मंगलवार, अगस्त 28, 2012

क्रिकेट के बहाने राजनीतिक बिसात

    भारतीय जनता पार्टी बनाम कांग्रेस प्रदेश में क्रिकेट के बहाने राजनीतिक बिसात का लंबा खेल खेला गया था। इन चुनावों में कहीं न कहीं विधानसभा चुनावों के समीकरण भी दर्ज हैं।

राजनीति में जीत ही दूरदर्शिता का पैमाना है। यह सच मध्य प्रदेश क्रिकेट संघ (एमपीसीए) के चुनावों में सामने आया। केंद्रीय उद्योग राज्यमंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया और प्रदेश के उद्योग मंत्री कैलाश विजयवर्गीय के पैनल के बीच मुकाबला राजनीतिक खींचतान में बदल गया था, जब सर्वसम्मति से  पदाधिकारियों के चुनाव की जगह निर्वाचन की मांग की गई। गहमा-गहमी के बीच हुए चुनाव में सिंधिया ने न सिर्फ अध्यक्ष पद पर जीत दर्ज की बल्कि उनके पैनल के लोगों ने सभी पदों पर कब्जा जमाया। एमपीसीए के इतिहास में यह पहला मौका था जब सर्वसम्मति की बजाय चुनाव हुए। जीत हार के बाद ये चुनाव अब राजनीति के इंडीकेटर बन कर उभर आए। यह मामला सीधा प्रदेश की राजनीति की छांव में हुआ। इसमें प्रदेश की विधानसभा चुनावों की राजनीतिक समीकरणों का गणित भी छुपा हुआ है। इस चुनाव के माध्यम से एक कांग्रेस ने अपनी चुनावी ताकत को मजबूत बनाया तो भारतीय जनता पार्टी ने अपनी पकड़ का अंदाजा भी लगाया था। अब जब  भाजपा पैनल चुनाव हार गई है तो कांग्रेस  युवा ज्योतिरादित्य सिंधिया को प्रदेश आने वाले विधानसभा चुनावों मे शिवराज सिंह के सामने खड़े करने की स्थिति में होगी।
कांग्रेस पहले से ही शिवराज के समानांतर चेहरे को खोजने-बनाने की कोशिश कर रही थी। इस चुनाव के बाद उसने इसमें सफलता भी हासिल कर ली। अगर सिंधिया एमपीसीए का चुनाव हार जाते तो कांग्रेस प्रदेश में मुंह दिखाने लायक भी शायद नहीं बचती। इससे पहले के कई प्रकरणों में उसने राजनीतिक पटकनी भी खाई है। यही कारण है कि अपनी लाज बचाने के लिए इस चुनाव में कांग्रेस पूरी तरह एक जुट दिखाई दी। सिंधिया पैनल की जीत को राजनीतिक समर्थकों के प्रयास से जोड़कर भी देखा जा रहा है। यह भी उल्लेखनीय है कि सिंधिया के पक्ष में कांग्रेस के बड़े नेताओं के भी वोट मांगे थे। कांग्रेस की जीत में इस एका का भी बड़ा योगदान है, जिससे कांग्रेस बनाम सिंधिया ने जीत को अपने पाले में डाल लिया।
एमपीसीए के अध्यक्ष पद पर सिंधिया वर्ष 2001 से काबिज हैं। इससे पहले उनके पिता माधवराव सिंधिया इस पद की कमान संभाले रहे थे। चुनाव से पहले इस पद को जिस प्रकार की राजनीतिक प्रतिष्ठा प्रदेश मे मिली है, वह पहली बार हुए चुनाव से पहले हासिल नहीं थी। अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ रहे कैलाश विजयवर्गीय को अपनी ही हार से  दोहरा झटका लगा है। इस हार से  उनके कद को कहीं न कहीं झुकाया है। दूसरा इस हार ने अपरोक्ष रूप से भाजपा को भी क्रिकेट-दंगल के इस क्षेत्र में कमजोर साबित किया है। यह चुनाव विजयवर्गीय की राजनीति पर प्रश्न भी खड़े करता है। वह यह कि बखेड़ा खड़ा करने से चुनाव नहीं जीते जाते। 20 सदस्यों की सदस्यता का निलंबन इसका उदाहरण है। कैलाश विजय वर्गीय अनियंत्रित महत्वाकांक्षा से ग्रस्त हैं। वे कहीं न कहीं अपनी सक्रियता में आने वाले मुख्यमंत्री की झलक भी दिखलाते हैं लेनिक वे यह नहीं समझ पा रहे हैं कि चुनावों में  एक तरह से देखा जाए तो अगर चुनाव लड़कर भाजपा ने अपने आप को कम, सिंधिया को अधिक ताकतवर दिखाने में मदद की है।

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