शुक्रवार, अगस्त 23, 2013

न रेंद्र दाभोलकर की हत्या

  अंधविश्वास और जादू टोना के खिलाफ संघर्ष कर रहे पेशे से डॉक्टर नरेंद्र दाभोलकर की शहादत के बाद महाराष्ट्र सरकार ने अंधविश्वास एक्ट लाने का फैसला किया है जबकि यह बहुत पहले होना चाहिए था।


रेंद्र दाभोलकर की हत्या से यह तो साबित हो गया है किसी व्यक्ति को भूत प्रेत और जादू टोना से नहीं मारा  जा सकता। जादू टोना और अंध विश्वास की दम पर जनता को गुमराह करने वाले उनके दुश्मन थे। दाभोलकर की शहादत ने यह तो साबित कर दिया है कि वैज्ञानिक सोच के दुश्मन इस लोकतंत्र में पल रह हैं। इस विज्ञान की प्रधानता वाले समय में सबसे अधिक अंध आस्था और अंधविश्वासों से भरे काला जादू टोने टोटकों को जिस माध्यम ने सबसे प्रचारित किया है उनमें मीडिया की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। अंध विश्वास के कारण होने वाले अपराधों की आधिकारिक रिपोर्टें बताती हैं कि  केवल असम जैसे छोटे राज्य में 2001 से लेकर 2012 तक डायनों की मान्यता के चलते 61 लोग मारे जा चुके हैं। लेकिन आज तक एक भी मामले में सजा नहीं हुई है। जो लोग डायन बताकर हत्या करते हैं, वे बच निकलते हैं, क्योंकि ऐसे मामलों में कोई गवाह  नहीं मिलता है। इसके अलावा किसी एक को दोषी बताना संभव नहीं होता क्योंकि यह काम भीड़ करती है।
आज इलेक्ट्रिोनिक मीडिया, इंटरनेट आदि साधनों के माध्यम से धन बढ़ाने वाले अधंविश्वास, सामाजिक भेदभाव बढ़ाने वाले अंधविश्वासों ने समाज ेमें विज्ञान की महत्ता, ईमानदारी, सादगी जैसे विचारों को एक तरफ रख दिया है।  अंधआस्था की आंधी में वैज्ञानिक लोकतंत्रिक विचारधारा में रहने वालों को भी प्रभावित किया है। कई नेता समाज सेवा की जगह इन अंध आस्थाओं को बढ़ावा देते रहे हैं। श्रद्धा और अंधश्रद्धा में फर्क है। श्रद्धा हमें विवेकवान बनाती है। अंधश्रद्धा विवेक को खारिज कर देती है, तर्क का तिरस्कार करती है। श्रद्धा किस जगह पहुंच कर अंधश्रद्धा का रूप ले लेती है, यह अकसर मालूम नहीं चलता। लोग अंधश्रद्धा को ही धर्म तक समझ लेते हैं। आज से करीब छह शताब्दी पहले संत कबीरदास ने अंधश्रद्धा की अमानवीयता को शिद्दत से महसूस किया था। कबीर संत थे। ईश्वर में गहरा यकीन करते थे। लेकिन, ईश्वर के विधान के नाम पर समाज में व्याप्त अंधविश्वासों की उन्होंने आलोचना की। अंधविश्वासों के नाम पर होनेवाले सामाजिक भेदभाव, अस्पृश्यता की अमानवीयता के खिलाफ आधुनिक वैज्ञानिक सोच वाले लोगों  ने लंबा संघर्ष किया। दाभोलकर उनमें से एक थे। इस आस्था में छिपे शोषण को उजागर किया। आज तमाम तरक्की के बावजूद 21वीं सदी में भी यह संघर्ष आसान नहीं हुआ है, बल्कि मौत का खेल हो गया है!  पेशे से डॉक्टर रहे दाभोलकर तंत्र-मंत्र, जादू-टोना व दूसरे अंधविश्वासों को दूर करने के मिशन में जिस तरह से लगे हुए थे। वह धर्म के स्वयंभू ठेकेदारों को कभी रास नहीं आया। दाभोलकर की हत्या एक व्यक्ति की हत्या नहीं है, यह एक लंबे समर्पण के  बाद वैज्ञानिक तार्किक आधुनिक विचारों की हत्या है। उन्हें आधुनिक कबीर की संज्ञा दी जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। आज अंधविश्वास और भेदभाव को रोकना लोक कल्याणकारी सरकारों की प्राथमिकता में शामिल होना चाहिए।

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