गुरुवार, अप्रैल 01, 2010
एक नया सच कार्पोरेट सोसल रिस्पांसबिलिटी
कार्पोरेट सोशल रिस्पांसबिलिटी एक सच है। जब देश नई सोच और ऊर्जा से आगे बढ़ता है, तो उसे नई राहें भी तलाशना होती हैं।
सा माजिक सरोकारों के प्रति जिम्मेदारी की भावना से देश के बड़े औद्योगिक घराने प्रभावित हो गए? देश का बड़ा धनी वर्ग समाज सेवा जैसे काम में अपनी दिलचस्पी दिखा रहा है, तो हल्का सा आश्चर्य होना स्वभाविक है। देश के जाने-माने 48 समूहों ने पब्लिक प्रायवेट पार्टनरशिप के तहत मध्यप्रदेश में वाटरशेड मैनेजमेंट, कृषि भूमि की उर्वर क्षमता बढ़ाने, भूमि सुधार जैसे कामों में भागीदारी की इच्छा जताई है। इन घरानों ने गांवों में जीवन स्तर सुधारने में भी अपनी रुचि दिखाई है। अब सवाल एक ही उठता है कि आखिर व्यापार के लिए सुरक्षित पूंजी का घराने कृषि जैसे प्राथमिक क्षेत्रों में निवेश क्यों करना चाहते हैं। शक होना जायज है। बात सिर्फ यहींं तक सीमित नहीं है। कई बार वास्तव में वह वही नहीं होता जो दिखाई दे रहा है। इसलिए औद्योगिक घरानों के इस निवेश पर बेवजह शक न भी किया जाए तो यह तो मानना ही होगा कि इसे निवेश के भी कुछ कारण तो होंगे ही।
औद्योगिक घराने इससे पहले अपनी योजनाएं लेकर देश के केंद्रीय नेतृत्व से मिल चुके हैं। कुछ माह पहले प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में दिल्ली में संपन्न बैठक में कार्पोरेट सोशल रिस्पांसबिलिटी का फैसला हुआ था। इसमें तय हुआ था 1984 से संचालित राजीव गांधी वाटरशेड मैनेजमेंट कार्यक्रम में कार्पोरेट समूह अपनी विभिन्न संस्थाओं के माध्यम से पैसा लगाएंगे। कार्पोरेट सोशल रिस्पांसबिलिटी एक सच है। जब देश नई सोच और ऊर्जा से आगे बढ़ता है, तो उसे नई राहें भी तलाशना होती हैं। गांवों में निवेश की कार्पोरेट समूहों की अंतर्निहित इच्छा यह भी हो सकती है कि उनके द्वारा संचालित बाजार को गांवों तक पहुंचाना हो। एक खबर के अनुसार इसे टैक्स बचाने का जरिया भी बनाया जा रहा है। इन सारे शक सुबहा के बाद भी कार्पोरेट समूहों का सामजिक क्षेत्रों में उतरना नया यथार्थ है।
केंद्र सरकार की याचिका
रे ल कर्मचारी के इन्क्रीमेंट मामले में देश के सर्वोच्च न्यायालय में कैट और हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देने के लिए केंद्र सरकार ने एक अपील दायर की है। एक कर्मचारी के लिए केंद्रीय शासन का इस तरह अपील लेकर सर्वोच्च न्यायालय में पहुंच जाना हास्यास्पद है और केंद्र सरकार के जिम्मेदार अधिकारियों की विचारहीनता का परिचायक भी है। इस अपील में एक मात्र कर्मचारी की मामूली वेतनवृद्धि के मामले को उठाया गया है। केंद्र सरकार के अधिकारियों और मंत्रियों ने जिस प्रकार देश की संवैधानिक व्यवस्था में एक वेतन वृद्धि के लिए अपील करके इसे मजाक में बदलने की जो कोशिश की है वह फटकार देने लायक हरकत ही थी। देश के सर्वोच्च संस्थानों में काम कर रहे अधिकारी क्या यह नहीं जानते थे कि सर्वोच्च न्यायालय का समय गैर संवैधानिक और मामूली आर्थिक गतिविधियों के केस लड़ने में जाया करना गरिमा सम्मत नहीं है। यह बात कोर्ट ने तब कही जब पहले से ही दिल्ली हाईकोर्ट के समलैंगिक संबंधों पर दिए फैसले से व्यापक जनहित जुड़ा हुआ था। कोर्ट ने कहा इस मामले पर केंद्र ने अपील नहीं की, लेकिन अब छोटे-छोटे और तुच्छ मामलों पर अपील की जा रही है। सुनवाई कर रही बैंच ने कहा कि इस कोर्ट में महत्वपूर्ण और संवैधानिक प्रश्नों और मौलिक अधिकारों पर फैसले होते हैं। आप इन महत्वपूर्ण मुद्दों पर तो अपील फाइल नहीं करते। देश की अथॉरिटी कितनी बेशरम हो सकती है यह एक उदाहरण है। इसे देश की जनता के सामने यह मामला व्यापकता से उठाया जाना चाहिए। ये बातें हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली में चुनावी मुद्दा क्यों नहीं बनतीं? लोकतंत्र में इन बातों को जगह मिलना चाहिए, ताकि जनता के पैसे पर अपनी सेवा दे रहे लोगों को जिम्मेदारी का अहसास हो।
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