नाटक
युवा नाट्य निर्देशक सरफराज हसन द्वारा निर्देशित नाटक ‘अच्छे आदमी’ ने नाटकीयता के लिए कई नई संभावनाओं को जन्म दिया। उन्होंने प्रयोगों के खतरे उठाए। कहानी को तोड़ा मरोड़ा, गीतों को जोड़ा और एक हाउस फुल नाटक विद टिकिट के साथ किया। लेकिन क्या वे नाटक के साथ नाटक को कर पाए...
रवीन्द्र भवन में युवा सरफराज हसन द्वारा निर्देशित और राजेश जोशी द्वारा लिखा ‘अच्छे आदमी’ ने अभिनय को कुछ नए रंग देने के साथ रंगमंच को भी कुछ नए रंग देने की कोशिश की। हालांकि ये रंग इतने अधिक हो गए कि हर रंग एक दूसरे में मिल गया। खैर नाटक की कहानी एक पकौड़ी वाली बुढ़िया, एक चाय वाले और बुढ़िया की रिश्तेदार के रूप मे काम कर रही सीता और ठेकेदार के बीच घटती है। नाटक में गांव का युवक उजागिर एक खूबसूरत बहू के लिए गांव से निकलता है और उसे पकौड़ी वाली बुढ़िया के यहां सीता मिलती है। इसी तानेबाने में नाटक के दूसरे किरदारों को जगह मिलती है। सीता और उजागिर में चल रही चाय पकौड़ी चटनी अंतत: शादी में बदल जाती है। शादी के बाद उजागिर वापस अपने गांव आता है और जैसा कि गांव में होता है कि उसकी बहू कैसी है, कहां की है, क्या है छोटी छोटी गांव में चलने वाली चर्चाओं को नाटक में पर्याप्त स्पेश के साथ उठाया है। इसमें श्रुति सिंह, कृतिका, कनक आदि ने अच्छे अभिनय से इन दृश्यों को उठाया, लेकिन यहां उनके अभिनय को उत्कृष्ट नहीं कहा जा सकता। ‘गांव वाली औरतें’ बनने में अभी वे हिचक रही थी। इस हिचक को तोड़ कर जब कलात्मक अनुशासन में अभिनय होता है तब वह लाजबाव होता है।
नाटक में पहला हिस्सा अधिक हास्य और गति से चलता है। दूसरे हिस्से में कुछ मंथर हो जाता है। एक तरह की गंभीरता नाटक में आती है। अपने गांव लौटे नाटक के मुख्य किरदार उजागिर के लिए लोभ लाालच का चारा ठेकेदार से मिलने लगता है। वह पैसे में रम जाता है। इधर उजागिर की पत्नी सीता ठेकेदार के साथ राग की अभिव्यक्ति करती है। नाटक में सीता का चरित्र बहुत ही सूक्ष्म और जटिल संकेतों से मिल कर बनता है। इसे निर्देशक ने अपनी कल्पना से और अधिक उभारा है। जैसे कि जब भी उजागिर और सीता के बीच बातचीत में ठेकेदार का जिक्र आता है, संगीत हल्की अलग ट्यून अख्तियार कर लेता है। इससे नाटक एक खास किस्म की भीतर लय ताल को पाता है। इन दोनों के चरित्र में खास बात ये है कि ये कोई सच्चा नहीं है। सीता सब समझते इस राह को स्वीकार करती है तो उजागिर भी अपनी लोलुपता के चलते ठेकेदार से लाभ पाने के लिए जानते बूझते यह स्वीकार करता है। ये बातें संवादों में काव्यात्मक संकेतों से की जाती हैं। जैसे एक संवाद है कि पकौड़ी अच्छी हैं। यह उजागिर की पत्नी के लिए प्रयोग किया गया है। संवादों में इस तरह के कई प्रयोग हैं। संवादों में ही नाटक हमारे आसपास सामाजिक विद्रूपताओं में हास्य तलाशता है और धीरे धीरे अपने समाज का एक आइना बनता चला जाता है।
नाटक की शुरुआत में गांव वालों की ‘क्राउड’ के दो दृश्य कमजोर रहे। उनमें एक साथ कहानी का सब कुछ बता देने की जल्दबाजी थी। दूसरी तरफ ऐसे दृश्यों के लिए रवीन्द्र भवन का मंच उपयुक्त नहीं था। हालांकि गीत के बाद नाटक रफ्तार पकड़ लेता है। नाटक में अभिनय चायवाले के रूप में डॉ. विपिन खासे जमे। इसी तरह सीता के रूप में खुश्बू पांडे का ताजा अभिनय कुछ लोच और लचक की मांग कर रहा था। वे एक दो बार संवाद में अटक गर्इं थीं लेकिन उनके अभिनय में एक संभावना नजर आने जैसी बात तो थी। खुश्बू ने संगीत भी दिया है। कुछ गीतों को वे गा भी रही थीं। इससे उनकी छवि एक बहुमुखी प्रतिभा की बन रही थी। शराबी के रूप में रवि तिवारी दर्शकों की ओर से हिट शराबी रहे। बुढ़िया के रूप में डॉ. राजकुमार ने प्रयास तो अच्छा किया पर लोग कह रहे थे कि अरे ये तो लड़का है। राजकुमार ने अपने हाथों में पुराने कड़े पहने होते तो शायद लोग उन्हें कुछ कम सहजता से पहचान पाते। बस ड्रायवर के रूप में फैज की एक्टिंग इस नाटक में अलग ही लकीर खींच रही थी। शुरुआत में वे एक रिजर्व अभिनेता की तरह लगे थे। बाद में उन्होंने अपने आप को जस्टिफाई किया। पहलवान के रूप में अनंत सोनी ने भी अभिनय की अच्छी पहलवानी की। नाटक हाउस फुल था और लोगों को हास्य से सराबोर कर गया।
मंच पर लाइटों की बात की जाए तो पहले दूसरे दृश्य में सफेद कपड़ों पर इतनी लाइट थी कि कैमरामैनों के फोटो भी आउट हो रहे थे। इतनी चमक आंखों को भी चुभ रही थी। कहा जा सकता है कि उसने मंच के रंग अनुशासन को बहुत हद तक भंग किया। यही काम मंच पर बने सेट ने किया। यह सेट बुढ़िया के बैकग्राउंड से अधिक किसी अमीर का घर अधिक लग रहा था। गीतों को भी नहीं बख्शा जा सकता। इतने अधिक गीत वह भी भारी संगीत के कारण नाटक की मूल कथा पर बोझ बन गए महसूस हुए। जैसा कि बताया गया ये गीत यंग्स थियेटर की टीम ने लिखे हैं तो इसका मतलब यह नहीं है कि आप एक नाटक को गीता भरी कहानी बना दें। इसके अलावा नाटक की कहानी में स्वभाविक स्थितियों के हास्य की जगह अभिनय में निहित हास्य से भरा था। अगर वैसा अभिनय नहीं किया जाता तो दर्शक उस हास्य को पकड़ने में भी मुश्किल महसूस करते। एक और चीज निर्देशक को ध्यान में रखना चाहिए। प्रॉपर्टी की अधिकता में कई बार नाटक का बेसिक अभिनय छुप सा जाता है। नाटक ‘अच्छे आदमी’ सरफराज के अच्छे निर्देशन की जो विशेषता है उसमें अवश्य सफल रहा। उन्होंने पहले भी मंजी में इस तरह के सिनेमेटिक तकनीक भरे प्रयोग किए हैं। पर मंजी एक अलग बैकग्राउंड का नाटक था, वही चीज सरफराज ने यहां लागू की तो वह लाउड हो गई। हो सकता है ये सरफराज के युवा होने की मजबूरी रही हो। प्रयोग और नए करने की पहल के कुछ खतरे तो होते ही हैं।
अच्छे आदमी करीब के साल पहले खेला गया था ... ये रिपोर्ट समीक्षा पीपुल्स समाचार में छापी थी ....
युवा नाट्य निर्देशक सरफराज हसन द्वारा निर्देशित नाटक ‘अच्छे आदमी’ ने नाटकीयता के लिए कई नई संभावनाओं को जन्म दिया। उन्होंने प्रयोगों के खतरे उठाए। कहानी को तोड़ा मरोड़ा, गीतों को जोड़ा और एक हाउस फुल नाटक विद टिकिट के साथ किया। लेकिन क्या वे नाटक के साथ नाटक को कर पाए...
रवीन्द्र भवन में युवा सरफराज हसन द्वारा निर्देशित और राजेश जोशी द्वारा लिखा ‘अच्छे आदमी’ ने अभिनय को कुछ नए रंग देने के साथ रंगमंच को भी कुछ नए रंग देने की कोशिश की। हालांकि ये रंग इतने अधिक हो गए कि हर रंग एक दूसरे में मिल गया। खैर नाटक की कहानी एक पकौड़ी वाली बुढ़िया, एक चाय वाले और बुढ़िया की रिश्तेदार के रूप मे काम कर रही सीता और ठेकेदार के बीच घटती है। नाटक में गांव का युवक उजागिर एक खूबसूरत बहू के लिए गांव से निकलता है और उसे पकौड़ी वाली बुढ़िया के यहां सीता मिलती है। इसी तानेबाने में नाटक के दूसरे किरदारों को जगह मिलती है। सीता और उजागिर में चल रही चाय पकौड़ी चटनी अंतत: शादी में बदल जाती है। शादी के बाद उजागिर वापस अपने गांव आता है और जैसा कि गांव में होता है कि उसकी बहू कैसी है, कहां की है, क्या है छोटी छोटी गांव में चलने वाली चर्चाओं को नाटक में पर्याप्त स्पेश के साथ उठाया है। इसमें श्रुति सिंह, कृतिका, कनक आदि ने अच्छे अभिनय से इन दृश्यों को उठाया, लेकिन यहां उनके अभिनय को उत्कृष्ट नहीं कहा जा सकता। ‘गांव वाली औरतें’ बनने में अभी वे हिचक रही थी। इस हिचक को तोड़ कर जब कलात्मक अनुशासन में अभिनय होता है तब वह लाजबाव होता है।
नाटक में पहला हिस्सा अधिक हास्य और गति से चलता है। दूसरे हिस्से में कुछ मंथर हो जाता है। एक तरह की गंभीरता नाटक में आती है। अपने गांव लौटे नाटक के मुख्य किरदार उजागिर के लिए लोभ लाालच का चारा ठेकेदार से मिलने लगता है। वह पैसे में रम जाता है। इधर उजागिर की पत्नी सीता ठेकेदार के साथ राग की अभिव्यक्ति करती है। नाटक में सीता का चरित्र बहुत ही सूक्ष्म और जटिल संकेतों से मिल कर बनता है। इसे निर्देशक ने अपनी कल्पना से और अधिक उभारा है। जैसे कि जब भी उजागिर और सीता के बीच बातचीत में ठेकेदार का जिक्र आता है, संगीत हल्की अलग ट्यून अख्तियार कर लेता है। इससे नाटक एक खास किस्म की भीतर लय ताल को पाता है। इन दोनों के चरित्र में खास बात ये है कि ये कोई सच्चा नहीं है। सीता सब समझते इस राह को स्वीकार करती है तो उजागिर भी अपनी लोलुपता के चलते ठेकेदार से लाभ पाने के लिए जानते बूझते यह स्वीकार करता है। ये बातें संवादों में काव्यात्मक संकेतों से की जाती हैं। जैसे एक संवाद है कि पकौड़ी अच्छी हैं। यह उजागिर की पत्नी के लिए प्रयोग किया गया है। संवादों में इस तरह के कई प्रयोग हैं। संवादों में ही नाटक हमारे आसपास सामाजिक विद्रूपताओं में हास्य तलाशता है और धीरे धीरे अपने समाज का एक आइना बनता चला जाता है।
नाटक की शुरुआत में गांव वालों की ‘क्राउड’ के दो दृश्य कमजोर रहे। उनमें एक साथ कहानी का सब कुछ बता देने की जल्दबाजी थी। दूसरी तरफ ऐसे दृश्यों के लिए रवीन्द्र भवन का मंच उपयुक्त नहीं था। हालांकि गीत के बाद नाटक रफ्तार पकड़ लेता है। नाटक में अभिनय चायवाले के रूप में डॉ. विपिन खासे जमे। इसी तरह सीता के रूप में खुश्बू पांडे का ताजा अभिनय कुछ लोच और लचक की मांग कर रहा था। वे एक दो बार संवाद में अटक गर्इं थीं लेकिन उनके अभिनय में एक संभावना नजर आने जैसी बात तो थी। खुश्बू ने संगीत भी दिया है। कुछ गीतों को वे गा भी रही थीं। इससे उनकी छवि एक बहुमुखी प्रतिभा की बन रही थी। शराबी के रूप में रवि तिवारी दर्शकों की ओर से हिट शराबी रहे। बुढ़िया के रूप में डॉ. राजकुमार ने प्रयास तो अच्छा किया पर लोग कह रहे थे कि अरे ये तो लड़का है। राजकुमार ने अपने हाथों में पुराने कड़े पहने होते तो शायद लोग उन्हें कुछ कम सहजता से पहचान पाते। बस ड्रायवर के रूप में फैज की एक्टिंग इस नाटक में अलग ही लकीर खींच रही थी। शुरुआत में वे एक रिजर्व अभिनेता की तरह लगे थे। बाद में उन्होंने अपने आप को जस्टिफाई किया। पहलवान के रूप में अनंत सोनी ने भी अभिनय की अच्छी पहलवानी की। नाटक हाउस फुल था और लोगों को हास्य से सराबोर कर गया।
मंच पर लाइटों की बात की जाए तो पहले दूसरे दृश्य में सफेद कपड़ों पर इतनी लाइट थी कि कैमरामैनों के फोटो भी आउट हो रहे थे। इतनी चमक आंखों को भी चुभ रही थी। कहा जा सकता है कि उसने मंच के रंग अनुशासन को बहुत हद तक भंग किया। यही काम मंच पर बने सेट ने किया। यह सेट बुढ़िया के बैकग्राउंड से अधिक किसी अमीर का घर अधिक लग रहा था। गीतों को भी नहीं बख्शा जा सकता। इतने अधिक गीत वह भी भारी संगीत के कारण नाटक की मूल कथा पर बोझ बन गए महसूस हुए। जैसा कि बताया गया ये गीत यंग्स थियेटर की टीम ने लिखे हैं तो इसका मतलब यह नहीं है कि आप एक नाटक को गीता भरी कहानी बना दें। इसके अलावा नाटक की कहानी में स्वभाविक स्थितियों के हास्य की जगह अभिनय में निहित हास्य से भरा था। अगर वैसा अभिनय नहीं किया जाता तो दर्शक उस हास्य को पकड़ने में भी मुश्किल महसूस करते। एक और चीज निर्देशक को ध्यान में रखना चाहिए। प्रॉपर्टी की अधिकता में कई बार नाटक का बेसिक अभिनय छुप सा जाता है। नाटक ‘अच्छे आदमी’ सरफराज के अच्छे निर्देशन की जो विशेषता है उसमें अवश्य सफल रहा। उन्होंने पहले भी मंजी में इस तरह के सिनेमेटिक तकनीक भरे प्रयोग किए हैं। पर मंजी एक अलग बैकग्राउंड का नाटक था, वही चीज सरफराज ने यहां लागू की तो वह लाउड हो गई। हो सकता है ये सरफराज के युवा होने की मजबूरी रही हो। प्रयोग और नए करने की पहल के कुछ खतरे तो होते ही हैं।
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