गुरुवार, जून 14, 2012

मध्यप्रदेश में मनरेगा, सच के सामने चिदंबरम , जोशी मोदी और भाजपा

 
 मध्यप्रदेश में मनरेगा


किसी राष्ट्रीय कल्याणकारी योजना को सफल बनाना और उसके लाभ जनता तक पहुंचाना सरकारों की जिम्मेदारी है। मनरेगा के क्रियान्वयन में मध्यप्रदेश राज्यों में तीसरे क्रम पर आ गया है।


म हात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) एक व्यापक ग्रामीण समाज के लिए वरदान साबित हुई है। बेशक इसमें भ्रष्टाचार के मामले भी सामने आते रहे हैं इसके बाद भी उसने गांवों में रोजगार देकर  52 लाख परिवारों को लाभान्वित किया है। मनरेगा के द्वारा ग्रामीण मजदूर और खेतीहर मजदूर किसानों के लिए रोजगार के अवसरों को गारंटी के साथ उपलब्ध कराना रहा है। इस योजना में 2011-12 में ग्रामीण अंचलों में जरूरतमंदों को रोजगार उपलब्ध करवाने के लिए राशि खर्च करने के क्रम में मध्यप्रदेश देश में तीसरे स्थान पर रहा है। प्रदेश में इस अवधि में 3,520 करोड़ रुपये रोजगार देने वाली योजनाओं पर खर्च किए गए हैं और 1797 लाख मानव दिवसों का रोजगार उपलब्ध करवाया गया है। इस दौरान 2 लाख 44 हजार ग्रामीण परिवारों को 100 दिवस का रोजगार दिया गया है। देश के अन्य राज्य राजस्थान, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और बिहार राशि खर्च करने के मामले में मध्यप्रदेश से पीछे रहे हैं। मनरेगा में देश भर का बजट 40 हजार करोड़ रुपए रहा है। मध्यप्रदेश ने अपने हिस्से का बजट समयानुसार खर्च कर यह साबित किया है कि वह राष्ट्रीय योजनाओं के क्रियान्वयन में भी राज्यों में शीर्ष पर है।
प्रदेश में मनरेगा के सुचारु क्रियान्वयन के लिये कई उल्लेखनीय प्रयास हुए हैं। शिकायत निवारण नियम तैयार किए गए हैं और सामाजिक अंकेक्षण पर व्यापक जोर दिया जा रहा है। निर्माण कार्यों की गुणवत्ता और समयावधि में निर्माण पूरे करने के मकÞसद से 1291 संविदा उप यंत्रियों की भर्ती की कार्रवाई अंतिम चरण में है। मनरेगा में प्रत्येक ग्राम-पंचायत में ग्राम रोजगार सहायकों की नियुक्ति ग्राम-पंचायतों द्वारा करने का निर्णय लिया गया है। इन ग्राम रोजगार सहायकों को लैपटॉप तथा कम्प्यूटर भी उपलब्ध करवाए जा रहे हैं। इस व्यवस्था से मनरेगा के कार्यों के नियंत्रण तथा बजट व्यवस्था को सुचारु बनाने में आसानी होगी।
मनरेगा के तहत अब तक बुनियादी विकास कार्यों और ग्रामीणों की बेहतरी के लिए सबसे अच्छी योजना रही है। मध्यपदेश में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के जरिये शुरुआत से अब तक विकास कार्यों और ग्रामीणों की बेहतरी के लिए लगभग 18 हजार करोड़ राशि खर्च की जा चुकी है। इससे 9 लाख 78 हजार से अधिक कार्य हुए हैं। लेकिन मनरेगा में भी धन के दुरुपयोग के मामले आए हैं। प्रदेश सरकार ने भ्रष्टाचार के मामलों को सख्ती से रोका भी है। यही कारण है कि मनरेगा के क्रियान्वयन में लापरवाही और गड़बड़ी के मामलों में प्रदेश में अब तक 2,143 शासकीय कर्मचारियों-अधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाई की गई है। इसके बावजूद, योजना के लाभों को और अधिक सटीक तरीके से हितग्राहियों तक पहुंचाने की आवश्यकता है। किसी भी बड़ी योजना में उत्कृष्ट परिणामों के लिए निरीक्षण एवं अवलोकन की निरंतरता बनी रहनी चाहिए।

सच के सामने चिदंबरम


मामला खत्म करने के लिए दायर पी चिदंबरम की याचिका को निचली अदालत ने 4 अगस्त 2011 को खारिज कर दिया था, अब हाईकोर्ट ने भी केस चलते रहने का फैसला दिया है।


पी चिदम्बरम की दिक्कतें कम या अधिक होने से इस केस का कोई वास्ता नहीं है। जैसा कि मीडिया में कहा जा रहा है कि यह सरकार और चिदम्बरम के लिए बड़ा झटका है। क्यों है यह झटका? जो सच रहा है इस केस में अदालत उसके लिए ही तो सामने लाने की कोशिश कर रही है। वास्ता सरकार को या गृहमंत्री को झटके का नहीं है, इसका वास्ता सच के सामने आने का है। चिंदबरम ने चुनावी परिणामो ंको कैसे प्रभावित किया था और यदि यह सच साबित होता है तो फिर चिदम्बरम सजा भुगतेंगे। यह न झटका है और न कोई अनोखी बात। अपराध सिद्ध होने पर आप अपराध की सजा हासिल करेंगे। इस मामले में चिदम्बरम की याचिका पर अदालत का यह फैसला मायने रखता है। मद्रास हाई कोर्ट की मदुरै बेंच ने गृहमंत्री पी. चिदंबरम के निर्वाचन विवाद में उनके खिलाफ केस जारी रखने का आदेश दिया है। कोर्ट ने कहा कि चिदंबरम के खिलाफ इस मामले में पर्याप्त सबूत हैं। चिदंबरम ने दलील दी थी कि कन्नपन की याचिका में कई खामियां हैं, लिहाजा इसे खारिज किया जाए। मामला 2009 के शिवगंगा लोकसभा चुनावों में मतगणना के दौरान चिदंबरम के विरोधी प्रत्यासी राजा कन्नपन अपने नजदीकी उम्मीदवार चिदंबरम पर बढ़त बनाए हुए थे। लेकिन आखिर में कन्नपन 3,354 वोटों से हार गए थे।  कन्नपन ने 25 जून 2009 को चिदंबरम की जीत को मद्रास हाईकोर्ट में चुनौती दी।  कन्नपन ने आरोप लगया कि चुनाव में वह जीते थे, लेकिन डाटा एंट्री आॅपरेटर ने गड़बड़ी कर उनको मिले वोट चिदंबरम के खाते में डाल दिए थे। सवाल ये उठता है कि ये आरोप सही हो जाते हैं तो चिदंबरम के राजनीतिक व्यक्त्वि का कितना हास होगा? देश के लोकतांत्रिक राजनीतिक माहौल को कितना आघात लगेगा? चिदंबरम जब एयरसेल मैक्सिस डील पर उठे विवाद में भावनात्मक अपील करते हैं कि कोई चाहे तो मेरे सीने में खंजर मार दे लेकिन मेरी ईमानदारी पर शक न करे। तो यह उनकी प्रतिबद्ध   ईमानदारी का सबब बन जाता है, लेकिन अदालत के फैसले के बाद उनकी करनी, नीति और नीयत के साथ-साथ उनकी संसद सदस्यता भी सवालों के घेरे में आ  रही है।
चिदंबरम का यह मामला यूपीए सरकार की प्रतिष्ठा का मामला भी बनता जा रहा है। चिदंबरम सरकार में गृहमंत्री हैं और निश्चय ही विपक्ष इस मामले को सरकार की प्रतिष्ठा से जोड़ेगा। ऐसा लगता है कि सरकार में सख्त फैसले लेने और उन पर अमल करने की नैतिक साहस की भारी कमी है। जो चल रहा है चलने दो की स्थिति दिखाई देती है। प्रधानमंत्री के ईमानदार होने के बाद भी, उन्हें अपने फैसलों के लिए जिम्मेदार होना ही होगा। समय पर फैसले न लेना उतना ही घातक है जितना कि फैसले ही न लेना। सरकार इस स्थिति  में कोई अंतर नहीं कर पा रही है। ऐसा लगता है कि कार्यपालिका ने देश में सब कुछ अदालतों के भरोसे छोड़ दिया है। आगे जो भी होगा सबूतों के आधार पर अदालत के फैसले से सामने आएगा। फिलहाल अदालत के फैसले ने चिदम्बरम को शक के घेरे से बाहर नहीं किया है।

जोशी मोदी और भाजपा


भारतीय जनता पार्टी में कमजोर केंद्रीय नेतृत्व का अभाव झलकने लगा है। मोदी और जोशी मामला हदें पार कर चुका है और यह पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र का गला घोटने जैसा है।


 शुक्रवार को घटनाक्रम बहुत तेजी से घटा। भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय  कार्यकारिणी से संजय जोशी को इस्तीफा देने के लिए मजबूर कर चुके मोदी ने उन्हें बीजेपी छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया।  पार्टी के अनुसार संजय जोशी ने पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी को चिट्ठी लिखकर पार्टी के सभी दायित्वों से मुक्त करने का आग्रह किया था, जिसे पार्टी ने स्वीकार कर लिया  है। इसके कुछ ही देर बाद मीडिया में पार्टी की ओर से आधिकारिक बयान भी जारी कर दिया गया।
संजय जोशी ने नरेंद्र मोदी की वजह से पार्टी छोड़ने का फैसला किया। मोदी ने भी पार्टी छोड़ने की धमकी दी थी।  नितिन गडकरी मामले को राष्ट्रीय स्तर की कुशलता से सुलझा नहीं पाए। उन्होंने किसी बड़ी पार्टी के केंद्रीय अधिकारी होने के नाते अनुशासन को भी नहीं बनाए रख पा रहे हैं। ऐसा लगता है कि भारतीय जनता पार्टी में भीतरी तानाशाही का जन्म गुजरात से हो गया है। हालांकि जोशी ने कहा कि वह नहीं चाहते कि पार्टी में उनकी वजह से कोई समस्या पैदा हो। लेकिन समस्या तो अब शुरु हुई है।  भाजपा में मोदी युग उसके राजनीतिक और वैचारिक विघटन के साथ अपनी शुरुआत कर चुका है।
जोशी और मोदी की ये दुश्मनी बीस साल पुरानी है। मोदी के आने से पहले केशुभाई के साथ उस समय चुनावों में संजय जोशी ही हारे थे। संजय जोशी की  पार्टी में वैचारिक और संघ कार्यकर्ताओं में तो पकड़ है लेकि  जनता का साथ उन्हें नहीं मिलता रहा है। केशुभाई, वाघेला, सुरेश महेता, आडवाणी, बाजपेयी, सुषमा, जेटली, वसुंधरा, जेठमलानी सब ने संजय जोशी को गुजरात में साथ दिया था तबभी और वह चुनाव भाजपा हार गई थी। जब मोदी ने कमान संभाली तो भाजपा चुनाव जीती थी।  उत्तर प्रदेश 2012 के चुनावों में मोदी को कमान न दे कर फिर संजय जोशी को कमान दी और भाजपा फिर हारी।  यही कारण है कि संजय को उनकी मांद संघ में ही पहुंचा दिया गया है।   जोशी के साथ मोदी ने हर लड़ाई में जीत हासिल कर ली है। लेकिन मोदी जिस तरह अपने राजनीतिक अभियान में आगे बढ़ रहे हैं क्या वे यह भी देख रहे हैं कि देश की जनता उनको कैसे देख रही है।
आखिर पार्टी के अंदर का लोकतंत्र खत्म किया जा सकता है तो देश के लोकतंत्र को भी मोदी खतरनाक हो सकते हैं? इसका सबूत है। बिहार के उपमुख्यमंत्री और बीजेपी नेता सुशील मोदी ने इशारों-इशारों में नरेंद्र मोदी पर हमला किया है। सुशील मोदी ने कहा कि कोई भी नेता पार्टी से बड़ा नहीं हो सकता। यह भी कहा कि जिस तरह से संजय जोशी को कार्यकारिणी से इस्तीफा दिलवाया गया वह ठीक नहीं है। सुशील मोदी ने कहा कि बीजेपी एक लोकतांत्रिक पार्टी है और ऐसे में किसी को ये कोशिश नहीं करनी चाहिए कि वह अपनी बात पार्टी पर थोप दे।  पार्टी के लिए जोशी की इस ‘कुर्बानी’ से साफ हो गया है कि से बीजेपी का बवाल थमने के बजाय और बढ़ेगा।
                                                                                                             Ravindra swapnil prajapti


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