(सतीश जायसवाल कहानीकार हैं। कोरबा में रहते हैं। ये पोस्ट उनके ब्लॉग से ली है। पीपुल्स समाचार में प्रकाशित है... )
क्या, किसी के लिये भी यह बात विश्वसनीय हो सकती है कि हिंदी के राष्ट्रीय दैनिक ‘जनसत्ता’ के प्रमुख संपादक श्री ओम थानवी अपने कान की सफाई के लिए नई दिल्ली के ‘एम्स’ को छोड़ कर कटघोरा (जिला-कोरबा, छत्तीसगढ़) में एक कान सफाई करने वाले के हत्थे चढ़ जाएंगे? लेकिन कटघोरा के व्यवहार न्यायालय परिसर में कई लोगों ने वह दृश्य देखा कि वहां घूम-घूम कर अपना ग्राहक ढूंढ रहे एक सड़क छाप कान सफाई करने वाले ने थानवी जी का कान पकड़ रखा है। देखने वालों में एक मैं भी हूं इसलिये इस बात की विश्वसनीयता बिलकुल भी संदिग्ध नहीं है। यह एक दिलचस्प प्रसंग है।
थानवी जी अपने किसी अदालती मामले में कटघोरा आए हुए थे और अपने पुकारे जाने का रास्ता देखते हुए अदालत के परिसर में पेड़ के नीचे खड़े थे। तभी, ‘कान का मैल साफ़ करने वाले’ ने ग्राहक ढूंढने की अपनी कला का प्रमाणित परिचय दिया। उसके और उसके धंधे के प्रति एक पत्रकार के पास जैसे सवाल हो सकते हैं, वो सब थानवी जी के पास थे और उनकी पत्रकारिता और उनकी हैसियत से बिलकुल अनजान उस कान सफाई करने वाले ने उनके प्रत्येक सवाल का जवाब दिया। दाम भी बताया, 10 रुपये प्रति कान। लेकिन थानवी जी अपने कान को जोखिम में डालने का साहस नहीं कर सके। और उन्होंने उसे मना कर दिया। लेकिन वह भी, हाथ आये अपने एक तगड़े ग्राहक को ऐसे ही कैसे छोड़ सकता था ? उस ने हिम्मत नहीं हारी और थानवी जी से कहा, चाहे सफाई ना कराएं लेकिन अपना कान देखने की इजाजत तो दे सकते हैं? थानवी जी ने भी कहा, देखते हैं कि क्या देखेगा? और वह इतना ही चाहता था। एक बार उनका कान उसके हाथ में आया तो वह अपने हाथ का हुनर दिखा कर ही माना। उस के पास एक ही मौका था जिसे धैर्य और पूरे आत्मविश्वास के साथ इस एक मौके को अपने हक़ में कर लिया। थानवी जी ने भी उसे 10 की जगह पूर 50 रुपये देकर उसकी चतुराई को सम्मानित किया।
चमड़े के छोटे से बैग में कुछ सुइयां, रुई के कुछ फाहे, बांस की कुछ पतली-पतली सींकें और 2-3 छोटी शीशियों में रंग-बिरंगी दवाइयां लेकर सड़कों और भीड़ वाली जगहों में घूमते हुए ऐसे ‘कान का मैल निकालने वाले’ अब शहरों में नहीं दिखते। चम्पी और चम्पी-मालिश करने वाले भी नहीं दिखते। यह एक लम्बी सूची है जिसमें हमारे देखे हुए दृश्य एक-एक करके हमारे अनुभव-संसार से लुप्त होते जा रहे हैं। एक आंख में खुर्दवीन की ऐनक लगा कर घड़ी सुधारने वाले घड़ीसाज, तालाचाबी बनाने वाले, छतरी और बिगड़ी हुई टार्च बत्तियां सुधारने वाले, पीतल के बर्तनों में कलाई करने वाले कारीगर, घोड़े के खुरों में नाल ठोकने वाले लौहार, कपड़ों में रंगाई करने वाले रंगरेज वगैरह-वगैरह। अब यह कितना विचित्र और गैर जिम्मेदाराना लगता है कि अब हम उन्हें रूमानी ‘नोस्टेल्जिया’ में जाकर याद कर रहे हैं? जबकि ये सब की सब किन्हीं ना किन्हीं सामाजिक संरचनाओं का हिस्सा रहे हैं। उन्नत कौशलों ने इन पारंपरिक कौशलों से जीवन यापन करने वाले असंगठित समूह के विशेषज्ञों, कारीगरों के लिए कोई विकल्प नहीं छोड़े। ऐसे में यह आशा करना सुखद होगा कि उनके पुनर्वास की भी कहीं चिंताएं हो रही होंगी और योजनाएं बन रही होंगी कि विकास में उनकी भी साझेदारियां निर्धारित की जा सकें। लेकिन ऐसा जरूरी तौर पर होना चाहिए था। अभी भी समय है।
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