‘टाइम’ की परिभाषा
टाइम पत्रिका जिस प्रकार अपनी रेटिंग्स को दर्शाती है उसका आधार क्या है? दो साल पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह देश को महाशक्ति बना रहे थे और आज वह अंडरअचीवर होकर रह गए हैं? सच क्या है?
टा इम या उस जैसी कई पत्रिकाएं पश्चिमी अमेरिकी समाज के पास हैं। वे जब तब खास तरह की रेटिंग्स की जबरिया घोषणाएं करती रहती हैं। कभी किसी को महा सांप्रदायिक घोषित करती हैं तो कभी फिर उसे उस देश का प्रधानमंत्री भी बनवाती हैं। सालों से यह खेल जारी है। विश्व मीडिया को प्रभावित करने और अपने अनुसार बनाए सच को महिमामंडित करने के इस अनोखे खेल में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लपेटे में लिया है।
भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण में अग्रणी भूमिका निभाने के लिए प्रशंसा के पात्र रह चुके प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अमेरिका की एक प्रतिष्ठित पत्रिका ने उम्मीद से कम सफल प्रधानमंत्री बताते हुए कहा कि सिंह सुधारों पर सख्ती से आगे बढ़ने के अनिच्छुक लगते हैं। टाइम पत्रिका के एशिया अंक के कवर पेज पर प्रकाशित प्रधानमंत्री की तस्वीर के साथ शीर्षक दिया गया है- उम्मीद से कम सफल भारत को चाहिये नई शुरुआत। पत्रिका ने सवाल किया है कि क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने काम में खरे उतरे हैं? पश्चिम आज भी बताता है कि कौन अपने काम में खरा उतरा है या नहीं। वे हर उस व्यक्ति को कमजोर बताते हैं जो उनके एजेंडे को लागू नहीं करता। टाइम की रिपोर्ट में कहा गया है कि आर्थिक वृद्धि में सुस्ती, भारी वित्तीय घाटा और लगातार गिरते रुपये की चुनौतियों का सामना करने के साथ ही कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) की सरकार भ्रष्टाचार और घोटालों से घिरी हुई है और सुधारों को आगे बढ़ाने में कमजोरी दिखाने की दोषी है। अब यहां देखा जा सकता है टाइम का रुख। वह कहना चाहती है कि अमेरिकी आर्थिक नीतियों को जो प्रधानमंत्री नहीं अपनाता तो वह प्रधानमंत्री अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरता। पत्रिका आरोप लगा रही है कि देश के भीतर और बाहर के निवेशक कदम बढ़ाने से हिचकने लगे हैं। बढ़ती महंगाई और घोटाला दर घोटाला सामने आने से सरकार की साख से मतदाताओं का विश्वास उठने लगा है। अमेरिकी परिभाषा को देखें तो उसके लिए एफडीआई ही विकास का और जल्दी फैसले लेने का प्रतीक है। यह जरूरी नहीं कि वह भारत के लिए उपयुक्त हो, लेकिन टाइम का ब्रांड है जिसे अमेरिका दुनिया को बेचता है।
पत्रिका ने बताया पिछले तीन साल के दौरान उनमें जो विश्वास था वह अब नहीं दिखाई देता। ऐसा लगता है कि अपने मंत्रियों पर उनका नियंत्रण नहीं रह गया। वित्त मंत्रालय के उन्हें मिले अस्थाई कार्यभार के बावजूद लगता है कि उदारीकरण की जिस प्रक्रिया की उन्होंने शुरुआत की थी वह उस पर आगे मजबूती के साथ नहीं बढ़ पा रहे हैं। अब उदारीकरण किसका? अमेरिकी कारपोरेट का? प्रणब मुखर्जी जब तक ये समझे तब उन्हें वित्तमंत्री पद से हटना पड़ा। यह दबाव की नीति है जिसमें सच के जीरे का अमेरिकी स्टाइल का बघार लगा है। टाइम हमारे देश के लिए या किसी के लिए भी कोई मानक तय नहीं कर सकती। भारतीयों को अपनी समझ पर भरोसा है और विश्वास है।
राष्ट्रपति की गरिमा
पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम जैसे किसी भी व्यक्त्वि के लिए गरिमा सबसे महत्वपूर्ण होती है। यह सच है कि कलाम ने कभी भी मर्यादाहीन बयान या राजनीतिक विवादों में खुद को नहीं सौंपा। वैज्ञानिक के साथ साथ राष्ट्रपति के रूप में कलाम की लोकप्रियता में उनका निर्विवाद रहना भी शामिल है। वे विवादों से दूर रहे हैं। उनकी छवि सकारात्मकता से परिपूर्ण और देश के युवाओं को प्रोत्साहन वाली रही है। आज उनकी स्वारोक्ति पर विवाद होना आश्चर्यजनक है। कलाम की किताब पर सबसे ज्यादा विवाद उस हिस्से पर है, जिसमें उन्होंने लिखा है कि ‘यदि 2004 में सोनिया गांधी अगर प्रधानमंत्री पद का दावा पेश करतीं, तो उनके पास उन्हें प्रधानमंत्री की शपथ दिलवाने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता।’
कलाम की इस स्वीकारोक्ति पर विवाद की बेल हरी हो रही है। सबसे पहली आलोचना जनता दल (यू) के अध्यक्ष शरद यादव ने की है-‘अगर कलाम को कुछ कहना ही था, तो उसी समय कहना चाहिए था। आठ साल बाद बयान देना ठीक नहीं है। बाल ठाकरे कहा कि कलाम सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री क्यों बनाना चाहते थे? जनता पार्टी नेता सुब्रहण्यम स्वामी का कहना है कि कलाम गलत बयानी कर रहे हैं और उन्हें उस वक्त सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने पर आपत्ति थी। स्वामी का दावा है कि कलाम ने उस वक्त सोनिया गांधी को इस आशय का पत्र भी लिखा था। बाल ठाकरे की आलोचना से सहमत या असहमत हुआ जा सकता है, स्वामी के दावों में कोई सबूत नहीं हैै। इसलिए कलाम की बात पर ही भरोसा करना होगा। हालांकि शरद यादव की बात में एक तथ्य अवश्य है कि कलाम को उसी समय यह सब बताना चाहिए था। कलाम का स्वभाव राजनीतिक नहीं है। वे इस समय सकारात्मक राजनीति के सबसे बड़े आईकान हैं। युवा और हमारे वर्तमान राजनीतिक माहौल से चिड़े मध्यवर्गीय युवाओं की पहली पसंद हैं। गांव का पढ़ा लिखा तबका भी कलाम को पसंद करता है। कलाम भारतीय राजनीति को नए मोड़ और लोगों को नई समझ देने वाले व्यक्तित्व के रूप में भी स्थापित हैं।
कुछ और मुद्दे भी कलाम की किताब में ऐसे हैं, जिन पर शोर मचा है। एक मुद्दा यह है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी नहीं चाहते थे कि कलाम दंगों के बाद गुजरात के दौरे पर जाएं, लेकिन कलाम ने उनकी नहीं मानी। लेकिन कलाम ने गुजरात के दौरे के बाद कोई बयान नहीं दिया, जिस पर विवाद होता। बिहार में राष्ट्रपति शासन लगाने से अपनी असहमति की भी उन्होंने चर्चा की है, जिस पर विवाद हो रहा है। विवाद हो रहे हैं, तो यह कोई बुरी बात नहीं है, बल्कि अपने देश में ऐसे राजनेताओं और महत्वपूर्ण लोगों की कमी है, जो गुजरे हुए वक्त की घटनाओं पर रोशनी डालना जरूरी समझते हों। भारत में जनता से वास्तविक मुद्दों दूर रखने की गोपनीयता का बुखार चढ़ा रहता है, ऐसे में अगर तथ्य सामने लाए जा रहे हैं तो अफवाहों और अटकलों को विराम लगेगा और सच को सार्वजनिक रूप से जानने में मदद मिलेगी।
टाइम पत्रिका जिस प्रकार अपनी रेटिंग्स को दर्शाती है उसका आधार क्या है? दो साल पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह देश को महाशक्ति बना रहे थे और आज वह अंडरअचीवर होकर रह गए हैं? सच क्या है?
टा इम या उस जैसी कई पत्रिकाएं पश्चिमी अमेरिकी समाज के पास हैं। वे जब तब खास तरह की रेटिंग्स की जबरिया घोषणाएं करती रहती हैं। कभी किसी को महा सांप्रदायिक घोषित करती हैं तो कभी फिर उसे उस देश का प्रधानमंत्री भी बनवाती हैं। सालों से यह खेल जारी है। विश्व मीडिया को प्रभावित करने और अपने अनुसार बनाए सच को महिमामंडित करने के इस अनोखे खेल में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लपेटे में लिया है।
भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण में अग्रणी भूमिका निभाने के लिए प्रशंसा के पात्र रह चुके प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अमेरिका की एक प्रतिष्ठित पत्रिका ने उम्मीद से कम सफल प्रधानमंत्री बताते हुए कहा कि सिंह सुधारों पर सख्ती से आगे बढ़ने के अनिच्छुक लगते हैं। टाइम पत्रिका के एशिया अंक के कवर पेज पर प्रकाशित प्रधानमंत्री की तस्वीर के साथ शीर्षक दिया गया है- उम्मीद से कम सफल भारत को चाहिये नई शुरुआत। पत्रिका ने सवाल किया है कि क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने काम में खरे उतरे हैं? पश्चिम आज भी बताता है कि कौन अपने काम में खरा उतरा है या नहीं। वे हर उस व्यक्ति को कमजोर बताते हैं जो उनके एजेंडे को लागू नहीं करता। टाइम की रिपोर्ट में कहा गया है कि आर्थिक वृद्धि में सुस्ती, भारी वित्तीय घाटा और लगातार गिरते रुपये की चुनौतियों का सामना करने के साथ ही कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) की सरकार भ्रष्टाचार और घोटालों से घिरी हुई है और सुधारों को आगे बढ़ाने में कमजोरी दिखाने की दोषी है। अब यहां देखा जा सकता है टाइम का रुख। वह कहना चाहती है कि अमेरिकी आर्थिक नीतियों को जो प्रधानमंत्री नहीं अपनाता तो वह प्रधानमंत्री अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरता। पत्रिका आरोप लगा रही है कि देश के भीतर और बाहर के निवेशक कदम बढ़ाने से हिचकने लगे हैं। बढ़ती महंगाई और घोटाला दर घोटाला सामने आने से सरकार की साख से मतदाताओं का विश्वास उठने लगा है। अमेरिकी परिभाषा को देखें तो उसके लिए एफडीआई ही विकास का और जल्दी फैसले लेने का प्रतीक है। यह जरूरी नहीं कि वह भारत के लिए उपयुक्त हो, लेकिन टाइम का ब्रांड है जिसे अमेरिका दुनिया को बेचता है।
पत्रिका ने बताया पिछले तीन साल के दौरान उनमें जो विश्वास था वह अब नहीं दिखाई देता। ऐसा लगता है कि अपने मंत्रियों पर उनका नियंत्रण नहीं रह गया। वित्त मंत्रालय के उन्हें मिले अस्थाई कार्यभार के बावजूद लगता है कि उदारीकरण की जिस प्रक्रिया की उन्होंने शुरुआत की थी वह उस पर आगे मजबूती के साथ नहीं बढ़ पा रहे हैं। अब उदारीकरण किसका? अमेरिकी कारपोरेट का? प्रणब मुखर्जी जब तक ये समझे तब उन्हें वित्तमंत्री पद से हटना पड़ा। यह दबाव की नीति है जिसमें सच के जीरे का अमेरिकी स्टाइल का बघार लगा है। टाइम हमारे देश के लिए या किसी के लिए भी कोई मानक तय नहीं कर सकती। भारतीयों को अपनी समझ पर भरोसा है और विश्वास है।
राष्ट्रपति की गरिमा
पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम जैसे किसी भी व्यक्त्वि के लिए गरिमा सबसे महत्वपूर्ण होती है। यह सच है कि कलाम ने कभी भी मर्यादाहीन बयान या राजनीतिक विवादों में खुद को नहीं सौंपा। वैज्ञानिक के साथ साथ राष्ट्रपति के रूप में कलाम की लोकप्रियता में उनका निर्विवाद रहना भी शामिल है। वे विवादों से दूर रहे हैं। उनकी छवि सकारात्मकता से परिपूर्ण और देश के युवाओं को प्रोत्साहन वाली रही है। आज उनकी स्वारोक्ति पर विवाद होना आश्चर्यजनक है। कलाम की किताब पर सबसे ज्यादा विवाद उस हिस्से पर है, जिसमें उन्होंने लिखा है कि ‘यदि 2004 में सोनिया गांधी अगर प्रधानमंत्री पद का दावा पेश करतीं, तो उनके पास उन्हें प्रधानमंत्री की शपथ दिलवाने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता।’
कलाम की इस स्वीकारोक्ति पर विवाद की बेल हरी हो रही है। सबसे पहली आलोचना जनता दल (यू) के अध्यक्ष शरद यादव ने की है-‘अगर कलाम को कुछ कहना ही था, तो उसी समय कहना चाहिए था। आठ साल बाद बयान देना ठीक नहीं है। बाल ठाकरे कहा कि कलाम सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री क्यों बनाना चाहते थे? जनता पार्टी नेता सुब्रहण्यम स्वामी का कहना है कि कलाम गलत बयानी कर रहे हैं और उन्हें उस वक्त सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने पर आपत्ति थी। स्वामी का दावा है कि कलाम ने उस वक्त सोनिया गांधी को इस आशय का पत्र भी लिखा था। बाल ठाकरे की आलोचना से सहमत या असहमत हुआ जा सकता है, स्वामी के दावों में कोई सबूत नहीं हैै। इसलिए कलाम की बात पर ही भरोसा करना होगा। हालांकि शरद यादव की बात में एक तथ्य अवश्य है कि कलाम को उसी समय यह सब बताना चाहिए था। कलाम का स्वभाव राजनीतिक नहीं है। वे इस समय सकारात्मक राजनीति के सबसे बड़े आईकान हैं। युवा और हमारे वर्तमान राजनीतिक माहौल से चिड़े मध्यवर्गीय युवाओं की पहली पसंद हैं। गांव का पढ़ा लिखा तबका भी कलाम को पसंद करता है। कलाम भारतीय राजनीति को नए मोड़ और लोगों को नई समझ देने वाले व्यक्तित्व के रूप में भी स्थापित हैं।
कुछ और मुद्दे भी कलाम की किताब में ऐसे हैं, जिन पर शोर मचा है। एक मुद्दा यह है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी नहीं चाहते थे कि कलाम दंगों के बाद गुजरात के दौरे पर जाएं, लेकिन कलाम ने उनकी नहीं मानी। लेकिन कलाम ने गुजरात के दौरे के बाद कोई बयान नहीं दिया, जिस पर विवाद होता। बिहार में राष्ट्रपति शासन लगाने से अपनी असहमति की भी उन्होंने चर्चा की है, जिस पर विवाद हो रहा है। विवाद हो रहे हैं, तो यह कोई बुरी बात नहीं है, बल्कि अपने देश में ऐसे राजनेताओं और महत्वपूर्ण लोगों की कमी है, जो गुजरे हुए वक्त की घटनाओं पर रोशनी डालना जरूरी समझते हों। भारत में जनता से वास्तविक मुद्दों दूर रखने की गोपनीयता का बुखार चढ़ा रहता है, ऐसे में अगर तथ्य सामने लाए जा रहे हैं तो अफवाहों और अटकलों को विराम लगेगा और सच को सार्वजनिक रूप से जानने में मदद मिलेगी।
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