रविवार, जून 20, 2010

हम अहंकारी नजरिये से सोचते हैं

  पर्यावरण स्पेशल

जैसा उन्होंने रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति को बताया
प र्यावरण के प्रति मनुष्य का नजरिया थोड़ा अलग हो रहा है। उसमें अहंकार की बू आती है। वर्तमान में मनुष्य समाज की सोच है कि सब कुछ प्रकृति का तापमान, हवा, तूफान-उसकी सोच और सुविधा के अनुसार चलें। तो ऐसा किसी भी तरीके से संभव नहीं है। इंसान ने पहले तो खुद ही प्रकृति के परिवर्तन के नियम में खलल डाला। अब वह रो रहा है कि प्रकृति का संतुलन खराब हो रहा है। नदियां सूख गई हैं। ये हो गया है, वो हो गया है। इस बात पर कोई नहीं सोचता कि आखिर जो हो रहा है वह क्यों हो रहा है? उसके पीछे कारण क्या हैं? अगर हम प्रकृति के असंतुलित होने के कारणों पर जाएं तो हम ही सबसे अधिक दोषी पाए जाएंगे।
हाल ही में मैं एक विदेशी लेखक का आर्टिकल पढ़ रहा था। उसने कुछ बहुत ही मौलिक तरीके से प्रकृति और पर्यावरण को समझने का प्रयास किया है। उसने पूरे समाज की बनावट पर ही प्रश्न खड़ा किया। उसने अपने आलेख में स्थापित किया कि पर्यावरण और प्रकृति का जो स्वभाव है, वह स्थिरता का नहीं है। उसे आप टेक्निकली फिक्स डाटा में सहेज कर नहीं रख सकते। वह कहना चाहता है कि प्रकृति को गणित से नहीं समझा जा सकता। उसकी अपनी गति है, उसके अपने रंग हैं। प्रकृति अपनी हवाओं को दोहराती नहीं है। उनके  चलने का अलग ही अंदाज हैं। प्रकृति का स्वभाव ही परिवर्तन है लेकिन इंसान ने गड़बड़ की है। यह पिछले दो तीन सौ सालों से लगातार जारी है, जब से उसने डाटा एकत्रित करना प्रारंभ किया है। इसके बाद से ही वह तापमान ज्यादा हो गया, कम हो गया का रोना रोने लगा है। प्रकृति में होने वाले परिवर्तन ही हमारे लिए वरदान हैं। तापमान कम या ज्यादा होना प्रकृति का हिस्सा है। उसका इंसान ने जो चार्ट बना लिया है, उसका प्रकृति से कोई मतलब नहीं है। हमने विकास के नाम पर एक चार्ट बना लिया है। एक मौसम का नक्शा बना लिया है। नक्शों से प्रकृति नहीं चलेगी।
 मनुष्य ने प्रकृति के कामों में अनावश्यक हस्तक्षेप किया। वह चाहे नदी हो या पहाड़ सब जगह हस्तक्षेप किया है- बांधों के माध्यम से, जंगलों को उजाड़ कर, हवाओं में अनावश्यक गैसें छोड़ कर। प्रदूषण का मतलब है कि हमने वह काम किए हैं जो नेचर के व्यवहार से मैच नहीं करते। हमने यह सोचा ही नहीं कि हमारे कामों से प्रकृति की निरंतरता में कितना परिवर्तन आएगा। जब तापमान बढ़ रहा है, मौसम अनियंत्रित हो रहा है और हमें तकलीफ होने लगी है तो हमें समझ आने लगा।
महत्वपूर्ण है कि हम प्रकृति से अपने रिश्तों को समझें। हम प्रकृति से खुद को अलग नहीं मानें। हमें प्रकृति से बहु उद्देशीय होना सीखना ही होगा। आज जिस तरह का विकास का माडल है उसमें प्रकृति के दृष्टिकोण से कोई फैसला नहीं होता। अब अगर कोई बंजर जमीन पड़ी है तो वह हमारे टाउन एंड कंट्री प्लानिंग वालों के लिए या एक इंजीनियर या एक बिल्डर के लिए फालतू है। लेकिन व्यापक दृष्टिकोण से सोचें तो वह फालतू नहीं है। प्रकृति के लिए वह बंजर फालतू नहीं है। वह प्रकृति का हिस्सा है जिसे हम यूं ही खत्म करते चले जा रहे हैं। हमें शहरों और बड़ी बस्तियों के बीच इस तरह की जमीनों का, पेड़ पौधों का अस्तित्व बचाए रखना चाहिए। वह बंजर जमीन कई प्रकार के जीव जन्तुओं का आसरा होती है जिसे हम नहीं देखते हैं।
मेरे ख्याल से हमें प्रकृति की चीजों के बहुतेरे उपयोग करना चाहिए। नए आर्कीटेक्चरल दृष्टिकोण की आवश्यकता है। यह नहीं चलेगा कि एक मैदान है तो उस पर सिर्फ क्रिकेट या फुटबाल हो, हमें वे सब इस तरह से बनाना होंगे कि उनके कई तरह से इस्तेमाल हो सकें। कभी वहां रैली हो, कभी वहां रावण जले। इस प्रकार खाली जमीनों का इस्तेमाल होना चाहिए। भवनों और सड़कों को भी इस तरह से भविष्य में डिजाइन किया जाना आवश्यक होगा। शहरों में खाली पड़े मैदानों को, पेड़-पौधों को कई उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करना चाहिए।  प्रकृति का अपना एक तरीका है, जिसे हम अपना सकते हैं और पर्यावरण को बहुत कुछ नया दे सकते हैं।


देवीलाल पाटीदार

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Ravindra Swapnil Prajapati
sub editor
Peoples Samachar
6, Malviye Nagar, Bhopal MP

blog: http://ravindraswapnil.blogspot.com

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