रविवार, अक्तूबर 27, 2013

गांव से एक दिन......... कविताएं


 
रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति

   
आत्मकथ्य
मेरे लिए अपने आपको गांव या शहर में किसी भी रूप में बांटना मुश्किल होता है। खुद को और कविता को बांटना मेरे लिए संभव नहीं होता है। मैं समझ नहीं पाता कि वह कौन सी सीमा रेखा है जिससे समाज अलग अलग होता है। हम सुविधाओं के लिए खुद को अलग अलग सीमाओं में बांटते हैं लेकिन दरअसल वे कोई सीमा होती नहीं हैं। वे एक ऐसा बिंदु होती हैं जिसको हम सुविधा के लिए स्वीकार करते हैं। यहीं दूसरी बात ये है कि आखिर मैं क्यों नहीं बांट पाता? क्या कारण हैं कि ऐसा है? यहां अपनी बात एक उदाहरण से स्पष्ट करना जरूरी है। विज्ञान के नजरिये से देखें तो अंधेरा और उजाला कोई दो स्थितियों या पक्षों का प्रतीक नहीं हैं। वे प्रकाश कणों की विरलता और सघनता का स्तर ही होते हैं। जब बहुत अधिक प्रकाश कण होते हैं तो दिन होता है और जब वे धीरे धीरे कम होते जाते हैं, उनमें विरलता आती जाती है तो वे अंधेरे का निर्माण का भ्रम देते हैं। यानी स्केल एक ही होता है। अब जब स्केल एक है पैमाना एक है तो आप उसे दो अलग पक्ष जब करेंगे तो एक सुविधा के लिए करेंगे। यह सुविधा प्रशासन के लिए ठीक है कि रात हो गई तो लाइट की व्वस्था की जाए। या शहर से बाहर जंगल या गांव आ गए है तो विशेष चौकी की स्थापनाएं की जाएं लेकिन ये कविताओं के लिए भाव के लिए संभव नहीं हैं। कम से कम मैं अपनी जिम्मेदारी पर स्वीकार करता हूं कि मेरे लिए यह अलगाव स्वीकार नहीं.... यही कारण है कि मैं गांव को सभ्यता के स्केल के निम्मतम हिस्सों से उच्चतर हिस्सों की ओर आने वाले वर्ग की तरह देखता हूं।

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गांव से एक दिन

मैं गांव में था तो सिर्फ गांव में नहीं था
कुछ गांव भी मुझमें था

चीजें सिर्फ गांव के मेढ़े तक नहीं थीं
कुछ इस तरफ और कुछ उस तरफ थीं
शहर सपनों की चादर में चिपक कर आता रहा
मैं शहर और गांव दोनों में खुद का जीता रहा

एक बस आती थी-धूल का बादल लिए
वह पहला गुब्बारा था जो शहर से गांव आया
उसी में कुछ हवाएं कुछ कल्पनाएं आती थीं
शहर कैसा होता है न जाने कितने किस्सों के साथ

जब मैंने शहर नहीं देखा था, पर शहर था
देखे थे रंगीन जगमगाते दृश्य
यह शहर टीवी की स्क्रीन से उतरा था
गांव के लड़कों के दिमाग में जाकर छुप गया था

गांव के आंगन में शहर आता था
बस में रखा थैला बन कर
बिस्कुट का एक पैकिट और कुछ खिलौने साथ
शहर में सब कुछ क्यों होता है?

आज सोचता हूं
मेरा गांव धीरे-धीरे शहर से चिपक रहा है
मैं एक नक्शे की तरह दोनों में दर्ज




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पुल से लिपट कर रोती नदी

पुल बना और गांव सुंदर हुआ
नदी सूखी तो गांव ने इधर-उधर देखा
यह अचानक सब नहीं हुआ था लेकि न
उत्तर किसी के पास नहीं था

मेरे गांव के लोगों के लिए
कुछ मील दूर सुनाई पड़ता था किसी काम का शोर
वहां बजते रहते थे विशाल इंजिनों के सिलेंडर
धुंआ और मजदूरों की लंबी सासें जिंदा दिन रात
मिट्टी को अलटती मशीनों की लंबी भुजाएं

रात को भी नहीं रुकती थी आवाज की बाढ़
काम लगातार होता था गांव को पता नहीं था
पुल नदी के लिए बनाया था या सूखने के लिए

वे आवाजें एक दिन पूरी तरह शांत हो गर्इं
मशीनें खराब पुरजे छोड़ कर न जाने कहां चली गर्इं
आसमान से देवता देखते थे यह सब
गांव सोचता था किसी देवता की करामात है यह
जैसे ही काम रुका नदी ने सूखना शुरु कर दिया

पुल एक सूखी नदी पर एक स्मारक था अब
जिस पर वक्त ट्रकों की तरह गुजरने लगा था

नदी बीमार गाय की तरह गांव में आती है
जब भी पुल के नीचे से गुजरती है
शाम की रोशनी में पुल से लिपट कर रोती है

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तुम्हारा गांव और तुम

मेरे दोस्त मुझे नहीं चाहिए गांव
नहीं चाहिए इन गांवों की तरीफ

यहां कांटे कीचड़ पत्थर हैं
मेरे गांव को शहर बना दो

मैं बदल रहा हूं अपना गीत
जब तुम आते हो अपने गांव
दो दिन में ही लौट पड़े हो
क्यों न रहे तुम अपने गांव?

खेत नहीं खलिहान नहीं फिर कैसा ये गांव बचा
बैल नहीं, तालाब नहीं फिर ये कैसा ये गांव रहा

कोई नहीं लौटता गांवों में रहने
शहरों का अपराध लिए तुम भी


धीरे धीरे बच कर यादों की नाव चलाते
ओ कवि तुम हमको भी शहर बुला लो 

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परंपराएं


जब गांव सरककर हाईवे पर दुकान खोल लेता है
अपने गांव को याद करना कितना मुश्किल हो जाता है
बेचता है गन्ने का रस, सिगरेट, चाय और पेटिस
यह न जाने कहां से आ जाता है अपने आप दुकानों में

न जाने कैसे लोग आते हैं यहां
बगल में दादी चीखती सी है-
मांगते क्यों है वही जो वे खाना चाहते हैं
हम खाते हैं वे क्यों नहीं खाते वह

ये शहर वाले भी कभी गांव वाले थे
लाल मिर्च की सब्जी और तेल वाला गुरगा
आज क्यों कहते हैं मिर्च कम शकर कम
मीठा खाना तो नहीं रहा बुरा जन्म भर से
फिर शहर में ये क्या करने लगे ऐसा
शक्कर भी नहीं गुड़ भी नहीं मिरचा भी नहीं

अरे हमारी तो परंपरा रही है मीठा खाने की
मिरचा में दगा मुरगा और ज्वार की रोटी

ये शहर वाले मिरचा भी नहीं खाने देते
मीठा भी खाने से डरते डराते हैं भला
सारी ज्वार तुला कर ले गए खेतों से
बीज भी न बचने दे रहे यहां

समेटते से लगते हैं मेरे गांव की परंपराएं
लड़कियां भी गांव में शहर की तरह पंसद करते हैं

एक दादी भी कुछ दिन वकालत करेगी गांव की
फिर चली जाएगी जलने और   में एक दिन के लिए आऊंगा
इसके बाद गांव जल्दी जल्दी शहर होने की कोशिश करेगा

कोई भी कुछ नहीं करेगा
सारे गांव वाले कम शकर और कम मिर्च खाने लगेंगे







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