सोमवार, जून 28, 2010

विकास का मतलब महंगाई क्यों हुआ

आज सरकार जिन फैसलों पर अमल कर रही है, क्या उसमें जनता के हितों का ध्यान रखा गया है...


पेट्रोल, डीजल के साथ रसोई गैस के दाम बढ़ने से किसी तरह जीवन गुजारने वाले गरीब और दैनिक वेतन भोगी ही नहीं बल्कि सामान्य सी हैसियत वाले परिवारों वाला एक तबका स्तब्ध है। इस समय महंगाई अपने चरम पर है। ऐसे में तेल कंपनियों का घाटा खत्म करने की सरकारी चिंता अचंभे में डालती है। कुछ दिन से समाचार पत्रों के माध्यम से सरकार संभावित मूल्य वृद्धि की खबरें हवा में तैर रही थीं। जो कि शनिवार को सामने आ गर्इं और जनता को पता चल गया कि क्या-क्या कितना महंगा हुआ है।
 भारत के लोकतांत्रिक ढांचे में विश्व व्यापार पर आधारित आर्थिक तंत्र का प्रवेश हो चुका है। सरकार भी इस व्यवस्था का जमकर समर्थन कर रही है। यह पूरी व्यवस्था निजीकरण और विश्व अर्थव्यवस्था पर केंद्रित रही है। विश्व व्यापार पर आधारित अर्थ व्यवस्था में सबसे अधिक हनन लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा का हो रहा है। निजीकरण को सरकार संरक्षण और प्रोत्साहन तो पिछले कुछ सालों से लगातार मिल रहा था। यह मंदी के आने पर और अधिक मुखर हो गया है। अरबों रुपए के राहत पैकेज जारी किए गए। इन सबका लाभ देश के व्यापक जन समूह तक पहुंचाने की सरकार की कोई इच्छा शक्ति  दिखाई नहीं देती। इस जनसमूह में देश की लगभग 60 प्रतिशत जनता है जो मामूली से रोजगार, छोटे उद्योगों, कुटीर उद्योगोें,  कृषि मजदूर और रोज काम करके पेट भरने वालों से बना है। ये जन समूह देश के गांवों और कस्बों में रहता है। मंदी में दिया गया सारा पैसा कंपनियों के अपने लाभ के खाते में गया, लेकिन जिन फैसलों से सामान्य जनता राहत मिले उन पर विचार करने के लिए सरकार और उसके मंत्रियों के पास समय ही नहीं है। आज सरकार जिन फैसलों पर अमल कर रही है, क्या उनकी रजामंदी इन लोकतांत्रिक सरकारों ने अपनी जनता से ली है। क्या उसे अपने फै सलों में शामिल किया है। लगता है देश कंपनियां ही चलाने लगी हैं। और जिन जनप्रतिनिधियों से मिलकर सरकार बनी है, उसमें सार्वजनिक जीवन की मजबूरियां समझने की क्षमता जैसे खो गई है। जबकि सरकार को सबसे ज्यादा चिंता आम जनता की ही होनी चाहिए।

ravindra swapnil prajapati

बुधवार, जून 23, 2010

  पर्यावरण पर कुछ काव्य भाव 
-रविन्द्र स्वप्निल प्रजापति

मैं एक पेड़ हूं मुझे डराओ मत
उगने दो मैं तुम्हें छांव और फल दूंगा

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हवाएं मेरी प्रेमिकाएं हैं
वे मुझमें सरसराती हैं
तुम भी सरसराओ मनुज
मेरी छांव में आओ

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मैं नदी हूँ  और वक्त की  हथेली पर बहती हूं
मुझे मिटाया तो जिंदगी की रेखा भी मिटेगी

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ओ बादल तुम धरती के प्यार हो
अपना प्यार बरसाओ मैं पुकारता हूं

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बादल बरसो तुम धरती के प्यार हो
मैं तुम्हें पुकारता हूं ...


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धरती को मुस्कुराना आता है
वो मुस्कुराती है
दुनिया में कोई फूल खिलता है
देखो एक फूल खिला है

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हम तुम्हारे सहचर हैं ओ धरती के मालिक
तुम ये मत सोचो कि जंगल सर्फ तुम्हारे हैं

...

हरियाली धरती का आंचल है
आओ फूलों के सितारे टांकें
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हवाएं सांसों में ही नहीं बसतीं
तूफान भी उन्हीं से जन्म लेते हैं
...

वक्त अपनी पहचान पेड़ों में रख गया है
लौट के आएगा अपनी पहचान पूछेगा

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ओ मनुष्य तुम्हारी हर निर्माण
हवा-पानी के बिना अधूरा है
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मत भूलो कि सभ्यताएं पानी ने नष्ट की हैं
हवाओं के बेटे तूफान ही मिट्टी में मिलाते हैं

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मैं हरियाली हूं ,सभ्यताओं की प्रेमिका
जब रूठती हूं तो रेगिस्तान आते हैं

...

डर लगता है ये पेड़ कल रहे न रहे

 

उर्मिला शिरीष से बातचीत पर आधारित


मेरी चिंता डर में बदल गई है। मैं अक्सर आते जाते किसी पेड़ को देखती हूं और सोचती हूं कि कहीं यह कल न दिखा तो। कहीं यह कट गया तो... कब यह दिखना बंद हो जाएगा पता नहीं...।  लेकिन मुझे आशा है कि जल्दी ही हम अपने परिवेश और पर्यावरण के बीच पौधों
को इस डर से मुक्त कर लेंगे।


.......
पर्यावरण का मतलब हरियाली नहीं है जो कि कभी होता था। अब पर्यावरण का मतलब है कि आसपास उजाड़ जंगल, सूखी, गंदी नदियां। प्रदूषित वायु, गंदा पानी ये सब पर्यावरण के अर्थ की तरह हो गए हैं। आज पर्यावरण को कानून की आवश्यकता है। पर्यावरण का मतलब है कि पेड़ काटे जाना बंद होना चाहिए। पर्यावरण की रक्षा के लिए विकास के नाम पर प्रकृति की बरबादी कानूनन बंद हो जाना चाहिए। सबसे अधिक विकास के नाम पर पेड़ों की कटाई हो रही है। कई तरीके से लोग प्रकृति को बरबाद करने पर तुले हुए हैं। हम सब इसके लिए जिम्मेदार हैं। हमें प्रकृति के साथ रहना ही नहीं आया। हम जो कुछ कर रहे हैं वह प्रकृति पर अत्याचार की तरह है।
 चारों तरफ विकास के नाम पर पेड़ काटे जा रहे हैं। चाहे सड़क चौड़ी करना हो या फिर कोई नई कालोनी बसाना हो। पेड़ और प्रकृति का परिवेश ही उजड़ता है। यही कारण है कि वन्य जीवों के प्राकृतिक रहवास नष्ट हो रहे हैं। उन्हें नदियों और जंगलों से उजाड़ कर हम अपनी कालोनियां, कारखाने, उद्योग लगाए जा रहे हैं। अब वे इंसानी बस्तियों की ओर पानी और भोजन की तलाश में मरने चले आते हैं। गांव और शहरों के लोग समान रूप से निरीह और खतरों से अनजान जानवरों को निर्दयता से मारने दौड़ते हैं या मार डालते हैं। बस्ती में आना जानवर की मजबूरी है, जिसे मनुष्य ने ही पैदा किया है। क्या कारण है कि जानवरों के लिए बहने वाली नदियां सूख गर्इं। उनके रहने के स्थान को नष्ट कर खेतों में बदल दिया गया। इस सबका क्या अर्थ होगा, जब मौसम ही आपका साथ नहीं देगा, तब क्या जीवन होगा मनुष्य का? हवाओं के बीच भी रहना मुश्किल हो जाए और पीने का पानी भी नसीब न हो।
पेड़ों को काटना गैर जमानती आपराधिक कृत्य में शामिल किया जाना जरूरी है। एक पेड़ के साथ कई चीजें अपने आप ही सामने आती हैं। जहां पेड़ न हों वहां मकान बनाने की अनुमति नहीं देना चाहिए। किसी समय भोपाल सघनता से हरा-भरा था लेकिन आज उसकी हरियाली पर संकट है। चीखते सब हैं पर वास्तविक धरातल पर कोई सामने नहीं आता। हर मकान के साथ कुछ पेड़ लगाने का नियम अनिवार्य होना चाहिए। जिस किसी खेत में पेड़ हों उस किसान को बैंक ऋणों के मिलने में आसानी होना चाहिए। इस तरह के प्रयासों के अलावा हमें जंगलों की सुरक्षा के उपाय भी करने होंगे। जंगल बचेगा तभी तो हमारे लिए ऐसा मौसम बचेगा जो मनुष्य को पर्यावरणीय संकटों से बचाएगा।
हमारी सरकारों का रवैया घोषणाओं का अधिक होता है। वे सिर्फ घोषणाएं करती हैं और धरातल पर क्या हो रहा है कितना अमल हो रहा है उसे देखने की किसी को फुरसत नहीं है। बीते वर्षों में लाखों वृक्ष रोपे गए, लेकिन वे कहां हैं? उनका रख रखाव नहीं होता। उनकी देखभाल नहीं होती। उनको समय पर पानी नहीं मिलता। अप्रशिक्षित लोगों के हाथों में पौधरोपण सौंप कर हम जिम्मेदारी पूरी समझ लेते हैं। अब पर्यावरण एक व्यापक समस्या बन चुकी है तो समाज के अन्य लोगों की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। हमें अपने परिवेश में पेड़ों, जंगलों, नदियों की वैसी ही देखभाल करना होगी जैसी हम अपने बच्चों की करते हैं।
पर्यावरण के लिए मेरी चिंता एक डर में बदल गई है। मैं अक्सर आते जाते पेड़ों को देखती हूं और सोचती हूं कि कहीं यह पेड़ कल न दिखा तो। कहीं यह कट गया तो... कब यह दिखना बंद हो जाएगा, पता नहीं...। मुझे आशा है कि जल्दी ही हम अपने परिवेश और पर्यावरण के बीच जंगलों को इस डर से मुक्त कर लेंगे और धरती फिर हरियाली से भर जाएगी।

रविवार, जून 20, 2010

 
हमारी नीतियों का बायप्रोडक्ट है पर्यावरण समस्या
भगवत रावत 
 विचारक एवं कवि
 रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापित से बातचीत पर आधारित

पर्यावरण विनाश पूंजीवादी संस्कृति है। यह लेखक कवि या दुकानदार की निजी समस्या नहीं है। यह एक व्यापक समस्या है। यह दस पेड़ लगाने की समस्या नहीं है। ऐसा नहीं है कि केवल दस पेड़ लगा कर पर्यावरण को ठीक किया जा सकता है। एक व्यक्ति पेड़ लगाए यह अच्छी बात है लेकिन इससे पर्यावरण की क्षतिपूर्ति का संबंध जोड़ना उचित नहीं है।



पर्यावरण कोई अलग समस्या नहीं है जिसे अलग से हल किया जाए। यह तो हमारे फैसलों और नीतियों का बाई प्रोडक्ट है। पर्यावरण विनाश पूंजीवादी संस्कृति है। यह किसी व्यक्ति की निजी समस्या नहीं है। यह एक व्यापक और ग्लोबल समस्या है। यह दस पेड़ लगाने की समस्या नहीं है। हां, एक व्यक्ति पेड़ लगाए यह अच्छी बात है लेकिन इससे पर्यावरण की क्षतिपूर्ति का संबंध जोड़ना उचित नहीं है। लोग पेड़ वैसे भी लगाते ही हंै। आप देखो जहां कोई बस्ती होती है वहां कुछ पेड़ अवश्य ही लगाए जाते हैं, लेकिन यह पर्यावरण जैसे व्यापक शब्द के लिए पर्याप्त नहीं होता। पर्यावरण एक विशाल अर्थ वाला शब्द है जिसे आप दस पांच पेड़ों से तय नहीं कर सकते।
इसके लिए हमें सरकारी नीतियों को सुधारने की आवश्कता है। जब विशाल फैक्ट्रियां और कारखाने लगते हैं तब पर्यावरण की चिंता की बात करना चाहिए। सरकार इन फैक्ट्रियों को अनुमति देते समय पर्यावरण के लिए जो शर्तें रखती है वे कहां पूरी होती हैं। अब समय है हमने जो शर्तें रखी हैं वे और कड़ी हों। उनका पालन सुनिश्चित होना चाहिए। अक्सर होता ये है कि कोई बड़ा उद्योगपति शर्तें मानने की हां तो भर देता है लेकिन करता वही है जो उसे करना होता है। वह प्रदूषण फैलाता है और पर्यावरण को बरबाद करता है। आखिर में वही फैक्ट्री नदियों और हवाओं को गंदा करती है। पानी में जहर घोलती है। दूर न भी जाएं तो भोपाल के आसपास तमाम कारखाने, फैक्ट्रियां आसपास की नदियों को बरबाद कर चुके हैं। जिन नदियों में कभी साल भर पानी रहता था वहां अब गंदगी है। उनमें बरसात के बाद पानी सूख जाता है। एक नदी के सूखने से जो नुकसान होता है, उसकी क्षतिपूर्ति का आंकलन कौन कर रहा है?
ऐसा नहीं है कि व्यवस्था हो नहीं सकती। हो सकती है और इसके लिए जिम्मेदार  लोगों को आगे आना चाहिए।
अब ऐसा भी नहीं है कि जो सुविधाएं समाज ने प्राप्त कर ली हैं तो वह उन्हें छोड़ दे। हम आधुनिकता विरोधी नहीं हैं कि जंगल में चले जाएं। लेकिन मकान और फैक्ट्री बनाने के जो मानक तय हैं जैसे कि रेनवाटर हार्वेस्टिंग, उसका कितना पालन हो रहा है। कितनी फैक्ट्रियों में यह लागू हो रहा है। कितने घरों की अनुमति देते समय यह सुनिश्चित किया जा रहा है। तो आपको यह सब देखना पड़ेगा। यह आज समझ में आ रहा है कि पानी बचाना है। आज भी इस नियम को लागू नहीं करने के मामले में सबसे अधिक पूंजीपति वर्ग जिम्मेदार है। यही सबसे अधिक पानी बरबाद करता है।
कहा जा रहा है कि कविता में, लेखन में प्रकृति खो गई है। प्रकृति बची ही नहीं है तो आएगी कहां से। आज किसी कवि को नीलकंठ नहीं दिखता तो वह कैसे उसे लिख पाएगा। चिड़ियां नहीं दिखाई देतीं। उनकी बोली बच्चों को याद नहीं है। किसी समय हम स्कूल जाते थे तो रास्ते में मोर दिखाई देते थे। लौटते थे तो नदी के पानी से नहा कर घर पहुंचते थे। आज वे सारी नदियां सूखी पड़ी हैं। उनका प्रवाह शांत हो चुका है। पेड़ों की घनी छांव जो सहज ही उपलब्ध होती थी गायब है। जंगल नहीं दिखाई देते। ये सब गायब हो रहे हैं। न जमीन पर हैं न उपन्यास और कविता में हैं। अब तो गंगा का बहना भी थम रहा है। कुछ दिनों में, अगर हम नहीं संभल सके तो बच्चों को ये भी पता नहीं होगा कि नदी बहती कैसे थी। उसका प्रवाह क्या होता था। बच्चे नदी के परिवेश और उसके जल की वास्तविक अनुभूति से वंचित हो जाएंगे। बच्चों को समझाना पड़ेगा कि नदी ऐसे बहती थी।
मेरा कहना है कि पर्यावरण की समस्या को व्यक्ति की समस्या बना कर पेश किया जा रहा है। यह समूह की समस्या है। यह पूंजीवाद की समस्या है। पूंजीवादी सभ्यता का विकास निजीकरण को बढ़ावा देता है। निजीकरण दोहन करता है, वह प्रकृति और इंसानों का निर्ममता से शोषण करता है। कुछ साल पहले छत्तीसगढ़ में बहुत अधिक हरियाली थी और नदियों में स्वच्छ जल बहता था। नदियों में जल का साफ सुथरा बहना ही पर्यावरण है। अब जगदलपुर से आगे लोहे के तमाम उद्योगों ने हरियाली को नष्ट कर दिया है। नदियों के प्रवाह को छीन लिया है। उनकी स्वच्छता  छीन ली है। कुछ महीनों पहले मेरा वहां जाना हुआ था। उन नदियों के पानी का रंग बेहद खराब हो चुका है। उसका न पीने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है और न खेतों में उसका उपयोग है। इसे कंट्रोल करना पड़ेगा। किसी पूंजीपति के लाभ की कीमत पर जिंदगी और उसका पर्यावरण दांव पर नहीं लगाया जा सकता। लाभ और मौत में कोई फर्क तो करना ही होगा हमें। तो ऐसा है, यह बड़ा काम है, किसी व्यक्ति का नहीं है। सरकारों का अधिक है।

हम अहंकारी नजरिये से सोचते हैं

  पर्यावरण स्पेशल

जैसा उन्होंने रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति को बताया
प र्यावरण के प्रति मनुष्य का नजरिया थोड़ा अलग हो रहा है। उसमें अहंकार की बू आती है। वर्तमान में मनुष्य समाज की सोच है कि सब कुछ प्रकृति का तापमान, हवा, तूफान-उसकी सोच और सुविधा के अनुसार चलें। तो ऐसा किसी भी तरीके से संभव नहीं है। इंसान ने पहले तो खुद ही प्रकृति के परिवर्तन के नियम में खलल डाला। अब वह रो रहा है कि प्रकृति का संतुलन खराब हो रहा है। नदियां सूख गई हैं। ये हो गया है, वो हो गया है। इस बात पर कोई नहीं सोचता कि आखिर जो हो रहा है वह क्यों हो रहा है? उसके पीछे कारण क्या हैं? अगर हम प्रकृति के असंतुलित होने के कारणों पर जाएं तो हम ही सबसे अधिक दोषी पाए जाएंगे।
हाल ही में मैं एक विदेशी लेखक का आर्टिकल पढ़ रहा था। उसने कुछ बहुत ही मौलिक तरीके से प्रकृति और पर्यावरण को समझने का प्रयास किया है। उसने पूरे समाज की बनावट पर ही प्रश्न खड़ा किया। उसने अपने आलेख में स्थापित किया कि पर्यावरण और प्रकृति का जो स्वभाव है, वह स्थिरता का नहीं है। उसे आप टेक्निकली फिक्स डाटा में सहेज कर नहीं रख सकते। वह कहना चाहता है कि प्रकृति को गणित से नहीं समझा जा सकता। उसकी अपनी गति है, उसके अपने रंग हैं। प्रकृति अपनी हवाओं को दोहराती नहीं है। उनके  चलने का अलग ही अंदाज हैं। प्रकृति का स्वभाव ही परिवर्तन है लेकिन इंसान ने गड़बड़ की है। यह पिछले दो तीन सौ सालों से लगातार जारी है, जब से उसने डाटा एकत्रित करना प्रारंभ किया है। इसके बाद से ही वह तापमान ज्यादा हो गया, कम हो गया का रोना रोने लगा है। प्रकृति में होने वाले परिवर्तन ही हमारे लिए वरदान हैं। तापमान कम या ज्यादा होना प्रकृति का हिस्सा है। उसका इंसान ने जो चार्ट बना लिया है, उसका प्रकृति से कोई मतलब नहीं है। हमने विकास के नाम पर एक चार्ट बना लिया है। एक मौसम का नक्शा बना लिया है। नक्शों से प्रकृति नहीं चलेगी।
 मनुष्य ने प्रकृति के कामों में अनावश्यक हस्तक्षेप किया। वह चाहे नदी हो या पहाड़ सब जगह हस्तक्षेप किया है- बांधों के माध्यम से, जंगलों को उजाड़ कर, हवाओं में अनावश्यक गैसें छोड़ कर। प्रदूषण का मतलब है कि हमने वह काम किए हैं जो नेचर के व्यवहार से मैच नहीं करते। हमने यह सोचा ही नहीं कि हमारे कामों से प्रकृति की निरंतरता में कितना परिवर्तन आएगा। जब तापमान बढ़ रहा है, मौसम अनियंत्रित हो रहा है और हमें तकलीफ होने लगी है तो हमें समझ आने लगा।
महत्वपूर्ण है कि हम प्रकृति से अपने रिश्तों को समझें। हम प्रकृति से खुद को अलग नहीं मानें। हमें प्रकृति से बहु उद्देशीय होना सीखना ही होगा। आज जिस तरह का विकास का माडल है उसमें प्रकृति के दृष्टिकोण से कोई फैसला नहीं होता। अब अगर कोई बंजर जमीन पड़ी है तो वह हमारे टाउन एंड कंट्री प्लानिंग वालों के लिए या एक इंजीनियर या एक बिल्डर के लिए फालतू है। लेकिन व्यापक दृष्टिकोण से सोचें तो वह फालतू नहीं है। प्रकृति के लिए वह बंजर फालतू नहीं है। वह प्रकृति का हिस्सा है जिसे हम यूं ही खत्म करते चले जा रहे हैं। हमें शहरों और बड़ी बस्तियों के बीच इस तरह की जमीनों का, पेड़ पौधों का अस्तित्व बचाए रखना चाहिए। वह बंजर जमीन कई प्रकार के जीव जन्तुओं का आसरा होती है जिसे हम नहीं देखते हैं।
मेरे ख्याल से हमें प्रकृति की चीजों के बहुतेरे उपयोग करना चाहिए। नए आर्कीटेक्चरल दृष्टिकोण की आवश्यकता है। यह नहीं चलेगा कि एक मैदान है तो उस पर सिर्फ क्रिकेट या फुटबाल हो, हमें वे सब इस तरह से बनाना होंगे कि उनके कई तरह से इस्तेमाल हो सकें। कभी वहां रैली हो, कभी वहां रावण जले। इस प्रकार खाली जमीनों का इस्तेमाल होना चाहिए। भवनों और सड़कों को भी इस तरह से भविष्य में डिजाइन किया जाना आवश्यक होगा। शहरों में खाली पड़े मैदानों को, पेड़-पौधों को कई उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करना चाहिए।  प्रकृति का अपना एक तरीका है, जिसे हम अपना सकते हैं और पर्यावरण को बहुत कुछ नया दे सकते हैं।


देवीलाल पाटीदार

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Ravindra Swapnil Prajapati
sub editor
Peoples Samachar
6, Malviye Nagar, Bhopal MP

blog: http://ravindraswapnil.blogspot.com

शनिवार, जून 19, 2010

जो दिख रहा है वह सब कला है

 

बीमार शेर जिस तरह से शिकार नहीं कर पाता उसी तरह से बीमार कलाकार कलाकृति की रचना नहीं कर पाता। कला के लिए जीवन को बीमारी से बचाना जरूरी है। जीवन की बीमारियां हैं चापलूसी, रिश्वत, बेईमान होना एक कलाकार तभी बनता है जब वह तप्त हो। उसके पास एक आग हो। वरना वह साधारण होकर बुझ जाता है।

प्रख्यात चित्रकार अखिलेश से रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति की बातचीत
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 कला कहां कहां है? कला में देखने का क्या महत्व है?
चित्रकला की बात करें तो इसमें देखना ही होता है। यह चाक्षुष कला है। पेंटिंग में देखने के बाद भाव का स्थान आता है। पेंटिंग में देखना एक व्यक्तिगत क्रिया है। हर कलाकार और देखने वाला इसे अपनी तरह से देखता है। एक कलाकृति देखने को जाग्रत करती है। देखने से यह जाग्रति स्मृति तक जाती है।
अच्छी कलाकृति बड़े समूह की स्मृति और देखने को एक साथ जाग्रत करती है। कला सब जगह है। वह कोई कलाकार के पास नहीं होती। वह सड़क, गली, मित्रों और जो कुछ दिखाई दे रहा है वहां वहां व्याप्त है।

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एक कलाकार के देखने और एक साधारण व्यक्ति के देखने में क्या फर्क है?

एक कलाकार का देखना उतना ही साधारण होता है जितना कि कोई साधारण व्यक्ति देखता है। लेकिन कलाकार के पास एक सजगता होती है। जब कोई कलाकार चीजÞ देखता है तो उसके पास एक सजगता होती है। वह उसके रंग उसके, आकार, उसके भाव से एक तादात्म बनाता है। साधारण व्यक्ति का देखने में सजगता नहीं होती। वह उसके रंग, रूप से स्मृति की तलाश नहीं करता। वह देखता है और आगे चला जाता है। कलाकार का देखना संबंध स्थापित करने की तरह होता है।
कलाकार देखता है तो चीजों के रंगों को देखता है। खाने पीने की चीजों के स्वाद के साथ रंग और आकारों को भी देखता है।
बचपन में बच्चा कई आकृतियां देखता है, लेकिन धीरे-धीरे वह उनसे अपने रिश्ते भूल जाता है। उसका भूलना उसकी कला से विमुखता की तरह की एक प्रक्रिया होती है। जब वही बच्चा बड़े होकर किसी कलाकृति को देखता है तो उसे अपनी स्मृति वापस मिलती है। कला में देखना और फिर उसे वापस पाना एक अनोखी चीज होती है।
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बाजार और कला का क्या रिश्ता है?
बाजार और कला का रिश्ता हमेशा से संग साथ रहा है। कला का बाजार ही उसके महत्व को निधार्रित करने में एक भूमिका निभाता है। कला अपने आप में मूल्यवान होती है लेकिन बाजार उसे एक प्राइस देता है।
यह भी है कि बाजार कभी भी कला पर हावी नहीं रहा है। कलाकार पर हावी नहीं रहा। अगर होता है तो वह नुकसानदेह होता है। किसी कलाकृति का बाजार होना उस कलाकृति की ताकत है।

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आज की कला प्रवृत्तियों के बारे में क्या कहना चाहेंगे?

आज की कला प्रवृत्ति संयोजन की अधिक है। संयोजन में काम अधिक हो रहा है। कलाकार कई तरह से इसे अभिव्यक्ति देना चाहते हैं। इसलिए युवा कलाकार अपनी कला में एक साथ कई चीजों का प्रयोग करते हुए अपनी कला को प्रदर्शित करते हैँ। इसमें देश के ही नहीं विदेश के लोग भी हैं।
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कला के बेसिक क्या हैं? इनके बिना कोई कला की परंपरा संभव है?

कला के आधार कभी नहीं बदलते। जैसे कि लेखक के पास कवि के पास शब्द तो उतने ही होते हैं लेकिन हजारों लेखक उनसे कुछ अलग अलग ही लिखते हैं। वाक्य भी वैसे ही बनते हैं। प्रक्रिया एक ही होती है। लेकिन उनका प्रयोग बदल जाता है। यही चीज पेंटिंग में और दूसरी कलाओं में है।

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जीवन का कला से क्या रिश्ता है?
संबंध गहरा है। कला का जीवन से संबंध बहुत गहरा है। अगर आपके पास जीवन नहीं होगा तो आप किसी तरह की रचना नहीं कर पाएंगे। कहने का मतलब बीमार शेर जिस तरह से शिकार नहीं कर पाता उसी तरह से बीमार कलाकार कलाकृति की रचना नहीं कर पाता। कला के लिए जीवन को बीमारी से बचाना जरूरी है। जीवन की बीमारियां हैं चापलूसी, रिश्वत, बेईमान होना एक कलाकार तभी बनता है जब वह तप्त हो। उसके पास एक आग हो। वरना वह साधारण होकर बुझ जाता है। कलाकार चित्रकारी करे या कविता लिखे या संगीत रचना करे, अगर उसके जीवन में सच नहीं होगा तो वह कलाकृति की रचना नहीं कर पाएगा। हमने समाज में कई प्रतिभाशाली लोगों को इन बीमारियों से गृसित होगर मरते देखा है।
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कला में प्रभावित होना क्या है? क्या कोई कलाकार प्रभावित हुए बिना सृजन कर सकता है?

कतई नहीं। जो कलाकार प्रभावित होने से इंकार करता है वह संवादहीन होता है। प्रभावित नहीं होने की बात कह कर आप एक खास तरह का झूठ ही बोलते हैं।
जब आप प्रभावित होते हैं तो आप अपनी पूरी परंपरा से जुड़ते हैं। इस प्रकार बगैर प्रभावित हुए आप अच्छे चित्रकार नहीं हो सकते। 
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मध्यप्रदेश में कला का परिवेश कैसा है? आप क्या संभावनाएं देखते हैं?

युवा लगातार अच्छा काम कर रहे हैं। उन्हें सीधी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पहचान मिल रही है। इंटरनेट की सुविधा से यह काम आसान हो गया है। भोपाल के ही युवा कलाकार गोविन्द बहुत ही संभावना के साथ हमारे सामने आए हैं। अच्छे काम के साथ लगातार करते रहना भी आवश्यक है।

नई सभ्यता में पृथ्वी के प्रति दयाभाव चाहिए

 

-ध्रुव शुक्ल

अखबार में एक लेखक के बयान देने भर से पर्यावरण का संकट दूर नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसे बयान पूरी बीसवीं सदी में संसार भर में छपते रहे हैं। यह संकट तब दूर होगा जब लेखक समाज नागरिक धर्म के जागरण के लिए - समाज के बीच में जाएगा। पेड़ लगाएगा और लगाने के लिए प्रेरित भी करेगा। जैसा कि 7-8 बरस पहले मैंने महाकवि तुलसी की रामकथा के माध्यम से जल सत्यागृह की आवाज उठाई थी। और मुझे दुख है कि वो एक नारा बन गई, लेकिन सच्चे अर्थों में अभी शुरू नहीं हुआ है।
ये बहुत जरूरी है हमारे समाज में कि हम अपने छोटे-छोटे रचनात्मक कर्मों के प्रस्ताव पूरी पृथ्वी के हित में अपनी-अपनी जगहों पर रहते हुए करें। जैसा कि महात्मा गांधी हमसे बार-बार कह गए हैं कि विचारों से कितने भी संदेश निकलते रहें जब तक वे जीवन से नहीं निकलेंगे तब तक विचारों का काई अर्थ नहीं होगा। तभी तो मनुष्य का कल्याण करने वाली कितनी सारी विचारधाराओं का बीसवीं सदी में अंत हो गया।
गांधी मार्ग या प्रकृति की रक्षा का मार्ग किसी सड़क का नाम रख देने से नहीं बनेगा। हमें इसके लिए अपने जीवन में ही कोई मार्ग निकालना पड़ेगा। और वह मार्ग है पूरी पृथ्वी के प्रति दया-भाव।
आखिर हम ये क्यों नहीं देख पा रहे हैं कि पृथ्वी तो हमें हमारे सारे अन्यायों के बावजूद करोंड़ों साल से क्षमा करती आ रही है, लेकिन हम पृथ्वी के जल, वायु और उसके हरित कणों के प्रति जरा भी चिंतित नहीं हैं।
मुझे लगता है कि मानव जाति के इतिहास में ये बात अंतिम रूप से कोई इतिहासकार लिखे कि पृथ्वी पर मनुष्य ने बहुत सारे गड्डे खोदे और खुद गिर कर दफन हो गया।
पृथ्वी पर ये बहुत सारे गड्डे खोदने की कला हमें उपभोक्तवादी संस्कृति सिखा रही है, जिसने लोभ और लालच के तरह-तरह के गड्डे खोदना हमें सिखा दिया है और जिनमें मनुष्य भी डूबा चला जा रहा है। क्या इन गड्डों को हम अपने ही लोभ और लालच के गड्डे कह सकते हैं?
अगर हां तो वह कहावत मनुष्य जाति के जीवन में चरितार्थ हो रही है कि जो अपने लिए खाई खोदता है सो अपनी ही खोदी खाई में गिरता है।
यहां एक और कहावत भी चरितार्थ होती रही है कि जो जैसा बोता है वैसा ही काटता है।
हमारे समाज का स्वर्णमृग विज्ञापन की दुनिया है। इस स्वर्णमृग का पीछा प्रत्येक नागरिक कर रहा है। जब इस मृग का पीछा करने से श्रीराम तक ने धोखा खाया तो आज कल के घासीरामों की कौन कहे। मुझे निजी तौर पर दु:ख होता है कि कि हमारे समाज की विश्वव्यापी राजनीति नीतियां अब राजनीति जैसी नहीं लगतीं। लगता है जैसे कोई हमारे साथ साजिश कर रहा है। हाल ही में 25 बरस की पीढ़ा की पोटली खुली है। जो मेरे ही शहर भोपाल से जुड़ी है। उस पूरे घटना चक्र का मैं एक चश्मदीद गवाह रहा हूं। गैस त्रासदी की उस रात मैं अपी पत्नी और दो बेटियों को लेकर हवा में घुल गए जहर का सामना कर रहा था। आज जब 25 साल

बाद सारी आर्थिक और राजनीतिक शक्तियां फिर एक दूसरे पर दोषारोपण कर रही हैं।
उनकी बात सुनकर अब यह मेरा विश्वास पूरी तरह दृढ़ हो गया है कि हमारे देश के साधारण जन पेड़ पौधे, वनस्पति इन सबको भारत के राजनीतिक, प्रशासनिक न्याय पर पुर्नविचार करना चाहिए।  क्योंकि यह सारी व्यवस्था उस सारी प्रथा के विरूद्ध काम कर रही है जिसमें समूचे भारत की प्रकृति की लूट भी शामिल है।
(जैसा उन्होंने रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति को बताया।)

गुरुवार, जून 17, 2010

एक कवि का दिल्ली में कुछ दिन रहना...

  कुनाल ये तुम्हारा संस्मारन था ... तीन जगह ठीक किया है... मैं  भाभियों के बच्चे कब खिलाता था यार ... चलो बहुत अच्छा लग रहा हैं... शानदार है.... कुछ बदमाशियां भी हैं तुम्हारी इसमें .. कुछ हरे कि सुनाई हुई गप्पें भी हैं...

रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति पर कुणाल सिंह का संस्मरण

एक कवि का दिल्ली में कुछ दिन रहना...

बात उन दिनों की  है जब मैं कलकत्ता छोड़ के दिल्ली आया हुआ था। कलकत्ते के दिनों में कथाकार राजीव कुमार (उन दिनों वह भी कलकत्ते में ही रहा करते थे) से परिचय हुआ था। उन्होंने अभी कहानियाँ लिखना शुरू ही किया था। उनकी दो कहानियाँ मेरे ‘वागर्थ’ में रहते छपी थीं। एक बार पहले भी जब कथा अवार्ड के सिलसिले में दिल्ली आना हुआ था, जेएनयू के गोमती गेस्टहाउस में ठहरा हुआ था। भारत भारद्वाज की मदद से वहाँ आसानी से सस्ते कमरे मिल जाया करते थे। तो एक दिन जब मंडी हाउस का चक्कर लगाने के लिए गेस्टहाउस से निकल ही रहा था कि गेट पर राजीव नमूदार हुए। मैं दंग रह गया कि ये यहाँ कैसे! तब तक मुझे पता नहीं था कि राजीव अब दिल्ली ही शिफ़्ट हो गये हैं और अपने साले साहब (इत्तेफ़ाक़ से उनका नाम भी राजीव कुमार ही ठहरा) के साथ शाहदरा में रहते हैं। उन्हें मंडी हाउस में ‘हंस’ के तत्कालीन उपसम्पादक गौरीनाथ ने बताया था कि इन दिनों में दिल्ली आया हुआ हूँ।

  हाँ तो इस बार जब कलकत्ता छोड़कर हमेशा  के लिए दिल्ली आना हुआ तो पहली चिन्ता रिहाइश की हुई। गेस्टहाउस को तो पर्मानेंट अड्रेस बनाया नहीं जा सकता था। कलकत्ते में ही राजीव से इस बाबत बातें हुर्इं। राजीव ने मित्रतापूर्वक इसरार किया कि जब तक दिल्ली में मेरा कोई स्थायी ठौर नहीं हो जाता, मैं उनके यहाँ शाहदरा में ही रहूँ। मेरे पास दूसरा कोई विकल्प था भी नहीं। जहाँ तक मुझे याद है, मैं 10 अक्तूबर 2006 को दिल्ली आया और उसी दिन दोपहर में वाणी प्रकाशन में सम्पादक की नौकरी मुझे मिल गयी। अरुण माहेश्वरी के बारे में मैंने बहुत कुछ सुन रखा था, इसलिए थोड़ा डरा हुआ भी था। लेकिन नौकरी के पहले दिन से ही उन्होंने मुझे जो मान-आदर और स्नेह दिया, उसका मैं मुरीद हो गया। वहाँ सुधीश पचौरी से भी मुलाक़ात हुई, वे वाणी की पत्रिका ‘वाक् ’ में सम्पादक थे। मुझे उनका सहायक भी होना था, सो हुआ। बहरहाल, दिल्ली के दरियागंज इलाक़े में वाणी प्रकाशन के उस दफ़्तर में मैंने कोई एक सप्ताह भर नौकरी की। तब तक रवीन्द्र कालिया भी ‘वागर्थ’ छोड़कर भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक होकर दिल्ली आ गये थे। एक दिन शाम को उनका फोन आया कि क्या मैं ज्ञानपीठ ज्वाइन कर सकता हूँ? यह मेरे लिए एक सुनहरा मौक़ा था। कालियाजी के साथ ‘वागर्थ’ में तक़रीबन तीन साल तक बतौर सहायक सम्पादक काम कर चुका था। उनके साथ मेरी ट्यूनिंग ग़जब की थी। फिर उनके साथ काम करते हुए मुझे कभी नहीं लगा कि मैं किसी के मातहत काम कर रहा हूँ। हमेशा वे एक पिता की तरह ही काम सौंपते। दिल्ली, जो तब तक मेरे लिए परायी ही थी, में अकस्मात अपने इस ‘पुराने पिता’ के पास लौटने के आमन्त्रण का मेरे लिए कितना महत्त्व हो सकता है, आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं।

  बहरहाल, ज्ञानपीठ ज्वाइन करने के बाद  सबसे बड़ी दिक्कत आवागमन की  हुई। ज्ञानपीठ का दफ़्तर लोदी रोड पर था और हालाँकि शाहदरा से वहाँ तक के लिए सीधी बस थी, लेकिन आने जाने में तक़रीबन चार घंटे रोज़ के ज़ाया हो जाते थे। फिर शाहदरा में राजीव ख़ुद ही बतौर ‘पाहुन’ रह रहे थे, ऐसे में मेरा वहाँ रहना उनके ऊपर बोझ सदृश था। यही सब देखते हुए मैं लोदी रोड के आसपास ही किसी सस्ती रिहाइश की फिराक़ में था। एक दिन दफ़्तर में अचानक युवा कवि हरेप्रकाश उपाध्याय का आना हुआ। हरेप्रकाश उन दिनों दिल्ली के अधिकांश लिखने-पढ़ने वाले लड़कों की तरह फ्रीलांसिंग कर रहे थे। ‘वागर्थ’ में युवा कवियों के लिए एक नियमित स्तम्भ चलता था, उनमें एक बार हरेप्रकाश पर भी फ़ोकस किया गया था। उसी सिलसिले में एकाध बार उनसे बातें हुई थीं। औसत क़द के, थोड़े साँवले, साठोत्तरी कथाकारों की तरह चेहरा दाढ़ी से भरा हुआ। हरे ने यों ही पूछा कि यहाँ मैं कहाँ रह रहा हूँ। मैंने बताया और साथ ही कहा कि यदि यहीं कहीं आसपास कोई जगह मिल जाती तो मज़ा आ जाता।

  उसी शाम जब मैं दफ़्तर से कोई साढ़े पाँच के आसपास निकला तो किसी अपरिचित नम्बर से एक फोन आया। दूसरी तरफ़ युवा कथाकार अजय नावरिया थे। अजय से मेरी पहली मुलाक़ात बीकानेर में संगमन की गोष्ठी में हुई थी। उन दो-एक दिनों में उनसे अच्छी यारी हो गयी थी। मैं चकित था कि इतनी जल्दी अजय को मेरा दिल्ली वाला नया नम्बर कैसे मिल गया। बहरहाल, अजय ने पूछा कि मैं अभी कहाँ हूँ।

  मैंने कहा, ‘‘दिल्ली में।’’

  ‘‘सो तो पता है, लेकिन अभी कहाँ हो?’’

  ‘‘ज्ञानपीठ के आॅफिस के सामने जो  सार्इं बाबा का मन्दिर है, वहीं। शाहदरा  के लिए बस लेने जा रहा हूँ।’’

  ‘‘तुम मिलकर जाओ। मैं अभी पाँच मिनट में वहाँ पहुँच रहा हूँ। ...या ऐसा करो, तुम वहाँ से लौट पड़ो पीछे की तरफ़। मैं भी आ ही  रहा हूँ, बीच में कहीं मुलाक़ात हो जाती है।’’

  ‘‘पीछे की तरफ़, मतलब?’’

  ‘‘अभी तुम्हारा चेहरा रोड की तरफ़ है न, वहाँ से मुड़ो और पश्चिम की तरफ़ चलते चले आओ।’’

  ‘‘पश्चिम किधर है?’’

  ‘‘अबे यार, जिधर सूरज डूब रहा है अभी?’’

  ‘‘यार मैं दिल्ली में नया-नया हूँ।  मुझे नहीं पता यहाँ सूरज किस तरफ़ डूबता है!’’

  अजय ठठाकर हँसा। मेहरचन्द मार्केट में  मुलाक़ात हुई। साथ में कविवर हरेप्रकाश   भी। पता चला, दोनों  ने मेरे लिए एक कमरा ढूँढ लिया है वहीं लोदी रोड पर। मैं  चौंका भी, ख़ुश भी हुआ। लोदी  कालोनी के ब्लॉक बारह में बरसाती पर दो कमरे थे। एक में अजय ने अपना ‘आॅफिस’ टाइप कुछ खोल रखा था, दूसरा कमरा अभी ख़ाली था। सीढ़ियाँ बाहर से होकर थीं, सो हम सीधे ऊपर पहुँचे। मकान मालिक शर्माजी अभी थे नहीं, सो बन्द कमरे को बाहर-बाहर से देखकर मैंने स्वीकृति दे दी और शाहदरा लौट आया।

  इस  प्रकार दिल्ली पहुँचने के एक  सप्ताह के भीतर मैंने एक अच्छी नौकरी छोड़कर एक दूसरी अच्छी नौकरी कर ली, और अब मेरे पास एक अपना कमरा था, एक बहुत अपना मित्र भी। हरेप्रकाश लोदी कालोनी से ही सटी बी.के.दत्त कालोनी में रहता था। उसके बारे में पता चला कि उसने आज तक कहीं तीन महीने से ज़्यादा न तो कहीं नौकरी की और न ही किसी से दोस्ती निभायी। मैं पहला शख़्स था जिसके साथ उसकी शुरू से अब तक दोस्ती चल रही है। बल्कि कई जगहों पर मुझे शक़ की निगाह से देखा जाता है कि वह मैं ही हूँ जिसकी हरे से इतनी लम्बी दोस्ती चली।

  हरे खरा आदमी है। जो भी महसूस  करता है, मुँह पर बोल देता है। नक़ली चीज़ें उसे पसन्द नहीं, न ही नक़ली लोग। दिल से प्यार करता है और दिल से दुश्मनी भी निभाता है। उसके दुश्मनों की फेहरिस्त लम्बी-चौड़ी है। वह बड़े चाव से दुश्मन बनाता है। कई बार इस दुश्मनी बनाने की प्रक्रिया का मैं चश्मदीद हुआ। जिससे उसे दुश्मनी करनी होती है, उसे शाम को वह फोन करता है और तारीफों के पुल बाँधने लगता है। कहता है, महोदय ‘क’, आपकी कविताओं ने मेरे जीवन को एक नयी दिशा दे दी। हाय-हाय अब तक मैं किस नरक में जी रहा था। आपने पहले लिखना क्यों नहीं शुरू किया? यदि लिखना शुरू भी किया था तो अब तक दो कौड़ी की पत्रिकाओं में क्यों छपते रहे? आप नहीं जानते अनजाने में आपसे कितना बड़ा पाप हुआ है! यक़ीन जानिए, आज ‘ल’ पत्रिका में छपने के लिए सम्पादक को आपने जितनी महँगी दारू पिलायी होगी, यदि एक साल पहले ही पिला देते तो आज आप घुटन्ना सा अदना कवि न होकर महाकवि होते!

  इसके बाद वह जंग जीतकर आये किसी  वीर की भाँति फोन रख देता।


लोदी रोड की उस बरसाती में मैं लगभग दो सालों तक रहा। इस बीच वहाँ ‘सूरमा’ भोपाली रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति भी आ गया था। रवीन्द्र से भी मेरी पहली मुलाक़ात उतनी ही अजीब थी, जितना कि वह ख़ुद। हुआ क्या कि कलकत्ता छूटने के बाद मेरा मछली खाना भी छूट गया। दिल्ली में फिश टिक्का वग़ैरह तो ख़ूब उपलब्ध थे, लेकिन उन्हें बनाने की प्रविधि कुछ इस तरह अपचिति थी कि लगता ही नहीं था मछली खा रहा हूँ। तो एक बार मैंने हरेप्रकाश से कहा कि यार कुछ इसका जुगाड़ करो कि घर जैसी मछली खाने को मिले। हमारी मित्र मंडली में राजीव कुमार मछली बहुत अच्छी बनाते थे। तो तय हुआ कि एक दिन उन्हीं के यहाँ शाहदरा में धमका जाए। पता चला कि उनके साले महोदय भी घर गये हुए हैं। एक शनिवार मैं और हरे शाहदरा पहुँचे, राजीव को अपनी नेकनीयती का पता बताया। राजीव ख़ुश हुए। इस बीच हरे ने रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति को भी फोन कर के बुला लिया जो उन दिनों वहीं कहीं रहता था। राजीव और हरे पास के ही मार्केट में मछली ख़रीदने के लिए गये। मैं वहीं रह गया कि इस बीच कहीं प्रजापति आये तो कमरे पर ताला लटकता देख वापस न लौट जाए। रवीन्द्र की कविताएँ मैंने पढ़ रखी थीं और वह मेरे प्रिय कवियों में था, लेकिन अब तक उससे कोई मुलाक़ात नहीं हुई थी। दरवाज़े पर दस्तक हुई तो मैंने पाया कि हरे और राजीव मछली लिये आ चुके हैं और उनके पीछे रवीन्द्र भी खड़ा था। आगे बढ़कर मैंने उससे हाथ मिलाया और गर्मजोशी से बगलगीर हुआ। मैंने उसकी एक-दो कविताओं का हवाला देते हुए उसकी तारीफ़ों के पुल बाँधे। लेकिन रवीन्द्र तो बस प्रजापति था! उसने छूटते ही कहा, ‘‘यार छोड़ो न, दोस्तों के बीच ऐसी बातें अच्छी नहीं लगतीं।’’

  चिन्ता की बात हुई कि भई मछली तो ले आये हैं, अब मसाला कहाँ कूटा जाए! राजीव ने कहा कि उसके पास सिल-लोढ़ा नहीं, सो किसी ऐसे बन्दे की तलाश की जाए जिसके यहाँ मसाला तैयार किया जा सके। मेरे जानते रवीन्द्र वहाँ पहली बार ही आया था, लेकिन वह फौरन तैयार हो गया कि उसे मसाला दिया जाए और वह आधे घंटे में आस-पड़ोस की किसी महिला को भाभीजी-ताईजी कहकर मसाला कुटवाकर ले आयेगा। राजीव ने हाथ जोड़ लिये कि इस कालोनी में वह बतौर दामाद रह रहा है, सो अगर कुछ ऊँच-नीच हो गया तो ख़बर सीधे उसकी नयी-नवेली बीवी के पास पहुँच जाएगी।

  ‘‘यार अभी बमुश्किल साल भर ही हुए  हैं मेरी शादी के।’’ वह जैसे गिड़गिड़ा  रहा हो।

  ‘‘मुझ  पर यक़ीन करो, मैं उन्हें सच्चे मन से भाभीजी मानकर रिक्वेस्ट करूँगा।  उनसे मेरा सम्बन्ध सिर्फ़ मसाला कूटने तक ही सीमित रहेगा। ’’

  ‘‘नहीं तुम खतरनाक कवि हो, मैं तुम्हारा यक़ीन चाहकर भी नहीं कर सकता।’’

  ‘‘कवि तो हरे भी है।’’ रवीन्द्र ने जैसे कोई चुटकुला सुना हो। वह अपनी ही तरह हँसने लगा।

 ‘‘हाँ लेकिन मैं भोपाल का कवि नहीं जो केलि-केलि करता फिरूँ। ये दिल्ली है मेरे यार।’’  यह हरेप्रकाश था, उसने कहा ‘‘सुनो, यहाँ से कोई तीन-चार किलोमीटर दूर एक और कवि रहता है— रमेश प्रजापति। उसके घर   में खुली छत पर सिल रखा मैंने देखा था। ै।’’
पर इतनी दूर तक जाने वाला यह आइडिया किसी को जमा नहीं।
  तय हुआ कि मसाले का पत्थर  राजीव किसी पड़ौसी से लेकर आएंगे। पत्थर आया और उस पर राजीव के किसी मित्र को राई पीसने में जुटा दिया। हरे और राजीव रम तीनों के लिए और मुझे एक हाफ वोदका लेने शाहदरा की किसी वाइन शॉप पर चले गए। मैं और रवीन्द्र पीछे रह गये। उनके जाने के बाद अचानक रवीन्द्र ने अपनी कमीज़ उतारी, फिर पतलून उतारी। मैं उसे देख रहा था कि ये जितना अच्छा कवि है उतना अहंकारी और मुंहफट इंसान। बनियान भी उतारकर सिर्फ़ चड्डी में वह कमरे से बाहर निकला और आँगन में घूमने लगा। कभी कभी वह ऊँची आवाज़ में कोई गाना भी गाने लगता। मैंने सोचा, दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समायी जो इसे सुदर्शन बनाया, कवि बनाया मगर भेजे वाले फ्लैट पर कुछ नहीं बनाया। फिर मैने सोचा ये कवि ऐसे ही होते हैं।
  कोई  एक-डेढ़ घंटे बाद राजीव और हरे लौटे, और तब तक रवीन्द्र का अंग प्रदर्शन चलता रहा। मैं बिस्तर पर लेटा कोई किताब पढ़ने लगा था। जैसे ही दरवाज़े पर दस्तक हुई, रवीन्द्र भागकर कमरे में लौटा और पतलून पहनने लगा।

  बहरहाल, राजीव की पाककला के बारे में  जैसा सुना था, वह उससे भी बढ़िया बावर्ची निकला। जब तक राजीव किचन में मछलियाँ तलता रहा, रवीन्द्र किसी बिल्ली की तरह पाँव दबाकर जाता मैं भी इस चोरी की मछली के मजे लेता। घूंट घूंट दारू और मछली। क्या मजेदार थे वे दिन। रवीन्द्र कई बार तली हुई मछली उठाकर लाता रहा। जब राजीव ने देखा कि अरे ये तो सब खा जाएंगे। अन्त में राजीव को चिमटा लेकर मछली की सुरक्षा करना पड़ी - ‘‘ अरे भाई पीने के साथ ही सब खा लोगे, भात के लिए भी बचने दोगे।’’ राजीव मछली बनाते हुए बोला।

  यह नौटंकी इतने में ही ख़त्म नहीं हुई। अचानक देर रात हम सब उठकर बैठ गये, जब बहुत पास से किसी बिल्ली की आवाज़ आई। गौर करने पर पता चला, यह रवीन्द्र था जो दरवाज़े के पास गरमी और मच्छरों से परेशान चादर बिछाकर लेटा था। उसे नींद नहीं आ रही थी, इसलिए वह टाइम पास करने के लिए बिल्ली की आवाज़ निकाल रहा था। हम सबने अपना सिर पीट लिया। उससे गुजारिश की गयी कि कृपया वह सोने की कोशिश करे। उसने भन्नाई आवाज़ में कहा, ‘‘सोना चाहूँ भी तो ये मच्छर सोने नहीं देते।’’
  वाक़ई मच्छर तो वहाँ थे, और हम भी इससे ख़ासे परेशान होकर ही सो रहे थे। राजीव ने कहा कि घर में न कोई मॉस्क्यूटो क्वायल है न मच्छरदानी। रात के दो बज चुके हैं, इसलिए अब कोई उपाय नहीं है।
  ‘‘हमारे बाप-दादा कहा करते थे कि धुएँ से मच्छरों का बैर है। जब गाय-बैल मच्छरों से परेशान हो जाते थे तो उनके पैरों के पास धुआँ कर दिया जाता है।’’ रवीन्द्र ने अपनी स्मृति पर ज़ोर डाला।
  ‘‘हम क्या गाय-बैल हैं?’’ मैंने पूछा।
  ‘‘माना कि गाय-बैल नहीं, लेकिन जो हमें काट रहे हैं वे ज़रूर मच्छर हैं।’’ रवीन्द्र की तर्क शक्ति का जवाब नहीं।
  ‘‘लेकिन  यार, अब इतनी रात में धुआँ कौन करे!’’ हम में से कोई बोला।
  ‘‘तुमलोगों  को नींद आ रही है तो सो जाओ। मैं तो जगा हुआ ही हूँ, मैं  धुआँ करता हूँ।’’
  हम  निश्चिन्त होकर सो रहे। कोई दो-तीन घंटे के बाद मुझे लगा, मेरा दम घुटने वाला है। उठा तो पाया, कमरा धुएँ से भरा हुआ है। हरे बिस्तर के एक कोने पर बैठा तमाशा देख रहा है और राजीव आग बबूला हुआ रवीन्द्र को फटकार लगाये जा रहा है कि आइन्दा मेरे यहाँ तुमने क़दम रखा तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा। दरअसल रात में रवीन्द्र को धुआँ करने के लिए कुछ नहीं मिला तो उसने कमरे के एक कोने में रखे काग़ज़ बाहर नीम के पीले पत्तों को समेँट कर एक कबाड़ी से तसले में आग जला रहा था। रवीन्द्र एक-एक कर पन्ने फाड़ता और उन्हें दियासलाई दिखा देता। हम लोग हंसते भी और धुंए से आंखें भी मलते। 
बी.के.दत्त कालोनी में हरे और रवीन्द्र एक ही कमरे में रहते थे। एक ही साथ सोते, आँखें मींचते हुए उठते और एक ही बस में दरियागंज को रवाना होते। तब तक रवीन्द्र वाणी प्रकाशन में मेरी जगह पर विराजमान हो चुका था और हरेप्रकाश ‘हंस’ में बतौर सहायक सम्पादक काम करने लगा था। मौक़ा मिलते ही रवीन्द्र अंसारी रोड पर ‘हंस’ के दफ़्तर में जा पहुँचता, और जब तक अरुण माहेश्वरी के दो-चार फोन न आ जाते, वहीं जमा रहता। एक बार आज़िज आकर राजेन्द्र जी ने उससे पूछा कि तुम जब देखो, यहीं बैठे रहते हो, भला अपने दफ़्तर में काम क्या करते होगे! रवीन्द्र का जवाब था, ‘‘काम तो होता ही रहता है राजेन्द्र जी, चाहे करो या न करो।’’
  सुनकर राजेन्द्रजी ठगे रह गये। कोई अचरज नहीं कि जब हरे ने ‘हंस’ छोड़ा और रवीन्द्र ने उसकी जगह के लिए अप्लाई किया, तो राजेन्द्रजी ने फौरन से पेश्तर उसकी अर्जी चूल्हे में झोंक दी। वैसे सच ये था कि राजेन्द्र जी संजीव जी को कुल्टी से बुला चुके थे।
  रवीन्द्र को वाणी में कालियाजी ने लगवाया था। एक दिन ज्ञानपीठ में मेरे पास आया। मैंने उसे कालिया जी से मिलवाया। कालिया से मिलकर रवीन्द्र खुश हुआ। उसने कहा हिंदी साहित्य की दुनिया में कालिया जी पहले लेखक हैं जिन्होंने किसी को दिल्ली में नौकरी तलाशते देख कर मुंह नहीं बिचकाया। उन्होंने कितनी जिंदादिली से स्वागत किया   यार। इसके बाद रवीन्द्र उनका मुरीद हो गया। करीब घंटे भर ठहर कर रवीन्द्र चला गया।
  कालियाजी ने भले दुनिया देखी हो, लेकिन मेरा दावा है कि ऐसे किसी कवि से उनका पाला नहीं पड़ा होगा तब तक। इधर मेरे वाणी प्रकाशन छोड़ने के बाद कई बार अरुण माहेश्वरी ने कालियाजी से कहा था कि ज्ञानपीठ मुझे जितना देता है, उससे दोगुनी तनख्वाह वह मुझे देने के लिए तैयार हैं। कालियाजी ने अरुणजी को फोन लगाया कि भोपाल से एक बहुत ही प्रतिभावान कवि अभी-अभी दिल्ली पहुँचा है। मेरे बहुत कहने के बाद वह किसी तरह आपके यहाँ काम करने को राजी हुआ है। भेज रहा हूँ। दूसरे दिन रवीन्द्र ने मेरी खाली हुई कुर्सी वाणी में सम्हाल ली।
  तो इस प्रकार रवीन्द्र वाणी में लग गया। वहाँ उसने कोई साल भर तक काम किया, लेकिन हरे के ‘हंस’ छोड़ने के बाद उसका मन

दरियागंज  से उचट गया। बाद में उसने भी वाणी प्रकाशन वाली नौकरी छोड़ दी। दूसरा कारण उसने बताया कि अरुण माहेश्वरी ने दो दिन की छुट्टी के पैसे काट लिए थे। इसकी शिकायत सुधीश पचौरी से भी की थी जिसके उत्तर में पचौरी जी ने कहा-मैं प्रबंधन में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। इस पर रवीन्द्र ने मेरी छत पर पौने दो घंटे का एक लेक्चर दिया था और नौकरी छोड़ने की घोषणा की थी। इसके दूसरे दिन शाम को उसने फोन पर ही नौकरी छोने का इस्तीफा पेश कर दिया। फिर वह वाणी के आॅफिस ही नहीं गया।  दरअसल वाणी वाली नौकरी के दौरान ही उसने किसी नेता टाइप साधू या साधू टाइप नेता को पटा लिया था या दोस्ती हो गई थी। जिन दिनों हम (मैं और हरेप्रकाश) नौकरीपेशा होने के बावजूद पचास रुपये वाला पौव्वा पीकर गुजारा करते, उन दिनों बेकार होकर भी रवीन्द्र कभी होटलों और क्लबों में स्ट्रॉबेरी फ्लेवर का कॉकटेल पीकर आता तो कभी बनाना फ्लेवर का। रात दो बजे गुड़ गांव में बैठा है तो कभी करोलबाग। कभी गाजियाबाद ।
मेरे बरसाती वाले कमरे के सामने एक खुली छत थी, मकान मालिक यदा कदा ही ऊपर आता। सो उन दिनों ज़्यादातर बैठकें मेरे ठिए पर ही होतीं। खा-पीकर सब अक्सर वहीं सो पड़े भी रहते। कभी-कभी बैठक हरे के कमरे पर भी होतीं।  जहाँ वह रहता था, आसपास खायी-अघायी भाभियों का जमघट लगा रहता। ग्राउंड फ्लोर पर लगभग बीस-पच्चीस कमरे थे, सबमें हरियाणा-पंजाब की मुटल्ली औरतें भरी पड़ी रहतीं। जब कभी हम वहाँ होते, दरवाज़े को अच्छी तरह बन्द करने के बाद ही हाहा-हीही करने की हिमाक़त करते। ख़ासकर हरे इन औरतों से दूर-दूर ही छिटका रहता, जबकि वे ऐसी थीं कि आते-जाते टोक देतीं— ‘‘भाईसाब, बरामदे में इतनी शीशी-बोतल क्यों जमा कर रखा है, भतेरे कबाड़ी आते हैं, मेर्को दे देना मैं बेक दूँगी सब।’’
  हरे इस कान से सुनता, और चेहरे पर बिना कोई शिकन लाये उस कान से निकाल देता। धीरे-धीरे वे औरतें भी उससे  बचने में ही अपनी भलाई समझने लगीं। इसके विपरीत रवीन्द्र उन औरतों से बातें करता रहता। रवीन्द्र बच्चों से दोस्ती बहुत अच्छी कर लेता है। या बच्चे उसकी तरफ आकर्षित होते हैं। एक बार हम तीनों खन्ना मार्केट के पास एक गली से गुज़र रहे थे कि एक तीन-चार साल का बड़ा प्यारा बच्चा दौड़ा-दौड़ा आया और उसकी कलाई पकड़कर झूल गया। हम तीनों तब और चौंके जब वह बच्चा रवीन्द्र को ‘पापा-पापा’ कहने लगा। शाम के धुँधलके में बच्चे को शायद धोखा हो गया हो, रवीन्द्र ने किसी तरह अपनी कलाई छुड़ायी और आंखें फाड़ कर चारों तरफ देखने लगा। हम तीनों देर तक हँसते रहे।
  इसी बीच पता चला कि रवीन्द्र ने उस साधू उर्फ़ नेता को सुझाव दिया कि एक पत्रिका निकाले तो उसका ख़ूब प्रचार-प्रसार होगा। आनन फानन में उसने रवीन्द्र को करोलबाग में एक आॅफिस दिला दिया। एक कमरा, एक चपरासी, एक कम्प्यूटर, एक फोन और बियर रखने के लिए एक फ़्रिज। रवीन्द्र ताबदस्ती से रोज़ सुबह नौ बजे आॅफिस पहुँच जाता और शाम तक (कभी देर रात तक)वहाँ बना रहता। समय बिताने की गरज से उसने पहले कविताएँ लिखनी शुरू कीं, फिर भी समय न बीतता तो कहानियों पर हाथ आजमाइश करने लगा। मंटो ने कहीं लिखा था कि वह रोज़ एक कहानी लिख लेता है, रवीन्द्र के मामले में हमने इसे सही होते देखा। शाम को सीधे मेरे पास पहुँचता और सुनाने लग पड़ता उस दिन की लिखी कहानी। मैं आज़िज आ गया, तो एक दिन उसने भावुक होते हुए कहा, ‘‘जानते हो, आज मैं बहुत दुखी हूँ।’’
  ‘‘क्यों, क्या हुआ? हरेप्रकाश ने कमरे से निकाल दिया क्या?’’ मैंने अपना डर छुपाते हुए पूछा, कि कहीं यह मेरे यहाँ ही रहने के लिए न आ धमके। वैसे मेरा कमरा ऐसा नहीं था कि जिसमें रवीन्द्र जैसा घोड़ा हिनहिनाते हुए रह ले।
  ‘‘नहीं, बात इससे भी ज़्यादा सेंसिटिव है।’’ रवीन्द्र ने कहा।
  मैंने राहत की साँस ली। पूछा, ‘‘क्या?... बोलो बोलो, आख़िर दोस्त ही दोस्त  के काम आता है!’’
  वह रुँआसा हो आया, ‘‘दरअसल मैंने  आज साम्प्रदायिकता के मुद्दे पर एक कहानी लिखी है! जानते हो आज हमारे समाज में साम्प्रदायिकता का ज़हर कितने गहरे तक समा गया है?
  ‘‘अबे चुप कर यार! चल मोमोस खाते हैं और वोदका का हाफ लेते हैं।’’ मैंने अपनी जेब में पैसे टटोले और खन्ना मार्केट की तरफ चले गए। मैंने देखा शराब की दुकान पर सांप्रदाकिता नहीं है। बाद में उसने लोदीकालोनी में   कहानी का पाठ किया था। उसने कहानी का नाम टीन टप्पर रखा था।’’ मैंने उसे कहा कि तू कवि इतना अच्छा है कि कहानीकारों पर भारी पढ़ता है तो फिर कहानी क्यों लिखता है?’’ रवीन्द्र का जबाव भी अजीब ही होते है- कहा यार जिंदगी में पहाड़, मैदान, नदी और शहर सब कुछ है। अब किसी पर प्रतिबंध नहीं कि जो नदी किनारे घूम लिया वह पहाड़ों पर नहीं चढ़ेगा। मैंने कहा चढ़ साले चढ़ हम कहानीकार तुझे चढ़ने ही नहीं देंगे।



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Ravindra Swapnil Prajapati
Peoples Samachar
6, Malviye Nagar, Bhopal MP

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बुधवार, जून 09, 2010

लोकल में ही ग्लोबल की संभावनाएं हैं

 
देवीलाल पाटीदार से रवीन्द्र स्वपिल प्रजापति की बातचीत




सिरेमिक आर्टिस्ट और चित्रकार देवीलाल पाटीदार कला को ऐसा माध्यम मानते हैं जो व्यक्ति की आंतरिक  विचारों-भावनाओं को रूपों और आकारों में अभिव्यक्त करती है। फिर वह चाहे पेंटिंग हो या फिर शिल्प और सिरेमिक। सभी कलाएं माध्यम हैं जो इंसान को प्रकृति को, उसके प्राकृतिक होने को बताती हैं। हाल ही में उन्होंने कुछ कलाकारों के साथ मिल कर आर्ट2020 डॉट काम लांच की है।


Þ1
सिरेमिक में क्या नया हो रहा है?
दरअसल कला को नया ही होना होता है। कला प्रतिदिन का जन्म है। कला ही नहीं जन्म लेती, कलाकार भी नया जन्म लेता है। इसका कारण है। नया वही रच सकता है, वही कर सकता है जो जन्म लेता है। कलाकार नया करता है, क्योंकि उसकी कला रोज नई होती है। प्रकृति के रिश्ते की तरह है ये। मां सिर्फ अपने बच्चे को जन्म नहीं देती वह खुद भी नया जन्म गृहण करती है। तो कलाकार भी नया कर रहे हैं। सिरेमिक में नए प्रयोग हो रहे हैं। नए आकार आ रहे हैं। कल्पनाशीलता का नया संसार सिरेमिक में सामने आ रहा है।

2
भोपाल में किसी समय भारत भवन अंतरराष्ट्रीय मंच था, कुछ मायनों में आज भी है। आप इस संदर्भ में अपनी क्या भूमिका देखते हैं?

भारत भवन आज भी अंतरराष्ट्रीय महत्व बनाए हुए है। इसमें यह अवश्य देखना पड़ेगा कि जिस समय भारत भवन का प्रारंभ हुआ था, तब यह देश का एक यूनिक स्थान था। नए उभरते और स्थापित दोनों तरह के कलाकार यहां आते थे, वह आज भी आ रहे हैं। कुछ चीजो में फर्क आया है तो उनका असर हम सब को दिख रहा है।
व्यक्तिगत रूप से मेरी भूमिका इसमें एक कलाकार की हैै। मैं चाहता हूं कि नया निर्माण हो, नया सृजन हो, यही चीज भारत भवन को स्थापित करेगी।

3
आजकल कला और इंटरनेट आपस में मिल कर ग्लोबल हो रहे हैं। आपने हाल ही में भोपाल के कलाकारों को लेकर किसी वेबसाइट लांच की है?


लोकल ही ग्लोबल होता है। वास्तविक रूप से लोकल होने का मतबल ही है कि आप इस ग्लोबल में यूनिक हैं। ग्लोबल का मतलब है एक जैसा होना नहीं है। आजकल

सबसे अधिक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोक कलाओं की चाह बड़ी है। इसका क्या कारण हो सकता है? इसका कारण है कि दुनिया के कलाप्रेमी कुछ यूनिक देखना देखना चाहते हैं। यह यूनिक उन्हें लोक कलाआें में दिखाई देता है। आदिवासियों की कलाओं में दिखाई देता है। जहां भी यूनिक दिखाई देगा, उसका संसार स्वागत करेगा। आज अधिकांश लोक कला इंटरनेट के सहारे से विश्व मंच पर जा रही है।
भोपाल के कलाकारों के लिए जिस वेबसाइट की बात आपने की है, वह कुछ कलाकारों का व्यक्तिगत स्तर पर सामूहिक प्रयास है। इसमें मैं भी जुड़ा हूं।


4
इसके उददेश्य क्या हैं?
इस साइट का उद्देश्य है कि हम भोपाल के कलाकारों को विश्व स्तर पर प्रस्तुत करें। यह साइट जहां तक जा सकती है जाएगी। नेट ही इसका सहारा है। यह नए लोगों को प्रस्तुत करने के साथ, कला पर आधारित विचार विमर्श, बहस और संवाद को भी अपने उद्देश्यों को शामिल करेगी। साइट अस्तित्व में आ चुकी है।

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कला की दुनिया में आप नए और पुराने लोगों का साथ पाया है। आज युवा और बिलकुल नए लोगों को लेकर आप क्या सोचते हैं। ऊर्जा है नए बच्चों में?

 नए बच्चों में ऊर्जा है इससे इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन कला के लिए जिस धैर्य की आवश्यकता होती है, वह नहीं है। इसके पीछे ये हो सकता है कि नए बच्चों को जो माहौल हम दे रहे हैं, वह कैरियर की तरफ केंद्रित है। कैरियर आवश्क है लेकिन वह कला पर हावी होगा, तो कला व्यवसाय हो जाएगी, कला नहीं होगी। उसका सौंदर्य खो जाएगा। उसका कला होना नहीं बचेगा।
पुराने लोगों में भी ऐसा था पर मात्रा के हिसाब से कम था। आज अधिक है। कुछ बच्चों में निकलता है धैर्य, वे ही नया करते हैं। वे ही आगे की लंबी यात्रा कर सकते हैं।

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सिरेमिक कलाकार के लिए क्या आवश्यक है?

कला में धैर्य जैसी चीज तो ऊपर बताई है। दूसरी बात सिरेमिक में आवश्यक है कि आप संसार को किस नजर से देखते हैं, किस रूप में देखते हैं। संसार से क्या रिश्ता बनाते हैं। जो संबंध होगा वही आपकी कला में आएगा। यह हर कलाकार की अलग अनुभूति की तरह है। इसे अपने ही अंदर खोजना पड़ता है। कोई तय मापदंड नहीं हैं।

गुरुवार, मई 13, 2010

व्यक्तिगत होता जनहित

नए मुख्य न्यायाधीश सरोश होमी कपाडिया कि निउक्ति

नवनियुक्त मुख्य न्यायाधीश सरोश होमी कपाड़िया ने अपने कार्यकाल के पहले दिन ही अनावश्यक जनहित याचिकाओं को दरकिनार करने की बात कहकर भारतीय न्याय व्यवस्था के सामने कुछ नए संकेत रखे हैं। आखिर देश के मुख्य न्यायाधीश को पहले ही दिन यह संदेश क्यों देना पड़ा कि हर याचिका जनहित के लिए नहीं लगाई जाती है। भारत की न्याय व्यवस्था में सरकारी तंत्र की उदासीनता और शोषण, अन्याय के शिकार लोगों को न्याय दिलाने के मकसद को जनहित याचिकाओं को मंजूरी दी गई है। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट केवल पोस्टकार्ड को याचिका मानकर जनहित से जुड़े मामलों की सुनवाई करते रहे हैं। इधर, कुछ वर्षों से कई व्यक्तियों और संस्थाओं ने निहित स्वार्थों की खातिर जनहित याचिकाओं का दुरूपयोग किया है। कई लोग सस्ता प्रचार पाने की खातिर याचिका दाखिल करते हैं। लिहाजा, इस संबंध में जस्टिस कपाड़िया की चेतावनी एकदम सही है। ऐसा लगता है कि श्री कपाड़िया ने अपने आने की दस्तक चुनौतियों का सामना करने के साथ दी है। अब चुनौतियों का एक लंबा सिलसिला उन्हें अपने कार्यकाल में मिलने जा रहा है। इसमें सबसे मुख्य है देश की अदालतों में लाखों मुकद्मों का लंबित होना। न्यायालयों में लंबित मामलों को सुलझाने के लिए श्री कपाड़िया को एक विशाल व्यवस्था को अपनी तरह से संचालित करने के साथ न्यायपूर्ण कुशलता का विकास करने की जिम्मेदारी का भी निर्वाह करना होगा। उन्हें न्यायपालिका की छवि को साफ-सुथरा बनाने के लिए विशेष प्रयास करने होंगे। न्यायाधीशों के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायतें सामने आ रही हंै। एक न्यायाधीश के खिलाफ संसद में महाअभियोग की कार्यवाही शुरू हो चुकी है। ऐसी स्थिति में मुख्य न्यायाधीश श्री कपाड़िया से देश के लोगों को उम्मीद है कि वे लोकतंत्र के एक महत्वपूर्ण स्तंभ की मजबूती के लिए अपना 2 वर्ष 4 माह का कार्यकाल उल्लेखनीय योगदानों से समादृत करेंगे।

शुक्रवार, अप्रैल 30, 2010

भारत-पाक: लड़ते रहने वाले दो भाई

भारत-पाक के रिश्ते दो भाइयों की तरह हैं, पर ऐसे भाई, जो एकदूसरे के खून के प्यासे हैं।


सा र्क सम्मेलन में भारत और पाकिस्तान के राष्ट्र प्रमुखों की हैसियत से मनमोहन सिंह और यूसुफ रजा गिलानी की एक बार फिर मुलाकात हुई। इस बैठक में दोनों विदेश सचिव स्तर की वार्ताएं पुन: प्रारंभ करने पर राजी हुए हैं। आखिर क्या कारण है कि बार-बार बेनतीजा रही बातचीतों के बावजूद भारत-पाक के प्रमुख एकदूसरे के सामने पड़ते ही बातचीत का सिलसिला शुरू करने पर बल देने लगते हैं। अगर भारत पाक बातचीत न भी करें तो क्या फर्क पड़ने वाला है? इतिहास में जाएं तो कभी ये एक ही देश थे और जब टूट कर अलग हुए तो खून के प्यासे दो भाइयों की तरह बन गए। दोनों देशों में भाई होने का भाव नहीं होता, तो बार-बार बातचीत पर राजी नहीं होते। भारतीय महाद्वीप के परंपरागत परिवारों में दो भाइयों की बंटवारे और कब्जे की जैसी लड़ाई होती है, वैसी ही भारत और पाकिस्तान के बीच तकरार चलती रहती है। कभी-कभी तो युद्ध भी हुए हैं। परंतु दो देशों के रूप में एकदूसरे की कोई तुलना नहीं है। यह तुलना दोनों देशों की मानसिकता और प्रवृति को लेकर की जा सकती है। दो देश होने के नाते, उनमें संप्रभुता का तत्व समाहित हो चुका है। इस संप्रभुता ने उनके बीच सेना और सुरक्षा के सवाल खड़े किए हैं। वास्तविकताएं जो भी हों लेकिन भावनात्मक रूप से दोनों देश एक दूसरे के पास आने की आवश्यकता महसूस करते हैं। इसके पीछे कुछ और भी कारण हैं, जिनमें युद्ध से नुकसान, व्यापार, विश्व राजनीति और एक देश होने की पूर्व स्मृति शामिल है। साथ ही अंतरराष्ट्रीय दबाव भी। मुशर्रफ के राष्ट्रपति बनने के बाद उनके दिल्ली आगमन के समय दोनों देशों के बीच एक भावनात्मक लहर भी चली थी, जिसे बाद में कुचला भी गया। दो देशों की विशाल कूटनीति और राजनीति के बीच इस तरह की भावनात्मक लहरों का यही हश्र होता रहा है। इस मुलाकात की बड़ी उपलब्धि तभी कही जा सकती है जब पाक प्रमुख अपनी सेना और कट्टरपंथियों को पूर्वाग्रह छोड़ने पर राजी कर लेते हैं और एक सभ्य उदारवाद को पाकिस्तान अपनाता है तथा पूर्व की तरह पीठ पीछे कोई धोखेबाजी पाक नहीं करता है।

खलनायिका बनती लड़कियां


भो पाल की सेंट्रल जेल में हत्या के मामले में बंद तीन कैदियों में से दो को बैतूल जिले में पेशी के दौरान उनके परिजन और दो लड़कियां पुलिस की आंखों में मिर्ची डाल कर ले उड़े। भागे तो तीनों ही थे, लेकिन एक को पुलिस ने बाद में पकड़ लिया। यह मामला सिर्फ एक सूचना नहीं है कि कैदियों के परिजनों ने चार पुलिस कर्मियों पर हमला करके आरोपियों को छुड़ा लिया और दो लड़कियां उनको मोटरसाइकिल पर लेकर भाग गर्इं, बल्कि यह पुलिस और कानून व्यवस्था के खत्म होते भय और अपराधियों के बढ़ते हौसलों का प्रमाण है। बैतूल जिले में हुई ये घटना कई बड़े सवाल भी हमारे सामने खड़े करती है। पहला सवाल तो यही कि आखिर क्या इन लोगों को न्याय और व्यवस्था पर यकीन नहीं था? क्या वे यह नहीं जानते थे कि आखिर वे पुलिस से कहां तक भाग पाएंगे? इसके अलावा उनके परिजनों में कोई ऐसा क्यों नहीं था जो उन्हें यह बता पाता कि यह दुस्साहस कैदियों की ही नहीं, उनके जीवन को भी बरबाद करने का काम कर सकता है। दूसरा बड़ा सवाल ये है कि अब महिलाएं भी दुस्साहस के साथ अपराध की दुनिया का हिस्सा बनने लगी हैं। इस घटना के बाद जनता के मन में यह सवाल भी उठा होगा कि आखिर कोई क्यों ऐसा कर सका? क्या उन्हें कोई राजनीतिक शह मिली थी या पुलिस और जेल के मध्य व्यवस्थाओं को देखते हुए लोगों में यह दुस्साहस पनपा? गड़बड़ कहीं न कहीं तो होगी ही, तभी तो इस घटना को अंजाम दिया जा सका। सवाल पुलिस को कार्यप्रणाली पर भी उठाए जा सकते हैं, लेकिन फौरी तौर पर यह घटना समाज में प्रशासनिक तंत्र के प्रति बढ रहे अविश्वास का और पुलिस के कम होते रौब का नतीजा भी लग रही है।

चोर के टिकिट

उनकी नई-नई शादी हुई थी। हनीमून के बाद एक शानदार मकान में मजे से रहे थे। कुछ दिनों बाद उनके शहर में नामी नाटक के कलाकारों का आगमन हुआ। एक दिन उनके घर में डाक से एक लिफाफा आया, जिसमें दो टिकिट थे, साथ ही एक पुर्जा भी था। पुर्जे लिखा था बताओ इस प्रोग्राम के टिकिट तुम्हें किसने भेजे? टिकिट और पुर्जा देखकर पति-पत्नी बड़े प्रसन्न हुए । वे नाटक देखने गए। आधी रात के बाद जब वे अपने घर पहुंचे तो उन्होंने देखा उनके घर का सारा सामान गायब था। सोफा सेट तक गायब हो गए थे। वे हक्का बक् का रह गए। उन्होंने टेबल पर एक पुर्जा पड़ा देखा और उसे पढ़ा, जिसमें लिखा था अब पता चल गया होगा कि टिकिट किसने भेजे थे।

मंगलवार, अप्रैल 27, 2010

विकास के प्राधिकरण भष्टाचार के अभिकरण



यह कदम स्वागत योग्य है, पर बेहतर हो कि भ्रष्टाचार को पहले ही रोकने के उपाय किए जाएं।
्नरा ज्य सरकार ने प्रदेश के पांच नगर विकास प्राधिकरणों को भ्रष्टाचार की शिकायतों के चलते भंग कर दिया है। जिन प्राधिकरणों को भंग किया गया है, उनमें इंदौर, जबलपुर, देवास, उज्जैन और ग्वालियर शामिल हैं। इस मामले में भोपाल विकास प्राधिकरण सुरक्षित रहा, कह सकते हैं बच गया। खबरों के अनुसार उनमें अधिकतर के अध्यक्षों पर भूमि घोटालों, मिलीभगत से विभिन्न प्रकार से संपत्ति का निर्माण और राजनीतिक लाभ पहुंचाने के आरोप रहे हैं। विभिन्न राजनीतिक संगठनों और जनता द्वारा की गई शिकायतों के आधार पर इन प्राधिकरणों पर राज्य सरकार ने कार्यवाही की है। लेकिन इस कार्यवाही को पर्याप्त नहीं कहा जा सकता। प्राधिकरण भंग करने का मतलब महज इतना है कि राज्य सरकार जो हो चुका है उसे वहीं रोक कर नए अध्यक्ष नियुक्त करेगी। जिस तरह प्राधिकरणों के अध्यक्षों के खिलाफ दस्तावेजी सबूत सामने आ रहे हैं, उनके अनुसार तो उनके संपूर्ण कार्यकाल की जांच की जानी चाहिए और दोषी पाए जाने पर उन्हें न्यायालय के समक्ष न्यायिक कार्यवाही के लिए भी प्रस्तुत करना चाहिए। भ्रष्टाचार के इन मामलों में वास्तविकताएं राजनीति से सीधे प्रभावित होने के कारण ही देश के नागरिकों का पैसा और संसाधन भ्रष्टाचार की बलि चढ़ता रहता है। राजनीतिक नियुक्ति के रूप में पद पाए लोग अधिकतर मामलों में बेहद गैर जिम्मेदाराना तरीके से कार्य करते हैं। उनका उद्देश्य सेवा से अधिक लाभों पर आधारित काम करने की प्रवृत्ति होती है। राज्य सरकार द्वारा अपनी नाक को बचाने के लिए इस तरह की कार्यवाहियां करना आवश्यक है। पर जो भ्रष्टाचार हो चुका है उसकी भरपाई के लिए कोई कदम क्यों नहीं उठाया जाता। सरकारी प्राधिकरणों में जिस तरह से गैर जिम्मेदारी की भावना व्याप्त हो चुकी है और जनता भी उसको सहज भाव से ले रही है, वह लोकतंत्र के लिए एक घातक प्रवृति है। जनता द्वारा लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को जिस उपेक्षित दृष्टिकोण से देखा जा रहा है वह आगे जाकर इस व्यवस्था के प्रति विद्रोह के बीज बोने की तरह है।


किरण बेदी के मायने

अ गर महिला आरक्षण बिल लागू होता है तो मैं भी चुनाव लडूंगी। एक महिला के नाते किरण बेदी के ये विचार महिलाओं के प्रति बड़ी हार्दिकता और जीत की ओर इशारा करते हैं। कोई भी महिला अगर भारतीय लोकतंत्र में लाभ उठाने का प्रयास करती है तो यह उसका संवैधानिक अधिकार होता है। महिला आरक्षण से लाभ उठाने यानी चुनाव लड़ने की किरण बेदी की आकांक्षा एक शुभ संकेत है। महिलाओं के प्रति इस देश में सदियों से एक उपेक्षित समुदाय की तरह व्यवहार किया जाता रहा है। इसके पीछे पुरुषों के अपने कुछ ऐतिहासिक-सामाजिक-मानसिक कारण रहे होंगे लेकिन आज उनकी कोई आवश्यकता नहीं है। पुरुष मानसिकता महिलाओं के प्रति पूर्वाग्राही रही है। यह शिक्षा, धर्म और सामाजिक रूप से पिछड़ेपन का परिणाम रहा है। स्वस्थ मानसिकता मानवीय रूप में किसी भी प्रकार से महिलाओं को कमतर नहीं आंक सकती। किरण बेदी का चुनाव लड़ना एक संकेत ही नहीं है बल्कि यह एक मिशन बन बन सकता। उनका चुनाव लड़ना समाज और महिलाओं के प्रति किरण वेदी ने अपनी प्रतिबद्वता व्यक्त की है। भारतीय जनता की सामान्य सोच की बात की जाए तो किरण बेदी जैसी महिलाओं की आवश्यकता को पूरी गंभीरता से महसूस करती है। आज आवश्यकता है कि समाज को भारतीय लोकतंत्र की सफलता के लिए किरण बेदी जैसी महिलाओं को आगे लाना होगा। खुलाी बात है कि बेईमानों के बहुमत में ईमानदारों का बहुमत तो बड़ाना ही होगा। भारतीय लोकतंत्र को ऐसे ही महिला व्यक्तित्वों की आवश्यकता है। जहां कर्तव्य और ईमानदारी की कद्र होती है।


चुटकुला
स्वेटर में लगने वाला समय

महिलाओं की पार्टी हो रही थी। किसी ने मजाक-मजाक में सवाल पूछा कि - एक महिला को पूरी बांहों का स्वेटर तैयार करने में कितना समय लगेगा? उत्तर देने के लिए कई महिलाओं ने हाथ उठाए। सबके उत्तर अलग अलग थे। एक मजेदार उत्तर मिला, जो इस प्रकार है-
यदि स्वेटर प्रेमी का है, तो तीन दिन में।
यदि पड़ोसन के पति का है, तो तीन हफ्ते में।
यदि अपने पति का है, तो कम-से-कम तीन महीने या उससे भी ज्यादा लग सकते हैं।

शनिवार, अप्रैल 24, 2010

पूंजीवादी परिवारोंका आईपीएल


बड़े पूंजीवादी परिवारों के लोगों का आईपीएल चल रहा है और देश की जनता देख रही है। यह खेल क्रिकेट की तरह हो गया है, जहां आखिरी गेंद तक कुछ नहीं कहा जा सकता।

ब आईपीएल क्रिकेट यानी इंडियन प्रायमर लीग में घपले की पिच पर राजनीति की घास दिखने लगी है। फिलहाल तो खेल जारी है और 24 को फाइनल होना है। जब कोच्चि की टीम के फ्रेंचाइजी मामले में ललित मोदी शशि थरूर से भिड़े थे तो उन्हें भी अंदाजा नहीं था कि शशि थरूर तो जाएंगे पर उससे ज्यादा नुकसान मोदी और उनके हित चिंतकों को होगा। मोदी को हटाने के लिए स्टंप उखाड़े जा रहे हैं और कई लोग इसमें मैदान से बाहर रह कर भी क्रिकेट खेल रहे हैं। मोदी भी अड़े हैं कि पद नहीं छोड़ूगा। दरअसल वे जानते हैं कि लाभ की आईपीएल-गंगा में किस-किस ने हाथ धोए हैं। शुक्र है कि थरूर इस मामले में घिरे और अब पर्दा हट गया है। बड़े-बड़े लोगों ने खुद ही हाथ नहीं धोए, अपने बेटे बेटियों को भी इस गंगा में तैरा दिया। क्रिकेट की इस गंगा में प्रफुल्ल पटेल की बेटी पूर्णा पटेल का नाम आया है, उन्होंने 9 लाख के वेतन से नौकरी शुरू की और एक साल में ही तिगुने से अधिक बढ़ कर उनका वेतन 30 लाख सालाना हो गया। वैसे प्रफुल्ल पटेल इसे छोटी सी नौकरी बता रहे हैं। शरद पवार अपने दामाद के लिए आईपीएल गंगा के किनारे लेकर आए, ऐसे अनुमान भी हैं। कहा तो यह भी जा रहा है कि मोदी के पीछे तो दरअसल शरद पवार ही हैं। उनकी बेटी सांसद सुप्रिया सुले ने कहा कि किसी ने उनके पति का नाम लिया, तो वे अदालत में सबको घसीटेंगी। सुप्रिया ने प्रफुल्ल पटेल की बेटी का बचाव भी किया कि वह अच्छी लड़की है, उसे विवादों में मत घसीटिए। ऐसा लग रहा है कि आईपीएल के मैदान पर दिग्गजों द्वारा रस्साकसी की जा रही है। क्रिकेट बोर्ड अड़ गया है, दूसरे पाले में ललित मोदी भी अड़े हैं। हाईकोर्ट बीसीसीआई से पूछ रहा है कितना कमाया आईपीएल से और वह इसे कैसे नियंत्रित करता है। वहीं खेल मंत्री एमएस गिल ने भी अब कहा है कि जब किसी खेल को टैक्स में छूट नहीं दी जाती तो क्रिकेट को क्यों? बड़े पूंजीवादी परिवारों के लोगों का आईपीएल चल रहा है और देश की जनता देख रही है। यह खेल क्रिकेट की तरह हो गया है, जहां आखिरी गेंद तक कुछ नहीं कहा जा सकता।

गुरुवार, अप्रैल 22, 2010

आईपीएल: विवादों की क्रीज पर ललित मोदी

वर्तनी जाँचे
कमाई का गठजोड़ बन चुके आईपीए में हो रही अनिमितता को आयकर के छापे राज खोल रहे हैं।


आ ईपीएल क्रिकेट ग्लैमर और सनसनी का ऐसा उत्सव बन गया था, जिसमें असीम पैसा, अनंत भ्रष्टाचार और बहुत सारा सट्टा था, बल्कि कहें है यह ग्लैमर, काले धन और क्रिकेट का आधुनिक काकटेल है। आईपीएल जब प्रारंभ हुआ था तब इसका आइडिया ललित मोदी ने कहां से लिया था, यह अलग मुद्दा है लेकिन जिस तरह से मोदी प्रभावित आईपीएल ने प्रचार, मीडिया और देश के युवाओं को खेल और ग्लैमर की मादकता परोसी उसमें देश का धनी वर्ग, जो करोड़ों से कम का टर्नओवर स्वीकार ही नहीं करता, अपने कालेधन पर खेल और ग्लैमर की सफेदी चढ़ाकर खातों को जायज बना रहा था। ललित मोदी इस गेम के सबसे बड़े बेस्टमेन बन कर उभर आए हैं, अभी वे इस्तीफा न देकर, मीटिंग में न आकर क्रीज से हटने से ही इंकार कर रहे हैं। आईपीएल पर प्रवर्तन निदेशालय ने विदेशी मुद्रा विनिमय प्रबंधन (फेमा) के तहत मामला दर्ज कर लिया है। अब आईपीएल-एक की नीलामियों की मूल कापियों की आवश्यता महसूस हो रही है। यह काम तीन साल पहले किया जाना चाहिए था, जिसे अब अंजाम दिया जा रहा है। लगता है देश के हुक्मरान विवादों के बीच में अपने कतर्व्य याद करते हैं। वरना आईपीएल के करोड़ों रूपए देख कर आयकर विभाग हाथ पर हाथ रखे क्यों बैठा रहा- क्या इससे यह नहीं झलकता कि तुम भी शांति से भोजन करो और हमें भी करने दो। और तीन साल से चल रहे इस हाई प्रोफाइल गेम में अब तक न जाने कितने करोड़ का सौदा-सट्टा हो चुका है। वह किसी को दिखाई देगा? काफी समय गुजर चुका है और सबूतों को कोई भी धनकुबेर इतने दिनों तक खुली लापरवाही में रहने देगा? आयकर विभाग आईपीएल से जुड़ी फ्रेंचाइजियों के आॅफिसों में छापे मार कर दस्तावेजों की पड़ताल कर रहा है। यह आयकर विभाग बता पाएगा कि उसे काम के कितने कागजात क्या मिल रहे हैं। वरना तो उम्मीद ही नहीं है कि वहां वह रद्दी को ही खंगाल रहा होगा। इतने दिनों से चल रहे विवाद और छापों की आमद के बाद ये आर्थिक उच्चवर्ग अपने घोटालों को दफन करने की पूरी रणनीति तैयार कर चुका होगा। मामले में आज भी रफादफा के स्वर बुलंद हैं और हल की उम्मीद अभी नहीं है।


भाजपा मुद्दों की ओर


म हंगाई पर भारतीय जनता पार्टी की रैली का क्या असर हो सकता है? शायद ही इसे को कोई अर्थशास्त्री बता पाए, लेकिन इस समय कोई भी नेता इस रैली और महंगाई का बयान कर सकता है। नेता और अंधभक्त कार्यकताओं के बयानों का मतलब है कि विपक्ष ही सारी समस्याओं का एकमात्र कारण है। एक जटिल लोकतंत्र के नेता जिस तरह चीजों का सरलीकरण करते रहे हैं, अगर उनके कार्यकर्ताओं को छोड़ दें, तो कोई उनकी बातों पर ज्यादा यकीन नहीं करता। लेकिन यह अच्छी बात है कि भारतीय जनता पार्टी ने मंदिर या उस जैसे किसी मुद्दे की जगह व्यापक जनाधार वाले मुद्दे मंहगाई को चुना। महंगाई एक सरकार की असफलता हो सकती है और विपक्ष का कर्तव्य बनता है कि वह उसे उसके कर्तव्यों की याद दिलाए। भारतीय जनता पार्टी ने जिस प्रकार महंगाई के खिलाफ जिस प्रकार गांव गांव और गलीकूचों तक इस आंदोलन को पहुंचाने की अपील की है उसमें भारतीय जनता पार्टी के अंदर हो रहे परिवर्तनों की एक झलक भी मिलती है। लोकतंत्र में देश की जनता की आवाज बनना विपक्ष की आकांक्षा हो सकती है, लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि उसे अपनी राजनीतिक विचारधारा के तहत जनता के स्वरों को पहचानना आना चाहिए। भाजपा का कुछ कुछ युवा हुआ नेतृत्व अगर देश की आवाज को पहचानने की कोश्शि कर रहा है तो यह देश के लोकतंत्र और उसकी सेहत के लिए अच्छा टानिक हो सकता है। यह भाारतीय जनता पार्टी के लिए भी ताजगी भरी हवा की तरह महसूस होगा।

बुधवार, अप्रैल 21, 2010

काश! पहले ही सच्चाई स्वीकार लेते


पहले हंसी में उड़ाया था अब स्वीकारा कि यूका के आसपास की जमीन में अभी भी जहर है।

गै स त्रासदी का दंश झेल चुकी भोपाल की मिट्टी आज भी उसके दुष्प्रभाव से मुक्त नहीं हुई है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश जब भोपाल दौरे पर आए थे तो यूनियन कार्बाइड परिसर के दौरे के समय जमीन के प्रदूषण की बात उठने पर उन्होंने हंसी उड़ाते परिसर की मिट्टी को उठाते हुए कहा था- देखो कहां है प्रदूषण, मेरे हाथ तो नहीं गले। उन्हीं ने सोमवार को राज्यसभा में यह सच्चाई स्वीकारी कि यूनियन कार्बाइड के आसपास की जमीन और जल में अभी भी जहर है। जयराम रमेश का एक मंत्री के रूप में चीजों को इतने हलके रूप में लेना तब भी उन्हें शोभा नहीं दे रहा था और आज उनका तरीका उन्हें ही चिढ़ा रहा है। आखिर केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड और सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरनमेंट(सीएसई) की रिपोर्ट में आए निष्कर्षों को सरकार को स्वीकार करना पड़ा? उन्हें समझना चाहिए था कि यह एक ऐसा मामला था जिसमें हजारों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी, इसलिए इसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए था। समस्या को इतने हल्के से लेने वाले सिर्फ जयराम रमेश ही अकेले नहीं हैं, मध्यप्रदेश सरकार के मंत्री और भोपाल के नुमाइंदे बाबूलाल गौर ने भी कहा था कि अगर जहर होता, तो वहां के चूहे-बिल्ली मर जाते। हम अपने नेताओं पर कितना आश्चर्य करें कि वे कैसे अति सूक्ष्म रासायनिक अणुओं से होने वाले प्रदूषण के असर की तुलना चूहा-बिल्ली के मरने से कर रहे हैं। अब जांच में पाया गया है कि यूनियन कार्बाइड के आसपास पांच वर्ग किलोमीटर में भूजल एवं जमीन प्रदूषित हो चुकी है। इतना ही नहीं सरकार ने खुद यह स्वीकार किया है कि इस क्षेत्र के हैंडपंपों के पानी में पारा और आर्सेनिक जैसे जहरीले धातुकण उपस्थित हैं। इस समय कार्बाइड परिसर के 67 एकड़ में फैला 8000 मीट्रिक टन रासायनिक कचरा जमीन में रिस कर प्रदूषण को चिर स्थाई रूप दे रहा है। सरकार सिर्फ 300 मीट्रिक टन कचरे के ही निबटान के लिए तैयार है। अगर सरकार इस रासायनिक कचरे का निपटान नहीं करेगी तो कौन करेगा? यह सवाल अब भी हमारे नेताओं और जिम्मेदार अधिकारियों के सामने खड़ा है।

तबादला, राजनीति और शिक्षा

अ क्सर राजनेताओं और कर्मचारियों का असली संबंध तबादले की धमकी देने, करवाने और रुकवाने का अधिक होता है। यही कारण है कि मंत्री या कहें नेता अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए प्रशासनिक कुशलता से अधिक तबादले करने के अधिकार पर अपनी पकड़ मजबूत करना चाहते हैं। सोमवार को मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट की मीटिंग में नई तबादला नीति को मंजूर किया गया था। दो साल से तबादलों पर लगे प्रतिबंध को सरकार द्वारा समाप्त करने से न सिर्फ प्रशासनिक हल्कों में एक नई हलचल शुरू हो चुकी होगी, बल्कि तबादले करवाने वाले कर्मचारी नेता व दलाल भी सक्रिय हो चुके होंगे। नई तबादला नीति में कई अच्छे प्रावधान भी हैं, जिनमें विभागीय जांच व नैतिक पतन संबंधी प्रकरण चल रहे किसी अधिकारी-कर्मचारी को कार्यपालिक पदों पर पदस्थ नहीं करने का प्रावधान भी है। तीन साल की बंदिश को लचीलेपन में ही रखा गया है। शिक्षा विभाग के लिए अलग से तबादला नीति बनाई गई है। इसमें बच्चों की शिक्षा को प्रभावित नहीं होने देने का प्रयास किया गया है। प्रायमरी स्कूल में दो, मिडिल स्कूल में तीन शिक्षक कम से कम होंगे। विज्ञान विषयों के शिक्षकों के लिए भी अनिवार्य प्रावधान एक अच्छी पहल है। इन तबादलों से पहले शिक्षक संवर्ग पर विचार किया जाएगा। इससे राजनीतिक दबाव वाले शिक्षकों द्वारा स्थानांतरण की प्रवृति पर भी रोक लगेगी। नई तबादला नीति में संविदा कर्मचारियों के स्थान परिवर्तन पर रोक को हटाने पर कोई सहमति न बनना कुछ कर्मचारियों के मूलअधिकारों की अवमानना ही कही जा सकती है।

belan or neta
Type in Hindi
एक निर्दलीय नेता जी पहली बार चुनाव जीत का सदन में आए। उन्होंने एक सपना देखा। वे सोच रहे थे कि सदन में सिर्फ बैठना ही होता है या फिर भाषण देना होता है। पर वहां उन्होंने जूते चप्पल कुर्सियां और हाथापाई देखी तो घबरा गए।
उन्होंने अपने घर फोन लगाया कि अरे यहां तो दंगा हो रहा है। मुझे क्या करना चाहिए।
उनकी पत्नी ने कहा- अपना बैग देखो मैंने उसमें एक बेलन रख छोड़ा है। उसे निकालो और फेंक मारो?
नेता जी उलझ गए, पूछा धरामार वो क्यों रखा है?
पत्नी ने बताया ताकि तुमको मेरी याद आती रहे कि कोई गढ़बड़ काम करोगे तो तुमको मैं इसी से तो ठोकती थी, और अब भी ठोकूंगी?
अरे, च्ािंहुंक कर नेता जी ने बेलन छत की तरफ उछाल मारा ... टन टन ठन ठन होकर बेलन फर्श पर लुडकने लगा। चोट किसी को नहीं आई पर तत्कात सारे विधायक चुप हो गए और बेलन के सदन में आने पर शोर करने लगे। विधायकों को आश्चर्य था कि यह यहां आ कैसे गया। वे सब एक साथ इसे सरकार की साजिश करार देने लगे । उन्होंने सदन में बेलन की उपस्थित पर सरकार के खिलाफ नारे लगाए। और जांच कमीशन की मांग करने लगे।

रविवार, अप्रैल 18, 2010

आयकर अधिकारी और रिश्वत, क्या बचा अब!

दे श में समस्याएं और भी हैं लेकिन फिलहाल लगता है कि सिर्फ भ्रष्टाचार ही एक मात्र ऐसा शब्द है जो देश के हर मामले में फंसा मिलता है। आयकर विभाग भी इससे अछूता नहीं है। रिश्वत के मामले में मुंबई में सीबीआई की भ्रष्टाचार निरोधक शाखा ने आयकर विभाग की महिला अधिकारी सुमित्रा बनर्जी और उसके पति को 1.5 करोड़ की रिश्वत लेते हुए रंगे हाथों गिरफ्तार कर लिया है। सुमित्रा ने यह रिश्वत ठाणे के भवन निर्माता से उसके कर को कम करने के लिए मांगी गई रिश्वत चार करोड़ रिश्वत मांगी थी। लेकिन जिस धन पर काम करने की बात बनी थी, वह 1.5 करोड़ रुपए था। जिसे सीबीआई ने पकड़ा है। समाज में भ्रष्टाचार की व्यप्ति से इन मामलों पर सोच विचार करने वाला एक तबका चिंतित है। चाहे आईपीएल हो या फिर आयकर या दूसरी योजनाएं। भ्रष्टाचार शब्द अखबारों-टीवी में लोगों ने इतनी बार सुना है कि इसके प्रति एक राष्ट्रीय उपेक्षा भाव आ रहा है। जनसामान्य के विश्वास को इतनी बार छला जा चुका है कि अब उनका मन मानता ही नहीं है कि कोई चीज बिना घपले, भ्रष्ट आर्थिक लेनेदेन और दबावों के बिना अस्तित्व में आ भी सकती है? आखिर भ्रष्टाचार अब यदाकाद घटने वाली घटना नहीं रही यह रोजमर्रा का काम हो गया है। टीवी-अखबारों में कहीं न कहीं इस तरह की कोई खबर फंसी ही रहती है। लोगों को इस तरह की खबरों से चौंकना और चर्चा करना जैसे बंद कर दिया है। वे हजार दस हजार की रिश्वत की खबरें, गरीबों से लिए जाने वाले दो पांचा सौ रुपए कहीं गिनती में नहीं आते। अब लाखों अथवा करोड़ का मामला थोड़ी सनसनी देता है। हाल ही में मुंबई जो कुछ हुआ अब उसमें देश का हर इंसान शामिल हो गया महसूस होता है। मामला जब आयकर विभाग से जुड़ा हो तो और भी गंभीर हो जाता है। आयकर वैसे भी सबसे अधिक मलाई वाला विभाग माना जाता रहा है। यह करोड़ों की संपत्ति से सीधा जुड़ा है। ऐसा नहीं है कि यह महिला ही एक मात्र रिश्वत ले रही थी। वहां रोज ही कोई न कोई ले रहा होगा। शनिवार को महिला पकड़ा गई और बाकी नहीं पकड़ाए। भ्रष्टाचार का मामला इतना गंभीर हो चुका है कि अब इस पर बड़े पुनर्विचार की आवश्यकता है।

बाघों के 28 करोड़

प न्ना टाइगर रिजर्व में बाघों की जान बचाने के लिए वन विभाग ने 28 करोड़ रुपए फूंक दिए। जले पर नमक छिड़कने जैसा दूसरा काम वन विभाग ने यह किया है कि उसने बाघों की वह रिर्पोट भी गायब कर दी या करवा दी गई, जिसमें पन्ना टाइगर रिर्जव के बाघों की मौतों के कारणों का खुलास किया गया था। इस रिर्पोट के गायब होने की जानकारी सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी में वन विभाग ने दी। इस रिर्पोट के कारण कई बड़े अधिकारियों पर उंगली उठाई जाती। इन अधिकारियों ने पन्ना रिर्जव से गायब होते बाघों के बाद भी तीन साल से करोड़ों की भारीभरकम राशि की उपयोगिता रिर्पोट देते रहे। केंद्र से बजट बढ़वाते रहे। निश्चय ही यह गोलमाल का कारोबार रहा है, जिसमें कई बड़े अधिकारी और नेताओं की श्रृंखला काम कर रही होगी। पिछले तीन सालों में इन 28 करोड़ रुपयों का कोई सदुपयोग होता तो निश्चित रूप से ही बाघ और जंगल दोनों ही आबाद होते। सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी में वन विभाग 27.74 करोड़ की सूचना तो दे दी लेकिन वे जनवरी 04 के बाद बाघों के मरने, लुप्त होने और शिकार होने की जानकारी के सबंध में की गई जांच रिपोर्ट नहीं दे सका। इसके बाद एक गैर जिम्मेदारी भरा जबाव अवश्य वन विभाग ने दिया कि यह रिपोर्ट उसके पास नहीं है।
पन्ना रिर्जव में बाघों के गायब होने का अध्ययन कर रहे आर एस चुंडावत ने बाघों के गायब होने की जानकारी 2005 में ही दे थी। लेकिन भ्रष्टाचार में डूबे हुए अमला ऐसे आवाजें सुनने का आदी नहीं है। वह तो बाघ की दहाड़ तक गुम करने में मशगूल रहा तो फिर वह ये क्यों सुनने चला कि पन्ना रिर्जव में बाघ समाप्त हो चुके हैं। नोटों की फसल में इस देश प्रदेश का न जाने क्या क्या गुम हो चुका है।

शिक्षा ऋण पर छूट संबंधियों को भी फायदे

शिक्षा अब कुशलता केंद्रित हो चुकी है, जिसमें तकनीक और धन का महत्व बढ़ा है।


शिक्षा की अवधारणा आज बेशक व्यावसायिक हो चुकी है। इसका कारण यह है कि इसको सीधे रोजगार से जोड़ दिया गया है। व्यावसायिक शिक्षा में जितनी प्रखरता बुद्धि की चाहिए होती है, उतनी ही अधिक आवश्यकता आज अच्छे कालेज में पढ़ने के लिए धन की भी होती है, क्योंकि आधुनिक शिक्षा कुशलता केंद्रित हो चुकी है, जिसमें तकनीक और धन का महत्व बढ़ा है। आधुनिक व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में शिक्षा का पूरा दारोमदार कुशलता पर निर्भर है। इस कुशलता को प्राप्त करने के लिए गहन प्रशिक्षण, उच्च तकनीक, शुरू से ही बेहतर स्कूल शिक्षा और सुविधाएं जुड़ गई हैं। इसलिए आधुनिक समय में शिक्षा प्राप्त करने के लिए धन उपलब्ध करने के लिए सुविधाओं के विकास की आवश्यकता महसूस की गई। समाज को आज ऐसे आर्थिक परिवेश की आवश्यकता है, जिसमें हर छात्र अपनी मनमाफिक व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त कर सके और उज्जवल भविष्य बना सके। इसके लिए आवश्यक था कि ऐसी आर्थिक सुविधाओं का विकास किया जाए और नीतियां बनाई जाएं जिसमें दूर के रिश्तेदारों के बच्चे के लिए भी ऋण की सुविधा उपलब्ध हो।
नए प्रावधानों में केंद्र सरकार ने शिक्षा ऋण के ब्याज के भुगतानों में टैक्स में छूट का दायरा बढ़ाकर इस ऋण की सुविधा को संबंधियों तक पहुंचाने का प्रयास किया है। अब किसी भी शिक्षा ऋण पर दिए ब्याज पर कर नहीं देना होगा। इसके अलावा नए प्रावधान में वोकेशनल कोर्स, आर्टस और कॉमर्स जैसे विषय भी शिक्षा ऋण में शामिल किए गए हैं। आज के आर्थिक जगत में इन विषयों से संबंधित रोजगारों की संभावनाएं भी बढ़ गई हैं। अब आयकर अधिनियम की धारा 80-ई के तहत किए गए संशोधन में आयकर छूट का लाभ कामर्स एवं आर्ट्स के स्टूडेंट भी उठा सकेंगे। शिक्षा ऋण की नई अवधारणा शिक्षा के प्रसार और योग्य बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने के अधिकार को नया विस्तार देगी। आने वाले समय में सरकार का यह कदम निश्चित रूप से अपने प्रभाव दिखाएगा।



हिंसा, अपराध और हम

क्या कारण हो सकते हैं कि एक शिक्षित, विकसित और संपन्न होते समाज को हिंसा, अपराध आत्महत्या के अभिशाप झेलना पड़ रहे हैं। रविवार को इंदौर में एक ही परिवार के चार सदस्यों की निर्ममता से हत्या कर दी गई। घटना के पीछे के कारणों का अभी यह पता नहीं है। इंदौर की ही दूसरी खबर है, जिसमें एक युवती ने अच्छी नौकरी नहीं मिलने के कारण अपने कमरे में आत्महत्या कर ली। एक शहर की फिजा में पढ़ाई के दबाव के चलते पिछले महीनों में छह युवा आत्मघाती कदम उठा चुके हैं। आखिर इस बढ़ती हिंसा और युवाओं के जिंदगी से मुंह मोड़ एक पलायनवादी कदम उठाने के कारण क्या हो सकते हैं। इंदौर एक आर्थिक शहर है, जहां जीवन की आपाधापी में भी एक शांत लहर व्यापी रहती है, लेकिन अपराधों की निरंतर बढ़ती संख्या ने चिंता की लकीरें समाज के हर जिम्मेदार के माथे पर डाल दी हैं।
इन घटनाओं के कारणों और कानून व्यवस्था की स्थिति पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। अपराध और हिंसा की घटनाओं के कारणों पर बिना विचार किए समाधान खोजने की कोशिश सिर्फ घाव पर मरहम पट्टी बांधने की तरह होगी। इन मामलों में प्रशासनिक नियंत्रण का अपना महत्व है, लेकिन इन घटनाओं का जन्म कहां हो रहा है। इंसान के मन के किस कोने में और क्यों इनका ब्लूप्रिंट तैयार हो जाता है, इस पर भी विचार करना आवश्यक है। विकास का मतलब आर्थिक समृद्धि हो सकता है, लेकिन वास्तविक विकास में जीवन की शांति भी निहित है। फिलहाल तो हम समाधानों की जगह हर क्षेत्र में पैबंदों से ही काम चला रहे हैं।


जीवन की उमंग


महर्षि रमण के आश्रम के नजदीक किसी गांव में एक अध्यापक रहते थे। रोज के पारिवारिक तनाव से वह बहुत ज्यादा दुखी हो गए थे। अंत में उन्होंने इस अशांति से मुक्ति पाने की सोची, किंतु आत्महत्या करने का निर्णय लेना उन्हें इतना आसान नहीं लगा। वे अपने परिवार के बारे में सोच विचार कर रह गए। वैसे भी मनुष्य को अपने परिवार के भविष्य के विषय में भी सोचना पड़ता है। इसी ऊहापोह में वह व्यक्ति महर्षि रमण के आश्रम में पहुंचे।
महर्षि को प्रणाम कर वह बैठ गए। फिर कुछ देर बाद उन्होंने आत्महत्या के बारे में महर्षि की राय जाननी चाही। रमण उस समय आश्रमवासियों के भोजन के लिए बड़े मनोयोग से पत्तलें बना रहे थे। अध्यापक के सवाल पर उन्होंने कुछ खास नहीं कहा। अध्यापक महोदय उनके उत्तर की प्रतीक्षा करने लगे। थोड़ी देर में वह सोचने लगे कि आखिर यह मेरी बात न सुनकर पत्तलें बना रहे हैं। अध्यापक को रमण का इस तरह पत्तल बनाना थोड़ा अटपटा लगा। उन्होंने साहस कर आखिर पूछ ही लिया, 'भगवन! आप इन पत्तलों को इतने परिश्रम से बना रहे हैं, लेकिन भोजन के बाद तो इन्हें कूड़े में फेंक ही दिया जाएगा।' यही समय महर्षि चाहते थे। अध्यापक महोदय ने सही सवाल किया था। इस बात पर महर्षि ने मुस्कराते हुए बोले, 'आप ठीक कहते हैं, लेकिन किसी वस्तु का पूर्ण उपयोग हो जाने के बाद उसे फेंकना बुरा नहीं है। बुरा तो तब कहा जाएगा, जब उसका उपयोग किए बिना ही अच्छी अवस्था में उसे कोई फेंक दे। आप तो विद्वान हैं। मेरे कहने का तात्पर्य समझ ही गए होंगे।' इन शब्दों से अध्यापक महोदय की समस्या का समाधान हो गया। उनमें जीने का उत्साह आ गया और उन्होंने आत्महत्या का विचार त्याग दिया। अध्यापक वापस आकर अपने काम में लग गए और परिवार के साथ खुशी से रहने लगे।

गुरुवार, अप्रैल 08, 2010

नेता बनाने की दुकान

एक आदमी ने नेता बनाने की दुकान खोली। उसने अपनी दुकान का विज्ञापन दिया। इस विज्ञापन में उसने लिखा तीन दिन में नेता बनिए। कई युवा लोग उस दुकान पर पहुंचे। दुकान खोलने वाले ने कहा- आज आपका क्वालिटी टेस्ट का इंटरव्यु होगा। इसके लिए पांच सौ जमा कीजिए। कई युवाओं ने जमा कर दिए। दूसरे दिन सभी युवा पहुंचे तो दुकानदार ने कहा- दो घंटे तक उन्हें बिठाए रखा फिर कहा, आज आपकी छुट्टी है कल आइए। तीसरे दिन एक युवा जिसने क्वालिटी टेस्ट के पैसे नहीं दिए थे, युवाओं के बीच में खड़ा था। वह नारे लगवा रहा था-नेता बनाओ प्रशिक्षण दुकान हाय हाय... नेता बनाओ प्रशिक्षण दुकान हाय हाय... दुकानदार आया बोल बेटा तुम नेता बनने के क्वालिटी टेस्ट में पास हो गए हो। तुम तीन महीने का प्रशिक्षण लो। लड़के ने कहा हम अलग में बात करेंगे। अभी तो मैं धरने पर हूं। एक घंटे बाद धरना खत्म हो गया। लड़का दुकानदार के पास गया। दुकानदार ने कहा पांच हजार लो ये, तुम पास हुए। लड़के ने कहा इनसे धरना केवल 10 दिन तक स्थगित किया जा सकता है। दुकानदार ने कहा लो बीस हजार लड़के ने कहा अब ठीक है धरना स्थगित किया जाता है। दुकानदार ने कहा तुम तो नेता ही बन गए। वाह अब में कहूंगा कि इस दुकान से एक नेता बना है।

मां की बिजली से रोशन प्रदेश





विकास को प्रभावित करने की हद तक बिजली की कमी ने सरकार को इस समय सोचने पर मजबूर कर दिया है। इसके लिए सरकार ने नर्मदाघाटी में गैर परियोजना स्थलों पर भी बिजली पैदा करने की संभवनाएं तलाशी गई हैं। यह कार्य नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण और अन्य निजी कंपनियों के माध्यम से संपन्न होगा। इससे पहले भी नर्मदा पर निर्मित छह परियोजनाओं से करोड़ों यूनिट बिजली मिलती रही है। एक प्रकार से ऊर्जा के क्षेत्र में नर्मदा पालनहारी मां की भूमिका निभाती रही है। आज जब बिजली के लिए प्रदेश परेशान है तो फिर मां की ही धारा में आशाओं की ये किरण चमक रही हंै। आईआईटी रुड़की द्वारा नर्मदा घाटी में 182 स्थानों को पनबिजली परियोजनाओं के लिए चिन्हित करने से विकास नई ऊर्जा मिलेगी। रुड़की द्वारा चिन्हित स्थानों में प्रदेश के मंडला, डिंडोरी जैसे आदिवासी बहुल जिले भी हैं, जहां ये परियोजनाएं आकार लेंगी। बिजली के ये संयंत्र सिर्फ बिजली ही पैदा नहीं करेंगे, स्थानीय आर्थिक गतिविधियों को भी बढ़ावा देंगे। इन परियोजनाओं से उन क्षेत्रों में से क्षेत्र में रोशनी पहुंचेगी जहां अब तक विकास की विद्युत नहीं पहुंची थी। प्रस्तावित स्थानों पर बिजली उत्पादन केंद्रों का संचालन 2006 में बनाई गई लघु जल विद्युत विकास प्रात्साहन नीति के तहत किया जाएगा। इससे पूर्व प्रदेश के जल संसाधन विभाग ने बारना परियोजना को छोड़, दूसरी योजना नहीं ला सका। इस योजना के लिए शासन इंवेस्टर्स मीट का आयोजन कर रही है। ख्याल इतना ही रखना होगा कि इन छोटी योजनाओं के लिए कंपनियों को पूरी तरह परख कर ही अनुमति दी जाए। ये योजनाएं इतनी दूरगामी हों कि नर्मदा घाटी में चलते हुए संयंत्रों के रूप में दिखाई देती रहें।

bhopal मास्टर प्लान: चुप क्यों हैं बड़े नेता

वरोध के चलते मास्टर प्लान भोपाल के लोगों के खिलाफ साजिश की तरह लगने लगा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि लोगों का विरोध इस साजिश को नाकाम कर देगा।

मा स्टर प्लान का सब ओर विरोध हो रहा है। यहां तक कि भारतीय किसान संघ भी विरोध में है। अगर कोई चीज़ जनता की पसंद पर न आए तो उसे पुनर्विचार के लिए स्वीकार करना चाहिए या उस पर आ रही प्रतिक्रियाओं को गौर से सुनना चाहिए। ये बातें राजनेताओं और उनसे जुड़े योजनाकारों के लिए एक साधारण सा घटनाक्रम है। जब यही घटनाक्रम किसी शहर के लिए लागू हो और चारों तरफ से विरोध के स्वर उठ खड़े हों तो मामला फिर एक परिवार या व्यक्ति का नहीं रह जाता। भोपाल का मास्टर प्लान इस समय शहर की सबसे विवादित योजना के रूप से सामने आ चुका है। यह उसके ही रचनाकारों की नींद हराम किए है। इस नींद में सबसे अधिक खलल भोपाल के जागरूक नागरिक डाल रहे हैं। यह खलल डाला भी जाना चाहिए। यह एक शहर के जीवन मरण का सवाल है। मास्टर प्लान सदियों तक छाप छोड़ने वाली घटना होती है। एक बार लागू होने पर इसके दुष्प्रभावों को कम नहीं किया जा सकता। इसलिए क्योंकि मास्टर प्लान किसी के आंगन में परिवर्तन करने वाली बात नहीं होती। यह शहर में एक व्यापक परिवर्तन लाने वाली योजना है। शहर का विकास तो इसमें समाहित है ही, इससे शहर की संस्कृति भी जुड़ी होती है और लाखों लोगों का जीवन भी।
लोग विरोध कर रहे हैं, लेकिन नेता फिर भी क्यों नहीं सुन रहे हैं। ऐसा लगता है जैसे वे सुनना नहीं चाह रहे। लोगों का विरोध एक स्थापित सत्ता के खिलाफ है। यह उस आथारिटी के खिलाफ है जिसने इसे प्लान किया है। मास्टर प्लान के लिए अब जिस तरह से अधिकार विहीन सुनवाई चल रही है उसमें किसी परिवर्तन की उम्मीद नहीं की जा सकती। लोगों को किसी भी अतिवादी कदम के खिलाफ पूरी ताकत ने उठना ही होगा। परिवर्तन के लिए अधिकारी विहीन सुनवाई और चारों ओर हो रहे विरोध के चलते मास्टर प्लान भोपाल के लोगों के खिलाफ साजिश की तरह लगने लगा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि लोगों का विरोध इस साजिश को नाकाम कर देगा।

सोमवार, अप्रैल 05, 2010

नक्सली कायर हैं तो आप क्या हैं?




लालगढ़, पश्चिम बंगाल में कही माननीय गृहमंत्री की बात मान भी लें कि नक्सली कायर हैं, जंगल में छुप कर सरकारी अमले और सुरक्षाकर्मियों को निशाना बनाते हैं। ठेकेदारों, अधिकारियों और नेताओं से फिरौती बसूलते हैं। यह नक्सली भी कर रहे हैं और देश के अपराधी भी यह कर रहे हैं। कानून के हिसाब से दोनों अपराधी हैं। गृहमंत्री के नाते पी चिदम्बरम के इस बयान का दूसरा पक्ष भी देखना आवश्यक है। इस बयान को देखें तो इससें पी चिदम्बरम अपनी ही कमजोरी को उजागर कर रहे हैं। उनके पास सरकार है, संसाधन हैं और एक पूरा प्रशासनिक तामझाम है जिसके दम पर वे एक अरब की जनसंख्या वाले देश को सम्हाल रहे हैं। ऐसे में नक्सलियों को कायर कह कर वे क्या सिद्ध करना चाहते हैं। क्या यह किसी समस्या से जुड़े पक्ष को कायर कहने से समस्या का समाधान संभव है। क्या नक्सलियों को कायर कह कर वे खुद को बहादुर सिद्ध कर रहे हैं। अगर नक्सली कायर हैं तो पी चिदम्बरम कायर लोगों पर अपनी विजय क्यों नहीं कायम कर पा रहे हैं। कायरों पर तो बहादुर बहुत जल्दी जीत दर्ज करते हैं।
आज आवश्यकता इस बात की नहीं है कि नक्सलियों को कायर कहा जाए। जरूरत नक्सलियों को पूरी ताकत से कुचलने की है। नक्सली होने के पीछे जो कारण है उन्हें समाधानों की तरफ ले जाने की आवश्यकता है। देश में कानून की सत्ता है। उसे कायम रखने का दायित्व गृहमंत्री और उनकी सरकार का होता है। कानून सामूहिक मानवीय आकांक्षाओं को प्राप्त करने का माध्यम है। वह चाहे शांति से रहने का अधिकार हो या फिर स्वतंत्रता से। जब कानून के माध्यम से समस्याओं की जड़ों तक पहुंचना संभव नहीं होता तब वहां आवश्यक मानवीय विवेक की आवश्यकता होती है। यह विवेक ही कानून के साथ मानवीय रास्तों से समस्याओं को समाधान की ओर ले जाता है।


आसमान में इसरो

इ सरो की तमाम उपलब्धियों में अधिक भार लेकर उड़ान भरने में सक्षम राकेट के विकास के साथ ही एक और स्वर्ण इबारत दर्ज हो चुकी है। अधिक भार लेकर राकेट उड़ान की तकनीक के विकास ने देश के आंतरिक्ष अभियानों का खर्च लगभग आधा होने जा रहा है। यह तकनीक सिर्फ राकेट प्रक्षेपण तक ही सीमित नहीं होगी। इसे अन्य क्षेत्रों में भी प्रयोग किया जाएगा। वह चाहे युद्ध संबंधी मिसाइल तकनीक हो या आंतरिक्ष के अभियान। तकनीक के विकास के नए आयाम देश में वास्तविक बदलाव की इबारत लिखते हैं। इस बदलाव में भूगर्भ इंजीनियरिंग, आंतरिक्ष प्रौद्योगिकी, कृषि, कम्पयूटर सॉफ्टवेयर, मौसम, निर्माण अभियांत्रिकी आदि शामिल हैं। तकनीक के इस बदलाव में जब देश का हर पक्ष शामिल हो जाता है तब एक नई क्रांति की शुरुआत होती है। तकनीक के आधार पर आसमान पर काबिज होना एक देश की ताकत में इजाफा है। किसी देश की ताकत का आंकलन उसकी प्रौद्योगिकी पर निर्भर करता है। देश में इसरो आंतरिक्ष प्रौद्योगिकी का केंद्र है। भारत के ये केंद्र ही देश की वास्तविकताओं को बदल सकते हैं। जब इसरो ने अपनी स्वयं विकसित क्रायोजनिक तकनीक को लगभग आधा कम कर लिया है तो यह विदेशी मुद्रा जैसे महत्वपूर्ण पक्ष को भी मजबूत करेगा। देश पहले से ही छोटे देशों को राकेट लांचिंग में मदद करता रहा है। यह मदद विदेशी मुद्रा का प्रमुख स्रोत रही है। आज अगर देश दुनिया को आधे खर्च पर राकेट भेजने के लिए अपने संसाधनों का इस्तेमाल करता है तो विकास की नई तस्वीर सामने आएगी। देश का तकनीक के मामले में दबदबा भी कायम होगा। आशा है इस तकनीक का व्यवसायिक उपयोग देश को नए तकनीकी युग की तरफ आगे ले जाएगा।

रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति

रविवार, अप्रैल 04, 2010

कला में देखना





रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
इंट्रो
कला के सौंदर्य के रस को ग्रहण करने के लिए अवश्यक है कि रसिक की चेतना में स्वीकार भाव कितना है।

शेक्सपीयर ने कहा था कि सौंदर्य देखने वाले की आंखों में होता है। यह सच है कि यह देखने से ही संभव होता है। कला के संदर्भ में सौंदर्य को देखना सामान्य घटना नहीं होती। इसे संस्कृत आचार्य मम्मट ने प्रशिक्षण से ग्रहण करने योग्य कहा है। यही चीज शास्त्रीय संगीत जैसे माध्यम पर लागू होती है। इसे दो लोगों की बातचीत से समझा जा सकता है- दोनों व्यापारी थे। वे शास्त्रीय संगीत सभा में गए। एक को बचपन का अनुभव था, वह जानता था कि राग और आलाप क्या होता है। दूसरा अपने मित्र की मित्रतावश गया था। उसे इस तरह के रसास्वादन का प्रशिक्षण नहीं था और उसकी चेतना भी संवेदनशीलता के उच्चशिखर पर नहीं छू रही थी। एक मित्र शुरुआत से ही उस संगीत से जुड़ गया जबकि दूसरा सिर्फ इधर उधर देख रहा था। वह यह नहीं समझ पा रहा था कि आखिर वह कौन सी चीज है, जिसे सुन कर इतने लोग झूम रहे हैं। जिस रसिक को इसका प्रशिक्षण न मिला हो या उसकी चेतना संपन्न न हो तो वह इस संगीत के रागों को ग्रहण नहीं कर सकता। यह वैसे ही है जैसे एक मॉडर्न आर्ट के किसी केनवास को देख कर कोई बिलकुल रस ग्रहण नहीं कर पाता। कला के संदर्भ में सौंदर्य को प्राप्त करना मन के संवेदनों का झंकृत होना है। दूसरी बात आपकी चेतना में स्वीकार भाव कितना है? इस पर कला के सौंदर्य का आस्वादन निर्भर करता है। कभी-कभी यह भी संभव होता है कि कोई पहली बार संगीत और कला को देखने सुनने गया और राग या रंग की जानकारी के बिना भी उसने रसास्वादन प्राप्त किया।
यह क्यों संभव हुआ? क्योंकि उसकी चेतना में स्वीकार भाव था। वह उस संगीत से या केनवास के रंगों से सहमत हो गया। उसने कोई प्रतिरोध नहीं किया। कला के सौंदर्य के रस को ग्रहण करने के लिए अवश्यक है कि रसिक की चेतना में स्वीकार भाव कितना है। इसके बिना कोई सौंदर्य आप ग्रहण नहीं कर सकते। कला का दूसरा पक्ष ‘देखने’ का होता है। यह ‘देखना’ एकल और परस्पर दो तरह से होता है। परस्पर देखने का उदाहरण दो प्रेमियों को एक दूसरे को देखने में घटता है और एकल उदाहरणों में जब कोई अलेला ही किसी पहाड़ को देख कर कविता रचता है या पेंटिंग बनाता है तो यह एकल देखना हुआ जो कि सौंदर्य के आस्वादन का कारण बनता है। यहां ‘देखने’ का अर्थ है कि जैसी दिखाई दे रही है उसे वैसा ही ग्रहण करना। इस ‘देखने’ से किसी सौंदर्य को पहचाने जाने की घटना घटती है। सौंदर्य के बीच शब्दहीन आदान प्रदान होता है? किसी भी सौंदर्य का घटित होना, आस्वाद करने वाला और प्रस्तुत करने वाले दोनों के बीच सौंदर्य पूर्ण संवाद से घटित होता है।

सिमी की पहचान मालवा के माथे पर कलंक





पुलिस के ढीले रवैये के कारण खुफिया सूचनाएं घास के तिनकों की तरह हाथ में ही रह जाती हैं।


मा लवा की अपनी पहचान अभी भी आतंक से नहीं है। आतंक की पहचान को कोई सहन करना भी नहीं चाहता क्योंकि मालवा सुनहरे रंग वाले गेंहू से पहचाना जाता है। यह गेंहू का कटोरा कहा जाता रहा है। यह सुनहरापन ही मालवा की पहचान है। कम से कम हाल ही तक तो कोई सवाल ही नहीं उठाया जा सकता था कि इसके अलावा कोई दूसरी पहचान से लोग इस छोटे से अंचल को जानें। लेकिन पिछले कुछ सालों में स्टूडेंट आॅफ इस्लामिक मूवमेंट आॅफ इंडिया (सिमी) की गतिविधियों के कारण मालवा का नाम चर्चा में रहा है।
सि मी का नाम मालवा खासकर इंदौर, उज्जैन, खंडवा जैसे कस्बों शहरों से जुड़ा रहा है। सिमी से जुड़ा आतंक के तार। यही तार और संबंध मालवा को प्रदेश में आतंक के नए गढ़ के रूप में देखा जाने लगा है। सिमी ताकत प्राप्त कर रहा है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले साल खंडवा में हुई एटीएस कांस्टेबल सीताराम और दो अन्य लोगों का हत्यारा आज तक नहीं मिला है। पुलिस जांच पड़ताल की अपनी प्रक्रिया में कुछ और तथ्य हाथ लगे हैं। पुलिस को कई नई जानकारियां मिली हैं, एक तो यही है कि आतंकी हर उस आदमी को मारना चाहते हैं जिसे सिमी से संबंधित जानकारियां हासिल हैं। या वह सिमी का दुश्मन है। सिमी के मंसूबे पुलिस के आत्मबल को कमजोर करने के भी हो सकते हैं। सीताराम की शहदत इसका जीता जागता सबूत भी है। जानकारियां सिमी के सदस्य आतंकियों के मंसूबों को उजागर करती है। ये जानकारियां तभी उपयोगी हो सकती हैं जबकि इनका सही ढंग से इस्तेमाल किया जाए। पुलिस का रवैया अगर ढील ढाल कर मामलों को अपने आप खत्म हो जाने की मानसिकता से ग्रस्त रहा है। पुलिस के ढीले रवैये के कारण खुफिया सूचनाएं घास के तिनकों की तरह हाथ में ही रखी रह जाती हैं।




अपना गांव अपनी योजना
गांव के लोगों पर यकीन किया जाता तो आज सरकारी योजनाओं के खाते में सफल योजनाएं मील के पत्थर की तरह गांवों में दिखाई देतीं। गांवों के अधिकांश लोगों की मानसिकता सरकारी योजनाओं के प्रति अविश्वास से देखने की हो चुकी है। गांव वाले जानते हैं कि सरकारी योजनाएं उनके लिए आती तो हैं लेकिन उनकी बंदरबांट और खानपीना, मिलने न मिलने का फैसला ब्लॉक कार्यालयों, तहसील मुख्यालयों में सक्रिय दलालों और बाबूओं से घिरी एक घिनौनी तिकड़ी में फंसी रहती है। जहां सरपंच हो या सचिव सब जानते हैं कि किस अधिकारी को कितने प्रतिशत कमीशन देना है। पिछले साठ साल से अविश्वास का ऐसी दीवार बनाई गई है जिसे हम आज और मोटा किए जा रहे थे। मध्यप्रदेश के संदर्भ में देखें तो अविश्वास की इस दीवार को प्रदेश सरकार ने मांग आधारित योजना की अवधारणा के माध्यम से गिराने की कोशिश की है। इस योजना में गांव के लोगों को आवश्यकता के अनुसार योजना में बदलाव और मद बदलने अधिकार मिल रहे हैं। हर गांव का एक अलग परिवेश है। कई गांव बरसात के दलदलों में घिर जाते हैं तो वहां सबसे पहले पहुंच मार्ग की आवश्यकता है। जहां स्कूल नहीं है तो वहां पहुंच मार्ग का पैसा स्कूल के विस्तार में लगाया जा सकता है। मांग आधारित योजनाओं की अवधारणा के परिणाम सकारात्मक आ रहे हैं। इसका प्रयोग बीते वर्ष में राजगढ़, छतरपुर, रायसेन, मंडला आदि में सफल रहा है। इसका बहुत कुछ दारोमदार ग्राम सभा पर निर्भर करता है। यह एक सच्चे विकास की ईबारत है जिसे गांव का व्यक्ति अपनी तरह से लिखने की कोशिश करेगा। सरकार और दूर गांव के बीच बनी अविश्वास की दीवार गिराई जा सकेगी।

शुक्रवार, अप्रैल 02, 2010

एक महादेश की जनसंख्या

भा रत अगर अपनी जनसंख्या पर पार नहीं पा लेता, तो वह एक भीड़ भरे देश से अधिक और कुछ नहीं हो सकता। भारत की जनसंख्या दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचती रही है। भारत ही नहीं, बल्कि एशिया के अधिकांश देशों की जनसंख्या विकसित देशों के लिए एक बाजार रही है या एक अभिशाप। आज विकसित देशों का नेतृत्व जानता है कि भारत अपनी जनसंख्या के साथ एक संभावनाओं वाला युवा देश है, लेकिन ये संभावनाएं कहां हैं? और किनके लिए हैं- उनके या हमारे लिए? क्या सिर्फ देश के कुछ हजारों-लाखों युवा विदेशों में जाकर सॉफ्टवेयर इंजीनियर हो जाएं और डालर कमाकर भेजें, तो इसे संभावनाएं कहेंगे। नहीं, इसे देश की वास्तविकता नहीं बनाया जा सकता है। ये संभावनाएं तो निहित हो सकती हैं हमारे गांवों में, कृषि और ऐसी योजनाओं में जिसमें हर हाथ को काम का वादा निहित हो। व्यापकता से देखें तो आज देश को दोनों की आवश्यकता है। जनसंख्या की दृष्टि से भारत के संसाधनों का कोई अनुपात नहीं बनता। संसाधनों की भारी कमी है। आबादी का एक बड़ा हिस्सा गंदी बस्तियों में रहता है। उसे दो वक्त का भरपेट पोषक खाना नहीं मिल पाता और हम आज भी अपने देश के एक बड़े वर्ग को स्वच्छ पेयजल तक उपलब्ध नहीं करा पा रहे हैं। शहरों तक में एक बड़े वर्ग को स्वच्छ पेयजल नहीं मिलता, तो गांवोें की तो बात ही छोड़ दें। दुनिया में सबसे ज्यादा हमारी नदियां प्रदूषित हो रही है। शहरों के विकास के साथ अमानक गंदगी से भरी बस्तियों का साम्राज्य खड़ा हो रहा है। यानी हम एक ऐसी जनसंख्या को गिन रहे हैं जहां अभी सुविधाएं का विकास की प्रारंभिक अवस्था में है और कई मामलों में तो उतना भी नहीं है। जनगणना के महाकार्य को 25 लाख जनगणना अधिकारी 45 दिनों में अंजाम देंगे। देश की विभिन्न भाषाओं में 64 करोड़ फार्म में यह जानकारी एकत्रित होगी। एक विशालकाय डाटाबेस बनेगा, जिसके आधार पर करीब पिछले दस साल तक योजनाओं को बेकअप मिलेगा। देश विदेश के लोग, संस्थाएं कंपनियां इनका सदुपयोग-दुरुपयोग करती रहेंगी। कुछ ही दिनों बाद हम भारत बारे में कुछ और जानेंगे ।

इंदोंर विकास प्राधिकरण आखिर क्या चाहता था

आई डीए (इंदौर डेवलपमेंट अथॉरिटी) ने प्लाटों के मामलों में जो कुछ किया है, वह एक भूल का परिणाम नहीं हो सकता। एक बड़ी संस्था की कार्यप्रणाली के तहत भी यह गले उतरने वाली बात नहीं है। जब तक कि इसमें गोलमाल करने की मंशा से जिम्मेदार लोगों की सहमति न शामिल हो। इस घटनाक्रम के बाद जिस प्रकार के बयान आईडीए के अध्यक्ष और जवाहर नगर हाउसिंग ने दिए हैं, वे किसी आश्चर्य से कम नहीं हैं। प्लाटों के साइज कम हो रहे हैं और अध्यक्ष को पता नहीं है। इस तरह जवाहर नगर हाउसिंग सोसायटी के अध्यक्ष ने कहा कि पता नहीं चल रहा कि आईडीए में यह धांधली किसने की है। दरअसल जिसे अध्यक्ष धांधली बता रहे हैं, वह अपराध है। धांधली शब्द का प्रयोग उसके अपराध बोध को कम करके भ्रष्टाचार के स्ट्रोक को कम करता है। यह एक गंभीर किस्म का अपराध है और जिम्मेदारों पर अदालती मुकदमे चलना ही चाहिए।
जिस तरह का गेम खेला गया है, उसमें कोई उच्चस्तरीय मास्टर माइंड अवश्य ही होगा। उसका दुस्साहस आयोजन में देखा जा सकता है। जमीन का यह खेल मुख्यमंत्री के हाथों प्लॉट वितरण तक ही रहता तब तक तो ठीक था, कोर्ट के आदेश के बाद भी आईडीए ने प्लॉटों के साइजों को तय आठ सौ वर्ग फीट से घटा कर छह सौ वर्ग फीट कर दिया। यह हद से गुजरने वाली बात है। जिन छोटे-छोटे प्लाटों के लिए लोगों ने अपनी कमाई समर्पित की थी वे किस तरह से यह जो कुछ हो रहा है वह इंसान की राजनीति और कार्यप्रणाली है। जमीन के आसपास ही घूम रही है। क्या जमीन इंसान के पावर गेम का हिस्सा है? क्या यह सिर्फ हथियाने से हासिल होती है? देश के नागरिक जिस तरह से भ्रष्ट आचरण, धांधली और गोलमाल में लिप्त हो रहे हैं उससे लगता है कि कहीं न कहीं हर पक्ष शामिल हो जाता है।

गुरुवार, अप्रैल 01, 2010

एक नया सच कार्पोरेट सोसल रिस्पांसबिलिटी




कार्पोरेट सोशल रिस्पांसबिलिटी एक सच है। जब देश नई सोच और ऊर्जा से आगे बढ़ता है, तो उसे नई राहें भी तलाशना होती हैं।

सा माजिक सरोकारों के प्रति जिम्मेदारी की भावना से देश के बड़े औद्योगिक घराने प्रभावित हो गए? देश का बड़ा धनी वर्ग समाज सेवा जैसे काम में अपनी दिलचस्पी दिखा रहा है, तो हल्का सा आश्चर्य होना स्वभाविक है। देश के जाने-माने 48 समूहों ने पब्लिक प्रायवेट पार्टनरशिप के तहत मध्यप्रदेश में वाटरशेड मैनेजमेंट, कृषि भूमि की उर्वर क्षमता बढ़ाने, भूमि सुधार जैसे कामों में भागीदारी की इच्छा जताई है। इन घरानों ने गांवों में जीवन स्तर सुधारने में भी अपनी रुचि दिखाई है। अब सवाल एक ही उठता है कि आखिर व्यापार के लिए सुरक्षित पूंजी का घराने कृषि जैसे प्राथमिक क्षेत्रों में निवेश क्यों करना चाहते हैं। शक होना जायज है। बात सिर्फ यहींं तक सीमित नहीं है। कई बार वास्तव में वह वही नहीं होता जो दिखाई दे रहा है। इसलिए औद्योगिक घरानों के इस निवेश पर बेवजह शक न भी किया जाए तो यह तो मानना ही होगा कि इसे निवेश के भी कुछ कारण तो होंगे ही।
औद्योगिक घराने इससे पहले अपनी योजनाएं लेकर देश के केंद्रीय नेतृत्व से मिल चुके हैं। कुछ माह पहले प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में दिल्ली में संपन्न बैठक में कार्पोरेट सोशल रिस्पांसबिलिटी का फैसला हुआ था। इसमें तय हुआ था 1984 से संचालित राजीव गांधी वाटरशेड मैनेजमेंट कार्यक्रम में कार्पोरेट समूह अपनी विभिन्न संस्थाओं के माध्यम से पैसा लगाएंगे। कार्पोरेट सोशल रिस्पांसबिलिटी एक सच है। जब देश नई सोच और ऊर्जा से आगे बढ़ता है, तो उसे नई राहें भी तलाशना होती हैं। गांवों में निवेश की कार्पोरेट समूहों की अंतर्निहित इच्छा यह भी हो सकती है कि उनके द्वारा संचालित बाजार को गांवों तक पहुंचाना हो। एक खबर के अनुसार इसे टैक्स बचाने का जरिया भी बनाया जा रहा है। इन सारे शक सुबहा के बाद भी कार्पोरेट समूहों का सामजिक क्षेत्रों में उतरना नया यथार्थ है।

केंद्र सरकार की याचिका

रे ल कर्मचारी के इन्क्रीमेंट मामले में देश के सर्वोच्च न्यायालय में कैट और हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देने के लिए केंद्र सरकार ने एक अपील दायर की है। एक कर्मचारी के लिए केंद्रीय शासन का इस तरह अपील लेकर सर्वोच्च न्यायालय में पहुंच जाना हास्यास्पद है और केंद्र सरकार के जिम्मेदार अधिकारियों की विचारहीनता का परिचायक भी है। इस अपील में एक मात्र कर्मचारी की मामूली वेतनवृद्धि के मामले को उठाया गया है। केंद्र सरकार के अधिकारियों और मंत्रियों ने जिस प्रकार देश की संवैधानिक व्यवस्था में एक वेतन वृद्धि के लिए अपील करके इसे मजाक में बदलने की जो कोशिश की है वह फटकार देने लायक हरकत ही थी। देश के सर्वोच्च संस्थानों में काम कर रहे अधिकारी क्या यह नहीं जानते थे कि सर्वोच्च न्यायालय का समय गैर संवैधानिक और मामूली आर्थिक गतिविधियों के केस लड़ने में जाया करना गरिमा सम्मत नहीं है। यह बात कोर्ट ने तब कही जब पहले से ही दिल्ली हाईकोर्ट के समलैंगिक संबंधों पर दिए फैसले से व्यापक जनहित जुड़ा हुआ था। कोर्ट ने कहा इस मामले पर केंद्र ने अपील नहीं की, लेकिन अब छोटे-छोटे और तुच्छ मामलों पर अपील की जा रही है। सुनवाई कर रही बैंच ने कहा कि इस कोर्ट में महत्वपूर्ण और संवैधानिक प्रश्नों और मौलिक अधिकारों पर फैसले होते हैं। आप इन महत्वपूर्ण मुद्दों पर तो अपील फाइल नहीं करते। देश की अथॉरिटी कितनी बेशरम हो सकती है यह एक उदाहरण है। इसे देश की जनता के सामने यह मामला व्यापकता से उठाया जाना चाहिए। ये बातें हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली में चुनावी मुद्दा क्यों नहीं बनतीं? लोकतंत्र में इन बातों को जगह मिलना चाहिए, ताकि जनता के पैसे पर अपनी सेवा दे रहे लोगों को जिम्मेदारी का अहसास हो।