शुक्रवार, अप्रैल 30, 2010

भारत-पाक: लड़ते रहने वाले दो भाई

भारत-पाक के रिश्ते दो भाइयों की तरह हैं, पर ऐसे भाई, जो एकदूसरे के खून के प्यासे हैं।


सा र्क सम्मेलन में भारत और पाकिस्तान के राष्ट्र प्रमुखों की हैसियत से मनमोहन सिंह और यूसुफ रजा गिलानी की एक बार फिर मुलाकात हुई। इस बैठक में दोनों विदेश सचिव स्तर की वार्ताएं पुन: प्रारंभ करने पर राजी हुए हैं। आखिर क्या कारण है कि बार-बार बेनतीजा रही बातचीतों के बावजूद भारत-पाक के प्रमुख एकदूसरे के सामने पड़ते ही बातचीत का सिलसिला शुरू करने पर बल देने लगते हैं। अगर भारत पाक बातचीत न भी करें तो क्या फर्क पड़ने वाला है? इतिहास में जाएं तो कभी ये एक ही देश थे और जब टूट कर अलग हुए तो खून के प्यासे दो भाइयों की तरह बन गए। दोनों देशों में भाई होने का भाव नहीं होता, तो बार-बार बातचीत पर राजी नहीं होते। भारतीय महाद्वीप के परंपरागत परिवारों में दो भाइयों की बंटवारे और कब्जे की जैसी लड़ाई होती है, वैसी ही भारत और पाकिस्तान के बीच तकरार चलती रहती है। कभी-कभी तो युद्ध भी हुए हैं। परंतु दो देशों के रूप में एकदूसरे की कोई तुलना नहीं है। यह तुलना दोनों देशों की मानसिकता और प्रवृति को लेकर की जा सकती है। दो देश होने के नाते, उनमें संप्रभुता का तत्व समाहित हो चुका है। इस संप्रभुता ने उनके बीच सेना और सुरक्षा के सवाल खड़े किए हैं। वास्तविकताएं जो भी हों लेकिन भावनात्मक रूप से दोनों देश एक दूसरे के पास आने की आवश्यकता महसूस करते हैं। इसके पीछे कुछ और भी कारण हैं, जिनमें युद्ध से नुकसान, व्यापार, विश्व राजनीति और एक देश होने की पूर्व स्मृति शामिल है। साथ ही अंतरराष्ट्रीय दबाव भी। मुशर्रफ के राष्ट्रपति बनने के बाद उनके दिल्ली आगमन के समय दोनों देशों के बीच एक भावनात्मक लहर भी चली थी, जिसे बाद में कुचला भी गया। दो देशों की विशाल कूटनीति और राजनीति के बीच इस तरह की भावनात्मक लहरों का यही हश्र होता रहा है। इस मुलाकात की बड़ी उपलब्धि तभी कही जा सकती है जब पाक प्रमुख अपनी सेना और कट्टरपंथियों को पूर्वाग्रह छोड़ने पर राजी कर लेते हैं और एक सभ्य उदारवाद को पाकिस्तान अपनाता है तथा पूर्व की तरह पीठ पीछे कोई धोखेबाजी पाक नहीं करता है।

खलनायिका बनती लड़कियां


भो पाल की सेंट्रल जेल में हत्या के मामले में बंद तीन कैदियों में से दो को बैतूल जिले में पेशी के दौरान उनके परिजन और दो लड़कियां पुलिस की आंखों में मिर्ची डाल कर ले उड़े। भागे तो तीनों ही थे, लेकिन एक को पुलिस ने बाद में पकड़ लिया। यह मामला सिर्फ एक सूचना नहीं है कि कैदियों के परिजनों ने चार पुलिस कर्मियों पर हमला करके आरोपियों को छुड़ा लिया और दो लड़कियां उनको मोटरसाइकिल पर लेकर भाग गर्इं, बल्कि यह पुलिस और कानून व्यवस्था के खत्म होते भय और अपराधियों के बढ़ते हौसलों का प्रमाण है। बैतूल जिले में हुई ये घटना कई बड़े सवाल भी हमारे सामने खड़े करती है। पहला सवाल तो यही कि आखिर क्या इन लोगों को न्याय और व्यवस्था पर यकीन नहीं था? क्या वे यह नहीं जानते थे कि आखिर वे पुलिस से कहां तक भाग पाएंगे? इसके अलावा उनके परिजनों में कोई ऐसा क्यों नहीं था जो उन्हें यह बता पाता कि यह दुस्साहस कैदियों की ही नहीं, उनके जीवन को भी बरबाद करने का काम कर सकता है। दूसरा बड़ा सवाल ये है कि अब महिलाएं भी दुस्साहस के साथ अपराध की दुनिया का हिस्सा बनने लगी हैं। इस घटना के बाद जनता के मन में यह सवाल भी उठा होगा कि आखिर कोई क्यों ऐसा कर सका? क्या उन्हें कोई राजनीतिक शह मिली थी या पुलिस और जेल के मध्य व्यवस्थाओं को देखते हुए लोगों में यह दुस्साहस पनपा? गड़बड़ कहीं न कहीं तो होगी ही, तभी तो इस घटना को अंजाम दिया जा सका। सवाल पुलिस को कार्यप्रणाली पर भी उठाए जा सकते हैं, लेकिन फौरी तौर पर यह घटना समाज में प्रशासनिक तंत्र के प्रति बढ रहे अविश्वास का और पुलिस के कम होते रौब का नतीजा भी लग रही है।

चोर के टिकिट

उनकी नई-नई शादी हुई थी। हनीमून के बाद एक शानदार मकान में मजे से रहे थे। कुछ दिनों बाद उनके शहर में नामी नाटक के कलाकारों का आगमन हुआ। एक दिन उनके घर में डाक से एक लिफाफा आया, जिसमें दो टिकिट थे, साथ ही एक पुर्जा भी था। पुर्जे लिखा था बताओ इस प्रोग्राम के टिकिट तुम्हें किसने भेजे? टिकिट और पुर्जा देखकर पति-पत्नी बड़े प्रसन्न हुए । वे नाटक देखने गए। आधी रात के बाद जब वे अपने घर पहुंचे तो उन्होंने देखा उनके घर का सारा सामान गायब था। सोफा सेट तक गायब हो गए थे। वे हक्का बक् का रह गए। उन्होंने टेबल पर एक पुर्जा पड़ा देखा और उसे पढ़ा, जिसमें लिखा था अब पता चल गया होगा कि टिकिट किसने भेजे थे।

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