग में लिखा था कि कांग्रेस और भाजपा को आम चुनावों में सरकार बनाने के लिए आवश्यक संख्या प्राप्त होना मुश्किल है। कुछ दिनों पूर्व ही भाजपा के वरिष्ठ नेता अडवानी ने ही कांग्रेस व भाजपा को बहुमत न मिलने व एक नए गठबंधन द्वारा  केंद्र की सत्ता पर काबिज होने की सम्भावना व्यक्त की थी। उस समय उनके लेख पर सभी दलों के नेताओं ने उपहास उड़ाया था। इस समय देखा जाये तो देश में कुछ ऐसी ही परिस्थिति का निर्माण हो रहा है। 2014 में चुनावों में नई सरकार बनने तक एनडीए और यूपीए के मंचों के खंभे इधर उधर होंगे। देश में चल रही राजनीति का अध्ययन का पूर्वानुमान यही निकलता है कि 2014 के चुनावों में कांग्रेस को बहुत घाटा होगा और यदि भाजपा के एनडीए को अन्य दलों का समर्थन नहीं मिला तो वह भी सरकार बनाने के सपने को पूरा करने में असमर्थ रहेगी। ऐसे में तृणमूल कांग्रेस, एआइडीएमके, बीजू जनतादल, जगन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस और नितीश कुमार आदि मिल कर केंद्र में सरकार बनाने का प्रयास कर सकते हैं और भाजपा के रूप में रिजर्व एनडीए बाहर से समर्थन देगा। इस संभावित राजनीतिक खेल में मुलायम बड़ी भूमिका निभाने में सफल होंगे, यह भविष्य कीबात है। वैसे मुलायम सिंह यूटर्न के खिलाड़ी हैं।  इससे विश्वसनीयता का संकट भी उठकर सामने आया था, लेकिन राजनीति के खिलाड़ियों को हम कई बार इस तरह के खेल करते देखते रहे हैं। तीसरे मोर्चे या गठबंधन के निर्माण में वाम दलों व मुलायम के रिश्तों में दोस्ती तो नजर नहीं आती। बदली हुई परिस्थिति में सांप्रदायिक शक्तियों को सत्ता में आने से रोकने वाला पुराना हथियार कितना कारगर होगा इस पर अभी तो कुछ कहना जल्दबाजी होगी।



 अपना मास्टर प्लान
देश के अधिकांश शहरों में मास्टर प्लान नहीं है जबकि मास्टर प्लान विकास के लिए जरूरी है। शहरों में आधारभूत सुविधाओं के बिखराब और कचरे से भरे शहरों के पीछे मास्टर प्लान न होना बड़ा कारण है।

देश के 7000 हजार शहरों और कस्बों के विकास के लिए अपना मास्टर प्लान होना चाहिए, लेकिन केवल 24 प्रतिशत शहर-कस्बे ही ऐसे हैं जिनके पास मास्टर प्लान है। देश के लिए यह सबसे बड़ी अदूरदर्शिता है। स्थानीय निकायों और सरकार की यह बड़ी असफलता है।  सन 2011 की जनगणना के आधार पर वर्तमान समय में देश के 7935 शहरों में 37.71 करोड़ लोग रह रहे हैं जो देश की कुल जनसंख्या का लगभग 31 प्रतिशत हैं। ऐसे में शहरों के विकास से संबंधित प्रयासों और इसके लिये आवश्यक मास्टर प्लान को बनाने की आवश्यकता पर चर्चा करने का यह सही समय भी है।
भारत में बढ़ते शहरीकरण की प्रवृत्ति का विश्लेषण करें तो यह स्पष्ट होता है कि देश के ग्रामीण क्षेत्रों में विगत वर्षों के दौरान किये गये सामाजिक व आर्थिक विकास योजनाओं का लाभ सभी लोगों तक समान रूप से नहीं पहुंचर रहा है।  आर्थिक और सामाजिक विकास के विभिन्न प्रयासों का लाभ न मिलने के कारण वंचित और पिछड़े वर्ग के लोग रोजी-रोटी की तलाश में शहरों की ओर जाने को मजबूर हुये हैं। इसी प्रकार शिक्षा के क्षेत्र में किये जा रहे प्रयासों से लोगों को नये ज्ञान और दक्षताओं को पाने का अवसर तो मिला किन्तु आस-पास के क्षेत्रों में काम करने के अवसरों के न मिलने के कारण लोग शहर की ओर रूख करते रहे। शहरों में कम पढ़े-लिखे और अकुशल लोगों के लिये शारीरिक श्रम करके रोजी कमाने के अवसर हैं तो साथ ही पढ़े-लिखे और कुशल लोगों के लिये बैंकिंग, बीमा, शिक्षा, रिसर्च, व्यापार और उद्योग जैसे क्षेत्रों में काम करने के अवसर मिल रहे हैं।
आबादी के कारण शहरी क्षेत्रों में सेवाओं देने वाले संस्थानों पर निरन्तर दबाव बढ़ रहा है। इसका सबसे यादा प्रभाव स्थानीय शहरी निकायों पर पड़ा है जिनके ऊपर 74वें संविधान संशोधन के बाद से स्थानीय आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रमों को लागू करने की जिम्मेदारी दी गयी है। बढ़ती आबादी के अनुपात में स्थानीय शहरी निकायों में संसाधनों (वित्तीय और मानवीय) में बढ़त न होने के कारण स्थानीय शहरी निकाय लोगों को मूलभूत सुविधाओं जैसे पीने का साफ पानी, चौड़ी सड़क, बिजली, साफ-सफाई, गंदे पानी के निकासी के लिये नालियां भी उपलब्ध कराने में स्वयं को सक्षम नहीं महसूस कर रहे हैं।भारत में बढ़ते शहरों के कारणों को जानने का प्रयास करें तो यह प्रतीत होता है कि शहरों का विकास प्रायº राजनीतिक नजरिये से किया जा रहा है न कि लोगों की जरूरतों और स्थानीय आवश्यकताओं के आधार पर। छोटे और मझोले शहरों में 80 प्रतिशत कचरों का अनियमित प्रबंधन और इससे जुड़े निपटान की समस्या को कभी भी और कहीं भी देखा जा सकता है। इसी प्रकार बढ़ते शहरीकरण के कारण आवागमन के साधनों की बढ़ती संख्या तो बढ़ी है कि किन्तु शहरों की संकरी सड़कें और बाजार क्षेत्र में अनधिकृत रूप से बढ़ते कब्जे के कारण अनियंत्रित यातायात और बढ़ते जाम की समस्या विकराल रूप ले रही है।



दो साल की सजा

सजा अगर अधिक मिलती तो यह साबित होता है कि औद्योगिक लापरवाही भी एक अपराध है।

सा त जून 2010 को फैसला देते हुए यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड के पूर्व अध्यक्ष केशव महेंद्रा सहित सात आरोपियों को धारा 304-ए  के तहत दो साल की सजा और एक लाख रुपए  के जुर्माने की सजा सुनाई थी। धारा 304-ए लापरवाही से किए कृत्य से व्यक्ति या व्यक्तियों की मृत्यु होने के लिए लागू की जाती है। हजारों लोगों के मौत के लिए जिम्मेदार अरोपियों को मात्र दो साल की सजा! यह  गैस पीड़ितों के लिए दोहरी त्रासदी थी। इस मामूली सजा पर दुनिया भौंचक थी और आश्चर्य है कि सीबीआई ने इस फैसले को अपनी जीत घोषित कर रही थी। इस जीत के संदर्भ क्या थे और कैसे यह जीत थी, यह सीबीआई ने किसी को नहीं बताया।  जिस धारा के तहत यह मामला चल रहा था उसमें न्यायालय इससे अधिक सजा दे भी नहीं सकता था। बाद में सरकार ने उच्चतम न्यायालय में एक ‘क्यूरेटिव पिटीशन’ दायर की थी, जिसमें सभी आरोपियों को धारा 304 भाग 2 (गैरइरादतन हत्या ) के लिए सजा  का प्रस्ताव था। सुप्रीम कोर्ट ने यह कह कर इस याचिका को 11 मई, 2011 को खारिज कर दिया था कि इसे सेशन कोर्ट में दायर किया जाए। इस पर सीबीआई ने भोपाल के जिला एवं सत्र न्यायालय में यह याचिका दायर की थी। अब गुनाहगारों के लिए माकूल सजा के लिए लगाई गई अर्जी भी खारिज हो गई तो ये दूसरी बड़ी त्रासदी बन गई। कुल मिला कर 27 साल गुजरने के बाद भी गैस पीड़ितों के लिए न्याय दूर होती रेगिस्तानी मरीचिका में बदलता जा रहा है।
खारिज हुई याचिका के कानूनी लूप होलों को सीबीआई ठीक तरह से नहीं भर सकी। अपराधियों को वह सजा नहीं मिली जिसकी गैसपीड़ितों को उम्मीद थी। कानून के जानकारों का भी मानना है कि सीबीआई ने इस केस के सभी चरणों में गलती पर गलती की है। ट्रायल कोर्ट में आरोप सुनिश्चित किए गए थे, उसी समय आपत्ति लेकर धारा को बढ़ाने की अर्जी दी जा सकती थी लेकिन ऐसा नहीं किया गया। इसके बाद जब सबूत प्रस्तुत हुए, उस वक्त भी सीबीआई सजा बढ़ाने के लिए अपना पक्ष रख सकती थी। इसके अलावा कई और मौके थे, लेकिन सीबीआई ने सजा बढ़ाने के लिए इनका इस्तेमाल   नहीं किया। कोर्ट ने भी सीबीआई की खामियों को गिनाते हुए अर्जी खारिज की है। हालांकि यह मात्र सब्र करने जैसी बात है कि रिवीजन याचिका खारिज होने का असर आगे की जाने वाली अपील पर नहीं होगा।
लेकिन इस मामले में राज्य यानी सीबीआई की भूमिका को कम करके नहीं आंका जा सकता। न्याय के बीच में आने वाले अवरोधों पर भी गौर करना आवश्यक है। यह मामला गैस पीड़ित अधिकांश गरीबों को बांटे गए राहत के अलावा ऐतिहासिक सुधारों से भी जुड़ा है। सजा अगर अधिक मिलती तो यह साबित होता है कि औद्योगिक लापरवाही भी एक अपराध है। गैस का रिसाव दुर्घटनावश नहीं, यह पैसे बचाने की आपराधिक लालसा का कुपरिणाम था जिसको भोपाल के लोग आज तक भुगत रहे हैं।

                                                                                                                  रविन्द्र स्वप्निल प्रजापति      


मंगलवार, अगस्त 28, 2012

क्रिकेट के बहाने राजनीतिक बिसात

    भारतीय जनता पार्टी बनाम कांग्रेस प्रदेश में क्रिकेट के बहाने राजनीतिक बिसात का लंबा खेल खेला गया था। इन चुनावों में कहीं न कहीं विधानसभा चुनावों के समीकरण भी दर्ज हैं।

राजनीति में जीत ही दूरदर्शिता का पैमाना है। यह सच मध्य प्रदेश क्रिकेट संघ (एमपीसीए) के चुनावों में सामने आया। केंद्रीय उद्योग राज्यमंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया और प्रदेश के उद्योग मंत्री कैलाश विजयवर्गीय के पैनल के बीच मुकाबला राजनीतिक खींचतान में बदल गया था, जब सर्वसम्मति से  पदाधिकारियों के चुनाव की जगह निर्वाचन की मांग की गई। गहमा-गहमी के बीच हुए चुनाव में सिंधिया ने न सिर्फ अध्यक्ष पद पर जीत दर्ज की बल्कि उनके पैनल के लोगों ने सभी पदों पर कब्जा जमाया। एमपीसीए के इतिहास में यह पहला मौका था जब सर्वसम्मति की बजाय चुनाव हुए। जीत हार के बाद ये चुनाव अब राजनीति के इंडीकेटर बन कर उभर आए। यह मामला सीधा प्रदेश की राजनीति की छांव में हुआ। इसमें प्रदेश की विधानसभा चुनावों की राजनीतिक समीकरणों का गणित भी छुपा हुआ है। इस चुनाव के माध्यम से एक कांग्रेस ने अपनी चुनावी ताकत को मजबूत बनाया तो भारतीय जनता पार्टी ने अपनी पकड़ का अंदाजा भी लगाया था। अब जब  भाजपा पैनल चुनाव हार गई है तो कांग्रेस  युवा ज्योतिरादित्य सिंधिया को प्रदेश आने वाले विधानसभा चुनावों मे शिवराज सिंह के सामने खड़े करने की स्थिति में होगी।
कांग्रेस पहले से ही शिवराज के समानांतर चेहरे को खोजने-बनाने की कोशिश कर रही थी। इस चुनाव के बाद उसने इसमें सफलता भी हासिल कर ली। अगर सिंधिया एमपीसीए का चुनाव हार जाते तो कांग्रेस प्रदेश में मुंह दिखाने लायक भी शायद नहीं बचती। इससे पहले के कई प्रकरणों में उसने राजनीतिक पटकनी भी खाई है। यही कारण है कि अपनी लाज बचाने के लिए इस चुनाव में कांग्रेस पूरी तरह एक जुट दिखाई दी। सिंधिया पैनल की जीत को राजनीतिक समर्थकों के प्रयास से जोड़कर भी देखा जा रहा है। यह भी उल्लेखनीय है कि सिंधिया के पक्ष में कांग्रेस के बड़े नेताओं के भी वोट मांगे थे। कांग्रेस की जीत में इस एका का भी बड़ा योगदान है, जिससे कांग्रेस बनाम सिंधिया ने जीत को अपने पाले में डाल लिया।
एमपीसीए के अध्यक्ष पद पर सिंधिया वर्ष 2001 से काबिज हैं। इससे पहले उनके पिता माधवराव सिंधिया इस पद की कमान संभाले रहे थे। चुनाव से पहले इस पद को जिस प्रकार की राजनीतिक प्रतिष्ठा प्रदेश मे मिली है, वह पहली बार हुए चुनाव से पहले हासिल नहीं थी। अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ रहे कैलाश विजयवर्गीय को अपनी ही हार से  दोहरा झटका लगा है। इस हार से  उनके कद को कहीं न कहीं झुकाया है। दूसरा इस हार ने अपरोक्ष रूप से भाजपा को भी क्रिकेट-दंगल के इस क्षेत्र में कमजोर साबित किया है। यह चुनाव विजयवर्गीय की राजनीति पर प्रश्न भी खड़े करता है। वह यह कि बखेड़ा खड़ा करने से चुनाव नहीं जीते जाते। 20 सदस्यों की सदस्यता का निलंबन इसका उदाहरण है। कैलाश विजय वर्गीय अनियंत्रित महत्वाकांक्षा से ग्रस्त हैं। वे कहीं न कहीं अपनी सक्रियता में आने वाले मुख्यमंत्री की झलक भी दिखलाते हैं लेनिक वे यह नहीं समझ पा रहे हैं कि चुनावों में  एक तरह से देखा जाए तो अगर चुनाव लड़कर भाजपा ने अपने आप को कम, सिंधिया को अधिक ताकतवर दिखाने में मदद की है।

सोमवार, अगस्त 27, 2012

ए के हंगल का जाना...

 
एके हंगल का जीवन दो धु्रवों तक फैला था। वह सांप्रदायिक ताकतों से लड़ते थे तो दूसरी तरफ इप्टा जैसे सांस्कृतिक संगठनों को संभालते थे। ए के हंगल होना कठिन और संघर्षमय का जीवन का नाम है।


क ऐसा महान कलाकार हमने खो दिया जिसका इतिहास अब एक मिसाल की तरह जगमगाता रहेगा। वयोवृद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और भारतीय रंगमंच के शिखर पुरूष एवं अभिनेता अवतार कृष्ण हंगल का रविवार को 98 वर्ष की उम्र में देहावसान हो गया। वह काफी समय से बीमार थे। उन्हें13 अगस्त से आशा पारेख अस्पताल में भर्ती थे।
एके हंगल भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष और कई सांस्कृति राजनीतिक संगठनों से जुड़े थे। संकीर्णता और भेदभाव के खिलाफ एक योद्धा की भूमिका में उन्होंने खुद को  भूखा रहना पसन्द किया परन्तु समर्पण नहीं किया था। वे जुझारू थे। वे अपनी प्रतिवद्धताओं से कोई समझोता नहीं करते थे। उन्होंने मुंबई में कई राजनीतिक पार्टियों के सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों के कारण फिल्मों में काम मिलना बन्द हो गया था। परन्तु साम्प्रदायिकता के खिलाफ उनके संघर्ष में कभी कोई कमी नहीं आई। 15 अगस्त 1917 को पाकिस्तान के सियालकोट में उनका जन्म हुआ था और भारत विभाजन के दर्द के साथ वे मुम्बई पहुंचे थे। उनका बचपन पेशावर में गुजरा था। ए के हंगल को अभिनय का शौक भी उन्हें बचपन से ही था लेकिन शुरुआत में उन्होंने इसे कभी गम्भीरता से नहीं लिया। हंगल ने अपने अभिनय के सफर की शुरुआत उम्र के 50वें पड़ाव पर की। वर्ष 1966 में बनी बासु भट्टाचार्य की फिल्म तीसरी कसम में वह पहली बार रूपहले पर्दे पर नजर आए। उसके बाद वह जाने-माने चरित्र अभिनेता के रूप में पहचाने जाने लगे। वह कभी रामू काका के रूप में नजर आए तो कभी इमाम साहब के रूप में। खुद हंगल को फिल्म शोले में इमाम साहब तथा शौकीन में इंदरसेन उर्फ एंडरसन की भूमिकाएं बहुत पसंद थीं। करीब 200 फिल्मों में अभिनय कर चुके हंगल को भारतीय सिनेमा में योगदान के लिए वर्ष 2006 में पद्म भूषण से नवाजा गया। हंगल आॅस्कर के लिए नामित फिल्म लगान में शंभू काका के रूप में थे। फिल्मों में आखिरी बार उन्होंने दिल मांगे मोर में अभिनय किया। सात साल के बाद हाल ही में वह एक टीवी सीरियल ‘मधुबाला’ के एक दृश्य में नजर आए थे। शोले में एक अंधे बुजुर्ग मुस्लिम की भूमिका में उनका एक डॉयलाग ‘इतना सन्नाटा को है भाई’   आज तक लोकप्रिय है। एक समय था जब शायद ही कोई फिल्म उनकी मौजूदगी के बिना बनाई जाती हो. नमक हराम, शोले, शौकीन, आइना, बावर्ची उनकी सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में से हैं. 1940 के दशक उन्होंने इप्टा में रहते हुए खासा काम किया और इस दौरान बलराज साहनी और कैफÞी आजÞमी से जुड़े। हंगल एक बेहतरीन अभिनेता के साथ-साथ अच्छे टेलर भी थे। जिंदगी के 50 वसंत देखने के बाद फिल्मों का रुख करने वाले हंगल ने अपनी आत्मकथा ‘लाइफ एण्ड टाइम्स आॅफ ए के हंगल’ में लिखा है कि उनके पिता के एक मित्र ने उन्हें दर्जी बनने का सुझाव देते हुए कहा था कि इससे वह स्वतंत्र रूप से अपनी आजीविका चला सकते हैं। लेकिन उन्होंने अपने जीवन को अपनी तरह से जिया और उस मुकाम पर पहुंचे जहां से इंसान को अपनी जिंदगी  के सदियों तक कई अर्थ मिलते हैं।





खेल संस्कृति का हिस्सा

  खेल संस्कृति का हिस्सा हैं। कृष्ण का यमुना किनारे गेंदगड़ा खेलना और ग्रीस में ओलंपिक के आयोजन दुनिया में प्राचीन खेल परंपराओं के सबसे अच्छे उदारहण हैं। बदलते वक्त के साथ अन्य खेल भी इसमें जुड़े और लोकप्रिय हुए हैं। क्रिकेट ऐसा ही एक खेल बन चुका है। देश का बच्चा-बच्चा क्रिकेट को खेलता है। जब भारत क्रिकेट का कोई मैच जीता है तो हर शहर और गांव के लिए खबर बन जाती है। यही कारण है कि अब देश की राष्ट्रीय टीम ही नहीं, किशोर युवाओं की टीम जीतती है तो देश में जीत का एक भाव जन्म लेता है। आईसीसी अंडर-19 टीम के विश्वकप फाइनल में देश के जांबाज किशोर क्रिकेटरों ने शानदार प्रदर्शन करते हुए  चौथी बार अपनी जगह बनाई है। ओपनर प्रशांत चोपड़ा के अर्धशतक और बाबा अपराजित की शानदार बल्लेबाजी के बाद गेंदबाजों के जोरदार प्रयास की बदौलत भारत ने अंडर-19 विश्व कप के दूसरे सेमीफाइनल मुकाबले में न्यूजीलैंड  को नौ रनों से हराकर फाइनल में प्रवेश कर लिया। फाइनल का खिताब हासिल करने के लिए भारत को मेजबान आॅस्ट्रेलिया का सामना करना होगा और उसे हराना भी होगा। टोनी आयरलैंड स्टेडियम में खेले गए मुकाबले में भारत ने हर क्षेत्र में कमाल का खेल दिखाया। भारतीयों का क्रिकेट दुनिया के लोग भी पसंद करते हैं। इसकी लोकप्रियता के कई कारण हो सकते हैं लेकिन मुख्य कारण तो यही है कि हमारे बच्चे इसे गली कूचों ही नहीं दो कारों के बीच जगह मिलने पर भी   खेल लेते हैं।
सेमीफाइलन की जीत भी रोमांचक रही। पहले धीमी बल्लेबाजी करते हुए भारत ने 50 ओवर में नौ विकेट पर 209 रन बनाए। भारत की तरफ से चोपड़ा के अलावा अपराजित ने 44 और कप्तान उन्मुक्त चांद ने 31 रनों का योगदान दिया। जवाब में न्यूजीलैंड कैम फ्लेचर (53 रन) के अर्धशतक के बावजूद 50 ओवर में नौ विकेट पर 200 रन ही बना सका। भारत की ओर से संदीप शर्मा, रविकांत सिंह और हरमीत सिंह को दो-दो विकेट मिले। आॅस्ट्रेलिया ने बुधवार को दक्षिण अफ्रीका को चार विकेट से हराकर फाइनल में जगह पक्की की है। खेल ऐसा क्षेत्र है जहां हम अपनी टीम भावना और हिम्मत का शानदार प्रदर्शन करते हैं। भारत ने क्वार्टर फाइनल मे रोमांचक तरीके से चिर-प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान के एक विकेट से हराया था। भारतीय टीम तीसरी बार इस खिताब पर कब्जा करने उतरेगी। भारत ने 1999-2000 मे श्रीलंका को हराकर पहली बार यह खिताब जीता था। इसके बाद 2007-08 में खिताबी जीत हासिल की थी। उससे पहले, भारत को 2005-06 में पाकिस्तान के हाथों फाइनल में हार मिली थी। इस जीत में भारतीय गेंदबाजों ने गजब की गेंदबाजी का प्रदर्शन किया था। न्यूजीलेंड के बल्लेबाजों को रन बनाने के लिए तरसा दिया।  रविवार को फाइनल मुकाबला है। टीम को अपनी खेल भावना और टीम स्पिरिट का शानदार प्रदर्शन करना होगा। खेल का अर्थ है जीत के लिए सबसे अच्छा प्रदर्शन करना। रविवार को यही जीत का राज होगा।




बैंक हड़ताल क्यों?


हड़ताल अपनी बात रखने का पुराना तरीका है। आज यह उतना कारगर नहीं रहा। लेकिन आधुनिक आर्थिक-प्रगति के प्रवाह में कई ऐसे मोड़ आ रहे हैं जिसमें कर्मचारियों के हित टकरा रहे हैं। 

   पूरे भारत में सार्वजनिक क्षेत्रों के लगभग 10 लाख कर्मचारी बैंकिंग अमेंडमेंट बिल के खिलाफ हड़ताल कर रहे हैं। द यूनाइटेड फोरम आॅफ बैंक यूनियन के बैनर तले बैंक कर्मचारियों की यह हड़ताल केंद्र सरकार के उन सुधार-प्रस्तावों के खिलाफ है जिनसे बैंकिंग उद्योग में विदेशी और निजी पूंजी का आना आसान हो सकता है। यूनियन के नेताओं ने भी अपना पक्ष रखा है। उनका कहना है कि बैंकिंग नियमन अधिनियम 1949 और बैंकिंग कम्पनीज एक्वीजीशन एंड ट्रांसफर आॅफ अंडरटेकिंग्स अधिनियम में संशोधन का प्रस्ताव है। सरकार बैंकिंग अधिनियम 1949 की छाया में अपना काम करे। बैंक कर्मचारी बैंकों में निजी और विदेशी पूंजी को अनुमति देने और निजी कम्पनियों को नए बैंक शुरू करने के लिए लाइसेंस देने के प्रावधान का भी विरोध कर रहे हैं। कर्मचारियों का कहना है कि नौकरियों की आउटसोर्सिग नहीं होनी चाहिए, ग्रामीण शाखाओं को बंद करने से रोका जाए और खंडेलवाल समिति की सिफारिशें एक तरफा लागू न की जाएं।
इस हड़ताल से सरकारी बैंकों की देश भर में 70 हजार से अधिक शाखाएं प्रभावित हैं। देश के 27 सरकारी बैंकों के अलावा कुछ निजी और विदेशी बैंक भी हड़ताल में शामिल हैं। बैंक कर्मचारियों-अधिकारियों के संगठन आॅल इंडिया बैंक इम्प्लाईज एसोसिएशन के सचिव विश्वास उटागी के रुख से लगता है कि वे आरपार की लड़ाई लड़ना चाहते हैं। उनका कहना है कि हड़ताल को स्थगित करने का कोई सवाल नहीं है। जब तक वित्त मंत्री यह आश्वासन नहीं देते कि यह बिल पेश नहीं किया जाएगा। कर्मचारी संघ बैंकिंग कानून विधेयक में संशोधन के लिए सरकार का विरोध करता रहेगा।
दूसरी तरफ देखें तो आज बैंक एक अनिवार्य सेवा की तरह हो चुकी है। आज हम अर्थ व्यवस्था के करेंसी और प्लास्टिक मनी के युग में जी रहे हैं। जहां हर कदम पर बैंक का सहयोग जरूरी है। बैंक यूनियनों का कहना है कि जब पूरे देश में बैंकिंग कारोबार ठीक चल रहा है तो केंद्र सरकार बैंकों के पीछे क्यों पड़ी है? लेकिन क्या सच में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक पूरी क्षमता से काम कर रहे हैं? क्या उनसे देश को संपूर्ण लाभ मिल पा रहा है? क्या उनमें कागजी कार्रवाई अधिक नहीं है? आज सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक सरकारी दफ्तरों की तरह नहीं चलते हैं? क्या सरकार द्वारा बैंक ों की भूमिका का विस्तार करना गलत है? सरकार की पूरी तैयारी है कि बैंकिंग अमेंडमेंट बिल जल्द ही संसद में पास हो। इस बिल के पास होने के बाद सरकारी बैंकों का निजीकरण किया जा सकेगा। साथ ही कॉर्पोरेट सेक्टर भी बैंकों की शुरुआत कर सकेंगे। बैंकिंग अमेंडमेंट बिल की मदद से बैंकिंग सेक्टर में कॉर्पोरेट और विदेशी पूंजी आसानी से आ सकगी। कुल मिला कर सरकारी बैंकों को अब चुनौती के साथ प्रतियोगिता भी करना ही होगी। सरकार का रुख कुछ दिनों में स्पष्ट हो जाएगा। इस मामले में बीच का रास्ता निकाला जाए तो सभी के लिए बेहतर होगा।  कोई भी हड़ताल विकास की गति को नहीं रोक सकती।

अग्रणी मध्यप्रदेश...

  विकास का अर्थ है संपूर्ण सामाजिक जीवन स्तर में सुधार हो। मध्यप्रदेश में यह हर स्तर पर संभव हुआ है। औद्योगिक विकास दर हो या बालिकाओं की शिक्षा, मप्र ने नए आयाम हासिल किए हैं।


भा रतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों के गठबंधन से बनी राज्य सरकारों का एक दिवसीय सम्मेलन नई दिल्ली में समाप्त हो गया। इस सम्मेलन को राज्यों के विकास पर केंद्रित किया गया था और इस बहाने केंद्र सरकार के रवैये को भी रेखांकित किया गया। सम्मेलन में बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक, पंजाब, गोवा और मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भाग लिया था।  सम्मेलन बहु उद्देशीय था। केंद्र सरकार को घेरने और आगामी चुनावी तैयारियों से पहले की मेल मिलाप वाली स्थिति थी। भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में मुख्य रूप से राज्य सरकारों द्वारा किये जा रहे नवाचार, सुशासन, बेस्ट प्रेक्टिस, केंद्र  सरकार में लंबित मामले, केंद्र सरकार द्वारा नीति निर्णय न लेने से पैदा हुई दिक्कतों और संविधान के संघात्मक ढ़ांचे के मुद्दे पर मुख्यमंत्रियों के बीच चर्चा हुई।
इस सम्मेलन में मध्यप्रदेश खास राज्य बन कर सामने आया। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मध्यप्रदेश के बीमारू राज्य के कलंक को धो दिया है। उनका प्रस्तुतिकरण एक तथ्य आधारित रिपोर्ट की तरह था, जिसको नकारा नहीं जा सकता था। इस बात को अन्य राज्यों ने स्वीकार भी किया। प्रदेश में हो रहे नवाचारों, योजनाओं और व्यावसायिक, औद्योगिक गतिविधियों के सुचारू संचालन ने मध्यप्रदेश को तेजी से विकास करने वाले प्रदेशों की कतार में ला दिया है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मुख्यमंत्रियों को संबोधित करते हुए पूरे देश को बताया कि मध्यप्रदेश ने विकास की नई ऊंचाइयां हासिल की हैं। इसका सबूत है कि मध्यप्रदेश राष्ट्रीय औसत से अधिक विकास दर हासिल करने वाला राज्य है। प्रदेश ने 11वीं पंचवर्षीय योजना में 10.2 प्रतिशत की दर से सकल घरेलू उत्पाद दर हासिल की है। कृषि विकास दर 9 प्रतिशत तक रही। यह वास्तव में उल्लेखनीय है। सामाजिक मामलों में भी प्रदेश ने लोककल्याणकारी राज्य का कत्तर्व्य हासिल किया है। इसमें महिला सशक्तिकरण, जन स्वास्य सेवाएं, सड़कों का फैलता जाल, बिजली उत्पादन में बढ़ोत्तरी, हर क्षेत्र में मध्यप्रदेश राष्टÑीय औसत से आगे ही रहा। मध्यप्रदेश ने वित्तीय प्रबंधन में भी नए आयाम जोड़े हैं। राजस्व कर जो पिछले पांच साल में अन्य राज्यों से कम रहा करता था वह अब बढ़कर 8.42 प्रतिशत हो गया है।  वर्ष 2005-06 से राज्य का बजट आय से ज्यादा ही रहा। इस सम्मेलन में महिला सशक्तिकरण, लाड़ली लक्ष्मी योजना, बेटी बचाओ अभियान, मुख्यमंत्री मजदूर सुरक्षा योजना, गैर संगठित श्रमिकों के लिए सामाजिक सुरक्षा योजना, बीमा योजना, अटल बाल आरोग्य एवं पोषण मिशन, मुख्यमंत्री बाल हृदय रोग उपचार योजना, कृषि कैबिनेट का गठन और कृषि को लाभ का धंधा बनाने, पीपीपी माध्यम से सड़कों का विकास और मुख्यमंत्री तीर्थ दर्शन योजना के बारे में विस्तार से मुख्यमंत्री ने बताया। विकास का अर्थ है मानवीय जीवन को नई ऊ ंचाइयां देना। मध्यप्रदेश इसमें अग्रणी है।

बेनी के बयान

कोई अपने काम के लिए जाना जाता है तो कोई अपने बयानों के लिए। राजनीतिक पार्टी और विचारधारा का नेतृत्व करते हुए नेताओं को असंतुलित अतिकथनों से बचना चाहिए।

विवादस्पद बयानों को लेकर हमेशा से चर्चा में रहने वाले केंद्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा ने एक बार फिर अपने ही अंदाज में बयान दिया। उन्होंने कहा कि बढ़ती महंगाई से आम आदमी भले ही परेशान हो मगर मैं इस महंगाई से बहुत खुश हूं। एक प्रेस कांफ्रेंस को संबोधित करते हुए मंत्री महोदय ने स्वनिर्मित तथ्यों के आधार पर घोषणा कर दी कि वे महंगाई से खुश हैं क्योंकि इससे किसानों को बहुत फायदा होता है।  दाल, चावल, गेहूं, सब्जी आदि के दाम बढ़ेंगे तो किसानों की फायदा मिलेगा। यह बयान जब सार्वजनिक हुआ तो लोगों ने दांतों तले ऊंगलियां दबा लीं। यह तर्क के आधार पर तो सच है कि महंगाई बढ़ने से किसानों की फसल अच्छे दामों में बिकती है। लेकिन सवाल तो ये है कि क्या यथार्थ में ऐसा ही होता है? क्या बेनी प्रसाद वर्मा को प्याज के बारे में कुछ भी याद नहीं रहा? क्या उनको यह पता नहीं है कि प्याज जब मंहगी होती है तो किसानों को नहीं बिचोलियों और एजेंटों को फायदा होता है। क्या बेनी प्रसाद जी के पास बयानों से पहले उनके अधिकारियों ने सही रिपोर्ट नहीं दी या खुद केंद्रीय मंत्री ने किसानों की फसल और उनकी आर्थिक व्यवस्थाओं का अध्ययन नहीं किया था?  ये सारे सवालों के सच मंत्री महोदय ही जानते होंगे लेकिन बयानों के आधार पर निष्कर्ष निकाला जाए तो यह सच है कि बेनी प्रसाद जी को किसानों के दलालों द्वारा ठगे जाने का कोई अहसास नहीं है। केंद्रीय मंत्री के रूप में बेनी प्रसाद वर्मा जी ने जो भी कहा है उसके अनुसार सब कुछ संभव हो रहा होता तो आज भारत का किसान शहरों के मध्यवर्गीय और सरकारी कर्मचारियों से अधिक संपन्न होता। जो शहर किसानों की फसलों पर फसल काट रहे हैं आज वे किसानों के मुहताज होते और किसान देश का सबसे सम्पन्न वर्ग होता। लेकिन किसानों का दुर्भाग्य है कि देश में आज तक बिचोलियों के चंगुल से मुक्त होने की व्यवस्थाएं सरकार कारगर नहीं कर सकी है। बेनी   प्रसाद वर्मा के इस गैरजिम्मेदाराना बयान के चलते महंगाई मुद्दे पर पहले से फजीहत झेल रही यूपीए सरकार मुश्किल में पड़ गई है। यहां यह भी उल्लेख करना जरूरी है कि यूपी विधानसभा चुनाव के दौरान बेनी प्रसाद वर्मा के विवादास्पद बयानों को पार्टी ने कभी गंभीरता से नहीं लिया मगर महंगाई के मुद्दे पद उनका यह बयान लोगों को समझ से परे तो है ही, यह एक केंद्रीय मंत्री के अध्ययन को भी प्रदर्शित कर रहा है।  खुद प्रधानमंत्री महंगाई को लेकर 15 अगस्त को लालकिले की प्राचीर से चिंता जता चुके हैं। उनका मानना है कि महंगाई से जनता परेशान है। उधर, बेनी का बढ़ती महंगाई पर खुश होने का बयान न केवल प्रधानमंत्री के भाषण और कांग्रेसी-यूपीए की नीतियो ंके खिलाफ है। बेनी बाबू के बयान जमीनी हकीकत से दूर हैं। किसान अपने उत्पादों को सस्ते दामों पर बेच देते हैं जिन्हें बिचौलिए आगे महंगे दाम पर बेचकर भारी मुनाफा कमाते हैं। वास्तव में फायदा बिचोलियों को होता है, किसानों को नहीं। एक राजनीतिक पार्टी ने बेनी प्रसाद को इस तरह के बेतूका बयान से बचने की सलाह दे दी है। उन्हें यह सही सलाह दी गई है।

Ravindra sWapNil PraJpaTi


सलाह का रायता

सलाह कोई बुरी बात नहीं लेकिन जिस तरह राजीव शुक्ला ने उपसभापति को प्रभावित किया, ओपन माइक से उस सलाह को सबने सुना, उससे निश्चय ही सदन की गरिमा आहत हुई है।


लो  कतंत्र के मंदिर की आसंदी पर सलाह की स्याही बिखर गई। राज्यसभा में संसदीय कार्य राज्य मंत्री राजीव शुक्ला द्वारा उपसभापति पीजे कुरियन को दी गई सलाह और उसके परिपालन से ऐसा हुआ। दरअसल, राज्य सभा में कैग की रिपोर्ट और कोयले पर चर्चा के लिए विपक्ष हंगामा की परंपरा का निर्वाह कर रहा था। हंगामे का अंदाजा राजीव शुक्ला कर चुके थे। उन्होंने उपसभापति की आसंदी के पास जाकर सलाह दी कि हंगामा होते ही दिन भर के लिए हाउस एडर्जन कर दीजिए। उपसभापति से राजीव शुक्ला की यह कानाफूसी माइक चालू रहने से पूरे सदन को सुनाई दी। तत्काल उपसभापति ने सदन की कार्यवाही स्थगित कर दी। इस सलाह ने संसदीय कार्यवाही को एक नमूना बना दिया। ऐसा कई लोकल सभाओं में होता रहता है, जब पूरी सभा चालू माइक के माध्यम से पंच या वरिष्ठ सदस्य की कानाफूसी सुन लेती है। सहसा सभा ठहाके मार कर हंस पड़ती है। लेकिन माइक पर कानाफूसी कर रहे दोनों सम्मानीयों को कुछ क्षण पता ही नहीं चलता है कि ये ठहाके उनकी कानाफूसी का मजा ले रहे हैं। लेकिन जब सदन में ऐसा हो और उपसभापति के कान रिमोट कंट्रोल के रिसीवर की तरह कानाफूसी के सिगनल सुनें और तत्काल स्थगन हो तो हंसी उड़ेगी ही। इस कानाफूसी के पीछे सदन में सरकार को सुरक्षा कवच प्रदान करना था। इसकी जिम्मेदारी राजीव शुक्ला उठा रहे थे, लेकिन माइक ने रायता फैला दिया।
जब बात सार्वजनिक हुई तो राजीव शुक्ला जी ने कहा कि वे तो सलाह देते ही रहते हैं। उपसभापति ने सफाई पेश की कि यह तो उनका स्वतंत्र फैसला था। हो सकता है कि यह स्वतंत्र फैसला हो, लेकिन कुछ चीजें ऐसी होती हैं जो हजम होने में अटकती हैं। सलाह के बाद एकाएक स्थगन ऐसा ही कुछ था। पीछे सरकार की मंशा थी कि कोयला ब्लॉक आवंटन पर कैग की रिपोर्ट पर बातचीत से किसी तरह बचा जाए। अब इससे बचने के उपया पर बुधवार को भी लोक सभा और राज्य सभा की कार्यवाही नहीं चल पाई। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के इस्तीफे पर अड़े विपक्षी दलों के हंगामे के कारण लोकसभा और राज्य सभा की कार्यवाही कई बार स्थगित हुई। बाद में संसदीय कार्य मंत्री पवन कुमार बंसल ने कहा कि सरकार कैग रिपोर्ट सहित  सभी मुद्दों पर चर्चा करने को तैयार है। कैग की रिपोर्ट में कोयला ब्लॉक आवंटन में बिना बोली लगाए, दिल्ली हवाई अड्डे के विकास और बिजली परियोजना के लिए कोयला देने जैसे मामले शामिल हैं।
संसदीय कार्यवाही का स्थगन आवश्यकता होने पर ही लगे तो सार्थक है। वरना कार्यवाही रोकना सत्ताधारी दलों के लिए मुद्दों से बचने का हथियार बनता जा रहा है।  इस पर देश का मत जानना जरूरी है। चुने हुए प्रतिनिधि जनता के शासक नहीं, प्रतिनिधि ही हैं। उन्हें लोकतंत्र को गतिशील बनाए रखने के लिए प्रतिनिधित्व का अधिकार मिला है, न कि कानाफूसी करके लोकतांत्रिक मूल्यों को प्रभावित करने का प्रतिनिधित्व दिया गया है।

गुरुवार, अगस्त 16, 2012

वकीलों से पंचायत!



अक्सर समाज मे ंये माना जाता है कि वकीलों की समस्याएं नहीं होतीं। जब मुख्यमंत्री की वकील पंचायत हुई तो वकीलों की समस्याएं भी सामने आइं।

 मुख्यमंत्री निवास में पिछले कुछ वर्षों से समाज के विभिन्न वर्गों की पंचायतें आयोजित की जा रही हैं। इन पंचायतों की विशेषता ये है कि इनमें वर्ग विशेष को प्राथमिकता के आधार पर संवाद स्थापित किया जाता है। यह मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का समाज से संवाद करने का वर्गीकृत तरीका है। इस तरीके में सबसे नई बात ये है कि संवाद का स्वरूप बिखराव का शिकार नहीं होता। कुछ ही दिनों पहले फेरी वाले हाथ ठेला चलाने वालों से मुख्यमंत्री ने संवाद यादगार रहा था। मध्य प्रदेश में विभिन्न वर्गो से सीधे संवाद स्थापित करने के लिए चल रही कोशिशों के क्रम में12 अगस्त को वकीलों की पंचायत आयोजित की गई। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अब तक 21 पंचायतों का आयोजन कर चुके हैं, और वकीलों की पंचायत 22 वीं पंचायत है। इस पंचायत में पूरे राज्य से वकीलों के प्रतिनिधि हिस्सा ले रहे हैं। इस पंचायत में वकीलों की वास्तविक जरूरतों, समस्याओं पर मुख्यमंत्री द्वारा सीधे संवाद किया और कई महत्वपूर्ण फैसलों का एलान भी मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा किया गया।
यह अपने आप में राजनीतिक नवाचार है। जन सामान्य और समाज में आम धारणा यह बनी हुई है कि  वकीलों की कोई समस्या नहीं होती। पंचायत के होने से कई स्तर पर वकीलों से जुड़ी समस्याआें से प्रशासन और जन सामान्य अवगत हुआ। अब करीब 2 दर्जन पंचायतें अभी तक आयोजित हो चुकी हैं, लेकिन पंचायतों में की गई घोषणाओं के क्रियान्वयन की स्थिति से आज भी लोग अनभिज्ञ हैं।  पछले कुछ वर्षों से न्यायालयों में आसामाजिक तत्वों की गतिविधियां तेजी से बढ़ने के कारण वकीलों का जीवन भी संकट में आ गया है तथा गैंगवार जैसी घटनाएं भी अब न्यायालयों में होना सामान्य बात हो गई है, जिसका उदाहरण इंदौर, ग्वालियर, भोपाल में हुई घटनाएं हैं। वकीलों के लिए न्यायालयों में  बैठने के लिए उचित व्यवस्थाएं नहीं हैं, इस संबंध में पंचायत में कोई ठोस और उचित निर्णय लिया जाए। वकील समुदाय पैरवी करते समय किसी राजनीतिक पार्टी का प्रतिनिधि नहीं होता है, बल्कि वह अपने व्यवसाय को ईमानदारी से करता है, तब ऐसी स्थिति में राज्य सरकार द्वारा शासकीय उपक्रमों एवं निकायों में राजनीतिक विचारधारा से प्रभावित वकीलों को नियुक्त किया जाना न्यायोचित नहीं है। उद्योगों एवं व्यापारिक प्रतिष्ठानों के विरूद्व निरीक्षकों के प्रकरण श्रम न्यायालय को सुनने के अधिकार हों। प्र्रदेश में म.प्र. औद्योगिक संबंध अधिनियम का कानून करीब 29 कल कारखानों से हटाकर औद्योगिक विवाद अधिनियम का कानून लागू कर दिया गया है, जिससे श्रमिकों को न्याय मिलने में अत्यधिक देरी होती है, जिसे सुधारा जाना आवश्यक है।  ये सभी मांगे वकीलों की समस्याओं की ओर ध्यान खींचती हैं
मुख्यमंत्री की घोषणा का स्वागत हुआ है कि अब सरकार वकीलों को अपना व्यवसाय प्रारंभ करने के लिए शासन 12 हजार रूपए की आर्थिक सहायता देगी।  संवाद का यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा।

शुक्रवार, अगस्त 10, 2012

खजुराहो के शिल्प: घरेलू जीवन

  खजुराहो के शिल्प घरेलू जीवन के महत्वपूर्ण पहलूओं पर प्रकाश डालते हैं। लक्ष्मण मंदिर के अनेक शिल्पों में आराम से बैठे हुए दंपत्ति को वार्तालाप करते हुए अंकित किया गया है। संभवत: ये दंपत्ति परिवारिक समस्याओं का हल ढ़ूंढने का प्रयास कर रहे दिखाई देते हैं। लक्ष्मण मंदिर में एक युगल अंकित किया गया है। पति क्रू द्ध मुद्रा में हैं, जबकि पत्नी उसके कंधे पर हाथ रखकर उसे  प्रसन्न करने का प्रयास करती दिखाई गई हैं। चित्रगुप्त मंदिर में पत्नी को पति द्वारा फूलों का प्रेमोपहार देते हुए अंकित किया गया है। इसके अतिरिक्त कई दृश्यों में शोकपूर्ण अवसरों पर पति-पत्नी एक दूसरे का दुख बांटते हुए दिखाए गए हैं। कई पत्नियों को धीरज बंधाते हुए दिखाया गया है। कहीं- कहीं पतियों को आलिंगन करते हुए दर्शाया गया है। एक स्थान पर पति द्वारा हाथ जोड़कर माफी मांगते हुए दिखाया गया है।
कलाकृतियों में पत्नी को ताड़ना देते हुए पति को चित्रित किया गया है। लक्ष्मण मंदिर की प्रतिमा में ऐसे चित्रण दिखाई देते हैं। जब पति अपनी पत्नी को पीट रहा है, तो समीप ही एक दर्शक दुखी मन से पति- पत्नी के झगड़े को देखता हुआ चित्रित किया गया है। अनेक चित्रण में पतियों के कठोर एवं पाशविक आचरण का अंकन देखने को मिलता है, तथापि पत्नियों द्वारा पतियों के प्रति कठोर व्यवहार का एक भी दृश्य अंकित नहीं हैं। इससे प्रकट होता है कि खजुराहो काल में स्रियों की स्वतंत्रता सीमित थी एवं वह पति के संरक्षण की मोहताज थी।
खजुराहो के कुछ शिल्पांकनों से पुरुषों पर स्रियों के प्रभाव का भी चित्रण मिलता है। देवी जगदंबी के एक दृश्य में एक स्री- पुरुष के हाथ पर अपना हाथ रखकर उसे जल्दबाजी में कोई निर्णय लेने से रोकती दिखाई देती है। इसी प्रकार लक्ष्मण मंदिर में एक स्री युद्धक्षेत्र में जाते हुए व्यक्ति को रोकती दिखाई गई है। समाज में स्रियों को पर्याप्त स्वतंत्रता प्राप्त होने के बावजूद दुष्ट और चरित्रहीन व्यक्तियों से उनकी सुरक्षा सदैव पतियों को करनी पड़ती थी। गृहस्थाश्रम में पतियों की देखभाल के साथ- साथ पत्नियों को सुचारु रुप से गृहस्थी चलाना और बच्चों को लालन- पालन भी करना पड़ता था।

गुरुवार, अगस्त 09, 2012

बाढ़

  मध्यप्रदेश ही नहीं देश के अन्य राज्यों में भी बाढ़ से जनजीवन प्रभावित हो रहा है। हमें यह ख्याल रख कर दूरगामी बाढ़ प्रबंधन करना होगा कि कभी भी पानी अधिक बरस सकता है।

देश में प्रारंभिक मानसून की बेरुखी के बाद देश के कई हिस्सों में लगातार हो रही बारिश की वजह से बाढ़ के हालात बन गए हैं। पूर्वी उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के कई इलाकों में जमकर बारिश हो रही है। अकेले मध्यप्रदेश में ८त्न घंटे से हो रही भारी वर्षा के कारण ८ हजार परिवार (लगभग ६ञ् हजार लोग) आए हैं।  प्रकृति अपना काम करती है। पहले भी ऐसी बाढ़ें आती रही हैं। लेकिन मानवीय प्रबंधन की सीमाओं के कारण हालात दयनीय हो जाते हैं। पानी प्रकृति का प्रवाह है वह अपनी गति और नीति से बहता है। आज मध्यप्रदेश ही नहीं पूरा देश जल असंतुलन का शिकार है। ऐसी स्थितियों में बाढ़ प्रबंधन की भूमिका महत्वपूण हो जाती है।
नर्मदा व तवा नदी के खतरे के ऊपर बहने से आसपास के करीब ५ञ्ञ् गांव बाढ़ से घिरे हैं।  यहां के हालातों को सम्हालने के लिए सेना की मदद लेना पड़ी है। मध्यप्रदेश में भारी बारिश के चलते कुछ जिलों में दो दिनों की छुट्टी का एलान कर दिया गया है. कई दिनों की बारिश से कुछ फायदे तो हुए हैं लेकिन नुकसान भी कम नहीं हुआ है। लेकिन दूसरी तरफ देश के कुछ हिस्सों में सूखे जैसी स्थिति है। राजस्थान में ७७ में से ६त्न जिलों में बारिश नहीं होने के कारण लोगों को पानी की चिंता सता रही है। केवल छह जिलों में सिर्फ बुवाई लायक ही बारिश हुई है।  राज्य सरकार ने अभी पाच जिलों को ही सूखाग्रस्त घोषित किया है। वहां ६त्न जिलों में अस्सी प्रतिशत तक कम बारिश हुई है।
दूसरी तरफ कुछ राज्यों में बाढ़ ने भारी तबाही मचाई है। उत्तर प्रदेश में उफनाई नदियों ने बाढ़ नियंत्रण उपायों की पोल खोल दी है। घाघरा, रामगंगा, वरुणा, शारदा, सरयू, राप्ती, जैसी नदियों का जलस्तर बढ़ा हुआ है। गंगा व यमुना का जलस्तर भी खतरे के निशान की ओर बढ़ रहा है। प्रदेश में बाढ़ प्रभावित ७त्र जिलों में  स्थिति सबसे ज्यादा गंभीर है। बहराइच में उत्तरी तटबंध पर पानी का दबाव बढ़ने से कई जगह से रिसाव की सूचना है। बाढ़ पीड़ितों को सुरक्षित स्थानों तक पहुंचाने और भोजन आदि की व्यवस्था भी संतोषजनक नहीं है। ये शिकायतें प्रतिवर्ष हो सकती हैं लेकिन बाढ़ के लिए हम कितने तैयार होते हैं यह तभी पता चलता है जब बाढ़ आती है।
अगस्त ६ञ्ञ्८ में जो बाढ़ आई थी उस समय प्रधानमंत्री ने उस मौके पर बाढ़ प्रबंधन के लिए एक टास्क फोर्स बनाई थी। उसने दिसंबर ६ञ्ञ्९ में रिपोर्ट दी थी। उसमें बाढ़ प्रबंधन के लिए स्थाई और दूरगागी समाधान दिए गए थे। जहां तक बाढ़ के स्थाई प्रबंध का मसला है तो यह राष्ट्रीय मुद्दा है। मानसून से पहले देश में जगह-जगह बाढ़ से बचाव के प्रबंध अब एक अनिवार्यता हो चुकी है। जहां बांध बनाए जा सकते हैं वहां बांध बनाए जाना चाहिए।  जहां जरूरी हो वहां ड्रेनेज का इंतजाम भी होना चाहिए।  आने वाले वक्त में हमें देश के विकास और जीवन की सुविधाओं के विस्तारको भी ध्यान में रखना होगा। हमें यह ख्याल रखना होगा कि अतिवृष्टि कभी भी हो सकती है इसलिए  हमें बाढ़ प्रबंधन नए प्रयास करते रहना होंगे।

रोजगार की जगह मोबाइल

   गरीबों के लिए लोकतंत्र का मजाक बनाने में हमारी सरकारें पीछे नहीं हैं। रोजगार की जगह सरकारें चुनावों के समय मोबाइल बांटने लगती हैं, जबकि उन्हें रोजगार देना चाहिए।



 लो कतंत्र की राजनीति जब लोभ और लालच देने की राजनीति बन जाती है तो वह कहीं न कहीं लोकतंत्र का मजाक भी बन जाती है।  कांग्रेस पार्टी ने अपने पुराने रामबाण नुस्खे ‘गरीबी हटाओ’ को हाईटेक पैकिंग में पेश करने का फैसला किया है। सरकार गरीबी रेखा से नीचे के हर हाथ में मोबाइल देने जा रही है। यह एक सीधा गणित है-मोबाइल लो वोट दो। यह देश में बदलते लोकतांत्रिक मूल्यों को प्रदर्शित करने वाली घटना और योजना भी है। इस योजना का जब तक प्रचार प्रसार होगा तब तक 2014 के चुनाव सामने आ चुके होंगे। यह योजना लोककल्याणकारी दिख रही है लेकिन इसमें दूरदर्शिता का भारी अभाव है। हां, इसमें वोट कबाड़ने के दूरगामी तत्व निहित हैं। सरकार चाहती है कि सबके वोट उसके हाथ को ही मिलें। संभव है कि 15 अगस्त को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने भाषण में इस योजना का एलान करेंगे और यूपीए सरकार इसे गरीबी हटाओ के अंदाज में एक बड़ा मुद्दा बनाकर पेश करने की तैयारी कर रही है।
यह सरकारी दूरगामी योजना है जिससे सरकार पर कुछ न करने या सरकार पर लगा पॉलिसी पैरालिसिस का दाग कुछ फीका पड़ सके। सरकार  इस योजना के तहत 6 करोड़ परिवारों को मोबाइल फोन बांटेगी। इससे जाहिर है कि सरकार का यह मिशन चुनाव जिताऊ भी हो सकता है। योग्य परिवारों की सूची राज्य सरकारें देंगी। मोबाइल पाने वालों में 50 फीसदी महिलाएं होंगी। मोबाइल स्कीम के लिए अप्रैल-मई 2013 में टेंडर जारी किया जाएगा। जुलाई 2013 तक मोबाइल बांट दिए जाएंगे। एक हजार का ये मोबाइल है लेकिन मोबाइल पाने वाले को 365 रुपए देने होंगे। मोबाइल में वॉयस, एसएमएस, टॉर्च और बैटरी होगी। 1 साल तक मोबाइल रीचार्ज फ्री मिलेगा। मोबाइल में 30 रुपए का रीचार्ज हर महीने की पहली तारीख को सरकार कराएगी। यानी फुल प्रूफ गारंटी का मामला बनता है।
हालांकि विपक्षी दलों ने गरीबी रेखा के नीचे जीवनव्यापन करने वाले परिवारों को मुफ्त मोबाइल देने की सरकारी योजना की दबे स्वरों से आलोचना की है। विपक्ष यह कहना सही है कि  सरकार की प्राथमिकता गरीबों को सस्ता अनाज देने की होनी चाहिए, मोबाइल की नहीं। टेलीकॉम कंपनियों को सरकार की इस स्कीम पर और जानकारी की जरूरत है। सीओएआई के डाइरेक्टर जनरल राजन मैयूज मानते हैं कि कंपनियों को मोबाइल स्कीम लागू करने के लिए कई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। इससे स्कीम लागू करने में देरी हो सकती है। राजन मैयूज का मानना है कि 40 फीसदी ग्रामीण बाजार में पहले ही मोबाइल सर्विस मौजूद है। वहीं बिना मोबाइल सर्विस वाले इलाके में स्कीम लागू करना मुश्किल होगा। मोबाइल कवरेज लाने के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर की जरूरत होगी और इलाकों में बिजली, टॉवर होना जरूरी है। इन योजनाओं में भी भारी निवेश की जरूरत होगी। सरकार जो चाहे दे सकती है लेकिन देखना है कि यह कदम गरीब जनता कितना पसंद करती है?

खिलाड़ियों का दर्द



लंदन ओलंपिक में रजत पदक विजेता सूबेदार वियज कुमार को एक ओलंपिक पदक विजेता जैसा सम्मान नहीं मिला है। इससे जाहिर है कि हम खिलाड़ियों की कितनी कद्र करते हैं?

क्या आलंपिक चंैपियन होना कोई बड़ी बात नहीं है! यह एक सामान्य घटना है! यह मायूसी भरे सवाल भारतीय सेना के सूबेदार विजय कुमार ने देश के मीडिया और देश की जनता से साझा किए हैं। उनको सेना और हिमाचल सरकार इसी तरह ट्रीट कर रही है जैसे कि ओलंपिक का रजत कुछ खास नहीं? यह सच है कि उनके बारे में देश की जनता अब तक बहुत अधिक नहीं जानती। एक चैंपियन की ये दर्द भरी शिकायत आहत करने वाली है। यह भी सच है कि निम्न मध्यम वर्गीय हिमाचल से आने वाले विजय कुमार को देश की सेना और मीडिया ने उतना कवरेज और सम्मान नहीं मिला है जितने के वे अधिकारी हैं। लगातार छह साल से राष्ट्रीय चैंपियन रहे विजय कुमार ने 25 मीटर रैपिड फायर में 130 के स्कोर के साथ रजत पदक जीता। इस मुकाबले में क्यूबा के ल्यूरिस प्यूपो 134 अंकों के साथ स्वर्ण पदक जीतने में कामयाब रहे। यह निराशाजनक है कि हमारे ही एक चैंपियन के बारे में  देशवासियों को बहुत कुछ मालूम नहीं है।
यह भी आश्चर्यजनक है कि एक राष्ट्रीय चैंपियन को छह साल से सेना मेंप्रमोशन नहीं मिला है। न सरकार से कोई सहायता मिली है। यह सरकार और सेना की उपेक्षा ही कही जा सकती है। लाइम लाइट में नहीं होना अभिशाप है? क्या मीडिया सुर्खियों में नहीं आने के कारण उन्हें सरकारी सहायता से वंचित रखा गया? आज पदक जीतने के बाद विजय के पास भारत से फोन जा रहे हैं। अब लोग उनके बारे में जानना चाहते हैं और कई सवाल पूछते हैं। विजय कहते हैं कि ‘यह सब देखकर मुझे बुरा भी लगता है, लेकिन यह जिंदगी का हिस्सा है।’
 आश्चर्यजनक  है कि जिस खिलाड़ी ने मेलबोर्न राष्ट्रमंडल खेलों में नए रिकार्ड के साथ दो स्वर्ण जीते, दोहा एशियाड में एक स्वर्ण और एक कांस्य, चीन में विश्व चैंपियनशिप में एक रजत, दिल्ली राष्ट्रमंडल खेलों में तीन स्वर्ण और एक रजत और ग्वांगझू एशियाड में दो कांस्य पदक जीते। इसके बाद अगर लंदन में वह पदक जीतते हैं तो लोगों को अचंभा होता है। इसमें विजय क्या कर सकते हैं? यह तो मीडिया और सेना से पूछा जाना चाहिए? मीडिया की बेरुखी से विजय कुमार आहत हैं। इस कारण ही लोग उनसे पूछ रहे हैं कि आप यह ओलंपिक रजत कैसे जीत गए? विजय को रिकार्ड देखा जाए तो वे पिछले आठ साल से परिणाम दे रहे हैं। उन्होंने अब तक 110 राष्ट्रीय और 45 अंतरराष्ट्रीय पदक जीते हैं।
किसी स्वाभिमानी खिलाड़ी का काम नहीं है कि वह अपनी सफलताओं को मीडिया में या लोगों को गिनाता फिरे? यह मीडिया, सरकार और समाज की स्वभाविक जिम्मेदारी है कि वह अपने चैंपियन का चैंपियन की तरह सम्मान करे। विजय की उपेक्षा एक उदारहण है। देश में ऐसे कई चैंपियन हैं जो ऐसी उपेक्षा का शिकार हैं। हमें अब उनको सम्मान देना ही होगा क्योंकि कोई भी स्वाभिमानी चैंपियन आपके सामने हाथ फैलाने नहीं आएगा।

धर्म और जाति

  
PHOTO Aanil Dixit BHOPAL
धर्म और जाति की संकीर्णता से ऊपर रहने वाला देश ही चारों ओर से उन्नति करता है। इसलिए हमें समानता की दृष्टि से सबको देखते हुए सामूहिकता में विश्वास रखना चाहिए।

य ह बात उस समय की है जब नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने देश को ब्रिटिश गुलामी से मुक्त कराने के लिए आजाद हिंद फौज की स्थापना की थी। उन्होंने इसमें सभी संप्रदायों के लोगों को शामिल होने का न्योता दिया था। उनका विचार था कि भारत में रहने वाले सभी हिंदू, मुस्लिम, सिख आदि पहले भारतीय हैं फिर कुछ और।  यह विचार नेता जी का तो था ही, गांधी जी भी इसी विचार पर आधारित अपना आंदोलन चला रहे थे।
यह विचार समाज की सामूहिकता और मनुष्यत्व की महानता के लिए स्वीकार करता है। यही विचार है जो इसलिए वे आजाद हिंद फौज के दरवाजे सभी के लिए खुले रखते थे। जिसके भी सीने में देश को आजाद करने की आग हो, वह उनकी फौज में शामिल हो सकता था। इसलिए आजादी की इस सेना में सभी तरह के लोग थे।
कैप्टन शाहनवाज खान भी फौज में शामिल थे। एक बार अंग्रेजों ने उनकी देश की आजादी से संबंधित गतिविधियों को देख कर उन पर एक मुकदमा दायर कर दिया। इस मुकदमे से उनके लिए कई कष्ट प्रारंभ हो गए। उनकी मदद के लिए कई लोग आए। इस केस के लिए कैप्टन शाहनवाज को एक योग्य वकील की आवश्यकता थी। उनके वकील बने- भूलाभाई देसाई। तभी मुहम्मद अली जिन्ना ने कैप्टन को संदेश भिजवाया कि यदि आप आजाद हिंद फौज के साथियों से अलग हो जाएं तो आपका मुस्लिम भाई होने के नाते मैं आपका मुकदमा फ्री लड़ने को तैयार हूं।
शाहनवाज खान ने तत्काल जवाब भिजवाया- हम सब हिंदुस्तानी कंधे से कंधा मिलाकर आजादी की लड़ाई लड़ रहे हैं। हमारे कई साथी इसमें शहीद हो गए और हमें उनकी शहादत पर नाज है। आपकी पेशकश के लिए शुक्रिया। हम सब साथ-साथ ही उठेंगे या गिरेंगे, परंतु साथ नहीं छोड़ेंगे। उनके इस सटीक जवाब से उनके सभी साथी और सैनिक खुश थे। उन्हीं में से उस समय एक सिपाही बोला- धर्म और जाति की संकीर्णता से ऊपर रहने वाला देश ही उन्नति करता है। इसलिए हमें समानता की दृष्टि से सबको देखते हुए सामूहिकता में विश्वास रखना चाहिए।
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पुरस्कार के लिए सत्पात्र कौन है?


मंत्री ने अपना मत प्रकट करते हुए कहा, ‘यदि ये आपस में एकता कायम कर लेते तो सहारा देकर किसी एक को ऊपर चढ़ा सकते थे, पर वे ईर्ष्यावश वैसा नहीं कर सके और असफल हो गए।

एक राजा ने अपने मंत्री से कहा- ‘मैं अपने प्रजाजनों में से किसी वरिष्ठ को कुछ बड़ा उपहार देना चाहता हूं। बताओ, ऐसे योग्य व्यक्ति कहां से और किस प्रकार ढूंढे जाएं?’
मंत्री ने कहा- ‘महाराज! सत्पात्रों की तो कोई कमी नहीं पर उनमें एक ही कमी है कि परस्पर सहयोग करने की अपेक्षा वे एक दूसरे की टांग पकड़कर खींचते हैं। यानी वे एक दूसरे से ईर्श्या करते हैं और एक दूसरे की बुराई भी करते हैं। हालांकि वे भले लोग होते हैं लेकिन वे सब भले होते हैं।’
राजा के गले यह बात उतरी नहीं। वह समझ गया कि मंत्री उसे कुछ उलझाना चाहता है।
राजा मंत्री से  कहा- यह इतने विश्वास के साथ कैसे कह सकते हो तुम? मंत्री ने कहा कि वह इसे साबित कर दिखाएगा। एक छह फुट गहरा गड्ढा बनाया गया। उसमें बीस व्यक्तियों के खडेÞ होने की जगह थी। घोषणा की गई कि जो इस गड्ढे से ऊपर चढ़ आएगा, उसे आधा राज्य पुरस्कार में मिलेगा। बीसों सबसे पहले चढ़ने का प्रयास करने लगे। जो थोड़ा सफल होता दिखता, उसकी टांग पकड़ कर शेष उन्नीस नीचे घसीट लेते। वह औंधे मुंह गिर पड़ता। इसी प्रकार सवेरे आरंभ की गई प्रतियोगिता शाम को समाप्त हो गई। बीसों को असफल ही घोषित किया गया और रात होते-होते उन्हें सीढ़ी लगाकर ऊपर खींच लिया गया। पुरस्कार किसी को भी नहीं मिला।
मंत्री ने अपना मत प्रकट करते हुए कहा, ‘यदि ये आपस में एकता कायम कर लेते तो सहारा देकर किसी एक को ऊपर चढ़ा सकते थे, पर वे ईर्ष्यावश वैसा नहीं कर सके। वे एक दूसरे की टांग खींचते रहे और खाली हाथ रहे। अगर उनमें एकता होती तो वे यह तय कर सकते थे कि किसी एक को जीतने दिया जाए और उसकी पुरस्कार राशि सब बराबर-बराबर बांट लें। पर वे ऐसा नहीं कर सके। मंत्री ने बताया - ‘चारों दिशाओं में प्रतिभावानों के बीच ऐसी ही प्रतिस्पर्धा चलती है और वे खींचतान में ही सारी शक्ति गंवा देते है। इसलिए उन्हें निराश हाथ मलते ही रहना पड़ता है।’ राजा मंत्री के विचारों से सहमत हो गया।’

चार टिप्पणियां

  चार  टिप्पणियां 

  क्रूरता की सजा

उस दम्पत्ति को अपनी क्रूरता की सजा न्यायालय ने सुना दी है। निश्चित ही वे इस क्रूरता के लिए सजा के हकदार हो चुके थे। समाज में ऐसे कई मामले और हो सकते हैं।
अपने मासूम बेटे शौर्य पर तरह-तरह के अत्याचार करने वाले मां-बाप को दिल्ली की एक कोर्ट ने 10-10 साल कैद की सजा  सुना दी है। क्रूरता की अति करने के बाद दोनों ने यह भी नहीं सोचा कि आखिर वे क्यों यातनाएं एक मासूम पर कर रहे हैं। वास्तव में यह एक गंभीर और कभी-कभी घटने वाली घटना है। हो सकता है कि ऐसी और भी घटनाएं इस देश में हो रही हों लेकिन हम उन तक न पहुंच पा रहे हों।
खैर जो हुआ और अदालत को शौर्य के नाना-नानी गए, उनकी भी सराहना करना होगी। क्रूरता के इस मामले में अदालत ने बेहद गंभीर माना है। इसलिए सजा भी दस साल की दी है। यह मामला गंभीर इसलिए  भी है कि ये हमारे शिक्षित और उच्च पदों पर आसीन रहे लोगों से जुड़ा है। शौर्य के पिता ललित बलहारा आर्मी में मेजर जैसे वरिष्ठ पद पर रह चुके हैं। ललित बलहारा और उनकी दूसरी पत्नी यानी शौर्य की सौतेली मां प्रीति बलहारा ने मासूम पर इतने अत्याचार किए थे कि वह शारीरिक रूप से विकलांग हो गया। शौर्य इस समय 13 साल का है। लेकिन 3 साल की उम्र से ही वह इस कदर जुल्म का शिकार हुआ कि वह अभी भी उस डर से मुक्त नहीं हो पा रहा है।
3 साल के शौर्य को कई-कई दिन तक भूखा-प्यासा कमरे में बंद रखा जाता था। इसकी वजह से उसकी हालत विकलांगों की तरह हो गई। उसे  बुरी तरह मारा-पीटा जाता था। उसकी हालत अधमरे की तरह हो जाती थी। शौर्य की हालत ऐसी थी कि करीब 2 साल तक ज्यादातर समय वह हॉस्पिटल में ही रहा। उसे कभी हड्डी टूटने की वजह से तो कभी मस्तिष्क में खून के रिसाव की वजह से और कभी दांत टूटी हालत में तो कभी अधमरी स्थिति में हॉस्पिटल में एडमिट कराया गया। बीते सोमवार कोर्ट ने शौर्य के सगे पिता आर्मी में मेजर रह चुके ललित बलहारा और उनकी दूसरी पत्नी प्रीति बलहारा को हत्या की कोशिश और जूवेनाइल जस्टिस एक्ट के तहत दोषी ठहराया था और इस मामले में अब उन्हें 10-10 साल की सजा सुनाई गई है। इस केस में देश की सामाजिक संवेदना को उस तरह नहीं झकझोरा है जिस तरह नुपुर हत्याकांड को सामाजिक संघर्ष द्वारा न्याय दिलाने की पहल की जाती रही थी। लेकिन यह पहल भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। यहां न्यायालय ने शौर्य पर हुए अत्याचारों को उतनी ही गंभीरता से स्वीकार किया। देश में बालक्रूरता के और भी कई केस हैं जो हमारी व्यवस्था और सामाजिक संवेदना के लिए कलंक की तरह लगते रहे हैं। आज न्यायालय द्वारा दी गई बाल क्रूरता की इन हदों को पार करने के बाद यह सजा एक सबक है, उन लोगों के लिए, जो इस देश में बच्चों को प्रताड़ित करते रहे हैं। ऐसे कई केस हैं। होटलों, ढाबे, घरेलू नौकर, फैक्ट्री और अन्य छोटे मोटे कारोबारों में लगे बच्चों को इस तरह की प्रताड़नाओं से गुजरना पड़ता है। हमें अपने कानूनों की सख्ती के अलावा निगरानी प्रक्रिया में भी आमूल चूल परिवर्तन करना होंगे ताकि इस तरह की प्रताड़नाओं को दोहराया न जा सके।
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 सपा के अराजक सिपाही

समाजवादी पार्टी का शासन अराजक होता है। मायावती की मूर्ति तोड़ने से अराजक शासन का पता चलता है, आखिर यूपी में राजनीतिक अनुशासन भंग क्यों होता है?

अखिलेश यादव को मायावती का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन्होंने अपनी प्रतिमाएं बनवाकर रख छोड़ी थीं और मूर्ति तोड़ने की खबर आने के बाद भी अपने समर्थकों को संयम रखने की सलाह दी वरना उत्तर प्रदेश में सामाजिक अशांति में जल रहा होता। उत्तरप्रदेश की राजनीति की समीक्षा करने वाले ये विचार बहुत गहरी बात कहते हैं। यह भी अच्छा ही हुआ कि तुरत फुरत समाजवादी पार्टी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने मूर्ति को पुन: स्थापित करवा दिया। इस संवेदनशील मामले में अगर कुछ और देर होती तो सपाबसपा समर्थकों में राजनीतिक झड़पें भी हो सकती थीं। ऐसा लगता है कि समाजवादी पार्टी की मूल प्रवृत्ति बन गई है अराजक होना। सपाईयों ने जीत का जश्न किस तरीके से मनाया था, यह भी देश को याद है।
इस मामले में अखिलेश यादव के द्रुत कार्रवाई के आदेशों ने जन जीवन को अराजक होने से बचा लिया। मायावती कि प्रतिमा के तोड़े जाने की खबर मिलते ही जिस तरह से अखिलेश ने प्रशासन को शरारती तत्वों के खिलाफ कार्यवाही और प्रतिमा को उसी रूप में वापस बहाल करने के निर्देश दिए, उससे अधिकारियों और समाजवादी पार्टी के समर्थकों में भी संदेश चला गया कि समाजवादी पार्टी ने टकराव का पुराना रवैया छोड़ दिया है। अब समाजवादी पार्टी के समर्थक दबी जुबान से इस विडंबना को बर्दाश्त करने की बात कर रहे हैं कि सत्ता में आने से पहले मूर्तियों को बुलडोजर से तोड़ने की बात कहने वाले स्वयं मायावती की मूर्ति लगा रहें हैं। समाजवादी पार्टी और सरकार में कई लोग इस राय के थे कि नई मूर्ति लगवाने के बजाय तोड़ी गयी मूर्ति की ही मरम्मत करवा दी जाए। लेकिन मुख्यमंत्री ने उनकी नहीं सुनी और प्रशासन को स्पष्ट निर्देश दिए कि नई मूर्ति लगाई जाए। हालांकि कोई शिल्पकार दो महीने से पहले नई प्रतिमा बनाकर देने को तैयार नहीं था। मगर इसी बीच लखनऊ के जिला मजिस्ट्रेट अनुराग यादव ने अम्बेडकर सामाजिक परिवर्तन स्थल के समीप ही रखी मायावती की दूसरी मूर्ति को खोज   निकलवाया और कारीगर बुलाकर उसे रातोंरात क्षतिग्रस्त प्रतिमा की जगह खड़ी करवा दिया।
मगर मुद्दा यहीं समाप्त नहीं हो गया। यूपी नव निर्माण सेना के अमित जानी नाम के जिस व्यक्ति ने मूर्ति तोड़ने की योजना को अंजाम दिया वह मेरठ में समाजवादी पार्टी का जाना पहचाना नेता है। इसलिए इस घटना ने मायावती को यह मौकÞा दिया है कि वह इस मुद्दे को दलित समुदाय की अस्मिता से जोड़ें। मायावती ने अपनी, अपने नेता कांशी राम और अन्य दलित महापुरुषों की प्रतिमाएं इसी आधार पर सार्वजनिक स्थानों पर लगवाई थीं कि सदियों से दबे कुचले दलित समुदाय का सामाजिक स्वाभिमान बढ़ेगा। यह मायावती का अपनी तरह का अनूठा प्रयास था। एक चुनी हुई सरकार के फैसले को अराजकता से नष्ट नहीं किया जा सकता। सपा अगर खुद को अनुशासित नहीं करती है तो मुलायम जिस बड़ी भूमिका की बात करते हैं वह उनकी ही पार्टी द्वारा फैलाई अराजकता की भेंट चढ़ जाएगी।


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मंगल से आगे

विज्ञान का विकास ही आधुनिकता का आधार है। तकनीक  मनुष्य को क्षमतावान बनाती चली जा रही है। मंगल पर क्यिूरियोसिटी का उतरना, विज्ञान व मनुष्य के रिश्ते को नई परिभाषा देगा।

कु छ बुरे उदाहरणों के कारण विज्ञान को कोसा जाता रहा है। दूसरे विश्व युद्ध में हिरोशिमा और नागाशाकी में परमाणु बम गिरा कर कुछ ही मिनटों में लाखों लोगों को मार दिया गया था और दो शहर सदा के लिए नष्ट कर दिए गए थे। यह विज्ञान के विकास के साथ उससे जुड़े बीसवीं सदी के सबसे क्रूर उदाहरण हैं। लेकिन सबकुछ ऐसा नहीं है। विज्ञान और तकनीक ने अपना सब कुछ मानवीय सभ्यता को नई ऊंचाइयां देने में योगदान दिया है। जिस प्रकार आज हम मंगल तक पहुंचे हैं, यह भविष्य की संभावना है कि मनुष्य किसी दिन उससे भी आगे जाएगा। आंतरिक्ष में मनुष्य की गतिशीलता का यह नया चरण विकास के नए आयामों का सृजन करेगा।
 6 पहियों वाला क्यूरियोसिटी मंगल की सतह पर उतर कर चलने  लगा है। यह आंतरिक्ष विज्ञान की बड़ी सफलता है। अत्याधुनिक उपकरणों और सेंसरों से लैस ये लैंड रोबर निश्चय ही मंगल के बारे में उल्लेखनीय सूचनाएं उपलब्ध कराएगा। उसने अपना काम भी शुरू कर दिया है। छह पहिए जैसे कह रहे हैं अब विकास के आयामों में दो  से चार और चार से छह पहिए लगाए जा चुके हैं। ऊंचाई 3 मीटर, स्पीड औसतन 30 मीटर प्रति घंटा और 900 किलो भारी का यह रोवर मंगल पर 2 साल काम करेगा। इस दौरान यह कम से कम 19 किलोमीटर की दूरी तय करेगा।
रोवर नासा ने 26 नवंबर 2011 को केप कैनेवरल स्पेस स्टेशन से लगभग 5 करोड़ 70 लाख किलोमीटर की यात्रा 253 दिन में पूरी कर मंगल तक पहुंचा है। रोवर मंगल पर रेडियोआइसोटॉप जेनरेटर से मिलने वाली बिजली से चलेगा। इस मिशन में मंगल के मौसम, वातावरण और भूगोल की जांच होगी। इनसे मिले आंकड़ों से तय होगा कि क्या मंगल पर जीवन की क्या संभावनाएं हैं? नासा साइंटिस्टों और इंजिनियरों में कई भारतीय मूल के हैं। यही नहीं, रोवर में लगाए गए एक माइक्रोचिप पर 59,041 भारतीयों के नाम भी दर्ज हैं।
 1960 से अब तक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 39 मार्स मिशन हो चुके हैं। इनमें से 17 को आंशिक या पूर्ण सफलता मिली है। कामयाब होने वाले मिशनों में ज्यादातर अमेरिकी मिशन रहे हैं। इस दिशा में भारत भी प्रयास कर रहा है। केंद्र सरकार की मंजूरी के बाद स्पेस एजेंसी इसरो नवंबर 2013 में एक मार्स आॅर्बिटर लॉन्च करेगा। 450 करोड़ रुपये के इस मिशन में एक सैटलाइट मंगल की सतह के 100 किलोमीटर ऊपर चक्कर काटेगा। यह भविष्य के मंगल अभियानों के लिए जरूरी आंकड़े, नक्शे और जानकारियां जुटाएगा। फिलहाल टीम क्यूरियोसिटी अपने रोबर पर लगातार नजर जमाए है। अब आने वाले वक्त में और इससे मिले आंकड़ों से तय होगा कि क्या मंगल पर जीवन की कोई संभावना है या नहीं। इन आंकाड़ों का मानवीय जीवन की समृद्धि और विकास के लिए क्या इस्तेमाल होगा? यही चीज इसकी सफलता का निर्धारित करेगी? विज्ञान सबके लिए है और क्या सबको इसके लाभ मिलेंगे? उम्मीद है ऐसा ही होगा और ये सफर आगे भी जारी रहेगा।

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आतंकी तमाचा?

पुणे में चार ब्लास्ट हुए। हताहत कोई नहीं हुआ। यह हमारी सुरक्षा एजेंसियों और सरकारों की प्रशासनिक दक्षता पर किए गए विस्फोट तो हैं ही, तमाचे भी हैं।

मुं ह तोड़ जवाब जब नहीं दिए जाते तो निष्ठुरता तमाचा भी मारने लगती है। आतंक के प्रति नरम और बचाव का रुख सरकारी तामझाम पर भारी पड़ रहा है। पुणे में हुए चार विस्फोटों ने इस हकीकत से देश को रूबरू करा दिया है। बार बार विस्फोट होते हैं फिर जांच का तामझाम फैलाया जाता है और आखिर में एक लंबा वक्त। देशवासी शांति का अहसास करने वाले होते हैं कि अचानक फिर विस्फोट हो जाते हैं। हल्की तीव्रता के यह धमाके  मौजूदगी का एहसास कराने के लिए किए गए माने जा रहे हैं। एक पक्ष ये भी है कि ये शरारतन भी हो सकता है। यह पुलिस की गंभीरता भी बताता है कि कोई शरारती चार विस्फोट क्यों करेगा? वास्तव में यह आतंक के खिलाफ हमारी लडाÞई को मारे गए तमाचे हंै। सरकार की रणनीति बचाव की रही है। जबकि उसे समय रहते यह सीख लेना चाहिए ऐसे मामलों में जवाबी कार्रवाई प्रहार की होनी चाहिए, यदि यह एक आतंकी हमला है तो देश को जवाब देना होगा।
देश के नए गृह   मंत्री को पदभार संभाले एक दिन भी नहीं बीता था, कि उन्हीं के गृह राज्य में एक के बाद एक चार धमाके होने की खबर आ गई। पुणे में हुए सिलसिलेवार धमाकों को केंद्र सरकार ने अभी तक आतंकी हमला या धमाका नहीं कहा है। हालांकि इंटेलिजेंस ब्यूरो ने इसे आतंकी वारदात बताया है।
इन विस्फोटों के बाद समूचे देश में और खासकर महानगरों में सतर्कता बढ़ा दी गई है। लेकिन ऐसी सतर्कता का क्या मतलब है जो वक्त से पहले अपने काम को अंजाम न दे पाए। अन्य देशों का उदाहरण दें तो वहां सालों से कोई विस्फोट नहीं हो सका। साजिशें तार तार कर दी गर्इं। इस देश को, इस देश के नेतृत्व की निर्लज्जता का कोई अंत नहीं।
पुणे में जहां धमाके हुए थे, वहां एनएसजी की टीम ने कुछ सबूत इकट्ठा किए हैं। खबर आ रही है कि एफएसएल की शुरुआती जांच में पता चला है कि धमाके में अमोनियम नाइट्रेट और डेटोनेटर का इस्तेमाल किया गया। साथ ही इन धमाकों में इस्तेमाल की गई सभी साइकिलें नई थीं। अब इन साइकिलों को खरीदने वाले शख्स की तलाश की जा रही है। हमारे आपसी विरोधाभासों के हालात भी बहुत बदतर हैं। पुणे के कमिश्नर कह रहे हैं कि विस्फोटों में आतंकियों के हाथ नहीं है। पुलिस के अनुसार विस्फोटों में पेंसिल बमों का इस्तेमाल किया गया। कमिश्नर ने चार विस्फोटों की पुष्टि की है। एक जिंदा बम मिलने की भी खबर है। इससे पहले कहा जा रहा था कि शहर में पांच या फिर छह विस्फोट हुए हैं। आईबी के अनुसार ये धमाके आतंकी साजिश के तहत रखे गए हैं।  बम धमाकों में घायल शख्स दयानंद पाटील को पुलिस ने क्लीन चिट दे दी है।  पाटील का बम धमाकों से कोई ताल्लुक नहीं हैं और उसने बम का बैग महज कौतूहलवश खोला था।
इस मामले में किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले  जांच रिपोर्ट का इंतजार करना होगा। ये सवाल भी सामने है कि देश की एजेंसियां अब भी किसी साजिश का पता लगाने में सक्षम क्यों नहीं हो पा रही हैं?

                                                                                                                      -रविन्द्र स्वप्निल प्रजापति