बुधवार, अक्तूबर 09, 2013

नदियों की ये कैसी चिंता

 

नदी प्रदूषण भारत की बड़ी समस्या है। यह प्रतीकात्मक तरीकों से हल नहीं होने वाली। इसके लिए हमें उद्योग और समाज में ऐसे दूरगामी मॉडल की अवश्यकता है जो उन्हें स्वच्छ रख सके।


अ   खबारों में एक खबर है कि गंगा और यमुना में मूर्तियों को विसर्जित नहीं किया जा सकेगा? यह खबर अच्छी है और आश्चर्यजनक है। लेकिन दो कारणों से चकित करती है। इसके दो करण हैं। एक तो यह  कि कहीं यह नदियों के प्रदूषण से ध्यान हटाने की कोई बड़ी साजिश तो नहीं? और दूसरा यह कि मूर्तियां साल भर में कितना प्रदूषण करती हैं? और मूर्तियां ही क्यों प्रतिबंधित हैं? एक अनुमान के अनुसार चमड़े की फैक्ट्री एक दिन में जितना नदी को प्रदूषित करती है, आस्था से विसर्जित मूर्तियां उतना बीस साल में भी नहीं कर सकतीं। तब सवाल है कि पूरा ध्यान इन मूर्तियों पर इसलिए तो केंद्रित नहीं किया जा रहा है कि इससे बड़े प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों से जनता का ध्यान भंग हो। यहां यह सब कहने का अर्थ यह नहीं है कि रसायनिक रंगों से रंगी मूर्तियां पानी में डालना उचित है। प्रदूषण तो एक बूंद का भी हो तो गलत है लेकिन मूल मुद्दा है कि हम प्रदूषण के हर प्रकार पर बात करें। वह औद्योगिक भी हो, धार्मिक या किसी अन्य प्रकार का, प्रदूषण की संपूर्णता में बात होना चाहिए और हर नदी-नाले, तालाब कुए जैसे भी जल स्रोतों पर यह नियम लागू किया जाना चाहिए। भारतीय हर नदी को गंगा का ही रूप मानता है। वह आधुनिक विकास प्रक्रिया में प्राकृतिक जल संसाधनों का बेरहमी से दोहन और शोषण किए जाने से देश की सभी प्रमुख नदियां जल प्रदूषण, भूक्षरण, की समस्याओं से ग्रस्त हैं और प्रवाह मार्ग में बांध, नहर निर्माण, जल प्रवाह के कृत्रिम मार्ग बनाने की प्रक्रिया आदि से नदियों में उथलेपन, जमाव, प्रवाह गति में कमी आदि की समस्याएं उत्पन्न होने से नदियों का जल ग्रहण क्षेत्र भी कम हो रहा है। भारत की परम पवित्र नदी गंगा में प्रदूषण को लेकर देश भर में चिंता व्याप्त है। भारत सरकार समस्या से अनजान नहीं है। सरकार का प्रदूषण नियंत्रण मंडल और जलसंसाधन मंत्रालय राज्यों के सहयोग से नदियों की स्थिति का जायजा लेती रहती है। जलसंसाधन मंत्रालय की सरकारी रिपोर्ट बताती है कि केवल गंगा ही नहीं बल्कि यमुना, नर्मदा, चंबल, बेतवा, सोन, गोदावरी, कावेरी आदि सभी प्रमुख नदियां जलप्रदूषण की गंभीर समस्या से ग्रस्त हैं और दिनों दिन नदियों में प्रदूषण की समस्या गंभीर होती जा रही है।
गंगा देश की प्रमुख नदी है और उसे पवित्र बनाए रखना समाज की जिम्मेदारी है। अप्रैल 1985 में गंगा एक्शन प्लान की शुरुआत हुई और बीस सालों में इस पर 1200 करोड़ रुपये खर्च हुए। लेकिन हम वे चीजें नहीं हटाते जिनसे प्रदूषण फैलता है। ऋ षिकेश से लेकर कोलकाता तक गंगा के किनारे परमाणु बिजलीघर से लेकर रासायनिक खाद तक के कारख़ाने लगे हैं। उन्हें हटाने के लिए कोई योजना सरकार के पास नहीं है। जिन जनहित याचिकाओं पर यह फैसला आया है उनका प्रयास संपूर्ण प्रदूषण के लिए ध्यान केंद्रित करेगा और लोगों में यह जागरूकता आएगी कि नदियां सामाजिक जीवन का हिस्सा हैं उनकी सुरक्षा और स्वच्छता पहली प्राथमिकता होना चाहिए।

सीमांध्र की आग
वोट के लाभ और लोभ में लिए गए फैसले आग ही उगलते हैं। आंध्रप्रदेश का बंटबारा ऐसा ही फैसला साबित हो रहा है। इस आग में राजनीति रोटिंयां सेंक रही है और राज्य का विकास झुलस रहा है।

कें द्रीय मंत्रिमंडल ने पृथक तेलंगाना राज्य बनाने के सरकार के फैसले के साथ ही विरोध की दबी हुई चिंगारी आग की लपटों में बदल गई। हाल ही में इस विरोध को जगनमोहन रेड्डी ने यह कह कर नई हवा दी है कि राज्य को बांटने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी जिम्मेदार हैं और उनका एकमात्र लक्ष्य है राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाना। जगनमोहन रेड्डी सीमांध्र में बहुत लोकप्रिय हैं और उनके लिए राज्य का बंटवारा एक राजनीतिक वरदान साबित हो रहा है। तेलंगाना मुद्दे का फायदा उठाने में चंद्रबाबू नायडू जगन से पीछे  हैं क्योंकि उन्होंने काफी दिनों तक तेलंगाना बनाए जाने का विरोध नहीं किया था और उनका रवैया भी इधर उधर वाला रहा था। लेकिन कुल मिला कर यही कहा जा सकता है कि हर पार्टी और छोटे दल अपनी अपने चुनावी गणित में उलझे हैं और जनता को राज्य के बंटबारे की आग में झुलसने छोड़ दिया है।
 अलग राज्य की मांग को लेकर हिंसा और उपद्रव अब देश की राजनीतिक संस्कृति का अंग बन चुके हैं, लेकिन तेलंगाना के मामले में फिलहाल एक उलटी प्रक्रिया आकार ले रही है। वहां सीमांध्र के नाम से पुकारे जा रहे शेष आंध्र प्रदेश में राज्य के विभाजन के खिलाफ कहीं ज्यादा बड़े उपद्रव की रूपरेखा तैयार होती दिखाई पड़ रही है जबकि तेलंगाना को अलग राज्य बनाने का आंदोलन काफी पुराना है। यूपीए ने पिछले आम चुनाव में दबे ढंग से और उसके तुरंत बाद खुलकर इस आंदोलन के पक्ष में अपनी राय जाहिर की थी। ऐसे में अच्छा होता कि बीते पांच सालों में राज्य के व्यवस्थित विभाजन को लेकर सारी तैयारियां की जातीं। लेकिन जगनमोहन रेड्डी से कांग्रेस और यूपीए के जिम्मेदारों का कोई संवाद ही नहीं बन पाया। यह सब अचानक नहीं हो रहा है। कुछ सालों से आंध्र प्रदेश की राजनीति को जोड़े रखने वाले सूत्र पूरी तरह टूट चुके हैं और अलग राज्य का मामला वहां हिंसा   और घृणा का सबब बन गया है। सबसे बड़ी मुश्किल हैदराबाद को लेकर है क्योंकि पिछले दो दशकों से राज्य के सारे ही जिलों से पूंजी उठ-उठकर हैदराबाद और इसके आस-पास के इलाकों में आ रही है। तटीय आंध्र और रायलसीमा इलाकों के जिन लोगों ने लाखों-करोड़ों रुपए का निवेश, मकान, जमीन और फैक्टरियों में फंसा रखे हैं, और साथ में जो हजारों लोग  नौकरी करते हैं, उन सभी को हैदराबाद के तेलंगाना का हिस्सा बन जाने से अपनी पूरी दुनिया उजड़ती हुई लग रही है। सीमांध्र के लिए एक नई राजधानी और रोजी-रोटी देने वाला एक बड़ा औद्योगिक इलाका बनाना दस-बीस साल का काम है, जिसमें एक पूरी पीढ़ी खप जाएगी। ऐसे में लोगों को भरोसा दिलाने का काम बड़े राष्ट्रीय प्रयासों के जरिए ही हो सकता है। मुश्किल यह है कि अगले छह महीनों के चुनावी माहौल में इस तो क्या किसी भी मुद्दे पर न्यूनतम राष्ट्रीय सहमति बन पाने की भी कोई गुंजाइश नहीं है। ऐसे में सभी से शांत रहने और सारे मामले सुलझाने के लिए मुश्किल आशा ही की जा सकती है। आने वाले समय में बंटबारे की राजनीति अपना असर दिखाएगी।

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