काका का चले जाना
राजेश खन्ना को असली कामयाबी 1969 में आराधना से मिली। इसके बाद लगातार 14 सुपरहिट फिल्में देकर उन्होंने हिन्दी फिल्मों के पहले सुपरस्टार का तमगा अपने नाम किया।
ए क दिन पहले ही काका अस्पताल से घर आए थे। दो दिन घर में बिताए और फिर अमृत यात्रा पर दूर चले गए। यह सफर ऐसा है जो अपनी तरह से ही रास्ता तय करता है। दुनिया के हर सफर से ऊपर और अलहदा। राजेश खन्ना इस धरती पर 29 दिसम्बर 1942 को आए थे। अमृतसर में जन्मे राजेश को बचपन में जतिन खन्ना के नाम से जाना गया था। उनकी जिंदगी में फिल्मी सपने जल्दी ही समाहित हो गए थे। राजेश खन्ना एक टेलेंट हंट प्रतियोगिता के विजेता बन कर फिल्मों में आए थे और फिर हिंदी सिनेमा के आकाश पर चमकते ऐसे स्टार बन गए जिसकी चमक सदियों तक कायम रहने वाली है। यह टेलेंट हंट प्रतियोगिता यूनाइटेड प्रोड्यूसर्स और फिल्मफेयर ने 1965 में कराई थी, जिसमें लगभग दस हजार लोगों ने हिस्सा लिया और आखिर में इसके विजेता बने राजेश खन्ना।
जिंदगी को जिस तरह उन्होंने अपनी फिल्मों में गाया था वैसी जिंदगी को जिया भी। उनकी जिंदगी एक इंसान की जिंदगी थी जहां स्टारडम का जलवा था तो गम भी थे, शराब और टूट जाने की हद तक बेदारी भी थी। राजेश खन्ना ने 1966 में पहली बार 24 साल की उम्र में आखिरी खत नामक फिल्म में काम किया था। इसके बाद राज, बहारों के सपने, औरत के रूप जैसी कई फिल्में उन्होंने कीं। ये फिल्में उन्हें बंबई की फिल्मी दुनिया के पाठ पढ़ा रही थीं और वे लगातार सीख रहे थे। लेकिन उन्हें असली कामयाबी 1969 में आराधना से मिली। इसके बाद14 सुपरहिट फिल्में देकर उन्होंने हिन्दी फिल्मों के पहले सुपरस्टार का तमगा अपने नाम किया।
फिल्मों की इस रुपहली दुनिया ने जितना सुख और आनंद राजेश खन्ना को सुपरस्टार के रूप में दिया तो जिंदगी के उत्तरार्ध में उतना दुख भी उन्होंने भोगा। अकेलापन और शराब ही उनके जीवन पथ के साथी बन चुके थे। अक्षय ने उनके जीवन को संजोने की कोशिश की थी जिसमें वे एक दामाद की तरह सफल भी रहे थे। राजेश ने फिल्मों में जो संवाद अपनाए थे वे उनकी जिंदगी में भी रहे। ...मौत तो एक कविता है और जिंदगी लंबी नहीं, बड़ी होनी चाहिए...जैसे संवादों के जरिए दर्शकों के दिलो-दिमाग पर छा जाने वाले राजेश खन्ना ने सचमुच बड़ी जिंदगी जी। जिस दौर में उनकी लोकप्रियता चरम पर थी उस समय कहा जाता था-ऊपर आका, नीचे काका। लड़कियों के बीच तो उनकी दीवानगी का आलम यह था कि कई लड़कियों ने उनकी तस्वीर से शादी कर ली थी। ये रुपहले परदे से पैदा स्टारडम का कमाल था। राजेश खन्ना को लोग प्यार से काका कह कर पुकारते थे।
1980 के बाद राजेश खन्ना का दौर खत्म होने लगा। बाद में वह राजनीति में आए और 1991 में वह नई दिल्ली से कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा के लिए चुने गए। लेकिन वक्त की रील नहीं रुकती। 18 जुलाई 2012 को जीवन की रील का अंतिम शिरा काका से ही नहीं हम सबके हाथों से दूर जा चुका है। काका की स्मृतियां सदियों के माथे पर सदैव लिखी रहेंगी।
क्रिकेट की बिसात पर
भारत और पाकिस्तान दुनिया के लिए दो देश हैं लेकिन उनके राजनीतिक रिश्ते घृणा और आतंक के साये में पलते रहे हैं।आज तक का इतिहास है कि वे सदैव इसी तरह अपने रिश्तो ंको बनाए रखने के आदी हो चुके हैं।
किसी भी देश के साथ रिश्तों की सहजता उसके आपसी हित, व्यापार, राजनीतिक एवं सामाजिक-सांस्कृतिक संबंधों पर बहुत कुछ निर्भर होती है। भारत पाकिस्तान के रिश्ते एक देश के दो टुकड़ों की त्रासदी के साये में पलते हैं। दोनों देशों घृणा के बीज बोने वाले लोग हैं तो खेल और सांस्कृतिक आधारों पर रिश्तों को सहज बनाने वाले लोग भी हैं। दोनों देशों के बीच राजनीतिक प्रभाव और मतों की खींचतान से भी रिश्ते प्रभावित होते रहे हैं। सेना और आतंक के सहारे अपने हित साधने वाले तत्व भी भारत पाक के रिश्तों को सहज नहीं होने देते। सहज और सरल पक्ष खेल और सांस्कृति का बचता है, इसे भी राजनीति के भंवर में डाल कर जहरीला बनाया जाता रहा है।
पाकिस्तान भारत के बीच बचे खुचे रिश्तों के सूत्र 26 नवंबर 2008 के मुंबई आतंकी हमले के बाद खत्म हो गए थे, अब इस रिश्ते को फिर से कायम करने शुरुआत पर कुछ लोग खुश दिख रहे हैं, तो कुछ लोग संभलकर चलने की हिदायत दे रहे हैं। चार दिन के आंतकी हमले के बाद बनी खाई में सभी रिश्तेऔंधे मुंह पड़े हुए थे। अब इस सिलसिले को फिर से शुरू करने की बात उठने पर विरोध और समर्थन के स्वर मुखर हुए हैं। भारत-पाक के विदेश सचिवों ने बातचीत में कहा था कि दोनों देशों के बीच मीडिया और स्पोर्ट्स को बढ़ावा देना चाहिए। इस मामले में मुंबई प्रेस क्लब के अध्यक्ष गुरबीर सिंह का मानना है कि मुंबई और कराची प्रेस क्लबों की पहल पर दोनों देशों के मीडिया कर्मियों एक-दूसरे के देशों में आवागमन शुरू होने से काफी भ्रम दूर हुए हैं। तो दूसरी तरफ सुनील गावस्कर ने क्रिकेट सीरीज का विरोध करते हुए कहा है कि पाकिस्तान ने मुंबई हमले की जांच में कोई प्रगति नहीं की है। पाकिस्तान जांच में सहयोग नहीं कर रहा है तो क्रिकेट संबंध बहाल करने की जरूरत ही क्या है?
इस मुद्दे पर शिवसेना ने आसमान सिर पर उठा लिया है। कांग्रेस में भी विभ्रम की स्थिति पैदा हो चुकी है। कांग्रेस में इस पहल का सीधा स्वागत नहीं हुआ है। कुछ लोगों ने क्रिकेट पर प्रतिक्रिया में कहा है कि आतंकवादियों को और बुला लेते। ऐसे कथनों को अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक नजरिये से नहीं पार्टीगत फैसले से प्रेरित ही अधिक कहा जाएगा। इस मामले में देश की पार्टियों में गहरे विरोधाभास देखने मिल रहे हैं। शिवसेना का विरोध करने वाली महाराष्ट्र समाजवादी पार्टी की ओर से अबू आसिम आजमी भी इस पहल का विरोध करते हुए सवाल करते हैं कि मुंबई पर हमले के दोषी किसी देश के साथ हमें क्रिकेट क्यों खेलना चाहिए? इस तरह का सवाल वाजिब है?
लेकिन हमें अपने हितों के साथ संघर्ष भी जारी रखने होंगे। हमें आतंकवाद के मुद्दे पर सकारात्मक तरीके से निबटना चाहिए। दोनों मुद्दों को देर तक बनाए रखने से देश के हितों को साधने की प्रक्रिया को ठेस भी पहुंच सकती है। हम अमेरिका का उदाहरण देख सकते हैं। वह आतंक और अपने हितों पर पाकिस्तान से अपना काम ले रहा है।
अमेरिका की ठगी
अमेरिका के हित ही उसका सर्वोपरि व्यापार है। अपने हर बयान में वह अपने हितों को प्राथमिकता देता है। उसके भारत से कैसे भी संबंध हों , उसका नजरिया शायद ही बदलने वाला हो। ओबामा का बयान इसकी नजीर है।
यह अच्छी बात है कि आर्थिक सुधारों पर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के उपदेश भारत सरकार को नहीं भाए हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति को भारत की तीखी प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ रहा है। ओबामा के बयान पर सरकार के ओर से कॉरपोरेट मामलों के मंत्री वीरप्पा मोइली ने भी एतराज दर्ज कराया है। उन्होंने वोडाफोन का नाम लेते हुए कहा कि एक खास अंतरराष्ट्रीय लॉबी भारत के बारे में गलत बातों को हवा देने में लगी है। वहीं, इस ममाले में बीजेपी के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा ने कहा कि अगर ओबामा का इशारा रीटेल में एफडीआई पर है, तो जरूरी नहीं कि हम भी अमेरिकियों की तरह सोचें। अमेरिकी राष्ट्रपति ने भारत के बारे में आर्थिक माहौल खराब होने वाली जो बातें कहीं हैं, उनसे कोई भी भारतीय संगठन सहमत नहीं है। ओबामा ने भारत में निवेश का माहौल पहले से खराब होने, नियमों की सख्ती बनी रहने, रिटेल और कई सेक्टरों में बहुत-सी पाबंदियों का जिक्र पीटीआई को दिए साक्षात्कार में किया है। ओबामा ने भारत के बारे में चिंता भी जता दी है। लेकिन यह चिंता कम अमेरिका को अपनी व्यापारिक कंपनियों की हालत सुधारने के प्रयास अधिक लगते हैं। ओबामा अपनी चिंता में कहते हैं कि भारत को अपने लिए रास्ता खुद तय करना है। यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि भारत तो अपना रास्ता तय कर रहा है लेकिन इससे अमेरिकी राष्ट्रपति को क्या तकलीफ हो रही है। इस साक्षात्कार में व्यक्त कथित चिंताओं का भारत द्वारा प्रतिरोध किया गया है। भारतीय नीति नियंताओं का मानना है कि अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव होने वाला है इसलिए वहां चुनाव से पहले एफडीआई, रीटेल और कई दूसरे सेक्टर की लॉबी का ओबामा पर भारी दबाव है। इन्हीं प्रयासों के तहत विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन कोलकाता में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मुलाकात करने आ धमकती हैं। हिलेरी और ममता की बातचीत बेनतीजा रही। उसके बाद खुद अमेरिकी राष्ट्रपति मैदान में अपने बयानों के हथियार लेकर आते हैं।
ओबामा के बयान पर सीआईआई, एसोचैम और अन्य व्यापारिक संगठनों की राय भी आई है। इन संगठनों ने कहा है कि देश में इन्वेस्टमेंट का माहौल ठीक है। ग्लोबल मंदी के नए दौर में भारतीय अर्थव्यवस्था कई विकसित देशों के मुकाबले 6 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है।वामपंथी पार्टियों और समाजवादी पार्टी ने भी कहा है कि अमेरिका के कहने से भारतीय अर्थव्यवस्था को खोला नहीं जा सकता है।
भारत के अपने हित हैं और उसकी जनता ही उसकी प्राथमिकता है। यह शुक्र करने वाली बात है कि उदारीकरण के नाम पर सब सौपने की अपेक्षा अभी पार्टियों में लाज बची हुई है। भारत की जनता को अमेरिकी व्यापारियों के लिए चरने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता। भारत को वैश्विक अर्थ व्यवस्था में अपनी तरह की आर्थिक दुनिया का निर्माण करने की आवश्यकता है। यही भारतीय अर्थ व्यवस्था की प्राथमिकता में शामिल होना चाहिए।