शनिवार, जून 19, 2010
नई सभ्यता में पृथ्वी के प्रति दयाभाव चाहिए
-ध्रुव शुक्ल
अखबार में एक लेखक के बयान देने भर से पर्यावरण का संकट दूर नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसे बयान पूरी बीसवीं सदी में संसार भर में छपते रहे हैं। यह संकट तब दूर होगा जब लेखक समाज नागरिक धर्म के जागरण के लिए - समाज के बीच में जाएगा। पेड़ लगाएगा और लगाने के लिए प्रेरित भी करेगा। जैसा कि 7-8 बरस पहले मैंने महाकवि तुलसी की रामकथा के माध्यम से जल सत्यागृह की आवाज उठाई थी। और मुझे दुख है कि वो एक नारा बन गई, लेकिन सच्चे अर्थों में अभी शुरू नहीं हुआ है।
ये बहुत जरूरी है हमारे समाज में कि हम अपने छोटे-छोटे रचनात्मक कर्मों के प्रस्ताव पूरी पृथ्वी के हित में अपनी-अपनी जगहों पर रहते हुए करें। जैसा कि महात्मा गांधी हमसे बार-बार कह गए हैं कि विचारों से कितने भी संदेश निकलते रहें जब तक वे जीवन से नहीं निकलेंगे तब तक विचारों का काई अर्थ नहीं होगा। तभी तो मनुष्य का कल्याण करने वाली कितनी सारी विचारधाराओं का बीसवीं सदी में अंत हो गया।
गांधी मार्ग या प्रकृति की रक्षा का मार्ग किसी सड़क का नाम रख देने से नहीं बनेगा। हमें इसके लिए अपने जीवन में ही कोई मार्ग निकालना पड़ेगा। और वह मार्ग है पूरी पृथ्वी के प्रति दया-भाव।
आखिर हम ये क्यों नहीं देख पा रहे हैं कि पृथ्वी तो हमें हमारे सारे अन्यायों के बावजूद करोंड़ों साल से क्षमा करती आ रही है, लेकिन हम पृथ्वी के जल, वायु और उसके हरित कणों के प्रति जरा भी चिंतित नहीं हैं।
मुझे लगता है कि मानव जाति के इतिहास में ये बात अंतिम रूप से कोई इतिहासकार लिखे कि पृथ्वी पर मनुष्य ने बहुत सारे गड्डे खोदे और खुद गिर कर दफन हो गया।
पृथ्वी पर ये बहुत सारे गड्डे खोदने की कला हमें उपभोक्तवादी संस्कृति सिखा रही है, जिसने लोभ और लालच के तरह-तरह के गड्डे खोदना हमें सिखा दिया है और जिनमें मनुष्य भी डूबा चला जा रहा है। क्या इन गड्डों को हम अपने ही लोभ और लालच के गड्डे कह सकते हैं?
अगर हां तो वह कहावत मनुष्य जाति के जीवन में चरितार्थ हो रही है कि जो अपने लिए खाई खोदता है सो अपनी ही खोदी खाई में गिरता है।
यहां एक और कहावत भी चरितार्थ होती रही है कि जो जैसा बोता है वैसा ही काटता है।
हमारे समाज का स्वर्णमृग विज्ञापन की दुनिया है। इस स्वर्णमृग का पीछा प्रत्येक नागरिक कर रहा है। जब इस मृग का पीछा करने से श्रीराम तक ने धोखा खाया तो आज कल के घासीरामों की कौन कहे। मुझे निजी तौर पर दु:ख होता है कि कि हमारे समाज की विश्वव्यापी राजनीति नीतियां अब राजनीति जैसी नहीं लगतीं। लगता है जैसे कोई हमारे साथ साजिश कर रहा है। हाल ही में 25 बरस की पीढ़ा की पोटली खुली है। जो मेरे ही शहर भोपाल से जुड़ी है। उस पूरे घटना चक्र का मैं एक चश्मदीद गवाह रहा हूं। गैस त्रासदी की उस रात मैं अपी पत्नी और दो बेटियों को लेकर हवा में घुल गए जहर का सामना कर रहा था। आज जब 25 साल
बाद सारी आर्थिक और राजनीतिक शक्तियां फिर एक दूसरे पर दोषारोपण कर रही हैं।
उनकी बात सुनकर अब यह मेरा विश्वास पूरी तरह दृढ़ हो गया है कि हमारे देश के साधारण जन पेड़ पौधे, वनस्पति इन सबको भारत के राजनीतिक, प्रशासनिक न्याय पर पुर्नविचार करना चाहिए। क्योंकि यह सारी व्यवस्था उस सारी प्रथा के विरूद्ध काम कर रही है जिसमें समूचे भारत की प्रकृति की लूट भी शामिल है।
(जैसा उन्होंने रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति को बताया।)
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें