गुरुवार, मई 31, 2012

डसता खनन माफिया

 

खनन कारोबार में आपराधिक तत्व इतना अधिक मनोबल पा चुके हैं कि वे सीधे कार्रवाई कर रहे अधिकारियों पर वाहन चढ़ा रहे हैं। यह प्रशासनिक राजनीतिक अदूरदर्शिता का परिणाम है।

मु रैना में चंबल नदी से अवैध तरीके से रेत भरकर धौलपुर की ओर ले जा रहे ट्रक को राजस्थान पुलिस के हवलदार और सिपाही ने रोकने का प्रयास किया तो ट्रक चालक ने दोनों को कुचल दिया। यह खबर सिर्फ दुर्घटना की सामान्य खबर नहीं है। यह हमारे प्रशासन, राजनीतिक नाकारापन और आपराधिक लोगों के हाथों में संसाधनों की लूट की वीभत्स और खूनी लंबी कहानी का परिणाम है। यह कहानी खानों, अवैध जल जंगल और जमीन  के दोहन से लिखी जा रही है। इस घटना से पहले और भी इस तरह के हमले हो चुके हैं। सामान्य से इंसान के रूप में ट्रक या ट्रैक्टर चलाता ड्रायवर इस तरह के हमलों को अंजाम नहीं दे सकता। जब तक कि इन मातहत कर्मचारियों को यह न कहा जाता होगा कि कुछ भी हो जाए गाड़ी पकड़ना नहीं चाहिए। यह ताकत राजनीतिक प्रशासनिक कमजोरी की सड़ांध में पैदा होती है। यहां लोभ, लालच, हिंसा और अपराध को कैक्टस की तरह पाला पोसा जाता है। हवलदार को कुचलने की घटना लाचार होती प्रशासनिक राजनीतिक सामाजिक हैसियत का दीवाला निकल जाने का उदाहरण है।
यह अकेली घटना होती कि खनन माफिया ने प्रशासन के जिम्मदार लोगों पर ट्रक चढ़ाने की तो शायद यह राज्य के संगठित गिरोहों द्वारा लूट पर ध्यान न जाता लेकिन इससे पहले लगातार इस तरह की घटनाएं सामने आती रही हैं।  7 मार्च को शिवपुरी के कोलारस में पत्थर माफिया ने एसडीओ के वाहन पर ट्रैक्टर चढ़ाने की कोशिश की। दतिया में इसी दिन कंजोली रेत खदान पर वर्चस्व के लिए दो पक्षों में फायरिंग हुई। 8 मार्च को मुरैना  जिले में कार्रवाई करने पहुंचे युवा आईपीएस अफसर नरेंद्र कुमार को ट्रैक्टर से कुचलकर मार डाला गया। 18 अप्रैल को देवास के कन्नौद में अवैध उत्खनन को रोकने गर्इं तहसीलदार मीना पाल पर खनन माफिया ने जेसीबी चढ़ाने की कोशिश की। तहसीलदार ने नाले में कूदकर अपनी जान बचाई।
अवैध खनन माफिया के बुलंद हौसलों की ये खबरें प्रशासनिक मशीनरी और समाज में व्याप्त अवैधानिक तरीकों पर यकीन करने की प्रवृत्ति है। जब लोग यह सोचने लगते हैं कि अवैध कारोबार ही उनका धंधा है तो यह खतरनाक संकेत है। खतरनाक इस मायने में कि उन्हें अपने आसपास फैली कानूनी और प्रशासनिक  व्यवस्थाओं पर विश्वास नहीं होता है। वे यह महसूस करते हैं कि प्रशासन कुछ नहीं करेगा, तभी अवैध करोबार की यह प्रवृत्ति बढ़ती है। प्रशासनिक व्यवस्था राजनीतिक संरक्षण के आगे असहाय हो जाती है। दूसरा पक्ष ये है कि अपराध की अपेक्षा में अवैध खनन से होने वाला आर्थिक लाभ इस माफिया को अधिक दिखता है।  कोई भी व्यक्ति या समूह तभी अवैध कारोबार की तरफ तभी जाता है जब वह उससे बचने के तरीके पहले इजाद कर लेता है। ये घटनाएं इस बात का संकेत हैं कि अवैध खनन के मामले में हमारा कानून लचर और लाचार है।  राजनीतिक नेतृत्व को सोचना होगा कि आखिर अधिकारी कब तक अपनी जान कुर्बान करते रहेंगे?

सोमवार, मई 28, 2012

केंद्र,भ्रष्टाचार और उसके पंद्रह मंत्री

 

टीम अन्ना के आरोपों से सरकार ही हैरान नहीं है, भविष्य के नेता भी चिंतित नजर आते हैं। इसका कारण है कि जनता अब जिम्मेदारों से कुछ सवाल करने लगी है।

टी  म अन्ना का भ्रष्टाचार पर हल्ला बोलो अभियान अपना दायरा नहीं बढ़ा रहा है। शनिवार को उसने प्रेस कांफ्रेंस में यह इरादा जाहिर कर दिया। टीम अन्ना ने सबूतों के साथ टीम अन्ना ने प्रधानमंत्री समेत 15 केंद्रीय मंत्रियों पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए जांच की मांग की है। इसी के साथ टीम अन्ना ने जांच नहीं होने पर 25 जुलाई से आंदोलन का ऐलान भी किया है। यह वैसी ही बात है कि भ्रष्टाचार की वेदी पर टीम अन्ना यूपीए सरकार से पंद्रह मंत्रियों की कुर्बानी मांग रही है। अब कौन सरकार अपने ही मंत्रीमंडल पर सामूहिक अभियोग चला सकती है? टीम अन्ना की मांगें जायज या नाजायज हैं इससे अधिक महत्वपूर्ण ये है कि उन्होंने एक सरकार के सामने धर्म संकट खड़ा कर दिया। यह ऐसा धर्म संकट है कि इसमें जन सामान्य भी उलझ गया है। कोई एक या दो मंत्री की बात नहीं, प्रधानमंत्री समेत यहां पूरे पंद्रह मंत्री हैं। टीम जो आरोप लगा रही है वे कमीशन, लाभ कमाने या लाभ पहुंचाने के हैं।  येआरोप अलग अलग समय और उनके कार्यकालों के हैं।
टीम के आरोपों पर तिलमिलाए विदेश मंत्री एसएम कृष्णा ने टीम अन्ना के सदस्य अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण के खिलाफ मानहानि का केस दायर करने की बात कही है। कृष्णा की अरविंद केजरीवाल को लिखी चिट्ठी में कहा कि उन पर लगाए गए आरोप गलत और बेबुनियाद हैं और जो भी तथ्य उनके बारे में बताए गए हैं वो गलत हैं। यह अलग बात है कि ये आरोप कितने सही और कितने गलत निकलेंगे लेकिन जब टीम अन्ना जांच के लिए सरकार को छह जजों के नाम भी सुझाव देती है और कहती है कि जांच का काम इन छह में से किन्हीं तीन जजों को सौंपा जा सकता है। सरकार उनके द्वारा बताए जजों से जांच करवाए।  ऐसे में तब लगता है कि आखिर टीम अन्ना आंदोलन कर रही है या वैचारिक आंदोलन के नाम पर माइक्रो तानाशाही को लागू कर रही है?
 इस समय अरविंद केजरीवाल ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक पत्र भेजा है, जिसमें 15 मंत्रियों के खिलाफ आरोपों की  जानकारियां हैं।  इस पत्र को  ‘चार्जशीट’ नाम दिया गया है।  वास्तव में देखा जाए तो  यह सूक्ष्म स्तर पर संबैधानिक व्यवस्थाओं का मजाक है। टीम अन्ना छह जजों को नामित क्यों कर रही है? देश और सरकार द्वारा नामित जजों पर यकीन नहीं? या केवल छह जज ही भारत में हैं जो इन मंत्रियों की जांच कर सकते हैं? यह अविश्वास का बीजारोपण है।  इससे देश में एक दूसरे तरह की अराजकता का माहौल पैदा हो सकता है। टीम अन्ना जनजागरण का काम कर रही है तो ऐसा भी लगने लगता है कि वह राजनीतिक वैचारिक असंतुलन का शिकार भी है।

रविवार, मई 13, 2012

सुशासन का सम्मान

  किसी भी संस्था और संस्थान के लिए पुरस्कार उसके कामों को रेखांकित करता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जब कोई पुरस्कार या सम्मान दिया जाता है तो इसका तात्पर्य है कि यह सम्मान प्रदेश में हो रहे नवाचारों को रेखांकित किया गया है। सरकार को जब पुरस्कार मिलता है तो वह एक नई ऊर्जा ग्रहण करती है। मध्यप्रदेश के लिए यह ऊर्जा संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रदान की गई है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा मध्यप्रदेश सरकार के लोकसेवा गारंटी अधिनियम को इंपू्रविंग द डिलीवरी आफ पब्लिक सर्विसेज श्रेणी में दूसरा पुरस्कार प्रदान किया है।
मध्यप्रदेश को यह पुरस्कार जून में आयोजित सम्मान समारोह में प्रदान किया जाएगा।  वर्ष 2012 इस संदर्भ में भी महत्वपूर्ण है कि ये संयुक्त राष्ट्र लोकसेवा दिवस और पुरस्कारों की दसवी वर्षगांठ है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 23 जून को संयुक्त राष्ट्र लोकसेवा दिवस घोषित किया है। इसका उद्देश्य स्थानीय राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लोकसेवा में मूल्यों और गुणात्मकता को प्रोत्साहित करना है। उल्लेखनीय है कि 73 देशों के 471 आवेदनों में से इस पुरस्कार के लिए मध्य प्रदेश को भी चुना गया। मध्यप्रदेश का चुना जाना इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि उसे चुन लिया गया है। यह इस बात का प्रतीक भी है कि सरकार पूरी दूरदर्शिता और लोक सेवा की भावना से काम कर रही है। सरकार में बैठे जनप्रतिनिधि और प्रशासनिक अधिकारी कहीं न कहीं अपनी जिम्मेदारियों को विस्तार पूर्वक देखते हैं। वे यह जानते हैं कि आने वाले वक्त के लिए वे क्या नया कर सकते हैं।
इस सम्मान के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान बधाई के हकदार हैं।  मध्य प्रदेश पहला राज्य है जिसने सिटीजन चार्टर को कानून बनाने का काम किया है। लोकसेवा गारंटी अधिनियम जनता के लिए अधिकतम सुविधा और प्रशासनिक सेवा की सुनिश्चित्ता को तय करता है। लोकसेवा गारंटी अधिनियम के तहत 52 विभागों को शामिल किया गया है। इस अधिनियम के तहत एक निर्धारित समय सीमा में सेवाएं उपलब्ध कराना होता है, तथा ऐसा नहीं किए जाने पर संबंधित कर्मचारी-अधिकारी से जुर्माना  लेकर संबंधित व्यक्ति को उपलब्ध कराया जाता है। यह पुरस्कार इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता कि  मध्यप्रदेश में लोक सेवा गारंटी अधिनियम के तहत एक करोड़ 11 लाख आवेदन प्राप्त हुए थे जिसमें से एक करोड़ दस लाख आवेदनों का निराकरण कर दिया गया है। उन्होंने बताया कि इनमें से 16 लाख आवेदन आनलाइन प्राप्त हुए थे।  समय सीमा में सेवाएं उपलब्ध नहीं कराए जाने पर 49 अधिकारियों के वेतन से जुर्माने की राशि काटकर 113 व्यक्तियों को उपलब्ध कराई जा चुकी है। यह कानून प्रदेश के सुशासन की संभावनाओं के विस्तार का प्रतीक है। 

शनिवार, अप्रैल 07, 2012

दुनिया की सबसे बड़ी किताब

पंकज घिल्डियाल
जब हम बच्चे थे, हमारे मिडल स्कूल के हेडमास्टर जी हमसे एक सवाल अक्सर पूछा करते थे- अच्छा बच्चो, बताओ दुनिया की सबसे बड़ी किताब कौन सी है। यह उनका प्रिय सवाल था और इसे वे हर क्लास के बच्चों से पूछते थे। हमें भी इस सवाल में बहुत मजा आता था। हमारी किताबें ज्यादा से ज्यादा सौ-सवा सौ पेज की होती थीं। हेडमास्टर जी जब अपने मोटे शीशे वाले चश्मे के पीछे आंखें बड़ी-बड़ी करके बताते थे कि वह एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका है, तो उसकी मोटाई और वजन के बारे में हम तरह-तरह के अनुमान लगाते थे। अब से दो दशक पहले तक इंटरनेट इस तरह घर-घर में उपलब्ध नहीं था। तब जानकारी का सबसे विश्वसनीय और स्रोत एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका को ही माना जाता था।

पुस्तक प्रेमियों के लिए यह सचमुच मायूस करने वाली खबर है कि कई वाल्यूम वाली गहरे भूरे रंग की यह किताब अब प्रकाशित नहीं होगी। इसे सिर्फ डिजिटल फॉर्मेट में ही देखा जा सकेगा। कई वाल्यूम में छपने वाली एनसाइक्लोपीडिया में ज्ञान-विज्ञान से संबंधित हर उस चीज की जानकारी सार रूप में प्रामाणिक तथ्यों के आधार पर देने का प्रयास किया जाता था, जिसमें मनुष्य की दिलचस्पी हो सकती थी। सबसे पहले इस पुस्तक का प्रकाशन सन् 1768 में स्कॉटलैंड से हुआ। इसकी इतनी प्रतिष्ठा थी कि 1950 व 60 दशक में यह सबसे महंगी किताबों की फेहरिस्त में शामिल थी। किताबों के कद्रदान इसे हर हाल में अपना बनाना चाहते थे। अभी जिस तरह लोग घर और कार की किश्तें चुकाते हैं, ठीक उसी तरह लोग इस किताब को भी लोग किश्त पर खरीदते थे।

1990 में एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका की रेकॉर्ड बिक्री हुई। उस वर्ष अकेले अमेरिका में ही इसकी 1 लाख 20 हजार कॉपियां बिकीं। इसी दौर में इंटरनेट भी धीरे-धीरे अपने पैर पसार रहा था। नतीजा यह हुआ कि इसकी बिक्री घटने लगी। आते-आते हालात यहां तक पहुंच गए कि 2010 में छपी एनसाइक्लोपीडिया की 12000 कॉपियों में से सिर्फ 8000 को ही खरीदार मिल सके। तभी से यह चर्चा शुरू हो गई थी कि इसे आगे छापना शायद संभव न हो। पेपर पर इसका पिछला संस्करण दो साल पहले प्रकाशित किया गया था। इसके कुल 32 खण्डों में 65 हजार से अधिक लेख शामिल हैं। फिलहाल इसकी चार हजार प्रतियां बिकने के लिए शेष हैं।

ब्रिटैनिका ने इस किताब का डिजिटल अवतार 1981 में शुरू किया। इसकी सीडी 1989 में जारी की गई। 1994 वह वर्ष था जब एनसाइक्लोपीडिया इंटरनेट पर उपलब्ध हुई। इसके ऑनलाइन एडिशन के अपने फायदे हैं। कुछ जानकारी तो इसमें मुफ्त मिल जाती है , जबकि सालाना शुल्क चुका कर आप बाकी जानकारियों तक भी पहुंच बना सकते हैं। हर दो साल पर प्रकाशित होने वाले 32 खंडों के प्रिंटेड संस्करण की कीमत करीब 1400 अमेरिकी डॉलर है , लेकिन इसके ऑनलाइन संस्करण के लिए अब प्रति वर्ष केवल 70 अमेरिकी डॉलर चुकाने होंगे। प्रति माह 1.99 से 4.99 अमेरिकी डॉलर तक ऑनलाइन सदस्यता शुल्क देकर भी इसमें मौजूद सूचनाओं का लाभ उठाया जा सकता है। दुनिया के नामी - गिरामी बुद्धिजीवी ब्रिटैनिका के लिए जानकारी प्रदान करते हैं। 100 स्थायी संपादकों के अलावा संबंधित ज्ञान शाखा के विशेषज्ञ यह तय करते हैं कि विभिन्न स्त्रोतों से मिली जानकारी को कैसे पेश किया जाए।

ऐसा नहीं है कि आज अचानक ब्रिटैनिका ने पहली बार खुद को बदला है। 1768 से 2012 के बीच 244 वर्षों में इसने बहुत से बदलाव देखे हैं। बच्चों के लिए 1934 में 12 खंडों में ब्रिटैनिका जूनियर का पहली बार प्रकाशन हुआ , जिसे 1947 में बढ़ाकर 15 खंडों का कर दिया गया। 1963 में इसी का नाम बदल कर ब्रिटैनिका जूनियर एनसाइक्लोपीडिया रख दिया गया। फिलहाल इसका मालिकाना हक स्विस अरबपति ऐक्टर जैकी साफरा के पास है। इसका मुख्यालय शिकागो में है। मजेदार बात यह है कि इतने साल बाद भी लोगों के बीच इसकी विश्वसनीयता में कोई कमी नहीं आई। 1991 से अमेरिका में प्रकाशित होने के बावजूद इसकी वर्तनी ब्रिटिश अंग्रेजी ही है।

वर्चुअल दुनिया में आए दिन तथ्यों की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े होते रहे हैं। क्या हम - आप इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी पर पूरी तरह से भरोसा कर पाते हैं ? शायद नहीं। अक्सर हमें ये फैक्ट भी ठीक उसी तरह बेगाने लगते हैं जैसे नेट पर बनाए गए अजनबी फ्रेंड। आमतौर पर ब्रिटैनिका की सत्यता पर सवाल नहीं उठते। लेकिन पिछले कुछ समय में हुए विवादों ने पुस्तक प्रेमियों को कुछ निराश जरूर किया है। संपादकीय चयन के कारण ब्रिटैनिका की अक्सर आलोचना होती रही है। कहा जाता है कि कुछ बातों को अधिक जगह देने के कारण ये जरूरी मुद्दों को कम तरजीह देते हैं। जैसे इसके 15 वें अंक में बाल साहित्य , मिलिटरी डेकोरेशन और एक प्रसिद्ध फ्रेंच कवि को शामिल करना भूल गए। इसके अलावा ग्रैविटी के न्यूटन सिद्धांत को लेकर भी कुछ विवाद खड़े हुए। ब्रिटैनिका की आलोचना अक्सर इस बात को लेकर भी होती रही है कि उसके कुछेक एडिशन समय के अनुसार अपडेट नहीं हैं। एक आयरिश न्यूजपेपर ' द इवनिंग हैरल्ड ' ने फरवरी 2010 में ब्रिटैनिका पर देश के इतिहास से जुड़े कुछ अशुद्ध तथ्य शामिल करने का आरोप लगाया था।

ऑनलाइन व्यवस्था के जरिये सूचनाएं मुफ्त या कम दरों पर उपलब्ध हो जाती हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि सूचना का यह माध्यम अधिक सुविधाजनक है। आज तो स्मार्ट फोन भी जानकारी परोस रहे हैं। सटीक जानकारियों के लिए प्रसिद्ध ब्रिटैनिका का ऑनलाइन संस्करण कितनी लोकप्रियता पाता है , यह तो वक्त ही बताएगा , मगर इंटरनेट के जानकर मानते हैं कि यह माध्यम ब्रैंड को कमजोर करता है। ब्रिटैनिका के रेकॉर्ड कहते हैं कि दुनिया भर के करीब 10 लाख लोग उसकी ऑनलाइन सर्विस का फायदा उठा रहे हैं। ब्रिटैनिका के सामने सबसे बड़ी चुनौती विकीपीडिया है। विकीपीडिया जहां अपने यूजर्स को जानकारी अपलोड और एडिट करने के कई विकल्प देता है , वहीं ब्रिटैनिका बरसों पुरानी साख के दम पर ऐसे ही कुछ विकल्प अप्रूवल सिस्टम के साथ दे सकता है। विकीपीडिया का बहुत सा काम तो उसके यूजर्स ही करते है , जबकि ब्रिटैनिका के साथ एक पूरी टीम काम करती है। 

हिंदुस्तान समाचार से साभार 

रविवार, अप्रैल 01, 2012

अमृता प्रीतम का एक प्रसंग

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अपने लेखन के शुरुआती दिनों से जुड़ा एक प्रसंग अमृता प्रीतम ने एक पत्रिका के स्तम्भ में बताया:-
“वो दिन आज भी मेरी आँखों के सामने आ जाता है… और मुझे दिखती है मेरे पिता के माथे पर चढ़ी हुई त्यौरी. मैं तो बस एक बच्ची ही थी जब मेरी पहली किताब 1936 में छपी थी. उस किताब को बेहद पसंद करते हुए मेरी हौसलाफजाई के लिए महाराजा कपूरथला ने मुझे दो सौ रूपये का मनीआर्डर किया था. इसके चंद दिनों बाद नाभा की महारानी ने भी मेरी किताब के लिए उपहारस्वरूप डाक से मुझे एक साड़ी भेजी.
कुछ दिनों बाद डाकिये ने एक बार फिर हमारे घर का रुख किया और दरवाज़ा खटखटाया. दस्तक सुनते ही मुझे लगा कि फिर से मेरे नाम का मनीआर्डर या पार्सल आया है. मैं जोर से कहते हुए दरवाजे की ओर भागी – “आज फिर एक और ईनाम आ गया!”
इतना सुनते ही पिताजी का चेहरा तमतमा गया और उनके माथे पर चढी वह त्यौरी मुझे आज भी याद है.
मैं वाकई एक बच्ची ही थी उन दिनों और यह नहीं जानती थी कि पिताजी मेरे अन्दर कुछ अलग तरह की शख्सियत देखना चाहते थे. उस दिन तो मुझे बस इतना लगा कि इस तरह के अल्फाज़ नहीं निकालने चाहिए. बहुत बाद में ही मैं यह समझ पाई कि लिखने के एवज़ में रुपया या ईनाम पाने की चाह दरअसल लेखक को छोटा बना देती है.”


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Ravindra Swapnil Prajapati

शुक्रवार, मार्च 30, 2012

  धीमे जहर पर प्रतिबंध ऐतिहासिक फैसला



तंबाखू से जुड़े उत्पादों की सहज उपलब्धि से समाज में प्रतिरोध कम हो जाता है। प्रतिबंध के बाद इस पर नियंत्रण आसान होगा।


मध्यप्रदेश सरकार ने 1 अप्रैल से गुटखा पाउच बंद करने का एतिहासिक फैसला लिया है। प्रदेश में होने वाले कुल मुंह के कैंसर में 91 प्रतिशत  कैंसर तंबाखू के सेवन से होते हैं। यह फैसला स्वागत योग्य है और सरकार के वास्तविक कर्तव्य का अनुपालन भी है। किसी भी लोककल्याणकारी राज्य के लिए अपने नागरिकों के स्वास्थ्य को प्राथमिकता देना ही चाहिए। मध्यप्रदेश ने यह कदम उठाकर बड़ी पहल की है।  अब डर इस बात का है कि गुटखा खाने वाले और बेचने वाले इस प्रतिबंध को प्रभावहीन बनाने में पूरा जोर लगाएंगे। वे नहीं चाहेंगे कि करोड़ों रूपए की आया देने वाला यह उद्योग बंद हो जाए। हो सकता है कि कुछ दिनों तक गुटखा पाउच चोरी छिपे या कालाबाजारी के तहत बिकें लेकिन इसके प्रभाव दूरगामी होंगे। फिलहाल हालत ये है कि 7 साल के कई बच्चों को गुटखे पाउच खाते देखा जा सकता है। जब कोई चीज बच्चों तक पहुंचती है तो उसके असर बेहद विनाशकारी ही होते हैं। आने वाले समय में गुटखा चबाने की प्रवृत्ति इसकी सहज उपलब्धता के कारण बेहद चिंता जनक तरीके से फैल रही थी। तंबाखू से जुड़े उत्पादों की सहज उपलब्धि से समाज में  प्रतिरोध कम हो जाता है। प्रतिबंध के बाद इस पर नियंत्रण आसान होगा। समाज में भी सजगता बढ़ेगी। मध्यप्रदेश सरकार इस कठोर निर्णय लेने के लिए बधाई की पात्र है।


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गरीबी की धुंध में धनुष

भारतीय तीरंदाजी में अपनी चमक बिखेरने वाली और देश के लिए कई मेडल जीत चुकीं झारखंड की 21 साल की निशा रानी को गरीबी से तंग आकर अपना धनुष बेचना पड़ा। जमशेदपुर जिले के पथमादा गांव की निशा की कहानी सैंकड़ों खिलाड़ियों की तरह है जो गरीबी की धुंध में खो गए। निशा 2006 में वह ओवरआॅल सिक्किम चैंपियन बनीं। झारखंड में हुई साउथ एशियन चैंपियनशिप में उन्होंने सिल्वर मेडल जीता। 2006 में बैंकाक में हुई ग्रां प्री चैंपियनशिप में ब्रांज मेडल जीतने वालीं निशा भारतीय टीम की मेम्बर रहीं। 2007 में ताइवान में हुई एशियन ग्रां प्री में उन्हें बेस्ट प्लेयर अवॉर्ड से नवाजा गया। भारतीय तीरंदाजी फेडरेशन और इंडियन ओलिंपिक एसोसिएशन उनके बारे में एक बार भी सोचता तो निशा इतना मजबूर नहीं होना पड़ता। एक धनुर्धर को अपना कीमती धनुष बेचना कितना तकलीफदेह हो सकता है इसकी कल्पना की जा सकती है। निशा रानी ने चार लाख रुपए का कमान मणिपुर की खिलाड़ी को 50 हजार रुपए में बेच दिया। ऐसा लगता है कि देश सिर्फ क्रिकेट को ही जानता है। इसमें सरकारों और खेल संगठनों की लापरवाही उजागर होती है। वे खेलों को लोकप्रियता से तौल कर देखते हैं। खेल एक संस्कृति है। जिम्मेदारों को हर खेल और उसके खिलाड़ी को बराबर महत्व देना चाहिए।

रविवार, मार्च 25, 2012

Paintig : Shashank, BHOPAL

 


  तकनीक ने कला को स्पीड दी है
 

 आपने दिल्ली लखनऊ, भोपाल को देखा जिया है। इन तीनों की सांस्कृतिक हवा कैसी क्या है? इस कला त्रिकोण के बारे में क्या कहना चाहेंगे?
इन तीनों में मूल बिंदु ये बनता है कि इन तीनों में संस्कृति का विकास हो रहा है। आठवें दसक वाली स्थितियां अब नहीं रहीं। पहले की तुलना में अब सांस्कृतिक गतिविधियों का विस्तार हुआ है। दिल्ली, भोपाल और लखनऊ-पटना को भी जोड़ लें तो हिंदी भाषी संस्कृति कभी आश्रित नहीं रही। जनपद आरा से हिंदी की अच्छी पत्रिका निकलती है तो विदिशा जैसे छोटे शहर से हिंदी के कई महत्वपूर्ण कवि आए हैं। पेंटिंग और गायक भी छोटी जगहों से आ रहे हैं। भोपाल, दिल्ली में साहित्य, रंगकर्म, संगीत ही नहीं है। ये कलाएं अब कस्बों में भी पनप रही हैं। आप देख सकते हैं अधिकांश कलाकार, साहित्यकार छोटे कस्बों से दिल्ली जा रहे हैं।
इन सभी संस्कृतिकर्मियों पर महानगरीय दबाव नहीं है। न उसका अवसाद है। यह शुभ लक्षण है। कहें कि इसमें मीडिया का योगदान भी है, तब यह और मौजूं हो जाता है। इसलिए आप देखेंगे कि आने वाले कुछ वर्षो में हिंदी भाषी क्षेत्र का चेहरा बदल जाएगा।

*कला और संस्कृति के रूप किस प्रकार बदल रहे हैं? नई तकनीक, शहरी व्यस्तता, जीवन में फुरसत की कमी जैसी स्थितियों के बीच कला कौन से आकार ग्रहण करेगी?
कला संस्कृति के रूप आधुनिक तकनीक के समर्थन के कारण बदल रहे हैं। तकनीक ने इसमें बहुत बदलाव किए हैं। नाटकों में, शास्त्रीय नृत्यों में, संगीत में तकनीक का बहुत इस्तेमाल होने लगा है। अधिकांश अब प्री रिकॉर्डिड किया जाता है। उपकरणों का महत्व बढ़ गया है। लेजर, फोम और फोग का प्रयोग तकनीक का हिस्सा हैं। ये हम अपने यहां देख सकते हैं। अच्छे बुरे में नहीं बल्कि नवाचार की तरह। कई नई चीजें आ रही हैं। कभी जो काम महीने भर में हो रहा था वह अब एक दिन में हो जाता है। सेट निर्माण के लिए अगर किसी कलाकृति के  लिए या मंदिर के लिए हम पेंटर को नहीं बुलाते। गूगल की ओर जाते हैं। वहां से मंदिर का चित्र निकालते हैं और उसी दिन फ्लेक्स निकलवाते हैं। इस तरह तकनीक ने पूरी प्रक्रिया बदल दी है।

*नई तकनीक को आप अपनी पेंटिंग में इस्तेमाल कर रहे हैं?
पेंटिंग में डिजीटल का प्रयोग बढ़ रहा है। मैंने भी कई पेंटिंग डिजिटल स्केनिंग के माध्यम से तैयार की हैं। इस पर लोगों ने आपत्ति भी दर्ज की है। मेरा कहना है कि जो एचिंग की जाती थी वह भी तो यही है। एचिंग भी डिजिटल है। तकनीक ने कला को स्पीड दी है। तीव्रता दी है। चीजें बदलेंगी। थर्ड डायमेंशन दिया है। अब आगे हाई डेफिनेशन में आपको और अच्छा करना होगा। वहां घटिया चीजो ंको आप इस्तेमाल नहीं कर सकते। हाई डेफिनेशन ने गुणवत्ता की परिभाषा भी बदल दी है।
वर्तमान में प्रिंटिंग में तकनीक को पूरा इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं। फांट साइज को हम जिस तरह से बदल सकते हैं, उसका इस्तेमाल कहां है? पढ़ने की सुविधा के हिसाब से चीजों को प्रस्तुत होना चाहिए। इसी तरह हाई स्पीड बाईक आई है। वह आपका परफॉर्म भी मांगेगी। अगर आप परफॉर्म नहीं कर सके तो आप गिर जाएंगे। सभी तरफ चीजों के रूपाकार बदल रहे हैं। हमें उनके साथ योजना बना कर चलना होगा।

* पाठक और प्रकाशन के संदर्भ में बात करें तो वर्तमान में हिंदी साहित्य की स्थिति क्या है?
हिंदी में प्रकाशन बढ़ा है। 10 सालों में साहित्य की पत्रिकाओं का आकलन करें तो 40 गुणा  बढ़ोतरी हुई है। लेकिन पाठक बनाने का जो अभ्यास हमारे यहां है, वह नहीं है। हम पाठक नहीं बना पा रहे हैं। इसमें एक और स्थिति आ रही है। अब पुस्तकों की पाठ की समयावधि कम हो रही है। कविता 3 माह, उपन्यास 6 माह की हो रही है। जब प्रोडक्शन ज्यादा होगा तो आदर्श नहीं बचेगा। इसलिए पिछले दस सालों में मध्यप्रदेश में चार कवि बड़े नहीं हैं। भीड़ अधिक है। यह सब मास प्रोडक्शन के कारण हुआ है।

*साहित्य संगठनों की भूमिका अब क्या है? वे बिखराव और ठहराव का शिकार हो रहे हैं। सक्रियता कम हुई है?
अब यह तो महसूस हो रहा है कि सबको एक हो जाना चाहिए। लेकिन वे एक होने से झिझक रहे हैं। इस झिझक को तोड़ना होगा। व्यवहारिक दृष्टिकोण से युवा लेखकों कलाकारों को मानवीयता के नए पाठ को इन सबमें जोड़ना होगा।

Arti Paliwal, BHOPAL



हम ग्लोबल डेस्टनी के कलाकार हैं


 मैं कामों में ग्लोबल डेस्टनी को संभालती हूं। मैं अपने काम में दुनिया के नेचर के बारे में बताती हूं। इसी से इसमें मानवीयता जुड़ जाती है। जैसे मैं जब अपने घर से, जहां बहुत सी हरियाली है भारत भवन तक आती हूं तो दो चीजें दिखती हैं। क्रांक्रीट के जंगल और भीड़ से भरी हुई सड़कें। यह सारे दृश्य मेरे मन में जुड़ गए। ये दो धु्रव हो गए हैं। मेरे घर पर हरियाली और भारत भवन की हरियाली। प्राकृतिक वातावरण। कई दिन जब यूं ही निकल गए तो मैंने महसूस किया कि शहर का यातायात है सडकें हैं। वे उतनी सुहानी प्राकृतिक नहीं हैं। बस यहीं से सीरीज मन में आई। मैंने इसके कई शिल्पों को आकार दिया।
इस शहरी भीड़भाड़ से महसूस किया कि हमारे समाज का मानवीय जीवन कांक्रीट के जंगल में कितना बिजी हो गया है। उसका कितना बोझा लिए रहता है। सब कांसियस माइंड में यह तो है कि डेली जीवन में मॉडर्न लाइव बोझ लिए है। मैं मानती हूं कि अगर नेचर है तो ही मनुष्य सर्वाइव करेगा। जैसे सफर के लिए हेलमेट कितना जरूरी है वैसे ही ध्यान में रखना जरूरी है कि प्रकृति है तभी हम बचेंगे। इसे मैं ग्लोबल डेस्टनी कहती हूं।
हम प्रभावित होते हैं
इंसान हमेशा दो तरह से प्रभावित होता है। एक या तो वह एकदम गलत चीजों से प्रभावित होता है या बहुत अच्छी चीजों से। मैं इस बात से प्रभावित हुई कि मुझे काम करना है। मैं चाहती हूं कि निरंतर काम में इंपू्रवमेंट आना चाहिए। इसके लिए मैं सीनियर आर्टिस्ट से डिसकस करती हंू। पेंडिंग डाइंग बहुत सारी विधाएं सोच विचार में आती हैं लेकिन वे एक साथ प्रभावित नहीं करतीं।
मैं सभी तरह के भावों को स्वीकार करती हूं देखती हूं ओर फिर अपना शिल्प लेकर आती हूं। यूं कहें कि मैं एकला चलो का भाव लेकर काम करती हूं। मैं किसी शिल्प के ऊपर कितना काम कर सकती हूं तो वह मैं करती हूं। मैंने एक फिल्म देखी थी उसमें एप्पल और आई दिखा तो वह मैं उसे शिल्प में लेकर आई। इस तरह से चीजें आती हैं।
सबके लिए काम
मैं जो काम कर रही हूं वह पूरी दुनिया के लिए होता है। मैं उसे सबके लिए करती हूं। यह नहीं सोचती कि यह सिर्फ मेरे लिए है। जब मैं शिल्प बनाती हूं तो सोचती हूं यह पूरी दुनिया के लिए है। सब तरफ से सीख सबके लिए काम करना एक गतिशीलता देता है।
मैंने एक बार भारत भवन में सोलो नाटक देखा था, उस के भावों को शिल्प में दिखाने की कोशिश की थी। मुझे दूसरी चीजों को देखकर भाव आते हैं।
पढ़ना-लिखना
यह कम ही होता है। हां जब मन करता है तो पढ़ती हूं। काफी सारी किताबें हैं। पॉजिटिव थिंकिंग खास तौर से पढ़ती हूं।
मन की परिभाषा
मन की परिभाषा मेरे लिए अभी देना कठिन है। मैं मन से ही काम करती हूं। जब काम कर रही होती हूं तो अपने विचारों के साथ काम कर रही होती हूं। मैं अलग अलग नहीं कर पाती ये सब। सोचना विचारना और करना सब एक साथ ही होता है।
खोजती हूं
हर कलाकृति में मैं अपने आप को खोजती हूं। उसमें खुद को देखने की कोशिश करती हूं। कलाकृतियों में मेरा मन और मेरा समाज सब होता है।
निजी जीवन और कला
कलाकार के रूप में निजी जीवन बहुत सा प्रभावित करता है लेकिन मेरी कोशिश रहती है कि मैं अपना काम करती रहूं। कोइ आए कोई जाए मेरा काम जारी रहे। आसपास वाले कभी बोलते हैं ये करो तो अभी ये मत करो। मुझे लगता है कि हां मैं मान जाऊं । मैं एक बार काम करना प्रारंभ करती हूं तो फिर भूलती नहीं हूं। मुझे कुछ सोचना है काम करना है। मैं कैसे कर सकती हूं। दस दिन काम नहीं किया तो लगता है जैसे काम नहीं हो पा रहा है। जब मैं काम नहीं कर रही होती हूं तो सबसे अधिक बुरा लगता है और सोसायटी की बातें सोचने समझने में आती हैं।


सहयोग के भाव
प्रेम मेरे लिए कोई अलग से नहीं है। बस जिसके साथ हों उससे ट्युनिंग अच्छी हो। उससे बातचीत करना डिस्कस करना अच्छा लगे। अब इसमें घर के मेंबर भी होते हैं।  सहयोग प्रेम और साहचर्य के  भाव हमारी लाइफ का हिस्सा हंै। जो अच्छा लगता है वह काम के बीच में बाधा नहीं बनता है।

सोमवार, नवंबर 28, 2011

बाल बंधुआ मजदूर ये देश के बच्चे हैं!



इस समय देश में  6 से14 आयुवर्ग के 1 करोड़ 20 लाख से अधिक बाल मजदूर हैं। यह आंकड़ा दुनिया में सबसे अधिक है।

वि दिशा रेलवे स्टेशन पर 14 बच्चों को एक बाल मजदूरी कराने वाले गिरोह से मुक्त कराया गया। ये बच्चे बिहार के मोतिहारी जिले के हैं। मुक्त कराए गए बच्चे अपने ही गांव के दो युवकों के साथ तमिलनाडु किसी कंपनी में अंडे बीनने के काम से ले जाए जा रहे थे। बच्चों को बंधुआ बनने से रोक लिया गया है। इस मामले में सजगता दिखाने वाली संस्था के सदस्य और रेलवे पुलिस बधाई की पात्र है। सवाल ये है कि क्या ये बच्चे पहली बार बालश्रम के लिए ले जाए जा रहे थे या इससे पहले भी ले जाए जा चुके हैं।  यह आवृत्ति कितनी बार होती है, इसका कोई लेखा जोखा हमारे पास नहीं है। देश के ऐसे कितने ही बच्चे दिल्ली, गाजियाबाद, हरियाणा और दूसरे हिस्सों में बंधक बनाए जा कर काम कर रहे हैं। इस समय देश में 6 से14 आयुवर्ग के 1 करोड़ 20 लाख से अधिक बाल मजदूर हैं। यह आंकड़ा दुनिया में सबसे अधिक है। हजारों बार दोहराया जा चुका है कि बच्चे किसी भी देश का भविष्य होते हैं। हम अपने ही देश में अपने ही बच्चों से कितना भयानक खिलवाड़ करते हैं। समाज, नेता, सामाजिक कार्यकर्ता सब उन गिरोहों के आगे असफल होते चले जाते हैं। ट्रेन में बच्चों को पकड़ा है तो जाहिर है कि इससे पहले भी बच्चों को उसमें बिठा कर ले जाया गया होगा। यह मामला कानून से अधिक सामाजिक वातावरण के निर्माण से भी जुड़ा है। क्या हम ऐसा माहौल पैदा नहीं कर सकते कि समाज में बच्चों से मजदूरी करवाना और करने देना दोनों संभव न हो सकें?

तालमेल से विकास का नया अध्याय

स्थानीय तालमेल से विकास योजनाओं को अंजाम दिया जाए तो जल संरक्षण की हजारों संरचनाएं बनाई जा सकती हैं।


य  ह  ज्ञान, समझ और अनुभव का विकेंद्रीकरण है। विदिशा जिले के छोटे से गांव कुल्हार के पूर्व सरपंच की समझ बूझ ने गांव की दशा दिशा ही बदल दी। उन्होंने देखा कि तीसरा रेलवे ट्रैक बन रहा है। इसके लिए मिट्टी यहां-वहां से खोदी जा रही है। उन्होंने संबंधित कंपनी के अधिकारियों से बात कर प्रस्ताव रखा कि वे गांव वालों द्वारा प्रस्तावित जगहों से मिट्टी खोदेंगे तो गांव के लिए ऐसी संरचनाएं बन जाएंगी जहां बरसात का पानी संजोया जा सकता है। कंपनी ने कहा कि पंचायत और प्रशासन यदि बाधा न पहुंचाएगा तो हमें कोई दिक्कत नहीं है। तत्कालीन विदिशा कलेक्टर ने इस सबंध में सहयोग किया और इस तरह टैक की मिट्टी से करीब 2 लाख वर्ग फीट के चार तालाबों का निर्माण संभव हो सका। कुल्हार गांव पिछले कई सालों से पानी की समस्या से जूझ रहा था। पहली बरसात के बाद ही उसकी रंगत बदल गई।  यह सच्ची स्थानीयता है। कंपनी के अनुसार इतने बड़े तालाबों के निर्माण पर 2 करोड़ रुपया खर्च आता। यह आपसी तालमेल से विकास के दोहरे लाभों को प्राप्त करने की स्थानीय समझ है। देश में हजारों किलोमीटर राजमार्गों का निर्माण हो रहा है। दूसरी योजनाएं भी चलती हैं। अगर इनको ऐसे तालमेल से पूरा किया जाए तो गांवों शहरों में पानी संजोने के लिए हजारों तालाब उपलब्ध होंगे। बड़ी योजनाओं में संभावनाआें को तलाश कर स्थानीय लोगों को शामिल किया जाना चाहिए। राष्ट्रीय स्तर पर इस दिशा में काम करके हम विकास के नए आयामों का निर्माण कर सकते हैं।


 पैसा सब कुछ नहीं हो सकता


कौ न बनेगा करोड़पति में 5 करोड़ रुपए जीतकर मीडिया और जनता का ध्यान आकर्षित कर कंप्यूटर आपरेटर सुशील कुमार ने एक नई मिसाल कायम की है। बिग बॉस रियलिटी शो से उन्हें कई करोड़ का आॅफर था परंतु उन्होंने इंकार कर दिया। हालांकि बिगबॉस और सुशील कुमार दोनों टीवी की व्युत्पत्ति हैं। एक को सुशील कुमार ने स्वीकार किया और दूसरे को इंकार। यहां सुशील कुमार के विवेक को समझा जा सकता है। उन्होंने  बता दिया है कि आम भारतीय ग्लैमर, फैशन और पार्टियों के माध्यम से जिस पतनशील समाज को दिखाया जा रहा है, वह उसका पिछलग्गू नहीं हो सकता। टीवी जैसे माध्यम की संभावनाएं अनंत हैं। एक समय भारत एक खोज, तमस, महाभारत जैसे धारावाहिकों ने भारतीय समाज को अपनी जड़ों से जोड़ा था। आज भी लोग उस दौर को याद करते हैं। जबकि  बिगबॉस में पतनशील, मूढ़मगज और तांकझांक करने वाली मानसिकता का प्रदर्शन किया जाता है। सुशील कुमार को यदि लोग आदर्श भारतीय कह रहे हैं तो यह वाकई उनकी अच्छी पहचान है। इसे हर भारतीय को बनाए रखना भी जरूरी है।

शुक्रवार, नवंबर 25, 2011

खुदरा किराने की दुकान भी होगी इंटरनेशनल?



 विदेशी निवेश बढ़ने से निश्चय ही भारतीय खुदरा बाजार का रंग-रोगन बदलेगा। हम उपभोग के नए युग में प्रवेश करेंगे।

वि देशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआई) को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में हुई मंत्रीमंडल की बैठक में मंजूरी दे दी है। अब इस मामले को लेकर चल रही हायतौबा कुछ दिन और चलेगी। सरकार ने जो फैसला लेना था वह ले लिया है। आलोचकों के पास अब हायतौबा ही हाथ में रहेगी। मीडिया में जिस तरह की सरलीकृत खबरें आ रही हैं, उनका भी अध्ययन जरूरी है। कहा जा रहा है कि एफडीआई से भारत का 29.5 लाख करोड़ के खुदरा कारोबार बरबाद हो जाएगा। बताया जा रहा है कि इससे 22 करोड़ लोग बेरोजगार हो जाएंगे। लेकिन इस पूरे मामले में तहकीकात करें तो कई चीजÞें ऐसी भी हैं जिससे रोजगार के अवसरों बढ़ोतरी होगी। किसी भी पक्ष के नकारात्मक पहलू देखने से अच्छा है कि उसके दूरगामी परिणामों को भी ध्यान रखा जाना चाहिए। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के मामले में केंद्र सरकार ने बहुत सावधानी बरती है। जैसे कि कंपनी को कम से कम 10 करोड़ डॉलर यानी लगभग 500 करोड़ रुपए का निवेश अनिवार्य होगा। इस में 25 प्रतिशत निवेश संबंधित कंपनी को शीतगृहों, प्रसंस्करण और पैकेजिंग उद्योग पर खर्च करना होगा।  इसके अलावा 30 प्रतिशत प्रसंस्कृत उत्पाद कंपनियों को लघु इकाइयों से खरीदना होंगे। इन स्टोरों में अनाज दालें, मछली पोल्ट्री आदि उत्पादों को बिना ब्रांड के बेचा जा सकेगा। निवेश बढ़ने से निश्चय ही भारतीय खुदरा बाजार का रंग-रोगन बदलेगा। हम उपभोग के नए युग में प्रवेश करेंगे। अभी नकारात्मक या सकारात्मक किसी पक्ष की वकालत संभव नहीं।
पक्षद्रोही मंत्री
किसी विभाग का मंत्री होना एक प्रादेशिक और जनसामान्य के प्रति बड़ी जिम्मेदारी है


म  ध्यप्रदेश सरकार में पीएचई मंत्री गौरीशंकर बिसेन अपने विभाग के कामों से कम तुगलकी क्रिया कलापों से अधिक जाने जा रहे हैं। कभी वे जाति सूचकटिप्पणी कर विवाद में आते हैं तो कभी पटवारी को सार्वजनिक स्थान पर उठक-बैठक लगवाते हैं। वे जिस इंजीनियर को निलंबित करते हैं वही उनको पांच लाख रिश्वत देने बंगले पर पहुंच जाता है। गुरुवार को उनके ही द्वारा निलंबित इंजीनियर को वे अदालत में पहचानने से इंकार कर देते हैं। निलंबन की यह घटना 2009 की है। इसकी थाने में रिर्पोट दर्ज कराई जाती है। मामला अदालत में गया और जब गुरुवार को आरोपी को पहचानने की बात आई तो मंत्री मुकरे ही नहीं ऐसी घटना के होने से ही इंकार कर दिया। घटना से मुकरने पर अदालत द्वारा गवाहों को पक्षद्रोही घोषित कर दिया। मंत्री पद पर बैठे जनप्रतिनिधि के लिए ऐसे घटनाक्रम जनता में उनके प्रति हिकारत की स्थितियों को जन्म देते हैं। ये विवाद जनता में मंत्री की छवि को बहुत हलकी बना देते हैं और कई लतीफों को जन्म देते हैं। किसी विभाग का मंत्री होना एक प्रादेशिक और जनसामान्य के प्रति बड़ी जिम्मेदारी है और इस तरह की घटनाएं एक मंत्रीपद के स्तर को शर्मनाक बना देती हैं।

सोमवार, नवंबर 21, 2011

शिक्षा का पश्चिम मॉडल


भारत मे शिक्षा रटा हुआ पाठ और स्मृति आधारित कुशलता बनाई जा रही है, जिसमें रचनात्मकता गायब है।

भा रत की शिक्षा व्यवस्था और नीतियां आजादी से पहले और आजादी के बाद विवादास्पद रही हैं। प्रधानमंत्री के सूचना तकनीकी सलाहकार एवं ज्ञान आयोग के पूर्व अध्यक्ष सत्यनारायण गंगाराम (सैम) पित्रोदा ने राष्ट्रीय शिक्षा सम्मेलन में कहा है कि देश में उच्च शिक्षा का विकास पश्चिमी मॉडल से नहीं हो सकता। श्री पित्रोदा का यह कथन इशारा करता है कि आज भी हम एक अच्छी और अपने देश के लिए उपयुक्त शिक्षा व्यवस्था के निर्माण में सक्षम नहीं हुए हैं। सैम अगर सही हैं तो उनके अनुसार देश में केवल 10-15 विश्वविद्यालय ही स्तरीय हैं। वे कहते हैं कि भारत में अध्यापक शोध नहीं करते और जो शोध करते हैं वे पढ़ाते नहीं हैं। देश में फोटोकॉपी करके शोध पत्र तैयार कराए जाने के मामले सामने आने का मतलब है कि शोध की बहुत कमी है। केवल शोध करना या केवल पढ़ाना दोनों ही स्थितियां अति पर जाती हैं। इससे शोध आधारित रचनात्मक शिक्षा को बढ़ावा नहीं मिल पा रहा। भारत मेेंं शिक्षा रटा हुआ पाठ और स्मृति आधारित कुशलता बनाई जा रही है, जिसमें से रचनात्मकता गायब है। इस शिक्षा की शुरुआत स्कूलों से ही हो जाती है। भारत को शिक्षा में अत्याधुनिक नवाचारों और उसमें निहित रचनात्मक संभावनाओं पर बहुत काम करने की आवश्यकता है। शिक्षा में इंटरनेट सोशल साइट्स जैसे माध्यमों की भूमिका को जगह मिलना चाहिए।                                                                                                                                                                                                                                          






मंदी ने बनाया पशुओं को आवारा
यूरोपीय देशों में पालतू जानवार का खर्च एक इंसान की तरह महंगा होता है। उनका इलाज और भोजन दोनों खर्चीले हैं।
मं  दी किस कदर लोगों को हैरान परेशान कर रही है यह भारतीय नहीं समझ सकते लेकिन ब्रिटेन में मंदी के कारण लोग पालतू पशुओं का खर्च वहन नहीं कर पा रहे हैं। वहां पालतू पशुओं को डॉग्स एंड कैट्स होम में सौंपने की दर पिछले साल की तुलना में इस साल 50 प्रतिशत अधिक है। भारत की तरह पश्चिम में पालतू पशुओं को किसी भी स्थिति में नहीं रखा जा सकता। उनके खाने, ठहरने और इलाज पर काफी खर्च होता है। भारत में कुत्ते बिल्ली पालना उतना महंगा नहीं हुआ है जबकि यूरोपीय देशों में पालतू जानवार का खर्च एक इंसान की तरह होता है। यहां न पंजीयन की आवश्यकता है और न बीमा की। चाहो तो करा लो, वरना आपकी मर्जी। यह सांस्कृतिक भिन्नता का फर्क भी हो सकता है। यहां गाय को पाला और पूजा जाता है। उसे आवारा छोड़ देना या पालना दोनों में कोई फर्क नहीं। पश्चिम की जीवन शैली में बेहद अकेलापन है जिसे पालतू पशुओं द्वारा पूरा करने की कोशिश की जाती है। वहां की जीवनशैली में पालतू जानवर पालना सामाजिक आवश्यकता की तरह देखा जाता है। आज मंदी उनका यह सुकून भी छीन रही है।

शुक्रवार, अक्टूबर 21, 2011

अमेरिकी हस्तेक्षप छोटे देशों को हिंसा की ओर धकेल देते हैं

 


अमेरिकी हस्तेक्षप छोटे देशों को हिंसा की ओर धकेल देता  है। देश का आधारभूत ढांचा बरबाद हो जाता है।

लीबिया कर्नल मुअम्मर अल गद्दाफी की 42 साल लंबी तानाशाही से मुक्त हो गया। नागरिकों में खुशी है कि अब वे लोकतांत्रिक, स्वतंत्र और जिम्मेदार जीवन जी सकेंगे। खुशी और आशाओं के बीच यही वह समय है जब लीबिया को अधिक संभल कर चलना है। इस लड़ाई के बाद लीबिया जगह-जगह जख्मी हालत में है। नाटो सेनाओं की बमबारी में नागरिक सुविधाएं, बाजार, अस्पताल, स्कूल, व्यापार अस्त-व्यस्त हो चुके हैं। महिलाओं, बच्चों और घायल लोगों को इलाज की सख्त जरूरत है। यह मुक्ति अभी पूरी नहीं कही जा सकती। इस आजादी में अमेरिका अपना हिस्सा अवश्य मांगेगा। अमेरिका द्वारा आजादी के ऐसे संघर्षों में उसका हस्तक्षेप विश्वव्यापी हो चुका है। अमेरिका ऐसे हिंसक आंदोलनों का जनक है। क्यूबा, वियतनाम, कोरिया, अफगानिस्तान, इराक और अब लीबिया का उदाहरण हमारे सामने है। अमेरिका के ऐसे हस्तक्षेप एक देश के स्वाभाविक संघर्ष और विकास को रोकते हैं। अमेरिकी हस्तेक्षप छोटे देशों को हिंसा की ओर धकेल देते हैं। देश का आधारभूत ढांचा बरबाद हो जाता है। इस प्रक्रिया में अमेरिका अपने आर्थिक हितों को संबंधित देशों के प्राकृतिक संसाधनों से पूरा करने लगता है। लीबिया के तेल भंडारों पर उसकी निगाह रही है। अब लीबियाई नेताओं की राजनीतिक  परीक्षा का समय है कि वे स्वतंत्र देश की तरह सत्ता-संचालन करते हैं या अमेरिकी दबाव की छाया बन कर रह जाते हैं।



 पेड न्यूज

पेड न्यूज लोकतंत्र की अवधारणा को आहत करती है। चुनावों में इस तरह छवि निर्माण करवाना लोकतांत्रिक प्रक्रिया नहीं है।


पे ड न्यूज पर चुनाव आयोग ने पहली कार्रवाई करते हुए उत्तरप्रदेश की महिला विधायक उमलेश यादव को तीन साल के लिए अयोग्य घोषित कर दिया है। मामला यूपी के बिसौली विधानसभा क्षेत्र का है। तत्कालीन उम्मीदवार योगेंद्र कुमार का आरोप था कि 17 अप्रैल 2007 के मतदान से एक दिन पहले दो समाचार पत्रों में उमलेश यादव ने पैसे देकर खबरें प्रकाशित करवार्इं थीं। इन खबरों की शिकायत प्रेस काउंसिल में भी की गई। परिषद की जांच में शिकायत सत्य पाई गई कि प्रकाशित सामग्री पेड न्यूज थीं। समाचार पत्रों ने इनके नीचे एडीवीटी शब्द अंकित किया था। आयोग ने  परिषद की जांच को जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 77 के तहत कार्रवाई करते हुए कहा कि 2007 में बिसौली के लिए उम्मीदवार उमलेश यादव ने गलत चुनाव खर्च का ब्यौरा दाखिल किया और कृत्य का बचाव भी किया। इस धारा में चुनाव खर्च के मामले आते हैं। इस खबर के लिए उमलेश यादव ने 21500 रुपए का भुगतान किया था। पेड न्यूज का मामला जब तब सामने आता रहा है। पेड न्यूज लोकतंत्र की अवधारणा को आहत करती है। अगर चुनावों में उम्मीदवार काले धन का प्रयोग कर मीडिया का इस्तेमाल अपने को बेहतर साबित करने के लिए करने लगे तो इससे लोकतांत्रिक व्यवस्था के उद्देश्य ही नष्ट हो जाएंगे। आयोग की यह कार्रवाई भारत में लोकतंत्र के लिए आशा की किरण जगाती है। आयोग के इस कदम का स्वागत किया जाना चाहिए ।

गुरुवार, अक्टूबर 20, 2011

सच कहने का साहस: यानी रागदरबारी

श्रीलाल शुक्ल पर खास  ज्ञानपीठ  www.greennearth.org  मिलने पर 
-विजय बहादुर सिंह

काफी पहले हिन्दी के पुरस्कृत लेखक श्रीलाल शुक्ल से एक साक्षात्कार कर्ता ने यह सवाल किया था कि उत्तरप्रदेश सरकार के इतने बड़े पद पर रहते हुए आपने इतना बड़ा और मोटा उपन्यास कैसे लिख लिया। श्री लाल शुक्ल ने इसका जो जवाब दिया था वो मुझे अब तक याद है। उन्होंने कहा था कि सरकार का काम रुटीन का काम होता है। वहां क्यांकि विशेष का कोई महत्त्व नहीं। आप समय से आफिस आइए। समय से घर जाइए। जो फाइलें सामने आ जाएं उन्हें निपटाते रहिए। यही तो सरकारी नौकरी है। मैं भीर करता रहा। बाकी समय में लिखता रहा। इस तरह यह उपन्यास बन गया- यानी कि ‘राग दरबारी।’
मजेदार बात यह कि राग- दरबारी, केवल शासन-तंत्र की पोल पट्टी ही नहीं खोलता। वह सामाजिक जीवन में मूल्यों के पतन की कहानी भी कहता है। सामाजिक जीवन में काम करने वाली संस्थाओं कुछेक विलक्षण चरित्रों की भी कहानी है, वह खुद एक बड़ा सरकारी अफसर है- संभवत: सचिव स्तर का। अब अगर सचिव स्तर का एक अफसर है- संभवत: सचिव स्तर का अब अगर सचिव स्तर का एक अफसर खुद सरकार और समाज के भ्रष्ट चरित्र और पतन की यह कहानी  कहता है, जो कि कहीं न कहीं खुद ऊी उस पूरी व्यवस्था में उसकी संवेदनशीलता की दाद देनी होगी। और इसमें कोई शक नहीं श्री लाला शुक्ल ने यह साहस दिखाया और अपनी संवेदनशीलता के प्रति खतरा उठाने तक की ईमानदारी बरती। सो भी सरकार में रहकर, सरकार की नाक के ठीक नीचे, सरकार होते हुए।
ठीक नेहरू शासन-काल में हिन्दी गद्य में व्यंग्य की प्रवृत्ति क्यों जोर पकड़ने लगी? क्यों हास्य- व्यंग्य के कवियों की बाढ़ आने लगी? क्यों हास्य- व्यंग्य के स्वतंत्र कवि- सम्मेलन होने लगे? क्या यह सब अकस्मात् और अकारण हुआ? बगैर किसी कारण के? इसका प्रमाणिक जवाब श्री लाल शुक्ल जैसे लेखक देते हैं यह कहते हुए कि लालफीताशाही के चलते, लेटलतीफी के चलते हुए। सरकारी महकमों के निरंतर क्रूर स्वार्थी और अमानवीय होते चले जाने के कारण।
राग-दरबारी, जो  स्वयं शासन के एक बड़े अधिकारी की कलम से लिखा गया क्रूर सच था, मेरे जैसे पाठकों के मन में यह सवाल भी पैदा कर रहा था कि पंद्रह बीस सालों में ही अगर यह सरकारी तंत्र इतना लोकविरोधी और अमानवीय हो उठा है तो आगे क्या करेगा? आज तो हम अक्सर अखबारों में पढ़ते रहते हैं कि अच्छे- अच्छों की रपट थानों में नहीं लिखी गई। यह औरत उठा ली गई। गायब कर दी गई या मार दी गई? हमें इन सवालों का कोई जवाब नहीं मिलता। लेकिन क्यों? यह तो सूचना क्रांति या कहें विस्फोट का जमाना है। फिर सबसे खराब हालत सूचना- दफ्तरों की ही क्यों है? कहीं बम फूट जाता है तो पता नहीं चलता। कहीं फटने वाला है तो पता नहीं लग पाता? इससे अच्छा तो रामायण- काल वाला जमाना था कि सीता का पता लगाने वालों ने उस जमाने में लगा लिया था। वह रावण जैसे मायावी राक्षसों का जमाना था फिर भी। पर आज? सूचना क्रांति का हल्ला है चारों ओर फिर भी क्यों सूचनाएं नहीं मिलतीं? हमारी चिन्ताओं और उनसे पैदा होते प्रश्नों के उत्तर तक नहीं मिलते? क्यों?
कहते हैं कि लेखक के पास तीसरी आंख होती है जिससे वह आने वाले समयों को देख लेता है। और कुछ नहीं तो कम से कम उन बुरे समयों के प्रति हमें आगाह कर देता है। बेखबर समाज को बाखबर कर देता है। सत्तर के दशक में न बोफोर्स हुआ था, न चारा घोटाला संपूर्ण क्रांति या दूसरी आजादी का आंदोलन भी नहीं। सुगबुगाया था। पर लेखक श्री लाल शुक्ल इस आने वाले समय को देख रहे थे। गरीबों के मन में उठती हाय को महसूस कर रहे वे बैठे तो जरुर सत्ता की बड़ी कुर्सी पर थे पर उनका दिल पत्थर का नहीं हुआ था इसलिए अपनी नौकरी की परवाह किए बगैर उन्होंने  अपने भीतर उठते तूफान को जग जाहिर करने की पहल की और इसी पहल का नाम था ‘राग दरबारी’ जिसे तत्काल हिन्दी के एक श्रेष्ठ उपन्यास के रूप में साहित्य अकादमी पुरस्कार से अलंकृत किया गया। बाद में तो यह दूरदर्शन पर धारावाहिक के रूप में भी देखा जाता रहा।
जिन दिनों मैं यह उपन्यास पÞ रहा था, अक्सर यह हमारे सिरहाने ठीक तकिए के बगल में रखा रहता। कभी दोपहरी में तो प्राय: रात सोने से पहले मैं इसे डूबकर पढ़ा करता। हमारे विभागाध्यक्ष एक दिन अचानक मेरे बिस्तर के पीस आए और इसे सिरहाने रखा देख चकित होकर पूछने गे- विजय बहादुर जी! आप की रुचि क्या संगीत में भी है? मैंने पूछा- ‘क्यों सर?’ उन्होंने ऊंगली के इशारे से उपन्यास की ओर लक्ष्य किया। मैंने जवाब दिया- सर! ये संगीत की कोई किताब नहीं है। हिन्दी का एक बहुचर्चित और महत्वपूर्ण उपन्यास है जो साहित्य अकादमी से पुरस्कृत हुआ है। अच्छा। मैंने समझा था कि ‘राग दरबारी’ लिखा है तो संगीत का कोई ग्रंथ होगा। मैं उन बुजुर्ग प्रोफेसर को यह जरुर नहीं समझा सका कि साहित्यिक प्रयोग के लिए कोई शब्द या मुहावरा वर्जित नहीं होता। वे मेरे विभागाध्यक्ष जो थे। आश्चर्य है कि ऐसे नेताओं, अफसरों, प्रोफेसरों, शिक्षकों जिनका बाकयदा जिक्र उपन्यास में भी है  के कहते हुए उत्तरप्रदेश के सचिवालय में बैठा एक आला अफसर फिर भी आदमी के रूप में अपने को बचाए रख सका और सरकारी तंत्र के निरंतर विषाक्त होते   चले जाते वातावरण को अपनी चेतना के की- बोर्ड पर टांकता रहा। चकित करने वाली बात यह कि भारत सरकार की सर्वोच्च साहित्य संस्था साहित्य अकादमी और अब भारतीय ज्ञान-पीठ ने ऐसे सत्यव्रती लेखक को ज्ञानपीठ से पुरस्कृत कर साहित्य में सच कहने की परंपरा को बढ़ावा दिया है। उसकी पीठ थपथपाई है।
राग- दरबारी पढ़ने के बाद स्वभावत: मेरा आकर्षण लेखक की अन्य कृतियों के प्रति भी बढ़ा और मैं उन्हें खोज- खाज कर पढ़ता रहा। पर न तो वैसा स्वाद मिला, न वैसा सच। ‘पहला पड़ाव’ में भी नहीं। ‘सीमाएं टूटती हैं’ में भी नहीं। हां रोचक कलम का मजा जरूर आया।  उनकी जिस रचना ने मुझे बुरी तरह निराश और क्षुब्ध किया वह बाद के दिनों में लिखा उनका उपन्यास ‘विश्रामपुर का संत’ था। ऐसा नहीं कि शुक्ल जी की कलम यहां बुझ चुकी थी। ऐसा भी नहीं कि वे सिर्फ एक लेखक के रूप में अपने जिंदा और सक्रिय होने का सबूत दे रहे थे। पर कह यह रहे थे कि सर्वोदय के कार्यकर्ताओं का कैसा और कितना पतन हुआ। स्वभावत: उन्होंने उनका उपहास तो उपन्यास में उड़ाया ही था। मुझे जब म.प्र. साहित्य अकादमी की ओर से कहा गया कि रिव्यू लिखूं। मैंने लिखा और वह रिव्यू ‘साक्षात्कार’ में छापी गई। थोड़े ही दिनों बाद शुक्ल जी किसी आयोजन में भोपाल आए तो नामवरजी के साथ मैं भी उनके कमरे में चला गया, मिलने। नामवर जी के परिचय कराते ही शुक्ल जी ने मुस्कुराते हुए शिकायत की- ठाकुर साहब। आपने तो बहुत आक्रामक होकर मेरे उपन्यास पर लिखा है। मैंने भी उसी शालीनता और गंभीरता से जवाब दिया- शुक्ल जी सर्वोदय के आंदोलन को फेल करने वालों को तो आपने कुछ कहा नहीं तब मैं क्या करता। ‘वे सुनते रहे। नामवर जी ने कुछ नहीं कहा।’
मुझे अब भी लगता है कि तंत्र और समाज की जो लड़ाई चल रही है, उसमें तंत्र आंख मूंद कर समाज की रचनात्मक शक्तियों को धूल चटाने पर उतारु है। अगर ऐसा हो गया किसी दिन तो फिर लोक जीवन और लोकतंत्र का होगा क्या? ‘राग दरबारी’ के लेखक ने सत्तर के दशक में यह सवाल उठाया था। आज तो यह जन- जन का सवाल बना हुआ है।

शुक्रवार, अक्टूबर 14, 2011

भारत और पाकिस्तान को मिल जुल कर रहना होगा



आतंकवाद के पनपने से पहले पाकिस्तान की आर्थिक दशा भारत से अच्छी थी लेकिन अब स्थिति उलट गई है।



  ह क्कानी नेटवर्क से अमेरिकी अधिकारियों की गुप्त बातचीत के बाद उन्हें यकीन हो गया कि हक्कानी नेटवर्क को आईएसआई का सहारा मिल रहा है। आतंक के मामले में पाकिस्तान भी उतना ही पीड़ित है, जितना भारत या अफगानिस्तान। भारत और पाकिस्तान दोनों धार्मिक अतिवाद से ग्रस्त रहे हैं। ये ताकतें देश के हुक्मरानों पर हावी होने की कोशिश करती हैं। अफगानिस्तान और पाकिस्तान में सक्रिय हक्कानी नेटवर्क अमेरिकी सेना को नुकसान पहुंचाने का काम करता आ रहा है। अमेरिका इस बात से तंग आ चुका है कि उसके हमलों का असर क्यों नहीं हो रहा। 13 सितम्बर को अमेरिकी फौजों पर हमले करने के पीछे हक्कानी नेटवर्क का हाथ था। अमेरिका ने इस हमले के बाद पाकिस्तान पर दबाव बनाया कि वह हक्कानी नेटवर्क पर कार्यवाही करे। पाकिस्तान ने इस मामले में हल्की हिचक दिखाई क्योंकि आईएसआई में धार्मिक अतिवाद समर्थक लोग काबिज हैं। अमेरिका पाकिस्तान को अकेला नहीं छोड़ सकता क्योंकि पाकिस्तान परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र है। ऐसी स्थितियों में भारत की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। हाल ही में हिना रब्बानी ने भारत को सबसे तरजीही राष्ट्र का दर्जा देने की घोषणा की है। पाकिस्तान और भारत की जनता एक दूसरे से संवाद करना चाहती है। यह आर्थिक और राजनीतिक दोनों मोर्चो पर जरूरी है। दोनों को विकास पर जोर देना होगा। हिंसा और आतंक किसी भी इंसानी सभ्यता का हिस्सा नहीं हो सकते। किसी समय पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति अच्छी थी लेकिन आतंकवाद पनपने के बाद स्थिति उल्टी है। अमेरिका से बड़ी आर्थिक सहायता मिलने के बाद भी पाकिस्तान गरीबी से उबर नहीं पा रहा है।

गुरुवार, अक्टूबर 13, 2011

प्रासंगिकता

 
किसी भी चीज की प्रासंगिकता तब खत्म होती है जब कोई चीज या संगठन प्रसंगहीन हो जाए। लेखक संघों की प्रासांगिकता अभी खत्म नहीं हुई। बस शर्त यही है कि वे कुछ करें। जब उनके पास करने और कहने कुछ नहीं होगा तो वे कैसे प्रसांगिक रह जाएंगे। प्रगतिशील लेखक संघ बड़ा संघ है लेकिन उसे ‘कप्तानों’ने टाइटेनिक बना दिया। वह डूबता हाथी हो रहा है। नवाचार बंद हो चुका है। बदलती परिस्थितियों में उसने लेखकों के लिए कुछ नहीं किया। वह अपना वही राग अलाप रहा है जो उसकी स्थापना से बनाया गया था। यथाथर््ा आज लेखक संघों से अधिक गतिशील हैं। अधिक चलायमान हैं। पूंजीवाद भी अब वह नहीं रहा। वह जनसामान्य की आवश्यकता बन गया है। बाजार को कोसने से कुछ नहीं होगा। बाजार आज से नहीं था बाजार मनुष्य के सामाजिक होने के साथ अस्तित्व में आया था। आज जो बाजार है वह तो विकास क्रम का हिस्सा है। आनेवाले वक्त में यह सब भी बदल जाएगा।
अगर नहीं बदलेगा तो वह भी अपनी प्रासांगिकता खो देगा।
नए लेखकों के लिए करने के लिए संघठनों के पास कुछ नहीं है। नवाचार नहीं है। पूर्वाग्रही और जड़ लोगों जब किसी चीज पर कब्जा कर लेते हेैं तो वहप् प्रसंग और संदर्भहीन होकर अपनी प्रासंगिकता खो देते हैं।
रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
भोपाल मप्र

रविवार, अक्टूबर 02, 2011

वृद्धों के सम्मान की परिभाषा


वृद्धाश्रमों की संख्या लगातार बढ़ना, वृद्धों के प्रति सम्मानपूर्ण संवेदनशीलता का परिचायक नहीं है।


अं  तरराष्ट्रीय वृद्धजन दिवस पर वृद्धों का सम्मान किया गया। वृद्धों के प्रति सम्मान भारतीयता पहचान है। लेकिन बदलते भारतीय समाज में जिस प्रकार वृद्धों के लिए ओल्ड ऐज होम यानी वृद्धाश्रमों की संख्या बढ़ रही है, यह स्थिति वृद्धों के सम्मानपूर्ण संवेदनशीलता को प्रदर्शित नहीं करती। केंद्र सरकार द्वारा पूरे देश में 663 वृद्धाश्रम संचालित किए जाते हैं। इनमें राज्यों या उनकी सहायता से संचालित आश्रम शामिल नहीं हैं। इनमें एक लाख से अधिक असहाय वृद्ध लाभान्वित हो रहे हैं। देश में 8 करोड़ 86 लाख वृद्ध हैं। 30 प्रतिशत गरीबी रेखा में जीवनयापन करते हैं। इनमें 1 करोड़ 90 लाख महिलाएं सामाजिक और आर्थिक रूप से असुरक्षित जीवनयापन कर रही हैं। वृद्धों की आवश्यकताओं के लिए हमारा समाज असंवेदनशील होता जा रहा है। कालोनियों में वृद्धों के लिए ‘स्पेस’ नहीं हैं। घरों के नक्शों में खुले बरामदे कम होते जा रहे हैं। वृद्धों के बैठने और उनके समय व्यतीत करने के लिए समाज में कोई चिंता नहीं की जाती। भारतीय समाज में एकल परिवार उनके लिए वैकल्पिक जगह के रूप में वृद्धाश्रम के बारे में सोचने लगे हैं, यह वृद्धों के प्रति असामाजिक नजरिया है। 
वृद्धाश्रम अब जेल या एकांतवास का प्रतीक नहीं रहे। वहां त्यौहार, संगीत, कीर्तन और व्यक्तिगत रुचि के अनुरूप व्यवस्थाएं हैं।

वृ द्धाश्रम बदलते भारतीय समाज की जरूरतें हैं। परिवार से दूर रह कर नौकरी करते पति-पत्नी, समय की कमी, आर्थिक मजबूरियां, बड़े शहरों में एक  या दो कमरों के घरों रहने की मजबूरी के कारण बढ़े बुजुर्गों के रहने की भारतीयों की पारिवारिक परंपरा की आवश्यकता नहीं है। कभी बच्चे मां बाप से पंद्रह साल तक की उम्र तक साथ होते थे लेकिन आज वे बहुत कम से उम्र में आवासीय स्कूलों में अपना बचपन गुजार रहे हैं। यह समाज की व्यवस्था है। इसमें बच्चों के प्रति असंवेदनशीलता नहीं है। इसी तरह बुजुर्गों को पेड-ओल्ड ऐज होम में सुविधाओं के साथ खुशी खुशी रहना स्वीकार करना चाहिए। नए वृद्धाश्रम बुजुर्गों की सुविधानुसार बनाए जाते हैं। वृद्धाश्रम अब जेल या एकांतवास का प्रतीक नहीं रहे। वहां त्यौहार, संगीत, संक्रीर्तन और व्यक्तिगत रुचि के अनुरूप व्यवस्थाएं हैं। तेजी से बदलती सामाजिक व्यवस्थाओं में वृद्धाश्रम एक यर्थाथ हैं। ये हमारे सामाजिक जीवन का हिस्सा हैं। वृद्धों के लिए उनमें रहना सजा नहीं नए जीवन का आगाज है।


रिस्थितियों के अनुरूप सामाजिक जीवन बदलते रहे हैं। वृद्धाश्रम वर्तमान समाज के यथार्थ बन चुके हैं।  वृद्धों के कल्याण के लिए राज्य की भूमिका महत्वपूर्ण है और संविधान में भी राज्य की लोककल्याणकारी अवधारणा का उल्लेख है। सरकारों को जीवन के इस चरण को अपनी मर्जी और सुविधा से गुजारने में वृद्धों के सहयोग के लिए आगे आना चाहिए। आज 30 प्रतिशत वृद्ध असुरक्षित सामाजिक आर्थिक स्थितियों में जीवनयापन कर रहे हैं। ऐसे में राज्य  की भूमिका बढ़ जाती है। 

शुक्रवार, सितंबर 30, 2011

आपका स्वागत है Green N Earth Organization India Bhopal - Composite Manure Organic Soil Tonic

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‘अच्छे आदमी’ पर भारी पड़े एक्सपेरीमेंट

  नाटक
अच्छे आदमी करीब के साल पहले खेला गया था ... ये रिपोर्ट समीक्षा पीपुल्स समाचार में छापी थी ....

युवा नाट्य निर्देशक सरफराज हसन द्वारा निर्देशित नाटक ‘अच्छे आदमी’ ने नाटकीयता के लिए कई नई संभावनाओं को जन्म दिया। उन्होंने प्रयोगों के खतरे उठाए। कहानी को तोड़ा मरोड़ा, गीतों को जोड़ा और एक हाउस फुल नाटक विद टिकिट के साथ किया। लेकिन क्या वे नाटक के साथ नाटक को कर पाए...

रवीन्द्र भवन में युवा सरफराज हसन द्वारा निर्देशित और राजेश जोशी द्वारा लिखा ‘अच्छे आदमी’ ने अभिनय को कुछ नए रंग देने के साथ रंगमंच को भी कुछ नए रंग देने की कोशिश की। हालांकि ये रंग इतने अधिक हो गए कि हर रंग एक दूसरे में मिल गया। खैर नाटक की कहानी एक पकौड़ी वाली बुढ़िया, एक चाय वाले और बुढ़िया की रिश्तेदार के रूप मे काम कर रही सीता और ठेकेदार के बीच घटती है। नाटक में गांव का युवक उजागिर एक खूबसूरत बहू के लिए गांव से निकलता है और उसे पकौड़ी वाली बुढ़िया के यहां सीता मिलती है। इसी तानेबाने में नाटक के दूसरे किरदारों को जगह मिलती है। सीता और उजागिर में चल रही चाय पकौड़ी चटनी अंतत: शादी में बदल जाती है। शादी के बाद उजागिर वापस अपने गांव आता है और जैसा कि गांव में होता है कि उसकी बहू कैसी है, कहां की है, क्या है छोटी छोटी गांव में चलने वाली चर्चाओं को नाटक में पर्याप्त स्पेश के साथ उठाया है। इसमें श्रुति सिंह, कृतिका, कनक आदि ने अच्छे अभिनय से इन दृश्यों को उठाया, लेकिन यहां उनके अभिनय को उत्कृष्ट नहीं कहा जा सकता। ‘गांव वाली औरतें’ बनने में अभी वे हिचक रही थी। इस हिचक को तोड़ कर जब कलात्मक अनुशासन में अभिनय होता है तब वह लाजबाव होता है।
नाटक में पहला हिस्सा अधिक हास्य और गति से चलता है। दूसरे हिस्से में कुछ मंथर हो जाता है। एक तरह की गंभीरता नाटक में आती है। अपने गांव लौटे नाटक के मुख्य किरदार उजागिर के लिए लोभ लाालच का चारा ठेकेदार से मिलने लगता है। वह पैसे में रम जाता है। इधर उजागिर की पत्नी सीता ठेकेदार के साथ राग की अभिव्यक्ति करती है। नाटक में सीता का चरित्र बहुत ही सूक्ष्म और जटिल संकेतों से मिल कर बनता है। इसे निर्देशक ने अपनी कल्पना से और अधिक उभारा है। जैसे कि जब भी उजागिर और सीता के बीच बातचीत में ठेकेदार का जिक्र आता है, संगीत हल्की अलग ट्यून अख्तियार कर लेता है। इससे नाटक एक खास किस्म की भीतर लय ताल को पाता है। इन दोनों के चरित्र में खास बात ये है कि ये कोई सच्चा नहीं है। सीता सब समझते इस राह को स्वीकार करती है तो उजागिर भी अपनी लोलुपता के चलते ठेकेदार से लाभ पाने के लिए जानते बूझते यह स्वीकार करता है। ये बातें संवादों में काव्यात्मक संकेतों से की जाती हैं। जैसे एक संवाद है कि पकौड़ी अच्छी हैं। यह उजागिर की पत्नी के लिए प्रयोग किया गया है। संवादों में इस तरह के कई प्रयोग हैं। संवादों में ही नाटक हमारे आसपास सामाजिक विद्रूपताओं में हास्य तलाशता है और धीरे धीरे अपने समाज का एक आइना बनता चला जाता है।
नाटक की शुरुआत में गांव वालों की ‘क्राउड’ के दो दृश्य कमजोर रहे। उनमें एक साथ कहानी का सब कुछ बता देने की जल्दबाजी थी। दूसरी तरफ ऐसे दृश्यों के लिए रवीन्द्र भवन का मंच उपयुक्त नहीं था। हालांकि गीत के बाद नाटक रफ्तार पकड़ लेता है। नाटक में अभिनय चायवाले के रूप में डॉ. विपिन खासे जमे। इसी तरह सीता के रूप में खुश्बू पांडे का ताजा अभिनय कुछ लोच और लचक की मांग कर रहा था। वे एक दो बार संवाद में अटक गर्इं थीं लेकिन उनके अभिनय में एक संभावना नजर आने जैसी बात तो थी। खुश्बू ने संगीत भी दिया है। कुछ गीतों को वे गा भी रही थीं। इससे उनकी छवि एक बहुमुखी प्रतिभा की बन रही थी। शराबी के रूप में रवि तिवारी दर्शकों की ओर से हिट शराबी रहे। बुढ़िया के रूप में डॉ. राजकुमार ने प्रयास तो अच्छा किया पर लोग कह रहे थे कि अरे ये तो लड़का है। राजकुमार ने अपने हाथों में पुराने कड़े पहने होते तो शायद लोग उन्हें कुछ कम सहजता से पहचान पाते। बस ड्रायवर के रूप में फैज की एक्टिंग इस नाटक में अलग ही लकीर खींच रही थी। शुरुआत में वे एक रिजर्व अभिनेता की तरह लगे थे। बाद में उन्होंने अपने आप को जस्टिफाई किया। पहलवान के रूप में अनंत सोनी ने भी अभिनय की अच्छी पहलवानी की। नाटक हाउस फुल था और लोगों को हास्य से सराबोर कर गया।
मंच पर लाइटों की बात की जाए तो पहले दूसरे दृश्य में सफेद कपड़ों पर इतनी लाइट थी कि कैमरामैनों के फोटो भी आउट हो रहे थे। इतनी चमक आंखों को भी चुभ रही थी। कहा जा सकता है कि उसने मंच के रंग अनुशासन को बहुत हद तक भंग किया। यही काम मंच पर बने सेट ने किया। यह सेट बुढ़िया के बैकग्राउंड से अधिक किसी अमीर का घर अधिक लग रहा था। गीतों को भी नहीं बख्शा जा सकता। इतने अधिक गीत वह भी भारी संगीत के कारण नाटक की मूल कथा पर बोझ बन गए महसूस हुए। जैसा कि बताया गया ये गीत यंग्स थियेटर की टीम ने लिखे हैं तो इसका मतलब यह नहीं है कि आप एक नाटक को गीता भरी कहानी बना दें। इसके अलावा नाटक की कहानी में स्वभाविक स्थितियों के हास्य की जगह अभिनय में निहित हास्य से भरा था। अगर वैसा अभिनय नहीं किया जाता तो दर्शक उस हास्य को पकड़ने में भी मुश्किल   महसूस करते। एक और चीज निर्देशक को ध्यान में रखना चाहिए। प्रॉपर्टी की अधिकता में कई बार नाटक का बेसिक अभिनय छुप सा जाता है। नाटक ‘अच्छे आदमी’ सरफराज के अच्छे निर्देशन की जो विशेषता है उसमें अवश्य सफल रहा। उन्होंने पहले भी मंजी में इस तरह के सिनेमेटिक तकनीक भरे प्रयोग किए हैं। पर मंजी एक अलग बैकग्राउंड का नाटक था, वही चीज सरफराज ने यहां लागू की तो वह लाउड हो गई। हो सकता है ये सरफराज के युवा होने की मजबूरी रही हो। प्रयोग और नए करने की पहल के कुछ खतरे तो होते ही हैं।




उसने ओम थानवी का कान कैसे पकड़ा और क्या कहा





(सतीश जायसवाल कहानीकार हैं। कोरबा में रहते हैं। ये पोस्ट उनके ब्लॉग से ली है। पीपुल्स समाचार में प्रकाशित है...  )


  क्या, किसी के लिये भी यह बात विश्वसनीय हो सकती है कि हिंदी के राष्ट्रीय दैनिक ‘जनसत्ता’ के प्रमुख संपादक श्री ओम थानवी अपने कान की सफाई के लिए नई दिल्ली के ‘एम्स’ को छोड़ कर कटघोरा (जिला-कोरबा, छत्तीसगढ़) में एक कान सफाई करने वाले के हत्थे चढ़ जाएंगे? लेकिन कटघोरा के व्यवहार न्यायालय परिसर में कई लोगों ने वह दृश्य देखा कि वहां घूम-घूम कर अपना ग्राहक ढूंढ रहे एक सड़क छाप कान सफाई करने वाले ने थानवी जी का कान पकड़ रखा है। देखने वालों में एक मैं भी हूं इसलिये इस बात की विश्वसनीयता बिलकुल भी संदिग्ध नहीं है। यह एक दिलचस्प प्रसंग है।
थानवी जी अपने किसी अदालती मामले में कटघोरा आए  हुए थे और अपने पुकारे जाने का रास्ता देखते हुए अदालत के परिसर में पेड़ के नीचे खड़े थे। तभी, ‘कान का मैल साफ़  करने वाले’ ने ग्राहक ढूंढने की अपनी कला का प्रमाणित परिचय दिया। उसके और उसके धंधे के प्रति एक पत्रकार के पास जैसे सवाल हो सकते हैं, वो सब थानवी जी के पास थे और उनकी पत्रकारिता और उनकी हैसियत से बिलकुल अनजान उस कान सफाई करने वाले ने उनके प्रत्येक सवाल का जवाब दिया। दाम भी बताया, 10 रुपये प्रति कान। लेकिन थानवी जी अपने कान को जोखिम में डालने का साहस नहीं कर सके। और उन्होंने उसे मना कर दिया। लेकिन वह भी, हाथ आये अपने एक तगड़े ग्राहक को ऐसे ही कैसे छोड़ सकता था ? उस ने हिम्मत नहीं हारी और थानवी जी से कहा, चाहे सफाई ना कराएं लेकिन अपना कान देखने की इजाजत तो दे सकते हैं? थानवी जी ने भी कहा, देखते हैं कि क्या देखेगा? और वह इतना ही चाहता था। एक बार उनका कान उसके हाथ में आया तो वह अपने हाथ का हुनर दिखा कर ही माना। उस के पास एक ही मौका था जिसे धैर्य और पूरे आत्मविश्वास के साथ इस एक मौके को अपने हक़  में कर लिया। थानवी जी ने भी उसे 10 की जगह पूर 50 रुपये देकर उसकी चतुराई को सम्मानित किया।
चमड़े के छोटे से बैग में कुछ सुइयां, रुई के कुछ फाहे, बांस की कुछ पतली-पतली सींकें और 2-3 छोटी शीशियों में रंग-बिरंगी दवाइयां लेकर सड़कों और भीड़ वाली जगहों में घूमते हुए ऐसे ‘कान का मैल निकालने वाले’ अब शहरों में नहीं दिखते। चम्पी और चम्पी-मालिश करने वाले भी नहीं  दिखते। यह एक लम्बी सूची है जिसमें हमारे देखे हुए दृश्य एक-एक करके हमारे अनुभव-संसार से लुप्त होते जा रहे हैं। एक आंख में खुर्दवीन की ऐनक लगा कर घड़ी सुधारने वाले घड़ीसाज, तालाचाबी बनाने वाले, छतरी और बिगड़ी हुई टार्च बत्तियां सुधारने वाले, पीतल के बर्तनों में कलाई करने वाले कारीगर, घोड़े के खुरों में नाल ठोकने वाले लौहार, कपड़ों में रंगाई करने वाले रंगरेज वगैरह-वगैरह। अब यह कितना विचित्र और गैर जिम्मेदाराना लगता है कि अब हम उन्हें रूमानी ‘नोस्टेल्जिया’ में जाकर याद कर रहे हैं? जबकि ये सब की सब किन्हीं ना किन्हीं सामाजिक संरचनाओं का हिस्सा रहे हैं। उन्नत कौशलों ने इन पारंपरिक कौशलों से जीवन यापन करने वाले असंगठित समूह के विशेषज्ञों, कारीगरों के लिए कोई विकल्प नहीं छोड़े।  ऐसे में यह आशा करना सुखद होगा  कि उनके पुनर्वास की भी कहीं चिंताएं हो रही होंगी और योजनाएं बन रही होंगी कि विकास में उनकी भी साझेदारियां निर्धारित की जा सकें। लेकिन ऐसा जरूरी तौर पर होना चाहिए था। अभी भी समय है।
 

जनसंख्या नियंत्रण केरल की एक पहल


 किसी नागरिक को धार्मिक या अन्य आधार पर जनसंख्या नियोजन से बचने या न मानने की अनुमति नहीं


ऐसे में यह कानून उन गरीबों के साथ कैसे न्याय करेगा जिनके बच्चे असमय इलाज के अभाव में मर जाते हैं।


के रल सरकार द्वारा प्रस्तावित केरल ‘वुमेन कोड बिल 2011’ जनसंख्या नियंत्रण के लिए सबसे प्रभावी कानून हो सकता है। जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर की अध्यक्षता वाली 12  सदस्यीय कमेटी ने इस कानून का ड्राफ्ट केरल सरकार को सौंपा है। जस्टिस वीआर कृष्णा एक विद्वान और दूरदर्शी सोच के व्यक्ति हैं। उनकी अध्यक्षता में इस काननू का ड्राफ्ट तैयार किया है तो निश्चय ही यह  तार्किक होगा। बढ़ती जनसंख्या के नियंत्रण के लिए यह जरूरी है कि एक सर्वव्यापी कानून हो। केरल में प्रस्तावित इस कानून से जनसंख्या वृद्धि दर नियंत्रित होगी। महिला कल्याण तथा बाल विकास सूचकांक में भी सुधार होगा। इस बिल में कई अच्छी बातें शामिल हैं।  इसमें सबसे प्रमुख यही है कि प्रदेश के किसी नागरिक को धार्मिक, जाति, क्षेत्र या राजनीतिक आधार पर जनसंख्या नियोजन से बचने या न मानने की अनुमति नहीं होगी। शादी के समय गर्भ निरोधक उपायों एवं इससे संबंधित जानकारी भी निशुल्क प्रदान की जाएगी। निशुल्क गर्भपात की व्यवस्था भी इसमें है। 19 साल की उम्र के बाद शादी और 20 साल के बाद बच्चा पैदा करने पर प्रोत्साहन राशि देने का प्रावधान रखा गया है। केरल सरकार का यह कानून महिला कल्याण तथा जनसंख्या नियंत्रण के लिए कारगर पहल साबित होगा।


स  रकार अब बच्चे पैदा करने पर नियंत्रण कर रही है।  हम सरकार को बताएंगे कि हम 20 साल के हो गए। हम बच्चा पैदा कर रहे हैं। सरकार समाज की परंपराएं और उसके रीतिरिवाजों को ध्यान में रखे  बिना कानून बना रही हैं। सरकार का यह कानून प्रदेश की सामाजिक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में हस्तक्षेप है। यह कानून नागरिकों के मौलिक अधिकारों में भी दखल है। बच्चा पैदा करना एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, जिस पर सरकार नियंत्रण करना चाहती है। तीसरा बच्चा पैदा होने पर पति को 10 हजार का जुर्माना और तीन साल की सजा का प्रावधान है। इस तरह की सजाएं व्यक्ति को अपने ही बच्चे को इंकार करने वाले हादसों को अंजाम दे सकती हैं। हो सकता है कि तीसरे बच्चे के जन्म के लिए दूरदराज के लोग अस्पतालों में ही न जाएं। एक गरीब के लिए तीन चार बच्चे उसके घरेलू कामों में हाथ बंटाने और सहयोगी होते हैं। अमीर परिवारों की अपेक्षा बाल मृत्युदर गरीब परिवारों में  अधिक होती है। ऐसे में यह कानून उन गरीबों के साथ कैसे न्याय करेगा जिनके बच्चे असमय इलाज के अभाव में मर जाते हैं। रोज कमाने वाले मजदूर के लिए जनसंख्या नियोजन कानून की कैद  परिवार के लिए भूखों मरने जैसे स्थितिएं पैदा करेगा।



क्  या अब राज्य तय करेगा कि आपको कितने बच्चे पैदा करना है।    यह राज्य द्वारा व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अतिक्रमण है। बच्चे पैदा करना एक प्राकृतिक परिघटना है इसमें कानूनी बंदिशें और अनुशासन व्यक्ति की स्वतंत्रता और उसके निजी जीवन के फैसलों मेंअनावश्यक दखल है। इस तरह के कानूनों की जगह में  लोगों में स्वभाविक तरीके से जनसंख्या नियंत्रण को प्रेरित करना चाहिए। इस दिशा में देश ने सफलताएं अर्जित की हैं।

बच्चों की सुरक्षा में कानून का नया ड्राफ्ट

 
इस कानून में  14 से 18 वर्ष की आयु के बच्चों के बीच आपसी सहमति से सेक्स संबंध आपराधिक नहीं होंगे।



बा ल सुरक्षा विधेयक-2011 का ड्राफ्ट चर्चा में है। बच्चों के अधिकारों और उनके यौन शोषण के खिलाफ एक समग्र कानून ड्रॉफ्ट किया गया है। इस कानून में यौन अपराधों को दो वर्गों में बांटा गया है। किशोर वर्ग के यौन-सबंध और बच्चों की सुरक्षा में लगे अधिकारियों जैसे पुलिस, शिक्षक, प्राचार्य, हॉस्टल वार्डन, परिवार तथा रिश्तेदार आदि द्वारा शारीरिक शोषण जिसे जघन्य अपराध माना गया है। इस अपराध की सजा आजीवन है। यह कानून जीवन के सामाजिक  बदलावों को स्वीकार करता है क्योंकि समृद्ध जीवन शैली के कारण किशोरों की शारीरिक परिवर्तन की उम्र कम हो गई है। डॉक्टरों के अनुसार आजादी के समय रजस्वाला होने की उम्र 12-13 वर्ष थी जो अब 9-11 हो गई है। टीवी फिल्म और अन्य दृश्य श्रृव्य माध्यमों के कारण बच्चों में सेक्स के प्रति जिज्ञासा बढ़ रही है। समाज में 14 से 18 वर्ष के किशोरों के बीच सेक्स संबंधों में वृद्धि हुई है। इस कानून में 14 से 18 वर्ष की आयु के बच्चों के बीच आपसी सहमति से सेक्स संबंध आपराधिक नहीं माने जाएंगे। उन पर कोई सजा लागू नहीं होगी। यह एक प्रकार से बच्चों को अपराध बोध से मुक्त रखने का प्रयास है।

इन प्रावधानों से लड़कियों की बदनामी को शह मिलेगी और इससे सामाजिक आचार विचार ध्वस्त हो जाएंगे।


अ भी तक 18 साल तक के किशोरों को सेक्स संबंधों पर साधारण कानून था। जिसके तहत बच्चों पर आइपीसी की धाराओं में रेप का केस दर्ज होता था। बाल सुरक्षा कानून के ड्राफ्ट में  इसको बदला गया है। इस बदलाव के लिए लाए गए दो प्रावधानों पर समाज को आपत्ति है। पहला 14 से 16 वर्ष तक के बच्चों में नॉन पेनीट्रेटिव सेक्स को जायज माना गया है। 16 से 18 वर्ष तक के बच्चों के बीच सहमति से पेनीटेÑटिव सेक्स संबंधों को कानूनी अनुमति होगी। समाज के एक तबके का कहना है कि इंटरनेट, टीवी और फिल्मों से किशोरों में पहले से ही इस संबंध में जानकारियां हैं। अगर कानूनी अनुमति मिलती है तो किशोर उन्मुक्त हो जाएंगे। भारतीय समाज अभी तक ऐसे परिवर्तनों के लिए तैयार नहीं है। यहां कौमार्य को अभी भी महत्व दिया जाता है। इस कानून से लड़कियों की बदनामी को शह मिलेगी और सामाजिक आचार ध्वस्त हो जाएंगे। दूसरा मुद्दा है कि 18 साल तक के किशोर की सेक्स संबंधों के प्रति मूल भावना क्या है? इस कानून में इसका उल्लेख नहीं है।




कि सी भी समाज की स्थितियों, समस्याओं और स्थापनाओं के साथ शोषण और दमन को खत्म करने के लिए केवल कानून ही पर्याप्त नहीं होते। मानवीय समाज में नियम कानूनों के साथ उनके प्रति जागरूकता होना आवश्यक है। समाज को नियमों में बांधने से पूर्व उसका सामाजिक सांस्कृतिक अध्ययन जरूरी हैं। भारतीय समाज परिवर्तन स्वीकार करता है लेकिन पहले सांस्कृतिक-सामाजिक तार्किता पर भी कसता है।

पीपुल्स समाचार में प्रकाशित

बुधवार, सितंबर 21, 2011

चिंता में मालवा का मौसम और मिट्टी



देश मालवा गहन गंभीर, डग डग रोटी पग पग नीर।   
                                                    - अमीर खुसरो


ते रहवीं सदी के कवि अमीर खुसरो की ये पंक्तियां मालवा की समृद्धि का बयान करती हैं। इतिहासकार रोमिला थापर का कहना है कि कविता की पंक्तियों में इतिहास भी दर्ज होता है। लेकिन हाल ही में मालवा अंचल की भूमि एवं कृषि पर वैज्ञानिकों ने 500 से अधिक गांवों  पर जांच रिर्पोट प्रस्तुत की है। इस दौरान 2900 परीक्षण नमूने एकत्रित किए गए। इसमें मालवा अंचल के अधिकांश जिलों में मिट्टी अनुपजाऊ होते जाने की जांच परख की गई है। मालवा की माटी ज्वालामुखी के लावे से निर्मित होने के कारण अत्यंत उपजाउ रही है। मालवा में  पानी के लिए छोटी बड़ी नदियों का जाल बिछा है। वर्षा यहां वरदान की तरह होती रही है। मालवा का अधिकांश भाग चंबल नदी तथा इसकी शाखाओं द्वारा संचित है, पश्चिमी भाग माही नदी द्वारा संचित है। कृषि भूमि के उपजाऊ और आर्थिक रूप से समाज की समृद्धि के कारण  कारण यहां संस्कृति के विविध रंग आए। इतिहासकार डीसी गांगुली का लिखते हैं कि ‘मालवा वर्तमान में लगभग 46,760 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है। मालवा में ज्वालामुखी उद्गार से बनी काली परत होने के कारण आधारभूत रूप से उपजाऊ है। मालवा का गेंहू दुनिया भर में इस मिटटी के कारन स्वादिस्ट है ....


मा  लवा को अब ऐसा क्या हो गया कि इसकी उपजाऊ जमीन बंजर में बदल रही है। जांच कर्ताओं ने जो नमूने लिए थे उनमें रासायनिक खादों के अत्यधिक इस्तेमाल प्रमुख कारण माना गया है।  पेड़ और जंगल कटने के कारण मिट्टी में प्राकृतिक तरीके से मिलने वाले जैविक अंश खत्म हो गए। मृदा वैज्ञानिक  डॉ. आरए शर्मा का कहना है कि मालवा की मिट्टी में नाइट्रोजन और गंधक जैसे सूक्ष्म तत्वों की भारी कमी है। वैज्ञानिकों के अनुसार अनियमित फसल चक्र, रासायनिक उर्वरकों अधिक इस्तेमाल, अधिक पानी का दोहन, जिसमें ट्यूबबेल लगा कर पानी लेना प्रमुख है। किसानों द्वारा एक ही फसल को बार-बार बोना, जैविक  पदार्थों का खेतों खाद के रूप में इस्तेमाल की परंपरा का बंद होना और परंपरागत खेती से दूर होने के कारण खेतों की मिट्टी उर्वरा क्षमता घट रही है। ये हालात मालवा ही नहीं कई जगहों पर भी पैदा हो रहे हैं। लागत वसूलने के लिए किसान अत्यधिक रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का इस्तेमाल करने लगा है। ऐसे मामलों में भूमि के दूरगामी प्रभावों के बारे में उसकी जानकारी शून्य है। वह सरकार की नीतियों के तहत उर्वरकों का इस्तेमाल कर रहा है।

इं  दौर कृषि कॉलेज के डीन डॉ. अशोक कृष्ण का कहना है कि किसानों को ज्यादा से ज्यादा गोबर और अन्य जैविक पदार्थों का इस्तेमाल करते हुए मिट्टी की उर्वरता बनाए रखना आवश्यक है। इस मामले में सरकार को भी ध्यान देना चाहिए।  इस मामले में कृषि विभाग और उसके कर्मचारियों को मिल कर पूरे प्रदेश में एक सतर्कता अभियान चलाना चाहिए। किसानों को प्रशिक्षण भी इन हालातो से निबटने में मददगार होंगे।

सोमवार, सितंबर 19, 2011

आतंक से सुरक्षा देने में नाकामयाब सरकार

 

पी चिदंबरम के बयान में लाचारी झलक रही है। अभी उन्हें ये बताना भी संभव नहीं कि इस समय ये बताना संभव नहीं कि इसके पीछे किस गुट का हाथ है।



सा त  सितम्बर की सुबह दिल्ली में आतंकवादियों ने 11 लोगों को मौत के नींद सुला दिया। दिल्ली उच्च न्यायालय के गेट नम्बर पांच में हुए इस विस्फोट में 76 से अधिक लोग घायल हुए हैं। इस विस्फोट की जांच राष्टीय जांच एजेंसी (एनआईए) के सुपुर्द कर दी गई है, जिसमें बीस लोगों की टीम काम कर रही है। एक विशाल देश की राजधानी का दुर्भाग्य है कि उसमें 15 सालों में 17 धमाकों की वारदातें हुई हैं। इनमें दिल्ली करीब 128 नागरिकों खो चुकी है। 350 से अधिक लोग स्थाई रूप से विकलांग हो चुके हैं। धटना के बाद सरकार में बैठे आला मंत्रियों और प्रधानंमत्री ने एक बार फिर गृहमंत्री और प्रधानमंत्री ने अपने भावनात्मक बयानों को दोहरा दिया है। आज देश की जनता इन वारदातों के पीछे नेटवर्क पर की गई कार्यवाही का हिसाब चाहती है। कोई बताने तैयार नहीं है कि आखिर पी चिदम्बरम ने किया क्या। मुंबई के विस्फोटों के घाव ताजा ही थे कि फिर दिल्ली को जख्म उठाना पड़े।
आतंकवादियों द्वारा देश के नागरिकों को हत्या करना सरकार और उस देश की संप्रभुता और स्वतंत्रता पर हमला करना है। ये विस्फोट देश की शांति और अखंडता को बड़ी चुनौती बनते जा रहे हैं। आतंकवादियों का उद्देश्य  सिर्फ हिंसा है और यह भी साफ जाहिर है कि यह षड्यंत्र सरकार और देश के खिलाफ युद्ध है। मुंबई सहित देश में होने वाली आतंकी वारदातों के मद्दे नजर सरकार और सुरक्षा एजेंसियां लगातार दबाव में काम कर रही हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संकल्प दोहराया है कि ये आतंकवादियों का एक कायरतापूर्ण क़दम है. हम आतंकवाद के दबाव में झुकेंगे नहीं और इसका सामना करेंगे और ये एक लंबी लड़ाई है जिसमें सभी भारतीयों और सभी राजनीतिक दलों को एक साथ खड़ा होना होगा जिससे बढ़ते आतंकवाद को कुचला जा सके। प्रधानमंत्री का ये बयान क्या दोहराव नहीं लगता? वही शब्द वही धैर्य और मिलजुल कर मुकाबला करने की बातें? आखिर कब तक? हम देश को एक संगठित शक्ति और आक्रामकता का विकास कब तक कर पाएंगे? लोग पूछते हैं और बातें करते हैं कि आखिर देश में यह सब क्यों हो रहा है। किसी भी  शह पर हो लेकिन वह देश में क्यों? आज आतंकियों ने यह कह दिया कि अफजल गुरू की फांसी का फैसला रद्द करो?  यह वे क्यों कह सके। हम वोटों और राजनीतिक आत्मविश्वास के बिना कब तक जिएंगे।
 एनआईए प्रमुख एस सी सिन्हा ने मीडिया से बातचीत में कहा कि हूजी के ईमेल संदेश की सत्यता के बारे में कहना जल्दबाजी होगी, हालांकि एजेंसियां ईमेल को गंभीरता से ले रही हैं। यह सवाय यहां भी अनुत्तरित रह जाता है कि आंतक का नेटवर्क हमारी एजेंसियां क्यों नहीं पकड़ पाती हैं।
देश के प्रमुख शहरों मुंबई और दिल्ली में हो रहे धमाकों से सुरक्षा एजेंसियों ने कोई सबक नहीं लिया है। वे आतंक के नेटवर्क को पहचानने और उसे ध्वस्त करने में असफल रही हैं। बार बार हो रहे विस्फोट और हमलों से आतंक के जख्म लोगों में दहशत और असुरक्षा की भावना को स्थाई रूप से अंकित करते जा रहे हैं।  प्रधानमंत्री ने जो भावनात्मक बयान दिया है कि उससे नहीं लगता कि वे आतंक पर कोई बहुत ठोस कार्यवाही करने जा रहे हैं। हम अपने गृह मंत्री की बयानों की पड़ताल करलें। ताकि पता चल सके कि उनके विचार और योजनाएं आतंकवाद पर नर्म और लिजलिजी हैं। गृहमंत्री के बयान में भी लाचारी साफ झलक रही है । वे कहते हैं कि ‘दिल्ली आतंकवादी गुटों के निशाने पर रहा है। खुफिया एजेंसियां पुलिस से जानकारी साझा करती हैं लेकिन इस समय ये बताना संभव नहीं है कि इसके पीछे किस गुट का हाथ है।’ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृह मंत्री पी चिदंबरम ने दिल्ली उच्च न्यायालय के बाहर हुए विस्फोट को आतंकवादी घटना बताते हुए कहा है कि ‘अभी इसके लिए किसी को जिÞम्मेदार ठहराना जल्दबाज़ी होगी।’
दूसरी तरफ बांग्लादेशी आतंकी संगठन हूजी मीडिया को भेजे ईमेल में कहता है, ‘दिल्ली हाईकोर्ट में आज हुए विस्फोट की ज़िम्मेदारी हम लेते हैं...हमारी मांग है कि अफजल गुरु की मौत की सज़ा को तत्काल रद्द किया जाए।’ ये विस्फोट देश के सामने चुनौती हैं। आ  तंक से लड़ने की वर्तमान शैली पूरी तरह से अक्षम साबित हो रही है। हम वारदात को अंजाम देने वाले अपराधियों को खोजने में असमर्थ साबित हो रहे हैं। आवश्यकता है कि इन मामलों को देश के साथ युद्ध और संप्रभुता के हनन से जोड़ा जाए। सरकार के आतंक से लड़ने के कानूनी तरीकों को और आक्रामक, सटीक और व्यस्थित बनाए जाने की दरकार है।

गांधी के उपवास में मोदी की घुसपैठ


अप्रैल 2011 में क्रिकेट टीम विश्व कप लेकर आई थी तब हर खिलाड़ी को एक करोड़ रुपए की राशि दी गई थी।


ए शिया कप विजेता हॉकी खिलाड़ियों को मात्र 25-25 हजार देकर हाकी संघ ने मजाक बनाया था। बाद में हॉकी खिलाड़ियों की तीखी प्रतिक्रिया से घबड़ा कर मामला संभाल लिया गया और सम्मान की राशि बढ़ा दी गई। हॉकी खिलाड़ियों की प्रतिक्रिया सही थी। अप्रैल 2011 में क्रिकेट टीम विश्व कप लेकर आई थी तब हर खिलाड़ी को एक करोड़ रुपए की राशि दी गई थी। लगता है जेंटलमैनों के खेल क्रिकेट ने भारतीयों को पागल बना दिया था। क्रिकेट एक जमाने में अभिजात्य वर्ग का खेल होता था। गुलामी के दौर में जमींदार, बड़े कास्तकार, नवाब, दलाल, व्यापारी आदि बड़े लोग क्रिकेट खेलते थे। आजादी के बाद नजारा बदल गया। क्रिकेट गली गली में खेला जाने लगा। हर भारतीय लगान का क्रिकेटर बन गया। दिन हो या रात हमारे शहरों की गलियां क्रिकेट के बुखार से भरी रहती हैं। क्रिकेट ने महत्वपूर्ण काम किया है। उसने संपूर्ण भारत को एक सूत्र में बांध दिया है। भारतीय क्रिकेट के पीछे अपना सब कुछ छोड़ सकते हैं। भारतीयों की क्रिकेट दीवानगी के लिए एक और कहावत चली है कि क्रिकेट भारतीयों का खेल है, अंग्रेजों से केवल खेलना सीखा है। यही कारण आज बच्चा बच्चा गली गली में लगान क्रिकेट खेल रहा है।
दूसरा पहलू
क्रि क्रेट खेलने, जीतने और हारने के मामले में हमारी आदत क्रिकेट मैनिया की तरह हो चुकी है। क्रिकेट के अलावा देश को, देश के नेताओं को दूसरे खेल दिखाई ही नहीं देते। हॉकी और फुटबाल देश के किस कोने में खेले जाते हैं, खेल मंत्री और मंत्रालय के लोग ही जानते होंगे। एकमात्र क्रिकेट के कारण हमने ओलिंपिक और दूसरी विश्वस्तरीय प्रतियोगिताओं के लिए इन्हें उपेक्षित कर दिया। जिन  ओलिंपिक  खेलों में कभी हम विश्व विजेता रहे आज उनका कोई नाम नहीं लेता। भारत ने हॉकी में 1928 से 1956 तक 6 ओलिंपिक विश्वकप लगातार जीते थे। आज हॉकी के इस इतिहास का कोई नाम लेवा नहीं है। तैराकी,  ऊंचीकूद, जिमनास्टिक,दौड़ जैसे खेलों में हम गिनती लायक ओलिंपिक पदक नहीं जीत सके। खेलों के प्रति हमारे खेल मंत्रालय, संगठनों और नेताओं बनाई नीतियां अदूरदर्शी और गैरजिम्मेदार हैं। भारतीयों ने जो भी ओलिंपिक जीते हैं वे खिलाड़ियों के अपने निजी प्रयास अधिक रहे हैं। हॉकी टीम को पर्याप्त महत्व, सम्मान और प्रोत्साहन इस समय जरूरी है।

को ई भी खेल अपनी खेल भावना से महत्वपूर्ण होता है। खेलों को रुतबे का प्रतीक नहीं बनाया जा सकता। गांव कस्बों में खेल खासकर क्रिकेट खेल संगठन इसी रुतबे का नाम हैं। खेल संगठनों जिम्मेदार व्यक्ति को खेल के प्रति अपनी हार्दिकता से काम करना चाहिए। सभी खेल महत्वपूर्ण हैं और विकास के लिए सभी खेलों को खेल-भावना के अनुसार प्रोत्साहित करने की नीति का पालन जरूरी हो गया है।

बुधवार, सितंबर 14, 2011

देर से मिला न्याय प्रासांगिकता खो देता है

 
मामला राजनीतिक हो या आपराधिक न्याय में देरी
से न्याय खो जाता है।


सुप्रीम कोर्ट ने गोधरा कांड और उसके बाद भड़के दंगे और हिंसा नहीं रोकने के कथित आरोपों पर मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ कोई फैसला सुनाने से इंकार कर दिया। दंगों के 9 मामलों की जांच कर रहे तीन सदस्यीय विशेष जांच दल ने अपनी जांच रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट में पेश की थी। सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालत को ही इस मामले में फैसला दिए जाने के लिए कह दिया है कि वह नरेंद्र मोदी सहित 63 अधिकारियों के खिलाफ जांच कार्रवाई करने या नहीं करने का फैसला करे।
दस साल गुजर जाने के बाद भी अहसान जाफरी केस पर कोई फैसला नहीं हो सका है। इन दस सालों में कई लोग न्याय के लिए अर्जी लगा कर अपनी जिंदगी से चले गए। उचित न्याय के लिए वर्षों खिंचते कई केस हैं जो फैसले की मंजिल पर नहीं पहुंच सके हैं। न्याय हो और कोई भी ऐसा व्यक्ति सजा न भुगते जिसने अपराध न किया हो। न्याय की यह अवधारणा निरपराध लोगों को अनाधिकृत सजा से बचाती है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मामलों को सीमाहीन समय तक खींचा जाता रहे। सुप्रीम कोर्ट ने अगर नरेंद्र मोदी व अन्य का केस मजिस्ट्रेट को वापस किया है तो न्यायालय का विवेक है। इसमें नरेंद्र मोदी और उनके समर्थकों को खुश होने की आवश्यकता नहीं है।

न्याय त्वरित हो और इस उद्देश्य के लिए न्यायालय आवश्यक सुधारों की पहल कर सकता है।


न्या य में यह देरी क्यों? यह एक बड़ा सवाल है। इन दंगों में मरने वाले लोगों के परिजन भटक रहे हैं। न्याय के लिए वैधानिक प्रक्रियाएं इतनी जटिल और पेचीदगी भरी हो गई हैं कि लोगों को न्याय भी न्याय की तरह नहीं लगता। दस साल होने के बाद भी न्याय पालिका अब तक दंगों में हिंसा के अपराध के दोषियों और भागीदारों को देश के सामने नहीं ला सकी। न्याय का एक सिद्धांत है- सौ लोग छूट जाएं पर एक भी निरपराध को सजा न हो। नरेंद्र मोदी को इस केस की जांच में दस साल हो गए हैं। उनका केस फिर दूसरे दुष्चक्र में उलझ गया है। अब फिर मजिस्ट्रेट, हाईकोर्ट की प्रक्रियाओं से गुजरेगा। तब तक शायद नरेंद्र मोदी अपने सार्वजनिक जीवन में न रहें और जाकिया  जाफरी की स्थिति अदालत में खड़े होेने लायक भी न रहे। बोफोर्स केस भी न्याय में देरी का एक उदाहरण है। लेकिन देर का मतलब है कि हम पूरी प्रक्रिया को अपनाते हैं। जल्दबाजी में न्याय के कई पक्ष छूट सकते हैं, जिससे समुचित न्याय प्राप्त नहीं होगा। न्यायालय सभी पक्षों पर विचार करता है। हालांकि मामला कोई भी हो उसमें देरी से प्रासंगिकता खो जाती है। गुजरात केस एक उदाहरण बन रहा है जिसमें देरी के कारण न्याय  खो सकता है।

न्या य के लिए समय सीमा उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी कि जीवन मरण से जूझ रहे व्यक्ति के लिए दवाओं का समय पर मिलना। हजारों मामलों में फैसला आते आते इतनी देर हो जाती है कि वह संबंधित व्यक्ति के लिए अप्रासांगिक हो जाता है। हमें अपनी न्यायिक प्रक्रियाओं को तेज और सक्षम बनाने के प्रयास करने चाहिए। ऐसा न हो कि यह मामला फैसला विहीन ही बंद करना पड़े।

शुक्रवार, सितंबर 09, 2011

स्ट्रीट लाइट Street Light: कोचिंग संस्थान शिक्षा के नए रूप और अध्याय

स्ट्रीट लाइट Street Light: कोचिंग संस्थान शिक्षा के नए रूप और अध्याय

कोचिंग संस्थान शिक्षा के नए रूप और अध्याय

 

भोपाल में पहली आईएएस कोचिंग 1990 में खुली थी और 2009 में इसने आईएसओ 2009 प्रमाण पत्र ले लिया।

म  ध्यप्रदेश सरकार प्रदेश के कोचिंग संस्थानों को कानूनी नियमितता प्रदान करने जा रही है। इस नियमन के लिए सरकार ने एक कमेटी बना दी है। इससे प्रदेश में चल रहे कोचिंग संस्थानों को एक सुनिश्चित मार्गदर्शन मिलेगा। कोचिंग संस्थान शासन की नजरों में बहुत दिनों से थे लेकिन अब सरकार ने कोचिंग संस्थानों में चल रहे शिक्षण प्रशिक्षण को नियमों में बांधने का निश्चय किया है। कोचिंग संस्थानों ने प्रतियोगिता परीक्षाओं और अध्ययन की कठिनइयों के बीच जन्म लिया। आज यह युवाओं की सबसे पहली प्राथमिकता में शामिल हैं। कोचिंग लेकर द्वारा छात्र आत्मविश्वास तो प्राप्त करते ही हैं, संबंधित विषय में कुशलता भी तेजी से प्राप्त करते हैं।
भोपाल में पहली आइएएस कोचिंग 1990 में खुली थी और 2009 में इसने अंतरराष्ट्रीय मानकीकरण आइएसओ 2009 प्रमाणपत्र ले लिया है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि कोचिंग संस्थानों के विकास की गति कितनी तेज है। यह विकास समाज में उनके महत्व और आवश्यकताओं को भी बताता है। सरकार प्रदेश के गांव-कस्बों में फैलते कोचिंग संस्थानों का नियमन करके उन्हें एक पंजीकृत संस्था के रूप में देखना चाहती है।
को चिंग संस्थानों को विधायी बंदिशों के तहत लाए जाने का मतलब है कि वे कहीं न कहीं स्वतंत्रता का दुरुपयोग कर रहे थे। कानून भी तभी अस्तित्व में आता है जब किसी संस्थान से शोषण की शिकायतें आती हैं। कानून और नियम बना सरकार कोचिंग संस्थानों से छात्रों के शोषण से मुक्ति मुश्किल है। एक अनुमान के अनुसार 300 करोड़ रुपए से अधिक का कारोबार कर रहे कोचिंग संस्थानों का निजी एवं सरकारी कालेजों के साथ अघोषित, लचीला और मजबूत अनुबंधों का जाल फैला हुआ है। इस कानून से कोचिंग संस्थान सरकार को राजस्व अवश्य देंगे और इस राजस्व का भार संस्थान छात्रों पर ही डालेंगे। सरकार को कोचिंग संस्थानों की कुकुरमुत्ता की तरह गांवों शहरों में आई बाढ़ को हतोत्साहित करने की आवश्यकता है। इस नियमन से संस्थान अपने अनाप-शनाप शुल्क को कानूनी जामा पहना कर वसूल करेंगे। पंद्रह साल पहले कोचिंग  संस्थान में कोई बच्चा इसलिए जाता था कि वह गणित या विज्ञान में कमजोर लेकिन आज कोचिंग छात्रों के बीच स्टेटस सिंबल बन चुके हैं। कोचिंग संस्थान शिक्षा के वास्तविक उद्देश्यों को शार्टकट से पाने का माध्यम बनते जा रहे हैं।

आ  वश्यकता आविष्कार की जननी है। समाज को जिस तरह की आवश्यकताएं होगी, वैसी संस्थाएं जन्म लेंगी। प्रदेश सरकार के कानून का स्वरूप अभी पूरी तरह से सामने नहीं आया है। लेकिन समझा जा रहा है कि इससे छात्रों और अभिभावकों को कई प्रकार की राहतें मिलेंगी। आज प्रदेश में कोई यह नहीं बता सकता कि प्रदेश में कुल कितने कोचिंग संस्थान संचालित हो रहे हैं। यह अराजक स्थिति भी दूर होगी।

बुधवार, सितंबर 07, 2011

आतंक से सुरक्षा देने में नाकामयाब सरकार

 
  पी चिदंबरम के बयान में लाचारी झलक रही है। अभी उन्हें ये बताना भी संभव नहीं कि इस समय ये बताना संभव नहीं कि इसके पीछे किस गुट का हाथ है।

बुधबार की सुबह लोग अदालत में अपने काम से आए हुए थे। वे अन्दर जाने के लिए  पास बनवा रहे थे और अचानक एक विस्फोट  होता है। इस तरह  सात  सितम्बर की सुबह दिल्ली में आतंकवादियों ने 11 लोगों को मौत के नींद सुला दिया। दिल्ली उच्च न्यायालय के गेट नम्बर पांचपर  हुए इस विस्फोट में 76 से अधिक लोग घायल हुए हैं। इस विस्फोट की जांच राष्टÑीय जांच एजेंसी (एनआईए) के सुपुर्द कर दी गई है, जिसमें बीस लोगों की टीम काम कर रही है। एक विशाल देश की राजधानी का दुर्भाग्य है कि उसमें 15 सालों में 17 धमाकों की वारदातें हुई हैं। इनमें दिल्ली करीब 128 नागरिकों खो चुकी है। 350 से अधिक लोग स्थाई रूप से विकलांग हो चुके हैं। धटना के बाद सरकार में बैठे आला मंत्रियों और प्रधानंमत्री ने एक बार फिर गृहमंत्री और प्रधानमंत्री ने अपने भावनात्मक बयानों को दोहरा दिया है। आज देश की जनता इन वारदातों के पीछे नेटवर्क पर की गई कार्यवाही का हिसाब चाहती है। कोई बताने तैयार नहीं है कि आखिर पी चिदम्बरम ने किया क्या। मुंबई के विस्फोटों के घाव ताजा ही थे कि फिर दिल्ली को जख्म उठाना पड़े।
आतंकवादियों द्वारा देश के नागरिकों को हत्या करना सरकार और उस देश की संप्रभुता और स्वतंत्रता पर हमला करना है। ये विस्फोट देश की शांति और अखंडता को बड़ी चुनौती बनते जा रहे हैं। आतंकवादियों का उद्देश्य  सिर्फ हिंसा है और यह भी साफ जाहिर है कि यह षड्यंत्र सरकार और देश के खिलाफ युद्ध है। मुंबई सहित देश में होने वाली आतंकी वारदातों के मद्दे नजर सरकार और सुरक्षा एजेंसियां लगातार दबाव में काम कर रही हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संकल्प दोहराया है कि ये आतंकवादियों का एक कायरतापूर्ण क़दम है. हम आतंकवाद के दबाव में झुकेंगे नहीं और इसका सामना करेंगे और ये एक लंबी लड़ाई है जिसमें सभी भारतीयों और सभी राजनीतिक दलों को एक साथ खड़ा होना होगा जिससे बढ़ते आतंकवाद को कुचला जा सके। प्रधानमंत्री का ये बयान क्या दोहराव नहीं लगता? वही शब्द वही धैर्य और मिलजुल कर मुकाबला करने की बातें? आखिर कब तक? हम देश को एक संगठित शक्ति और आक्रामकता का विकास कब तक कर पाएंगे? लोग पूछते हैं और बातें करते हैं कि आखिर देश में यह सब क्यों हो रहा है। किसी भी  शह पर हो लेकिन वह देश में क्यों? आज आतंकियों ने यह कह दिया कि अफजल गुरू की फांसी का फैसला रद्द करो?  यह वे क्यों कह सके। हम वोटों और राजनीतिक आत्मविश्वास के बिना कब तक जिएंगे।
 एनआईए प्रमुख एस सी सिन्हा ने मीडिया से बातचीत में कहा कि हूजी के ईमेल संदेश की सत्यता के बारे में कहना जल्दबाजी होगी, हालांकि एजेंसियां ईमेल को गंभीरता से ले रही हैं। यह सवाय यहां भी अनुत्तरित रह जाता है कि आंतक का नेटवर्क हमारी एजेंसियां क्यों नहीं पकड़ पाती हैं।
देश के प्रमुख शहरों मुंबई और दिल्ली में हो रहे धमाकों से सुरक्षा एजेंसियों ने कोई सबक नहीं लिया है। वे आतंक के नेटवर्क को पहचानने और उसे ध्वस्त करने में असफल रही हैं। बार बार हो रहे विस्फोट और हमलों से आतंक के जख्म लोगों में दहशत और असुरक्षा की भावना को स्थाई रूप से अंकित करते जा रहे हैं।  प्रधानमंत्री ने जो भावनात्मक बयान दिया है कि उससे नहीं लगता कि वे आतंक पर कोई बहुत ठोस कार्यवाही करने जा रहे हैं। हम अपने गृह मंत्री की बयानों की पड़ताल करलें। ताकि पता चल सके कि उनके विचार और योजनाएं आतंकवाद पर नर्म और लिजलिजी हैं। गृहमंत्री के बयान में भी लाचारी साफ झलक रही है । वे कहते हैं कि ‘दिल्ली आतंकवादी गुटों के निशाने पर रहा है। खुफिया एजेंसियां पुलिस से जानकारी साझा करती हैं लेकिन इस समय ये बताना संभव नहीं है कि इसके पीछे किस गुट का हाथ है।’ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृह मंत्री पी चिदंबरम ने दिल्ली उच्च न्यायालय के बाहर हुए विस्फोट को आतंकवादी घटना बताते हुए कहा है कि ‘अभी इसके लिए किसी को जिÞम्मेदार ठहराना जल्दबाज़ी होगी।’
दूसरी तरफ बांग्लादेशी आतंकी संगठन हूजी मीडिया को भेजे ईमेल में कहता है, ‘दिल्ली हाईकोर्ट में आज हुए विस्फोट की ज़िम्मेदारी हम लेते हैं...हमारी मांग है कि अफजल गुरु की मौत की सज़ा को तत्काल रद्द किया जाए।’ ये विस्फोट देश के सामने चुनौती हैं। आ  तंक से लड़ने की वर्तमान शैली पूरी तरह से अक्षम साबित हो रही है। हम वारदात को अंजाम देने वाले अपराधियों को खोजने में असमर्थ साबित हो रहे हैं। आवश्यकता है कि इन मामलों को देश के साथ युद्ध और संप्रभुता के हनन से जोड़ा जाए। सरकार के आतंक से लड़ने के कानूनी तरीकों को और आक्रामक, सटीक और व्यस्थित बनाए जाने की दरकार है।

रविवार, सितंबर 04, 2011

मंदी का गुब्बारा

 

रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
भारत की आर्थिक विकास दर को लेकर दुनिया अक्सर चिंतित हो रही है। हाल ही के दिनों में इसका 8.8 से गिर कर 7.7 प्रतिशत हो गया है।  पिछले साल की इसी पहली तिमाही यानी अप्रैल मई और जून 2011 की सकल घरेलु उत्पाद (जीडीपी) वृद्वि दर में 1.1 प्रतिशत का अंतर आ गया है।  2010 में इसी समयावधि में यह दर 8.8 प्रतिशत थी। जीडीपी आधुनिक दुनिया में आर्थिक विकास का पैमाना है। इस पैमाने पर ही दुनिया के अर्थ शास्त्री किसी देश का विकास और जीवन स्तर का आकलन करते हैं। हालांकि इस तरह की विकास दरों को खारिज भी किया है। वैश्विक अर्थ व्यवस्थाओं का विकास एक दूसरे पर आश्रित है, इसलिए किसी बड़ी देश की अर्थ व्यवस्था में उतार-चढ़ाव से अन्य देश भी प्रभावित होते हैं। अमेरिकी अर्थ व्यवस्था से जुड़े देशों पर इसके प्रभाव साफ देखे गए हैं। भारत को एक प्रतिशत की सुस्ती से चिंतित होने की जगह अपनी अर्थ व्यवस्था में कृषि, घरेलू उद्योग और बचत को मजबूत करना जरूरी है। दवा उद्योग में भारत तीसरा सबसे बड़ा निर्यातक देश है। दवा कारोबार एक लाख करोड़ से ऊपर जा रहा है। कृषि उत्पादन में 3.9 प्रतिशत की बढ़ौतरी दर्ज की गई है। इसी प्रकार सेवा क्षेत्र भी इस सुस्ती से अछूता रहा है। सेवा क्षेत्र जिसमें बीमा, रियल एस्टेट, होटल, परिवहन एवं संचार शामिल हैं। इनमें वृद्धि दर 12.8 प्रतिशत रही है। गांवों में आर्थिक गतिविधियों के चलते पिछले पांच सालों में 2 करोड़ 77 लाख अतिरिक्त रोजगार सृजित किए गए हैं। रिजर्व बैंक ने आशा व्यक्त की है कि आने वाली तिमाहियों में जीडीपी 8 प्रतिशत रहेगी।
इन तीन माहों में वृद्धि दर में 1.1 प्रतिशत की गिरावट से चिंता स्वभाविक है। विनिर्माण क्षेत्र में वस्तुओं के उत्पादन में गिरावट आ रही है। 2010 की इसी तिमाही में यह वृद्धि 10.6 प्रतिशत थी जो कि इस समय घट कर 7.2 प्रतिशत रह गई है। खनन क्षेत्र में भी वृद्धि दर 1.8 प्रतिशत ही रही। 2010 में खनन क्षेत्र की वृद्धि दर 7 के आसपास थी। आर्थिक विश्लेषकों के अनुसार देश में भारी लागत वाली परियोजनाओं में विलम्ब के कारण यह गिरावट दर्ज की गई है। आटोमोटिव कलपुर्जा विनिर्माण संगठन ने गिरावट के रुझान वाले आंकड़ों पर चिंता जताई है। 2010 में यह उद्योग 34 प्रतिशत की दर से बढ़ा लेकिन 2011 की पहली तिमाही में12 प्रतिशत ही है। इससे औद्योगिक क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित हो सकता है। जनवरी से जुलाई के आंकड़ों के अनुसार चाय निर्यात में 17.8 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की है। आर्थिक सुस्ती के ये आंकड़े देश की अर्थ व्यवस्था में आने वाले निराशाजनक परिदृश्य के संकेत हैं।
बाबा रामदेव का कहना है कि यह जीडीपी का मतलब किसानों और मजदूरों के लिए कोई मायने नहीं रखता है। हमारी जीडीपी कैसे बढ़ रही है इसका एक उदाहरण है। अगर आप किसी चीज को खरीदते हैं और फिर बेचते हैं। इसमें जो मुनाफा होगा वह जीडीपी को बढ़ाता है, इसमें उत्पादन की बढौतरी नहीं होती। इसमें आपका अन्न भंडार नहीं बढ़ता। फसलों को उत्पादन नहीं बढ़ता। इस तरह के विकास की वकालत आधुनिक अर्थ शास्त्री और अमेरिकी समर्थक करते रहे हैं। धीरे धीर मंदी का यह गुब्बारा मंदी का एक चक्र लेकर आता है। क्योंकि जीडीपी निरंतर फूलने वाली चीज है। यह फूलती रहती है और एक दिन पूंजीवाद की यह प्रक्रिया दुनिया की अर्थ व्यवस्थाओं के सामने एक गुब्बारा बन कर फट जाती है। जीडीपी का यह खेल मंदी का गुब्बारे के रूप में कई देशों की हालत खराब कर देता है। अमेरिकी मंदी इसी का नतीजा है।
भारत की स्थिति अमेरिका से प्रभावित रही है। 1 प्रतिशत की गिरावट से मंदी देश के वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी निराश हो जाते हैं। उनका इस तिमाही पर उनका ब्याह कि उन्होंने भी विकास की गति को निराशजनक करार दिया है।
यह सच है कि अर्थ व्यवस्थाएं वैश्विक नेटवर्क से जुड़ चुकी हैं। अब वे एक दूसरे से प्रभावित होती हैं। वैश्विक अर्थ व्यवस्था होने के साथ हमें अपनी अर्थ व्यवस्था के फंडामेंटल्स जैसे कृषि, घरेलू बचत और देश के अंदर व्यापार को मजबूती से स्थापित करना आवश्यक है। कर्ज पर आधारित अर्थ व्यवस्थाएं जल्दी ढहती हैं। हमें आर्थिक विकास का लचीला ढांचा विकसित करने पर जोर दिया जाना चाहिए, जिसमें आर्थिक उतार-चढ़ावों को सहने की क्षमता हो। भारत की वर्तमान स्थिति इस मायने में ठीक है। यहां के लोगों की आर्थिक बचत और जोड़ कर रखने की प्रवृत्ति ने देश को मंदियों से बचाया है।