बुधवार, जून 23, 2010

  पर्यावरण पर कुछ काव्य भाव 
-रविन्द्र स्वप्निल प्रजापति

मैं एक पेड़ हूं मुझे डराओ मत
उगने दो मैं तुम्हें छांव और फल दूंगा

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हवाएं मेरी प्रेमिकाएं हैं
वे मुझमें सरसराती हैं
तुम भी सरसराओ मनुज
मेरी छांव में आओ

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मैं नदी हूँ  और वक्त की  हथेली पर बहती हूं
मुझे मिटाया तो जिंदगी की रेखा भी मिटेगी

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ओ बादल तुम धरती के प्यार हो
अपना प्यार बरसाओ मैं पुकारता हूं

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बादल बरसो तुम धरती के प्यार हो
मैं तुम्हें पुकारता हूं ...


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धरती को मुस्कुराना आता है
वो मुस्कुराती है
दुनिया में कोई फूल खिलता है
देखो एक फूल खिला है

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हम तुम्हारे सहचर हैं ओ धरती के मालिक
तुम ये मत सोचो कि जंगल सर्फ तुम्हारे हैं

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हरियाली धरती का आंचल है
आओ फूलों के सितारे टांकें
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हवाएं सांसों में ही नहीं बसतीं
तूफान भी उन्हीं से जन्म लेते हैं
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वक्त अपनी पहचान पेड़ों में रख गया है
लौट के आएगा अपनी पहचान पूछेगा

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ओ मनुष्य तुम्हारी हर निर्माण
हवा-पानी के बिना अधूरा है
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मत भूलो कि सभ्यताएं पानी ने नष्ट की हैं
हवाओं के बेटे तूफान ही मिट्टी में मिलाते हैं

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मैं हरियाली हूं ,सभ्यताओं की प्रेमिका
जब रूठती हूं तो रेगिस्तान आते हैं

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