शुक्रवार, अगस्त 30, 2013

संसद की सर्वोच्चता की चिंता



  हमारे सांसद निहित स्वार्थों के उदाहरण बनते जा रहे हैं। संसद की सर्वोच्चता की चिंता, जनप्रतिनिधि कानून में बदलाव जनता की आकांक्षा के खिलाफ, संसद अपने भविष्य की चिंता में डूबा हुआ समूह दिखाई देने लगी है।


आपराधिक मामलों में सजा पाए सांसदों को चुनाव मैदान से दूर रखने की सुप्रीम कोर्ट की कोशिशों को हमारे माननीय सांसदों ने नकार दिया है। राजनीतिक पार्टियों ने राजनीतिक अपराधिकरण के खिलाफ जनता के सामने खूब गाल बजाए हैं लेकिन असल जगह पर वे प्रतिरोध न कर सकीं।  कैबिनेट ने जनप्रतिनिधित्व कानून में बदलाव के फैसले को मंजूरी दे दी है। यह सब सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर संसद का पलट वार ही है। सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका पर कहा था कि अगर किसी आपराधिक मामले में सांसद या विधायक को दो साल से ज्यादा की सजा मिली तो उससे वोट देने का अधिकार छिन जाएगा और वो चुनाव भी नहीं लड़ सकेगा। लेकिन मानसून सत्र से पहले एक सर्वदलीय बैठक में तमाम दलों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सख्त रुख दिखाते हुए इसे बदलने की अपील की थी। इसी विरोध के कारण सरकार जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(4) में बदलाव कर दिया। यह सरकार और राजनीतिक निहित स्वार्थों की मिलीभगत थी। हमारे संविधान का यह अजीब लचीलापन है कि कानून तोड़ने वाला अपराधी ही नए कानून का निर्माता बन जाता है। जबकि देश का सामान्य नागरिक आपराधिक छवि वाले जनप्रतिनिधियों  से  परेशान  है।  राजनीतिक परिदृश्य में उनकी संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। इससे समाज में अपराधियों को प्राश्रय मिलता है और आपराधिक मानसिकता वाले लोग हावी होते हैं। सामाजिक कार्यकर्ता ओमिका दुबे द्वारा दायर याचिका पर गौर करें तो देश में मौजूद 4835 सांसदों और विधायकों में से 1448 के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं। आपराधिक छवि वाले जनप्रतिनिधियों की संख्या में निरंतर बढ़ोत्तरी हो रही है। यह अपराध का राजनीतिकरण है। नामजद और सजायाफ्ता दोषियों को चुनाव लड़ने का अधिकार जनप्रतिनिधित्व कानून के जरिये मिला हुआ था लेकिन इस विधि-सम्मत व्यवस्था के विपरीत संविधान के अनुच्छेद 173 और 326 में प्रावधान है कि न्यायालय द्वारा अपराधी करार दिए लोगों के नाम मतदाता सूची में शामिल नहीं किए जा सकते हैं। यहां सवाल उठता है कि जब संविधान के अनुसार कोई अपराधी मतदाता नहीं बन सकता है तो वह जनप्रतिनिधि बनने के लिए निर्वाचन प्रक्रिया में भागीदारी कैसे कर सकता है? जनहित याचिका इसी विसंगति को दूर करने के लिए दाखिल की गई थी।  न्यायालय ने केन्द्र सरकार से पूछा था कि यदि अन्य सजायाफ्ता लोगों को निर्वाचन प्रक्रिया में हिस्सा लेने का अधिकार नहीं है तो सजायाफ्ता सांसदों व विधायकों को यह सुविधा क्यों मिलनी चाहिए? लेकिन सरकार ने कहा कि वह इस व्यवस्था को नहीं बदलना चाहती। उसने नहीं बदला। हितों के टकराव में सबसे पहले शुचिता पराजय होती है, इस संशोधन में देश की सभी राजनीतिक पार्टियों की स्वीकृति थी। हमारे नेता नहीं चाहते कि राजनीति से अपराधी दूर रहें। इस संशोधन के बाद नेताओं का दागी अतीत, वर्तमान और भविष्य में भी जनप्रतिनिधित्व करता रहेगा।

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युवाओं की कमजोरी
लोकतंत्र में हिंसा की राजनीति स्वीकार्य नहीं हो सकती। भय, भेदभाव और असहिष्णुता जैसे दुर्गुण लोकतंत्र में वैचारिक कमजोरी से आते हैं। लोकतंत्र के लिए युवाओं को वैचारिक दृढ़ता हासिल करना चाहिए।


म ध्यप्रदेश में युवक कांग्रेस में अध्यक्ष पद के उम्मीदवारों के बीच जमकर हंगाम हुआ। हंगामा विचार विमर्श के माध्यम से होता तब भी ठीक था लेकिन इसमें कुछ उम्मीदवार हथियारों के साथ आए थे और कुछ ने इनका इस्तेमाल भी किया। क्या यह युवाओं में लोकतांत्रिक मानसिकता का हास है? ऐसी घटनाएं लगभग सभी पार्टियों में कभी न कभी हुई हैं। लोकतंत्र में धमकी, लोभ, भय, भेदभाव और मानसिक प्रताड़ना का कोई स्थान नहीं है। मानसिक सक्षमता और वैचारिक ताकत ही लोकतंत्र का असली चरित्र है। इसका कारण है कि हम युवाओं को यह विश्वास नहीं दिला सके हैं कि लोकतंत्र में जीत हथियारों की ताकत नहीं सेवा और वैचारिक ताकत से हासिल की जाती  है। इस घटना की व्याख्या ऐसे भी हो सकती है कि कहीं गलत लोग ही इस लोकतंत्र का हिस्सा होने की कोशिश तो नहीं कर रहे हैं। युवा देश के  लोकतांत्रिक इतिहास को नहीं समझेगा, तब तक वह समाज में एक बड़ी जिम्मेदारी के लिए तैयार हो सकता। लोकतंत्र में कच्ची मानसिकता और अधैर्य हथियारों की ओर ले जाता है। क्या युवाओं को लोकतंत्र का अर्थ सिर्फ चुनाव जीतना ही बताया गया है? अगर ऐसा है तो हम सब एक बड़ी भूल कर रहे हैं।
इतिहास को देखें तो भारत की राजनीति को दिशा देने वाले युवाओं में भगत सिंह का नाम सम्मान से लिया जाता है। हिन्दुस्तान के इतिहास में युवा भगत सिंह का होना एक बड़ी घटना थी। मात्र 23 साल की उम्र में उन्होंने देश के विकास के लिए कितने सपने देख डाले थे। देश के युवा उनके इशारों पर फांसी के फंदे को भी चूमने के लिए तैयार रहते थे। उस समय मतवालों की फौज ने ही देश की राजनीति में युवाओं को आगे आने के लिए पथ-प्रदर्शन किया। लेकिन आज यह स्थति नहीं है और बेशक स्थितियां बदली हैं लेकिन आधारभूत तत्व नहीं बदले हैं। प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक व स्तंभकार फ्रेंकलिन पी   एडम्स ने लिखा था- ‘इस देश की परेशानी यह है कि यहां ऐसे कई नेता हैं, जिन्हें अपने तजुर्बे के आधार पर यकीन हंै कि वे लोगों को हमेशा बेवकूफ बना सकते हैं।’ यही चीज हमारे देश के लोकतंत्र में भी लागू होती है। यहां भी कुछ वरिष्ठ नेता सोचते रहते हैं कि वे हमेशा लोगों को भ्रमित करते रह सकते हैं जबकि ऐसा नहीं है। युवा सक्षम और मानसिक रूप से समृद्ध होता जा रहा है। देश में 50 फीसदी से ज्यादा आबादी 40 साल से कम उम्र वाले लोगों की है। यही आंकड़े हमें दुनिया का यंग लोगों को लोकतंत्र बनाते हैं। यही नौजवान किसी भी समाज और देश की सबसे बड़ी ताकत हैं और सबसे बड़े संसाधन भी। किसी देश के विकास की तकदीर युवाओं के माध्यम से लिखी और बदली जाती है। जयप्रकाश नारायण ने भी संपूर्ण क्रांति का सपना इन युवाओं के भरोसे ही देखा था। लेकिन जब युवा भटक जाता है तो विध्वंस की ओर जाता है जहां वह हर चीज नष्ट करने लगता है। हथियारों से लोकतंत्र की लड़ाई नहीं जीती जाती। हमें लोकतंत्र को इस मानसिकता से बचाना है।


चुनौतियों की सुरक्षा
खाद्य सुरक्षा बिल देश के उस आत्मविश्वास का प्रतीक है जिसके बदले देश अपने लोगों को भोजन दे सकता है। दूसरा सवाल ये है कि अगर महंगाई बढ़ती है तो इसका उलटा असर भी हो सकता है।


अंतत: यूपीए सरकार खाद्य सुरक्षा बिल के सहारे लोकसभा चुनावों की नैया पार लगाने के लिए अपने ड्रीम प्रोजेक्ट में सफल हो गई है। यानी बिल पास हो गया है। जनता को अब सस्ती दरों पर अनाज मिलेगा। लेकिन जरूरी सवाल यह है कि देश की जो मौजूदा आर्थिक और वित्तीय स्थिति है, उसमें सरकार फूड सिक्यॉरिटी बिल के अतिरिक्त भार को कैसे संभालेगी?  इस बिल के साथ ही कुछ प्रमुख चुनौतियां भी उभर कर आ रही हैं। बाजार के जानकारों के अनुसार खाद्य सुरक्षा अधिनियम लागू होने के बाद सरकार को अपनी आमदनी में हर साल कम से कम 10-15 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी करनी होगी। अर्थ व्यवस्था के जानकारों के अनुसार बिल के लागू होने के बाद पहले साल का खर्च करीब 1.25 लाख करोड़ रुपये अनुमानित है। यह 2015 तक 1.50 लाख करोड़ रुपए तक पहुंच जाएगा। अहम बात है कि हर साल आबादी बढ़ने के साथ फूड सिक्यॉरिटी बिल का बजट भी बढ़ता जाएगा। इसके साथ ही कीमतों पर कंट्रोल भी किया जाना जरूरी होगा। फूड बिल के तहत राज्यों को सब्सिडी देने के जो दिशा-निर्देश तैयार किए गए हैं, उसके तहत राज्यों को खुले बाजार से वस्तुएं खरीदने की छूट होगी। हालांकि, केंद्र सरकार तय करेगी कि राज्य खुले बाजार से किस सीमा तक महंगी चीजें खरीद सकते हैं? सवाल यह है कि अगर चीजें सरकारी सीमा से ज्यादा महंगी हो गईं तो क्या होगा? मार्केट सर्वे एजेंसी विनायक इंक के प्रमुख विजय सिंह का कहना है कि सरकार को अब थोक और खुले बाजार दोनों की कीमतों में संतुलन बनाए रखना होगा, जोकि एक टेढ़ी खीर है। देश की आर्थिक स्थिति की बात करें तो यह सरकार की महत्वाकांक्षी योजना हो सकती है लेकिन बहुत अधिक और आर्थिक मोर्चे पर बहुत अधिक सुविचारित नहीं कहा जा सकता।  इस समय सरकार के खर्चों पर बात करें तो कुल खर्चा 16.90 लाख करोड़ रुपए है और देश की  कुल आय 12.70 लाख करोड़ रुपये है। इसमें वित्तीय घाटा 5.2 प्रतिशत जीडीपी की तुलना में है।  इस वित्तीय घाटे के अलावा भी कुछ बड़ी दिक्कतें हैं जैसे कि डॉलर के मुकाबले रुपये में गिरावट का लगातार बने रहना। शेयर मार्केट से विदेशी निवेशकों का पलायन, बढ़ती महंगाई, देश से बाहर जाता भारतीय कंपनियों का निवेश, विकास दर में गिरावट आने की आशंका आदि सरकार के सामने बड़ी चुनौतियां होंगी। हालांकि इस पूरे मामले को सिर्फ निराशजनक नजरिये से ही  नहीं देखा जाना चाहिए। सरकार के पास कुछ विकल्प हैं। जैसे कि आमदनी बढ़ाने के लिए टैक्स कलेक्शन में भारी वृद्धि करनी होगी।  इनकम और सर्विस टैक्स का दायरा भी बढ़ाना होगा। निर्यात में कम से कम हर साल 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी के सुनिश्चित प्रयास करना होंगे। आयात में कम से कम हर साल 20 प्रतिशत की कटौती करना होगी। इससे सरकार इस योजना के लिए बजट का संतुलन बना सकती है। लेकिन यह सब कैसे होगा यह सरकार की कुशलता पर निर्भर करता है। 


चुनाव आयोग और मतदाता


निष्पक्ष चुनावों की सारी जिम्मेदारी आयोग निर्वाहन करता है। भारत में चुनाव आयोग की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। लेकिन कालाधन लिए उम्मीदवार और कुछ लोभी मतदाता निष्पक्षता में बड़ी बाधा हैं।                                                                                                                                                                                                                                            

बा त सिर्फ टाटा के कहने की नहीं है। देश की आम जनता भी कई महीनों से चुटकुलों में कहती रही है कि इस देश को कोई नहीं चलाता, यह रामभरोसे चल रहा है। आज हालात ये हो गए हैं कि देश के एक जिम्मेदार और अनुभवी उद्योगपति को राजनेताओं पर बात करना पड़ रही है। नेतृत्व के संकट की बात कहना पड़ रही है। क्यों? इसका एक ही कारण है कि वास्तव में देश को एक सख्त, अनुशासित और मजबूत नेतृत्व की आवश्यकता है। टाटा के कथन के कोई राजनीतिक अर्थ न भी निकाले जाएं तो हमें अपने देश की चिंता करने का अधिकार तो है। देश की अर्थ व्यवस्था पूरे विश्व का हिस्सा है। सफल विदेशनीति के बिना अच्छी अर्थ व्यवस्था संभव नहीं। अफगानिस्तान में भारत के मित्र इस डर से अपनी वफादारी बदल रहे हैं कि 2014 में नाटो सेनाओं की वापसी के बाद वहां पाकिस्तान का प्रभुत्व हो   जाएगा। इधर भारत का राजनीतिक तंत्र ऐसे बर्ताव कर रहा है जैसे कुछ भी गलत नहीं है। वाकई भारत नेतृत्व के संकट का सामना कर रहा है। सोनिया गांधी के पास शक्तियां हैं, लेकिन कोई सरकारी जवाबदेही नहीं है, मनमोहन सिंह के पास जिम्मेदारी है, किंतु कोई शक्ति नहीं है। आज वोट कबाड़ने वाली अदूरदर्शितापूर्ण राजनीति, सख्ती की कमी, भ्रष्टाचार, महंगाई का बार-बार चलने वाला चाबुक, सरकार का अनुशासनहीन मंत्रीमंडल, छोटे दलों की ब्लैकमेलिंग, उनके निहित स्वार्थों की राजनीति और राष्ट्रीय मुद्दों के प्रति ओछा नजरिया आदि, एक लंबी फेहरिश्त है। किसी को पता नहीं देश का राजनीतिक नेतृत्व जनता को छोड़ किसको नेतृत्व दे रहा है। देश की सीमाओं पर हमले हो रहे हैं। सरकार इस मामले में शुतुरमुर्ग की तरह मुंह छिपा लेती है। यह देश असफल कूटनीति, कमजोर अर्थ व्यवस्था और घटिया विदेश नीति को ढोता हुआ लगता है। ये सारी बातें हमें एक सख्त नेतृत्व की मांग की बात करती हैं। देश के नेताओं में किसी विषय पर कोई गंभीरता नहीं नजर आती। वे बचकाने बयान देते हैं।  फेसबुक पर मजाक उड़ता है तो वे उसे ही संपादित करने की बात करने लगते हैं। यह जनता को प्यार करने वाला और दूरदर्शिता से भरा राजनीतिक नेतृत्व नहीं हो सकता। कोई भी व्यक्ति या पार्टी  देश का प्रधानमंत्री बनने के लिए राजी होता है तो इसका मतलब है कि उस देश के नागरिकों के सुख-दुख का जिम्मेदार भी उसे होना होगा। जिम्मेदारियों से बच कर देश का विश्वास नहीं जीता जा सकता। अगर रतन टाटा ने कहा है कि देश में नेतृत्व की कमी के कारण आर्थिक समस्याएं गहरा रही हैं तो उन्होंने गलत नहीं कहा है।  देश को ऐसे नेताओं की जरूरत है जो आगे आकर देश का नेतृत्व करें। इसका अर्थ है कि किसी को नेतृत्व के लिए धकेल कर आगे न किया जाए। देश के जिम्मेदार राजनीतिक वर्ग को एक दिशा में काम करने की जरूरत है। राष्ट्रहित से ऊपर, निजी एजेंडों पर काम नहीं होना चाहिए। आर्थिक स्थिरता सफल राजनीतिक नेतृत्व का प्रतीक कही जा सकती है। उम्मीद है देश के नेता सामूहिक रूप से इस बात के निहितार्थ समझेंगे।

रविवार, अगस्त 25, 2013

MONDAY, APRIL 20, 2009

कीमत है कम

बाजार है बड़ा-मगर कीमत नहीं है
खूबसूरत मॉल है सुन्दर सी शॉपी है
मगर कीमत है कम

छोटी-छोटी कीमत पे बिकता है सब
कला भी है यहां मगर कीमत है कम

कीमत के टैग पे जैसे टंगा है सब
धीरे-धीरे ही सही, बिकता है सब

मैंने भी देखी दुनिया, मैं भी हूं यहीं का
मैंने भी खोला मॉल, मेरे अपने दिल का

लोग आए बहुत-दुनिया के दिलेर बनकर
कोई चैक लाया-हाथों से ख्याति लिखकर
कोई आया मॉल में, रुपयों का रूमाल रखकर
कोई आया यूं ही, जेबों में जिज्ञासा लेकर

मेरे मॉल में है सबका स्वागत
मेरे मॉल में है सबकी आगत
लोग हंसते हैं अपने स्वगत
कुछ लोग यहां हैं बड़े बेगत


मेरे सीने की जागीर मेरे दिल का मॉल है
द्वार पर शहरियों का अजीब हाल है
मॉल में हर तरफ मुहब्बत का जाल है
मॉल में एक से बढ़कर एक सामान है

प्यार की मूरत है, लौंडी खूबसूरत है
कर ले कोई मैरिज, खुली सूरत है


सोच में बैठे हैं सब सर माथे को लिए
मैंनेजमैंट की डिग्री में कहीं ये व्यापार नहीं
व्यापार की दुनिया में ये कैसा व्यापार है
माल है और सजा है सब
बिकने की शर्त पे रख है सब

मगर लोगों का कैश है रखा है सब
न चलता है न फु दकता है
कुछ तो मायूस हो लौट गए
कुछ जिद्दी हैं अहंकारी डटे हैं

इस दुनिया से बाहर रखा क्या है
कहते हैं माल कुछ लेके जाएंगे यहां से
ये कौन समझाए उनको
इस माल में चलता नहीं डालर

इस माल में चलते हैं वे सिक्के
जिनपे कीमत भी खुद खोदना है
न सरकार है न टैक्स है यहां
बस कीमत थोड़ी देना है यहां
मेरे सीने की जागीर पर खुला दिल का माल है
यहां चलता है सिक्का मगर किसी और का नहीं

रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
आपके सुझावों और कविता में प्रयोग, बिम्ब, शीर्षक आदि के सुधार के लिए विचार और सलाह आमंत्रित है।

शुक्रवार, अगस्त 23, 2013

न रेंद्र दाभोलकर की हत्या

  अंधविश्वास और जादू टोना के खिलाफ संघर्ष कर रहे पेशे से डॉक्टर नरेंद्र दाभोलकर की शहादत के बाद महाराष्ट्र सरकार ने अंधविश्वास एक्ट लाने का फैसला किया है जबकि यह बहुत पहले होना चाहिए था।


रेंद्र दाभोलकर की हत्या से यह तो साबित हो गया है किसी व्यक्ति को भूत प्रेत और जादू टोना से नहीं मारा  जा सकता। जादू टोना और अंध विश्वास की दम पर जनता को गुमराह करने वाले उनके दुश्मन थे। दाभोलकर की शहादत ने यह तो साबित कर दिया है कि वैज्ञानिक सोच के दुश्मन इस लोकतंत्र में पल रह हैं। इस विज्ञान की प्रधानता वाले समय में सबसे अधिक अंध आस्था और अंधविश्वासों से भरे काला जादू टोने टोटकों को जिस माध्यम ने सबसे प्रचारित किया है उनमें मीडिया की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। अंध विश्वास के कारण होने वाले अपराधों की आधिकारिक रिपोर्टें बताती हैं कि  केवल असम जैसे छोटे राज्य में 2001 से लेकर 2012 तक डायनों की मान्यता के चलते 61 लोग मारे जा चुके हैं। लेकिन आज तक एक भी मामले में सजा नहीं हुई है। जो लोग डायन बताकर हत्या करते हैं, वे बच निकलते हैं, क्योंकि ऐसे मामलों में कोई गवाह  नहीं मिलता है। इसके अलावा किसी एक को दोषी बताना संभव नहीं होता क्योंकि यह काम भीड़ करती है।
आज इलेक्ट्रिोनिक मीडिया, इंटरनेट आदि साधनों के माध्यम से धन बढ़ाने वाले अधंविश्वास, सामाजिक भेदभाव बढ़ाने वाले अंधविश्वासों ने समाज ेमें विज्ञान की महत्ता, ईमानदारी, सादगी जैसे विचारों को एक तरफ रख दिया है।  अंधआस्था की आंधी में वैज्ञानिक लोकतंत्रिक विचारधारा में रहने वालों को भी प्रभावित किया है। कई नेता समाज सेवा की जगह इन अंध आस्थाओं को बढ़ावा देते रहे हैं। श्रद्धा और अंधश्रद्धा में फर्क है। श्रद्धा हमें विवेकवान बनाती है। अंधश्रद्धा विवेक को खारिज कर देती है, तर्क का तिरस्कार करती है। श्रद्धा किस जगह पहुंच कर अंधश्रद्धा का रूप ले लेती है, यह अकसर मालूम नहीं चलता। लोग अंधश्रद्धा को ही धर्म तक समझ लेते हैं। आज से करीब छह शताब्दी पहले संत कबीरदास ने अंधश्रद्धा की अमानवीयता को शिद्दत से महसूस किया था। कबीर संत थे। ईश्वर में गहरा यकीन करते थे। लेकिन, ईश्वर के विधान के नाम पर समाज में व्याप्त अंधविश्वासों की उन्होंने आलोचना की। अंधविश्वासों के नाम पर होनेवाले सामाजिक भेदभाव, अस्पृश्यता की अमानवीयता के खिलाफ आधुनिक वैज्ञानिक सोच वाले लोगों  ने लंबा संघर्ष किया। दाभोलकर उनमें से एक थे। इस आस्था में छिपे शोषण को उजागर किया। आज तमाम तरक्की के बावजूद 21वीं सदी में भी यह संघर्ष आसान नहीं हुआ है, बल्कि मौत का खेल हो गया है!  पेशे से डॉक्टर रहे दाभोलकर तंत्र-मंत्र, जादू-टोना व दूसरे अंधविश्वासों को दूर करने के मिशन में जिस तरह से लगे हुए थे। वह धर्म के स्वयंभू ठेकेदारों को कभी रास नहीं आया। दाभोलकर की हत्या एक व्यक्ति की हत्या नहीं है, यह एक लंबे समर्पण के  बाद वैज्ञानिक तार्किक आधुनिक विचारों की हत्या है। उन्हें आधुनिक कबीर की संज्ञा दी जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। आज अंधविश्वास और भेदभाव को रोकना लोक कल्याणकारी सरकारों की प्राथमिकता में शामिल होना चाहिए।

शुक्रवार, अगस्त 09, 2013

बाजार आनलाइन

 

भारत में इंटरनेट उपयोग करने वाले आज दस फीसदी लोग ही आनलाइन शॉपिंग करते हैं।  आने वाले समय में इंटरनेट पर शॉपिंग करने वालों की संख्या में काफी इजाफा होगा। कंपनियां तैयार हैं।

आने वाले आॅनलाइन वक्त की आहट तकनीकी और बाजार दोनों में दिखाई देने लगी। हाल ही में देश की सबसे बड़ी आॅनलाइन शापिंग वेबसाइट फ्लिपकार्ट ने 1200 करोड़ जुटाकर आॅनलाइन बिजनेस में नई हलचल पैदा कर दी। देश में बढ़ रहे ई-बाजार में पैठ जमाने के लिए आॅनलाइन शॉपिंग कंपनियां कमर कस रही हैं। अमेजन की एंट्री के बाद तो देश में ई-कॉमर्स का बिजनेस बेहद गरम हो गया है। एक साल पहले 3000 रुपये का फोन और 1 रूपये में इंटरनेट जैसे नारे नए ग्राहकों का बूम लेकर आते हैं। यह इसलिए भी सफल होने जा रहा है कि इसमें ग्राहक को घर से बाहर नहीं निकलना होता है। टेलीकॉम कंपनियों का ये पैंतरा आॅनलाइन शॉपिंग वेबसाइटों को बहुत भा रहा है। दरअसल स्मार्टफोन पर इंटरनेट के बढ़ते चलन ने छोटे शहरों के खरीदारों को सीधे इन वेबसाइटों से जोड़ दिया है। आॅनलाइन शॉपिंग वेबसाइटों के मुताबिक छोटे शहरों के खरीदारों की संख्या लगातार बढ़ रही है। टेक्नोपेक के अनुमान के मुताबिक 2020 तक भारत में ई-कॉमर्स का कारोबार 12 लाख करोड़ रूपए का हो जाएगा। दरअसल ये दौड़ इसी बाजार पर कब्जा जमाने की है।  इस साल अब तक आॅनलाइन शॉपिंग कंपनियां करीब 1000 करोड़ रूपये जुटा चुकी हैं। और हाल ही में अकेले फ्लिपकार्ट ने 1200 करोड़ रूपये जुटाए हैं। कंपनियों के मुताबिक भारत में ई-कॉमर्स का दूसरा दौर शुरू हो चुका है। हालांकि ई-कॉमर्स कंपनियों की लागत अभी भी ’यादा है। इसलिए अधिकतर आॅनलाइन कंपनियां मार्केटप्लेस मॉडल को अपना रही है जहां थर्ड पार्टी सीधे अपना सामान बेच सकती हैं। जानकारों के मुताबिक भारत में इंटरनेट उपयोग करने वाले सिर्फ दस फीसदी लोग ही आॅनलाइन शॉपिंग करते हैं। आगे आने वाले समय में इंटरनेट पर शॉपिंग करने वालों की संख्या में काफी इजाफा होगा।
देश की प्रमुख चाय कम्पनी गुडरिक अंतराष्ट्रीय बाजार में आॅनलाइन बिक्री करने के लिए अपने वेबसाइट में सुधार कर रही है। गुडरिक ब्रिटेन की कैमेलिया पीएलसी समूह की कम्पनी है। कई छोटी बड़ी कंपनियां भी इस कारोबार में पूरी तरह तैयार होकर उतर रही हैं।
गुडरिक जैसी कई कंपनियों ने घरेलू और अंतराष्ट्रीय बाजार में एक साथ आॅनलाइन बिक्री करने के लिए अपनी कम्पनियों ने पहले ही वेबसाइट में सुधार करने के लिए एजेंसियों को नियुक्त कर लिया है। कई कंपनियों के उच्च अधिकारियों के अनुसार अगले छह महीने में अंतराष्ट्रीय ई-सेलिंग के लिए भारतीय वेबसाइटों व्यापक रूप से सुधार होने जा रहा है। वर्तमान में जो  सॉफ्टवेयर उपयोग किए जा रहे हैं वे सिर्फ भारत में ई-सेलिंग के लिए ठीक है। लेकिन अंतराष्ट्रीय बिक्री में दिक्कत आती है। आने वाले समय में ई बाजार की यह अवधारणा बाजार की मुख्यधारा होगी। देश की कंपनियों और इस विषय के जानकारों को रोजगार मिलेगा लेकिन इस सेवा में होने वाली दिक्कतों के लिए कानून की आवश्यकता भी होगी।

कागज और पर्यावरण

 आलेख

कागज और पर्यावरण

रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
टॉप -12, हाई लाइफ कॉम्पलेक्स चर्च रोड, जहांगीराबाद, भोपाल
संपक्र 0755 4057852
982682660


कागज हमारे चारों तरफ है और हर रोज इस्तेमाल में भी आता है। हम शायद ही कभी यह एहसास करते हैं कि हम जिस कागज पर लिख रहे हैं वह हजारों एकड़ जंगल की लड़की को काट कर बनाया गया है। कागज हमारे जंगलों को कितना नष्ट कर रहा है, इसके तथ्यों की जानकारी हमें पर्यावरण को हो रहे नुकसान को बता सकती है। दस जुलाई कागज विहीन दिवस है। इस दिन स्कूली बच्चों और कार्यालयों में कागज का इस्तेमाल नहीं करने की परंपरा है।
इस परंपरा को तोड़ने के लिए देश में कई संस्थाएं, आयोग और कंपनियां अपने स्तर पर काम कर रहे हैं।  यहां कुछ उदाहरण दिए जा रहे हैं जो कागज को बचाने के माध्यम से जंगल बचाने की मुहीम तक जाते हैं। बीमा नियामक एवं विकास प्राधिकरण (आईआरडीए) बीमा पॉलिसियों को कागज विहीन करने व इसके लिए एक कोष की स्थापना पर विचार कर रहा है। यह व्यवस्था शेयर बाजार के डीमैट खातों की तर्ज पर की जाएगी। आईआरडीए के सदस्य सुधीन रॉय चौधरी ने इस बारे में जानकारी देते हुए कहा कि हालांकि यह प्रस्ताव प्रारंभिक स्तर पर है। लेकिन आने वाले समय में निगम के ग्राहक बीमा पॉलिसियों को कागजी स्वरूप में रखने की बजाय डीमैट व कागज विहीन स्वरूप में रख सकेंगे। हालांकि शेयर बाजार की तरह कागज विहीन पॉलिसी अनिवार्य नहीं, बल्कि ऐच्छिक होगी व ग्राहक के पास इसे लेने या न लेने का विकल्प होगा। इसके लिए एक पृथक व स्वायत्त संस्था का गठन किया जाएगा। इस संस्था का नियमन भी आईआरडीए ही करेगा। यह एक समाचार है जो हमें बताता है कि पेपर लेस होने की दिशा में हम किस तरह कदम बढ़ा रहे हैं।
कागज को खर्च करने में कई उद्योग और संस्थाएं हैं जहां कागज एक बार इस्तेमाल होने के बाद बेकार हो जाता है। यह मात्रा बेहद अधिक होती है। हमारी संसद में जब कुछ लाइनों का एक प्रश्न पूजा जाता है तो उसमें खर्च होने वाले कागज का अनुमान लगाया जा सकता है। इस संबंध में जो जानकारी है उससे अनुमान लगाया जा सकता है कि हम कितना कागज खत्म करते हैं। संसद के किसीसत्र में प्रश्नकाल के दौरान पूछे गए हरेक सवाल पर गृह मंत्रालय का जवाब करीब 113 पृष्ठों में होता है। मीडिया में बांटने के लिए इसकी औसतन 500 प्रतियां तैयार की जाती हैं। इस प्रकार महज एक प्रश्न पर कुल मिलाकर करीब 56,500 पृष्ठों की खपत होती है। रिकॉर्ड के अनुसार, गृह मंत्रालय को नियमित तौर पर भेजे गए प्रश्नों की संख्या (821) सबसे अधिक है, जिसके बाद 665 प्रश्नों के साथ वित्त मंत्रालय का स्थान है। इस कवायद की न केवल वित्तीय लागत बल्कि इस पर खर्च होने वाले कागज की मात्रा पर गौर करने से ही दिमाग चकरा जाता है। इसलिए कागज बचाओ अभियान के तहत संसद अब प्रश्नकाल की प्रक्रिया को कागज रहित बनाने की तैयारी करती रही है लेकिन अभी उस पर अमल करने जैसा कुछ सामने नहीं आया है। इसके तहत सरकार अब प्रश्नकाल के दौरान सवाल-जवाब की मुद्रित प्रति बांटने के बजाय कागज बचाने की हर संभव उपाय करने की कोशिश कर रही है। वास्तव में पर्यावरण के अनुकूल यह पहल पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) के दिमाग की उपज है।
पीआईबी के अधिकारियों ने बताया कि शुरू में एक संसदीय समिति विभिन्न कार्यालयों में कागज का उपयोग कम करने के उपायों पर विचार कर रही थी। समिति ने कागज के उपयोग में कटौती करने का सुझाव दिया और कई सांसदों और नौकरशाहों ने इस पहल का स्वागत किया। उधर, पीआईबी ने प्रश्नकाल के दौरान मीडिया को सवाल-जवाबों की मुद्रित के बजाय इलेक्ट्रॉनिक प्रारूप में देने का सुझाव दिया। पीआईबी के एक अधिकारी ने कहा, प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों मीडिया समाचार एकत्रित करने के लिए नियमित तौर पर आॅनलाइन प्लेटफॉर्म एक्सेस करता है। ऐसे में संसद में पूछे गए सवालों को आॅनलाइन एक्सेस करने में उसे कोई कठिनाई नहीं होगी। उन्होंने कहा कि यह हमारी ई-गवर्नेंस और कागज विहीन कार्यालय पहल का हिस्सा है। फिलहाल लोकसभा में 545 सदस्य और राज्यसभा में 250 सदस्य हैं जिन्हें नियमित तौर पर प्रश्नकाल के दौरान पूछे गए सवाल-जवाबों की मुद्रित प्रतियां दी जाती हैं। हालांकि राज्यसभा ने 1 मार्च, 2013 से सवालों की मुद्रित प्रतियां बांटना बंद कर दिया है, लेकिन लोकसभा में संसद के अगले सत्र से ही इस पर रोक लगाई जा सकती है। बहरहाल, पीआईबी के प्रयास से संसद में कागज के उपयोग पर लगाम लगेगी। पहले मीडिया में बांटने के लिए प्रश्नकाल के सवाल-जवाबों की 500 प्रति मुद्रित की जाती थीं, लेकिन इस बजट सत्र से संसद में बांटने के लिए केवल 200 प्रतियां ही मुद्रित की जाएंगी। पीआईबी की प्रधान महानिदेशक नीलम कपूर ने कहा, हम कुछ समय से ऐसा करने पर विचार कर रहे थे। हमने सीडी इत्यादि में सवाल-जवाब भेजने के लिए सभी मंत्रालयों के सचिवों को पत्र लिखा। ऐसा संभव होने पर हमने प्रश्न पत्रों को मुद्रित प्रारूप में वितरण पर रोक लगाने का निर्णय लिया।
इस दिशा में इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद भी बहुत सहायता कर रहे हैं। करेंसी और अन्य प्रकार से कागज के उपयोग पर अंकुश लगेगा। भारत में 10 वर्षों के भीतर एक अरब लोग मोबाइल फोन के संपर्क माध्यम से जुÞड जाएंगे और स्वास्थ्य, शिक्षा   और सामाज सेवा सहित सब कुछ मोबाइल फोन सेवा के जरिए संपन्न होगा। इस तरह तीन दशक के भीतर सभी तरह का लेने-देन डिजिटल हो जाएगा, लिहाजा कागज के नोट लुप्त हो जाएंगे। यह अनुमान व्यक्त किया है सार्वजनिक सूचना, अधोसंरचना और उन्नयन पर प्रधानमंत्री के सलाहकार तथा राष्ट्रीय नवप्रवर्तन परिषद के अध्यक्ष सैम पित्रोदा ने। पित्रोदा का मानना है कि वर्तमान में वैश्विक स्तर पर लगभग पांच अरब मोबाइल फोन के उपयोग और प्रति वर्ष जारी होने वाले 10 अरब से अधिक के्रडिट कार्ड एवं डेबिट कार्ड के कारण 30 वर्षो के भीतर कागज के नोटों की अहमियत लगभग समाप्त हो जाएगी। कैसियो डिजिटल डायरी के अनुसंधानकर्ता पित्रोदा ने अपने ताजा नवप्रवर्तन डिजिटल वैलेट के बारे में बातचीत के दौरान कहा, तीन दशक के भीतर लेने-देन डिजिटल हो जाएगा, लिहाजा कागज के नोट लुप्त हो जाएंगे। पित्रोदा ने आईएएएनएस के साथ एक साक्षात्कार में कहा, यदि आप अपने घर और कार्यालय को कागज विहीन बना सकते हैं, तो बैंक, व्यापार और अपने बटुए को क्यों नहीं? पित्रोदा ने अपने इस विचार को अपनी हालिया प्रकाशित पुस्तक द मार्च आॅफ मोबाइल मनी: द फ्यूचर आॅफ लाइफस्टाइल मैनेजमेंट व्यक्त किया है। पित्रोदा ने कहा, मोबाइल टेलीफोन सेवा उपलब्ध कराने वाली हर कंपनी इसे अपनाएगी। प्रति उपभोक्ता औसत राजस्व में कमी के कारण डिजिटल बटुआ अधिक उपभोक्ताओं को आकर्षित कर सकता है। यह पूरी तरह सुरक्षित है। पित्रोदा की पुस्तक भारत में मोबाइल फोन के विकास पर केंद्रित है, जो कि देश में तेजी के साथ जीवन शैली में शुमार होता जा रहा है। पित्रोदा ने कहा, मोबाइल क्रांति किसी बÞडी रेलगÞाडी के आने जैसा है।
इस समय  देश में 65 करोÞड से अधिक लोग मोबाइल फोन संपर्क से जुÞडे हुए हैं, जबकि चीन में 79.50 करोÞड लोग मोबाइल फोन से जुÞडे हुए हैं। मोबाइल प्रतिदिन माह कई हजार टन बचाने का लोकप्रिय माध्यम बनने जा रहा है। क्योंकि डिजिटल रूप में रसीदों के आने से यह बचत होगी। कागज वनों की खपत का सबसे बड़ा उपभोग्ता है। जंगल बचाने के लिए हम बडेÞ स्तर पर कागज के उपयोग से दूर होना ही होगा। रिसाइकिल के लिए नवीनतम तकनीकों के प्रति उत्सुक होना होगा। कागजविहीन दिवस का अर्थ यही है कि हम कागज के उपयोग से होने वाले पर्यावरणीय नुकसानों को समझ सकें।

रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति,  ग्रीनअर्थ वि वे सोसयटी, मप्र के निदेशक
ग्रीनअर्थ जैविक खेती और पर्यावरण के लिए काम करने वाल संस्थान है