मंगलवार, सितंबर 02, 2014

सिद्धांत और आदर्शों पर आधारित राजनीति के संदर्भ में महात्मा गांधी

सिद्धांत और आदर्शों पर आधारित राजनीति के संदर्भ में महात्मा गांधी
- जगमोहन
हम महात्मा गांधी को राष्ट्र पिता कहते हैं, किंतु उनकी जयंती और पुण्यतिथि पर भाषणबाजी और कुछ समारोहों के आयोजन के अलावा इस बात की जरा भी परवाह नहीं करते कि उन्होंने अपने अद्भुत नेतृत्व के दौरान क्या किया और क्या संदेश दिया? हिंदुत्व पर उनके गहन विचारों के बारे में तो हमारा बिल्कुल ही ध्यान नहीं है, जो न केवल व्यक्तिगत जीवन को उच्चतम आदर्शों से संबद्ध करते हैं, बल्कि राजनीति को श्रेष्ठ और सेवान्मुख भी बनाते हैं। डा. एस राधाकृष्णन और महात्मा गांधी के बीच धर्म पर रोचक बातचीत हुई थी। डा. राधाकृष्णन ने महात्मा गांधी से तीन सवाल पूछे थे: आपका धर्म क्या है? आपके जीवन में धर्म का क्या प्रभाव है? सामाजिक जीवन में इसकी क्या भूमिका है?
गांधीजी ने पहले सवाल का उत्तार दिया: मेरा धर्म है हिंदुत्व। यह मेरे लिए मानवता का धर्म है और मैं जिन भी धर्मों को जानता हूं उनमें यह सर्वोत्ताम है। दूसरे सवाल के उत्तार में गांधीजी ने कहा-आपके प्रश्न में भूतकाल के बजाय वर्तमान काल का प्रयोग खास मकसद से किया गया है। सत्य और अहिंसा के माध्यम से मैं अपने धर्म से जुड़ा हूं। मैं अक्सर अपने धर्म को सत्य का धर्म कहता हूं। यहां तक कि ईश्वर सत्य है, कहने के बजाय मैं कहता आया हूं-सत्य ही ईश्वर है। सत्य से इनकार हमने जाना ही नहीं है। नियमित प्रार्थना मुझे अज्ञात सत्य यानी ईश्वर के करीब ले जाती है। तीसरे सवाल पर महात्मा गांधी का जवाब था, ''इस धर्म का सामाजिक जीवन पर प्रभाव रोजाना के सामाजिक व्यवहार में परिलक्षित होता है या हो सकता है। ऐसे धर्म के प्रति सत्यनिष्ठ होने के लिए व्यक्ति को जीवनपर्यंत अपने अहं का त्याग करना होगा। जीवन के असीम सागर की पहचान में अपने एकात्म का समग्र विलोप किए बिना सत्य का अहसास संभव नहीं है। इसलिए मेरे लिए समाजसेवा से बचने का कोई रास्ता नहींहै। इसके परे या इसके बिना संसार में कोई खुशी नहीं है। जीवन का कोई भी क्षेत्र समाजसेवा से अछूता नहीं है। इसमें ऊंच-नीच जैसा कुछ नहीं है। दिखते अलग-अलग हैं किंतु हैं सब एक।''
गांधीजी का कहना था कि जितनी गहराई से मैं हिंदुत्व का अध्ययन कर रहा हूं उतना ही मुझमें विश्वास गहरा हो जाता है कि हिंदुत्व ब्रहांड जितना ही व्यापक है। मेरे भीतर से कोई मुझे बताता है कि मैं एक हिंदू हूं और कुछ नहीं। सही अर्थों में महात्मा गांधी हिंदुत्व को मानवता के प्रति सेवा का ध्येय मानते हैं। उनके लिए जीव ही शिव है। मानव सेवा ही प्रभु सेवा है। यह भावना ही महात्मा गांधी को राजनीति की ओर खींच लाई। वह रेखांकित करते हैं कि मेरे भीतर के राजनेता ने एक भी निर्णय नहीं थोपा। अगर मैं आज राजनीति में भाग लेना चाहता हूं तो बस इसलिए कि राजनीति ने आज हमें किसी सांप की तरह पूरी तरह जकड़ लिया है। चाहे कोई कितना भी प्रयास करे, इसके चंगुल से नहीं बच सकता। मेरी इच्छा इस जकड़न से मुकाबला करने की है। महात्मा गांधी सोचते थे कि इससे मुकाबला करने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि श्रेष्ठता की ओर ले जाने वाली शक्ति हिंदुत्व का सहारा लेकर राजनीति को नि:स्वार्थ सेवा के उच्च प्रतिमानों पर स्थापित किया जाए। सत्य, अहिंसा और शोषितों के कल्याण की भावना उन्होंने वेदों से ली। इस वेदांतिक भावना को अपने जीवन की कसौटी पर परखकर और अपने राजनीतिक फैसलों का आधार बना कर उन्होंने भारत के सामाजिक और राजनीतिक जीवन में संचारित किया। स्वतंत्रता संग्राम को जन आंदोलन में बदलने की गांधीजी को बड़ी सफलता सत्य, अहिंसा, त्याग, तपस्या के आदर्शों के प्रति उनके समर्पण के कारण मिली। भारतीयों के दिमाग में महात्मा गांधी की यह छवि युगों तक बसी रहेगी। अपनी आत्मकथा में गांधीजी ने लिखा है- ''मैंने अपने आध्यात्मिक अनुभवों से ही शक्तियां संचित की हैं।''
गांधीजी ने राजनीति में शुचिता और धर्मपरायणता को मूर्त रूप दिया। उनका विश्वास था-सिद्धांतों से विमुख राजनीति मौत का फंदा है, यह राष्ट्र की आत्मा का नाश कर देती है। वे अपने विश्वास पर जीवनपर्यंत अडिग रहे और भारत का नैतिक कद इतना ऊंचा किया, जो विश्व इतिहास में अनूठा है। राजनीति के उद्देश्य के संदर्भ में भारत पूरी तरह महात्मा गांधी के विचारों की अवहेलना कर चुका है, जिसका परिणाम है कि आज तरह-तरह की समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं। ये समस्याएं जातिवाद, क्षेत्रवाद के दायरे में निजी लाभ उठाने की प्रवृत्तिा, भयानक भ्रष्टाचार, लापरवाह उपभोक्ता वाद और गरीबों के प्रति बेरुखी के रूप में हमारे सामने हैं। अगर मौजूदा रुख में बदलाव नहीं आता तो इनकी संख्या में गुणात्मक वृद्धि होगी। देश पूरी तरह से सिद्धांतविहीन राजनीति और अव्यवस्था की सांप की बांबियों से घिर जाएगा। राजनीति के सांपों का सामना करने के बजाय हमारे राजनेता उनके साथ रहने की कला सीख गए हैं। इसी कारण आज हमारी संसद में सौ से अधिक ऐसे सदस्य हैं जिनका आपराधिक रिकार्ड है। इनमें से 34 तो हत्या, बलात्कार, अवैध वसूली जैसे संगीन मामलों में आरोपी हैं। इनमें से कुछ तो केंद्रीय मंत्रिमंडल में भी स्थान पा चुके हैं। राज्य और नगरपालिका के स्तर पर तो हालात और भी खराब हैं। वे पूर्ण रूप से पैसा, ताकत, अपराध, भ्रष्टाचार और जातिवाद में डूबे हैं। फलस्वरूप हमारा शिक्षित और तुलनात्मक रूप से संपन्न वर्ग उदासीन हो गया है। हमारी गरीब जनता षड्यंत्रों का शिकार हो रही है। अधिकांश राजनेता यह मंत्र भूल गए हैं कि विरूपताओं पर आधारित जीत अस्थायी होती है, किंतु इसकी बर्बादी युगों-युगों तक कायम रहती हैं। भारत में अधिकांश लोग राजनीति को हिकारत की निगाह से देखते हैं। उनका मानना है कि राजनेता स्वार्थी और अनुचित साधनों से सत्ता हथियाने वाले होते हैं। राजनेता अपने गलत कामों को कुतर्कों के आधार पर सही ठहराते हैं। उनके लिए सत्ता ही सब कुछ है-सिद्धांत और नैतिकता कुछ नहीं। महात्मा गांधी भारत की राजनीति को बिल्कुल अलग दिशा में ले जाना चाहते थे, जिससे यह लोगों, समाज और राष्ट्र की बेहतरी में योगदान दे सके।

शुक्रवार, अगस्त 22, 2014

पारिजात Night Flower

पारिजात के वृक्ष को छूने से मिटती है थकान

क्या कोई ऐसा भी वृक्ष है,जिसं छूने मात्र से मनुष्य की थकान मिट जाती है। हरिवंश पुराण में ऐसे ही एक वृक्ष का उल्लेख मिलता है,जिसको छूने से देव नर्तकी उर्वषी की थकान मिट जाती थी। पारिजात नाम के इस वृक्ष के फूलो को देव मुनि नारद ने श्री कृश्ण की पत्नी सत्यभामा को दिया था। इन अदभूत फूलों को पाकर सत्यभामा भगवान श्री कृष्ण से जिद कर बैठी कि परिजात वृक्ष को स्वर्ग से लाकर उनकी वाटिका में रोपित किया जाए। पारिजात वृक्ष के बारे में श्रीमदभगवत गीता में भी उल्लेख मिलता है। श्रीमदभगवत गीता जिसमें 12 स्कन्ध,350 अध्याय व18000 ष्लोक है ,के दशम स्कन्ध के 59वें अध्याय के 39 वें श्लोक , चोदितो भर्गयोत्पाटय पारिजातं गरूत्मति। आरोप्य सेन्द्रान विबुधान निर्जत्योपानयत पुरम॥ में पारिजात वृक्ष का उल्लेख पारिजातहरण नरकवधों नामक अध्याय में की गई है।
सत्यभामा की जिद पूरी करने के लिए जब श्री कृष्ण ने परिजात वृक्ष लाने के लिए नारद मुनि को स्वर्ग लोक भेजा तो इन्द्र ने श्री कृष्ण के प्रस्ताव को ठुकरा दिया और पारिजात देने से मना कर दिया। जिस पर भगवान श्री कृष्ण ने गरूड पर सवार होकर स्वर्ग लोक पर आक्रमण कर दिया और परिजात प्राप्त कर लिया। श्री कृष्ण ने यह पारिजात लाकर सत्यभामा की वाटिका में रोपित कर दिया। जैसा कि श्रीमदभगवत गीता के श्लोक, स्थापित सत्यभामाया गृह उधान उपषोभन । अन्वगु•र्ा्रमरा स्वर्गात तद गन्धासलम्पटा, से भी स्पष्ट है। भगवान श्री कृष्ण ने पारिजात को लगाया तो था सत्यभामा की वाटिका में परन्तु उसके फूल उनकी दूसरी पत्नी रूकमणी की वाटिका में गिरते थे। लेकिन श्री कृष्ण के हमले व पारिजात छीन लेने से रूष्ट हुए इन्द्र ने श्री कृश्ण व पारिजात दोनों को शाप दे दिया था । उन्होन् श्री क्रष्ण  को शाप दिया कि इस कृत्य के कारण श्री कृष्ण को पुर्नजन्म यानि भगवान विष्णु के अवतार के रूप में जाना जाएगा। जबकि पारिजात को कभी न फल आने का शाप दिया गया। तभी से कहा जाता है कि पारिजात हमेशा के लिए अपने फल से वंचित हो गया। एक मान्यता यह भी है कि पारिजात नाम की एक राजकुमारी हुआ करती थी ,जिसे भगवान सूर्य से प्यार हो गया था, लेकिन अथक प्रयास करने पर भी भगवान सूर्य ने पारिजात के प्यार कों स्वीकार नहीं किया, जिससे खिन्न होकर राजकुमारी पारिजात ने आत्म हत्या कर ली थी। जिस स्थान पर पारिजात की कब्र बनी वहीं से पारिजात नामक वृक्ष ने जन्म लिया। इसी कारण पारिजात वृक्ष को रात में देखने से ऐसा लगता है जैसे वह रो रहा हो, लेकिन सूर्य उदय के साथ ही पारिजात की टहनियां और पत्ते सूर्य को आगोष में लेने को आतुर दिखाई पडते है। ज्योतिश विज्ञान में भी पारिजात का विशेष महत्व बताया गया है।
पूर्व वैज्ञानिक एवं ज्योतिष के जानकार गोपाल राजू की माने तो धन की देवी लक्ष्मी को प्रसन्न करने में पारिजात वृक्ष का उपयोग किया जाता है। उन्होने बताया कि यदि ,ओम नमो मणि़•ाद्राय आयुध धराय मम लक्ष्मी़वसंच्छितं पूरय पूरय ऐं हीं क्ली हयौं मणि भद्राय नम, मन्त्र का जाप 108 बार करते हुए नारियल पर पारिजात पुष्प अर्पित किये जाए और पूजा के इस नारियल व फूलो को लाल कपडे में लपेटकर घर के पूजा धर में स्थापित किया जाए तो लक्ष्मी सहज ही प्रसन्न होकर साधक के घर में वास करती है। यह पूजा साल के पांच मुहर्त होली,दीवाली,ग्रहण,रवि पुष्प तथा गुरू पुष्प नक्षत्र में की जाए तो उत्तम है। यहां यह भी बता दे कि पारिजात वृक्ष के वे ही फूल उपयोग में लाए जाते है,जो वृक्ष से टूटकर गिर जाते है। यानि वृक्ष से फूल तोड़ने की पूरी तरह मनाही है।
इसी पारिजात वृक्ष को लेकर गहन अध्ययन कर चुके रूड़की के कुंवर हरि सिंह यादव ने बताया कि यंू तो परिजात वृक्ष की प्रजाति भारत में नहीं पाई जाती, लेकिन भारत में एक मात्र पारिजात वृक्ष आज भी उ.प्र. के बाराबंकी जनपद अंतर्गत रामनगर क्ष्ोत्र के गांव बोरोलिया में मौजूद है। लगभग 50 फीट तने व 45 फीट उंचाई के इस वृक्ष की ज्यादातर शाखाएं भूमि की ओर मुड़ जाती है और धरती को छुते ही सूख जाती है।
एक साल में सिर्फ एक बार जून माह में सफेद व पीले रंग के फूलो से सुसज्जित होने वाला यह वृक्ष न सिर्फ खुशबू बिखेरता है, बल्कि देखने में भी सुन्दर लगता है। आयु की दृष्टि से एक हजार से पांच हजार वर्ष तक जीवित रहने वाले इस वृक्ष को वनस्पति शास्त्री एडोसोनिया वर्ग का मानते हैं। जिसकी दुनियाभर में सिर्फ 5 प्रजातियां पाई जाती है। जिनमें से एक डिजाहाट है। पारिजात वृक्ष इसी डिजाहाट प्रजाति का है। कुंवर हरि सिंह यादव अपने षोध आधार पर बताते है कि एक मान्यता के अनुसार परिजात वृक्ष की उत्पत्ति समुन्द्र मंथन से हुई थी । जिसे इन्द्र ने अपनी वाटिका में रोप दिया था। कहा जाता है जब पांडव पुत्र माता कुन्ती के साथ अज्ञातवास पर थे तब उन्होने ही सत्यभामा की वाटिका में से परिजात को लेकर बोरोलिया गांव में रोपित कर दिया होगा। तभी से परिजात गांव बोरोलिया की शोभा बना हुआ है। देशभर से श्रद्धालु अपनी थकान मिटाने के लिए और मनौती मांगने के लिए परिजात वृक्ष की पूजा अर्चना करते है। पारिजात में औषधीय गुणों का भी भण्डार है। पारिजात बावासीर रोग निदान के लिए रामबाण औषधी है। पारिजात के एक बीज का सेवन प्रतिदिन किया जाये तो बावासीर रोग ठीक हो जाता है। पारिजात के बीज का पेस्ट बनाकर गुदा पर लगाने से बावासीर के रोगी   को बडी राहत मिलती है। पारिजात के फूल हदय के लिए भी उत्तम औषधी माने जाते हैं। वर्ष में एक माह पारिजात पर फूल आने पर यदि इन फूलों का या फिर फूलो के रस का सेवन किया जाए तो हदय रोग से बचा जा सकता है। इतना ही नहीं पारिजात की पत्तियों को पीस कर शहद में मिलाकर सेवन करने से सुखी खासी ठीक हो जाती है। इसी तरह पारिजात की पत्तियों को पीसकर त्वचा पर लगाने से त्वचा संबंधि रोग ठीक हो जाते है। पारिजात की पत्तियों से बने हर्बल तेल का भी त्वचा रोगों में भरपूर इस्तेमाल किया जाता है। पारिजात की कोंपल को अगर 5 काली मिर्च के साथ महिलाएं सेवन करे तो महिलाओं को स्त्री रोग में लाभ मिलता है। वहीं पारिजात के बीज जंहा हेयर टानिक का काम करते है तो इसकी पत्तियों का जूस क्रोनिक बुखार को ठीक कर देता है। इस दृश्टि से पारिजात अपनेआपमें एक संपूर्ण औषधी भी है।
इस वृक्ष के ऐतिहासिक महत्व व दुर्लभता को देखते हुए जंहा परिजात वृक्ष को सरकार ने संरक्षित वृक्ष घोषित किया हुआ है। वहीं देहरादून के राष्ट्रीय वन अनुसंधान संस्थान की पहल पर पारिजात वृक्ष के आस पास छायादार वृक्षों को हटवाकर पारिजात वृक्ष की सुरक्षा की गई। वन अनुसंधान संस्थान के निदेशक डा. एसएस नेगी का कहना है कि पारिजात वृक्ष से चंूकि जन आस्था जुडी है। इस कारण इस वृक्ष को संरक्षण दिये जाने की निरंतर आवश्यकता है। इस वृक्ष की एक विषेशता यह भी है कि इस वृक्ष की कलम नहीं लगती ,इसी कारण यह वृक्ष दुर्लभ वृक्ष की श्रेणी में आता है। भारत सरकार ने पारिजात वृक्ष पर डाक टिकट भी जारी किया। ताकि अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर पारिजात वृक्ष की पहचान बन सके।

श्रीगोपालनारसन एडवोकेट    

गुरुवार, अगस्त 21, 2014

अभिनेता और अभिनय


आलोक चटर्जी का यह आलेख  युवाओं के लिए आँख खोलने वाला है.
                                                   पीपुल्स समाचार से साभार                          - रवीन्द्र  स्वप्निल प्रजापति
    अभिनय की दुनियां में इन दिनों नये युवाओं की भरमार है। बाहर से देखें तो यह सुखद लगता है, कि इतनी बड़ी संख्या में युवा अभिनय के क्षेत्र में आ रहे हैं, और इसे संभावनाओं के रूप में देख रहे हैं, परन्तु मुझे एक अभिनेता, अभिनय-शिक्षक और रंग निर्देशक के तौर पर लगातार यह महसूस होता रहा है कि दरअसल इसमें बहुत कुछ छद्म है, जैसे उदाहरण के लिये मैं पाता हूं कि अधिकतर युवा अपने शैक्षणिक सत्रों की छुटटियों के दौरान इसे समय बिताने और नये लोगों से परिचय का एक अच्छा अवसर मानते हैं। परन्तु नाटक के दूसरे या तीसरे प्रदर्शन में ही वे कोई न कोई बहाना बनाकर नदारत हो जाते हैं। कुछ युवा मात्र सिनेमाई व्यक्तित्वों की छाआएं लेकर आते हैं और जब पाते हैं कि यहां कठोर अनुशासन, समर्पण, निरन्तरता, प्रतिभा को निखारने के लिये बहुत आवश्यक है, तो वे अपनी दमित इच्छाओं को लिये शनैः शनैः रंगमंच से दूर हो जाते हैं। कुछ युवा इसलिए भी आते हैं कि पर्सनलिटी ग्रूमिंग की क्लासेस के लिये बिना कोई शुल्क चुकाये ये एक अच्छा माध्यम है। इसके बाद कुछ युवा अवश्य ऐसे होते हैं जो अपने कार्य में निरन्तरता रखते हैं और कुछेक वर्षों तक रंगमंच में बने रहते हैं। उसके बाद विवाह, पिताजी का रिटार्यमेंट, मां की बीमारी आदि का सहारा लेकर वह अभिनय और रंगमंच से तौबा कर लेता है। जो युवा अपने कैरियर के रूप में इसे अपनाना चाहते हैं, वे अवश्य रूके रहते हैं, परन्तु उनके साथ कार्य करते हुये यह स्पष्ट होता है कि हमारे युवा सुबह का अखबार भी शायद ही पड़ते हों, साहित्य कविता, दर्शन और मनोविज्ञान की पढ़ाई-लिखाई तो दूर, आज के समाज की जानकारियों का अभाव तक दिखायी देता है। यह अधिकतर युवाओं को ऐसे अभिनेता बनने के लिये प्रेरित करता है, जो मात्र अपने संवाद रटकर और बोलकर, अभिनय हो गया, ये मान लेता है, या तो वो बाजार में एक उत्पाद की तरह स्वयं को प्रस्तुत करने की कोशिश करता है। समस्या ये है कि यदि अभिनेता का आंतरिक जगत संवेदनहीन है, भावना शून्य है, कल्पनाशीलता का आधार नहीं है, तो वह मात्र मंच पर मेकअप और काॅस्ट््यूम में आयेगा और अपने संवाद बोलकर चला जायेगा। वो कोई अनुभूतियों का संसार, चरित्र का द्वंद और भावना की तीव्रता दर्शकों तक पहुंचाने में नितांत असमर्थ होगा। ऐसा अभिनय और प्रस्तुति निर्जीव ही कही जा सकती है, और ऐसे अभिनेता को मैकेनिकल, हैम ऐक्टर कहना उचित होगा। दर्शक भी ऐसी प्रस्तुतियों से जल्दी ही ऊबकर या थियेटर के बारे में यही एक धारणा लेकर, मनोरंजन का कोई दूसरा माध्यम चुन लेता है। महानगरों और मैट्रो शहरों में प्रयोगवादी अभिनय का बोलवाला है, जहां अभिनेता आधे समय वीडियो पर दिखता है, अर्थपूर्ण संवाद बहुत कम होते हैं, भारी भरकम बजट खर्च करके सेट और लाइटिंग का साउण्ड के साथ ऐसा भ्रम जाल तैयार किया जाता है, जो दर्शकों को भ्रमित कर सके। एन्वायरमेंटल थियेटर के नाम पर दर्शकों को दस जगह घुमा-घुमाकर एक ही प्रस्तुति के अलग-अलग दृृश्य दिखलाये जाते हैं, जाहिर है यह मात्र बौद्धिक कलावाजी और बौद्धिक विलासिता का ही परिचायक है। हमारा देश, एक ऐसा देश है, जहां निरक्षर लेकिन समझदार दर्शक हैं, तो कस्बाई और शहरी लोग भी, हम सब बचपन में संगीत सुनते थे। भारतीय संस्कृति में अभिनय को यज्ञकर्म माना गया है, जहां हवन करने वाला अभिनेता है, हवन कुंड अभिनय-स्थल है, हवन सामग्री आलेख है, और उसमें पड़ती आहुतियां अभिनेता के मनोभाव हैं, इससे उत्पन्न अग्नि, प्रस्तुति है और हवन सामग्री के धुएं से वहां बैठे दूसरे व्यक्ति को जो मिल रहा है, वही रस है, रसानुभूति है। हमारे देश में जहां लोग पढ़ना-लिखना नहीं जानते, वहां भी सदियों से लोक परंपराएं अपनी अनगढ़ शैली और और रूप में उपस्थित हैं। सांस्कृृतिक बहुलता वाले हमारे देश में किसी प्रांत के भाषा-भाषी को कभी भी निरक्षर होने के मात्र से ही पंडवानी, कुडिआट््म, यक्षगान, भागवतकथा, रामलीला आदि के प्रसंग प्रस्तुति देखकर समझ, ना आते हों, ऐसा नहीं है, वरन्् इसके विपरीत ही है। आज भी चमकते महानगर की सड़कों, ऊंची अट््टालिकाओं और गाड़ियों के शोर में भी जो लोग शामिल हैं वे किसी ग्रामीण या कस्बाई क्षेत्र से ही वहां काम करने आये हैं। आधुनिकता और प्रयोगशीलता की परिभाषा गढ़ते हुये हमें इसे ध्यान में रखना होगा। मात्र विदेशी प्रस्तुतियों की नकल और उनके गढ़े सत्य को अपना सत्य समझ लेने की भूल ही यह विरोधाभास पैदा कर रही है। ज़ाहिर है, एक अभिनेता और रंगमंच समाज से ही आता है, समाज का ही उत्पाद है, और समाज के लिये ही है। इसीलिए अभिनेता को चिरंतर अध्ययनशील, घूमन्तू, निरन्तर कुछ नया सीखने की ललक मन में रखकर ही इस यात्रा पर अपना पहला कदम बढ़ना होगा। वह समस्त संस्कृतियों का अध्ययन करे, विश्व प्रसिद्ध साहित्य को पढ़े लेकिन पहले अपनी संस्कृति को जान ले, अपने भारतीय रचनाकारों को पढ़ ले और देश के भिन्न प्रांतों में खाना भी खाना चाहिये, और वहां का पहनावा भी, तभी वह जीवन्त, संवेदनशील, आधुनिक भारतीय व्यक्ति बनेगा, जिसके पास अपनी सोच होगी, अपनी संस्कृति की महक होगी, और विश्व की जानकारी भी, तभी वह अपने अभिनय को अधिक यूनिर्वसल या सार्वभौमिक बना सकेगा। इन सब बातों के लिये कड़ी मेहनत, लंबा अभ्यास और निरन्तर समर्पण चाहिये, इनके अभाव में हम एक जीवनहीन अभिनय, की रचना करने वाले अभिनेता होंगे, जो चाहे तो लाउडस्पीकर लगाकर भी अपना संवाद बोल दे, दर्शकों पर इसका कोई सार्थक प्रभाव नहीं पड़ेगा। आज हमारे देश में दिल्ली, बंबई, चेन्नई, कोलकाता से लेकर शाहजहांपुर, अलीगढ़, इलाहाबाद, लखनऊ, पटना, भोपाल, जबलपुर कहां पर रंगमंच नहीं हो रहा है ? पिछले वर्षों में संस्क्ृति के क्षेत्र में आर्थिक अनुदानों की एक सुनामी भी आयी हुयी है, जिसने संस्कृति के कुछ दुकानदारों को संस्कृति का राष्ट्रीय रोजगार कार्यक्रम बना लिया है। परन्तु न तो नया दर्शक वर्ग बन रहा है, न ही मील का पत्थर कहे जाने वाली प्रस्तुतियां हो रही हैं। इसके मूल में है, कमज़ोर और असंवेदनशील अभिनेता, और उसका अभिनय। आज आवश्यकता इस बात की है कि सबसे पहले अभिनेता सुबह जल्दी उठना सीखे, उसके पास अपनी फिजीकल फिटेनस का एक कार्यक्रम होना चाहिये, उसके बाद बौद्धिक तैयारी और फिर निरंतर अभ्यास। नींद आने तक पढ़ना, सतत्् सीखने को तैयार रहना, रोज़ नयी-नयी जानकारियां जुटाना, जब तक यह उसके दैनिक कार्यक्रम में शामिल नहीं होना, समस्याएं बनी रहेंगी। यदि हम चाहते हैं कि रंगकर्म का वास्तविक विकास हो, तो हमें अभिनेता और उसके प्रशिक्षण कार्यक्रम पर ध्यान देना ही होगा। शौकिया रंगमंच में काम करने वाले रंगमंच का समर्पण सराहनीय है, परन्तु मात्र उससे काम चलने वाला नहीं है। इसे एक व्यवसायिक और प्रोफेशनल कार्यक्रम की भांति लेना ही होगा, आप स्वयं ही सोचें, क्या आप अपने बच्चे को ऐसे स्वीमिंग पूल में छोड़ना पसंद करेंगे ? जहां बचाने वाला व्यक्ति स्वयं ही तैरना न जानता हो ? क्या आप बिना जांच किये किसी से भी अपना महंगा इलैक्ट्रानिक उपकरण सही करवाते हैं ? जो इस काम में नितांत असमर्थ हो या फिर आप हंसी मजाक करते हुये बतियाते हुये, बिजली या गैस के उपकरणों से छेड़खानी करना पसंद करेंगे, तो फिर अभिनय को ऐसे हल्के में लेने का अर्थ आखिर क्या है ? यह तो अत्यन्त ही सुसंस्कृत सभ्य और आधुनिक विचारों वाले व्यक्ति का ही कार्य हो सकता है, कि वो अभिनय के क्षेत्र में आये और स्वयं को एक अभिनेता के रूप में स्थापित करे। जयसुंदरी, बाल गंधर्व, उत्पल दत्त, शंभू मित्रा, मनोहर सिंह, नसीरूद््दीन शाह, ओमपुरी ऐसे ही अभिनेता हैं, जिन्होंने मात्र अभिनय ही नहीं किया, उसे इतना विस्तारित किया कि वो समूची विश्व संस्कृतियों में अनुगुंजित होने लगा। उनके अभिनय ने समाज को संदेश भी दिया, तो चेतावनियां भी, मनोरंजक हंसने के क्षण भी दिये तो कहीं बरवस रूला भी गये। मानव मन पर अपनी अमिट छाप होड़ देते हैं ये लोग, जो किसी साधारण स्तर के अभिनेता या किसी मीडियोकर के लिये कभी संभव नहीं होता, कि वो उस स्तर को जान ले, समझा ले, छू ले, जहां अभिनय के ये ऋषि, महर्षि, ब्रह्मश्री बैठे हैं। अब हम सब बहुत समय गंवा चुके, अवसर आ गया है कि तुरंत ही प्रेरणा लेकर कार्य करना प्रारंभ किया जाये, क्योंकि जब प्रारंभ होगा तभी अभिनेता का स्वयं के व्यक्तित्व से भी साक्षात्कार होगा, क्योंकि अभिनय अपने मूल रूप में व्यक्ति अभिनेता की आंतरिक जगत की खोज है।

दिनांक 21.8.2014  
- आलोक चटर्जी, भोपाल में नाट्य विद्यालय से जुड़े हैं 

बुधवार, जून 11, 2014

भोपाल का बड़ा ताल




भोपाल का बड़ा ताल । शाम का सिंदूरी सूरज ताल के भाल पर चमक रहा था जैसे कि राजा भोज तिलक लगा कर उस तरफ खड़े हैं। ताल की लहरें शाम की धूप की लाल  झीनी भीनी साड़ी पहने थीं। लहरें ऐसी चमक रही थीं जैसे उसकी चूनर चमकीली किनार हो।
मैं कई सालों बाद भोपाल आया था और घर आने के बाद सबसे पहला ख्याल आया ताल  के किनारों पर कुछ पल बिताऊं। यहां पहुंच कर मुझे अपने पिता के करीब होने जैसा अहसास हुआ। जैसे ये किनारे मेरे पिता की अंगुली है। सच वह कुर्सी जिस पर मैं कभी बैठता था आज भी वहीं थी बस उसका रंग बदल गया था। उस कुर्सी पर बैठ कर मैं सोचा करता था कि ताल  मेरा दोस्त भी है और मेरा पिता भी। उसके किनारे पर मेरे मन में कई ख्याल आते थे।
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कई बार ताल  में तैरती नाव देख कर लगता था कोई विचार इस ताल  में तैर रहा है। सच कहूं तो मुझे ताल  ने अपना सब कुछ दिया। जीवन की लहरों से लड़ने की ताकत ताल  की लगातार उठती लहरें दे रही थीं।
 इसके किनारों पर जलते विदग्ध हृदयों को शीतलता देने वाले हवा के झोंकों में रखी ठंडक राहत देती है। प्यार देती है उस आग को सहन करने वाली। ताल  के ये किनार कई बार आंसुओं से भीगे हैं। इन आंसुओं में कई कहानियां हैं जो यहीं इन किनारों में दफन हैं। कहीं वादा किया किसी ने तो कहीं बदलते वक्त के साथ सिर्फ दोस्ती है कमिटमेंट नहीं। हम प्यार करेंगे और करते रहेंगे जब तक चलता रहेगा। फिर किसी दिन आके यहीं तोड़ देंगे वह कसम जो किसी गांठ की तरह हमने बांधी थी।
आज में कई सालों बाद भोपाल की ताल  पर टहल रहा हूं। बहुत कुछ इसके किनारों को बदल दिया है। पक्के कर दिए हैं। पर वो पत्थरों पर बैठ कर पानी को झूले की अभिलाषा यहां पूरी नहीं होती। पानी के करीब रहने का अहसास इंसान की आदिम भूख रही है। शायद इंसानी सभ्यता और आदिम जमाने में भी इंसान को पानी  चाहिए होता था। सच में यह ताल भी जब बनाया गया होगा तो यही सोच कर कि इंसान पानी के करीब रहेगा। भोपाल के इस ताल को मैं अपने दिल में वैसे ही दर्ज करता हूं जैसे आंखों में पिता की यादें।
अब यहां इस ताल पर वैसी शांति नहीं है। लोगों की भीड़ शाम को बहुत बढ़ जाती है। मुझे लगता है कि इस भीड़ में हम भी हैं। ये सारे चेहरे ताल  के किनारे अपने अपने होने का अर्थ खोजते हैं।
मुझे बढ़ती भीड़ कई बार परेशान करती लेकिन मैंने इस भीड़ में भी अब ताल  के साथ रहना सीख लिया है। आइए आप भी सभ्यता के हजारों साल पुराने इस ताल  से  दोस्ती कर सकते हैं। बस उसके किनारों पर जाना होगा।

शुक्रवार, मई 23, 2014

मर्दों के खिलाफ अभियान

देवयानी भारद्वाज
तुर्की में औरतों ने मर्दों के खिलाफ अभियान चलाया है कि सार्वजनिक वाहनों का उपयोग करते समय वे अपने पैर समेट कर बैठें। पहली बार इस खबर को पढ़ते ही हल्की-सी हंसी आती है और फिर शुरू होता है यादों का सैलाब। पिछले कुछ सालों से तो शायद उम्र बढ़ने के साथ कुछ ऐसा आत्मविश्वास आ गया है कि बगल की सीट पर बैठा व्यक्ति अगर कोहनी अड़ाए तो मैं भी मजबूती से अपने हाथ को वहीं टिका कर बैठ जाती हूं। लेकिन बात सिर्फ कुर्सी के हत्थे पर कोहनी टिकाने भर की नहीं है।
कुछ ही दिन पहले दिल्ली की मेट्रो में यात्रा के दौरान भीड़ कुछ ज्यादा थी। सभी लोग खड़े थे और सबके शरीर आपस में रगड़ भी रहे थे। लेकिन अचानक मैंने महसूस किया कि मेरे ठीक पीछे एक व्यक्ति इस तरह सट कर खड़ा था कि उसने अंदर तक एक लिजलिजे अहसास से भर दिया। इसके बाद मैं अपनी पूरी कोहनी उसके सीने में गड़ा कर खड़ी रही। लेकिन व्यक्ति अपनी जगह से टस से मस नहीं हुआ। आप प्रतिरोध भी करना चाहें तो कहा जाएगा कि क्या करें, भीड़ है, सभी लोग एक-दूसरे से सटे खड़े हैं, आपको ही एक व्यक्ति के सट कर खड़े होने पर एतराज क्यों...! दरअसल, यह व्यक्ति के अपने और अन्य के निजी स्पेस की इतनी परिष्कृत समझ की अपेक्षा रखता है जो हमारे समाज में खोजने पर भी बहुत मुश्किल से मिलती है।
ऐसा नहीं है कि निजता का यह अतिक्रमण सिर्फ अनजान लोग करते हों। मुझे याद आता है कि एक सहकर्मी को मेरे साथ यात्रा पर जाना था। हम लोगों को एक के बाद एक कई शहरों में जाना था और इस क्रम में कहीं बस और कहीं ट्रेन बदलते हुए हम यात्रा कर रहे थे। मैंने एकाधिक बार यह महसूस किया कि बस में साथ बैठने के दौरान कभी उनका पैर तो कभी उनका कंधा मेरे साथ टकरा जाता था। लोकल बसों में दो-चार बार मैंने इन स्थितियों को नजरअंदाज किया, खुद थोड़ा दूर हट कर बैठ गई या अपने हाथ-पैर समेट लिए। आखिर ऐसी स्थिति आई जब आसपास की सीट पर हम पूरी रात बस की यात्रा पर थे। दिन भर की थकान के कारण मेरी आंख लग जाती और फिर वही! कभी उनका घुटना और कभी कोहनी रगड़ खाते रहे। मुझे उन्हें कहना ही पड़ा- ‘महाशय, आप अपने हाथ-पैर समेट कर बैठें। मुझे इससे असुविधा हो रही है।’
मेरे लिए यह कहना पर्याप्त असुविधाजनक था, क्योंकि आप अपने परिचित के इरादे पर संदेह व्यक्त कर रहे हैं। लेकिन सवाल यह था कि क्या उन्हें यह अहसास नहीं होना चाहिए कि वे अपनी सहकर्मी के निजी स्पेस की अवहेलना

कर रहे हैं? यह जो निजी और पारस्परिक जगह है, यह लोगों की आपसी बनावट पर भी निर्भर करती है। मुझे याद है कि बहुत साल पहले यात्रा के ही दौरान एक मित्र ने पूछा था कि क्या मैं तुम्हारे कंधे पर सिर टिका सकता हूं? इस पूछने में पारस्परिक स्पेस का सम्मान था। एक लंबी मित्रता और सघन संवाद के बाद यह पूछा जाना दो व्यक्तियों के बीच जिस अंतरंगता को व्यक्त करता है, उसकी परिणति अनिवार्य रूप से दैहिक संबंधों में हो, यह जरूरी नहीं। लेकिन दुर्भाग्य से न इस निजता का सम्मान होता है और न उस निजी स्पेस का, जिसकी बात हम ऊपर कर आए हैं।बस, रेल, हवाई जहाज और अन्य सार्वजनिक जगहों पर पैर फैला कर बैठने वाले मर्दों को इस बात का अहसास तक नहीं होता कि वे दूसरे के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण कर रहे हैं। कई बार तो प्रतिरोध करने पर काफी भोंडे जवाब भी सुनने को मिलते हैं। दरअसल, यह पैर फैलाना तो सांकेतिक अभिव्यक्ति है इस बात की कि वे अपने और अपनी साथी महिलाओं के स्पेस को कैसे परिभाषित करते हैं। इसकी शुरुआत भी कहीं घर से ही होती है। जब हम अपनी छोटी-छोटी लड़कियों को बैठने का सलीका सिखा रहे होते हैं, तभी हम अपने लड़कों को भी यह नहीं सिखा पाते। इस सिखाने के पीछे हमारा सोच क्या है? अक्सर लड़कियों को सलीका इसलिए सिखाया जाता है कि और लोग देखेंगे तो भद्दा लगेगा और लड़की के साथ अश्लील हरकत हो सकती है। लेकिन लड़कों को जो सीखना है, वह यह कि वे भी शालीनता का खयाल रखें, क्योंकि ऐसा नहीं करके वे अपने आसपास मौजूद महिलाओं का अपमान कर रहे हैं। इस शालीनता की बात हमें उस समाज में करनी है, जिसमें पुरुष कहीं भी सड़क किनारे पेशाब करने खड़े हो जाते हैं और उस वक्त भी शर्म उन्हें नहीं आती, बल्कि पास से गुजरने वाली औरतों को ही शर्मिंदा होना होता है!

शुक्रवार, मई 09, 2014

विजया सती ki ek achchi post

 कोरिया गणराज्य की राजधानी सिओल PDF Print E-mail >आपके विचार

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विजया सती
 कोरिया गणराज्य की राजधानी सिओल चारों ओर छोटे पर्वतों से घिरी है, बीच में हान नदी बहती है। यह शहर साठ के दशक के बाद तेजी से घनी आबादी वाले महानगर के रूप में विकसित हुआ। प्रोफेसर राय कई वर्षों से इस देश के दक्षिणी भाग में हिंदी शिक्षण कर रहे हैं। सर्दी के अंत में नया परिचय हुआ उनसे। आने वाले बसंत के लिए हमें आगाह किया उन्होंने- ‘यहां नंगे पेड़ों पर फूल पहले आते हैं और फिर हरियाली। बसंत यहां धमाके के साथ आता है।’ फिर जाना कि ‘चेरी-ब्लोसम’ बसंत के आरंभ का यही उत्सव है, जब सर्दी की ठंडी हवाएं और शून्य से नीचे पहुंचता तापमान विदा होता है और कतारबद्ध पेड़ चेरी के हल्के पीले और सफेद रंग के फूलों से लद जाते हैं। जरा ठंड कम होते ही ऐसे अनेक उत्सव आरंभ होते हैं, जब सैलानी इन खिले अद्भुत फूलों के बीच टहलते हुए शहर को इसके सुंदरतम रूप में देख सकते हैं। यह अच्छे मौसम, फूलों के सौंदर्य, बढ़िया भोजन और परंपरागत संस्कृति का आनंद लेने का अवसर होता है।
पहले-पहल जापानी शासन के समय यहां चेरी के खिलने के अवसर को उत्सव के रूप में परिचित कराया गया था। जापान द्वारा द्वितीय विश्वयुद्ध में समर्पण के बाद यह उत्सव आज भी मनाया तो जाता है, मगर इसके आरंभ के एक विवादास्पद पहलू को नजरअंदाज नहीं किया गया था और आधिपत्य के प्रतीक के रूप में देखे गए बहुत से चेरी के वृक्ष एक समय काट दिए गए थे। इस कटु सत्य के बावजूद देखने में यही आया कि शहर में प्रकृति को बचाए रखने की मुहिम तेज है। अगर पहाड़ के ऊपर घर बसे हैं तो सड़क सुरंग से होकर जा रही है। पेड़ों को काटे बिना पुल बनाए गए हैं। पत्थरों के बीच हरियाली समेटी गई है और फूल खिलाए गए हैं।
हान नदी के किनारे प्रकृति के साथ तकनीकी विकास का अनूठा संगम देखने को मिला। नदी के हर कोने से सिर ताने खड़ी इमारतें दिखाई देती हैं, जिनके नमूने अधुनातम तकनीक को प्रदर्शित करते हैं। नदी के तट की ओर जितना बढ़ते जाते हैं, आधुनिक जीवन की छवियां साकार होती जाती हैं। वर्जिश के लिए जुटे नवीनतम उपकरण, नदी किनारे लंबी सैर की खातिर अकेले या साथी के साथ मस्ती से चलाने के लिए नए नमूनों की साइकिलें, स्केटिंग करते बच्चे, हवा से बचने के लिए टेंट के भीतर लेटे-बैठे-सोए नगरवासी। नदी के चारों ओर दृष्टि दूर-दूर जहां तक जाती है, वहां तक दिखाई देता है बहुमंजिली इमारतों का जाल, जिनमें रिहाइश, दफ्तर और होटल हैं। लेकिन प्रकृति के बीच आना, उसके साथ घुल-मिल जाना भी यहां के वासी नहीं भूले हैं। इसलिए छुट्टी का दिन छोटे-छोटे पहाड़ों पर चढ़ने का दिन

है। सिर्फ बच्चे और युवाओं के लिए नहीं, बल्कि अधिकतर उम्रदराज लोगों के लिए भी! इन्हीं छोटे पहाड़ों में कुछ भीतर प्रविष्ट हो जाने पर घने पेड़ों के झुरमुटों के बीच स्वाभाविक रूप से टूटे पड़े लकड़ी-लट्ठों को यथावत संजो कर पर्वतारोहियों के बैठने-सुस्ता लेने के जो स्थान बनाए गए हैं, वे दूर-दूर तक रम्य दृश्य देखने के लिए भी उपयुक्त हैं। ठंडे प्रदेशों में धुपहला दिन जीवन का बड़ा उल्लास होता है। बच्चे-बूढ़ों सहित परिवार मौज के लिए बाहर निकल आते हैं। भारत में हम गरमी के सताए हुए लोग, जहां छाया भी छाया चाहती है, इस दृश्य को देख उल्लसित हो जाते हैं। धूप की मांग है, तरह-तरह के हैट लगाए धूप में टहलते तमाम लोग मगन हैं। भारी जनसमूह हान नदी के किनारे उमड़ पड़ा है, हरी-भरी घास का सुख लेने को। देश का यह सुप्रसिद्ध विश्वविद्यालय भी तकनीक के चरम विकास के साथ-साथ प्रकृति के नैसर्गिक सौंदर्य को अपने में समेटे खड़ा है। यह विदेशी भाषाओं के अध्ययन-शिक्षण का विशिष्ट केंद्र है। विश्व के अनेक भागों के शिक्षक अपनी मातृभाषा पढ़ाने यहां आए हैं। विश्वविद्यालय सही मायने में मुक्त है। इसकी कोई चारदिवारी नहीं है, बंद कर दिया जाने वाला कोई मुख्य द्वार नहीं है। आप किसी भी कोने से प्रविष्ट हो सकते हैं। भारतीय भाषा हिंदी के विभाग के अतिरिक्त यहां भारत अध्ययन संस्थान की दिशा भी भारत है।
भारत के साथ अपने सांस्कृतिक संबंध को यह देश इस रूप में याद करता है कि किसी समय अयोध्या की एक राजकुमारी का विवाह यहां के राजकुमार के साथ हुआ। भारत में भी इस तथ्य को मान्यता मिली और दोनों देशों ने पारस्परिक सहमति से राजकुमारी की स्मृति में एक स्मारक अयोध्या प्रशासन के सहयोग से मार्च 2001 अंकित किया। हरिऔध की एक बूंद सरीखी जब यहां पहुंच गई हूं तो इन दो समानताओं के अतिरिक्त कि दोनों देशों का स्वाधीनता दिवस एक ही तिथि को है और पराधीनता से मुक्ति के बाद दोनों देशों का विभाजन भी हुआ, कुछ अधिक की खोज में दत्तचित्त होना चाहती हूं!

सोमवार, अप्रैल 14, 2014

भारतीय होना ‘वाइड’ होना है

 

मनोज श्रीवास्तव
विचारक एवं कवि 
यह साक्षात्कार करीब तीन साल पहले लिया गया था ब्लॉग पर आज  प्रस्तुत है।

लिखने की क्या प्रेरणाएं रही हैं?
मैं जिस तरह की दुनिया में हूं, वहां बहुत तरह की साजिशें हैं। कोई अपने कर्तव्य में कितना ही दत्तचित हो, लेकिन कुछ लोग उसके खिलाफ षड्यंत्रों की एक विकृत मन:स्थिति में रहते ही हैं। उन सबके बीच लिखने में जिंदगी की अनिश्चितताओं और अवसादों को जैसे एक आश्वस्ति सी मिलती है, लगभग वैसी ही जैसे कुछ भाग्यशाली लोगों को मेडीटेशन में मिलती है। जब आप लोगो की हिट लिस्ट में हों, यह जानकर अच्छा लगता है कि आपने किसी नए आइडिया को हिट किया है। जब वे अपनी संकीर्णताओं में ही रमे हैं, आपकी रचना आपको अर्थवत्ता की और आल्टीट्यूड्स तक ले गई है। रचना रति नहीं है, मुक्ति है। जब लोग शब्द का व्यापार कर रहे हों, जब शब्द तक पैक हो रहा हो- तब रचना का शब्द अचानक जैसे खेल-खेल में बिना किसी मोल-तोल के आप तक आ पहुंचता है, मन जैसे धन्यता के एक भाव से भर जाता है। रचना में ‘चांस’ का जो एक अनुतत्व है, वह किसी आशीष-सा लगता है। जहां पैकेज न मिलने पर शब्द भी चरित्र हत्या पर उतारू हो जाता हो, वहां शब्द की वह सारस्वत सत्ता देखना है कि वह समकक्ष सृष्टि-सा लगे, द्वितीय निर्मिति-सा लगे, एक अलग की कृतार्थता है। तात्कालिक की क्षुद्रताओं के पार जैसे कहीं लगातार ढांढस बंधाते हुए, लगातार सम्बल देते हुए, एक सनातन का उजास-सा है। लिखना जितना कोई चीज पैदा होना है, उतना ही कोई खोजना भी है। जब हम कविता लिखते हैं, तो कला को नहीं चुन रहे होते हैं। जीवन जीने की एक खास शैली को चुन रहे होते हैं।

 बहुत ‘वाइड रेंज’ है, यह कैसे हासिल किया करते रहे हैं?
रेंज का बहुत विस्तृत होना कम से कम मेरे लिए तो मेरे अपने प्रोफेशन का नतीजा है, जो किसी व्यक्ति को भिन्न-भिन्न भूमिकाओं में रखता है। मनुष्य समाज और परिस्थितियों के जितने ज्यादा आयाम इसमें दिखाई पड़ते हैं, वे तो किसी यायावर को ही उपलब्ध होते होंगे। दूसरे संभवत: भारतीय होना ही व्यापक रेंज का होना है। यह देश है ही विविधता का। दृष्टि जो व्यापकत्व भारत में है, वह न तो हिटलर को नसीब हुआ और न मुसोलिनी को, न लेनिन को और न माओ को, न गद्दाफी को और न सद्दाम हुसैन को। भारतीय होना ‘वाइड’ होना है।

 लिखने में व्यस्तता के बाद भी इतनी निरंतरता, यह किस स्तर पर मैनेज करते हैं, यह कैसे संभव बनाते हैं?
लिखना जितना इल्युमिनेशन है- चमकना है, उतना ही वह कहीं इंक्युबेशन भी है। कुछ भीतर ही भीतर पकता-सा रहता है। लोगों का ध्यान उस ‘चमकने’ पर जाता है और वे उसे ही रचना कहते हैं- लेकिन थोड़ा तवज्जो इस ‘पकने’ पर दें। हो सकता है, यह फल का पकना न हो, घाव का पकना हो। ‘दुनिया ने तजुर्बातो- हवादिस की शकल में/ जो कुछ दिया है मुझे वही लौटा रहा हूं मैं। इसलिए व्यस्तता निरन्तरता की दुश्मन नहीं है। व्यस्तता निरंतरता को मुमकिन बनाती है। यदि लिखना सिर्फ एक फ्लैश है, तब तो उसमें वक्त लगता ही नहीं है। लेकिन यदि लिखना अनुभवों का परिपाक है, तो वह इस व्यस्तता के कारण ही संभव हो पाता है। हर तरह के लोग मिलते हैं, देवता भी कि जिनके पास जाकर मन को मलिनता भी काई की तरह छंट जाती है और वे भी जो किसी दूसरे को उठता हुआ देखना बर्दाश्त ही नहीं कर पाते। लिखना इन तरह-तरह के तजुर्बों के बीच किसी तरह की व्यवस्था या ‘आर्डर’ ढूंढने की कोशिश है।
लेकिन हो सरकता है कि यह खुद अपने आप में ‘डिस्आर्डर’ हो, व्याधि हो, रोग- सा हो लगा हुआ। एलिस फ्लाहर्टी ने जिसे ‘मिडनाइट डिसीज’ कहा है: ‘मध्यरात्रि की बीमारी’। कई बार जब मैं देर से सोने के बावजूद बीच रात में उठकर लिखने बैठ जाता हूं तो यह बात सच भी लगने लगती है। तो एक तरफ वर्कोहलिज्म और दूसरी तरफ लिखने की यह असाध्य बीमारी जिसे हाइपरग्राफिया कहते हैं। यह आदमी तो गया काम से। ये तो क्रॉनिक बीमारियों से ग्रस्त है। लेकिन बीमारियां बस इतनी ही। एजरा पाउंड की तरह स्किजोफ्रेनिया नहीं, राबर्ट लुई स्टीवेंसन की तरह कौकेन लेकर लिखना नहीं, कॉलरिज की तरह मैनिक डिप्रेशन नहीं, गुस्ताब फ्लाबेर की तरह मिर्गी नहीं। उन सबने असाधारण बीमारियों के साथ असाधारण कुछ लिखा। लेकिन जहां लिखने को ही बीमारी समझा जाए, वह समाज स्वयं कितना बीमार हो गया है, यह कौन पता लगाएगा।

 कई बार लगता है लेखन आपके सोच का भी विस्तार है, ऐसे में अपनी रचना प्रक्रिया  बताएं?
जिसे विशेषज्ञता कहा जाता है, उस अर्थ में दर्शन- शास्त्र या विचारणा का अध्ययन मेरा नहीं है। यह तो क्षेत्रज्ञ लोगों का काम है। क्षेत्र के क्षेत्रपों का। मैं न तो धर्म और अध्यात्म के ‘डॉमेन’ में कोई विशेषज्ञ गति रखता हूं, न ‘लॉजिक’ के। बल्कि साहित्य या आलोचना को भी ‘स्वत्व’ के भाव से नहीं देख पाता। वहां तो इतने जमींदार हो गये हैं कि मेरी हैसियत भूमिहीन मजदूर जैसी है। आई.ए.एस. हो जाना लेखन की इस दुनिया में जर्बदस्त परायापन पैदा करता है। हालांकि जितने भी आई.ए.एस. लेखक हुए हैं, वे पहले लेखक थे और बाद में आई.ए.एस. बने। प्राय: सभी ने उस बचपन में लिखना शुरू किया जिस पर सभी का समान हक होता है। लेकिन आई.ए,एस. में आते ही वे ‘‘हैव्स’’ में शुमार कर दिये गये। उसका   प्रतिशोध उसे साहित्य में भूमिहीन मजदूर बनाकर ले लिया जाता है। कई लोग इसी दूसरपन से उबरने के लिए रचना के स्तर पर कॉमरेड हो जाते हैं अऔर एक जमींदारी के नागरिक बन जाते हैं। मैं अनागरिक ही रहा। किसी खेमेमें शमिल होा या कोई खेमा खड़ा करना दोनों में ही मेरी अरुचि थी। शिविरों में चिंतन-कक्ष होते हैं और वे वहां चिंतन- मनन करते भी होंगे। लेकिन मुझे लगता रहा कि चिंतन से कहीं अलग एक चिन्ता भी है जो हमें जिंदगी के मायने समझने का मौका देने के लिए एक दरवाजा भी खोलती है। उस चिंता में लगता है कि कुछ लिखे जाने की जरूरत है।  लोग चिन्ता को साइकोथिरेपी से जोड़ते हैं, मैंने लेखन से जोड़ा। शिविरों के चिंतन-कक्ष में दूसरे से युद्ध की रणनीति बनती है, लेकिन रचना तो बहुत हद तक अरण्य में छूट जाने का साहस है।

 सामाजिक संदर्भों पर भी आप काफी गौर करते हैं, ये कैसे... आपकी विचार-प्रक्रिया का स्रोत- बिन्दु क्या है...?
ये सामाजिक संदर्भ अपने किस्म का अरण्य है। अरण्य कोई पिछले जमाने की प्रकृति की क्रोड़ नहीं जिसमें ऋषियों की ऋचाएं संपन्न हुर्इं। यह जंगल तो जैसे प्रतिदिन हम पर हल्ला बोलता है। यह जंगल किसी तरह का असमाप्त शून्य नहीं है। यह तो कांक्रीट का जंगल है। यहां सियारों की आवाजें भी हैं और गीदड़ों की भी। यह अरण्य औपनिवेशिक लेखकों के द्वारा कार्बनाइज्ड जंगल है। कैसा- कैसी घात लगाकर यहां भारतीय आत्मविश्वास का शिकार किया गया है, किया जा रहा है। बात इसकी नहीं है कि दुनिया भारतीय और गैर- भारतीय के बाइनरी भेदों में बांटी जा सकती है। बात इसकी है कि शिकार कौन है, तीर किसे लग रहे हैं, खून किसका बह रहा है और आप शिकारी के साथ क्यों हैं?


 कई बार आप (कई रचनाओं में) जवाब दे रहे होते हैं। ऐसा किस कारण से होता है?
एक न एक दिन तो उन्हें जवाब मिलना ही था। मंैने जवाब न दिया होता, किसी और ने दिया होता। एकतरफा ट्रेफिक था। एकांगी मार्ग। जैसे कि भारतीय मनीषा सिर्फ झेलने के लिये ही बनी हो। मैंने पशुपति, वंदेमातरम्, कुरान, शक्ति, तुलसी, हनुमान आदि पर लिखा है क्योंकि इन सबके खिलाफ औपनिवेशिक और उलटपंथी लेखकों ने क्या- क्या नहीं कहा? ‘सेक्रेड’ को पवित्र को अतिक्रमित करना, अपने तरह का शौर्य हो सकता है, लेकिन जब वह चयन करके हो तब क्या। बकरा बुद्धि के लोग जब हमारे देश की प्रतिष्ठा- पुस्तकों को गड़रियों के गीत बतलायें और हमारे थाती- पुरूषों को कवि- कल्पना, तो उन्हें अनुत्तरित क्यों जाने दिया जाये? इतिहास सिर्फ वही सवाल नहीं करेगा जो हमारे विद्वान इतिहासकार करते हैं, वह उस तरह के सवाल भी करेगा जो उनकी विद्वता के बावजूद नहीं किये जा रहे।
( साक्षात्कार : मनोज श्रीवास्तव से रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति)

रविवार, अप्रैल 06, 2014

ओशा के विचार रोने की जो कला है,

  मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि बच्चे के रोने की जो कला है, वह उसके तनाव से मुक्त होने की व्यवस्था है और बच्चे पर बहुत तनाव है। बच्चे को भूख लगी है और मां दूर है या काम में उलझी है। बच्चे को भी क्रोध आता है। और अगर बच्चा रो ले, तो उसका क्रोध बह जाता है और बच्चा हलका हो जाता है, लेकिन मां उसे रोने नहीं देगी। मनसविद् कहते हैं कि उसे रोने देना; उसे प्रेम देना, लेकिन उसके रोने को रोकने की कोशिश मत करना। हम क्या करेंगे? बच्चे को खिलौना पकड़ा देंगे कि मत रोओ। बच्चे का मन डाइवर्ट हो जाएगा। वह खिलौना पकड़ लेगा, लेकिन रोने की जो प्रक्रिया भीतर चल रही थी, वह रुक गई और जो आंसू बहने चाहिए थे, वे अटक गए और जो हृदय हलका हो जाता बोझ से, वह हलका नहीं हो पाया। वह खिलौने से खेल लेगा, लेकिन यह जो रोना रुक गया, इसका क्या होगा? यह विष इकट्ठा हो रहा है।
मनसविद् कहते हैं कि बच्चा इतना विष इकट्ठा कर लेता है, वही उसकी जिंदगी में दुºख का कारण है। और वह उदास रहेगा। आप इतने उदास दिख रहे हैं, आपको पता नहीं कि यह उदासी हो सकता था न होती; अगर आप हृदयपूर्वक जीवन में रोए होते, तो ये आंसू आपकी पूरी जिंदगी पर न छाते; ये निकल गए होते। और सब तरह का रोना थैराप्यूटिक है। हृदय हलका हो जाता है। रोने में सिर्फ आंसू ही नहीं बहते, भीतर का शोक, भीतर का क्रोध, भीतर का हर्ष, भीतर के मनोवेश भी आंसुओं के सहारे बाहर निकल जाते हैं। और भीतर कुछ इकट्ठा नहीं होता है। तो स्क्रीम थैरेपी के लोग कहते हैं कि जब भी कोई आदमी मानसिक रूप से बीमार हो, तो उसे इतने गहरे में रोने की आवश्यकता है कि उसका रोआं-रोआं, उसके हृदय का कण-कण, श्वास-श्वास, धड़कन-धड़कन रोने में सम्मिलित हो जाए; एक ऐसे चीत्कार की जरूरत है, जो उसके पूरे प्राणों से निकले, जिसमें वह चीत्कार ही बन जाए। हजारों मानसिक रोगी ठीक हुए हैं चीत्कार से। और एक चीत्कार भी उनके न मालूम कितने रोगों से उन्हें मुक्त कर जाती है। लेकिन उस चीत्कार को पैदा करवाना बड़ी कठिन बात है। क्योंकि आप इतना दबाए हैं कि आप अगर रोते भी हैं तो रोना भी आपका झूठा होता है। उसमें आपके पूरे प्राण सम्मिलित नहीं होते। आपका रोना भी बनावटी होता है। ऊपर-ऊपर रो लेते हैं। आंख से आंसू बह जाते हैं, हृदय से नहीं आते। लेकिन चीत्कार ऐसी चाहिए, जो आपकी नाभि से उठे और आपका पूरा शरीर उसमें समाविष्ट हो जाए। आप भूल ही जाएं कि आप चीत्कार से अलग हैं; आप एक चीत्कार ही हो जाएं। तो कोई तीन महीने लगते हैं मनोवैज्ञानिकों को आपको रुलाना सिखाने के लिए। तीन महीने निरंतर प्रयोग करके आपको गहरा किया जाता है। करते क्या हैं इस थैरेपी वाले लोग? आपको छाती के बल लेटा देते हैं जमीन पर। आपसे कहते हैं कि जमीन पर लेटे रहें और जो भी दुºख मन में आता हो, उसे रोकें मत, उसे निकालें। रोने का मन हो रोएं; चिल्लाने का मन हो चिल्लाएं।
तीन महीने तक ऐसा बच्चे की भांति आदमी लेटा रहता है जमीन पर रोज घंटे, दो घंटे। एक दिन, किसी दिन वह घड़ी आ जाती है कि उसके हाथ-पैर कंपने लगते हैं विद्युत के प्रवाह से। वह आदमी आंख बंद कर लेता है, वह आदमी जैसे होश में नहीं रह जाता, और एक भयंकर चीत्कार उठनी शुरू होती है। कभी-कभी घंटों चीत्कार चलती है। आदमी बिलकुल पागल मालूम पड़ता है, लेकिन उस चीत्कार के बाद उसकी जो-जो मानसिक तकलीफें थीं, वे सब तिरोहित हो जाती हैं।
यह जो ध्यान का प्रयोग मैं आपको कहा हूं, ये आपके जब तक मनावेग-रोने के, हंसने के, नाचने के, चिल्लाने के, चीखने के, पागल होने के- इनका निरसन नहो जाए, तब तक आप ध्यान में जा नहीं सकते। यही तो बाधाएं हैं। आप शांत होने की कोशिश कर रहे हैं और आपके भीतर वेग भरे हुए हैं, जो बाहर निकलना चाहते हैं। आपकी हालत ऐसी है, जैसे केतली चढ़ी है चाय की। ढक्कन बंद है। ढक्कन पर पत्थर रखे हैं। केतली का मुंह भी बंद किया हुआ है और नीचे से आग भी जल रही है। वह जो भाप इकट्ठी हो रही है, वह फोड़ देगी केतली को। विस्फोट होगा। दस-पांच लोगों की हत्या भी हो सकती है। इस भाप को निकल जाने दें। इस भाप के निकलते ही आप नए हो जाएंगे और तब ध्यान की तरफ प्रयोग शुरू हो सकता है।

ओशा के विचार

बुधवार, जनवरी 01, 2014

प्रताड़ना के आरोप :कई सवाल

  ज ब भी किसी बड़ सभ्रांत वर्ग के व्यक्ति पर रेप या यौन प्रताड़ना के आरोप लगते हैं तो कई सवाल भी सामने आ खड़े होते हैं। हाल ही में गिरीश वर्मा पर एक महिला ने रेप का आरोप लगाया है। ऐसे कई मामले वर्षों पुराने होते है तो कुछ एक नए। रेप और यौनप्रताड़ना को लेकर समाज में शिकायतों की संख्या बड़ी है अथवा रेप की संख्या बड़ी है। दोनों पक्ष गौर से देखने पर यह लगता है कि  महिलाओं ने रेप जैसे अपराध करने वाले अपराधी से प्रतिकार की क्षमता हासिल की है। इसमें कानून की सुरक्षा तो है ही त्वरित कार्यवाही से भी शिकायतों का प्रतिशत बढ़ा है। राजनीति और सामाजिक ताकत के गठजोड़ ने इस तरह के अपराधों का जन्म होता है। यह एक सामाजिक समस्या के साथ, ताकत के दुरुपयोग की समस्या है। स्त्रियों के प्रति दृष्टिकोण का भी मामला है। हालांकि रेप के लेकर कई तरह की रिसर्च भी हुए हैं जिनमें पाया गया है कि यह मात्र कानून से नियंत्रित की जाने वाली समस्या नहीं है। इसमें सामाजिक सोच और अनियंत्रित कामेच्छा दोनों शामिल हैं, जो किसी पल विशेष में इंसान के दिमाग पर जबर्दस्त तरीके से हावी हो जाती है। इसी अनियंत्रित कामेच्छा को संतुष्ट करने के लिए वह रेप जैसी हिंसा की ओर कदम बढ़ा देता है। लेकिन इस मामले में हुई तमाम रिसर्च इस बात को प्रमाणित करती नजर आती हैं कि एक रेपिस्ट के मस्तिष्क में होने वाली मनोवैज्ञानिक उथल-पुथल में सेक्शुअल डिजायर से ज्यादा महिला पर हावी होने और उसे कष्ट में देखने की चाह होती है और इसे पूरा करने के लिए ऐसे लोग सेक्स को माध्यम बनाता है। सेक्स करने की सामान्य और सहज प्राकृतिक इच्छा इस काम में गौण हो जाती है। रेप आधुनिक सभ्यता के प्रति अपराध है।
किसी रेपिस्ट की सोच, उसके दिमाग के काम करने का तरीका और आगे बढ़कर अपनी इस घिनौनी सोच को अंजाम तक पहुंचा देने की पूरी प्रक्रिया में मानव सेक्शुअलिटी सबसे काला पक्ष है। तमाम विशेषज्ञ बरसों से उन मनोवैज्ञानिक ताकतों और दबावों को जानने-समझने की कोशिश करते रहे हैं, जो किसी इंसान को रेप जैसे अपराध के लिए प्रेरित करते हैं। शोधों में रेपिस्ट के मस्तिष्क को पढ़ने के लिए बहुत समय पहले कनाडा में एक रिसर्च की गई, जिसमें महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रही सोच ही प्रमुख थी। प्रमुख रूप से महिलाओं के प्रति सैडिस्ट अप्रोच। रेप की घटनाओं को अंजाम देने से पहले ऐसे लोग ज्यादातर नशे में पाए गए हैं। महिलाओं को लेकर वे पूर्वाग्रहों से ग्रस्त भी थे। महिलाओं के प्रति उनके मन में इज्जत के भाव नहीं थे। कई बार ये सामान्य लोगों में उनकी सामाजिक आर्थिक हैसियत से भी यौन प्रताड़ना का जन्म होता है। दूसरी तरफ यह भी सच है कि कुछ मामले बदले की भावना से भी लगाए जाते रहे हैं। सहमति से सेक्स को बलात्कार का रूप देना, किसी के द्वारा देखने के बाद सार्वजनिक होने के डर से भी ऐसे मामले सामने आते रहे हैं। वास्तव में इस बारे में अधिक वस्तुनिष्ठ होने की आवश्यकता है। महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों का प्रतिकार अब सामाजिक परिवर्तन का हिस्सा हो चुका है। समाज को यह स्वीकार करना होगा।