बुधवार, अक्तूबर 06, 2010

दिन और मैं

ये कविता कल रात में लिखी है... 


जब मैं दिन का टुकड़ा था
माथे पे पसीना था
कतरा कतरा जमा कर देखा
ये धूप का खजाना था


मेरी राह में वक्त के टुकड़े बिखरे थे
ये मेरी जिंदगी का जीना था
मैंने उन्हें ठुकरा कर देखा
वो टूट कर मेरी षक्ल में नजर आते थे


मेरे दिन आज भी हाथों मेें रोषनी रखते हैं
जाने से पहले समुंदर में किनारों पर षाम रखते हैं


ये दिन भी क्या चीज हैं दुनिया की
हर जगह हवा में लहराते फिरते हैं


ये दिन नौकरियां छोड़ कर चले आए हैं
हद है कि हवाओं की वफाओं पे इतराते हैं



दोस्तो कल पढ़िएगा एक नई कविता
हवा बादल और रेस्टोरेंट

रविवार, अक्तूबर 03, 2010

यकीन का कांच


खिड़कियों में किरणों के जाले दिखते हैं
सूरज का पता मिलता नहीं
ये वक्त कैसी षक्ल लेके आया है
मेरी जिंदगी में अपनी शक्ल देखता है

मुझे बार बार तोड़ने पड़ते हैं किरणों के जाले
हाथ में थोडी सी रोशनी रह जाती हैं
रोशनी से देख रहा हूं जामने के हरफ

धूप से लिख रहा हूं
यकीन के कांच पर-बहुत याद आती है
  हम वर्षो से नहीं मिले ऐसा लगता है 

और यकीन का कांच टूटता नहीं

शनिवार, अक्तूबर 02, 2010