मंगलवार, सितंबर 03, 2013

भूमि अधिग्रहण के अर्थ

  भूमि अधिग्रहण के अर्थ
उचित या अधिक मुआवजा किसी भी तरह परिवेश और पर्यावरण की क्षतिपूर्ति नहीं हो सकता। खेती की जमीन के बाद किसान परिवारों की आजीविका और पर्यावरण को सुनिश्चित किया जाना भी जरुरी है।

भू मि अधिग्रहण एक बहुत ही संवेदनशील प्रश्न रहा है और खाद्य सुरक्षा विधेयक के बाद संप्रग सरकार ने एक महात्वाकांक्षी ‘भूमि अधिग्रहण’ विधेयक को मंजूरी दे दी। अब किसानों की भूमि का जबरदस्ती अधिग्रहण नहीं किया जा सकेगा। विधेयक में ग्रामीण इलाकों में जमीन के बाजार मूल्य का चार गुना और शहरी इलाकों में दो गुना मुआवजा देने का प्रावधान है।
यह बिल उचित मुआवजे पर जोर देता है जिसमें शहरों में दुगुना और ग्रामीण इलाकों में बाजार मूल्य का चार गुना देने की बात कही गई है। लेकिन जो असल सवाल थे उन पर इसमें खास जोर नहीं दिया है। हम आज भी प्राकृतिक संसाधनों से संबंधित बिल या नीतियां बनाते वक्त सदैव मानव और उसके भौतिक-आर्थिक विकास को ही केंद्र में रखते हैं। हम भूल जाते हैं कि कुदरत के सारे वरदान इंसानों के लिए नहीं हैं। इन पर प्रकृति के दूसरे जीवों का भी हक है। कितने ही जीव व वनस्पतियां ऐसी हैं, जो हमारे लिए पानी, मिट्टी व हवा की गुणवत्ता सुधारते हैं। उन पर ध्यान देना हमें याद नहीं रहता। सरकार या उद्योगपति भूमि अधिग्रहण कर लेंगे लेकिन वहां रहने वाले पशु पक्षी वनस्पति और भूसंरचना को खराब करने का अधिकार उसे क्यों मिलेगा? क्या फैक्ट्री और कारखाने लगाना ही विकास है। जीवन की गुणवत्ता का कोई सवाल हमारे सांसद , सरकारें और पार्टियां नहीं करती हैं। लोकसभा की स्टैंडिंग कमेटी में सर्वदलीय सहमति होने के बावजÞूद भी कमेटी की सिफÞारिशों को लागू नहीं किया गया है। इस बिल पर जो ग्रुप आॅफ मिनिस्टर्स बना जिसमें वित्त मंत्री, कृषि मंत्री और वाणिज्य मंत्री शामिल थे उन्होंने ही इस बिल को कमजÞोर किया है।  भूमि अधिग्रहण के मामले में अब तक सभी सरकारों ने अपनी-अपनी नीति को सर्वश्रेष्ठ कहा है। भूमि अधिग्रहण को लेकर सभी सरकारें उद्योगों के साथ पूरी ताकत से खड़ी रही हैं। यह गलत तो नहीं है, लेकिन नए कानूनों में खेती, जंगल, मवेशी, पानी, पहाड़ और धरती से किसी को हमदर्दी नहीं है। 
पूर्व में अधिग्रहित औद्योगिक क्षेत्र बड़े पैमाने पर खाली पड़े हैं; बंजर भूमि का विकल्प भी हमारे पास है, लेकिन उसका इस्तेमाल हम करना नहीं चाहते। ताजा अधिग्रहणों में जरूरत से ज्यादा भूमि अधिग्रहण की शिकायतें हैं। खेती व खुद को बचाना है, तो भूमि तो बचानी ही होगी। किसान खेत के माध्यम से सिर्फ अपना पेट ही नहीं भरता; वह दूसरों के लिए भी फसलें उगाता है। उसके उगाये चारे पर मवेशी जिंदा रहते हैं। जिनके पास जमीनें नहीं हैं, ऐसे मजदूर व कारीगर अपनी आजीविका के लिए  कृषि भूमि व किसानों पर ही निर्भर करते हैं। इस तरह यदि किसी अन्य उपयोग के लिए बड़े पैमाने पर कृषि भूमि ली जाती है, तो इसका खामियाजा स्थानीय पर्यावरण को भी भुगतना पड़ता है। उन्हें कौन मुआवजा देगा? सवाल कई हैं इस बिल में निजी कार्यों के लिए उपजाऊ कृषि भूमि को हतोत्साहित करने का कोई प्रावधान नहीं है, बस अधिक पैसे देकर किसानों की भूमि लेना ही प्रमुख है।






सजा के बाद निराशा
उम्र और क्रूरता के बीच सीधा रिश्ता नहीं होता लेकिन जब क्रूरता उम्र पर हावी हो तो उम्र नहीं क्रूरता ही देखी जानी चाहिए। दामिनी रेप केस में नाबालिग को तीन साल की सजा मिली है।



दि ल्ली में गैंगरेप के नाबालिग यानी जिसकी उम्र अठारह साल से कुछ कम थी, को जुबेनाइल जस्टिस कोर्ट से सजा मिल चुकी है। इस सजा से पीड़ित का परिवार और सामाजिक रूप से सक्रिय लोग निराश हैं। लोगों के निराश होने का कारण लड़के को कम सजा होना नहीं, बल्कि उसकी क्रूरता के जो किस्से सामने आए थे, उसके अनुसार सजा न मिलने से निराश हैं। लड़के ने जो क्रूरता बरती थी उससे नहीं लगता है कि वह कानून व्यवस्था से डरने वाला  किशोर था। आज लोग इस कानून को बदलने की बात कर रहे हैं। बलात्कार को लेकर  भारतीय दंड संहिता में18 साल से कम उम्र में किए गए अपराध को बाल अपराध मानता है। इस बाल अपराध की अधिकतम तीन साल की सजा के साथ आरोपी को बाल सुधार गृह भेज देता है। यही कानून इस क्रूर अपराधी के बचने का कारण है। देश में हलचल मचाने वाले इस बर्बर गैंगरेप और हत्या के केस में आरोपी को फायदा मिल चुका है। दूसरी तरफ लड़की के पिता ने बालिग और नाबालिग का भेद मिटाने की अपील की है। पीड़िता के पिता ने कहा है कि बलात्कारी सिर्फ बलात्कारी है और उसे सख्त सजा दी जानी चाहिए। फांसी के अलावा कोई रास्ता नहीं होना चाहिए। यह विचार पीड़िता के परिजनों के हैं लेकिन बहस और विचार का मुद्दा है कि ऐसे नाबालिग जो क्रूरता और हत्या में शामिल हों, उनके मामले में उनकी मानसिकता को भी शामिल करना आवश्यक है। ऐसे मामले में भौतिक उम्र के आधार पर नाबालिग न माना जाए। उनकी मानसिक उम्र से भी उनके अपराध की गंभीरता को आंका जाना चाहिए।
आज दिल्ली के सर्वेक्षणों में यह बात साबित हो रही है कि नाबालिग की बड़े अपराधों में भागीदारी बढ़ रही है। ज्यादातर गलत काम करते हुए नाबालिग जानते हैं कि वे बच जाएंगे। ऐसे में यह छूट बेमानी हो जाती है। अब दूसरा सवाल है कि मौजूदा भारतीय कानून बलात्कार या महिलाओं के खिलाफ अपराध को   लेकर संवेदनशील नहीं है। जबकि ये वो इंसान है जो भले ही नाबालिग हो लेकिन उसने काम राक्षसों का किया। लड़की को टॉर्चर करने का सबसे जघन्य अपराध उस पर साबित हो चुका है। लड़की की मौत का सबसे बड़ा जिम्मेदार ये लड़का ही है। जांच में साबित हुआ है कि खुद को नाबालिग बताने वाले इस लड़के ने गैंगरेप के दौरान लड़की पर बेतरह जुल्म ढाए। हालांकि उतने ही दोषी वो लोग भी हैं जो इसके साथ थे या यह जिनके साथ था।
नाबालिगों के लिए बने कानून की बात करें तो नाबलिग कानून तब बनाया गया था जब समाज में इतनी आक्रामकता और हिंसा नहीं थी। जिन नौनिहालों को ध्यान में रख कर पहले के कानून बनाए गए थे..जिनसे यदा-कदा ही अपराध हो जाया करते थे। बच्चे तब अबोधता में ही रहा करते थे। लेकिन आज प्मासूमियत नहीं रहीं। नई पीढ़ी निरंकुश और स्वेच्छाचारी होने के कारण अपराध की ओर तेजी से अग्रसर है। बेहद क्रूर और विकृत मानसिकता वाले नए  नाबालिगों को सजा से मुक्त नहीं किया जा सकता।


पारिवारिक कलह निजी जीवन में अशांति का बड़ा कारण बन रही है। इससे स्त्री पुरुष दोनों परेशान हैं। लेकिन ऐसा क्यों हो रहा कि यह कलह अत्यंत हिंसक होती जा रही है।
पारिवारिक कलह में


इंदौर की घटना ने एक बार फिर पारिवारिक कलह के भयावह परिमाण उजागर किए हैं। परिवारों में खासकर एकल परिवार जिन्हें आजकल न्युक्लियर परिवार कहा जाता है, इनमें आपसी कलह के चलते हिंसा और आत्महत्या के मामले बढ़ रहे हैं। सामान्य रूप से यह कोई राजनीतिक संकट नहीं है लेकिन यह एक बड़े सामाजिक संकट के रूप में उभर कर सामने आ रहा है। परिवार में पति पत्नी के अलावा कोई नहीं होता। बच्चे पति पत्नी की लड़ाई को समझते नहीं हैं। इस कलह के दौरान वे सिर्फ मानसिक प्रताड़ना ही भुगतते रहते हैं और अक्सर गुमसुम रहने लगते हैं। पति-पत्नी की रोज रोज की लड़ाई, झगड़ा और कलह से क्रोध, आवेश, कुंठा और घृणा को ऐसा जहर बनता है जिसमें व्यक्ति हत्या अथवा आत्महत्या की और अग्रसर हो जाता है। करने के बाद उसे होश आता है कि आखिर उसने क्या कर डाला। इंदौर की इस घटना में भी क्रोध की पराकाष्ठा, पूर्व में चल रही कलह से पैदा घृणा और व्यक्ति की हताशा प्रमुख है। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि हत्या अथवा आत्महत्या अंतर्मुखी और बहिर्मुखी व्यक्तित्व का हिस्सा होती हैं। पारिवारिक कलह में आत्म-हत्या करने का निर्णय एक ‘फ्रिक्शन आॅफÞ सेकेण्ड का निर्णय’ है, जब बच्चों अथवा बड़ों का मन बिलकुल हताश हो जाता है. हताश होने के बहुत सारे कारण हों सकते हैं लेकिन किसी भी परिस्थिति में उनका आत्म-विश्वास टूटना या फिर परिस्थितियों का सामना करने की मानसिक विफलता अधिक महत्वपूर्ण होता है. उस वकÞ्त ‘अच्छे’ या ‘बुरे’ का निर्णय करने में वे विल्कुल नाकाम होते हैं. कभी-कभी वे यह भी सोचते है हों शायद ऐसा करने से सभी परिस्थितियां ‘अनुकूल’ हों जाएंगी। लेकिन यह सिर्फ अहंकार का टकराव बन कर रह जाता है। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि आम तौर पर परिवार में कलह, चाहे संयुक्त परिवार ही क्यों न हों, परिवार का कोई भी सदस्य अपनी किसी एक गलती को छिपाने के लिए एक अलग तरह का व्यवहार करने लगता है, जो सामान्य नहीं होता। उसका यह असामान्य व्यवहार प्राय: शक के दायरे में आ जाता है और फिर होती है कलह। यह अक्सर पति -पत्नी के बीच ज्यादा दिखता  है, जो न केवल बच्चों की मानसिक दशा को नकारात्मक तरीके से प्रभावित करता है बल्कि अंत में आत्म-हत्या करने की ओर भी उन्मुख करता है। इनमें अधिकांशत: पुरुष ही आगे होते हैं। पिछले वर्ष 2011 में कुल 33,000 ऐसी आत्म हत्याएं हुर्इं जिसमें पुरुषों की संख्या पैसठ फीसदी से ज्यादा थी। जीवन का अंत किसी भी स्थिति में समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। इस मनोदशा की उत्पत्ति अधिकाशत: परिवार से होती है, जहां विभिन्न परिस्थितियों में जन्म लेती है। कार्यस्थल और परिवार के बीच समन्वय न होना भी इसका कारण है। पारिवारिक बंधनों की जकड़न, सहनशीलता की कमी, पारिवारिक अकेलापन आदि के साथ एकल परिवारों में सामाजिक लुब्रीकें ट की कमी देखी जा रही है, इससे पैदा हताशा आत्मघात की ओर धकेलती है।

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