बुधवार, सितंबर 12, 2012

  नर्मदा की डूब में

जमीन छीन कर विस्थापन का दर्द देना, न्याय नहीं हो सकता। आधुनिक विकास और ग्रोथ के नाम पर सरकारें आदिवासी, वंचित और गरीब तबकों के साथ ऐसा करते हैं। उनको पूरा मुआवजा मिलना ही चाहिए।




न र्मदा नदी में जल सत्याग्रह कर रहे लोगों की आवाज दो हफ्ते बाद भी भोपाल तक पहुंची है। आधुनिकता का यह अभिशाप देश के उन लाखों लोगों को भुगतना पड़ रहा जिनकी जमीनों पर शहरों के लिए सुविधा-संसाधनों का विकास किया गया है। चाहे बिजली परियोजनाएं हों या फिर नदियों को प्रदूषित करने वाली तमाम फैक्ट्रियां और कारखाने। सरकारें इन इलाकों में रहने वाले लोगों के प्रति उपेक्षित रवैया अपनाती रही हैं। स्थानीय लोग कुछ संगठनों के माध्यम से विरोध प्रदर्शन करते रहे हैं। लेकिन यह भी सवाल करने योग्य है कि बिना प्रताड़ित हुए या परेशान हुए कोई इस तरह के आंदोलन क्यों करेगा? नर्मदा नदी पर बांध बनाए जाने और उसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन का इतिहास पुराना है। बिजली और सिंचाई की कमी को दूर करने के लिए 80 के दशक में नर्मदा घाटी विकास योजना की रूपरेखा तैयार की गई थी। परियोजना के मुताबिक 1312 किलोमीटर लंबी नर्मदा नदी पर 30 बड़े, 135 मध्यम और 3000 छोटे बांध बनाए जाने थे। सरदार सरोवर और इंदिरा सागर बांध नर्मदा नदी पर बनाए जाने वाले सबसे बडेÞ बांधों में से एक हैं। नर्मदा जल सत्याग्रह इसलिए नहीं हो रहा है कि सत्याग्रही बांध को ध्वस्त करना चाहते हैं। यह तो उन विस्थापन नियमों के अनुसार क्षतिपूर्ति की मांग  के लिए हो रहा है। मध्यप्रदेश के खंडवा के निचले इलाकों में रहने वाले लोगों को अन्यत्र बसाए बिना नर्मदा नदी पर ओंकारेश्वर बांध में पानी 189 मीटर से बढ़ाकर 193 मीटर करने के विरोध में यह सत्याग्रह हो रहा है। नर्मदा बचाओ आंदोलन से जुड़े लोगों का आरोप है कि मध्य प्रदेश सरकार कोर्ट के आदेश की भी अनदेखी कर रही है, जिसमें पानी बढ़ाने से 6 महीने पहले लोगों को कहीं और बसाने की बात कही गई थी। ओंकारेश्वर बांध में पानी 190 मीटर तक पहुंच चुका है और इसका असर घोगल, कामनखेड़ा जैसे 28 दूसरे गांवों पड़ रहा है। पानी में फसलें   डूबकर गल रही हैं।
 शासकीय कंपनी एनएचडीसी पिछले कई वर्षों से विद्युत उत्पादन प्रारंभ कर चुकी है और इस दौरान उसने सैकड़ों करोड़ रुपए का आर्थिक लाभ भी कमाया है। लेकिन वह पुनर्वास नीति के अनिवार्य प्रावधान कि परिवार के वयस्क सदस्य को जमीन के बदले जमीन दे, का पालन नहीं कर रही है। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने अंतरिम निर्णय में इंदिरा सागर बांध से बेदखल होने वालों के लिए भी जमीन के बदले जमीन के सिद्धांत को स्वीकार कर इस संबंध में मध्यप्रदेश शासन को निर्देश भी दिए हैं। लेकिन शासन, प्रशासन एवं कंपनी की हठधर्मिता के चलते इस आदेश का क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा है। सत्याग्रहियों के गिरते स्वास्थ्य से सरकार भी चिंतित हो उठी है। सत्याग्रही अपील कर रहे हैं कि ओंकारेश्वर बांध का जलस्तर 189 मीटर एवं इंदिरा सागर बांध का जलस्तर 260 मीटर पर लाएं और सभी विस्थापितों को जमीन के बदले जमीन एवं अन्य पुनर्वास सुविधाएं प्रदान करें। सरकार को इस मामले में त्वरित न्यायोचित कदम उठाना चाहिए।




कुरियन की क्रांति
भारत की दुग्ध क्रांति के सूत्रधार डॉ. कुरियन को अब हम नहीं देख पाएंगे लेकिन उनके द्वारा स्थापित संस्थाओं में युगों तक दिखाई देंगे। सहकारिता में नए प्रयोगों के लिए आज ये देश उनका आभारी है।

देश में दुग्धक्रांति के जनक डॉ. वर्गीज कुरियन नहीं रहे। 26 नवंबर 1921 को केरल में जन्में श्री कुरियन ने शनिवार की शाम गुजरात के नांदेड में अंतिम सांस ली। किसानों के हितों, कृषि एवं देश के विकास में उनका अमूल्य योगदान है। अपने लंबे सेवाभावी करियर में डॉ। कुरियन ने सहकारी डेरी विकास के नए माडल की स्थापना करके दुग्धक्रांति की कार्ययोजना तैयार की और भारत को दुनिया का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक देश बनाया। दूसरे शब्दों में दूध की नदियों वाला देश बनाया। कुरियन ने 1949 में 28 साल की उम्र में गुजरात के आंणद में कदम रखा और देश की सबसे बड़ी दुग्ध उत्पाद संस्था की स्थापना कर किसानों के जीवन में क्रांतिकारी बदलाव लाए। वर्ष 1955 में उनके सानिध्य में बनी एशिया की सबसे बड़ी डेयरी से प्रतिदिन 20 हजार लीटर दूध-उत्पादन से शुरुआत हुई। एक छोटी सी संस्था से गांव-गांव से इकठ्ठा किए दूध को एक जगह इकठ्ठा करना शुरू किया। यही छोटी सी चीज थी जिसमें अमूल जैसा एक महान ब्रॉड का भविष्य दर्ज था। कुरियन ने दूध खराब न हो और देश के कोने तक पहुंचे इसके नई तकनीकों का विकास किया। सबसे महत्वपूर्ण बात ये थी कि इस मॉडल में बिचौलिये नहीं थे। किसानों का मॉडल किसान ही चला रहे थे। धीरे-धीरे इस मॉडल से लाखों किसान जुड़े जिससे गुजरात और देश के सहकारी दूध उद्योग की तासीर और तस्वीर ही बदल गई। इसके बाद अमूल ब्रांड आया। डॉ। कुरियन की मेहनत और लगन ने हिन्दुस्तान में ही नहीं बल्कि दुनियाभर में अमूल को बेहतरीन दूध प्रोडक्ट्स के रूप में स्थापित किया। डॉ। कुरियन को आधुनिक दुनिया का सबसे महान कृषि नेता भी कहा जाता है। उनके पास देश और किसानों के लिए गजब की दूरदर्शी सोच थी। अमूल डॉ। वर्गीस कुरियन का सपना था जो एक क्रांति में तब्दील हो गया।
आजादी के वक्त डेयरी उद्योग कुछ प्राइवेट हाथों में था। इसमें किसानों का शोषण होता था और किसानों की सहभागिता भी नहीं थी। डॉ. कुरियन ने जो बीड़ा उठाया उसने गुजरात ही नहीं देश के किसानों को नया मॉडल दिया। उनके नेतृत्व में 1970 के दशक में दुग्ध क्रांति की ऐसी शुरुआत की, जिसके दम पर भारत दुग्ध उत्पादन करने वाले दुनिया के प्रमुख देशों में शामिल है। उन्होंने देखा समझा कि देश में बड़ी संख्या में किसान गाय-भैंस पालते हैं। कुरियन ने किसानों को उनकी भैंस के बल पर आर्थिक रूप से मजबूत बनाने के लिए पहली बार भैंस के दूध का पाउडर बनाने की पहल की जिसने भारत को दुनिया में भैंस के दूध का पाउडर बनाने वाला पहला देश बनाया। आज अमूल के लिए देश के एक करोड़ से अधिक किसान प्रति दिन दो करोड़ लीटर से अधिक दूध का उत्पादन कर रहे हैं, देश के घर-घर तक दूध पहुंचाने का सपना सच करने वाले शख्स ने अपनी आंखें हमेशा के लिए बंद कर लीं लेकिन उनकी सच्ची आंखें  वे लाखों किसान हैं जो उनकी संस्था में अनवरत काम कर रहे हैं। कर्मवीर कुरियन को नमन।



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