शुक्रवार, जुलाई 19, 2013

दो पैसे के लिए लोगों का धर्म-कर्म सब बिक रहा है

 
बच्चों को भोजन देने में जितनी लापरवाही इस देश में हो रही है उसे देख कर लगता है कि हम किसी आत्माविहीन देश में रह रहे हैं, जहां दो पैसे के लिए लोगों का धर्म-कर्म सब बिक रहा है।





बिहार में मध्यान्ह भोजन त्रासदी में बच्चे अपने जीवन को जीने से पहले ही मौत की तरफ धकेल दिए गए। मध्यान्ह भोजन खाने से बीमार पड़ने जैसे शिकायतें तो आती रहती थीं लेकिन उसमें जहर भी हो सकता है यह कल्पना से परे है। इस
त्रासदी के बाद केन्द्र सरकार ने निगरानी समिति गठित करने का निर्णय किया है जो आपूर्ति किये गए भोजन की गुणवत्ता को देखेगी। उम्मीद की जाती है कि समिति मौजूदा मध्याह्न भोजन निगरानी समिति के प्रयासों को आगे बढ़ाने में मदद करेगी जो साल में दो बार बैठक करती है और राज्यों को किसी तरह की कमी के बारे में सचेत करती है। बिहार के सारण जिले में जहरीला मध्यान्ह भोजन से बच्चों की मौत सिर्फ दुखद है। इसने देश को झकझोरा है। भारत में सरकारी कामकाज गरीबों के लिए कोई मुद्दा ही नहीं है। मिलावटी राशन, खाने के सामान, मिठाइयां, सब कुछ  मिलावट की भेंट चढ़ता जा रहा है। सब कुछ जहरीला हो रहा है।  स्कूलों में खाना खाने वाले बच्चे समाज के सबसे कमजोर तबकों से आते हैं, इसलिए वे ही इसे खाने का खतरा उठाते हैं। अगर यह योजना बच्चों का सिर्फ पेट भरने के लिए नहीं, बल्कि उनके लिए अच्छा पोषण सुनिश्चित करने के लिए है, तो इसमें सबसे ज्यादा ध्यान खाने की गुणवत्ता पर दिया जाना जरूरी है। लेकिन भ्रष्टाचार और लापरवाही इतनी अधिक है कि कहीं  ठीक खाना बच्चों को मिल रहा हो, तो यह उन बच्चों का सौभाग्य है। वरना तो हमारा प्रशासन और इसके लिए जिम्मेदार लोगों ने अपना कर्तव्य और ईमान सब कुछ बेच दिया है। घटना के बाद  राजनेता बयानबाजी करके राजनीतिक लाभ लेना चाहते हैं, उन्हें भी एक बार  सोचना होगा कि इस भ्रष्टाचार और लापरवाह तंत्र को बनाने में उनकी जवाबदेही भी है। इससे पहले भी मध्यान्ह भोजन की गड़बड़ियों को सुधारने की कोशिशें की गईं थीं। ये कोशिशें नाकारा साबित हुईं, क्योंकि इस कार्यक्रम का दारोमदार जिन लोगों पर है, उन्हें ही इस कार्यक्रम पर यकीन नहीं है। हमारे देश में अच्छी योजनाएं बनती हैं, उनके पीछे अच्छे उद्देश्य होते हं, लेकिन उन पर अमल इसलिए नहीं हो पाता, क्योंकि जिन लोगों को लागू करना है, वे इसे नौकरी का हिस्सा मानते हैं। हमारे प्रशासन में किसी को जवाबदेह बनाने की कोई कोशिश नहीं होती। जिन अधिकारियों और शिक्षकों को ग्रामीण बच्चों को पढ़ाने और भोजन देने का काम सौपा जाता है, वे यह मानकर चलते हैं कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले और मिड डे मील खाने वाले बच्चे समाज के निम्न और कमजोर लोगों के बच्चों के लिए है। यह वर्ग मानता है कि इन बच्चों को जैसा भी भोजन मिल जाए, वही काफी है। उस भोजन की गुणवत्ता उनके लिए कोई मायने नहीं रखती। इस घटना के बाद जैसे कि खबरें आ रही हैं कि इस भोजन में जहर था तो यह और भी दुखद है। इस देश में बच्चों के साथ इतनी क्रूरता की जा सकती है तो यह हद दर्जे कि हम किसी आत्माविहीन देश में रह रहे हैं, जहां दो पैसे के लिए लोगों का धर्म-कर्म सब बिक रहा है।

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