शुक्रवार, अगस्त 30, 2013

संसद की सर्वोच्चता की चिंता



  हमारे सांसद निहित स्वार्थों के उदाहरण बनते जा रहे हैं। संसद की सर्वोच्चता की चिंता, जनप्रतिनिधि कानून में बदलाव जनता की आकांक्षा के खिलाफ, संसद अपने भविष्य की चिंता में डूबा हुआ समूह दिखाई देने लगी है।


आपराधिक मामलों में सजा पाए सांसदों को चुनाव मैदान से दूर रखने की सुप्रीम कोर्ट की कोशिशों को हमारे माननीय सांसदों ने नकार दिया है। राजनीतिक पार्टियों ने राजनीतिक अपराधिकरण के खिलाफ जनता के सामने खूब गाल बजाए हैं लेकिन असल जगह पर वे प्रतिरोध न कर सकीं।  कैबिनेट ने जनप्रतिनिधित्व कानून में बदलाव के फैसले को मंजूरी दे दी है। यह सब सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर संसद का पलट वार ही है। सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका पर कहा था कि अगर किसी आपराधिक मामले में सांसद या विधायक को दो साल से ज्यादा की सजा मिली तो उससे वोट देने का अधिकार छिन जाएगा और वो चुनाव भी नहीं लड़ सकेगा। लेकिन मानसून सत्र से पहले एक सर्वदलीय बैठक में तमाम दलों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सख्त रुख दिखाते हुए इसे बदलने की अपील की थी। इसी विरोध के कारण सरकार जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(4) में बदलाव कर दिया। यह सरकार और राजनीतिक निहित स्वार्थों की मिलीभगत थी। हमारे संविधान का यह अजीब लचीलापन है कि कानून तोड़ने वाला अपराधी ही नए कानून का निर्माता बन जाता है। जबकि देश का सामान्य नागरिक आपराधिक छवि वाले जनप्रतिनिधियों  से  परेशान  है।  राजनीतिक परिदृश्य में उनकी संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। इससे समाज में अपराधियों को प्राश्रय मिलता है और आपराधिक मानसिकता वाले लोग हावी होते हैं। सामाजिक कार्यकर्ता ओमिका दुबे द्वारा दायर याचिका पर गौर करें तो देश में मौजूद 4835 सांसदों और विधायकों में से 1448 के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं। आपराधिक छवि वाले जनप्रतिनिधियों की संख्या में निरंतर बढ़ोत्तरी हो रही है। यह अपराध का राजनीतिकरण है। नामजद और सजायाफ्ता दोषियों को चुनाव लड़ने का अधिकार जनप्रतिनिधित्व कानून के जरिये मिला हुआ था लेकिन इस विधि-सम्मत व्यवस्था के विपरीत संविधान के अनुच्छेद 173 और 326 में प्रावधान है कि न्यायालय द्वारा अपराधी करार दिए लोगों के नाम मतदाता सूची में शामिल नहीं किए जा सकते हैं। यहां सवाल उठता है कि जब संविधान के अनुसार कोई अपराधी मतदाता नहीं बन सकता है तो वह जनप्रतिनिधि बनने के लिए निर्वाचन प्रक्रिया में भागीदारी कैसे कर सकता है? जनहित याचिका इसी विसंगति को दूर करने के लिए दाखिल की गई थी।  न्यायालय ने केन्द्र सरकार से पूछा था कि यदि अन्य सजायाफ्ता लोगों को निर्वाचन प्रक्रिया में हिस्सा लेने का अधिकार नहीं है तो सजायाफ्ता सांसदों व विधायकों को यह सुविधा क्यों मिलनी चाहिए? लेकिन सरकार ने कहा कि वह इस व्यवस्था को नहीं बदलना चाहती। उसने नहीं बदला। हितों के टकराव में सबसे पहले शुचिता पराजय होती है, इस संशोधन में देश की सभी राजनीतिक पार्टियों की स्वीकृति थी। हमारे नेता नहीं चाहते कि राजनीति से अपराधी दूर रहें। इस संशोधन के बाद नेताओं का दागी अतीत, वर्तमान और भविष्य में भी जनप्रतिनिधित्व करता रहेगा।

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युवाओं की कमजोरी
लोकतंत्र में हिंसा की राजनीति स्वीकार्य नहीं हो सकती। भय, भेदभाव और असहिष्णुता जैसे दुर्गुण लोकतंत्र में वैचारिक कमजोरी से आते हैं। लोकतंत्र के लिए युवाओं को वैचारिक दृढ़ता हासिल करना चाहिए।


म ध्यप्रदेश में युवक कांग्रेस में अध्यक्ष पद के उम्मीदवारों के बीच जमकर हंगाम हुआ। हंगामा विचार विमर्श के माध्यम से होता तब भी ठीक था लेकिन इसमें कुछ उम्मीदवार हथियारों के साथ आए थे और कुछ ने इनका इस्तेमाल भी किया। क्या यह युवाओं में लोकतांत्रिक मानसिकता का हास है? ऐसी घटनाएं लगभग सभी पार्टियों में कभी न कभी हुई हैं। लोकतंत्र में धमकी, लोभ, भय, भेदभाव और मानसिक प्रताड़ना का कोई स्थान नहीं है। मानसिक सक्षमता और वैचारिक ताकत ही लोकतंत्र का असली चरित्र है। इसका कारण है कि हम युवाओं को यह विश्वास नहीं दिला सके हैं कि लोकतंत्र में जीत हथियारों की ताकत नहीं सेवा और वैचारिक ताकत से हासिल की जाती  है। इस घटना की व्याख्या ऐसे भी हो सकती है कि कहीं गलत लोग ही इस लोकतंत्र का हिस्सा होने की कोशिश तो नहीं कर रहे हैं। युवा देश के  लोकतांत्रिक इतिहास को नहीं समझेगा, तब तक वह समाज में एक बड़ी जिम्मेदारी के लिए तैयार हो सकता। लोकतंत्र में कच्ची मानसिकता और अधैर्य हथियारों की ओर ले जाता है। क्या युवाओं को लोकतंत्र का अर्थ सिर्फ चुनाव जीतना ही बताया गया है? अगर ऐसा है तो हम सब एक बड़ी भूल कर रहे हैं।
इतिहास को देखें तो भारत की राजनीति को दिशा देने वाले युवाओं में भगत सिंह का नाम सम्मान से लिया जाता है। हिन्दुस्तान के इतिहास में युवा भगत सिंह का होना एक बड़ी घटना थी। मात्र 23 साल की उम्र में उन्होंने देश के विकास के लिए कितने सपने देख डाले थे। देश के युवा उनके इशारों पर फांसी के फंदे को भी चूमने के लिए तैयार रहते थे। उस समय मतवालों की फौज ने ही देश की राजनीति में युवाओं को आगे आने के लिए पथ-प्रदर्शन किया। लेकिन आज यह स्थति नहीं है और बेशक स्थितियां बदली हैं लेकिन आधारभूत तत्व नहीं बदले हैं। प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक व स्तंभकार फ्रेंकलिन पी   एडम्स ने लिखा था- ‘इस देश की परेशानी यह है कि यहां ऐसे कई नेता हैं, जिन्हें अपने तजुर्बे के आधार पर यकीन हंै कि वे लोगों को हमेशा बेवकूफ बना सकते हैं।’ यही चीज हमारे देश के लोकतंत्र में भी लागू होती है। यहां भी कुछ वरिष्ठ नेता सोचते रहते हैं कि वे हमेशा लोगों को भ्रमित करते रह सकते हैं जबकि ऐसा नहीं है। युवा सक्षम और मानसिक रूप से समृद्ध होता जा रहा है। देश में 50 फीसदी से ज्यादा आबादी 40 साल से कम उम्र वाले लोगों की है। यही आंकड़े हमें दुनिया का यंग लोगों को लोकतंत्र बनाते हैं। यही नौजवान किसी भी समाज और देश की सबसे बड़ी ताकत हैं और सबसे बड़े संसाधन भी। किसी देश के विकास की तकदीर युवाओं के माध्यम से लिखी और बदली जाती है। जयप्रकाश नारायण ने भी संपूर्ण क्रांति का सपना इन युवाओं के भरोसे ही देखा था। लेकिन जब युवा भटक जाता है तो विध्वंस की ओर जाता है जहां वह हर चीज नष्ट करने लगता है। हथियारों से लोकतंत्र की लड़ाई नहीं जीती जाती। हमें लोकतंत्र को इस मानसिकता से बचाना है।


चुनौतियों की सुरक्षा
खाद्य सुरक्षा बिल देश के उस आत्मविश्वास का प्रतीक है जिसके बदले देश अपने लोगों को भोजन दे सकता है। दूसरा सवाल ये है कि अगर महंगाई बढ़ती है तो इसका उलटा असर भी हो सकता है।


अंतत: यूपीए सरकार खाद्य सुरक्षा बिल के सहारे लोकसभा चुनावों की नैया पार लगाने के लिए अपने ड्रीम प्रोजेक्ट में सफल हो गई है। यानी बिल पास हो गया है। जनता को अब सस्ती दरों पर अनाज मिलेगा। लेकिन जरूरी सवाल यह है कि देश की जो मौजूदा आर्थिक और वित्तीय स्थिति है, उसमें सरकार फूड सिक्यॉरिटी बिल के अतिरिक्त भार को कैसे संभालेगी?  इस बिल के साथ ही कुछ प्रमुख चुनौतियां भी उभर कर आ रही हैं। बाजार के जानकारों के अनुसार खाद्य सुरक्षा अधिनियम लागू होने के बाद सरकार को अपनी आमदनी में हर साल कम से कम 10-15 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी करनी होगी। अर्थ व्यवस्था के जानकारों के अनुसार बिल के लागू होने के बाद पहले साल का खर्च करीब 1.25 लाख करोड़ रुपये अनुमानित है। यह 2015 तक 1.50 लाख करोड़ रुपए तक पहुंच जाएगा। अहम बात है कि हर साल आबादी बढ़ने के साथ फूड सिक्यॉरिटी बिल का बजट भी बढ़ता जाएगा। इसके साथ ही कीमतों पर कंट्रोल भी किया जाना जरूरी होगा। फूड बिल के तहत राज्यों को सब्सिडी देने के जो दिशा-निर्देश तैयार किए गए हैं, उसके तहत राज्यों को खुले बाजार से वस्तुएं खरीदने की छूट होगी। हालांकि, केंद्र सरकार तय करेगी कि राज्य खुले बाजार से किस सीमा तक महंगी चीजें खरीद सकते हैं? सवाल यह है कि अगर चीजें सरकारी सीमा से ज्यादा महंगी हो गईं तो क्या होगा? मार्केट सर्वे एजेंसी विनायक इंक के प्रमुख विजय सिंह का कहना है कि सरकार को अब थोक और खुले बाजार दोनों की कीमतों में संतुलन बनाए रखना होगा, जोकि एक टेढ़ी खीर है। देश की आर्थिक स्थिति की बात करें तो यह सरकार की महत्वाकांक्षी योजना हो सकती है लेकिन बहुत अधिक और आर्थिक मोर्चे पर बहुत अधिक सुविचारित नहीं कहा जा सकता।  इस समय सरकार के खर्चों पर बात करें तो कुल खर्चा 16.90 लाख करोड़ रुपए है और देश की  कुल आय 12.70 लाख करोड़ रुपये है। इसमें वित्तीय घाटा 5.2 प्रतिशत जीडीपी की तुलना में है।  इस वित्तीय घाटे के अलावा भी कुछ बड़ी दिक्कतें हैं जैसे कि डॉलर के मुकाबले रुपये में गिरावट का लगातार बने रहना। शेयर मार्केट से विदेशी निवेशकों का पलायन, बढ़ती महंगाई, देश से बाहर जाता भारतीय कंपनियों का निवेश, विकास दर में गिरावट आने की आशंका आदि सरकार के सामने बड़ी चुनौतियां होंगी। हालांकि इस पूरे मामले को सिर्फ निराशजनक नजरिये से ही  नहीं देखा जाना चाहिए। सरकार के पास कुछ विकल्प हैं। जैसे कि आमदनी बढ़ाने के लिए टैक्स कलेक्शन में भारी वृद्धि करनी होगी।  इनकम और सर्विस टैक्स का दायरा भी बढ़ाना होगा। निर्यात में कम से कम हर साल 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी के सुनिश्चित प्रयास करना होंगे। आयात में कम से कम हर साल 20 प्रतिशत की कटौती करना होगी। इससे सरकार इस योजना के लिए बजट का संतुलन बना सकती है। लेकिन यह सब कैसे होगा यह सरकार की कुशलता पर निर्भर करता है। 


चुनाव आयोग और मतदाता


निष्पक्ष चुनावों की सारी जिम्मेदारी आयोग निर्वाहन करता है। भारत में चुनाव आयोग की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। लेकिन कालाधन लिए उम्मीदवार और कुछ लोभी मतदाता निष्पक्षता में बड़ी बाधा हैं।                                                                                                                                                                                                                                            

बा त सिर्फ टाटा के कहने की नहीं है। देश की आम जनता भी कई महीनों से चुटकुलों में कहती रही है कि इस देश को कोई नहीं चलाता, यह रामभरोसे चल रहा है। आज हालात ये हो गए हैं कि देश के एक जिम्मेदार और अनुभवी उद्योगपति को राजनेताओं पर बात करना पड़ रही है। नेतृत्व के संकट की बात कहना पड़ रही है। क्यों? इसका एक ही कारण है कि वास्तव में देश को एक सख्त, अनुशासित और मजबूत नेतृत्व की आवश्यकता है। टाटा के कथन के कोई राजनीतिक अर्थ न भी निकाले जाएं तो हमें अपने देश की चिंता करने का अधिकार तो है। देश की अर्थ व्यवस्था पूरे विश्व का हिस्सा है। सफल विदेशनीति के बिना अच्छी अर्थ व्यवस्था संभव नहीं। अफगानिस्तान में भारत के मित्र इस डर से अपनी वफादारी बदल रहे हैं कि 2014 में नाटो सेनाओं की वापसी के बाद वहां पाकिस्तान का प्रभुत्व हो   जाएगा। इधर भारत का राजनीतिक तंत्र ऐसे बर्ताव कर रहा है जैसे कुछ भी गलत नहीं है। वाकई भारत नेतृत्व के संकट का सामना कर रहा है। सोनिया गांधी के पास शक्तियां हैं, लेकिन कोई सरकारी जवाबदेही नहीं है, मनमोहन सिंह के पास जिम्मेदारी है, किंतु कोई शक्ति नहीं है। आज वोट कबाड़ने वाली अदूरदर्शितापूर्ण राजनीति, सख्ती की कमी, भ्रष्टाचार, महंगाई का बार-बार चलने वाला चाबुक, सरकार का अनुशासनहीन मंत्रीमंडल, छोटे दलों की ब्लैकमेलिंग, उनके निहित स्वार्थों की राजनीति और राष्ट्रीय मुद्दों के प्रति ओछा नजरिया आदि, एक लंबी फेहरिश्त है। किसी को पता नहीं देश का राजनीतिक नेतृत्व जनता को छोड़ किसको नेतृत्व दे रहा है। देश की सीमाओं पर हमले हो रहे हैं। सरकार इस मामले में शुतुरमुर्ग की तरह मुंह छिपा लेती है। यह देश असफल कूटनीति, कमजोर अर्थ व्यवस्था और घटिया विदेश नीति को ढोता हुआ लगता है। ये सारी बातें हमें एक सख्त नेतृत्व की मांग की बात करती हैं। देश के नेताओं में किसी विषय पर कोई गंभीरता नहीं नजर आती। वे बचकाने बयान देते हैं।  फेसबुक पर मजाक उड़ता है तो वे उसे ही संपादित करने की बात करने लगते हैं। यह जनता को प्यार करने वाला और दूरदर्शिता से भरा राजनीतिक नेतृत्व नहीं हो सकता। कोई भी व्यक्ति या पार्टी  देश का प्रधानमंत्री बनने के लिए राजी होता है तो इसका मतलब है कि उस देश के नागरिकों के सुख-दुख का जिम्मेदार भी उसे होना होगा। जिम्मेदारियों से बच कर देश का विश्वास नहीं जीता जा सकता। अगर रतन टाटा ने कहा है कि देश में नेतृत्व की कमी के कारण आर्थिक समस्याएं गहरा रही हैं तो उन्होंने गलत नहीं कहा है।  देश को ऐसे नेताओं की जरूरत है जो आगे आकर देश का नेतृत्व करें। इसका अर्थ है कि किसी को नेतृत्व के लिए धकेल कर आगे न किया जाए। देश के जिम्मेदार राजनीतिक वर्ग को एक दिशा में काम करने की जरूरत है। राष्ट्रहित से ऊपर, निजी एजेंडों पर काम नहीं होना चाहिए। आर्थिक स्थिरता सफल राजनीतिक नेतृत्व का प्रतीक कही जा सकती है। उम्मीद है देश के नेता सामूहिक रूप से इस बात के निहितार्थ समझेंगे।

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