आज सरकार जिन फैसलों पर अमल कर रही है, क्या उसमें जनता के हितों का ध्यान रखा गया है...
पेट्रोल, डीजल के साथ रसोई गैस के दाम बढ़ने से किसी तरह जीवन गुजारने वाले गरीब और दैनिक वेतन भोगी ही नहीं बल्कि सामान्य सी हैसियत वाले परिवारों वाला एक तबका स्तब्ध है। इस समय महंगाई अपने चरम पर है। ऐसे में तेल कंपनियों का घाटा खत्म करने की सरकारी चिंता अचंभे में डालती है। कुछ दिन से समाचार पत्रों के माध्यम से सरकार संभावित मूल्य वृद्धि की खबरें हवा में तैर रही थीं। जो कि शनिवार को सामने आ गर्इं और जनता को पता चल गया कि क्या-क्या कितना महंगा हुआ है।
भारत के लोकतांत्रिक ढांचे में विश्व व्यापार पर आधारित आर्थिक तंत्र का प्रवेश हो चुका है। सरकार भी इस व्यवस्था का जमकर समर्थन कर रही है। यह पूरी व्यवस्था निजीकरण और विश्व अर्थव्यवस्था पर केंद्रित रही है। विश्व व्यापार पर आधारित अर्थ व्यवस्था में सबसे अधिक हनन लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा का हो रहा है। निजीकरण को सरकार संरक्षण और प्रोत्साहन तो पिछले कुछ सालों से लगातार मिल रहा था। यह मंदी के आने पर और अधिक मुखर हो गया है। अरबों रुपए के राहत पैकेज जारी किए गए। इन सबका लाभ देश के व्यापक जन समूह तक पहुंचाने की सरकार की कोई इच्छा शक्ति दिखाई नहीं देती। इस जनसमूह में देश की लगभग 60 प्रतिशत जनता है जो मामूली से रोजगार, छोटे उद्योगों, कुटीर उद्योगोें, कृषि मजदूर और रोज काम करके पेट भरने वालों से बना है। ये जन समूह देश के गांवों और कस्बों में रहता है। मंदी में दिया गया सारा पैसा कंपनियों के अपने लाभ के खाते में गया, लेकिन जिन फैसलों से सामान्य जनता राहत मिले उन पर विचार करने के लिए सरकार और उसके मंत्रियों के पास समय ही नहीं है। आज सरकार जिन फैसलों पर अमल कर रही है, क्या उनकी रजामंदी इन लोकतांत्रिक सरकारों ने अपनी जनता से ली है। क्या उसे अपने फै सलों में शामिल किया है। लगता है देश कंपनियां ही चलाने लगी हैं। और जिन जनप्रतिनिधियों से मिलकर सरकार बनी है, उसमें सार्वजनिक जीवन की मजबूरियां समझने की क्षमता जैसे खो गई है। जबकि सरकार को सबसे ज्यादा चिंता आम जनता की ही होनी चाहिए।
ravindra swapnil prajapati
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