गुरुवार, जुलाई 26, 2012

टीम अन्ना अपनी गरिमा क्यों खो रही है?


टीम अन्ना अपनी गरिमा क्यों खो रही है? यह क्यों नहीं समझ पा रही कि भारतीय जनमानस अतिवाद अमर्यादा की जगह संयम और संतुलन का हिमायती रहा है।
 दिल्ली के जंतर-मंतर पर अनिश्चित समय के लिए अनशन पर बैठी टीम अन्ना ने भ्रष्टाचार के मुद्दों पर एक बार फिर यूपीए सरकार के मंत्रियों, नेताओं और यहां तक की सद्य-शपथ ग्रहण करने वाले राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी पर भी निशाना साधा दिया। अन्ना की टीम और केजरीवाल अब जनता में अपनी अजीबो गरीब और अमर्यादित बयानों के कारण हास्यास्पद हो चुके हैं। टीम अन्ना अब सिद्ध कर रही है कि वह सिर्फ एक कागजी तूफान का नाम था। अगर अन्ना की दूसरी क्रांति इस अमर्यादा के कारण असफल होगी तो इतिहास में इसे कुछ सनकी लोगों को आंदोलन ही कहा जाएगा।
टीम ने जब ये आंदोलन प्रारंभ किया था तब यह पार्टी निरपेक्ष था लेकिन अब यह आंदोलन कांग्रसे बनाम टीम अन्ना हो गया है। टीम अन्ना के कर्ताधर्ता जल्दबाजी में, अंडबंड काम करने लगे हैं। जनता का इस आंदोलन से मोह भंग होने का कारण ही यही है कि यह सिर्फ अरविंद केजरीवाल से शुरू होता है और टीवी अखबारों में जगह पाकर खत्म होने लगा है। अब वह भी खत्म हो रहा है। टीम यह भी नहीं समझ पा रही है कि देश की जनता क्षमा और मर्यादा की हिमायती है। भ्रष्टाचार के लिए किसी पार्टी या किसी सरकार के मंत्रियों की जगह उसे देश और जनता को संबोधित होना चाहिए। आज टीम अन्ना सरकार और पार्टीगत होकर देश की जनता को प्रभावित करने की कोशिश कर रही है। अब जंतर मंतर स्थित मंच पर गांधी जी की तस्वीर लगायी गई। इसके साथ ही टीम अन्ना ने जिन केन्द्रीय नेताओं के खिलाफ स्वतंत्र जांच कराने की मांग की है उनकी तस्वीरें भी टांग दी गई हैं जिसमें राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, गृह मंत्री पी चिदंबरम भी शामिल हैं। बाद में बाद प्रणब के चित्र को कपड़े से ढक दिया गया। इस पर टीम अन्ना के सहयोगी अरविंद केजरीवाल ने सफाई दी कि प्रणब मुखर्जी अब राष्ट्रपति है जो शीर्ष संवैधानिक पद है। हम संविधान का सम्मान करते हैं, इस नाते प्रणब के   चित्र को कपड़े से ढक रहे हैं ताकि इस पद की गरिमा कम न हो। ये ड्रामा बेतुका है और इशारा करता है कि टीम अन्ना के पास बड़े आंदोलन के तत्व नहीं रहे। अब टीम अन्ना प्रतिदिन नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों का खुलासा करेगी जबकिआंदोलन एतिहासिक होना चाहिए। टीम के सदस्यों को स्मरण करना चाहिए कि वह जन आंदोलन से जुड़े हैं जिस पर देश की जनता ने अटूट विश्वास के गीत गाए थे। और वह उनसे परिवर्तन की अपेक्षाएं भी रखती है लेकिन अगर वह अपनी अहंकारी जुबान को इस प्रकार इस्तेमाल करते रहेंगे तो उनकी विश्वसनीयता में दाग भी लग सकता है। आज टीम अन्ना संसद पर कीचड़ उछालने की जिद  छोड़ देश की जनता को भ्रष्टाचारके खिलाफ खड़ा करे वरना भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन का यह सूरज अस्त होने में जरा भी देर नहीं लगेगी और उसके अलावा राजनीतिक दलों को भी चाहिए किवह संसद में फैली गंदगी को  दूर करें जिसमें कि देश की भलाई होगी और सदनकी गरिमा भी बरकरार रहेगी।
  क्षेत्रीय दलों की मानसिकता अपने आप को मजबूत करने की रही है। इनके बाजू में राजनीतिक अवसरवाद भी खूब पनपता है। नैतिकता का परिचय तो भूले से नहीं मिलता।



तमाम मतभेदों के बाद भी राजनीतिक नैतिकता को त्यागना क्षेत्रीय दलों की मूल प्रवृति में शामिल हो चुका है। जब भी और जैसे भी अवसर आए, हथियाने के लिए सदैव तत्पर। हाल ही में कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार (यूपीए)में पिछले आठ साल से सहयोगी रही राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने प्रणव मुखर्जी के रायसीना हिल में जाना पक्का होने के बाद अपनी मानसिकता का खुल कर प्रदर्शन किया। शरद पवार सरकार में शामिल  हैं लेकिन उन्होंने स्पष्ट किया कि कुछ मुद्दों पर उसके कांग्रेस के साथ मतभेद हैं। तुरत फुरत शरद पवार की मांगों पर कई तरह से विचार किया गया। नौ विधायकों के मालिक शरद पवार की नाराजगी के चलते यूपीए सरकार पर खतरा मंडराने लगा था। फिलहाल सोनिया से मुलाकात के बाद संकट कमजोर पड़ गया है।
राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाए जाने के बाद प्रणब मुखर्जी के सरकार से अलग हो जाने के बाद इस बात को लेकर बहस तेज हो गई कि सरकार में नंबर दो कौन होगा। ये बहस प्रणब मुखर्जी के इस्तीफे के बाद पहली बार हुई मंत्रिमंडल की बैठक में शरद पवार को प्रणब वाली सीट मिली लेकिन हफ्ते भार बाद मंत्रिमंडल की दूसरी बैठक में प्रणब वाली सीट पर रक्षा मंत्री और कांग्रेस नेता एके एंटनी को बिठा दिया गया। शरद पवार मानते हैं कि यूपीए में प्रणब मुखर्जी के बाद वो सबसे वरिष्ठ नेता हैं, इसलिए जो हैसियत मनमोहन सरकार में प्रणब को मिली थी, उसके पहले हकदार वह हैं। उनके सहयोगी प्रफुल्ल पटेल द्वारा इस्तीफे का तुरुप चलने से हालात बिगड़े और विवाद गरमा गया। आपसी विवाद यूपीए पर तूफान बन कर मंडराने लगा तब सोनिया गांधी और शरद पवार ने मुलाकात की और खतरे के इस तूफान को संयमित किया।
एनसीपी की मांगे सदैव कांगे्रस को कमजोर नहीं तो कदम ठिठका देने वाली रही हैं। महाराष्ट्र में भ्रष्टाचार के गर्त से बाहर निकलने की कोशिश हो या फिर अपनी बेटी सुप्रिया सुले के राजनीतिक भविष्य को सुनिश्चित करने की बात। पिछले एक हफ्ते के दौरान कांग्रेस से नाराज एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार की मांग सूची बेहद लंबी है। माना जा रहा है कि वह कांग्रेस से अपनी बेटी के लिए कैबिनेट मंत्री की कुर्सी मांग रहे हैं। इसके लिए वह ग्रामीण विकास राज्य मंत्री अगाथा का इस्तीफा भी करवाने के लिए तैयार हैं। मगर दूसरी ओर सिर्फ नौ सांसदों वाली पार्टी को तीन कैबिनेट मंत्री देने की बात कांग्रेस को पच नहीं रही है और यह किसी को भी नहीं पचेगी। कांग्रेस-एनसीपी के बीच इस दूरी का यूपीए पर असर होगा ही।
वैसे यूपीए के लिए शरद पवार भरोसेमंद साथी रहे हैं और उनकी पार्टी ने प्रत्यक्ष विदेश निवेश के मुद्दे पर सरकार का खुलकर साथ दिया है। वो आर्थिक सुधारों के पक्ष में रहे हैं और उन्होंने राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस का खुलकर साथ दिया। लेकिन इस तरह की सौदेबाजी लोकतंत्रिक मूल्यों को छिन्न भिन्न करने का ड्रोन हमला बन कर सामने आती हैं। ऐसे हालात बनने से पहले ही देश के राजनीतिक नेतृत्व को सजगता बरतना सीख लेना चाहिए।


पर्यटन पर तत्काल रोक

  न्यायालय ने माना है कि मानव ने वन्य जीवों के प्राकृतिक आवास को बरबाद किया है। यह समझने की आवश्यकता है कि इंसान का पर्यटन वन्यजीवों के आवास में क्यों हो?

इं सान ने वनों को काटा। वन्य जीवों से उनका आवास और पर्यटन छीना। अपनी शहरी आपाधापी की बोरियत का भार भी  पर्यटन करने के नाम पर जंगल  में छोड़ने लगा। अब जब न्यायालय ने न्याय दिया है तो देश भर में हड़कंप मच गया है। यह हड़कंप इसलिए मच गया कि अब कथित सभ्य समाज जंगल की सफारी नहीं कर पाएगा। यह हड़कंप इसलिए है कि होटल बंद हो जाएंगे। यह हड़कंप इसलिए नहीं है कि जंगल सुरक्षित होंगे। बाघ को कोर एरिया के रूप में उसका राज्य वापस मिलेगा? इंसान की चिंता आज भी अपने तक ही सीमित है। न्यायालय के फैसले को व्यापकता मेें देखने समझने की जरूरत है।
अब बाघ संरक्षित क्षेत्र में पर्यटन पर तत्काल रोक लगाने संबंधी उच्चतम न्यायालय के आदेश के तुरंत बाद राज्यों में बाघ संरक्षित कोर प्रक्षेत्र प्रतिबंधित कर दिए गए हैं। कोर्ट के आदेश के मद्देनजर सैलानी अब इन क्षेत्रों का लुत्फ नहीं उठा पाएंगे। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश स्वतंत्र कुमार एवं न्यायाधीश एफएम खलीफउल्ला ने अपने अंतरिम आदेश में देशभर के टाइगर रिजर्वों के कोर एरिया में संचालित पर्यटन पर तत्काल पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया है। यह अपीलीय याचिका सुप्रीम कोर्ट में मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के अंतरिम आदेश के विरुद्ध जुलाई 2011 में दायर की गई थी। याचिकाकर्ता अजय दुबे ने प्रदेश के टाइगर रिजर्वों के कोर एरिया में संचालित पर्यटन पर रोक की मांग की थी, जिसे हाईकोर्ट की युगलपीठ ने खारिज कर दिया था। लेकिन मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने प्रकरण की अगली सुनवाई तक देश के सभी टाइगर रिजर्व के कोर एरिया में पर्यटन पूर्णत: प्रतिबंधित करने को फैसला दिया है।
 स्थानीय अतिक्रमण ने वन एवं पर्यावरण का जो बंटाढार किया है उसमें जंगल का कुछ भी सुरक्षित नहीं बचा है। वन में, वन्य जीवन तो सुरक्षित होना ही चाहिए। यह प्राकृतिक अधिकार है। इंसान अपने लिए जिस  प्रकार के सुरक्षा चक्र निर्मित करता है क्या वैसे वन्य प्राणियों  के लिए नहीं होना चाहिए? सवाल एक दो दिन के पर्याटन का नहीं है, न इस बात है कि मनुष्य जंगल नहीं घूम पाएगा? सवाल है कि प्राकृतिक जीवों के आवास में मनुष्य का दखल क्यों? सुप्रीम कोर्ट ने टाइगर रिजर्व के कोर एरिया में संचालित पर्यटन पर प्रतिबंध लगाया है। विभिन्न राज्यों के वन विभाग भी देश के बाघ संरक्षण वाले सभी राज्यों में टाइगर रिजर्व के कोर एरिया में पर्यटन पर रोक लगाने के आदेश जारी कर रहा है। पर्यटकों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। टाइगर रिजर्व प्रबंधन के इस फैसले ने होटल और रिसार्ट संचालकों की नींद उड़ा दी है।
बाघों को बचाने के उपाय तेज करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया है कि बाघों के जंगल में सैरसपाटे की गतिविधियां नहीं होंगी। यह फैसला पूरे देश के लिए है। न्यायाधीशों की बेंच ने यह चेतावनी भी दी कि अदालत की कार्यवाही की अवमानना करने वाले उन राज्यों को भारी कीमत चुकानी होगी जो बाघों के जंगल को अलग नहीं करेंगे। अब हमें सबक तो सीख ही लेना चाहिए।

प्रणव मुखर्जी का मार्गदर्शन देश को निश्चय ही नई ऊंचाई देगा।

 

प्रणव मुखर्जी का राष्ट्रपति पद के लिए जीतना एक राजनीतिक रूप से सक्रिय व्यक्तित्व की जीत है। आने वाले वक्त में उनसे उम्मीदें होंगी कि वे राष्ट्रपति पद को भी एक गरिमपूर्ण सक्रियता देंगे।


प्रणव मुखर्जी देश के राष्ट्रपति बनने के लिए विजयी मत हासिल कर लिए हैं।  चुनाव आयोग द्वारा जीत की औपचारिक घोषणा के बाद वे भारतीय राष्ट्रपति के पद के लिए शपथ लेंगे।
प्रणव का जीतना इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि वे बंगाल पृष्ठभूमि से आने वाले पहले पहले राष्ट्रपति होंगे। दूसरी बड़ी बात ये है कि प्रणव दा राजनीतिक रूप से बहुत परिपक्व और कूटनीतिक रूप से एक अनुभवी राष्ट्रपति होंगे। उनकी राजनीतिक कौशल के बारे में कहा जाता रहा है कि पाकिस्तानी राजनेता उनसे मुलाकात करने से कतराते थे। क्योंकि प्रणव की तार्किकता से उनके लिए उबरना मुश्किल होता था। खैर अब यही राजनीतिक  तार्किकता से वे राष्ट्रपति पद को नए आयाम देंगे।
ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस का समर्थन मिलने के बाद मुखर्जी की जीत और पुख्ता हो गई थी। मुखर्जी को कांग्रेस नेतृत्व वाले यूपीए के अलावा समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल (सेक्युलर) का भी समर्थन मिला। इसके अलावा एनडीए के घटक- जनता दल (यूनाइटेड) और शिव सेना तथा मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) व फॉरवर्ड ब्लॉक ने भी मुखर्जी का समर्थन किया।  ममता के समर्थन के बाद  उनके लिए हार-जीत के सभी विकल्प उनकी जीत पर ही आकर ठहर गए थे। प्रणव मुखर्जी ने एनडीए उम्मीदवार पी ए संगमा को हराया है। प्रणव की जीत को कोई चमत्कार रोक नहीं सका। क्यों चमत्कार कहीं होते नहीं हैं।  संगमा चमत्कार का भ्रम था, जो अंतत: एक भ्रम ही रहा। अब राजनीतिक दलों और देश के लोगों में यह चर्चा जोरों पर है कि मुखर्जी किस तरह के राष्ट्रपति होंगे? दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने कह भी दिया है कि सालों के अपने अनुभव के कारण प्रणव मुखर्जी देश के सबसे बुद्धिमान राष्ट्रपति होंगे।
प्रणव मुखर्जी को राष्ट्रपति पद कई मायनों में नई ऊंचाइयां देना होंगी। पैंडिंग कामों को निबटाना होगा। अरसे से दया याचिकाएं लंबित पड़ी हैं। ये याचिकाएं प्रथम नागरिक के रूप में उनको चुनौती हैं। दूसरी चुनौती हैं राष्ट्रपति पद को राजनीतिक दलों का रबर स्टैंप न बनने दिया जाए। देश के राष्ट्रपति अराजनीतिक रूप से रह रहे लोगों के लिए एक प्रेरणास्रोत होता है। भारतीय राजनीतिक संसदीय व्यवस्था में राष्ट्रपति कई सांवैधानिक  मर्यादाओं से आविष्ट होता है। उसकी गरिमा होती है, राजनीतिक मार्यादाएं होती हैं उनको भी बचाए बनाए रखना प्रणव की जिम्मेदारी होगी। प्रणव अब बंगाल के नहीं पूरे देश के हैं। वे प्रथम नागरिक हैं। उनका मार्गदर्शन देश को निश्चय ही नई ऊंचाई देगा।

मंगलवार, जुलाई 24, 2012

ओ बादल ओ पानी!




मौसम पर आधारित किसानी और जीवन के लिए मौसम ही लाख तकलीफों को पैदा कर देता है। खास कर जब फसलें कम या अधिक बरसात के कारण खराब होने लगती हैं।

भारतीय किसान आज भी किसी भविष्यवाणी पर यकीन नहीं करता। उसका अनुमान और उसकी समझ ही उसके लिए महत्वपूर्ण रही है। आज कभी कभी किसान की बात सच साबित हो जाती है। तब मौसम कैसे बदलता है और कैसे उसके जीवन में पहले कहा गया कि जुलाई के पहले हफ्ते में मानसून उत्तर भारत में पहुंच जाएगा, बाद में बताया गया कि थोड़ी देर होगी और अब तो काफी देर हो गई है। मौसम विभाग वाले बताते रहे हैं कि पूरे देश में मानसून सक्रिय हो गया है और आने वाले दिनों में जमकर बारिश होगी। यानी एक और भविष्यवाणी। पता नहीं, इन पूर्वानुमानों से किसका भला होगा? इतना तो तय है कि खेती-किसानी का भला नहीं ही हो रहा है। जुलाई के तीन हफ्ते गुजर चुके हैं और किसान खरीफ की बोवनी में बहुत पिछड़ चुके हैं।
खाद्य मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार10 जुलाई तक धान की रोपाई 55.4 करोड़ हेक्टेयर में हुई है जो पिछले साल की इसी अवधि की तुलना में 16.3 फीसद कम है। मोटे अनाजों की बोवनी 21.95 लाख हेक्टेयर में हुई है जो पिछले साल से 34.6 फीसद कम है। इसी अवधि में दालों की रोपाई 14 फीसद और तिलहन की बोवनी लगभग 8 फीसद कम हुई है।
इस खतरे को कोई कैसे नजरअंदाज कर सकता है कि जब बीज डाले ही नहीं गए हैं तो वे उगेंगे कैसे? और जब बारिश है ही नहीं तो डाले गए बीज भी कैसे उगेंगे!मौसम विभाग के आकलन के मुताबिक देश भर में कोई तीस फीसद बारिश कम हुई है। बादल खाली आते हैं और लौट जाते हैं, खेत प्यासे पड़े हैं। जब बारिश दस फीसद कम हो और उसका असर देश की बीस से चालीस फीसद खेती पर पड़े तो सूखे का खतरा घोषित करना चाहिए। आज की स्थिति इससे आगे है और जुलाई की बारिश के अनुमानों ने किसानों का भरोसा छीन लिया है। मुश्किल यह है कि हम किसकी मानें- कृषिमंत्री शरद पवार की या मानसून से आते संदेशे की? पवार वर्षों से यही कह रहे हैं कि देश में खेती-किसानी अच्छी चल रही है, पैदावार बढ़ी है और हमारे गोदामों में भरे हैं। इस बार बरसात का मौसम बारिश लेकर नहीं, चिंता लेकर आया है। लेकिन शरद पवार कहते हैं कि वर्षा के लिए चिंतित होने की जरूरत नहीं है। ये जुलाई का उत्तरार्ध है। अब पानी जैसे क्षति पूर्ति करने बरस रहा है।
जुलाई मध्य तक उत्तर-पश्चिम भारत में वर्षा 40 प्रतिशत, दक्षिण में 28 प्रतिशत, मध्य भारत में 22 और पूर्वोत्तर में 13 प्रतिशत वर्षा कम हुई है। हमें ध्यान में रखना चाहिए कि देश के पूर्वोत्तर में ही खरीफ की फसल सबसे ज्यादा होती है। पंजाब में 71 और हरियाणा में 73 प्रतिशत कम बारिश हुई है, झारखंड में 31 प्रतिशत की कमी है। पूरे देश के 62 प्रतिशत इलाकों में औसत से कम बारिश हुई है। ताजा स्थिति यह है कि बारिश में कुछ सुधार हुआ है। लेकिन  किसान के शब्दों में कहें तो यह बारिश वैसी ही है जो जीने भी नहीं देगी और मरने भी नहीं देगी। हमारी खेती-किसानी की हालत की व्याख्या गांव का सीमांत किसान ही अच्छी तरह से कर सकता है।

सोमवार, जुलाई 23, 2012

भोपाल में मेहनत करती कांग्रेस


कांग्रेस ने जिस घेराव को अंजाम दिया, वह इस बात का संकेत भी है  कि कांग्रेस-कार्यकर्ताओं ने राजनीति के मैदान में मुकाबले की कुछ तो तैयारी कर ली है।



रा जनीति के धुरंधरों के हिसाब से चुनाव करीब ही आ चुके हैं। मैदानी कार्यकर्ताओं की हलचलों के साथ राजनीति से जुड़ी सत्ता की खीर में जबर्दस्त महक आने लगी है। पार्टियां तैयारी कर रही हैं। कार्यकर्ताओं का गुणा-भाग और शक्ति प्रदर्शन शुरू हो चुका है। मानसून सत्र के बाद इसमें और अधिक गर्माहट और महक बढ़ गई है। कांग्रेस ने अपने सोए हुए मैदानी सिपाहियों को जगा कर शुक्रवार को विधानसभा के घेराव के नाम पर शक्ति प्रदर्शन किया। यह शक्ति प्रदर्शन इस बात को लेकर था कि कांग्रेस के दो विधायकों की सदस्यता भारतीय जनता पार्टी ने छीन ली है। सच तो यह था कि विधायकों की बर्खास्तगी कांग्रेस के लिए मुद्दा नहीं बनता यदि कांग्रेस विधायकों की बर्खास्तगी के उत्तरार्ध पर विचार किया जाता। लेकिन भारतीय जनता पार्टी के विधायकों ने ताबड़तोड़ अंदाज में विधानसभा के गलियारे में बैठे, आसंदी पर कब्जा करने वाले विधायकों को प्रस्ताव लाकर इतनी सख्त राजनीतिक सजा दी कि वह जमीनी आंदोलन की प्रतिक्रिया में असर पैदा करने वाली घटना बन गई। 
विज्ञान का एक प्राकृतिक नियम है क्रिया के अनुरूप प्रतिक्रिया होती है। जितनी सख्त क्रिया (यहां विधायकों की सजा) तो उसकी उतनी ही सख्त प्रतिक्रिया (कांग्रेस का घेराव) होना ही था। इस कांग्रेसी क्रिया प्रतिक्रिया में चुनाव आयोग भी आ गया। उसने विधानसभा अध्यक्ष के आदेश के बाद दोनों विधायकों की सीटों को रिक्त घोषित कर दिया। मामला कांग्रेस के विधानसभा घेराव के शक्ति प्रदर्शन से अधिक अब वैधानिक फिसलन में समा गया है। सत्ता पक्ष ने विधायकों की बहाली के संकेत दिए लेकिन चुनाव आयोग के कारण यह मामला पतंग की उलझी डोर की तरह हो गया है। अब इसे सुलझाने और समाधान के लिए सिरे खोजने के प्रयास जारी हैं।
कांग्रेस ने जिस प्रकार शार्ट नोटिस पर घेराव को अंजाम दिया, वह इस बात का संकेत भी है  कि कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने राजनीति की रणनीति के मैदान में मुकाबले की कुछ तो तैयारी कर ली है। कांग्रेस के राजधानी भोपाल में दाखिले के दौरान विधानसभा का घेराव प्रमुख रहा। जनता से जुड़े मुद्दों पर कार्यकर्ता में कोई बहुत व्यापक प्रतिक्रिया नहीं थी। इसके राजनीतिक असर क्या होंगे? यह आने वाले वक्त में विश्लेषण का हिस्सा है। फिलहाल विश्राम करती हुई कांग्रेस को झंझोड़ने वाला काम भारतीय जनता पार्टी ने विधानसभा में अंजाम दे दिया है।
क्रिया की प्रतिक्रिया में एकत्रित कांग्रेसी कार्यकर्ता जनता में अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रहे हैं। इस प्रदर्शन को भाजपा के किसान महापंचायत से भी जोड़ा जा सकता है। लेकिन राजनीतिक रूप से दोनों की कोई तुलना नहीं की जा सकती। कांग्रेस को घेराव से अधिक एक सुव्यवस्थित राजनीतिक कार्यक्रम को जनता के सामने रखना चाहिए। जब तक ऐसा नहीं होता भाजपा एकमात्र विकल्प बनी रहेगी। ा

बुधवार, जुलाई 18, 2012

 
काका का चले जाना


राजेश खन्ना को असली कामयाबी 1969 में आराधना से मिली। इसके बाद लगातार 14 सुपरहिट फिल्में देकर उन्होंने हिन्दी फिल्मों के पहले सुपरस्टार का तमगा अपने नाम किया।

ए  क दिन पहले ही काका अस्पताल से घर आए थे। दो दिन घर में बिताए और फिर अमृत यात्रा पर दूर चले गए। यह सफर ऐसा है जो अपनी तरह से ही रास्ता तय करता है। दुनिया के हर सफर से ऊपर और अलहदा। राजेश खन्ना इस धरती पर 29 दिसम्बर 1942 को आए थे। अमृतसर में जन्मे राजेश को बचपन में जतिन खन्ना के नाम से जाना गया था। उनकी जिंदगी में फिल्मी सपने जल्दी ही समाहित हो गए थे। राजेश खन्ना एक टेलेंट हंट प्रतियोगिता के विजेता बन कर फिल्मों में आए थे और फिर हिंदी सिनेमा के आकाश पर चमकते ऐसे स्टार बन गए जिसकी चमक सदियों तक कायम रहने वाली है। यह टेलेंट हंट प्रतियोगिता यूनाइटेड प्रोड्यूसर्स और फिल्मफेयर ने 1965 में कराई थी, जिसमें लगभग दस हजार लोगों ने हिस्सा लिया और आखिर में इसके विजेता बने राजेश खन्ना।
जिंदगी को जिस तरह उन्होंने अपनी फिल्मों में गाया था वैसी जिंदगी को जिया भी। उनकी जिंदगी एक इंसान की जिंदगी थी जहां स्टारडम का जलवा था तो गम भी थे, शराब और टूट जाने की हद तक बेदारी भी थी। राजेश खन्ना ने 1966 में पहली बार 24 साल की उम्र में आखिरी खत नामक फिल्म में काम किया था। इसके बाद राज, बहारों के सपने, औरत के रूप जैसी कई फिल्में उन्होंने कीं। ये फिल्में उन्हें बंबई की फिल्मी दुनिया के पाठ पढ़ा रही थीं और वे लगातार सीख रहे थे। लेकिन उन्हें असली कामयाबी 1969 में आराधना से मिली। इसके बाद14 सुपरहिट फिल्में देकर उन्होंने हिन्दी फिल्मों के पहले सुपरस्टार का तमगा अपने नाम किया।
फिल्मों की इस रुपहली दुनिया ने जितना सुख और आनंद राजेश खन्ना को सुपरस्टार के रूप में दिया तो जिंदगी के उत्तरार्ध में उतना दुख भी उन्होंने भोगा। अकेलापन और शराब ही उनके जीवन पथ के साथी बन चुके थे। अक्षय ने उनके जीवन को संजोने की कोशिश की थी जिसमें वे एक दामाद की तरह सफल भी रहे थे। राजेश ने फिल्मों में जो संवाद अपनाए थे वे उनकी जिंदगी में भी रहे। ...मौत तो एक कविता है और जिंदगी लंबी नहीं, बड़ी होनी चाहिए...जैसे संवादों के जरिए दर्शकों के दिलो-दिमाग पर छा जाने वाले राजेश खन्ना ने सचमुच बड़ी जिंदगी जी। जिस दौर में उनकी लोकप्रियता चरम पर थी उस समय कहा जाता था-ऊपर आका, नीचे काका। लड़कियों के बीच तो उनकी दीवानगी का आलम यह था कि कई लड़कियों ने उनकी तस्वीर से शादी कर ली थी। ये रुपहले परदे से पैदा स्टारडम का कमाल था। राजेश खन्ना को लोग प्यार से काका कह कर पुकारते थे।
1980 के बाद राजेश खन्ना का दौर खत्म होने लगा। बाद में वह  राजनीति में आए और 1991 में वह नई दिल्ली से कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा के लिए चुने गए। लेकिन वक्त की रील नहीं रुकती। 18 जुलाई 2012 को जीवन की रील का अंतिम शिरा काका से ही नहीं हम सबके हाथों से दूर जा चुका है। काका की स्मृतियां सदियों के माथे पर सदैव लिखी रहेंगी।


क्रिकेट की बिसात पर
भारत और पाकिस्तान दुनिया के लिए दो देश हैं लेकिन उनके राजनीतिक रिश्ते घृणा और आतंक के साये में पलते रहे हैं।आज तक का इतिहास है  कि वे सदैव इसी तरह अपने रिश्तो ंको बनाए रखने के आदी हो चुके हैं।

किसी भी देश के साथ रिश्तों की सहजता उसके आपसी हित, व्यापार, राजनीतिक एवं सामाजिक-सांस्कृतिक संबंधों पर बहुत कुछ निर्भर होती है। भारत पाकिस्तान के रिश्ते एक देश के दो टुकड़ों की त्रासदी के साये में पलते हैं। दोनों देशों घृणा के बीज बोने वाले लोग हैं तो खेल और सांस्कृतिक आधारों पर रिश्तों को सहज बनाने वाले लोग भी हैं। दोनों देशों के बीच राजनीतिक प्रभाव और मतों की खींचतान से भी रिश्ते प्रभावित होते रहे हैं। सेना और आतंक के सहारे अपने हित साधने वाले तत्व भी भारत पाक के रिश्तों को सहज नहीं होने देते।  सहज और सरल पक्ष खेल और सांस्कृति का बचता है, इसे भी राजनीति के भंवर में डाल कर जहरीला बनाया जाता रहा है।
पाकिस्तान भारत के बीच बचे खुचे रिश्तों के सूत्र 26 नवंबर 2008 के मुंबई आतंकी हमले के बाद खत्म हो गए थे, अब इस रिश्ते को फिर से कायम करने शुरुआत पर कुछ लोग खुश दिख रहे हैं, तो कुछ लोग संभलकर चलने की हिदायत दे रहे हैं। चार दिन के आंतकी हमले के बाद बनी खाई में सभी रिश्तेऔंधे मुंह पड़े हुए थे। अब इस सिलसिले को फिर से शुरू करने की बात उठने पर विरोध और समर्थन के स्वर मुखर हुए हैं। भारत-पाक के विदेश सचिवों ने बातचीत में कहा था कि दोनों देशों के बीच मीडिया और स्पोर्ट्स को बढ़ावा देना चाहिए। इस मामले में मुंबई प्रेस क्लब के अध्यक्ष गुरबीर सिंह का मानना है कि मुंबई और कराची प्रेस क्लबों की पहल पर दोनों देशों के मीडिया कर्मियों एक-दूसरे के देशों में आवागमन शुरू होने से काफी भ्रम दूर हुए हैं। तो दूसरी तरफ  सुनील गावस्कर ने क्रिकेट सीरीज  का विरोध करते हुए कहा है कि पाकिस्तान ने मुंबई हमले की जांच में कोई प्रगति नहीं की है। पाकिस्तान जांच में सहयोग नहीं कर रहा है तो क्रिकेट संबंध बहाल करने की जरूरत ही क्या है?
इस मुद्दे पर शिवसेना ने आसमान सिर पर उठा लिया है। कांग्रेस में भी विभ्रम की स्थिति पैदा हो चुकी है। कांग्रेस में इस पहल का सीधा   स्वागत नहीं हुआ है। कुछ लोगों ने क्रिकेट पर प्रतिक्रिया में कहा है कि आतंकवादियों को और बुला लेते। ऐसे कथनों को अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक नजरिये से नहीं पार्टीगत फैसले से प्रेरित ही अधिक कहा जाएगा। इस मामले में देश की पार्टियों में गहरे विरोधाभास देखने मिल रहे हैं। शिवसेना का विरोध करने वाली महाराष्ट्र समाजवादी पार्टी की ओर से अबू आसिम आजमी भी इस पहल का विरोध करते हुए सवाल करते हैं कि मुंबई पर हमले के दोषी किसी देश के साथ हमें क्रिकेट क्यों खेलना चाहिए? इस तरह का सवाल वाजिब है? 
लेकिन हमें अपने हितों के साथ संघर्ष भी जारी रखने होंगे। हमें आतंकवाद के मुद्दे पर सकारात्मक तरीके से निबटना चाहिए। दोनों मुद्दों को देर तक बनाए रखने से देश के हितों को साधने की प्रक्रिया को ठेस भी पहुंच सकती है। हम अमेरिका का उदाहरण देख सकते हैं। वह आतंक और अपने हितों पर पाकिस्तान से अपना काम ले रहा है।



अमेरिका की ठगी

अमेरिका के हित ही उसका सर्वोपरि व्यापार है। अपने हर बयान में वह अपने हितों को प्राथमिकता देता है। उसके भारत से कैसे भी संबंध हों , उसका नजरिया शायद ही बदलने वाला हो। ओबामा का बयान इसकी नजीर है।

यह अच्छी बात है कि आर्थिक सुधारों पर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के उपदेश भारत सरकार को नहीं भाए हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति को भारत की तीखी प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ रहा है। ओबामा के बयान पर सरकार के ओर से कॉरपोरेट मामलों के मंत्री वीरप्पा मोइली ने भी एतराज दर्ज कराया है। उन्होंने वोडाफोन का नाम लेते हुए कहा कि एक खास अंतरराष्ट्रीय लॉबी भारत के बारे में गलत बातों को हवा देने में लगी है। वहीं, इस ममाले में बीजेपी के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा ने कहा कि अगर ओबामा का इशारा रीटेल में एफडीआई पर है, तो जरूरी नहीं कि हम भी अमेरिकियों की तरह सोचें। अमेरिकी राष्ट्रपति ने भारत के बारे में आर्थिक माहौल खराब होने वाली जो बातें कहीं हैं, उनसे कोई भी भारतीय संगठन सहमत नहीं है। ओबामा ने भारत में निवेश का माहौल पहले से खराब होने, नियमों की सख्ती बनी रहने, रिटेल और कई सेक्टरों में बहुत-सी पाबंदियों का जिक्र पीटीआई को दिए साक्षात्कार में किया है। ओबामा ने भारत के बारे में चिंता भी जता दी है। लेकिन यह चिंता कम अमेरिका को अपनी व्यापारिक कंपनियों की हालत सुधारने के प्रयास अधिक लगते हैं। ओबामा अपनी चिंता में कहते हैं कि भारत को अपने लिए रास्ता खुद तय करना है। यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि भारत तो अपना रास्ता तय कर रहा है लेकिन इससे अमेरिकी राष्ट्रपति को क्या तकलीफ हो रही है। इस साक्षात्कार में व्यक्त कथित चिंताओं का भारत द्वारा प्रतिरोध किया गया है। भारतीय नीति नियंताओं का मानना है कि अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव होने वाला है इसलिए वहां चुनाव से पहले एफडीआई, रीटेल और कई दूसरे सेक्टर की लॉबी का ओबामा पर भारी दबाव है।  इन्हीं प्रयासों के तहत विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन कोलकाता में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मुलाकात करने आ धमकती हैं। हिलेरी और ममता की बातचीत बेनतीजा रही। उसके बाद  खुद अमेरिकी राष्ट्रपति मैदान में अपने बयानों के हथियार लेकर आते हैं।
ओबामा के बयान पर सीआईआई, एसोचैम और अन्य व्यापारिक संगठनों की राय भी आई है। इन संगठनों ने कहा है कि देश  में इन्वेस्टमेंट का माहौल ठीक है। ग्लोबल मंदी के नए दौर में भारतीय अर्थव्यवस्था कई विकसित देशों के मुकाबले 6 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है।वामपंथी पार्टियों और समाजवादी पार्टी ने भी कहा है कि अमेरिका के कहने से भारतीय अर्थव्यवस्था को खोला नहीं जा सकता है।
भारत के अपने हित हैं और उसकी जनता ही उसकी प्राथमिकता है। यह शुक्र करने वाली बात है कि उदारीकरण के नाम पर सब सौपने की अपेक्षा अभी पार्टियों में लाज बची हुई है। भारत की जनता को अमेरिकी व्यापारियों के लिए चरने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता। भारत को वैश्विक अर्थ व्यवस्था में अपनी तरह की आर्थिक दुनिया का निर्माण करने की आवश्यकता है। यही भारतीय अर्थ व्यवस्था की प्राथमिकता में शामिल होना चाहिए।

सोमवार, जुलाई 09, 2012

TIME on MANMOHAN

  ‘टाइम’ की परिभाषा

टाइम पत्रिका जिस प्रकार अपनी रेटिंग्स को दर्शाती है उसका आधार क्या है? दो साल पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह देश को महाशक्ति बना रहे थे और आज वह अंडरअचीवर होकर रह गए हैं? सच क्या है?

टा इम या उस जैसी कई पत्रिकाएं पश्चिमी अमेरिकी समाज के पास हैं। वे जब तब खास तरह की रेटिंग्स की जबरिया घोषणाएं करती रहती हैं। कभी किसी को महा सांप्रदायिक घोषित करती हैं तो कभी फिर उसे उस देश का प्रधानमंत्री भी बनवाती हैं। सालों से यह खेल जारी है। विश्व मीडिया को प्रभावित करने और अपने अनुसार बनाए सच को महिमामंडित करने के इस अनोखे खेल में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लपेटे में लिया है।
भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण में अग्रणी भूमिका निभाने के लिए प्रशंसा के पात्र रह चुके प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अमेरिका की एक प्रतिष्ठित पत्रिका ने उम्मीद से कम सफल प्रधानमंत्री बताते हुए कहा कि सिंह सुधारों पर सख्ती से आगे बढ़ने के अनिच्छुक लगते हैं। टाइम पत्रिका के एशिया अंक के कवर पेज पर प्रकाशित प्रधानमंत्री की तस्वीर के साथ शीर्षक दिया गया है- उम्मीद से कम सफल भारत को चाहिये नई शुरुआत। पत्रिका ने सवाल किया है कि क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने काम में खरे उतरे हैं? पश्चिम आज भी बताता है कि कौन अपने काम में खरा उतरा है या नहीं। वे हर उस व्यक्ति को कमजोर बताते  हैं जो उनके एजेंडे को लागू नहीं करता। टाइम की रिपोर्ट में कहा गया है कि आर्थिक वृद्धि में सुस्ती, भारी वित्तीय घाटा और लगातार गिरते रुपये की चुनौतियों का सामना करने के साथ ही कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) की सरकार भ्रष्टाचार और घोटालों से घिरी हुई है और सुधारों को आगे बढ़ाने में कमजोरी दिखाने की दोषी है। अब यहां देखा जा सकता है टाइम का रुख। वह कहना चाहती है कि अमेरिकी आर्थिक नीतियों को जो प्रधानमंत्री नहीं अपनाता तो वह प्रधानमंत्री अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरता। पत्रिका आरोप लगा रही है कि देश के भीतर और बाहर के निवेशक कदम बढ़ाने से हिचकने लगे हैं। बढ़ती महंगाई और घोटाला दर घोटाला सामने आने से सरकार की साख से मतदाताओं का विश्वास उठने लगा है। अमेरिकी परिभाषा को देखें तो उसके लिए एफडीआई ही विकास का और जल्दी फैसले लेने का प्रतीक है। यह जरूरी नहीं कि वह भारत के लिए उपयुक्त हो, लेकिन टाइम का ब्रांड है जिसे अमेरिका दुनिया को बेचता है।
 पत्रिका ने बताया पिछले तीन साल के दौरान उनमें जो विश्वास था वह अब नहीं दिखाई देता। ऐसा लगता है कि अपने मंत्रियों पर उनका नियंत्रण नहीं रह गया। वित्त मंत्रालय के उन्हें मिले अस्थाई कार्यभार के बावजूद लगता है कि उदारीकरण की जिस प्रक्रिया की उन्होंने शुरुआत की थी वह उस पर आगे मजबूती के साथ नहीं बढ़ पा रहे हैं। अब उदारीकरण किसका? अमेरिकी कारपोरेट  का? प्रणब मुखर्जी जब तक ये समझे तब उन्हें वित्तमंत्री पद से हटना पड़ा।  यह दबाव की नीति है जिसमें सच के जीरे का अमेरिकी स्टाइल का बघार लगा है। टाइम हमारे देश के लिए या किसी के लिए भी कोई मानक तय नहीं कर सकती। भारतीयों को अपनी समझ पर भरोसा है और विश्वास है।

राष्ट्रपति की गरिमा
पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम जैसे किसी भी व्यक्त्वि के लिए गरिमा सबसे महत्वपूर्ण होती है। यह सच है कि कलाम ने कभी भी मर्यादाहीन बयान या राजनीतिक विवादों में खुद को नहीं सौंपा। वैज्ञानिक के साथ साथ राष्ट्रपति के रूप में कलाम की लोकप्रियता में उनका निर्विवाद रहना भी शामिल है। वे विवादों से दूर रहे हैं। उनकी छवि सकारात्मकता से परिपूर्ण और देश के युवाओं को प्रोत्साहन वाली रही है। आज उनकी स्वारोक्ति पर विवाद होना आश्चर्यजनक है। कलाम की किताब पर सबसे ज्यादा विवाद उस हिस्से पर है, जिसमें उन्होंने लिखा है कि ‘यदि 2004 में सोनिया गांधी अगर प्रधानमंत्री पद का दावा पेश करतीं, तो उनके पास उन्हें प्रधानमंत्री की शपथ दिलवाने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता।’
कलाम की इस स्वीकारोक्ति पर विवाद की बेल हरी हो रही है। सबसे पहली आलोचना जनता दल (यू) के अध्यक्ष शरद यादव ने की है-‘अगर कलाम को कुछ कहना ही था, तो उसी समय कहना चाहिए था। आठ साल बाद बयान देना ठीक नहीं है। बाल ठाकरे कहा कि कलाम सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री क्यों बनाना चाहते थे? जनता पार्टी नेता सुब्रहण्यम स्वामी का कहना है कि कलाम गलत बयानी कर रहे हैं और उन्हें उस वक्त सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने पर आपत्ति थी। स्वामी का दावा है कि कलाम ने उस वक्त सोनिया गांधी को इस आशय का पत्र भी लिखा था। बाल ठाकरे की आलोचना से सहमत या असहमत हुआ जा सकता है, स्वामी के दावों में कोई सबूत नहीं हैै। इसलिए कलाम की बात पर ही भरोसा करना होगा। हालांकि शरद यादव की बात में एक तथ्य अवश्य  है कि कलाम को उसी समय यह सब बताना चाहिए था। कलाम का स्वभाव राजनीतिक नहीं है। वे इस समय सकारात्मक राजनीति के सबसे बड़े आईकान हैं। युवा और हमारे वर्तमान राजनीतिक माहौल से चिड़े मध्यवर्गीय युवाओं की पहली पसंद हैं। गांव का पढ़ा लिखा तबका भी कलाम को पसंद करता है। कलाम भारतीय राजनीति को नए मोड़ और लोगों को नई समझ देने वाले व्यक्तित्व के रूप में भी स्थापित हैं।
कुछ और मुद्दे भी कलाम की किताब में ऐसे हैं, जिन पर शोर मचा है।   एक मुद्दा यह है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी नहीं चाहते थे कि कलाम दंगों के बाद गुजरात के दौरे पर जाएं, लेकिन कलाम ने उनकी नहीं मानी। लेकिन कलाम ने गुजरात के दौरे के बाद कोई बयान नहीं दिया, जिस पर विवाद होता।  बिहार में  राष्ट्रपति शासन लगाने से अपनी असहमति की भी उन्होंने चर्चा की है, जिस पर विवाद हो रहा है। विवाद हो रहे हैं, तो यह कोई बुरी बात नहीं है, बल्कि अपने देश में ऐसे राजनेताओं और महत्वपूर्ण लोगों की कमी है, जो गुजरे हुए वक्त की घटनाओं पर रोशनी डालना जरूरी समझते हों। भारत में जनता से वास्तविक मुद्दों दूर रखने की गोपनीयता का बुखार चढ़ा रहता है, ऐसे में अगर तथ्य सामने लाए जा रहे हैं तो अफवाहों और अटकलों को विराम लगेगा और सच को सार्वजनिक रूप से जानने में मदद मिलेगी।


पाक सरकार की पलटी

 


पाकिस्तान और भारत दो ऐसे देश हैं जिनके पास आपसी समझ की
कमी है। पाकिस्तान के पास ये कुछ ज्यादा ही है। लगभग सभी मामलों में दोनों देशों के शासकों का रवैया जनता से मजाक का रहा है।


पा किस्तान की जेल में बंद भारतीय कैदी सरबजीत सिंह को रिहा किए जाने की खबरों के कुछ ही मिनिट बाद भारत में सरबजीत के परिजन जश्न मनाने लगे। विदेश मंत्री एस एम कृष्णा ने भी पाकिस्तान को बधाई प्रेषित कर दी। खास बात ये है कि विदेश मंत्री ने यह बधाई बिना आधिकारिक  सूचना या आदेश प्राप्त किए दी थी। होना ये चाहिए था कि जब तक सरबजीत भारतीय सीमा में न आ जाता तब तक जश्न से दूर ही रहना था। मीडिया भी उतावला होकर मौखिक सूचना पर सरबजीत की रिहाई का महिमामंडन करने लगा। सरबजीत रिहा होता तो यह खुशी का अवसर था लेकिन यह भारतीयों की भावुकतापूर्ण नासमझी थी जो देर रात गए दुख में बदल गई। पाकिस्तान सरकार का आदेश भारत सरकार या विदेश मंत्रालय तक नहीं आता तब तक इसे रिहाई नहीं कहा जाना था। इससे साबित होता है कि हम आज भी पड़ोसी को नहीं समझ सके हैं और उससे कोई सबक नहीं सीख रहे हैं। यह खबर हजार बार सच होती तब भी देश को, मीडिया को आधिकारिक आदेश का इंतजार तो करना ही चाहिए था।
 इस घटनाक्रम के कुछ ही घंटे बाद पाकिस्तान ने सफाई दी कि उसने सरबजीत सिंह नहीं बल्कि एक अन्य भारतीय कैदी सुरजीत सिंह को रिहा करने के लिए कदम उठाए हैं। ‘जियो न्यूज’ पर आकर राष्ट्रपति के प्रवक्ता फरहतुल्लाह बाबर ने कहा कि मुझे लगता है कि इस सम्बंध में कुछ गलतफहमी हुई है। यह क्षमादान का मामला नहीं है और सरबजीत का भी नहीं है। खबर तत्काल भारतीय मीडिया पर भी आ गई। कहा जाने लगा कि पाकिस्तान पलट गया। बेशक पाकिस्तान पलटा होगा लेकिन हमें तो अपना विवेक नहीं खोना था। हम अच्छी तरह जानते हैं कि पाकिस्तान को मुल्ला, फौज और अमेरिका संचालित करते हैं। सरबजीत की रिहाई सेना को या मुल्ला लॉबी को पसंद नहीं आने की बात भी उठी थी। अतंत: छह घंटे बाद पाकिस्तान को पलटना पड़ा।
दूसरा पक्ष ये है कि अगर पाकिस्तान नहीं पलटा है तो यह भी आश्चर्य है कि विदेशी मामले में पाकिस्तान सरकार से इतनी लापरवाही कैसे हुई? सरकार को सुरजीत और सरबजीत के नाम को लेकर संदेह कैसे हुआ? दोनों की सजा अलग-अलग थी, फिर नाम को लेकर भ्रम कैसे हो गया? 6 घंटे के अंदर ऐसा क्या हुआ कि सरबजीत की जगह सुरजीत का नाम आ गया? अनुमान है कि सरकार दबाव में है लेकिन सरकार पर दबाव किसका है? पाकिस्तान में एक बड़ा तबका ऐसा है जो सरबजीत सिंह की रिहाई की खबर के बाद विरोध में सक्रिय हो गया था। पाकिस्तान की विपक्षी पार्टी मुस्लिम लीग नवाजÞ भी रिहाई के फैसले का विरोध कर रही थी। आखिर में वही हुआ जो नहीं होना था। सरकार को पलटना पड़ा। पाकिस्तान सरकार के दो बयानों से दोनों देशों में असमंजस की स्थिति बनी। इससे यह भी साबित होता है कि सरकारें दबाव समूहों के सामने कितनी लाचार हो सकती हैं।


एकरूप होगी न्यायिक सेवा


भारतीय न्याय व्यवस्था में यूपीएससी से जजों के चयन से प्रोफेशनजिज्म का विकास होगा और इससे कानूनी प्रक्रिया को अधिक तर्कसंगत और आम आदमी के प्रति जिम्मेदार बनाया जा सकेगा।



भो पाल में आयोजित नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के कार्यक्रम में कानून और न्याय के विभिन्न पक्षों पर नई अवधारणाएं प्रस्तुत की गर्इं। इसमें जो महत्वपूर्ण विचार सामने आया वह था जजों को भी यूपीएससी के माध्यम से चयनित किया जाएगा। संघ लोक सेवा आयोग के चेयरमैन प्रो. डीपी अग्रवाल ने इस विचार से संबंधित अवधारणा के बारे में बताया है। इससे न्याय व्यवस्था में एकरूपता आएगी और इसमें फैले भ्रष्टाचार से भी मुक्ति मिलेगी। फिलहाल यह विचार अभी प्रक्रिया का हिस्सा है लेकिन आने वाले समय में इस विचार को मूर्त रूप दिया जाना है। नेशनल लॉ इंस्टीट्यूट यूनिवर्सिटी (एनएलआईयू) में आयोजित ओरिएंटेशन प्रोग्राम में इस नई अवधारणा और अन्य कानूनी व्यवस्थाओं पर विचार विमर्श किया गया था। इस अवधारणा से संविधान के अनुरुप न्याय को सब तक पहुंचाने के विचार को बल मिलेगा। वैसे भी भारत की न्याय प्रणाली सबसे पुरानी प्रणालियों में से एक है। संविधान की प्रस्तावना भारत को ‘संप्रभुता संपन्न प्रजातांत्रिक गणराज्य’ के रूप में पारिभाषित करती है, इसमें केंद्र और राज्यों में संसदीय स्वरूप वाली संघीय शासन प्रणाली, स्वतंत्र न्यायपालिका, संरक्षित मौलिक अधिकार और राज्य के नीति निर्देशक तत्व, जिन्हें लागू करने के लिए सरकारें कानूनन बाध्य नहीं, लेकिन प्रक्रिया में शामिल हैं और यह सब राष्ट्र के प्रशासन के आधारभूत तत्व हैं। यही वह पक्ष है जिससे सदैव कानून और न्याय की अवधारणा को बल मिलता रहेगा?
किसी भी न्याय प्रक्रिया को सार्वजनिक हितों के लिए उपयुक्त बनाने के लिए आवश्यक है कि उसकी एकरुपता और व्यापकता पर विचार किया जाता रहे। कानून के क्षेत्र में विद्यार्थियों को खुद पर विश्वास तथा विषय की गहरी समझ रखना जरूरी है।  युवा वकीलों और जजों के रूप में आम लोगों को उनके कानूनी लाभ दिलाने और उनके अधिकार से अवगत कराने में सफल होंगे।
यह सच है कि न्याय की सार्थकता तभी सिद्ध होगी जब वह देश के अंतिम नागरिक को भी   उतनी ही सहजता से उपलब्ध हो जितनी कि संसाधनों से संपन्न व्यक्ति के लिए हो सकता है। इस मार्फत अगर आज की विधायी प्रक्रिया की बात करें तो हमें बहुत ही निराशाजनक उत्तर मिलेगा? चाहे वह कानूनी व्याख्यायओं का मामला हो या फिर वर्तमान में जारी न्याय व्यवस्था की प्रतीक अदालतें। इसमें सबसे अधिक दिक्कत है प्रोफेशनल तरीके और नजरिए की कमी की। आज की पेचीदा कानूनी प्रक्रिया में मानवीय पक्ष को शामिल किया जाना भी जरूरी है। मशीनी और तर्क आधारित न्याय व्यवस्था में मनुष्य को न्याय का वास्तविक लाभ मिलना संभव नहीं हो सकता। कानून की जिम्मेदारी संभालने वाले और कानून के द्वारा न्याय प्रस्तुत करने वाले युवा ही हैं जो परिवर्तन को शीघ्रता से अपना सकते हैं। न्यायाधीशों के एकरूप चयन से न्यायिक सजगता आएगी। युवा जजों और वकीलों में कानून के गहरे अध्ययन के प्रवृत्ति को बल भी मिलेगा।



बोसोन बदलेगा तकनीक

बोसोन के जो गुणधर्म हैं अगर वे वैज्ञानिकों ने नियंत्रत करना सीख
लिया तो धरती पर मानव सभ्यता तकनीक के ऐसे दौर में चली जाएगी जिसकी हम आजतक कल्पना भी नहीं कर सके हैं।



हि ग्स बोसान मिल ही गया जिनेवा में भौतिक वैज्ञानिकों ने बुधवार 4 जुलाई 2012 को एक प्रेस कांफ्रेंस में दावा किया कि उन्हें प्रयोग के दौरान ये कण मिला है, जिसके गुणधर्म हिग्स बोसोन से मिलते हैं। अब असली सवाल है कि बोसोन को उसके अस्थिर गुणधर्म के कारण नियंत्रित करना मुश्किल है। बोसोन ऐसा आधारभूत कण है जो अपनी प्रकृति और रूप पल-पल बदलता है। अब वैज्ञानिक इस नए कण से संबंधित आंकड़ों के विश्लेषण में जुटे हैं। हालांकि इसके कई गुण हिग्स बोसोन सिद्धांत से मेल नहीं खाते हैं। फिर भी इसे ब्रह्मांड के जन्म के  रहस्य खोलने की दिशा में एक महत्वपूर्ण  कदम  माना जा रहा है।
बोसोन को 6000 वैज्ञानिकों की टीम ने 10 अरब डॉलर से ज्यादा खर्च करके जिस कण की खोज की है, वह संसार के बनने और चलने का आधार है। इस एक कण ने ब्रह्मांड के हजारों कण और पदार्थों को बांध रखा है, मगर आज तक ईश्वर की तरह किसी ने इसे देखा नहीं है। इसी कारण इस कण को गॉड पार्टिकल कहा जा रहा है।  इस कण के दिखते ही सृष्टि के बनने और चलने की कहानी की ओर वैज्ञानिक कदम बढ़ा सकेंगे और  जीवन और ब्रह्मांड की कई अनसुलझी गुत्थियां भी सुलझ जाएंगी।
गॉड पार्टिकल सामने आने तक वैज्ञानिक उपलब्धियों के हिसाब से 2011 बहुत महत्वपूर्ण साबित हुआ। पार्टिकल फिजिक्स, एस्ट्रोनॉमी और जीव-विज्ञान के क्षेत्र में नई खोजों ने हमें सबसे ज्यादा चौंकाया। वैज्ञानिकों द्वारा एक अन्य प्रयोग में यह भी साबित करने की कोशिश की कि न्यूट्रिनो कणों की रफ्तार प्रकाश से भी ज्यादा है। यह  खोज अल्बर्ट आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत के एकदम विपरीत है, जो यह कहता है कि प्रकाश से ज्यादा तेज कुछ नहीं। अगर यह खोज पूरी तरह से स्थापित हो जाती है, तो हमें फिजिक्स की किताबें फिर से लिखनी पड़ेंगी।
कण का ‘बोसोन’ नाम भारतीय वैज्ञानिक सत्येंद्रनाथ बोस के नाम से ही लिया गया है। यह भारत के लिए गौरव की बात है। भारतीय वैज्ञानिक सत्येंद्रनाथ बोस का जन्म 1 जनवरी, 1894 को कलकत्ता में हुआ था। उन्होंने आंइस्टीन के साथ मिलकर एक फार्मूला पेश किया था, जिससे खास तरह के कणों का गुण पता चलता है। ऐसे कण बोसोन कहलाते हैं। ब्रह्मांड की हर वस्तु तारा, ग्रह, उपग्रह व जीव जगत पदार्थ या मैटर से बना है। मैटर का निर्माण अणु-परमाणु से हुआ है। जबकि मास या द्रव्यमान वह भौतिक गुण है, जिनसे इन कणों को ठोस रूप मिलता है। अगर द्रव्यमान नहीं है तो कण रोशनी की रफ्तार से भगेगा, दूसरे कणों के साथ मिलकर संघनित होने की संभावना भी नहीं बनती। यही द्रव्यमान जब ग्रेविटी से गुजरता है तो भार कहा जाता है। लेकिन भार द्रव्यमान नहीं होता, क्योंकि ग्रेविटी कम या ज्यादा होने पर भार बदल जाता है। वहीं द्रव्यमान एक जैसा रहता है। बोसोन इसी गुण का प्रतिनिधित्व करता है। यही गुण मानव सभ्यता के वैज्ञानिक विकास के नए आयाम प्रस्तुत करेगा।
by
Ravindra Swapnil Prajapati

बुधवार, जून 20, 2012






 


राजनीति के राष्ट्रपति

शिवसेना ने अब प्रणव मुखर्जी का समर्थन कर दिया है।यह समर्थन नीति और विचारों के आधार पर नहीं, अवसरवाद और राजनीतिक नफे नुकसान के गणित पर आधारित है।


शि वसेना ने अपना पाला बदल लिया है। वैचारिक असहमतियों और विरोधों को राजनीतिक अवसरवाद किस प्रकार अलग रख देता है, यह शिवसेना के उदाहरण से साफ हो जाता है। भाजपा की वैचारिक सहयोगी शिवसेना की इस पलटी से देश का राजनीतिक विश्लेषण करने वाला वर्ग चकित है। एक प्रकार से सभी क्षेत्रीय दलों का कुछ ऐसा ही रुझान होता है। वे अपने अस्तित्व के लिए अवसरवाद के टट्टू पर जब तब सवार हो जाते हैं। चाहे वह राष्ट्रपति चुनाव हो या कोई दूसरा।
राष्ट्रपति चुनाव को लेकर एनडीए में असमंजस की स्थिति अभी भी बनी है, लेकिन उसके घटक दल शिवसेना ने अपना रुख जता दिया है। शिवसेना पार्टी राष्ट्रपति चुनाव में यूपीए के उम्मीदवार प्रणव मुखर्जी का समर्थन करेगी।   अपनी वैचारिक छवि के मुखौटे को एक तरफ रख दिया है। शिवसेना ने अपना रुख पहले साफ नहीं किया था। उसने अपना रुख उस वक्त साफ किया जब मुखर्जी ने पार्टी प्रमुख बाल ठाकरे और उनके बेटे उद्धव ठाकरे से बातचीत की। दूसरी तरफ यह भी कहा जा रहा है कि भाजपा की वैचारिक सहयोगी शिवसेना ने राष्ट्रपति चुनाव मेें एनडीए द्वारा अपना उम्मीदवार नहीं चुने जाने पर भी निराशा जताई है। शिवसेना की निराशा जायज भी है। वह क्षेत्रीय दल होने के नाते सर्वप्रथम अपने हितों को प्राथमिकता देती है। शिवसेना की यह निराशा इसलिए बढ़ रही थी कि राष्ट्रपति का नाम तय नहीं होने से अपने रिश्तों को लेकर कोई राजनीतिक मोलभाव नहीं कर पा रही थी। 2007 के राष्ट्रपति चुनाव में भी शिवसेना ने एनडीए के उम्मीदवार भैरों सिंह शेखावत का समर्थन नहीं किया था। तब पार्टी ने यूपीए उम्मीदवार प्रतिभा पाटिल का समर्थन किया था क्योंकि वह महाराष्ट्र की हैं।
दूसरी तरफ भाजपा कोर समूह की बैठक में संगमा का समर्थन करने की संभावना बनी है। राष्ट्रपति पद की दौड़ में ए.पी.जे अब्दुल कलाम के शामिल होने से इनकार किए जाने के बाद भाजपा के कोर ग्रुप की बैठक में संगमा के नाम पर विचार किया गया। इस बैठक में यूपीए उम्मीदवार प्रणव मुखर्जी का विरोध नहीं करने और जेडीयू के रुख समेत पार्टी की रणनीति पर भी बातचीत की गई। लेकिन बीजेपी की यह कसरत कमजोर संकल्प के कारण देखने दिखाने भर की साबित हो रही है। पूरे घटनाक्रम को देखें तो भाजपा फैसले न ले पाने वाली पार्टी बनती लग रही है।
भाजपा की दूसरी दिक्कत 2014 के लोकसभा चुनावों को देखते हुए है। वह एआईडीएमके और बीजेडी जैसे दलों को अपने साथ लाने की संभावना को नजर में रखते हुए राष्ट्रपति चुनाव में मुकाबला होना चाहिए। कलाम दौड़ से बाहर हो चुके हैं।  पूर्व लोकसभा अध्यक्ष पी.ए. संगमा को समर्थन दिए जाने की संभावना है। यह संभावना तभी कारगर होगी जब भारतीय जनता पार्टी अपने चरित्र को एक स्थिरता दे। फिलहाल भाजपा इतने जोड़-घटाने में उलझी है कि उत्तर लिखने से पहले ही उसके पेपर का समय पूरा हो जाएगा।




बेलगाम ताकत के दुख


पुलिस जैसी ताकतवर संस्था जब अनियंत्रित और विवेकहीन हो जाती है तो वह अपनों को मारने लगती है। राजनीतिक कार्यकता और समाज सेवक की हत्या इसका उदाहरण बन कर सामने आई है।


पुलिस द्वारा नरसिंहपुर के एक गांव में  समाजसेवी की हत्या कर दी गई। यह घटना पुसिल के बेलगाम होने के कई उदाहरणों में से एक है। कहीं पुलिस ने शांतिपूर्ण किसानों पर गोलियां बरसार्इं हैं तो कहीं संवेदनशील प्रदर्शनों को असंवेदनशील नजरिये से निबटने की कोशिश में उसे हिंसक बना दिया है। यदि इस तरह की समस्याओं और घटनाओं को समाधानों की ओर गंभीरता से विचार करें तो, यह मामला सीधे न तो राजनीतिक कहा जा सकता है और न ही गैर राजनीतिक। मध्यप्रदेश में पुलिस द्वारा प्रताड़ना और गोली से मृत्यू होने की घटनाओं की कई शिकायतें हैं। जनसुनवाई और मानवअधिकार के आंकड़ों में सबसे अधिक शिकायत पुसिल प्रताड़ना की होती हैं। ये प्रताड़नाएं बड़ कर जनता की मौत का पैगाम भी बन जाती हैं। यह समस्या सभी राज्यों की पुलिस की है। लगभग सभी राज्यों में पुलिस द्वारा जनता के मौत के आंकड़ों में बढ़ोतरी हुई है।
पुलिस के बेलगाम होने, असंवेनशील होने और विवेकपूर्ण तरीकों को न अपनाए जाने के पीछे कुछ न कुछ कारण रहे होते हैं। स्थानीय राजनीतिक दबाव और संरक्षण इसमें प्रमुख हैं। दूसरे कारणों पर गौर करें तो  पुलिस को अच्छा प्रशिक्षण न मिलना भी है। पुलिस अधिकारी और पुलिस कर्मी पुरानी मानसिकता से ग्रस्त हैं। वे समझते हैं कि वे जनता को नियंत्रित करने, उसे सबक सिखाने के लिए तैनात किए गए हैं। उनमें जिम्मेदारी की भावना नहीं है कि वे जनता के ही प्रहरी हैं।  ह्यूमन राइट्स वॉच के एशिया क्षेत्र निदेशक ब्रैड एडम्स कहते हैं, ‘भारत तेजÞी से आधुनिक हो रहा है लेकिन पुलिस अभी भी पुराने तरीकों से काम करती है। वो गालियों और धमकी से काम चलाते हैं।
अब समय आ गया है कि सरकार बात करना बंद करे और पुलिस प्रणाली में सुधार किया जाए।’ दिल्ली के पूर्व आयुक्त अरूण भगत का कहना है कि  ‘जो ऊपर के रैंक पर हैं उनका भविष्य बेहतर है लेकिन जो कांस्टेबल है हेड कांस्टेबल है   उसका फ्रस्ट्रेशन तो देखिए। उससे गÞलतियां होगीं ही। इसे बदलने की जÞरुरत है।’रिपोर्ट के अनुसार कई पुलिसकर्मियों ने बातचीत के दौरान माना कि वो आम तौर पर गिरफ्Þतार लोगों को प्रताड़ित करते हैं। कई पुलिसकर्मियों का कहना था कि वो कÞानून की सीमाएं जानते हैं लेकिन वो मानते हैं कि अवैध रूप से हिरासत में किसी को रखना और प्रताड़ित करना जÞरूरी होता है। रिपोर्ट का कहना है कि जब तक पुलिसकर्मियों को चाहे वो किसी भी पद पर हों, मानवाधिकार उल्लंघन के लिए सजÞा नहीं दी जाएगी तब तक पुलिस कभी भी जिÞम्मेदार नहीं हो सकती है।
इसमें राज्यों की पुलिस की असफलताओं का भी जिÞक्र है। रिपोर्ट के अनुसार पुलिसवाले कÞानून की परवाह नहीं करते, पुलिसकर्मियों की संख्या कम है और उनके प्रोफेशनल मानदंड भी अच्छे नहीं हैं। पुलिसकर्मी कई मौकों पर लोगों की उम्मीदों पर पूरे नहीं उतरते हैं। पुलिस सुधार इसलिए जरूरी हैं क्यो कि जनता बदल रही है। समाज बदल रहा है।

ravindra swapnil prajapati

गुरुवार, जून 14, 2012

मध्यप्रदेश में मनरेगा, सच के सामने चिदंबरम , जोशी मोदी और भाजपा

 
 मध्यप्रदेश में मनरेगा


किसी राष्ट्रीय कल्याणकारी योजना को सफल बनाना और उसके लाभ जनता तक पहुंचाना सरकारों की जिम्मेदारी है। मनरेगा के क्रियान्वयन में मध्यप्रदेश राज्यों में तीसरे क्रम पर आ गया है।


म हात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) एक व्यापक ग्रामीण समाज के लिए वरदान साबित हुई है। बेशक इसमें भ्रष्टाचार के मामले भी सामने आते रहे हैं इसके बाद भी उसने गांवों में रोजगार देकर  52 लाख परिवारों को लाभान्वित किया है। मनरेगा के द्वारा ग्रामीण मजदूर और खेतीहर मजदूर किसानों के लिए रोजगार के अवसरों को गारंटी के साथ उपलब्ध कराना रहा है। इस योजना में 2011-12 में ग्रामीण अंचलों में जरूरतमंदों को रोजगार उपलब्ध करवाने के लिए राशि खर्च करने के क्रम में मध्यप्रदेश देश में तीसरे स्थान पर रहा है। प्रदेश में इस अवधि में 3,520 करोड़ रुपये रोजगार देने वाली योजनाओं पर खर्च किए गए हैं और 1797 लाख मानव दिवसों का रोजगार उपलब्ध करवाया गया है। इस दौरान 2 लाख 44 हजार ग्रामीण परिवारों को 100 दिवस का रोजगार दिया गया है। देश के अन्य राज्य राजस्थान, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और बिहार राशि खर्च करने के मामले में मध्यप्रदेश से पीछे रहे हैं। मनरेगा में देश भर का बजट 40 हजार करोड़ रुपए रहा है। मध्यप्रदेश ने अपने हिस्से का बजट समयानुसार खर्च कर यह साबित किया है कि वह राष्ट्रीय योजनाओं के क्रियान्वयन में भी राज्यों में शीर्ष पर है।
प्रदेश में मनरेगा के सुचारु क्रियान्वयन के लिये कई उल्लेखनीय प्रयास हुए हैं। शिकायत निवारण नियम तैयार किए गए हैं और सामाजिक अंकेक्षण पर व्यापक जोर दिया जा रहा है। निर्माण कार्यों की गुणवत्ता और समयावधि में निर्माण पूरे करने के मकÞसद से 1291 संविदा उप यंत्रियों की भर्ती की कार्रवाई अंतिम चरण में है। मनरेगा में प्रत्येक ग्राम-पंचायत में ग्राम रोजगार सहायकों की नियुक्ति ग्राम-पंचायतों द्वारा करने का निर्णय लिया गया है। इन ग्राम रोजगार सहायकों को लैपटॉप तथा कम्प्यूटर भी उपलब्ध करवाए जा रहे हैं। इस व्यवस्था से मनरेगा के कार्यों के नियंत्रण तथा बजट व्यवस्था को सुचारु बनाने में आसानी होगी।
मनरेगा के तहत अब तक बुनियादी विकास कार्यों और ग्रामीणों की बेहतरी के लिए सबसे अच्छी योजना रही है। मध्यपदेश में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के जरिये शुरुआत से अब तक विकास कार्यों और ग्रामीणों की बेहतरी के लिए लगभग 18 हजार करोड़ राशि खर्च की जा चुकी है। इससे 9 लाख 78 हजार से अधिक कार्य हुए हैं। लेकिन मनरेगा में भी धन के दुरुपयोग के मामले आए हैं। प्रदेश सरकार ने भ्रष्टाचार के मामलों को सख्ती से रोका भी है। यही कारण है कि मनरेगा के क्रियान्वयन में लापरवाही और गड़बड़ी के मामलों में प्रदेश में अब तक 2,143 शासकीय कर्मचारियों-अधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाई की गई है। इसके बावजूद, योजना के लाभों को और अधिक सटीक तरीके से हितग्राहियों तक पहुंचाने की आवश्यकता है। किसी भी बड़ी योजना में उत्कृष्ट परिणामों के लिए निरीक्षण एवं अवलोकन की निरंतरता बनी रहनी चाहिए।

सच के सामने चिदंबरम


मामला खत्म करने के लिए दायर पी चिदंबरम की याचिका को निचली अदालत ने 4 अगस्त 2011 को खारिज कर दिया था, अब हाईकोर्ट ने भी केस चलते रहने का फैसला दिया है।


पी चिदम्बरम की दिक्कतें कम या अधिक होने से इस केस का कोई वास्ता नहीं है। जैसा कि मीडिया में कहा जा रहा है कि यह सरकार और चिदम्बरम के लिए बड़ा झटका है। क्यों है यह झटका? जो सच रहा है इस केस में अदालत उसके लिए ही तो सामने लाने की कोशिश कर रही है। वास्ता सरकार को या गृहमंत्री को झटके का नहीं है, इसका वास्ता सच के सामने आने का है। चिंदबरम ने चुनावी परिणामो ंको कैसे प्रभावित किया था और यदि यह सच साबित होता है तो फिर चिदम्बरम सजा भुगतेंगे। यह न झटका है और न कोई अनोखी बात। अपराध सिद्ध होने पर आप अपराध की सजा हासिल करेंगे। इस मामले में चिदम्बरम की याचिका पर अदालत का यह फैसला मायने रखता है। मद्रास हाई कोर्ट की मदुरै बेंच ने गृहमंत्री पी. चिदंबरम के निर्वाचन विवाद में उनके खिलाफ केस जारी रखने का आदेश दिया है। कोर्ट ने कहा कि चिदंबरम के खिलाफ इस मामले में पर्याप्त सबूत हैं। चिदंबरम ने दलील दी थी कि कन्नपन की याचिका में कई खामियां हैं, लिहाजा इसे खारिज किया जाए। मामला 2009 के शिवगंगा लोकसभा चुनावों में मतगणना के दौरान चिदंबरम के विरोधी प्रत्यासी राजा कन्नपन अपने नजदीकी उम्मीदवार चिदंबरम पर बढ़त बनाए हुए थे। लेकिन आखिर में कन्नपन 3,354 वोटों से हार गए थे।  कन्नपन ने 25 जून 2009 को चिदंबरम की जीत को मद्रास हाईकोर्ट में चुनौती दी।  कन्नपन ने आरोप लगया कि चुनाव में वह जीते थे, लेकिन डाटा एंट्री आॅपरेटर ने गड़बड़ी कर उनको मिले वोट चिदंबरम के खाते में डाल दिए थे। सवाल ये उठता है कि ये आरोप सही हो जाते हैं तो चिदंबरम के राजनीतिक व्यक्त्वि का कितना हास होगा? देश के लोकतांत्रिक राजनीतिक माहौल को कितना आघात लगेगा? चिदंबरम जब एयरसेल मैक्सिस डील पर उठे विवाद में भावनात्मक अपील करते हैं कि कोई चाहे तो मेरे सीने में खंजर मार दे लेकिन मेरी ईमानदारी पर शक न करे। तो यह उनकी प्रतिबद्ध   ईमानदारी का सबब बन जाता है, लेकिन अदालत के फैसले के बाद उनकी करनी, नीति और नीयत के साथ-साथ उनकी संसद सदस्यता भी सवालों के घेरे में आ  रही है।
चिदंबरम का यह मामला यूपीए सरकार की प्रतिष्ठा का मामला भी बनता जा रहा है। चिदंबरम सरकार में गृहमंत्री हैं और निश्चय ही विपक्ष इस मामले को सरकार की प्रतिष्ठा से जोड़ेगा। ऐसा लगता है कि सरकार में सख्त फैसले लेने और उन पर अमल करने की नैतिक साहस की भारी कमी है। जो चल रहा है चलने दो की स्थिति दिखाई देती है। प्रधानमंत्री के ईमानदार होने के बाद भी, उन्हें अपने फैसलों के लिए जिम्मेदार होना ही होगा। समय पर फैसले न लेना उतना ही घातक है जितना कि फैसले ही न लेना। सरकार इस स्थिति  में कोई अंतर नहीं कर पा रही है। ऐसा लगता है कि कार्यपालिका ने देश में सब कुछ अदालतों के भरोसे छोड़ दिया है। आगे जो भी होगा सबूतों के आधार पर अदालत के फैसले से सामने आएगा। फिलहाल अदालत के फैसले ने चिदम्बरम को शक के घेरे से बाहर नहीं किया है।

जोशी मोदी और भाजपा


भारतीय जनता पार्टी में कमजोर केंद्रीय नेतृत्व का अभाव झलकने लगा है। मोदी और जोशी मामला हदें पार कर चुका है और यह पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र का गला घोटने जैसा है।


 शुक्रवार को घटनाक्रम बहुत तेजी से घटा। भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय  कार्यकारिणी से संजय जोशी को इस्तीफा देने के लिए मजबूर कर चुके मोदी ने उन्हें बीजेपी छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया।  पार्टी के अनुसार संजय जोशी ने पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी को चिट्ठी लिखकर पार्टी के सभी दायित्वों से मुक्त करने का आग्रह किया था, जिसे पार्टी ने स्वीकार कर लिया  है। इसके कुछ ही देर बाद मीडिया में पार्टी की ओर से आधिकारिक बयान भी जारी कर दिया गया।
संजय जोशी ने नरेंद्र मोदी की वजह से पार्टी छोड़ने का फैसला किया। मोदी ने भी पार्टी छोड़ने की धमकी दी थी।  नितिन गडकरी मामले को राष्ट्रीय स्तर की कुशलता से सुलझा नहीं पाए। उन्होंने किसी बड़ी पार्टी के केंद्रीय अधिकारी होने के नाते अनुशासन को भी नहीं बनाए रख पा रहे हैं। ऐसा लगता है कि भारतीय जनता पार्टी में भीतरी तानाशाही का जन्म गुजरात से हो गया है। हालांकि जोशी ने कहा कि वह नहीं चाहते कि पार्टी में उनकी वजह से कोई समस्या पैदा हो। लेकिन समस्या तो अब शुरु हुई है।  भाजपा में मोदी युग उसके राजनीतिक और वैचारिक विघटन के साथ अपनी शुरुआत कर चुका है।
जोशी और मोदी की ये दुश्मनी बीस साल पुरानी है। मोदी के आने से पहले केशुभाई के साथ उस समय चुनावों में संजय जोशी ही हारे थे। संजय जोशी की  पार्टी में वैचारिक और संघ कार्यकर्ताओं में तो पकड़ है लेकि  जनता का साथ उन्हें नहीं मिलता रहा है। केशुभाई, वाघेला, सुरेश महेता, आडवाणी, बाजपेयी, सुषमा, जेटली, वसुंधरा, जेठमलानी सब ने संजय जोशी को गुजरात में साथ दिया था तबभी और वह चुनाव भाजपा हार गई थी। जब मोदी ने कमान संभाली तो भाजपा चुनाव जीती थी।  उत्तर प्रदेश 2012 के चुनावों में मोदी को कमान न दे कर फिर संजय जोशी को कमान दी और भाजपा फिर हारी।  यही कारण है कि संजय को उनकी मांद संघ में ही पहुंचा दिया गया है।   जोशी के साथ मोदी ने हर लड़ाई में जीत हासिल कर ली है। लेकिन मोदी जिस तरह अपने राजनीतिक अभियान में आगे बढ़ रहे हैं क्या वे यह भी देख रहे हैं कि देश की जनता उनको कैसे देख रही है।
आखिर पार्टी के अंदर का लोकतंत्र खत्म किया जा सकता है तो देश के लोकतंत्र को भी मोदी खतरनाक हो सकते हैं? इसका सबूत है। बिहार के उपमुख्यमंत्री और बीजेपी नेता सुशील मोदी ने इशारों-इशारों में नरेंद्र मोदी पर हमला किया है। सुशील मोदी ने कहा कि कोई भी नेता पार्टी से बड़ा नहीं हो सकता। यह भी कहा कि जिस तरह से संजय जोशी को कार्यकारिणी से इस्तीफा दिलवाया गया वह ठीक नहीं है। सुशील मोदी ने कहा कि बीजेपी एक लोकतांत्रिक पार्टी है और ऐसे में किसी को ये कोशिश नहीं करनी चाहिए कि वह अपनी बात पार्टी पर थोप दे।  पार्टी के लिए जोशी की इस ‘कुर्बानी’ से साफ हो गया है कि से बीजेपी का बवाल थमने के बजाय और बढ़ेगा।
                                                                                                             Ravindra swapnil prajapti


सोमवार, जून 04, 2012

बंद के बहाने से


बंद विरोध प्रदर्शन का विपक्षी नजरिया है। लेकिन जब यह राजनीतिक हंगामा करके झंडा फहराने तक सीमित हो जाता है तो इसके राजनीतिक असर भी बहुत कम हो जाते हैं।



पेट्रोल की कीमतों में हुए इजाफे के खिलाफ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) और वामदलों की ओर से आयोजित बंद को जनता का समर्थन मिला। बंद की इस पूरी प्रक्रिया में पेट्रोल की बढ़ती कीमतें और महंगाई के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार माना जा रहा है। पेट्रोल-डीजल की कीमतें महंगाई का आधार विकसित करती हैं। ट्रांसपोर्टेशन से जुड़ा होेने के कारण पेट्रोलियम पर मामूली सी बढ़ोतरी व्यापारियों द्वारा कीमतें बढ़ा कर मुनाफा वसूलने का जरिया बन जाती हैं।  निम्न मध्यवर्ग जिसके हाथ में न अपनी मेहनत का मूल्य बढ़ाने की क्षमता है और वेतन। इस महंगाई से त्रस्त है। लोक कल्णकारी राज्य की परिकल्पना के बीच देश की 60 प्रतिशत कामकाजी जनता  सुप्त आक्रोश से भरती जा रही है। सरकारें अपनी खुफिया एजेंसियों के भरोसे जनमानस की विचारों को टटोलती जरूर रहती हैं लेकिन जनता की वास्तविक हकीकत तो उसके बीच रह कर  उससे बात करने से ही पता चलेगी। सरकार में बैठे नेता कहते हैं कि पेट्रोल की कीमतें अन्तरराष्ट्रीय बाजÞार के  हिसाब से निर्धारित होंगीं। लेकिन जब कच्चे तेल की कीमत 125  डॅलर प्रति बैरल से घटकर 108 डालर हो गर्इं तो पेट्रोल की कीमत बढ़ाने का क्या मतलब है?
 पिछले सात वर्षों में वित्तीय संकटों के दौरान वित्तमंत्रियों के आश्वासन भी सामान्य जैसे लगने लगे हैं। भयावह आर्थिक परिस्थितियों के बावजूद किसी पक्ष से कोई समाधान नहीं मिलता है। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है की जुआघरों की तजर्Þ पर चल रही भारतीय अर्थव्यवस्था के विद्वान स्थितियों के विवेचन और सुधार में नाकाम साबित हुए हैं। जिनमें हमारे देश के प्रधानमंत्री भी हैं। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में पूंजीवाद के नियंत्रण के गहन सिद्धांतों की समीक्षा करें तो अमेरिकी नीति निर्माताओं ने जो मानक जनहितों की रक्षा के लिए तय किए थे, उनका सबसे ज्यादा दुरुपयोग पूंजीवादियों ने किया है। मुक्त बाजÞार व्यवस्था में सरकार के राजनीतिक नियंत्रण से बाहर विशाल औद्योगिक घराने विकसित हो गए। इसके नतीजा बाजÞार का मूल्य नियंत्रण  औद्योगिक समूहों के हाथों में चला गया। आज हमारी सरकारें विकास के नाम पर इसी रास्ते पर चली जा रही हैं।
 जनता को क्रूर होती महंगाई से बचाने का एक तरीका यह है कि आर्थिक नीतियों और उपभोक्ता की सुरक्षा के लिए उत्पादन और वितरण के काम पर सामाजिक नियंत्रण होना बहुत जÞरूरी है। पूंजी के साम्राज्य को निजी घरानों के लाभ कमाने की प्राथमिकता वाले तंत्र से बाहर लाना पड़ेगा। कभी देश में यह व्यवस्था थी। नेहरू ने जिस मिश्रित अर्थव्यवस्था की बात की थी, उसमें इसको जोड़ा गया था। लेकिन  90 के दशक से उसको तबाह करने का काम शुरू किया और आज वह ख़त्म हो चुकी है। अब महत्वपूर्ण क्षेत्रों में निजी कंपनियों का दबदबा है और उनके सामने सरकार लाचार है। सरकार की यह लाचारी अगर बार-बार जनता के सामने आई तो जनता की नजर से उसका औचित्य खत्म हो जाएगा। अभी समय है कि सरकारें जनता के अर्थशास्त्र की उपेक्षा करना बंद करना सीख लें।

अन्ना-बाबा का तप



अन्ना का आंदोलन एक पवित्र जिद है। इससे देश के लोग प्रभावित होते रहे हैं। बाबा रामदेव के शामिल होने के बाद भी आंदोलन के पास दीर्घकालीन वैचारिक आधार का अभाव बना हुआ है।



अन्ना और बाबा रामदेव नई सीखों शिक्षाओं के साथ फिर राजनीतिक तपिश बढ़ाने दिल्ली में हैं। एक दिन के इस अनशन पर कुछ नई चीजें भी देखने मिली हैं। पहली ये कि मंच से किसी नेता या भ्रष्ट नेता का नाम नहीं लिया जाएगा हालांकि अरविंद केजरीवाल ने नेताओं के नाम लिए। नाम नहीं लेने वाला सुधार आंदोलन को व्यापक आधार देने के लिए किया गया है। इससे यह लगता है कि बाबा और अन्ना की जुगलबंदी में आंदोलन करने वालों ने यह  सीख ही लिया है कि किसी नेता का नाम लेने से आंदोलन व्यक्ति केंद्रित हो जाता है और उसका आधार भी सिकुड़ता है।
भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ संसद मार्ग पर एक दिन के अनशन में बाबा रामदेव और अन्ना हजारे ने अपने मतभेदों को झुठलाने की कोशिश की और आंदोलन को सशक्त बनाने-बताने का प्रयास भी किया। इस आंदोलन में अन्य पक्षों को भी मोर्चे के तरह खोला है। बाबा ने एफडीआई को ब्लैक मनी की चाबी बताया और आईपीएल पर भी सवाल उठाए। इससे लगता है कि बाबा आंदोलन को व्यापक सांस्कृतिक परिवर्तन का हिस्सा भी बनाने जा रहे हैं। दूसरी तरफ अन्ना हजारे ने कहा कि बाबा रामदेव के साथ आने से आंदोलन की ताकत बढ़ी है। काफी देर बाद टीम अन्ना सीख सकी है कि बड़े आंदोलन व्यक्तिगत नहीं होते। उनको जहां से सहयोग सहायता मिले वह स्वीकार करना चाहिए। अन्ना के आने से और बाबा के एक मंच होने से एक खास तरह का आंदोलनकारी माहौल बनाने में सफल हो सकते हैं।  इस एकता से सरकार भी दबाव में आ सकती है। मंच पर अरविंद केजरीवाल और बाबा रामदेव में मतभेद सामने आए हैं। बाबा द्वारा नाम न लेने की नसीहत देने पर केजरीवाल मंच से चले गए। यानी आंदोलन में मतभेदों को छुपाया नहीं जा सका है।
बाबा ने जो विचार व्यक्ति किए उनमें पिछली भूलों से सबक लिया दिखाई देता है, जब वे कहते हैं कि आंदोलन किसी पार्टी के खिलाफ नहीं है। आंदोलन हम क्रोध और प्रतिशोध के साथ नहीं बल्कि पूरे होश और बोध के साथ कर रहे हैं। रामदेव ने यह भी कहा कि जो लोग आरोप लगाते हैं कि योगगुरु अर्थव्यवस्था की बात कैसे कर सकता है तो वे कह रहे थे कि योग के साथ अर्थशास्त्र का भी अध्ययन किया है और योग की किताबों के साथ अर्थशास्त्र की किताबें भी लेकर चलता हूं। ये पता नहीं है कि बाबा आधुनिक अर्थशास्त्र पढ़ रहे हैं या प्राचीन।  अन्ना ने कहा कि बाबा रामदेव और उनके साथ आने से ताकत बढ़ी है। अन्ना ने रामदेव का साथ स्वीकार करके आंदोलन को टीम अन्ना की चौकड़ी से बाहर निकाल लिया है। टीम अन्ना तार्किक है लेकिन जनता के करीब नहीं पहुंच पाती। अन्ना और बाबा में भारतीय जनता से संवाद की क्षमता अधिक है। इस सब के बाद भी अभी इस आंदोलन के राजनीतिक आर्थिक वैचारिक आधारों में बहुत कमजोरी दिखाई देती है। यह आंदोलन भ्रष्टचार को तो खत्म करना चाहता है लेकिन उसके अन्य प्रभावों के अध्ययन और विश्लेषण में अभी बहुत पीछे है।


रविवार, जून 03, 2012

रणनीति को खोती हुई पार्टी



 भारतीय जनता पार्टी ताकतवर विपक्षी दल से वंचित और अपनी रणनीति को खोती हुई पार्टी में बदलती जा रही है। हालिया तीन प्रकरणों से उसकी छवि अस्पष्ट और वैचारिक रूप से कमजोर दल की हुई है बल्कि उसके राजनीतिक मुद्दों पर ढुलमुल रवैये से भी जनता में उसके प्रति उपेक्षा -भाव पैदा हो रहा है।  इसके पीछे तार्किक आवधारणाएं मौजूद हैं। भाजपा के तीन प्रकरणों में पहला है उत्तरप्रदेश चुनावों में बाबू सिंह  कुशवाह का भाजपा में स्वागत करना। आडवाणी ने उत्तर प्रदेश चुनाव के दौरान भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रहे बसपा के नेताओं को पार्टी में शामिल करने के गडकरी के फैसले की आलोचना की थी। हाल ही में आडवाणी ने ब्लॉग में लिखा है कि ‘उत्तर प्रदेश विधानसभा के परिणाम, भ्रष्टाचार के आरोप में मायावती द्वारा निकाले गए मंत्रियों का भाजपा में स्वागत किया जाना। इन सब घटनाओं ने भ्रष्टाचार के विरूद्ध पार्टी के अभियान को कुंद किया है। उस समय भी आडवाणी सहित कई वरिष्ठ नेताओं ने इसका विरोध किया था। दूसरा प्रकरण है मोदी का, जिसमें सुनील जोशी को राष्ट्रीय कार्यकारिणी से बाहर बैठाया गया। और तीसरा प्रकरण मध्यप्रदेश के अध्यक्ष प्रभात झा का कमल संदेश का संपादकीय है। उन्होंने नितिन गडकरी और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर अपरोक्ष रूप से हमला बोला है। मुखपत्र में बिना किसी का नाम लिए कहा गया है कि पार्टी के कुछ नेताओं को आगे बढ़ने की जल्दबाजी है। पार्टी के बुनायदी ढांचे को नजर अंदाज कर आगे बढ़ने की ललक गलत है। जैसे-जैसे एक नेता प्रगति करता है उसकी सोच और समझ में भी प्रगति होनी चाहिए।
भाजपा का अंदरुन अंधड़ यहीं खत्म होने का नाम नहीं लेता। इसमें जेठमलानी भी इस तेज बहती हवा में अपना मुक्का तानते हैं। बीजेपी सांसद राम जेठमलानी ने पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी को 23 मई को कड़ा पत्र लिखा है। उन्होंने बीजेपी नेताओं पर आरोप लगाया है कि वे संप्रग सरकार के दूसरे शासनकाल में बड़े पैमाने पर व्याप्त भ्रष्टाचार पर चुप्पी साध आपसी मतभेद में ही उलझे हैं। देश भ्रष्टाचार के खिलाफ उत्तेजनापूर्ण कार्रवाई चाहता है।  सरकार प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रपति पद के लिए मैदान में उतारने की योजना बना रही है। बीजेपी इस मुद्दे पर चुप है, जिससे जनता समझेगी कि उसके पास भी कुछ छुपाने लायक है। जेठमलानी ने जो लिखा है वह जनता की अपेक्षाओं का सीधा वर्णन है। वे और भी बातें लिखते हैं जैसे कि देश समझ चुका है कि गरीबी और अभावग्रस्तता चारों ओर फैले भ्रष्टाचार और मुख्य रूप से हमारे वर्तमान शासकों द्वारा राष्ट्रीय संपत्ति की बड़े पैमाने पर लूट के कारण है। कमोबेश पूरे देश का मानना है कि मौजूदा केंद्रीय मंत्रिमंडल के आधे सदस्यों को जेल में होना चाहिए। जबकि बीजेपी के नेता एक दूसरे की टांग खींचने में व्यस्त हैं। सच यह है कि भारतीय जनता पार्टी अब अपने कमजोर पक्षों के ओवर फ्लो को झेल रही है। आने वाले वक्त में उसे देश का सशक्त विपक्षी गठबंधन तैयार करना था। अब भी समय है भाजपा गलतियों से सीखे और पुर्नस्थापित होकर मैदान में आए।
ravindra swapnil prajapati

गुरुवार, मई 31, 2012

डसता खनन माफिया

 

खनन कारोबार में आपराधिक तत्व इतना अधिक मनोबल पा चुके हैं कि वे सीधे कार्रवाई कर रहे अधिकारियों पर वाहन चढ़ा रहे हैं। यह प्रशासनिक राजनीतिक अदूरदर्शिता का परिणाम है।

मु रैना में चंबल नदी से अवैध तरीके से रेत भरकर धौलपुर की ओर ले जा रहे ट्रक को राजस्थान पुलिस के हवलदार और सिपाही ने रोकने का प्रयास किया तो ट्रक चालक ने दोनों को कुचल दिया। यह खबर सिर्फ दुर्घटना की सामान्य खबर नहीं है। यह हमारे प्रशासन, राजनीतिक नाकारापन और आपराधिक लोगों के हाथों में संसाधनों की लूट की वीभत्स और खूनी लंबी कहानी का परिणाम है। यह कहानी खानों, अवैध जल जंगल और जमीन  के दोहन से लिखी जा रही है। इस घटना से पहले और भी इस तरह के हमले हो चुके हैं। सामान्य से इंसान के रूप में ट्रक या ट्रैक्टर चलाता ड्रायवर इस तरह के हमलों को अंजाम नहीं दे सकता। जब तक कि इन मातहत कर्मचारियों को यह न कहा जाता होगा कि कुछ भी हो जाए गाड़ी पकड़ना नहीं चाहिए। यह ताकत राजनीतिक प्रशासनिक कमजोरी की सड़ांध में पैदा होती है। यहां लोभ, लालच, हिंसा और अपराध को कैक्टस की तरह पाला पोसा जाता है। हवलदार को कुचलने की घटना लाचार होती प्रशासनिक राजनीतिक सामाजिक हैसियत का दीवाला निकल जाने का उदाहरण है।
यह अकेली घटना होती कि खनन माफिया ने प्रशासन के जिम्मदार लोगों पर ट्रक चढ़ाने की तो शायद यह राज्य के संगठित गिरोहों द्वारा लूट पर ध्यान न जाता लेकिन इससे पहले लगातार इस तरह की घटनाएं सामने आती रही हैं।  7 मार्च को शिवपुरी के कोलारस में पत्थर माफिया ने एसडीओ के वाहन पर ट्रैक्टर चढ़ाने की कोशिश की। दतिया में इसी दिन कंजोली रेत खदान पर वर्चस्व के लिए दो पक्षों में फायरिंग हुई। 8 मार्च को मुरैना  जिले में कार्रवाई करने पहुंचे युवा आईपीएस अफसर नरेंद्र कुमार को ट्रैक्टर से कुचलकर मार डाला गया। 18 अप्रैल को देवास के कन्नौद में अवैध उत्खनन को रोकने गर्इं तहसीलदार मीना पाल पर खनन माफिया ने जेसीबी चढ़ाने की कोशिश की। तहसीलदार ने नाले में कूदकर अपनी जान बचाई।
अवैध खनन माफिया के बुलंद हौसलों की ये खबरें प्रशासनिक मशीनरी और समाज में व्याप्त अवैधानिक तरीकों पर यकीन करने की प्रवृत्ति है। जब लोग यह सोचने लगते हैं कि अवैध कारोबार ही उनका धंधा है तो यह खतरनाक संकेत है। खतरनाक इस मायने में कि उन्हें अपने आसपास फैली कानूनी और प्रशासनिक  व्यवस्थाओं पर विश्वास नहीं होता है। वे यह महसूस करते हैं कि प्रशासन कुछ नहीं करेगा, तभी अवैध करोबार की यह प्रवृत्ति बढ़ती है। प्रशासनिक व्यवस्था राजनीतिक संरक्षण के आगे असहाय हो जाती है। दूसरा पक्ष ये है कि अपराध की अपेक्षा में अवैध खनन से होने वाला आर्थिक लाभ इस माफिया को अधिक दिखता है।  कोई भी व्यक्ति या समूह तभी अवैध कारोबार की तरफ तभी जाता है जब वह उससे बचने के तरीके पहले इजाद कर लेता है। ये घटनाएं इस बात का संकेत हैं कि अवैध खनन के मामले में हमारा कानून लचर और लाचार है।  राजनीतिक नेतृत्व को सोचना होगा कि आखिर अधिकारी कब तक अपनी जान कुर्बान करते रहेंगे?

सोमवार, मई 28, 2012

केंद्र,भ्रष्टाचार और उसके पंद्रह मंत्री

 

टीम अन्ना के आरोपों से सरकार ही हैरान नहीं है, भविष्य के नेता भी चिंतित नजर आते हैं। इसका कारण है कि जनता अब जिम्मेदारों से कुछ सवाल करने लगी है।

टी  म अन्ना का भ्रष्टाचार पर हल्ला बोलो अभियान अपना दायरा नहीं बढ़ा रहा है। शनिवार को उसने प्रेस कांफ्रेंस में यह इरादा जाहिर कर दिया। टीम अन्ना ने सबूतों के साथ टीम अन्ना ने प्रधानमंत्री समेत 15 केंद्रीय मंत्रियों पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए जांच की मांग की है। इसी के साथ टीम अन्ना ने जांच नहीं होने पर 25 जुलाई से आंदोलन का ऐलान भी किया है। यह वैसी ही बात है कि भ्रष्टाचार की वेदी पर टीम अन्ना यूपीए सरकार से पंद्रह मंत्रियों की कुर्बानी मांग रही है। अब कौन सरकार अपने ही मंत्रीमंडल पर सामूहिक अभियोग चला सकती है? टीम अन्ना की मांगें जायज या नाजायज हैं इससे अधिक महत्वपूर्ण ये है कि उन्होंने एक सरकार के सामने धर्म संकट खड़ा कर दिया। यह ऐसा धर्म संकट है कि इसमें जन सामान्य भी उलझ गया है। कोई एक या दो मंत्री की बात नहीं, प्रधानमंत्री समेत यहां पूरे पंद्रह मंत्री हैं। टीम जो आरोप लगा रही है वे कमीशन, लाभ कमाने या लाभ पहुंचाने के हैं।  येआरोप अलग अलग समय और उनके कार्यकालों के हैं।
टीम के आरोपों पर तिलमिलाए विदेश मंत्री एसएम कृष्णा ने टीम अन्ना के सदस्य अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण के खिलाफ मानहानि का केस दायर करने की बात कही है। कृष्णा की अरविंद केजरीवाल को लिखी चिट्ठी में कहा कि उन पर लगाए गए आरोप गलत और बेबुनियाद हैं और जो भी तथ्य उनके बारे में बताए गए हैं वो गलत हैं। यह अलग बात है कि ये आरोप कितने सही और कितने गलत निकलेंगे लेकिन जब टीम अन्ना जांच के लिए सरकार को छह जजों के नाम भी सुझाव देती है और कहती है कि जांच का काम इन छह में से किन्हीं तीन जजों को सौंपा जा सकता है। सरकार उनके द्वारा बताए जजों से जांच करवाए।  ऐसे में तब लगता है कि आखिर टीम अन्ना आंदोलन कर रही है या वैचारिक आंदोलन के नाम पर माइक्रो तानाशाही को लागू कर रही है?
 इस समय अरविंद केजरीवाल ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक पत्र भेजा है, जिसमें 15 मंत्रियों के खिलाफ आरोपों की  जानकारियां हैं।  इस पत्र को  ‘चार्जशीट’ नाम दिया गया है।  वास्तव में देखा जाए तो  यह सूक्ष्म स्तर पर संबैधानिक व्यवस्थाओं का मजाक है। टीम अन्ना छह जजों को नामित क्यों कर रही है? देश और सरकार द्वारा नामित जजों पर यकीन नहीं? या केवल छह जज ही भारत में हैं जो इन मंत्रियों की जांच कर सकते हैं? यह अविश्वास का बीजारोपण है।  इससे देश में एक दूसरे तरह की अराजकता का माहौल पैदा हो सकता है। टीम अन्ना जनजागरण का काम कर रही है तो ऐसा भी लगने लगता है कि वह राजनीतिक वैचारिक असंतुलन का शिकार भी है।

रविवार, मई 13, 2012

सुशासन का सम्मान

  किसी भी संस्था और संस्थान के लिए पुरस्कार उसके कामों को रेखांकित करता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जब कोई पुरस्कार या सम्मान दिया जाता है तो इसका तात्पर्य है कि यह सम्मान प्रदेश में हो रहे नवाचारों को रेखांकित किया गया है। सरकार को जब पुरस्कार मिलता है तो वह एक नई ऊर्जा ग्रहण करती है। मध्यप्रदेश के लिए यह ऊर्जा संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रदान की गई है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा मध्यप्रदेश सरकार के लोकसेवा गारंटी अधिनियम को इंपू्रविंग द डिलीवरी आफ पब्लिक सर्विसेज श्रेणी में दूसरा पुरस्कार प्रदान किया है।
मध्यप्रदेश को यह पुरस्कार जून में आयोजित सम्मान समारोह में प्रदान किया जाएगा।  वर्ष 2012 इस संदर्भ में भी महत्वपूर्ण है कि ये संयुक्त राष्ट्र लोकसेवा दिवस और पुरस्कारों की दसवी वर्षगांठ है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 23 जून को संयुक्त राष्ट्र लोकसेवा दिवस घोषित किया है। इसका उद्देश्य स्थानीय राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लोकसेवा में मूल्यों और गुणात्मकता को प्रोत्साहित करना है। उल्लेखनीय है कि 73 देशों के 471 आवेदनों में से इस पुरस्कार के लिए मध्य प्रदेश को भी चुना गया। मध्यप्रदेश का चुना जाना इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि उसे चुन लिया गया है। यह इस बात का प्रतीक भी है कि सरकार पूरी दूरदर्शिता और लोक सेवा की भावना से काम कर रही है। सरकार में बैठे जनप्रतिनिधि और प्रशासनिक अधिकारी कहीं न कहीं अपनी जिम्मेदारियों को विस्तार पूर्वक देखते हैं। वे यह जानते हैं कि आने वाले वक्त के लिए वे क्या नया कर सकते हैं।
इस सम्मान के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान बधाई के हकदार हैं।  मध्य प्रदेश पहला राज्य है जिसने सिटीजन चार्टर को कानून बनाने का काम किया है। लोकसेवा गारंटी अधिनियम जनता के लिए अधिकतम सुविधा और प्रशासनिक सेवा की सुनिश्चित्ता को तय करता है। लोकसेवा गारंटी अधिनियम के तहत 52 विभागों को शामिल किया गया है। इस अधिनियम के तहत एक निर्धारित समय सीमा में सेवाएं उपलब्ध कराना होता है, तथा ऐसा नहीं किए जाने पर संबंधित कर्मचारी-अधिकारी से जुर्माना  लेकर संबंधित व्यक्ति को उपलब्ध कराया जाता है। यह पुरस्कार इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता कि  मध्यप्रदेश में लोक सेवा गारंटी अधिनियम के तहत एक करोड़ 11 लाख आवेदन प्राप्त हुए थे जिसमें से एक करोड़ दस लाख आवेदनों का निराकरण कर दिया गया है। उन्होंने बताया कि इनमें से 16 लाख आवेदन आनलाइन प्राप्त हुए थे।  समय सीमा में सेवाएं उपलब्ध नहीं कराए जाने पर 49 अधिकारियों के वेतन से जुर्माने की राशि काटकर 113 व्यक्तियों को उपलब्ध कराई जा चुकी है। यह कानून प्रदेश के सुशासन की संभावनाओं के विस्तार का प्रतीक है। 

शनिवार, अप्रैल 07, 2012

दुनिया की सबसे बड़ी किताब

पंकज घिल्डियाल
जब हम बच्चे थे, हमारे मिडल स्कूल के हेडमास्टर जी हमसे एक सवाल अक्सर पूछा करते थे- अच्छा बच्चो, बताओ दुनिया की सबसे बड़ी किताब कौन सी है। यह उनका प्रिय सवाल था और इसे वे हर क्लास के बच्चों से पूछते थे। हमें भी इस सवाल में बहुत मजा आता था। हमारी किताबें ज्यादा से ज्यादा सौ-सवा सौ पेज की होती थीं। हेडमास्टर जी जब अपने मोटे शीशे वाले चश्मे के पीछे आंखें बड़ी-बड़ी करके बताते थे कि वह एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका है, तो उसकी मोटाई और वजन के बारे में हम तरह-तरह के अनुमान लगाते थे। अब से दो दशक पहले तक इंटरनेट इस तरह घर-घर में उपलब्ध नहीं था। तब जानकारी का सबसे विश्वसनीय और स्रोत एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका को ही माना जाता था।

पुस्तक प्रेमियों के लिए यह सचमुच मायूस करने वाली खबर है कि कई वाल्यूम वाली गहरे भूरे रंग की यह किताब अब प्रकाशित नहीं होगी। इसे सिर्फ डिजिटल फॉर्मेट में ही देखा जा सकेगा। कई वाल्यूम में छपने वाली एनसाइक्लोपीडिया में ज्ञान-विज्ञान से संबंधित हर उस चीज की जानकारी सार रूप में प्रामाणिक तथ्यों के आधार पर देने का प्रयास किया जाता था, जिसमें मनुष्य की दिलचस्पी हो सकती थी। सबसे पहले इस पुस्तक का प्रकाशन सन् 1768 में स्कॉटलैंड से हुआ। इसकी इतनी प्रतिष्ठा थी कि 1950 व 60 दशक में यह सबसे महंगी किताबों की फेहरिस्त में शामिल थी। किताबों के कद्रदान इसे हर हाल में अपना बनाना चाहते थे। अभी जिस तरह लोग घर और कार की किश्तें चुकाते हैं, ठीक उसी तरह लोग इस किताब को भी लोग किश्त पर खरीदते थे।

1990 में एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका की रेकॉर्ड बिक्री हुई। उस वर्ष अकेले अमेरिका में ही इसकी 1 लाख 20 हजार कॉपियां बिकीं। इसी दौर में इंटरनेट भी धीरे-धीरे अपने पैर पसार रहा था। नतीजा यह हुआ कि इसकी बिक्री घटने लगी। आते-आते हालात यहां तक पहुंच गए कि 2010 में छपी एनसाइक्लोपीडिया की 12000 कॉपियों में से सिर्फ 8000 को ही खरीदार मिल सके। तभी से यह चर्चा शुरू हो गई थी कि इसे आगे छापना शायद संभव न हो। पेपर पर इसका पिछला संस्करण दो साल पहले प्रकाशित किया गया था। इसके कुल 32 खण्डों में 65 हजार से अधिक लेख शामिल हैं। फिलहाल इसकी चार हजार प्रतियां बिकने के लिए शेष हैं।

ब्रिटैनिका ने इस किताब का डिजिटल अवतार 1981 में शुरू किया। इसकी सीडी 1989 में जारी की गई। 1994 वह वर्ष था जब एनसाइक्लोपीडिया इंटरनेट पर उपलब्ध हुई। इसके ऑनलाइन एडिशन के अपने फायदे हैं। कुछ जानकारी तो इसमें मुफ्त मिल जाती है , जबकि सालाना शुल्क चुका कर आप बाकी जानकारियों तक भी पहुंच बना सकते हैं। हर दो साल पर प्रकाशित होने वाले 32 खंडों के प्रिंटेड संस्करण की कीमत करीब 1400 अमेरिकी डॉलर है , लेकिन इसके ऑनलाइन संस्करण के लिए अब प्रति वर्ष केवल 70 अमेरिकी डॉलर चुकाने होंगे। प्रति माह 1.99 से 4.99 अमेरिकी डॉलर तक ऑनलाइन सदस्यता शुल्क देकर भी इसमें मौजूद सूचनाओं का लाभ उठाया जा सकता है। दुनिया के नामी - गिरामी बुद्धिजीवी ब्रिटैनिका के लिए जानकारी प्रदान करते हैं। 100 स्थायी संपादकों के अलावा संबंधित ज्ञान शाखा के विशेषज्ञ यह तय करते हैं कि विभिन्न स्त्रोतों से मिली जानकारी को कैसे पेश किया जाए।

ऐसा नहीं है कि आज अचानक ब्रिटैनिका ने पहली बार खुद को बदला है। 1768 से 2012 के बीच 244 वर्षों में इसने बहुत से बदलाव देखे हैं। बच्चों के लिए 1934 में 12 खंडों में ब्रिटैनिका जूनियर का पहली बार प्रकाशन हुआ , जिसे 1947 में बढ़ाकर 15 खंडों का कर दिया गया। 1963 में इसी का नाम बदल कर ब्रिटैनिका जूनियर एनसाइक्लोपीडिया रख दिया गया। फिलहाल इसका मालिकाना हक स्विस अरबपति ऐक्टर जैकी साफरा के पास है। इसका मुख्यालय शिकागो में है। मजेदार बात यह है कि इतने साल बाद भी लोगों के बीच इसकी विश्वसनीयता में कोई कमी नहीं आई। 1991 से अमेरिका में प्रकाशित होने के बावजूद इसकी वर्तनी ब्रिटिश अंग्रेजी ही है।

वर्चुअल दुनिया में आए दिन तथ्यों की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े होते रहे हैं। क्या हम - आप इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी पर पूरी तरह से भरोसा कर पाते हैं ? शायद नहीं। अक्सर हमें ये फैक्ट भी ठीक उसी तरह बेगाने लगते हैं जैसे नेट पर बनाए गए अजनबी फ्रेंड। आमतौर पर ब्रिटैनिका की सत्यता पर सवाल नहीं उठते। लेकिन पिछले कुछ समय में हुए विवादों ने पुस्तक प्रेमियों को कुछ निराश जरूर किया है। संपादकीय चयन के कारण ब्रिटैनिका की अक्सर आलोचना होती रही है। कहा जाता है कि कुछ बातों को अधिक जगह देने के कारण ये जरूरी मुद्दों को कम तरजीह देते हैं। जैसे इसके 15 वें अंक में बाल साहित्य , मिलिटरी डेकोरेशन और एक प्रसिद्ध फ्रेंच कवि को शामिल करना भूल गए। इसके अलावा ग्रैविटी के न्यूटन सिद्धांत को लेकर भी कुछ विवाद खड़े हुए। ब्रिटैनिका की आलोचना अक्सर इस बात को लेकर भी होती रही है कि उसके कुछेक एडिशन समय के अनुसार अपडेट नहीं हैं। एक आयरिश न्यूजपेपर ' द इवनिंग हैरल्ड ' ने फरवरी 2010 में ब्रिटैनिका पर देश के इतिहास से जुड़े कुछ अशुद्ध तथ्य शामिल करने का आरोप लगाया था।

ऑनलाइन व्यवस्था के जरिये सूचनाएं मुफ्त या कम दरों पर उपलब्ध हो जाती हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि सूचना का यह माध्यम अधिक सुविधाजनक है। आज तो स्मार्ट फोन भी जानकारी परोस रहे हैं। सटीक जानकारियों के लिए प्रसिद्ध ब्रिटैनिका का ऑनलाइन संस्करण कितनी लोकप्रियता पाता है , यह तो वक्त ही बताएगा , मगर इंटरनेट के जानकर मानते हैं कि यह माध्यम ब्रैंड को कमजोर करता है। ब्रिटैनिका के रेकॉर्ड कहते हैं कि दुनिया भर के करीब 10 लाख लोग उसकी ऑनलाइन सर्विस का फायदा उठा रहे हैं। ब्रिटैनिका के सामने सबसे बड़ी चुनौती विकीपीडिया है। विकीपीडिया जहां अपने यूजर्स को जानकारी अपलोड और एडिट करने के कई विकल्प देता है , वहीं ब्रिटैनिका बरसों पुरानी साख के दम पर ऐसे ही कुछ विकल्प अप्रूवल सिस्टम के साथ दे सकता है। विकीपीडिया का बहुत सा काम तो उसके यूजर्स ही करते है , जबकि ब्रिटैनिका के साथ एक पूरी टीम काम करती है। 

हिंदुस्तान समाचार से साभार 

रविवार, अप्रैल 01, 2012

अमृता प्रीतम का एक प्रसंग

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अपने लेखन के शुरुआती दिनों से जुड़ा एक प्रसंग अमृता प्रीतम ने एक पत्रिका के स्तम्भ में बताया:-
“वो दिन आज भी मेरी आँखों के सामने आ जाता है… और मुझे दिखती है मेरे पिता के माथे पर चढ़ी हुई त्यौरी. मैं तो बस एक बच्ची ही थी जब मेरी पहली किताब 1936 में छपी थी. उस किताब को बेहद पसंद करते हुए मेरी हौसलाफजाई के लिए महाराजा कपूरथला ने मुझे दो सौ रूपये का मनीआर्डर किया था. इसके चंद दिनों बाद नाभा की महारानी ने भी मेरी किताब के लिए उपहारस्वरूप डाक से मुझे एक साड़ी भेजी.
कुछ दिनों बाद डाकिये ने एक बार फिर हमारे घर का रुख किया और दरवाज़ा खटखटाया. दस्तक सुनते ही मुझे लगा कि फिर से मेरे नाम का मनीआर्डर या पार्सल आया है. मैं जोर से कहते हुए दरवाजे की ओर भागी – “आज फिर एक और ईनाम आ गया!”
इतना सुनते ही पिताजी का चेहरा तमतमा गया और उनके माथे पर चढी वह त्यौरी मुझे आज भी याद है.
मैं वाकई एक बच्ची ही थी उन दिनों और यह नहीं जानती थी कि पिताजी मेरे अन्दर कुछ अलग तरह की शख्सियत देखना चाहते थे. उस दिन तो मुझे बस इतना लगा कि इस तरह के अल्फाज़ नहीं निकालने चाहिए. बहुत बाद में ही मैं यह समझ पाई कि लिखने के एवज़ में रुपया या ईनाम पाने की चाह दरअसल लेखक को छोटा बना देती है.”


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Ravindra Swapnil Prajapati

शुक्रवार, मार्च 30, 2012

  धीमे जहर पर प्रतिबंध ऐतिहासिक फैसला



तंबाखू से जुड़े उत्पादों की सहज उपलब्धि से समाज में प्रतिरोध कम हो जाता है। प्रतिबंध के बाद इस पर नियंत्रण आसान होगा।


मध्यप्रदेश सरकार ने 1 अप्रैल से गुटखा पाउच बंद करने का एतिहासिक फैसला लिया है। प्रदेश में होने वाले कुल मुंह के कैंसर में 91 प्रतिशत  कैंसर तंबाखू के सेवन से होते हैं। यह फैसला स्वागत योग्य है और सरकार के वास्तविक कर्तव्य का अनुपालन भी है। किसी भी लोककल्याणकारी राज्य के लिए अपने नागरिकों के स्वास्थ्य को प्राथमिकता देना ही चाहिए। मध्यप्रदेश ने यह कदम उठाकर बड़ी पहल की है।  अब डर इस बात का है कि गुटखा खाने वाले और बेचने वाले इस प्रतिबंध को प्रभावहीन बनाने में पूरा जोर लगाएंगे। वे नहीं चाहेंगे कि करोड़ों रूपए की आया देने वाला यह उद्योग बंद हो जाए। हो सकता है कि कुछ दिनों तक गुटखा पाउच चोरी छिपे या कालाबाजारी के तहत बिकें लेकिन इसके प्रभाव दूरगामी होंगे। फिलहाल हालत ये है कि 7 साल के कई बच्चों को गुटखे पाउच खाते देखा जा सकता है। जब कोई चीज बच्चों तक पहुंचती है तो उसके असर बेहद विनाशकारी ही होते हैं। आने वाले समय में गुटखा चबाने की प्रवृत्ति इसकी सहज उपलब्धता के कारण बेहद चिंता जनक तरीके से फैल रही थी। तंबाखू से जुड़े उत्पादों की सहज उपलब्धि से समाज में  प्रतिरोध कम हो जाता है। प्रतिबंध के बाद इस पर नियंत्रण आसान होगा। समाज में भी सजगता बढ़ेगी। मध्यप्रदेश सरकार इस कठोर निर्णय लेने के लिए बधाई की पात्र है।


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गरीबी की धुंध में धनुष

भारतीय तीरंदाजी में अपनी चमक बिखेरने वाली और देश के लिए कई मेडल जीत चुकीं झारखंड की 21 साल की निशा रानी को गरीबी से तंग आकर अपना धनुष बेचना पड़ा। जमशेदपुर जिले के पथमादा गांव की निशा की कहानी सैंकड़ों खिलाड़ियों की तरह है जो गरीबी की धुंध में खो गए। निशा 2006 में वह ओवरआॅल सिक्किम चैंपियन बनीं। झारखंड में हुई साउथ एशियन चैंपियनशिप में उन्होंने सिल्वर मेडल जीता। 2006 में बैंकाक में हुई ग्रां प्री चैंपियनशिप में ब्रांज मेडल जीतने वालीं निशा भारतीय टीम की मेम्बर रहीं। 2007 में ताइवान में हुई एशियन ग्रां प्री में उन्हें बेस्ट प्लेयर अवॉर्ड से नवाजा गया। भारतीय तीरंदाजी फेडरेशन और इंडियन ओलिंपिक एसोसिएशन उनके बारे में एक बार भी सोचता तो निशा इतना मजबूर नहीं होना पड़ता। एक धनुर्धर को अपना कीमती धनुष बेचना कितना तकलीफदेह हो सकता है इसकी कल्पना की जा सकती है। निशा रानी ने चार लाख रुपए का कमान मणिपुर की खिलाड़ी को 50 हजार रुपए में बेच दिया। ऐसा लगता है कि देश सिर्फ क्रिकेट को ही जानता है। इसमें सरकारों और खेल संगठनों की लापरवाही उजागर होती है। वे खेलों को लोकप्रियता से तौल कर देखते हैं। खेल एक संस्कृति है। जिम्मेदारों को हर खेल और उसके खिलाड़ी को बराबर महत्व देना चाहिए।

रविवार, मार्च 25, 2012

Paintig : Shashank, BHOPAL

 


  तकनीक ने कला को स्पीड दी है
 

 आपने दिल्ली लखनऊ, भोपाल को देखा जिया है। इन तीनों की सांस्कृतिक हवा कैसी क्या है? इस कला त्रिकोण के बारे में क्या कहना चाहेंगे?
इन तीनों में मूल बिंदु ये बनता है कि इन तीनों में संस्कृति का विकास हो रहा है। आठवें दसक वाली स्थितियां अब नहीं रहीं। पहले की तुलना में अब सांस्कृतिक गतिविधियों का विस्तार हुआ है। दिल्ली, भोपाल और लखनऊ-पटना को भी जोड़ लें तो हिंदी भाषी संस्कृति कभी आश्रित नहीं रही। जनपद आरा से हिंदी की अच्छी पत्रिका निकलती है तो विदिशा जैसे छोटे शहर से हिंदी के कई महत्वपूर्ण कवि आए हैं। पेंटिंग और गायक भी छोटी जगहों से आ रहे हैं। भोपाल, दिल्ली में साहित्य, रंगकर्म, संगीत ही नहीं है। ये कलाएं अब कस्बों में भी पनप रही हैं। आप देख सकते हैं अधिकांश कलाकार, साहित्यकार छोटे कस्बों से दिल्ली जा रहे हैं।
इन सभी संस्कृतिकर्मियों पर महानगरीय दबाव नहीं है। न उसका अवसाद है। यह शुभ लक्षण है। कहें कि इसमें मीडिया का योगदान भी है, तब यह और मौजूं हो जाता है। इसलिए आप देखेंगे कि आने वाले कुछ वर्षो में हिंदी भाषी क्षेत्र का चेहरा बदल जाएगा।

*कला और संस्कृति के रूप किस प्रकार बदल रहे हैं? नई तकनीक, शहरी व्यस्तता, जीवन में फुरसत की कमी जैसी स्थितियों के बीच कला कौन से आकार ग्रहण करेगी?
कला संस्कृति के रूप आधुनिक तकनीक के समर्थन के कारण बदल रहे हैं। तकनीक ने इसमें बहुत बदलाव किए हैं। नाटकों में, शास्त्रीय नृत्यों में, संगीत में तकनीक का बहुत इस्तेमाल होने लगा है। अधिकांश अब प्री रिकॉर्डिड किया जाता है। उपकरणों का महत्व बढ़ गया है। लेजर, फोम और फोग का प्रयोग तकनीक का हिस्सा हैं। ये हम अपने यहां देख सकते हैं। अच्छे बुरे में नहीं बल्कि नवाचार की तरह। कई नई चीजें आ रही हैं। कभी जो काम महीने भर में हो रहा था वह अब एक दिन में हो जाता है। सेट निर्माण के लिए अगर किसी कलाकृति के  लिए या मंदिर के लिए हम पेंटर को नहीं बुलाते। गूगल की ओर जाते हैं। वहां से मंदिर का चित्र निकालते हैं और उसी दिन फ्लेक्स निकलवाते हैं। इस तरह तकनीक ने पूरी प्रक्रिया बदल दी है।

*नई तकनीक को आप अपनी पेंटिंग में इस्तेमाल कर रहे हैं?
पेंटिंग में डिजीटल का प्रयोग बढ़ रहा है। मैंने भी कई पेंटिंग डिजिटल स्केनिंग के माध्यम से तैयार की हैं। इस पर लोगों ने आपत्ति भी दर्ज की है। मेरा कहना है कि जो एचिंग की जाती थी वह भी तो यही है। एचिंग भी डिजिटल है। तकनीक ने कला को स्पीड दी है। तीव्रता दी है। चीजें बदलेंगी। थर्ड डायमेंशन दिया है। अब आगे हाई डेफिनेशन में आपको और अच्छा करना होगा। वहां घटिया चीजो ंको आप इस्तेमाल नहीं कर सकते। हाई डेफिनेशन ने गुणवत्ता की परिभाषा भी बदल दी है।
वर्तमान में प्रिंटिंग में तकनीक को पूरा इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं। फांट साइज को हम जिस तरह से बदल सकते हैं, उसका इस्तेमाल कहां है? पढ़ने की सुविधा के हिसाब से चीजों को प्रस्तुत होना चाहिए। इसी तरह हाई स्पीड बाईक आई है। वह आपका परफॉर्म भी मांगेगी। अगर आप परफॉर्म नहीं कर सके तो आप गिर जाएंगे। सभी तरफ चीजों के रूपाकार बदल रहे हैं। हमें उनके साथ योजना बना कर चलना होगा।

* पाठक और प्रकाशन के संदर्भ में बात करें तो वर्तमान में हिंदी साहित्य की स्थिति क्या है?
हिंदी में प्रकाशन बढ़ा है। 10 सालों में साहित्य की पत्रिकाओं का आकलन करें तो 40 गुणा  बढ़ोतरी हुई है। लेकिन पाठक बनाने का जो अभ्यास हमारे यहां है, वह नहीं है। हम पाठक नहीं बना पा रहे हैं। इसमें एक और स्थिति आ रही है। अब पुस्तकों की पाठ की समयावधि कम हो रही है। कविता 3 माह, उपन्यास 6 माह की हो रही है। जब प्रोडक्शन ज्यादा होगा तो आदर्श नहीं बचेगा। इसलिए पिछले दस सालों में मध्यप्रदेश में चार कवि बड़े नहीं हैं। भीड़ अधिक है। यह सब मास प्रोडक्शन के कारण हुआ है।

*साहित्य संगठनों की भूमिका अब क्या है? वे बिखराव और ठहराव का शिकार हो रहे हैं। सक्रियता कम हुई है?
अब यह तो महसूस हो रहा है कि सबको एक हो जाना चाहिए। लेकिन वे एक होने से झिझक रहे हैं। इस झिझक को तोड़ना होगा। व्यवहारिक दृष्टिकोण से युवा लेखकों कलाकारों को मानवीयता के नए पाठ को इन सबमें जोड़ना होगा।

Arti Paliwal, BHOPAL



हम ग्लोबल डेस्टनी के कलाकार हैं


 मैं कामों में ग्लोबल डेस्टनी को संभालती हूं। मैं अपने काम में दुनिया के नेचर के बारे में बताती हूं। इसी से इसमें मानवीयता जुड़ जाती है। जैसे मैं जब अपने घर से, जहां बहुत सी हरियाली है भारत भवन तक आती हूं तो दो चीजें दिखती हैं। क्रांक्रीट के जंगल और भीड़ से भरी हुई सड़कें। यह सारे दृश्य मेरे मन में जुड़ गए। ये दो धु्रव हो गए हैं। मेरे घर पर हरियाली और भारत भवन की हरियाली। प्राकृतिक वातावरण। कई दिन जब यूं ही निकल गए तो मैंने महसूस किया कि शहर का यातायात है सडकें हैं। वे उतनी सुहानी प्राकृतिक नहीं हैं। बस यहीं से सीरीज मन में आई। मैंने इसके कई शिल्पों को आकार दिया।
इस शहरी भीड़भाड़ से महसूस किया कि हमारे समाज का मानवीय जीवन कांक्रीट के जंगल में कितना बिजी हो गया है। उसका कितना बोझा लिए रहता है। सब कांसियस माइंड में यह तो है कि डेली जीवन में मॉडर्न लाइव बोझ लिए है। मैं मानती हूं कि अगर नेचर है तो ही मनुष्य सर्वाइव करेगा। जैसे सफर के लिए हेलमेट कितना जरूरी है वैसे ही ध्यान में रखना जरूरी है कि प्रकृति है तभी हम बचेंगे। इसे मैं ग्लोबल डेस्टनी कहती हूं।
हम प्रभावित होते हैं
इंसान हमेशा दो तरह से प्रभावित होता है। एक या तो वह एकदम गलत चीजों से प्रभावित होता है या बहुत अच्छी चीजों से। मैं इस बात से प्रभावित हुई कि मुझे काम करना है। मैं चाहती हूं कि निरंतर काम में इंपू्रवमेंट आना चाहिए। इसके लिए मैं सीनियर आर्टिस्ट से डिसकस करती हंू। पेंडिंग डाइंग बहुत सारी विधाएं सोच विचार में आती हैं लेकिन वे एक साथ प्रभावित नहीं करतीं।
मैं सभी तरह के भावों को स्वीकार करती हूं देखती हूं ओर फिर अपना शिल्प लेकर आती हूं। यूं कहें कि मैं एकला चलो का भाव लेकर काम करती हूं। मैं किसी शिल्प के ऊपर कितना काम कर सकती हूं तो वह मैं करती हूं। मैंने एक फिल्म देखी थी उसमें एप्पल और आई दिखा तो वह मैं उसे शिल्प में लेकर आई। इस तरह से चीजें आती हैं।
सबके लिए काम
मैं जो काम कर रही हूं वह पूरी दुनिया के लिए होता है। मैं उसे सबके लिए करती हूं। यह नहीं सोचती कि यह सिर्फ मेरे लिए है। जब मैं शिल्प बनाती हूं तो सोचती हूं यह पूरी दुनिया के लिए है। सब तरफ से सीख सबके लिए काम करना एक गतिशीलता देता है।
मैंने एक बार भारत भवन में सोलो नाटक देखा था, उस के भावों को शिल्प में दिखाने की कोशिश की थी। मुझे दूसरी चीजों को देखकर भाव आते हैं।
पढ़ना-लिखना
यह कम ही होता है। हां जब मन करता है तो पढ़ती हूं। काफी सारी किताबें हैं। पॉजिटिव थिंकिंग खास तौर से पढ़ती हूं।
मन की परिभाषा
मन की परिभाषा मेरे लिए अभी देना कठिन है। मैं मन से ही काम करती हूं। जब काम कर रही होती हूं तो अपने विचारों के साथ काम कर रही होती हूं। मैं अलग अलग नहीं कर पाती ये सब। सोचना विचारना और करना सब एक साथ ही होता है।
खोजती हूं
हर कलाकृति में मैं अपने आप को खोजती हूं। उसमें खुद को देखने की कोशिश करती हूं। कलाकृतियों में मेरा मन और मेरा समाज सब होता है।
निजी जीवन और कला
कलाकार के रूप में निजी जीवन बहुत सा प्रभावित करता है लेकिन मेरी कोशिश रहती है कि मैं अपना काम करती रहूं। कोइ आए कोई जाए मेरा काम जारी रहे। आसपास वाले कभी बोलते हैं ये करो तो अभी ये मत करो। मुझे लगता है कि हां मैं मान जाऊं । मैं एक बार काम करना प्रारंभ करती हूं तो फिर भूलती नहीं हूं। मुझे कुछ सोचना है काम करना है। मैं कैसे कर सकती हूं। दस दिन काम नहीं किया तो लगता है जैसे काम नहीं हो पा रहा है। जब मैं काम नहीं कर रही होती हूं तो सबसे अधिक बुरा लगता है और सोसायटी की बातें सोचने समझने में आती हैं।


सहयोग के भाव
प्रेम मेरे लिए कोई अलग से नहीं है। बस जिसके साथ हों उससे ट्युनिंग अच्छी हो। उससे बातचीत करना डिस्कस करना अच्छा लगे। अब इसमें घर के मेंबर भी होते हैं।  सहयोग प्रेम और साहचर्य के  भाव हमारी लाइफ का हिस्सा हंै। जो अच्छा लगता है वह काम के बीच में बाधा नहीं बनता है।