शुक्रवार, सितंबर 30, 2011

उसने ओम थानवी का कान कैसे पकड़ा और क्या कहा





(सतीश जायसवाल कहानीकार हैं। कोरबा में रहते हैं। ये पोस्ट उनके ब्लॉग से ली है। पीपुल्स समाचार में प्रकाशित है...  )


  क्या, किसी के लिये भी यह बात विश्वसनीय हो सकती है कि हिंदी के राष्ट्रीय दैनिक ‘जनसत्ता’ के प्रमुख संपादक श्री ओम थानवी अपने कान की सफाई के लिए नई दिल्ली के ‘एम्स’ को छोड़ कर कटघोरा (जिला-कोरबा, छत्तीसगढ़) में एक कान सफाई करने वाले के हत्थे चढ़ जाएंगे? लेकिन कटघोरा के व्यवहार न्यायालय परिसर में कई लोगों ने वह दृश्य देखा कि वहां घूम-घूम कर अपना ग्राहक ढूंढ रहे एक सड़क छाप कान सफाई करने वाले ने थानवी जी का कान पकड़ रखा है। देखने वालों में एक मैं भी हूं इसलिये इस बात की विश्वसनीयता बिलकुल भी संदिग्ध नहीं है। यह एक दिलचस्प प्रसंग है।
थानवी जी अपने किसी अदालती मामले में कटघोरा आए  हुए थे और अपने पुकारे जाने का रास्ता देखते हुए अदालत के परिसर में पेड़ के नीचे खड़े थे। तभी, ‘कान का मैल साफ़  करने वाले’ ने ग्राहक ढूंढने की अपनी कला का प्रमाणित परिचय दिया। उसके और उसके धंधे के प्रति एक पत्रकार के पास जैसे सवाल हो सकते हैं, वो सब थानवी जी के पास थे और उनकी पत्रकारिता और उनकी हैसियत से बिलकुल अनजान उस कान सफाई करने वाले ने उनके प्रत्येक सवाल का जवाब दिया। दाम भी बताया, 10 रुपये प्रति कान। लेकिन थानवी जी अपने कान को जोखिम में डालने का साहस नहीं कर सके। और उन्होंने उसे मना कर दिया। लेकिन वह भी, हाथ आये अपने एक तगड़े ग्राहक को ऐसे ही कैसे छोड़ सकता था ? उस ने हिम्मत नहीं हारी और थानवी जी से कहा, चाहे सफाई ना कराएं लेकिन अपना कान देखने की इजाजत तो दे सकते हैं? थानवी जी ने भी कहा, देखते हैं कि क्या देखेगा? और वह इतना ही चाहता था। एक बार उनका कान उसके हाथ में आया तो वह अपने हाथ का हुनर दिखा कर ही माना। उस के पास एक ही मौका था जिसे धैर्य और पूरे आत्मविश्वास के साथ इस एक मौके को अपने हक़  में कर लिया। थानवी जी ने भी उसे 10 की जगह पूर 50 रुपये देकर उसकी चतुराई को सम्मानित किया।
चमड़े के छोटे से बैग में कुछ सुइयां, रुई के कुछ फाहे, बांस की कुछ पतली-पतली सींकें और 2-3 छोटी शीशियों में रंग-बिरंगी दवाइयां लेकर सड़कों और भीड़ वाली जगहों में घूमते हुए ऐसे ‘कान का मैल निकालने वाले’ अब शहरों में नहीं दिखते। चम्पी और चम्पी-मालिश करने वाले भी नहीं  दिखते। यह एक लम्बी सूची है जिसमें हमारे देखे हुए दृश्य एक-एक करके हमारे अनुभव-संसार से लुप्त होते जा रहे हैं। एक आंख में खुर्दवीन की ऐनक लगा कर घड़ी सुधारने वाले घड़ीसाज, तालाचाबी बनाने वाले, छतरी और बिगड़ी हुई टार्च बत्तियां सुधारने वाले, पीतल के बर्तनों में कलाई करने वाले कारीगर, घोड़े के खुरों में नाल ठोकने वाले लौहार, कपड़ों में रंगाई करने वाले रंगरेज वगैरह-वगैरह। अब यह कितना विचित्र और गैर जिम्मेदाराना लगता है कि अब हम उन्हें रूमानी ‘नोस्टेल्जिया’ में जाकर याद कर रहे हैं? जबकि ये सब की सब किन्हीं ना किन्हीं सामाजिक संरचनाओं का हिस्सा रहे हैं। उन्नत कौशलों ने इन पारंपरिक कौशलों से जीवन यापन करने वाले असंगठित समूह के विशेषज्ञों, कारीगरों के लिए कोई विकल्प नहीं छोड़े।  ऐसे में यह आशा करना सुखद होगा  कि उनके पुनर्वास की भी कहीं चिंताएं हो रही होंगी और योजनाएं बन रही होंगी कि विकास में उनकी भी साझेदारियां निर्धारित की जा सकें। लेकिन ऐसा जरूरी तौर पर होना चाहिए था। अभी भी समय है।
 

जनसंख्या नियंत्रण केरल की एक पहल


 किसी नागरिक को धार्मिक या अन्य आधार पर जनसंख्या नियोजन से बचने या न मानने की अनुमति नहीं


ऐसे में यह कानून उन गरीबों के साथ कैसे न्याय करेगा जिनके बच्चे असमय इलाज के अभाव में मर जाते हैं।


के रल सरकार द्वारा प्रस्तावित केरल ‘वुमेन कोड बिल 2011’ जनसंख्या नियंत्रण के लिए सबसे प्रभावी कानून हो सकता है। जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर की अध्यक्षता वाली 12  सदस्यीय कमेटी ने इस कानून का ड्राफ्ट केरल सरकार को सौंपा है। जस्टिस वीआर कृष्णा एक विद्वान और दूरदर्शी सोच के व्यक्ति हैं। उनकी अध्यक्षता में इस काननू का ड्राफ्ट तैयार किया है तो निश्चय ही यह  तार्किक होगा। बढ़ती जनसंख्या के नियंत्रण के लिए यह जरूरी है कि एक सर्वव्यापी कानून हो। केरल में प्रस्तावित इस कानून से जनसंख्या वृद्धि दर नियंत्रित होगी। महिला कल्याण तथा बाल विकास सूचकांक में भी सुधार होगा। इस बिल में कई अच्छी बातें शामिल हैं।  इसमें सबसे प्रमुख यही है कि प्रदेश के किसी नागरिक को धार्मिक, जाति, क्षेत्र या राजनीतिक आधार पर जनसंख्या नियोजन से बचने या न मानने की अनुमति नहीं होगी। शादी के समय गर्भ निरोधक उपायों एवं इससे संबंधित जानकारी भी निशुल्क प्रदान की जाएगी। निशुल्क गर्भपात की व्यवस्था भी इसमें है। 19 साल की उम्र के बाद शादी और 20 साल के बाद बच्चा पैदा करने पर प्रोत्साहन राशि देने का प्रावधान रखा गया है। केरल सरकार का यह कानून महिला कल्याण तथा जनसंख्या नियंत्रण के लिए कारगर पहल साबित होगा।


स  रकार अब बच्चे पैदा करने पर नियंत्रण कर रही है।  हम सरकार को बताएंगे कि हम 20 साल के हो गए। हम बच्चा पैदा कर रहे हैं। सरकार समाज की परंपराएं और उसके रीतिरिवाजों को ध्यान में रखे  बिना कानून बना रही हैं। सरकार का यह कानून प्रदेश की सामाजिक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में हस्तक्षेप है। यह कानून नागरिकों के मौलिक अधिकारों में भी दखल है। बच्चा पैदा करना एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, जिस पर सरकार नियंत्रण करना चाहती है। तीसरा बच्चा पैदा होने पर पति को 10 हजार का जुर्माना और तीन साल की सजा का प्रावधान है। इस तरह की सजाएं व्यक्ति को अपने ही बच्चे को इंकार करने वाले हादसों को अंजाम दे सकती हैं। हो सकता है कि तीसरे बच्चे के जन्म के लिए दूरदराज के लोग अस्पतालों में ही न जाएं। एक गरीब के लिए तीन चार बच्चे उसके घरेलू कामों में हाथ बंटाने और सहयोगी होते हैं। अमीर परिवारों की अपेक्षा बाल मृत्युदर गरीब परिवारों में  अधिक होती है। ऐसे में यह कानून उन गरीबों के साथ कैसे न्याय करेगा जिनके बच्चे असमय इलाज के अभाव में मर जाते हैं। रोज कमाने वाले मजदूर के लिए जनसंख्या नियोजन कानून की कैद  परिवार के लिए भूखों मरने जैसे स्थितिएं पैदा करेगा।



क्  या अब राज्य तय करेगा कि आपको कितने बच्चे पैदा करना है।    यह राज्य द्वारा व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अतिक्रमण है। बच्चे पैदा करना एक प्राकृतिक परिघटना है इसमें कानूनी बंदिशें और अनुशासन व्यक्ति की स्वतंत्रता और उसके निजी जीवन के फैसलों मेंअनावश्यक दखल है। इस तरह के कानूनों की जगह में  लोगों में स्वभाविक तरीके से जनसंख्या नियंत्रण को प्रेरित करना चाहिए। इस दिशा में देश ने सफलताएं अर्जित की हैं।

बच्चों की सुरक्षा में कानून का नया ड्राफ्ट

 
इस कानून में  14 से 18 वर्ष की आयु के बच्चों के बीच आपसी सहमति से सेक्स संबंध आपराधिक नहीं होंगे।



बा ल सुरक्षा विधेयक-2011 का ड्राफ्ट चर्चा में है। बच्चों के अधिकारों और उनके यौन शोषण के खिलाफ एक समग्र कानून ड्रॉफ्ट किया गया है। इस कानून में यौन अपराधों को दो वर्गों में बांटा गया है। किशोर वर्ग के यौन-सबंध और बच्चों की सुरक्षा में लगे अधिकारियों जैसे पुलिस, शिक्षक, प्राचार्य, हॉस्टल वार्डन, परिवार तथा रिश्तेदार आदि द्वारा शारीरिक शोषण जिसे जघन्य अपराध माना गया है। इस अपराध की सजा आजीवन है। यह कानून जीवन के सामाजिक  बदलावों को स्वीकार करता है क्योंकि समृद्ध जीवन शैली के कारण किशोरों की शारीरिक परिवर्तन की उम्र कम हो गई है। डॉक्टरों के अनुसार आजादी के समय रजस्वाला होने की उम्र 12-13 वर्ष थी जो अब 9-11 हो गई है। टीवी फिल्म और अन्य दृश्य श्रृव्य माध्यमों के कारण बच्चों में सेक्स के प्रति जिज्ञासा बढ़ रही है। समाज में 14 से 18 वर्ष के किशोरों के बीच सेक्स संबंधों में वृद्धि हुई है। इस कानून में 14 से 18 वर्ष की आयु के बच्चों के बीच आपसी सहमति से सेक्स संबंध आपराधिक नहीं माने जाएंगे। उन पर कोई सजा लागू नहीं होगी। यह एक प्रकार से बच्चों को अपराध बोध से मुक्त रखने का प्रयास है।

इन प्रावधानों से लड़कियों की बदनामी को शह मिलेगी और इससे सामाजिक आचार विचार ध्वस्त हो जाएंगे।


अ भी तक 18 साल तक के किशोरों को सेक्स संबंधों पर साधारण कानून था। जिसके तहत बच्चों पर आइपीसी की धाराओं में रेप का केस दर्ज होता था। बाल सुरक्षा कानून के ड्राफ्ट में  इसको बदला गया है। इस बदलाव के लिए लाए गए दो प्रावधानों पर समाज को आपत्ति है। पहला 14 से 16 वर्ष तक के बच्चों में नॉन पेनीट्रेटिव सेक्स को जायज माना गया है। 16 से 18 वर्ष तक के बच्चों के बीच सहमति से पेनीटेÑटिव सेक्स संबंधों को कानूनी अनुमति होगी। समाज के एक तबके का कहना है कि इंटरनेट, टीवी और फिल्मों से किशोरों में पहले से ही इस संबंध में जानकारियां हैं। अगर कानूनी अनुमति मिलती है तो किशोर उन्मुक्त हो जाएंगे। भारतीय समाज अभी तक ऐसे परिवर्तनों के लिए तैयार नहीं है। यहां कौमार्य को अभी भी महत्व दिया जाता है। इस कानून से लड़कियों की बदनामी को शह मिलेगी और सामाजिक आचार ध्वस्त हो जाएंगे। दूसरा मुद्दा है कि 18 साल तक के किशोर की सेक्स संबंधों के प्रति मूल भावना क्या है? इस कानून में इसका उल्लेख नहीं है।




कि सी भी समाज की स्थितियों, समस्याओं और स्थापनाओं के साथ शोषण और दमन को खत्म करने के लिए केवल कानून ही पर्याप्त नहीं होते। मानवीय समाज में नियम कानूनों के साथ उनके प्रति जागरूकता होना आवश्यक है। समाज को नियमों में बांधने से पूर्व उसका सामाजिक सांस्कृतिक अध्ययन जरूरी हैं। भारतीय समाज परिवर्तन स्वीकार करता है लेकिन पहले सांस्कृतिक-सामाजिक तार्किता पर भी कसता है।

पीपुल्स समाचार में प्रकाशित

बुधवार, सितंबर 21, 2011

चिंता में मालवा का मौसम और मिट्टी



देश मालवा गहन गंभीर, डग डग रोटी पग पग नीर।   
                                                    - अमीर खुसरो


ते रहवीं सदी के कवि अमीर खुसरो की ये पंक्तियां मालवा की समृद्धि का बयान करती हैं। इतिहासकार रोमिला थापर का कहना है कि कविता की पंक्तियों में इतिहास भी दर्ज होता है। लेकिन हाल ही में मालवा अंचल की भूमि एवं कृषि पर वैज्ञानिकों ने 500 से अधिक गांवों  पर जांच रिर्पोट प्रस्तुत की है। इस दौरान 2900 परीक्षण नमूने एकत्रित किए गए। इसमें मालवा अंचल के अधिकांश जिलों में मिट्टी अनुपजाऊ होते जाने की जांच परख की गई है। मालवा की माटी ज्वालामुखी के लावे से निर्मित होने के कारण अत्यंत उपजाउ रही है। मालवा में  पानी के लिए छोटी बड़ी नदियों का जाल बिछा है। वर्षा यहां वरदान की तरह होती रही है। मालवा का अधिकांश भाग चंबल नदी तथा इसकी शाखाओं द्वारा संचित है, पश्चिमी भाग माही नदी द्वारा संचित है। कृषि भूमि के उपजाऊ और आर्थिक रूप से समाज की समृद्धि के कारण  कारण यहां संस्कृति के विविध रंग आए। इतिहासकार डीसी गांगुली का लिखते हैं कि ‘मालवा वर्तमान में लगभग 46,760 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है। मालवा में ज्वालामुखी उद्गार से बनी काली परत होने के कारण आधारभूत रूप से उपजाऊ है। मालवा का गेंहू दुनिया भर में इस मिटटी के कारन स्वादिस्ट है ....


मा  लवा को अब ऐसा क्या हो गया कि इसकी उपजाऊ जमीन बंजर में बदल रही है। जांच कर्ताओं ने जो नमूने लिए थे उनमें रासायनिक खादों के अत्यधिक इस्तेमाल प्रमुख कारण माना गया है।  पेड़ और जंगल कटने के कारण मिट्टी में प्राकृतिक तरीके से मिलने वाले जैविक अंश खत्म हो गए। मृदा वैज्ञानिक  डॉ. आरए शर्मा का कहना है कि मालवा की मिट्टी में नाइट्रोजन और गंधक जैसे सूक्ष्म तत्वों की भारी कमी है। वैज्ञानिकों के अनुसार अनियमित फसल चक्र, रासायनिक उर्वरकों अधिक इस्तेमाल, अधिक पानी का दोहन, जिसमें ट्यूबबेल लगा कर पानी लेना प्रमुख है। किसानों द्वारा एक ही फसल को बार-बार बोना, जैविक  पदार्थों का खेतों खाद के रूप में इस्तेमाल की परंपरा का बंद होना और परंपरागत खेती से दूर होने के कारण खेतों की मिट्टी उर्वरा क्षमता घट रही है। ये हालात मालवा ही नहीं कई जगहों पर भी पैदा हो रहे हैं। लागत वसूलने के लिए किसान अत्यधिक रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का इस्तेमाल करने लगा है। ऐसे मामलों में भूमि के दूरगामी प्रभावों के बारे में उसकी जानकारी शून्य है। वह सरकार की नीतियों के तहत उर्वरकों का इस्तेमाल कर रहा है।

इं  दौर कृषि कॉलेज के डीन डॉ. अशोक कृष्ण का कहना है कि किसानों को ज्यादा से ज्यादा गोबर और अन्य जैविक पदार्थों का इस्तेमाल करते हुए मिट्टी की उर्वरता बनाए रखना आवश्यक है। इस मामले में सरकार को भी ध्यान देना चाहिए।  इस मामले में कृषि विभाग और उसके कर्मचारियों को मिल कर पूरे प्रदेश में एक सतर्कता अभियान चलाना चाहिए। किसानों को प्रशिक्षण भी इन हालातो से निबटने में मददगार होंगे।

सोमवार, सितंबर 19, 2011

आतंक से सुरक्षा देने में नाकामयाब सरकार

 

पी चिदंबरम के बयान में लाचारी झलक रही है। अभी उन्हें ये बताना भी संभव नहीं कि इस समय ये बताना संभव नहीं कि इसके पीछे किस गुट का हाथ है।



सा त  सितम्बर की सुबह दिल्ली में आतंकवादियों ने 11 लोगों को मौत के नींद सुला दिया। दिल्ली उच्च न्यायालय के गेट नम्बर पांच में हुए इस विस्फोट में 76 से अधिक लोग घायल हुए हैं। इस विस्फोट की जांच राष्टीय जांच एजेंसी (एनआईए) के सुपुर्द कर दी गई है, जिसमें बीस लोगों की टीम काम कर रही है। एक विशाल देश की राजधानी का दुर्भाग्य है कि उसमें 15 सालों में 17 धमाकों की वारदातें हुई हैं। इनमें दिल्ली करीब 128 नागरिकों खो चुकी है। 350 से अधिक लोग स्थाई रूप से विकलांग हो चुके हैं। धटना के बाद सरकार में बैठे आला मंत्रियों और प्रधानंमत्री ने एक बार फिर गृहमंत्री और प्रधानमंत्री ने अपने भावनात्मक बयानों को दोहरा दिया है। आज देश की जनता इन वारदातों के पीछे नेटवर्क पर की गई कार्यवाही का हिसाब चाहती है। कोई बताने तैयार नहीं है कि आखिर पी चिदम्बरम ने किया क्या। मुंबई के विस्फोटों के घाव ताजा ही थे कि फिर दिल्ली को जख्म उठाना पड़े।
आतंकवादियों द्वारा देश के नागरिकों को हत्या करना सरकार और उस देश की संप्रभुता और स्वतंत्रता पर हमला करना है। ये विस्फोट देश की शांति और अखंडता को बड़ी चुनौती बनते जा रहे हैं। आतंकवादियों का उद्देश्य  सिर्फ हिंसा है और यह भी साफ जाहिर है कि यह षड्यंत्र सरकार और देश के खिलाफ युद्ध है। मुंबई सहित देश में होने वाली आतंकी वारदातों के मद्दे नजर सरकार और सुरक्षा एजेंसियां लगातार दबाव में काम कर रही हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संकल्प दोहराया है कि ये आतंकवादियों का एक कायरतापूर्ण क़दम है. हम आतंकवाद के दबाव में झुकेंगे नहीं और इसका सामना करेंगे और ये एक लंबी लड़ाई है जिसमें सभी भारतीयों और सभी राजनीतिक दलों को एक साथ खड़ा होना होगा जिससे बढ़ते आतंकवाद को कुचला जा सके। प्रधानमंत्री का ये बयान क्या दोहराव नहीं लगता? वही शब्द वही धैर्य और मिलजुल कर मुकाबला करने की बातें? आखिर कब तक? हम देश को एक संगठित शक्ति और आक्रामकता का विकास कब तक कर पाएंगे? लोग पूछते हैं और बातें करते हैं कि आखिर देश में यह सब क्यों हो रहा है। किसी भी  शह पर हो लेकिन वह देश में क्यों? आज आतंकियों ने यह कह दिया कि अफजल गुरू की फांसी का फैसला रद्द करो?  यह वे क्यों कह सके। हम वोटों और राजनीतिक आत्मविश्वास के बिना कब तक जिएंगे।
 एनआईए प्रमुख एस सी सिन्हा ने मीडिया से बातचीत में कहा कि हूजी के ईमेल संदेश की सत्यता के बारे में कहना जल्दबाजी होगी, हालांकि एजेंसियां ईमेल को गंभीरता से ले रही हैं। यह सवाय यहां भी अनुत्तरित रह जाता है कि आंतक का नेटवर्क हमारी एजेंसियां क्यों नहीं पकड़ पाती हैं।
देश के प्रमुख शहरों मुंबई और दिल्ली में हो रहे धमाकों से सुरक्षा एजेंसियों ने कोई सबक नहीं लिया है। वे आतंक के नेटवर्क को पहचानने और उसे ध्वस्त करने में असफल रही हैं। बार बार हो रहे विस्फोट और हमलों से आतंक के जख्म लोगों में दहशत और असुरक्षा की भावना को स्थाई रूप से अंकित करते जा रहे हैं।  प्रधानमंत्री ने जो भावनात्मक बयान दिया है कि उससे नहीं लगता कि वे आतंक पर कोई बहुत ठोस कार्यवाही करने जा रहे हैं। हम अपने गृह मंत्री की बयानों की पड़ताल करलें। ताकि पता चल सके कि उनके विचार और योजनाएं आतंकवाद पर नर्म और लिजलिजी हैं। गृहमंत्री के बयान में भी लाचारी साफ झलक रही है । वे कहते हैं कि ‘दिल्ली आतंकवादी गुटों के निशाने पर रहा है। खुफिया एजेंसियां पुलिस से जानकारी साझा करती हैं लेकिन इस समय ये बताना संभव नहीं है कि इसके पीछे किस गुट का हाथ है।’ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृह मंत्री पी चिदंबरम ने दिल्ली उच्च न्यायालय के बाहर हुए विस्फोट को आतंकवादी घटना बताते हुए कहा है कि ‘अभी इसके लिए किसी को जिÞम्मेदार ठहराना जल्दबाज़ी होगी।’
दूसरी तरफ बांग्लादेशी आतंकी संगठन हूजी मीडिया को भेजे ईमेल में कहता है, ‘दिल्ली हाईकोर्ट में आज हुए विस्फोट की ज़िम्मेदारी हम लेते हैं...हमारी मांग है कि अफजल गुरु की मौत की सज़ा को तत्काल रद्द किया जाए।’ ये विस्फोट देश के सामने चुनौती हैं। आ  तंक से लड़ने की वर्तमान शैली पूरी तरह से अक्षम साबित हो रही है। हम वारदात को अंजाम देने वाले अपराधियों को खोजने में असमर्थ साबित हो रहे हैं। आवश्यकता है कि इन मामलों को देश के साथ युद्ध और संप्रभुता के हनन से जोड़ा जाए। सरकार के आतंक से लड़ने के कानूनी तरीकों को और आक्रामक, सटीक और व्यस्थित बनाए जाने की दरकार है।

गांधी के उपवास में मोदी की घुसपैठ


अप्रैल 2011 में क्रिकेट टीम विश्व कप लेकर आई थी तब हर खिलाड़ी को एक करोड़ रुपए की राशि दी गई थी।


ए शिया कप विजेता हॉकी खिलाड़ियों को मात्र 25-25 हजार देकर हाकी संघ ने मजाक बनाया था। बाद में हॉकी खिलाड़ियों की तीखी प्रतिक्रिया से घबड़ा कर मामला संभाल लिया गया और सम्मान की राशि बढ़ा दी गई। हॉकी खिलाड़ियों की प्रतिक्रिया सही थी। अप्रैल 2011 में क्रिकेट टीम विश्व कप लेकर आई थी तब हर खिलाड़ी को एक करोड़ रुपए की राशि दी गई थी। लगता है जेंटलमैनों के खेल क्रिकेट ने भारतीयों को पागल बना दिया था। क्रिकेट एक जमाने में अभिजात्य वर्ग का खेल होता था। गुलामी के दौर में जमींदार, बड़े कास्तकार, नवाब, दलाल, व्यापारी आदि बड़े लोग क्रिकेट खेलते थे। आजादी के बाद नजारा बदल गया। क्रिकेट गली गली में खेला जाने लगा। हर भारतीय लगान का क्रिकेटर बन गया। दिन हो या रात हमारे शहरों की गलियां क्रिकेट के बुखार से भरी रहती हैं। क्रिकेट ने महत्वपूर्ण काम किया है। उसने संपूर्ण भारत को एक सूत्र में बांध दिया है। भारतीय क्रिकेट के पीछे अपना सब कुछ छोड़ सकते हैं। भारतीयों की क्रिकेट दीवानगी के लिए एक और कहावत चली है कि क्रिकेट भारतीयों का खेल है, अंग्रेजों से केवल खेलना सीखा है। यही कारण आज बच्चा बच्चा गली गली में लगान क्रिकेट खेल रहा है।
दूसरा पहलू
क्रि क्रेट खेलने, जीतने और हारने के मामले में हमारी आदत क्रिकेट मैनिया की तरह हो चुकी है। क्रिकेट के अलावा देश को, देश के नेताओं को दूसरे खेल दिखाई ही नहीं देते। हॉकी और फुटबाल देश के किस कोने में खेले जाते हैं, खेल मंत्री और मंत्रालय के लोग ही जानते होंगे। एकमात्र क्रिकेट के कारण हमने ओलिंपिक और दूसरी विश्वस्तरीय प्रतियोगिताओं के लिए इन्हें उपेक्षित कर दिया। जिन  ओलिंपिक  खेलों में कभी हम विश्व विजेता रहे आज उनका कोई नाम नहीं लेता। भारत ने हॉकी में 1928 से 1956 तक 6 ओलिंपिक विश्वकप लगातार जीते थे। आज हॉकी के इस इतिहास का कोई नाम लेवा नहीं है। तैराकी,  ऊंचीकूद, जिमनास्टिक,दौड़ जैसे खेलों में हम गिनती लायक ओलिंपिक पदक नहीं जीत सके। खेलों के प्रति हमारे खेल मंत्रालय, संगठनों और नेताओं बनाई नीतियां अदूरदर्शी और गैरजिम्मेदार हैं। भारतीयों ने जो भी ओलिंपिक जीते हैं वे खिलाड़ियों के अपने निजी प्रयास अधिक रहे हैं। हॉकी टीम को पर्याप्त महत्व, सम्मान और प्रोत्साहन इस समय जरूरी है।

को ई भी खेल अपनी खेल भावना से महत्वपूर्ण होता है। खेलों को रुतबे का प्रतीक नहीं बनाया जा सकता। गांव कस्बों में खेल खासकर क्रिकेट खेल संगठन इसी रुतबे का नाम हैं। खेल संगठनों जिम्मेदार व्यक्ति को खेल के प्रति अपनी हार्दिकता से काम करना चाहिए। सभी खेल महत्वपूर्ण हैं और विकास के लिए सभी खेलों को खेल-भावना के अनुसार प्रोत्साहित करने की नीति का पालन जरूरी हो गया है।

बुधवार, सितंबर 14, 2011

देर से मिला न्याय प्रासांगिकता खो देता है

 
मामला राजनीतिक हो या आपराधिक न्याय में देरी
से न्याय खो जाता है।


सुप्रीम कोर्ट ने गोधरा कांड और उसके बाद भड़के दंगे और हिंसा नहीं रोकने के कथित आरोपों पर मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ कोई फैसला सुनाने से इंकार कर दिया। दंगों के 9 मामलों की जांच कर रहे तीन सदस्यीय विशेष जांच दल ने अपनी जांच रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट में पेश की थी। सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालत को ही इस मामले में फैसला दिए जाने के लिए कह दिया है कि वह नरेंद्र मोदी सहित 63 अधिकारियों के खिलाफ जांच कार्रवाई करने या नहीं करने का फैसला करे।
दस साल गुजर जाने के बाद भी अहसान जाफरी केस पर कोई फैसला नहीं हो सका है। इन दस सालों में कई लोग न्याय के लिए अर्जी लगा कर अपनी जिंदगी से चले गए। उचित न्याय के लिए वर्षों खिंचते कई केस हैं जो फैसले की मंजिल पर नहीं पहुंच सके हैं। न्याय हो और कोई भी ऐसा व्यक्ति सजा न भुगते जिसने अपराध न किया हो। न्याय की यह अवधारणा निरपराध लोगों को अनाधिकृत सजा से बचाती है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मामलों को सीमाहीन समय तक खींचा जाता रहे। सुप्रीम कोर्ट ने अगर नरेंद्र मोदी व अन्य का केस मजिस्ट्रेट को वापस किया है तो न्यायालय का विवेक है। इसमें नरेंद्र मोदी और उनके समर्थकों को खुश होने की आवश्यकता नहीं है।

न्याय त्वरित हो और इस उद्देश्य के लिए न्यायालय आवश्यक सुधारों की पहल कर सकता है।


न्या य में यह देरी क्यों? यह एक बड़ा सवाल है। इन दंगों में मरने वाले लोगों के परिजन भटक रहे हैं। न्याय के लिए वैधानिक प्रक्रियाएं इतनी जटिल और पेचीदगी भरी हो गई हैं कि लोगों को न्याय भी न्याय की तरह नहीं लगता। दस साल होने के बाद भी न्याय पालिका अब तक दंगों में हिंसा के अपराध के दोषियों और भागीदारों को देश के सामने नहीं ला सकी। न्याय का एक सिद्धांत है- सौ लोग छूट जाएं पर एक भी निरपराध को सजा न हो। नरेंद्र मोदी को इस केस की जांच में दस साल हो गए हैं। उनका केस फिर दूसरे दुष्चक्र में उलझ गया है। अब फिर मजिस्ट्रेट, हाईकोर्ट की प्रक्रियाओं से गुजरेगा। तब तक शायद नरेंद्र मोदी अपने सार्वजनिक जीवन में न रहें और जाकिया  जाफरी की स्थिति अदालत में खड़े होेने लायक भी न रहे। बोफोर्स केस भी न्याय में देरी का एक उदाहरण है। लेकिन देर का मतलब है कि हम पूरी प्रक्रिया को अपनाते हैं। जल्दबाजी में न्याय के कई पक्ष छूट सकते हैं, जिससे समुचित न्याय प्राप्त नहीं होगा। न्यायालय सभी पक्षों पर विचार करता है। हालांकि मामला कोई भी हो उसमें देरी से प्रासंगिकता खो जाती है। गुजरात केस एक उदाहरण बन रहा है जिसमें देरी के कारण न्याय  खो सकता है।

न्या य के लिए समय सीमा उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी कि जीवन मरण से जूझ रहे व्यक्ति के लिए दवाओं का समय पर मिलना। हजारों मामलों में फैसला आते आते इतनी देर हो जाती है कि वह संबंधित व्यक्ति के लिए अप्रासांगिक हो जाता है। हमें अपनी न्यायिक प्रक्रियाओं को तेज और सक्षम बनाने के प्रयास करने चाहिए। ऐसा न हो कि यह मामला फैसला विहीन ही बंद करना पड़े।

शुक्रवार, सितंबर 09, 2011

स्ट्रीट लाइट Street Light: कोचिंग संस्थान शिक्षा के नए रूप और अध्याय

स्ट्रीट लाइट Street Light: कोचिंग संस्थान शिक्षा के नए रूप और अध्याय

कोचिंग संस्थान शिक्षा के नए रूप और अध्याय

 

भोपाल में पहली आईएएस कोचिंग 1990 में खुली थी और 2009 में इसने आईएसओ 2009 प्रमाण पत्र ले लिया।

म  ध्यप्रदेश सरकार प्रदेश के कोचिंग संस्थानों को कानूनी नियमितता प्रदान करने जा रही है। इस नियमन के लिए सरकार ने एक कमेटी बना दी है। इससे प्रदेश में चल रहे कोचिंग संस्थानों को एक सुनिश्चित मार्गदर्शन मिलेगा। कोचिंग संस्थान शासन की नजरों में बहुत दिनों से थे लेकिन अब सरकार ने कोचिंग संस्थानों में चल रहे शिक्षण प्रशिक्षण को नियमों में बांधने का निश्चय किया है। कोचिंग संस्थानों ने प्रतियोगिता परीक्षाओं और अध्ययन की कठिनइयों के बीच जन्म लिया। आज यह युवाओं की सबसे पहली प्राथमिकता में शामिल हैं। कोचिंग लेकर द्वारा छात्र आत्मविश्वास तो प्राप्त करते ही हैं, संबंधित विषय में कुशलता भी तेजी से प्राप्त करते हैं।
भोपाल में पहली आइएएस कोचिंग 1990 में खुली थी और 2009 में इसने अंतरराष्ट्रीय मानकीकरण आइएसओ 2009 प्रमाणपत्र ले लिया है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि कोचिंग संस्थानों के विकास की गति कितनी तेज है। यह विकास समाज में उनके महत्व और आवश्यकताओं को भी बताता है। सरकार प्रदेश के गांव-कस्बों में फैलते कोचिंग संस्थानों का नियमन करके उन्हें एक पंजीकृत संस्था के रूप में देखना चाहती है।
को चिंग संस्थानों को विधायी बंदिशों के तहत लाए जाने का मतलब है कि वे कहीं न कहीं स्वतंत्रता का दुरुपयोग कर रहे थे। कानून भी तभी अस्तित्व में आता है जब किसी संस्थान से शोषण की शिकायतें आती हैं। कानून और नियम बना सरकार कोचिंग संस्थानों से छात्रों के शोषण से मुक्ति मुश्किल है। एक अनुमान के अनुसार 300 करोड़ रुपए से अधिक का कारोबार कर रहे कोचिंग संस्थानों का निजी एवं सरकारी कालेजों के साथ अघोषित, लचीला और मजबूत अनुबंधों का जाल फैला हुआ है। इस कानून से कोचिंग संस्थान सरकार को राजस्व अवश्य देंगे और इस राजस्व का भार संस्थान छात्रों पर ही डालेंगे। सरकार को कोचिंग संस्थानों की कुकुरमुत्ता की तरह गांवों शहरों में आई बाढ़ को हतोत्साहित करने की आवश्यकता है। इस नियमन से संस्थान अपने अनाप-शनाप शुल्क को कानूनी जामा पहना कर वसूल करेंगे। पंद्रह साल पहले कोचिंग  संस्थान में कोई बच्चा इसलिए जाता था कि वह गणित या विज्ञान में कमजोर लेकिन आज कोचिंग छात्रों के बीच स्टेटस सिंबल बन चुके हैं। कोचिंग संस्थान शिक्षा के वास्तविक उद्देश्यों को शार्टकट से पाने का माध्यम बनते जा रहे हैं।

आ  वश्यकता आविष्कार की जननी है। समाज को जिस तरह की आवश्यकताएं होगी, वैसी संस्थाएं जन्म लेंगी। प्रदेश सरकार के कानून का स्वरूप अभी पूरी तरह से सामने नहीं आया है। लेकिन समझा जा रहा है कि इससे छात्रों और अभिभावकों को कई प्रकार की राहतें मिलेंगी। आज प्रदेश में कोई यह नहीं बता सकता कि प्रदेश में कुल कितने कोचिंग संस्थान संचालित हो रहे हैं। यह अराजक स्थिति भी दूर होगी।

बुधवार, सितंबर 07, 2011

आतंक से सुरक्षा देने में नाकामयाब सरकार

 
  पी चिदंबरम के बयान में लाचारी झलक रही है। अभी उन्हें ये बताना भी संभव नहीं कि इस समय ये बताना संभव नहीं कि इसके पीछे किस गुट का हाथ है।

बुधबार की सुबह लोग अदालत में अपने काम से आए हुए थे। वे अन्दर जाने के लिए  पास बनवा रहे थे और अचानक एक विस्फोट  होता है। इस तरह  सात  सितम्बर की सुबह दिल्ली में आतंकवादियों ने 11 लोगों को मौत के नींद सुला दिया। दिल्ली उच्च न्यायालय के गेट नम्बर पांचपर  हुए इस विस्फोट में 76 से अधिक लोग घायल हुए हैं। इस विस्फोट की जांच राष्टÑीय जांच एजेंसी (एनआईए) के सुपुर्द कर दी गई है, जिसमें बीस लोगों की टीम काम कर रही है। एक विशाल देश की राजधानी का दुर्भाग्य है कि उसमें 15 सालों में 17 धमाकों की वारदातें हुई हैं। इनमें दिल्ली करीब 128 नागरिकों खो चुकी है। 350 से अधिक लोग स्थाई रूप से विकलांग हो चुके हैं। धटना के बाद सरकार में बैठे आला मंत्रियों और प्रधानंमत्री ने एक बार फिर गृहमंत्री और प्रधानमंत्री ने अपने भावनात्मक बयानों को दोहरा दिया है। आज देश की जनता इन वारदातों के पीछे नेटवर्क पर की गई कार्यवाही का हिसाब चाहती है। कोई बताने तैयार नहीं है कि आखिर पी चिदम्बरम ने किया क्या। मुंबई के विस्फोटों के घाव ताजा ही थे कि फिर दिल्ली को जख्म उठाना पड़े।
आतंकवादियों द्वारा देश के नागरिकों को हत्या करना सरकार और उस देश की संप्रभुता और स्वतंत्रता पर हमला करना है। ये विस्फोट देश की शांति और अखंडता को बड़ी चुनौती बनते जा रहे हैं। आतंकवादियों का उद्देश्य  सिर्फ हिंसा है और यह भी साफ जाहिर है कि यह षड्यंत्र सरकार और देश के खिलाफ युद्ध है। मुंबई सहित देश में होने वाली आतंकी वारदातों के मद्दे नजर सरकार और सुरक्षा एजेंसियां लगातार दबाव में काम कर रही हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संकल्प दोहराया है कि ये आतंकवादियों का एक कायरतापूर्ण क़दम है. हम आतंकवाद के दबाव में झुकेंगे नहीं और इसका सामना करेंगे और ये एक लंबी लड़ाई है जिसमें सभी भारतीयों और सभी राजनीतिक दलों को एक साथ खड़ा होना होगा जिससे बढ़ते आतंकवाद को कुचला जा सके। प्रधानमंत्री का ये बयान क्या दोहराव नहीं लगता? वही शब्द वही धैर्य और मिलजुल कर मुकाबला करने की बातें? आखिर कब तक? हम देश को एक संगठित शक्ति और आक्रामकता का विकास कब तक कर पाएंगे? लोग पूछते हैं और बातें करते हैं कि आखिर देश में यह सब क्यों हो रहा है। किसी भी  शह पर हो लेकिन वह देश में क्यों? आज आतंकियों ने यह कह दिया कि अफजल गुरू की फांसी का फैसला रद्द करो?  यह वे क्यों कह सके। हम वोटों और राजनीतिक आत्मविश्वास के बिना कब तक जिएंगे।
 एनआईए प्रमुख एस सी सिन्हा ने मीडिया से बातचीत में कहा कि हूजी के ईमेल संदेश की सत्यता के बारे में कहना जल्दबाजी होगी, हालांकि एजेंसियां ईमेल को गंभीरता से ले रही हैं। यह सवाय यहां भी अनुत्तरित रह जाता है कि आंतक का नेटवर्क हमारी एजेंसियां क्यों नहीं पकड़ पाती हैं।
देश के प्रमुख शहरों मुंबई और दिल्ली में हो रहे धमाकों से सुरक्षा एजेंसियों ने कोई सबक नहीं लिया है। वे आतंक के नेटवर्क को पहचानने और उसे ध्वस्त करने में असफल रही हैं। बार बार हो रहे विस्फोट और हमलों से आतंक के जख्म लोगों में दहशत और असुरक्षा की भावना को स्थाई रूप से अंकित करते जा रहे हैं।  प्रधानमंत्री ने जो भावनात्मक बयान दिया है कि उससे नहीं लगता कि वे आतंक पर कोई बहुत ठोस कार्यवाही करने जा रहे हैं। हम अपने गृह मंत्री की बयानों की पड़ताल करलें। ताकि पता चल सके कि उनके विचार और योजनाएं आतंकवाद पर नर्म और लिजलिजी हैं। गृहमंत्री के बयान में भी लाचारी साफ झलक रही है । वे कहते हैं कि ‘दिल्ली आतंकवादी गुटों के निशाने पर रहा है। खुफिया एजेंसियां पुलिस से जानकारी साझा करती हैं लेकिन इस समय ये बताना संभव नहीं है कि इसके पीछे किस गुट का हाथ है।’ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृह मंत्री पी चिदंबरम ने दिल्ली उच्च न्यायालय के बाहर हुए विस्फोट को आतंकवादी घटना बताते हुए कहा है कि ‘अभी इसके लिए किसी को जिÞम्मेदार ठहराना जल्दबाज़ी होगी।’
दूसरी तरफ बांग्लादेशी आतंकी संगठन हूजी मीडिया को भेजे ईमेल में कहता है, ‘दिल्ली हाईकोर्ट में आज हुए विस्फोट की ज़िम्मेदारी हम लेते हैं...हमारी मांग है कि अफजल गुरु की मौत की सज़ा को तत्काल रद्द किया जाए।’ ये विस्फोट देश के सामने चुनौती हैं। आ  तंक से लड़ने की वर्तमान शैली पूरी तरह से अक्षम साबित हो रही है। हम वारदात को अंजाम देने वाले अपराधियों को खोजने में असमर्थ साबित हो रहे हैं। आवश्यकता है कि इन मामलों को देश के साथ युद्ध और संप्रभुता के हनन से जोड़ा जाए। सरकार के आतंक से लड़ने के कानूनी तरीकों को और आक्रामक, सटीक और व्यस्थित बनाए जाने की दरकार है।

रविवार, सितंबर 04, 2011

मंदी का गुब्बारा

 

रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
भारत की आर्थिक विकास दर को लेकर दुनिया अक्सर चिंतित हो रही है। हाल ही के दिनों में इसका 8.8 से गिर कर 7.7 प्रतिशत हो गया है।  पिछले साल की इसी पहली तिमाही यानी अप्रैल मई और जून 2011 की सकल घरेलु उत्पाद (जीडीपी) वृद्वि दर में 1.1 प्रतिशत का अंतर आ गया है।  2010 में इसी समयावधि में यह दर 8.8 प्रतिशत थी। जीडीपी आधुनिक दुनिया में आर्थिक विकास का पैमाना है। इस पैमाने पर ही दुनिया के अर्थ शास्त्री किसी देश का विकास और जीवन स्तर का आकलन करते हैं। हालांकि इस तरह की विकास दरों को खारिज भी किया है। वैश्विक अर्थ व्यवस्थाओं का विकास एक दूसरे पर आश्रित है, इसलिए किसी बड़ी देश की अर्थ व्यवस्था में उतार-चढ़ाव से अन्य देश भी प्रभावित होते हैं। अमेरिकी अर्थ व्यवस्था से जुड़े देशों पर इसके प्रभाव साफ देखे गए हैं। भारत को एक प्रतिशत की सुस्ती से चिंतित होने की जगह अपनी अर्थ व्यवस्था में कृषि, घरेलू उद्योग और बचत को मजबूत करना जरूरी है। दवा उद्योग में भारत तीसरा सबसे बड़ा निर्यातक देश है। दवा कारोबार एक लाख करोड़ से ऊपर जा रहा है। कृषि उत्पादन में 3.9 प्रतिशत की बढ़ौतरी दर्ज की गई है। इसी प्रकार सेवा क्षेत्र भी इस सुस्ती से अछूता रहा है। सेवा क्षेत्र जिसमें बीमा, रियल एस्टेट, होटल, परिवहन एवं संचार शामिल हैं। इनमें वृद्धि दर 12.8 प्रतिशत रही है। गांवों में आर्थिक गतिविधियों के चलते पिछले पांच सालों में 2 करोड़ 77 लाख अतिरिक्त रोजगार सृजित किए गए हैं। रिजर्व बैंक ने आशा व्यक्त की है कि आने वाली तिमाहियों में जीडीपी 8 प्रतिशत रहेगी।
इन तीन माहों में वृद्धि दर में 1.1 प्रतिशत की गिरावट से चिंता स्वभाविक है। विनिर्माण क्षेत्र में वस्तुओं के उत्पादन में गिरावट आ रही है। 2010 की इसी तिमाही में यह वृद्धि 10.6 प्रतिशत थी जो कि इस समय घट कर 7.2 प्रतिशत रह गई है। खनन क्षेत्र में भी वृद्धि दर 1.8 प्रतिशत ही रही। 2010 में खनन क्षेत्र की वृद्धि दर 7 के आसपास थी। आर्थिक विश्लेषकों के अनुसार देश में भारी लागत वाली परियोजनाओं में विलम्ब के कारण यह गिरावट दर्ज की गई है। आटोमोटिव कलपुर्जा विनिर्माण संगठन ने गिरावट के रुझान वाले आंकड़ों पर चिंता जताई है। 2010 में यह उद्योग 34 प्रतिशत की दर से बढ़ा लेकिन 2011 की पहली तिमाही में12 प्रतिशत ही है। इससे औद्योगिक क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित हो सकता है। जनवरी से जुलाई के आंकड़ों के अनुसार चाय निर्यात में 17.8 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की है। आर्थिक सुस्ती के ये आंकड़े देश की अर्थ व्यवस्था में आने वाले निराशाजनक परिदृश्य के संकेत हैं।
बाबा रामदेव का कहना है कि यह जीडीपी का मतलब किसानों और मजदूरों के लिए कोई मायने नहीं रखता है। हमारी जीडीपी कैसे बढ़ रही है इसका एक उदाहरण है। अगर आप किसी चीज को खरीदते हैं और फिर बेचते हैं। इसमें जो मुनाफा होगा वह जीडीपी को बढ़ाता है, इसमें उत्पादन की बढौतरी नहीं होती। इसमें आपका अन्न भंडार नहीं बढ़ता। फसलों को उत्पादन नहीं बढ़ता। इस तरह के विकास की वकालत आधुनिक अर्थ शास्त्री और अमेरिकी समर्थक करते रहे हैं। धीरे धीर मंदी का यह गुब्बारा मंदी का एक चक्र लेकर आता है। क्योंकि जीडीपी निरंतर फूलने वाली चीज है। यह फूलती रहती है और एक दिन पूंजीवाद की यह प्रक्रिया दुनिया की अर्थ व्यवस्थाओं के सामने एक गुब्बारा बन कर फट जाती है। जीडीपी का यह खेल मंदी का गुब्बारे के रूप में कई देशों की हालत खराब कर देता है। अमेरिकी मंदी इसी का नतीजा है।
भारत की स्थिति अमेरिका से प्रभावित रही है। 1 प्रतिशत की गिरावट से मंदी देश के वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी निराश हो जाते हैं। उनका इस तिमाही पर उनका ब्याह कि उन्होंने भी विकास की गति को निराशजनक करार दिया है।
यह सच है कि अर्थ व्यवस्थाएं वैश्विक नेटवर्क से जुड़ चुकी हैं। अब वे एक दूसरे से प्रभावित होती हैं। वैश्विक अर्थ व्यवस्था होने के साथ हमें अपनी अर्थ व्यवस्था के फंडामेंटल्स जैसे कृषि, घरेलू बचत और देश के अंदर व्यापार को मजबूती से स्थापित करना आवश्यक है। कर्ज पर आधारित अर्थ व्यवस्थाएं जल्दी ढहती हैं। हमें आर्थिक विकास का लचीला ढांचा विकसित करने पर जोर दिया जाना चाहिए, जिसमें आर्थिक उतार-चढ़ावों को सहने की क्षमता हो। भारत की वर्तमान स्थिति इस मायने में ठीक है। यहां के लोगों की आर्थिक बचत और जोड़ कर रखने की प्रवृत्ति ने देश को मंदियों से बचाया है।

रविवार, अगस्त 14, 2011

राजमार्गों पर केंद्र और राज्य की खींचतान


राष्ट्रीय राजमार्गों की देखरेख के लिए 12 वें वित्त आयोग की राशि का हिसाब अब तक केंद्र को क्यों नहीं दिया?

मध्यप्रदेश से होकर18 राष्ट्रीय राजमार्ग गुजरते हैं। उनमें से अधिकांश की हालत खराब है। केंद्र की कांग्रेस सरकार और मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार के बीच राष्ट्रीय राजमार्गों को लेकर पिछले एक साल से विवाद चल रहा है। प्रदेश सरकार पर कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया ने आरोप लगाया है कि प्रदेश की सड़कें बहुत खराब हैं। प्रदेश सरकार अपना काम नहीं कर रही, केवल ध्यान बांटने के लिए केंद्र पर दोषारोपण कर रही है। पूर्वमंत्री और विधायक डॉ. गोविन्द सिंह ने भी आरोप लगाया है कि राज्य सरकार राजमार्गों के लिए मिली राशि का हिसाब नहीं दे रही और केंद्र सरकार पर आरोप लगा रही है। केंद्र द्वारा जारी राष्ट्रीय राजमार्गों की देखरेख के लिए 12 वें वित्त आयोग की राशि का हिसाब अब तक नहीं दिया। केंद्र से पैसे लेने के लिए राज्य सरकार तैयार हैं लेकिन उसकी उपयोगिता को प्रमाणित नहीं कर रही। प्रदेश सरकार उपयोग किए गए धन का हिसाब क्यों नहीं दे रही।



राष्ट्रीय राजमार्ग चौबीस घंटे विकास को गति दे रहे हैं, उनकी उपेक्षा अत्यंत चिंताजनक है।

दूसरी तरफ मध्यप्रदेश सरकार का कहना है कि केंद्र सरकार की यह मनमानी है कि वह प्रदेश को सड़कों के लिए धन नहीं दे रही है। प्रदेश सरकार ने दी गई राशि खर्च नहीं की या दूसरी मदों में खर्च कर दी है तो इसका हिसाब बाद में हो सकता है। लेकिन जो राष्ट्रीय राजमार्ग चौबीस घंटे विकास को गति दे रहे हैं, उनकी उपेक्षा अत्यंत चिंताजनक है। अर्थशास्त्री कहते हैं कि सड़कें किसी भी देश की अर्थ व्यवस्था की रीढ़ होती हैं। उनकी स्थिति और विस्तार विकास के बड़े सूचकों में से एक है। सड़कों पर सफर कर ही विकास गति प्राप्त करता है। कस्बों और शहरों में रोजगार के नए अवसर पैदा होते हैं। कई उदारण हैं, राष्ट्रीय राजमार्ग का बाईपास के रूप में गुजरने पर उसके दोनों ओर आधारभूत सुविधाओं का विकास तेजी से होता है। इसलिए जरूरी है कि केंद्र जल्द से जल्द प्रदेश को धन उपलब्ध कराए ताकि सड़कों के हालात सुधरें और विकास जारी रहे।


राजमार्गों की स्थिति पर केंद्र और राज्य सरकार को राजनीतिक नेतृत्व आमने सामने हैं। जब सरकारें विकास को राजनीतिक लाभ हानि से आंकती हैं तो राजनीति वास्तविक उद्देश्य से भटक जाती है। हमारा मानना है कि राजनीतिक दांव-पेंचों के बीच विकास के कार्यक्रम स्थगित न हों। विकास पर आंच आने का मतलब राजनीति की दिशा ठीक नहीं है। प्रदेश और केंद्र की सरकारों को निरंतर विकास के मार्गों को दुरुस्त बनाए रखना जरूरी है।

बुधवार, अप्रैल 27, 2011

तुमसे मिल के आने के बाद ... लगा जीवन के लिए प्यार कितना जरूरी है ....
एक अच्छे जीवन के लिए बहुत से प्यार की आवश्यकता होती है
तुमको इतने दिनों बाद आँखे भर कर देखा ..... सिर्फ देखा .....
तुमको छू भी नहीं पाया .... कैसी किस्मत है ... खुद को दिलासा दे रहा हूँ कि तुम बिट्टू को प्यार नहीं करते हो ... इसीलिए वह तुम्हारी लाइफ में नहीं रही ..... वर्ना तो ... कोंन हो सकता था जो इस प्यार में फ़ैल गया .....ईश्वर तो नहीं न.... चल में तेरा इंतजार करता हूँ ........ इससे इंकार मत करना यार मजबूरी नहीं होती तो कोई खुद से  इतना तडपना क्यों चाहेगा ... ! तू मर जा गन्दी लड़की ....
जाते जाते तुमने ये क्यों कहा कि फ़ोन मत करना ... एस एम् एस मत करना ... ये मत करना वो मत करना ... यार कहाँ तो करता हूँ ... अगर यही तुमको बुरा लगने लगा तो ... फिर क्या करूँ .... चलो ये भी मंजूर है .. लेकिन जितना भी प्यार तुमने दिया वो ... बहुत कीमती हो उठा ... चल में ये जनता हूँ क़ि तू खुद को कंट्रोल नहीं कर पाती है ... इसलिय बच कर रहना ही ठीक है ...  ... तेरे लिए यही दुआ है ...
बाय

शनिवार, अप्रैल 23, 2011

सुखा और दुःख के बीच

सुखा और दुःख के बीच कही खड़ा हूँ एक गम है .... मेरे आसपास हवा की तरह याद आता है 

बुधवार, मार्च 02, 2011

na jane kyo

न जाने क्या होता है 
आपको जब किसी से प्यार हो जाता है
दुनियां में भटकते हुए ही हम 

प्यार के किसी कुए में गिर जाते है..

अबतक कोई साथ रहता है 
तबतक मजा रहता है
जब वह चला जाता है तो सब कुछ बदल जाता है 

मैं नहीं बदला .. में तो यद् में 
दिन और रत होने लगा हूँ 


शनिवार, फ़रवरी 26, 2011

मैं ·कुछ नहीं बनाती हूं तो लगता है अपराध कर रही हूं

नए स्वर


इस ·कालम में हम युवा और मेन स्ट्रीम से अलग रहने वाले युवा कलाकारों को लेते हैं। अगर आप·े स्·ूल-·ॉलेज, ऑफिस या आसपड़ोस में ·ोई ऐसा ·ला·ार नजर आता है तो हम आप·ी सूचना ·ा स्वागत ·रेंगे। सूचना ·े लिए प्लीज निम्न नम्बर पर ·ॉल या मेल ·ीजिएगा -



$

गज़ल श्रीवास्तव से

स्टूडेंट सागर इंंस्टीट्यूूट 



मैं ·कुछ नहीं बनाती हूं तो लगता है अपराध कर रही हूं



$गज़ल श्रीवास्तव ने यूं तो ड्राइंग पेंटिंग की ·कोई शिक्षा नहीं ली है, ले·किन वे अपने ड्राइंग ·के प्रति इस हद तक· समर्पित हैं कि उन्हें ड्राइंग न बनाना एक· अपराध लगने लगता है। खुद के प्रति किया गया अपराध। आटोबायोग्राफी और मोटिवेशनल बुक्स पढऩे ·की शौ·कीन गज्रल से बातीचीत ·के ·कुछ अंश।



मैं एक· लापरवाह ·कला·कार हूं। मैंने न तो ·हीं सीखा है और न ही घोषित ·कला·कार होने ·की ·कोशिश ·रती हूं। अगर ·कोई यूं ही पूछ ले या ·काम ·की तारीफ ·करे तो अच्छा लगता है। मेरी अधि·कांश पेंटिंग मेरे दोस्त लोग ही ले गए हैं। जिस·को जो अच्छा लगा, वह रखने ·के लिए मांगता और मैं दे देती।

मैं समझती हूं इतना ·काफी है। ·कोई ये जरूरी नहीं ·ि क हम ·ला·कार होक·र जिंदगी गुजारें। मैं पेंटिंग बनाती हूं बस इतना ही ठीक· है मेरे लिए।



बचपन से लगने लगा था

पेंटिंग ·रने या बनाने ·का शौ· मेरे मन में बचपन से ही था। थोड़ा थोड़ा याद है, मैं ·कुछ भी बनाती थी। मेरी ·कॉपियां स्·केच से भरी रहती थीं। ऐसे ही बनाते बनाते दोस्तों ·के अनुसार ·कुछ अच्छा बनाने लगी। पर मैं नहीं मानती ·कि मैं अच्छा बनाती हूं।



न्यूजपेपर से बहुत सीखा

मैंने ·कोई बड़ी या महान ·किताबें नहीं पढ़ी हैं। हां ए·क दोस्त ने ·कहा था ·कि द हिंदू में बहुत अच्छा मैटर पेंटिंग पर आता है। मैं अक्सर उस·को पढ़ क·र ही ·कुछ समझने कीकोशिश क·रती रही हूं।



·कैसे बनाती हूं

मेरे अंदर ए· तड़प सी जन्म लेती है। मैं बेचैन होने लगती हूं और मुझे पता चलने लगता है ·ि अब मुझे ·ुछ बनाना है। बैठ जाती हूं और ·ोशिश ·रती हूं ·कि एक· ही सिटिंग में सब ·कुछ पूरा हो जाए। मैं एक· सिटिंग में पूरा ·कर भी लेती हूं।



·कछ नहीं सोचती

बनाते हुए सोचती नहीं हूं। बनाने से पहले ए· दिन सोचती हूं और दूसरे दिन बस बनाती हूं। ·भी बिल्डिंग देख ·र बनाने ·की इच्छा होती है। ·भी ·कोई नेचर ·का हिस्सा देख ·कर बनाती हूं। जैसे ही अटैच होती हूं लगता है अब ·कुछ बना लेना चाहिए। यह प्र·किया निरंतर चलती रहती है।



रंगों ·के बारे में क्या

रंगों ·के बारे में बताऊं तो मुझे दो रंग पसंद हैं। ·काला और सफेद। ये दो रंग।



मैं पढ़ ·कर नहीं देख ·कर बनाती हूं

मैं अक्सर सोचती हूं ·कि मैं क्यों बनाती कहं तो इस·का ·कोई उत्तर नहीं मिलता है। ·कुछ बच्चों ·को सूरज डूबते देख लिया तो लगता है अब ·कुछ बना लूं।



नेचर पसंद है

नेचर ·के बारे में मैंने नहीं सोचा ·कि वह मुझे क्यों पसंद हैं या अच्छे क्यों लगते हैं। जब भी ·िसी पेड़ों ·के आसपास होती हूं या समुद्र ·के ·किनारों पर तो ·कुछ पॉजिटिव महसूस होता है। अच्छा लगता है। मैंने नेचर में निगेटिव नहीं महसूस ·किया। हां ·कॉलेज ·की भीड़ ·के पास मैंने महसूस ·किया है ·कि ·कुछ निगेटिव है।



बुधवार, फ़रवरी 23, 2011

रविवार, फ़रवरी 20, 2011

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इश्क में दर्द होता है दोस्ती में सुकून


 
Source: bhaskar   
 
 
 
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कमरे में फैज बैठे हुए थे। मैंने फैज की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए उनके हाथ की गरिमा मांगी। कहा, ‘कोई बात करो ताकि गुलशन का कारोबार चले.।’ फैज ने दिल की सारी गरिमा आंखों में डाल ली और कहा, ‘हां करो बातें।’ मैंने कहा, ‘शायर को एक दुनिया बनी-बनाई मिलती है, एक दुनिया वह खुद बनाता है। दिल में परीखाना भी बनाता है, वतन की गलियों पर निसार भी होता है। दुख-दर्द के अर्थ जानता है। आपकी जिंदगी का शायद यही सफरनामा है - कूए यार से सूए दार तक।’

‘हां, यही सफरनामा है,’ फैज ने हाथ की सिगरेट बुझाकर नई सुलगा ली और कहा, ‘एक जेहनी दुनिया भी बनाई और शेर लिखने लगा।’

‘सो उर्दू आपका पहला इश्क था, अब कुछ बरसों से आप पंजाबी में भी नज्म कहने लगे हैं.।’

‘कानों में शुरू से पंजाबी गीतों की आवाजें पड़ती रहती थीं। पहली बड़ी जंग के दिनों में लोग गलियों में गाते रहते थे। तब के जो बोल छाती में बैठे हुए थे, वे कई मैंने अपनी ताजा नज्मों में उतारे हैं।’

‘उस वक्त का एक गाना होता था - तेरे मुखड़े ते काला-काला तिल वे, मेरा कढ़ के ले ग्यों दिल वे, वे मुंडिया सयालकोटिया.! यह कहीं आपके बारे में तो नहीं था?’ फैज हंस पड़े। कहने लगे, ‘मैं हूं तो सयालकोटिया, पर बाप की जागीरें सरगोधे में थीं। वहीं हीर सुनी थी या बुल्ले शाह की काफियां, सोहनी-महिवाल और मिरजा साहिबां.। ’

‘तब पंजाबी में लिखने का जी नहीं किया?’

‘किया था, पर हिम्मत नहीं पड़ी।’

‘अच्छा बगैर नाम उसकी बात सुनाओ जिसके नाम सारे गम लिख दिए.।’
फैज खुलकर हंस पड़े। कहने लगे, ‘एक होती थी कलोपित्रा. उससे लेकर तेरे तक लोग होते हैं, जिनके नाम दुनिया के गम लिख दिए जाते हैं।’ उन्होंने मेरे सवाल और अपने जवाब को हंसी के बहते पानी में छोड़ दिया था।

टेलीविजन वाले अपनी तेज रोशनी समेट कर चले गए। मैंने डूबते सूरज की लालिमा से भरे आकाश की ओर खिड़कियां खोल दीं। मेज पर चाय के प्याले समेटकर मैंने गिलास रखे। तब फैज ने पानी में बहते जाते मेरे सवाल को पकड़कर कहा, ‘ले अब तुझे बताऊं, मैंने पहला इश्क अठराह बरस की उम्र में किया। नक्शे-फरियादी की सारी नज्में मैंने उसके इश्क में लिखी थीं।’

‘मगर उसको जिंदगी में हासिल क्यों नहीं किया?’

‘हिम्मत कहां होती थी उस वक्त जबान खोलने की। उसका निकाह किसी बड़े जागीदार से हो गया। फिर दूसरा इश्क मैंने उसके दस बरस बाद किया - एलिस से।’

‘जो अब आपकी बीवी हैं?’

‘हां , मैं सोचता हूं अच्छा ही किया। जिंदगी के जैसे उतार-चढ़ाव से मैं गुजरा, जेलों में रहा, एलिस की जगह कोई और औरत होती तो उन हालात से नहीं गुजर सकती थी।’ मैंने पूछा, ‘फिर..?’ ‘फिर एक वाकफी हुई थी छोटी-सी उम्र की लड़की से। वह मुझे बच्ची-सी लगती थी।

अचानक लगा कि वह बच्ची तो बड़ी हस्सास और जवान औरत है। मैंने फिर इश्क की गहराई देखी। उसने किसी बड़े ऑफीसर के साथ निकाह कर लिया। दर्द से घबरा गई थी शायद।’

‘फिर.?’ वे बोले, ‘जेल में मुझे अस्पताल भेजा गया। वहां एक डॉक्टर होती थी, जिसने मुझसे बेपनाह इश्क किया।

‘एलिस को इस इश्क का पता है?’

‘हां, वह मेरी बीवी नहीं, दोस्त है। इसीलिए जिंदगी अच्छी गुजर गई। इश्क में दर्द होता है, दोस्ती में सुकून होता है। अब फैसला कर लिया है कि इश्क नहीं, दोस्ती करूंगा।’

(अनुवाद और प्रस्तुति: सुरजीत)

अंतिम दशक के कवियों का समय और उनकी कविता

मानस  जी  के  इन  सवालों  के  जवाब  लिख  रहा  हूँ  
उत्तर नीचे पड़े हैं

हमारी त्रैमासिक पत्रिका ‘पाण्डुलिपि’ हेतु परिचर्चा के अंतर्गत इस बार ‘अंतिम दशक के कवियों का समय और उनकी कविता’ बिषय पर विमर्श प्रस्तावित है । हम चाहते हैं कि आप अपनी बात विस्तार से रखें ताकि अंतिम दशक के कवियों और उसकी कविताओं का वास्तविक मूल्याँकन हो सके । उम्मीद है आप परिचर्चा के विषय एवं महत्व की देखते हुए इस विषय पर अवश्य लिखना चाहेंगे । विश्वास है - आप अपनी सामग्री हमें 10 दिवस अर्थात् 25 जनवरी, 2011 तक ई-मेल से भेज देंगे । सादर
जयप्रकाश मानस
कार्यकारी संपादक

प्रश्नावली
01. अंतिम दशक की कविता की शुरूआत सोवियत संघ के विघटन से हुई, भूमंडलीकरण व बाज़ारवाद जैसी अवधारणायें भी इसी दशक से प्रारंभ हुई । क्या इसका कुछ-बहुत प्रभाव अंतिम दशक के कवियों की कविताओं की वैचारिकता पर पड़ा ?
02. वैसे अंतिम दशक के कवियों का समय, अपने पूर्ववर्ती कवियों, विशेषकर नवें दशक के स्थापित कवियों से किन अर्थों में भिन्न है ?
03. नयी कविता की बिम्ब प्रधानता, अकविता की सपाटबयानी तथा समकालीन कविता के उक्ति आधारित पंक्तियों की आवृत्तियाँ व प्रतीक-ब्यौरों आदि कला के बाद अंतिम दशक के कवियों का शिल्प कितना कुछ अलहदा दिखलाई पड़ता है ?
04. क्या हिन्दी कविता के भीतर अकविता की मनःस्थिति पुनः अंतिम दशक के कवियों की कविता में परिलक्षित की जा सकती है ? ऐसा मैं आर. चेतनक्रांति की ‘हम क्रांतिकारी नहीं थे’, या वसंत त्रिपाठी की ‘कालाहांडी’ जैसी कविताओं को पढ़कर भी कह रहा हूँ ?
05. वैसे आप अंतिम दशक के कवियों में किन किन कवियों के नामों का उल्लेख करना चाहेंगे और क्यों ?
06. इस दशक के ज्यादातर कवियों की कविताओं का काव्य शिल्प, काव्य-संप्रेषण पर हावी रहता है । यदि आप भी ऐसा मानते हैं, तो यह स्थिति हिन्दी कविता के विकास के लिए कितना उचित लगती है ?

शनिवार, फ़रवरी 19, 2011

प्रशन एक




जी हां वैचारिकता पर ही नहीं इसका असर कविता के दूसरे पक्षों पर भी पड़ा, जिस मजबूती से कविता में वैचारिकता हावी हो रही थी, इसके बाद उसका असर कम हुआ।

सोवियत संघ का विघटन का असर हर तरफ पडा। यह केवल सोवियत संघ का विघटन ही नहीं था इसमें दूसरी चीजों का योगदान भी षामिल था। बाजारवाद भी बढ़ रहा था। बाजार की अवधारणा नई तो नहीं थी या है लेकिन इसका संगठित रूप पहलीबार सामने आया। यह नया लगा कवियो और बूढे़ लोगों को, जो इस बात पर यकीन नहीं कर रहे थे कि जीवन में परिवर्तन होते ही हैं। सनातनता यानी निरंतरता की अवधारणा को इस संदर्भ में याद नही कर पा रहे थे उनके लिए यह अनोखी चीज थी। पर एक जीवंत कवि के लिए यह अनोखी नहीं थी- यह एक निरंतरता थी और आष्चर्यजनक भी नहीं थी।

अब कवियों की वैचारिकता पर विघटन और भूमंडलीकरण के प्रभाव की बात करें तो यह उनके लिए ही प्रभावी हुई जो सोवियत से प्रभावित रहे थे। वास्तविक कविता तो इससे प्रभावित नहीं हो सकती थी। प्रभाव पढा यह मानना पड़ेगा क्योंकि सारी तरह की कविताओं से हमारी कविताओं का संसार निर्मित हुआ है। प्रभाव की सीमा और कवि व्यक्तित्व जो इससे प्रभावित हुए, उन्होंने अगर आपनी प्रज्ञा अपनी चेतना को बचा कर रचना कर्म किया वह सफल हुए। जो प्रभावित ही होते रहे हैं वे दोनों तरह की अतियों का षिकार होकर रह गए। इस तरह की अतियों को पसंद करने वाले आलोचकों के लिए ये पसंदीदा कवि रहे हैं और वे आज भी तरफदारी कर रहे हैं। अगर एक समय कोई कवि सोवियत की तरपफदारी में लिख रहा था तो आज वही कवि पूरी तरह से बाजार की चाकाचौध के खिलाफ लिख रहा है। ये दोनों अतियां वास्तविकताओं को अभिव्यक्ति नहीं दे सकतीं। हमें अपने आसपास के अनुसार ही कुछ कहना पड़ेगा, तभी कुछ नया कहा जा सकता है। विरोध की कविता सरल है लेकिन विरोध और समर्थन के मध्य की कविता बहुत संतुलन की मांग करती है। वैचारिक भी और कलात्मक भी।



प्रष्न दो

नवें दषक के कवियों का समय साम्यवादी आषा की अंतिम अवस्था का चमकता हुआ समय था। इस दषक के कवियों ने अपनी कविताओं मंे सम्यवादी व्यवस्था के लिए लिखा है। वे यह भूल गए कि जो उदय हुआ है वह अस्त भी होगा। वे उसे परम सत्य की तरह महसूस करते रहे। कुछ कवियों ने इसे पाटने की कोषिष की थी लेकिन वे इस षोर में बहुत साहसी कदम नहीं उठा सके। सोवियत विघटन के बाद ये कवि सहम गए। कविता में भी यह दर्ज है। स्वर नर्म पड गए और कुछ अलग तरह की रचना करने की इन कवियों ने कोषिष की लेकिन अंतरनिहित स्वर को नहीं बदल पाए। युवा कवियों ने इसे बदला। वे अपने समय से संवाद करने लगे। युवा का मतलब ही यही था कि हमें जो सामने आया है उससे बात करना है। पुराने कवियों ने सिर्फ विघटन के लिए अमेरिका को कोसा, जबकि अमेरिका एक सच था जो पूंजीवाद के रूप में अभी भी है लेकिन वह साम्यवाद से अधिक डायनामिक था। साम्यवादी जड़ता के साथ आषावादी रवैया अख्तियार करे रहे और अंततः उन्हें अपने हथियार डालना ही पड़े। आषा की अपेक्षा यथार्थ से संवाद परक रवैया अधिक उपयुक्त होता, युवा कवियों ने यह करने की कोषिष की है। इस अर्थ में पूर्ववर्ती कवियों से अंतिम दषक की कविता अलग है।



प्रष्न तीन

नई कविता की बिम्ब प्रधानता अभी बदली नहीं है। अभी वह पूर्व कवियों और आलोचकों से आक्रांत है। इस पर कुछ ही कविताओं में परिवर्तन दिखाई दे रहा है। नए कवि इस पिफराक में हैं कि कविता वैचारिक न होकर कुछ कहने की स्थिति में हो। संवाद करे अपने पाठक से, उसे वैचारिक षॉक न देकर एक खास तरह का रिलेक्स दे। इस कोषिष मे नई कविता कई प्रयोग कर रही है। मैं खुद गजल और नई कविता के मेल से कविताआंे की कलात्मकता को तोड़ मरोड़ रहा हूं। कई पंद्रह सोलह साल के कवियों की बात करें तो वे इस तरह की रचनाएं कर रहे हैं वे अभी दीक्षित नहीं हुए किसी आलोचक की वैचारिकता से लेकिन उनमें यह बाद दिखने लगी है।



प्रष्न चार

हां न। अकविता की मनः स्थिति अभी है। वह कई कई बार आएगी। कई रूप बदल कर भी आएगी और चकमा देगी। इस प्रक्रिया में बसंत और आर चेतन ही नहीं कई कवि हैं। खुद इससे बचने की कोषिष कर रहे कवि भी इसमें फंस जा रहे हैं। यह कोई अनोखी घटना नहीं होगी३चीजों के छोड़ने पकड़ने का स्वभाविक क्रम है। कई लोग जल्दी हथियार नहीं डालते। कवि का व्यक्तित्व भी ऐसा ही करता है। वह भी क्यों जल्दी हथियार डाले। इस मनःस्थिति से निकलने के लिए एक दषक और लगेगा क्योंकि तब तक युवा कवियों की एक समूह और इसे अपदस्थ करने आ जाएगा। वैचारिकता एक प्रकार की बेषरम जिद की तरह भी होती है।



प्रष्न पांच

मैं खुद पहले अपना नाम लेना चाहूंगा। मेरा नाम इसलिए कि मैंने इन चीजों को महसूस किया है। इनमें आर चेतन है, बसंत त्रिपाठी है, हरे प्रकाष उपाध्याय, पवनकरण, अमिता प्रजापति, संजय कुंदन, उमाषंकर चौधरी, पंकज राग हैं लेकिन बहुत कम लिखते हैं। मनोज कुमार झा, विनोद दास आदि आदि हैं। कई को मैंने पढा नहीं है। अचानक इस तरह कई नाम याद नहीं आते। क्यों ! इसलिए कि इनमें कुछ चीजें हैं जो बिम्ब और कविता के कहने को नए यथार्थ के अनुसार स्वीाकर कर रहे हैं। मैं कई नाम आपको कविता विषेषांकों से देख कर भी बता सकता हूं।



प्रष्न छह

यह कुछ कुछ सच है और सबका षिल्प हावी नहीं रहता। किसी किसी का रहता है लेकिन हिंदी आलोचकों संपादकों की दिक्कत ये है कि वे एक सामान्यीकृत सच सुनना चाहते हैं। हम कवियों की बात कर रहे हैं, हर कवि का अपना षिल्प है। वह ऐसे ही कहेगा। उसे ऐसे ही कहना भी चाहिए। आप को उसे वैसे ही स्वीकार करना चाहिए। आप क्यों ये चाहते हैं कि जंगल में या बाग में सिर्फ आम हों। कोई पफल दे या कोई सिपर्फ छांव के लिए ही उगे३ जीवित के लिए चीजों के षिल्प में बात नहीं की जा सकती हैं। हिंदी कविता के विकास के लिए घातक है यह मानना कि सब कवियों पर षिल्प हावी रहता है। विकास के लिए घातक है कवियों के षिल्प की पार्को में लगे पौधों की तरह कांट छांट करके एक सा करना। कवि को स्वतंत्र छोड़ना घातक नहीं है, हिंदी कविता के लिए विकास में घातक है- हर कवि को एक जनरालाइज दृष्टि से देखना।



रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति



गुरुवार, फ़रवरी 17, 2011

धोबी घाट का एक सबटेक्सचुअल पाठ




राहुल सिंह
ये पोस्ट भाषा सेतु से ली गई है ...... मजे दर बात ये है ki  मैंने न राहुल से पूछा   और न कुनाल से  
- रविन्द्र स्वप्निल प्रजापति



अरसा बाद किसी फिल्म को देखकर एक उम्दा रचना पढ़ने सरीखा अहसास हुआ। किरण राव के बारे में ज्यादा नहीं जानता लेकिन इस फिल्म को देखने के बाद उनके फिल्म के अवबोध (परसेप्शन) और साहित्यिक संजीदगी (लिटररी सेन्स) का कायल हो गया। मुझे यह एक ‘सबटेक्स्चुअल’ फिल्म लगी जहाँ उसके ‘सबटेक्सट’ को उसके ‘टेक्सट्स’ से कमतर करके देखना एक भारी भूल साबित हो सकती है। मसलन फिल्म का शीर्षक ‘धोबी घाट’ की तुलना में उसका सबटाईटल ‘मुम्बई डायरीज’ ज्यादा मानीखेज है। सनद रहे, डायरी नहीं डायरीज। डायरीज में जो बहुवचनात्मकता (प्लूरालिटी) है वह अपने लिए एक लोकतांत्रिक छूट भी हासिल कर लेता है। किसी एक के अनुभव से नहीं बल्कि ‘कई निगाहों से बनी एक तस्वीर’। फिल्म के कैनवास को पूरा करने में हाशिये पर पड़ी चीजें भी उतना ही अहम रोल अदा करती हैं जितने के वे किरदार जो केन्द्र में हैं। यों तो सतह पर हमें चार ही पात्र नजर आते हैं लेकिन असल में हैं ज्यादा-टैक्सी ड्राइवर, खामोश पड़ोसन, लता बाई, प्रापर्टी ब्रोकर, सलीम, लिफ्ट गार्ड और सलमान खान (चौंकिये मत, सलमान खान की भी दमदार उपस्थिति इस फिल्म में है।) सब मिलकर वह सिम्फनी रचते हैं जिससे मुम्बई का और हमारे समय का भी एक अक्स उभरता है।



जैसे की फिल्म की ओपनिंग सीन जहाँ यास्मीन नूर (कीर्ति मल्होत्रा) टैक्सी में बैठी मरीन ड्राइव से गुजर रही है। टैक्सी के सामने लगी ग्लास पर गिरती बारिश को हटाते वाइपर, चलती टैक्सी और बाहर पीछे छूटते मरीन ड्राइव के किनारे और इनकी मिली-जुली आवाजों के बीच टैक्सी ड्राइवर का यह पूछना कि ‘नयी आयी हैं मुम्बई में ?’ ड्राइवर कैसे ऐसा पूछने का साहस कर सका ? क्योंकि उसकी सवारी (यास्मीन) के हाथ में एक हैंडी कैम है जिससे वह मुम्बई को सहेज रही है। जिससे वह अनुमान लगाता है कि शायद यह मुम्बई में नयी आई है (आगे मुम्बई लोकल में शूट करते हुए भी उसे दो महिलायें टोकती हैं ‘मुम्बई में नयी आयी हो ?’)। फिर उनकी आपसी बात-चीत के क्रम में ही यह मालूम होता है कि वह मलीहाबाद (उत्तर प्रदेश) की रहनेवाली है और ड्राइवर जौनपुर (उत्तर प्रदेश) का। उसी शुरूआती दृश्य में टैक्सी के अंदर डैश बोर्ड में बने बाक्स पर लगे एक स्टिकर पर भी हैंडी कैम पल भर को ठिठकता है जिसमें एक औरत इंतजार कर रही है और उसकी पृष्ठभूमि में एक कार सड़क पर दौड़ रही है, और स्टिकर के नीचे लिखा हैः ‘घर कब आओगे ?’ यह उस ड्राइवर की कहानी बयां करने के लिए काफी है कि वह अपने बीवी-बच्चों को छोड़कर कमाने के लिए मुम्बई आया है। इसके बाद भींगती बारिश में भागती कार से झांकती आँखें मुम्बई की मरीन ड्राइव को देखते हुए जो बयां करती है वह खासा काव्यात्मक है। “... समन्दर की हवा कितनी अलग है, लगता है इसमें लोंगों के अरमानों की महक मिली हुई है।” इस ओपनिंग सीन के बाद कायदे से फिल्म शुरु होती है चार शाट्स हैं पहला किसी निर्माणाधीन इमारत की छत पर भोर में जागते मजदूर का दूसरा उसके समानान्तर भोर की नीन्द में डूबी मुम्बई का तीसरा संभवतः उसी इमारत में निर्माण कार्य में लगे मजदूरों के सीढ़ियों में चढ़ने-उतरने का और चौथा दोपहर में खुले आसमान के नीचे बीड़ी के कश लगाते सुस्ताते मजदूर का। फिल्म के यह शुरुआती चार शाट्स फिल्म के एक दम आखिरी में आये चार शाट्स के साथ जुड़ते हैं। उन आखिरी चार शाट्स में पहला, दोपहर की भीड़ वाली मुम्बई है। दूसरा, शाम को धीरे-धीरे रेंगती मुम्बई और ऊपर बादलों की झांकती टुकड़ियाँ हैं। तीसरा, रात को लैम्प पोस्ट की रोशनी में गुजरनेवाली गाड़ियों का कारवां है और चौथा, देर रात में या भोर के ठीक पहले नींद में अलसाये मुम्बई का शाट्स है। इस तरह फिल्म ठीक उसी शाट्स पर खत्म होती है जहाँ फिल्म कायदे से शुरु हुई थी। एक चक्र पूरा होता है। लेकिन यह शाट्स भी मुम्बई के दो चेहरों को सामने रखता है। ‘अ टेल आव टू सिटीज’। जब एक (सर्वहारा) जाग रहा होता है तो दूसरा (अभिजन) गहरी नींद में होता है और पहला जब सोने की तैयारी कर रहा होता है तो दूसरा के लिए दिन शुरू हो रहा होता है (सलीम जब सोने की तैयारी कर रहा होता है, ठीक उसी वक्त अरूण के चित्रों की प्रदर्शनी का उद्घाटन हो रहा होता है)।



मुन्ना (प्रतीक बब्बर) यों तो पहली दुनिया का नागरिक है लेकिन उसके मन में उसी दूसरी दुनिया का नागरिक होने की चाह है, इस कारण वह अपनी नींद बेचकर सपना पूरा करने में लगा है। अरुण (आमिर खान) दूसरी दुनिया का नागरिक है और शॉय (मोनिका डोगरा) एक तीसरी दुनिया की, जो लगातार यह भ्रम पैदा करती है कि वह दूसरी दुनिया की नागरिक है। मतलब यह कि शॉय इनवेस्टमेंट बैंकिंग कन्सल्टेन्ट है दक्षिण एशियाई देशों में निवेश के रूझानों पर विशेषकर लघु और छोटी पूंजी पर आधारित पारंपरिक व्यवसायों की फील्ड सर्वे करके रिपोर्ट तैयार करने के लिए भेजी गई है। फिल्म के अंत की ओर बढ़ते हुए अचानक सिनेमा के पर्दे पर उभरने वाले उन पन्द्रह तस्वीरों की लड़ियों को याद कीजिए जिसमें डेली मार्केट जैसी जगह के स्टिल्स हैं, उन तस्वीरों में कौन लोग हैं इत्र बेचनेवाला, पौधे बेचनेवाला, जूते गाठनेवाला, मसक में पानी ढोनेवाला, रेलवे प्लेटफार्म पर चना-मूंगफली बेचनेवाला, गजरे का फूल बेचनेवाली, घरों में सजा सकनेवालों फूलों को बेचनेवाली, कान का मैल निकालनेवाला, चाकू तेज करनेवाला, मजदूर, पान बेचनेवाली, ताला की चाभी बनानेवाला, रेहड़ी और ठेला पर सामान खींचनेवाला, मछली बेचनेवाली आदि। इस काम के लिए उसे अनुदान मिला है और अनुदान देनेवाली संस्था का मुख्यालय न्यूयार्क (अमेरिका) में है। मैक्डाॅनाल्ड के लगातार खुलते आउटलेट, अलग-अलग ब्राण्ड के उत्पादों का भारत का रुख करने और हर पर्व-त्योहार में भारतीय बाजार में चीन की आतंककारी उपस्थिति को देखते हुए, वायभ्रेन्ट गुजरात की अभूतपूर्व सफलता के मूल मे अनिवासी भारतीयों की भूमिका, भारतीय सरकार द्वारा उनको दी जाने वाली दोहरी नागरिकता, भारतीय इलेक्ट्रानिक और प्रिन्ट मीडिया द्वारा उनके विश्व के ताकतवर लोगों में शुमार किये जाने की खबरों को तरजीह दिये जाने वाले परिवेश में शॉय एक कैरेक्टर मात्र न रह कर मेटाफर बन जाती है। मुन्ना को अगर प्रोलेतेरियत और अरुण को बुर्जुआ मान लें (जिसके पर्याप्त कारण मौजूद हैं) तो शॉय फिनांस कैपिटल की तरह बिहेव करती नजर आती है। खास कर तब जब वह अरुण से लगातार यह बात छिपा रही होती है कि वह मुन्ना को जानती है। मुन्ना और अरुण दोनों तक, जब चाहे पहुँच सकने की छूट शॉय को ही है। शॉय का कला प्रेम लगभग वैसा ही है जैसा सैमसंग का साहित्य प्रेम गत वर्ष हम देख चुके हैं। सभ्यता के विकास का इतिहास पूंजी के विकास का भी इतिहास है। और ज्यों-ज्यों सभ्यता का विकास होता गया त्यों-त्यों मानवीय गुणों में हृास भी देखा गया। इस लिहाज से भी विकास के सबसे निचले पायदान पर खड़ा मुन्ना, अरुण और शॉय की तुलना में ज्यादा मानवीय लगता है। आखिरी दृश्य में जब वह सड़कों पर बेतहाशा दौड़ता हुआ शॉय को अरुण का पता थमाता है, तब वह खुद इस बात की तस्दीक कर रहा होता है कि कुछ देर पहले वह झूठ बोल रहा था। शॉय भी कई जगहों पर झूठ बोलती है, बहाने बनाती है लेकिन न तो पकड़ में आती है और न ही अपराध बोध से ग्रसित नजर आती है।



साम्राज्यवाद के सांस्कृतिक आक्रमण की प्रक्रिया को ‘धोबी घाट’ बेहद बारीकी से उभारती है। और यह महीनी सिर्फ इसी प्रसंग तक सिमट कर नहीं रह गई है। एक चित्रकार के तौर पर अरुण का अपने कला के सम्बन्ध में व्यक्त उद्गार ध्यान देने लायक है। “मेरी कला समर्पित है, राजस्थान, यूपी, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश और अन्य जगहों के उन लोगों का जिन्होंने इस शहर को इस उम्मीद से बनाया था कि एक दिन उन्हंे इस शहर में उनकी आधिकारिक जगह (राइटफुल प्लेस) मिल जायेगी। मेरी कला समर्पित है उस बाम्बे को।” अरुण यहाँ मुम्बई नहीं कहता है बाम्बे कहता है। अगर पूरे संदर्भ में आप बाम्बे संबोधन को देखें तो आप किरण की सिनेमाई चेतना की तारीफ किये बिना नहीं रह सकेंगे। हाल के दिनों में शायद ही किसी फिल्मकार ने शिव सेना की राजनीति का ऐसा मुखर प्रतिरोध करने की हिम्मत और हिमाकत दिखलायी है। प्रतिरोध की ऐसी बारीकी हाल के दिनों में एक आस्ट्रेलियाई निर्देशक Michael Haneke की फिल्म Cache i.e. Hidden (2005) में देखी थी।



मुन्ना, अरुण और शॉय की तुलना में यास्मीन नूर सहजता से किसी खांचे में नहीं आती। कहीं यह मुन्ना के करीब लगती है तो कहीं अरुण और शॉय के। मुन्ना और यास्मीन इस मामले में समान है कि दोनों अल्पसंख्यक वर्ग से तालुक रखते हैं, दोनां हिन्दी भाषी प्रदेश क्रमशः मलीहाबाद (उत्तर प्रदेश) और दरभंगा (बिहार) से हैं, दोनों रोजगार के सिलसिले में मुम्बई आते हैं (यास्मीन निकाह कर के अपने शौहर के साथ मुम्बई आई है। निम्न वर्ग या निम्न वित्तीय अवस्था वाले परिवारांे में लड़कियों के लिए विवाह भी एक कैरियर ही है।) इसके अलावा मुन्ना और शॉय के साथ मुम्बई में एक आउटसाइडर की हैसियत से साथ खड़ी नजर आती है। उसकी संवेदनशीलता उसे अरुण के साथ जोड़ती है। इन सबको जो चीज आपस में जोड़ती है, वह है मुम्बई, जिसकी बारिश और समन्दर ये आपस में साझा करते हैं। आप पायेंगे कि इन सबके जीवन में समन्दर और बारिश के संस्मरण मौजूद हैं। यह उनके एक साझे परिवेश से व्यक्तिगत जुड़ाव को दर्शाता है। यास्मीन के नक्शे कदम पर अरुण समन्दर के पास जाता है। मुन्ना और शॉय साथ-साथ समन्दर के किनारे वक्त बिताते हैं। लेकिन यास्मीन, बारिश और समन्दर जब भी पर्दे पर आते हैं फिल्म में हम कविता को आकार ग्रहण करते देखने लगते हैं। जैसे-“यहाँ की बारिश बिल्कुल अलग है, न कभी कम होती है, न कभी रुकने का नाम लेती है, बस गिरती रहती है, शश्श्श्......., रात को इसकी आवाज जैसे लोरी हो, जो हमें घेर लेती है अपने सीने में।” बारिश के समय अरुण अपनी पेंटिग में लीन हो जाता है तो शॉय अरुण के साथ बिताये गये अपने अंतरंगता के क्षणों में लेकिन इन सब की रोमानियत पर मुन्ना का यथार्थ पानी फेर देता है क्योंकि बारिश के वक्त मुन्ना अपनी चूती छत ठीक कर रहा होता है। इन तमाम समानताओं के बावजूद मुझे यास्मीन मुन्ना के ही नजदीक लगी। वह मारी गई अपनी अतिरिक्त संवेदनशीलता के कारण, पूरी फिल्म उसकी इस अतिरिक्त संवेदनशीलता का साक्षी है चाहे वह दाई का प्रसंग हो या किसी सदमे के कारण खामोश हो चुकी पड़ोसन का या फिर बकरीद के अवसर पर उसके उद्गार। एक लगातार संवेदनशून्य होते समय में संवेदनशीलता को कैसे बचाया जा सकता है। जो बचे रह गये उनकी संवेदनशीलता उतनी शुद्ध या निखालिस नहीं थी। शायद इसलिए यास्मीन की मौत मेरे जेहन में एक कविता के असमय अंत का बिम्ब नक्श कर गई। वैसे यहाँ ‘आप्रेस्ड क्लास’ के साथ ‘जेंडर’ वाला आयाम भी आ जुड़ता है। एक समान परिस्थितियों में भी पितृसत्तात्मक समाज किस कदर पुरुष की तुलना में स्त्री विरोधी साबित होता है। यास्मीन का प्रसंग इस लिए भी दिलचस्प है कि खुद आमिर खान ने अपनी पहली पत्नी को छोड़ने के बाद किरण को अपनी शरीक-ए-हयात बनाया था। फिल्म में इस ऐंगल को शामिल किये जाने मात्र से भी किरण की बोल्डनेस का अंदाजा लगाया जा सकता है। इस कोण से ही फिल्म का दूसरा सिरा खुलता है जो यास्मीन की उपस्थिति और उसके सांचे में फिट न बैठ सकने की गुत्थी का हल प्रस्तुत करता है। यहीं मुन्ना यास्मीन का विस्तार (एक्सटेंशन) नजर आता है। यास्मीन सिर्फ इस कारण से नहीं मरी कि वह अतिरिक्त संवेदनशील थी वह इसलिए मरी कि उसमें आत्म विश्वास और निर्णय लेने की क्षमता की कमी थी। मुन्ना भी लगभग उन्हीं स्थितियों में पहुँच जाता है जिन परिस्थितियों में यास्मीन ने आत्महत्या की है, (सलीम की हत्या हो चुकी है, शॉय को उसके चूहा मारने के धंधे बारे में मालूम हो गया है, जिस इलाके में वह काम करता था वहाँ से उठा कर जोगेश्वरी के एक अपार्टमेंट में फेंक दिया गया है।)। शुरु में मुन्ना भी उन परिस्थितियों से मुँह चुराकर भागता है। लेकिन फिर सामना करता है। यह जान कर की शॉय अरुण को ढूँढ रही है वह खुद उसको अरुण का पता देता है। आप पायेंगे कि लगभग पिछले मौकों पर मुन्ना आत्म विश्वास और निर्णय लेने की क्षमता का परिचय देता रहा है। जैसे वह शॉय के कपड़े पर नील पड़ जाने के कारण उसके नाराजगी को ज्यादा फैलने का मौका दिये बगैर कहता है “मैडम गलती हो गई दीजिए मैं ठीक करके देता हूँ।” जब शॉय मुफ्त में उसका पोर्टफोलियो अपने ढंग से बाहर नेचुरल तरीके से शूट करना चाहती है तो वह कहता है कि “भाई हमें नहीं चाहिए फ्रेश-व्रेश, आप स्टूडियो में शूट किजीये ना, खर्चा मैं भरता हूँ।” फिर भी ना-नुकुर की स्थिति बनता देख वह सीधा कहता है कि ‘आपको माॅडल्स फोटो लेने हैं कि नहीं! धंधा, मोहब्बत को गंवा कर भी फिल्म के अंत में ‘द लास्ट स्माइल’ की स्थिति में मुन्ना ही है, जो उम्मीद बंधाती है।



इसके अलावे पूरी फिल्म के बुनावट में जो बारीकी है वह स्क्रिप्ट और स्क्रीन प्ले में की गई मेहनत को दर्शाती है। जैसे फिल्म के शुरुआती दृश्य में जब यास्मीन खुद के मलीहाबाद की बताती है तो उसकी अहमियत आधी फिल्म खत्म होने के बाद मालूम होती है जब वह इमरान को संबोधित करते हुए अपनी दूसरी चिट्ठी मे यह कहती है कि ‘वहाँ तो आम आ गये होंगे ना, यहाँ के आमों में वह स्वाद कहाँ ?’ मुन्ना की खोली में उसके इर्द-गिर्द रहनेवाली बिल्ली की नोटिस हम तब तक नहीं लेते हैं जब तक मुन्ना अपनी खोली नहीं बदलता। दूसरी बार जब मुन्ना शॉय की नील लगी शर्ट को ठीक करके वापस करने के लिए शॉय के फ्लैट पर जाता है तो शॉय मुन्ना को चाय के लिए भीतर बुलाती है उस वक्त दरवाजे के किनारे खड़ी एग्नेस (नौकरानी) फ्रेम में आती है। उसके फ्रेम में आने का मतलब ठीक अगले ही सीन मे समझ आ जाता है, जब एग्नैस चाय लेकर आती है, एक कप में और दूसरी ग्लास में। आप पायेंगे कि बेहद पहले अवसर पर ही मुन्ना को शॉय के द्वारा मिलने वाले अतिरिक्त भाव को भांपने में वह पल भर की देरी नहीं करती और आगे चलकर इस बारे में अपनी राय भी जाहिर करती है। मुन्ना के बिस्तर के पास लगे सलमान खान के पोस्टर की अहमियत का भान हमें फिल्म के आगे बढ़ने के साथ होता चलता है। मुन्ना की कलाइयों में बंधी मोटी चेन, डम्बल से मसल्स बनाते वक्त सामने आइने पर सलमान की फोटो को हम नजरअंदाज कर जाते हैं। लेकिन तीन मौके और है जब हम फिल्म में सलमान खान की उपस्थिति को नजरअंदाज करते हैं। पहला, जब शॉय मुन्ना से दूसरी बार किसी पीवीआर या मल्टीप्लैक्स में संयोगवश मिलती है। दूसरा, जब वह मुन्ना का पोर्टफोलियो शूट कर रही होती है और तीसरा जब वह अरुण के साथ खुद को देख लिये जाने पर उससे विदा लेकर दौड़ती हुई मुन्ना के पास पहुँच कर कहती है कि आज तुम मुझे नागपाड़ा ले जाने वाले थे और फिल्म दिखाने वाले थे। फिल्म में सलमान खान की जबर्दस्त उपस्थिति को हम नजरअंदाज कर जाते हैं। शरु में ही मुन्ना और सलीम केबल पर प्रसारित होने वाली जिस फिल्म को देखकर ठहाके लगाते हैं, वह सलमान खान अभिनीत हैलो ब्रदर है। फिर जब पीवीआर या मल्टीप्लैक्स में फिल्म देखने के क्रम में शॉय मुन्ना से मिलती है वह फिल्म है ‘युवराज’। मुन्ना अपने पोर्टफोलियो शूट के लिए जो पोज दे रहा होता है अगर सलमान खान के बिकने वाले सस्ते पोस्टकार्ड और पोस्टर को आपने देखा हो तो आप समझ सकते हैं कि मुन्ना उससे कितना मुतास्सिर है और जिस फिल्म को दिखाने की बात की थी मुन्ना ने वह फिल्म थी, ‘हैलो’। हैलो ब्रदर ‘युवराज’ और ‘हैलो’ दोनों फिल्में सलमान खान की है। इन कारणों से बाद में खोली बदलते वक्त मुन्ना द्वारा सावधानी से सलमान खान के पोस्टरों को उतारा जाना एक बेहद जरुरी दृश्य लगता है। लेकिन सिर्फ इस कारण से मैं सलमान खान की उपस्थिति को जबर्दस्त नहीं कह रहा हूँ। इन संदर्भों से जुड़े होने के बावजूद वैसा कहने की वजह दूसरी है। वह यह कि किसी भी फिल्म में यथार्थ के दो बुनियादी आयामः काल और स्थान (टाईम एण्ड स्पेस) को सहजता से पहचान जा सकता है। आम तौर पर हिन्दी सिनेमाई इतिहास में इस किस्म के प्रयोग कम ही देखने को मिले हैं जिसमें शहर को ही मुख्य किरदार के तौर पर प्रोजेक्ट किया गया हो। जाहिर है जब आप शहर को प्रोजेक्ट कर रहे होते हैं तो रियलिटी का स्पेस वाला डाइमेंशन टाईम वाले फैक्टर की तुलना में ज्यादा महŸवपूर्ण हो उठता है। ‘धोबी घाट’ में भी ठीक यही हुआ है। आप मुम्बई को देख रहे हैं लेकिन वह कब की मुम्बई है ? कहें कि आज की तो मैं कहूंगा कि वह अक्टूबर-नवम्बर 2010 के आगे-पीछे की मुम्बई है, इतना स्पेस्फिक कैसे हुआ जा सकता है, इसके संकेत फिल्म में है। ‘धोबी घाट’ उस अंतराल की कहानी कहता है जब सलमान खान की ‘युवराज’ रीलिज हो चुकी थी और ‘हैलो’ चल रही थी और हैलो ब्रदर इतनी पुरानी हो चुकी थी कि उसका प्रसारण केबल पर होने लगा था। सलमान खान मुम्बई के उस स्पेस के टाईम फ्रेम को रिप्रेजेन्ट करता है। बस इससे ज्यादा की जरूरत भी नहीं थी। लेकिन इसके लिए जिस ढ़ंग से सलमान खान का मल्टीपर्पस यूस किया गया है, वह किसी मामूली काबिलियत वाले निर्देशक के बूते की बात नहीं है। शहर को किरदार बनाने की दूसरी कठिनाई यह है कि स्टोरी नरेशन को ग्राफ या स्ट्रक्चर लीनियर नहीं हो सकता उसे सर्कुलर होना पडे़गा। किस्सागोई का यह सर्कुलर स्ट्रक्चर सुनने में जितना आसान है उसे फिल्माना उतना ही मुश्किल है। खासकर भारतीय दर्शक वर्ग जो लीनियर स्ट्रक्चर वाली फिल्मों का इतना अभ्यस्त हो चुका है कि वह उनके सिनेमाई संस्कार का पर्याय हो गया है। हिन्दी सिनेमाई इतिहास में जब से मैंने फिल्में देखनी शुरू की है, किरण राव का यह प्रयास कई मायने में मुझे फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ की याद दिला गया। जिस तरह रेणु ने अंचल को नायक बनाकर हिन्दी कथा साहित्य की परती पड़ी जमीन को तोड़ने का काम किया था, किरण ने भी लगभग वैसा ही किया है। इतना ही नहीं रेणु ने अपनी कहानियों को ‘ठुमरीधर्मा’ कहा था। संगीत का मुझे ज्यादा ज्ञान नहीं है लेकिन इतना सुना है कि ठुमरी में कोई एक केन्द्रीय भाव या टेक होती है और बार-बार गाने के क्रम में वहाँ आकर सुस्ताते हैं, स्वरों के तमाम आरोह-अवरोह के बाद उस बुनियादी टेक को नहीं छोड़ते हैं, जिसे उसकी सार या आत्मा कह सकते हैं। ऐसा करते हुए हम उस अनुभूति को ज्यादा घनीभूत या सान्द्रता प्रदान कर रहे होते हैं जो प्रभाव को गाढ़ा करने का काम करता है। इस आवर्तन के जरिये आप उसके केन्द्र या नाभिक को ज्यादा संगत तौर पर उभार पाते हैं। रेणु ने इस शिल्प के जरिये अपनी कहानियों में अंचल की केन्द्रीयता को उभारने में सफलता पाई थी। लगभग वैसा ही शिल्प किरण ने अपनी इस फिल्म के लिए अख्तियार किया है। और यह भी एक दिलचस्प संयोग है कि फिल्म में संभवतः बेगम अख्तर द्वारा गाया गये दो ठुमरी भी बैकग्राउंड स्कोर के तौर पर मौजूद है। एक जब अरुण यास्मीन वाले घर में अपने सामानों को तरतीब दे रहा है और दूसरा जब मुन्ना बारिश में भींग कर शॉय को बाय कर रहा होता है और अरुण अपनी पैग में बारिश के चूते पानी को मिला कर पेन्टिग शुरू कर रहा होता है।



भारत के किसी एक शहर या अंचल को फिल्माना खासा चुनौतिपूर्ण है। उसमें भी मुम्बई जो लगभग एक जीता-जागता मिथ है। मुम्बई के नाम से ही जो बातें तत्काल जेहन में आती हैं उनमें मायानगरी, मुम्बई की लोकल, स्लम्स, गणपति बप्पा, जुहू चैपाटी, पाव-भाजी, भेल-पुरी, अंडरवल्र्ड, शिवसेना आदि तत्काल दिमाग में कौंध जाते हैं। इस सबसे मिलकर मुम्बई का मिथ बना है। फिल्म में यह सब हैं जो मुम्बई के इस मिथ को पुष्ट करता है। तो फिर नया क्या है ? नया इस मिथ को पुष्ट करते हुए उसकी आत्मा को बयां करना है। मुम्बई के इस मिथ या कहें कि स्टीरियोटाईप छवि को किरण निजी अनुभवों (पर्सनल एक्सपिरयेंसेज) के जरिये जाँचती है। अंत में मुन्ना की मुस्कान उस मुम्बईया स्प्रिट की छाप छोड़ जाती है जिसको हम ‘शो मस्ट गो आॅन’ के मुहावरे के तौर पर सुनते आये हैं।





अभिनय की दृष्टि से आमिर को छोड़कर सब बेहतरीन हैं। मोनिका डोगरा ने कुछ दृश्यों में जो इम्प्रोवाइजेशन किया है वह गजब है। चार उदाहरण रख रहा हूँ, एक जब उसके शर्ट पर वाईन गिरती है उस समय का उसका ‘डिलेयड पाॅज एक्सप्रेशन’, दूसरा जब फोटो शूट के वक्त मुन्ना पूछता है कि क्या मैं अपना टी शर्ट उतार दूं तब मोनिका ने जो फेस एक्स्प्रेशन दिया है, वह इससे पूर्व कमल हासन में ही दिखा करता था। तीसरा मुन्ना जब पहली बार कपड़ा देने उसके फ्लैट पर गया है, तब वह अपने हाथ को जिस अंदाज में हिला कर कहती है, ‘अंदर आओ।’ और चैथा जब वह अपने टैरेस पर उठने के ठीक बाद अपनी मां से बात कर रही है। पूरे फिल्म मंे प्रतीक बब्बर की बाॅडी लैंग्वेज ‘मि परफ्ेकशनिस्ट’ पर भारी है। इस पर तो काफी कुछ लिखा जा सकता है लेकिन फिलहाल इतना ही कि एक दृश्य याद कीजिए जहाँ मुन्ना शॉय के साथ फिल्म देख रहा है, शॉय के हाथ के स्पर्श की चाह से उपजा भय, रोमांच और संकोच सब उसके चेहरे पर जिस कदर सिमटा है, वह एक उदाहरण ही काफी जान पड़ता है। ‘जाने तू या जाने ना’ में अपनी छोटी भूमिका की छाप को प्रतीक बब्बर ने इस फिल्म में धुंधलाने नहीं दिया है। सलीम इससे पहले ‘पिपली लाइव’ में भी एक छोटी सी भूमिका निभा चुके हैं। यास्मीन को सिर्फ आवाज और चेहरे के बदलते भावों के द्वारा खुद को कन्वे करना था। और वह जितनी दफा स्क्रीन पर आती है उसकी झरती रंगत मिटती ताजगी को महसूस किया जा सकता है। आमिर के हाथों अरुण का किरदार फिसल जाता है, इसे देखते हुए आमिर के संदर्भ में पहली बार इस बात का अहसास हुआ कि वे एक्टर नहीं स्टार हैं। अरूण कोई ऐसा किरदार नहीं था जिसके गेस्चर और पोस्चर के जरिये उसे कन्वे किया जा सकता था। लगान, मंगल पाण्डेय, तारे जमीन पर, गजनी, थ्री इडियट की तरह सिर्फ वेश-भूषा बदल लेने से ही अरुण पहचान लिया जाता ऐसी बात नहीं थी। अरुण के किरदार को अभिनीत नहीं करना था बल्कि जीना था। आमिर एक्टिंग के नाम पर उन कुछ बाहरी लक्षणों तक ही सिमट कर रह गये जिसे उनकी चिर-परिचित मुद्राओं के तौर पर हम देखते आये हैं। मसलन्, फैलती-सिकुड़ती पुतलियाँ, भवों पर पड़नेवाला अतिरिक्त बल, सर खुजाने और लम्बी सांसे छोड़ना वाला अंदाज आदि। यह लगभग वैसा ही सलूक है जैसा ‘चमेली’ में करीना कपूर ने किया था, उसने भी होंठ रंग कर, पान चबा कर, चमकीली साड़ी और गाली वाली जुबान के कुछ बाहरी लक्षणों के द्वारा चमेली को साकार करना चाहा था। उसी के समानांतर ‘चांदनी बार’ में तब्बू को देखने से किसी किरदार को जीने और अभिनीत करने के अंतर को समझा जा सकता है। बहरहाल इस लिहाज से मोनिका डोगरा सब पर भारी है।



अब अगर बात नेपथ्य की करें तो फिल्म का संगीत और सिनेमेटोग्राफी वाला पहलू बचता है। फिल्म में कोई गाना नहीं है केवल बैकग्राउंड स्कोर है जिसके कम्पोसर हैं, ळनेजंअव ैंदजंवसंससं। इस साल हर फिल्म फेस्टिवल में जिस अर्जेन्टीनियाई फिल्म ‘दी ब्यूटीफूल’ ने सफलता के झंडे गाड़े हैं उसका संगीत भी गुस्ताव ने दिया है लगभग हर अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार अपनी झोली में डाल चुके इस संगीतकार का जादू रह-रह कर थोड़े अंतराल पर ‘धोबी घाट’ में अपनी मौजूदगी दर्ज कराता है। उन संवादहीन दृश्यों में खासकर जहाँ फिल्म की कहानी सुर-लहरियों पर तिरती आगे बढ़ती है। कहानी साउण्डट्रैक में संचरण करती है। ऐसा कई एक जगहों पर हैं। पर्दे पर आमिर खान प्रोडक्शन के साथ अजान सरीखा एक संगीत है जिसको बीच-बीच में पटरी पर दौड़ती ट्रेन की खट-खट-आहट तोड़ती है, मुन्ना और शॉय जब अंतरंगता के क्षणों में डूब रहे होते हैं। इसके अलावा अकेलापन, उदासी, प्यार जैसी भावनाओं को भी गहराने की कोशिश सुनी जा सकती है। गुस्ताव के साथ ही फिल्म की सिनेमेटोग्राफी भी सराहनीय है। खास कर तुषार कांति रे के वे पन्द्रह-सोलह स्टिल्स, जिसमें शॉय डेली मार्केट को अपनी निगाहों में कैद कर रही है। पर इससे भी ज्यादा प्रभावी वह दृश्य है जिसमें मुन्ना शॉय के साथ समन्दर किनारे बैठ कर डूबते सूरज को देख रहा है और वह डूबता सूरज मुन्ना के पीछे समन्दर के किनारे खड़ी किसी इमारत की उपरी मंजिलों पर लगे शीशे पर प्रतिबिम्बित हो रहा है। शुरू और आखिरी के चार-चार शाट्स की बात तो कर ही चुका हूँ। वैसे सिनेमेटोग्राफी को थोड़ा और सशक्त होना था क्योंकि एक ही साथ विडियो (यास्मीन), पेन्टिंग (अरुण), और फोटोग्राफी (शॉय) तीनों आर्ट फार्म की निगाह से मुम्बई को कैद करने की बात थी।



फिल्म कमजोर लगी आमिर के कारण और एक दूसरी बुनियादी गलती है सलमान खान के फिल्मों के नामोल्लेख के संदर्भ में किरण को करना सिर्फ इतना था कि मुन्ना से शॉय की दूसरी मुलाकात पर उन्हें ‘युवराज’ की जगह ‘हैलो’ देखने जाते हुए दिखलाना था और बाद में मुन्ना उसे ‘युवराज’ दिखाने का वादा कर रहा होता। ऐसा इसलिए कि ‘हैलो’ 10 अक्टूबर 2010 को रिलीज हुई थी और ‘युवराज’ 21 नवम्बर 2010 को। इससे रियलिटी के टाईम वाले डायमेन्सन की संगति भी बैठ जाती। फिलहाल तो इस फिल्म को देखने के बाद जिन बातों की प्रतिक्षा कर रहा हूँ उनमें अनुषा रिजवी और किरण राव की दूसरी फिल्म, ‘पिपली लाइव’ की मलायिका शिनाॅय व नवाजुददीन (राजेश) और ‘धोबी घाट’ की मोनिका डोगरा व प्रतीक बब्बर की अगली भूमिकाओं का इंतजार शामिल है।

रविवार, फ़रवरी 06, 2011

संदेह - दृष्टि

संदेह - दृष्टि

ये आलेख गीत चतुर्वेदी और सबद निरंतर ब्लॉग से साभार है ...

बोर्हेस ने ‘द रिडल ऑफ पोएट्री’ में कहा है- ‘सत्तर साल साहित्य में गुज़ारने के बाद मेरे पास आपको देने के लिए सिवाय संदेहों के और कुछ नहीं।‘ मैं बोर्हेस की इस बात को इस तरह लेता हूं कि संदेह करना कलाकार के बुनियादी गुणों में होना चाहिए। संदेह और उससे उपजे हुए सवालों से ही कथा की कलाकृतियों की रचना होती है। इक्कीसवीं सदी के इन बरसों में जब विश्वास मनुष्य के बजाय बाज़ार के एक मूल्य के रूप में स्थापित है, संदेह की महत्ता कहीं अधिक बढ़ जाती है। एक कलाकार को, निश्चित ही एक कथाकार को भी, अपनी पूरी परंपरा, इतिहास, मिथिहास, वर्तमान, कला के रूपों, औज़ारों और अपनी क्षमताओं को भी संदेह की दृष्टि से देखना चाहिए।

अपनी बात को स्पष्ट करते हुए एक सूत्र तक पहुंचाने के लिए मैं फिर एक बार बोर्हेस को ही कोट करूंगा। उनकी एक कहानी है- ‘द रोज़ ऑफ़ पैरासेल्‍सस’, जिसमें एक किरदार राख से गुलाब बनाता है। जब एक व्यक्ति उससे यह हुनर सीखने आता है, तो वह मना कर देता है कि उसके पास ऐसी कोई चमत्कारी शक्ति नहीं है। उस व्यक्ति के जाते ही पैरासेल्‍सस नाम का वह किरदार फिर चमत्कार करते हुए राख से गुलाब बना देता है। बोर्हेस की यह कहानी अपने मेटाफि़जि़कल और मेटाहिस्टॉरिक अर्थों में बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन इंटर-टेक्स्चुअल रीडिंग से ज़रा खेलते हुए मैं बोर्हेस की इस कहानी को हिंदी फि़क्शन के संदर्भ में मेटाकॉमिक तरीक़े से देखता हूं।

कुछ लोग हिंदी कहानी से इसी कि़स्म के राख से गुलाब बना देने वाले चमत्कार का दावा करते हैं, लेकिन अपने किस अकेलेपन में वह यह चमत्कार कर रही है? जैसे ही वह पाठक के सामने जाती है, पैरासेल्‍सस की तरह चमत्कार से इंकार कर देती है, अपना वांछित या प्रोजेक्टेड असर तक नहीं छोड़ती, जबकि बार-बार कहा जा रहा है कि वह चमत्कारी है, तो फिर यह चमत्कार किस निर्जनता या नीरवता में है?

इस समय हिंदी कहानी में जिस तथाकथित रचनात्मक विस्फोट की बात की जाती है, उसे देखकर बरबस मुझे ‘पोएटिक्स ऑफ़ डीफैमिलियराइज़ेशन’ की याद आ जाती है। यह कला का एक सिद्धांत या प्रविधि है, जिसे पुराने ज़माने के रूसी लेखकों ने और बीसवीं सदी की शुरुआत के अमेरिकी लेखकों ने ख़ासा इस्तेमाल किया था। इसमें नैरेटर किसी जानी-पहचानी साधारण-सी चीज़ को इस क़दर नाटकीय और हल्लेदार बनाकर प्रस्तुत करता था कि देखने वाले को यह अहसास हो जाए कि दरअसल वह पहली बार ही उस चीज़ को देख रहा है। इस चौंक के कलात्मक लाभ और छौंकदार हासिल को वह फिक्शन मान लेता था। हिंदी कहानी से ज़्यादा उसका परिदृश्य इस समय उसी पोएटिक्स को एन्ज्वॉय करता जान पड़ता है।

इसके पीछे बहुधा मुझे हिंदी कहानी के विकास की सरणियों के पेचो-ख़म दिखाई देते हैं। हिंदी कथा साहित्य का विकास और हिंदी सिनेमा का विकास कुछ बरसों के आगे-पीछे में ही होता है। दोनों स्टोरी-टेलिंग की दो विधाएं हैं, लेकिन इस विकास में मुझे हिंदी सिनेमा की लोकप्रिय कथ्य-धारा अत्यधिक हावी होती दिखाई देती है। सिनेमा ने साहित्य को समृद्धि ही दी है, ऐसा हम दुनिया के कई बड़े लेखकों का आत्मकथ्य पढ़कर जान पाते हैं, लेकिन हिंदी में सिनेमा के लोकप्रिय कथानक-कथात्मक दबाव ने, कुछ ख़ास अर्थों में भारतीय-हिंदी समाज की संरचना ने भी, हिंदी कथा-साहित्य को चीज़ों को ब्लैक एंड व्हाइट में देखने का जो अत्यंत सरल, सुपाच्य कि़स्म का फॉर्मूला दिया है कि वह आज भी हमारे कथाकारों, किंचित पाठकों और अधिकतर आलोचकों से छुड़ाए नहीं छूट रहा। हमने नैरेशन की चेखोवियन शैली को तो अपना लिया, लेकिन अंतर्वस्तु की चेखोवियन जटिलताओं को ख़ुद से दूर ही रखा। आज भी हम तथाकथित पोस्ट-मॉडर्न नैरेटिव से उसी कि़स्म के सरलीकृत, लेकिन हाहाकारजनित नतीजे ही निकाल रहे हैं।

क्या इसके पीछे कहीं ये कारण तो नहीं कि हम शुरू से ही, हिंदी कथा के परिक्षेत्र में, डेमी-गॉड्स और लेसर-गॉड्स को पूजते आ रहे हैं? क्या हिंदी कहानी लगातार रॉन्ग्ड पैट्रन्स के हाथों में रही है? क्यों ऐसा होता है कि मुझे हिंदी कहानी के शिखर पुरुष हिंदी से बाहर कहीं दिखाई ही नहीं देते? और दुनिया के आला दरजे के फिक्शन का एक हिस्सा पढ़ लेने के बाद अपने इन लेसर-गॉड्स की कहानियों में मेरी कोई दिलचस्पी रह ही नहीं पाती? हां, उनकी कथेतर साहित्यिक-सामाजिक तिकड़में, शरारतें, बदमाशियां मुझे उनकी कहानी से ज़्यादा आकर्षित करती हैं। फिक्शन का अगर कोई मानचित्र हो, तो उसमें हमारी पोजीशनिंग कहां है? यक़ीनन, कहीं नहीं। हम साहित्य में रणजी ट्रॉफ़ी मुक़ाबलों से ही अंतरराष्ट्रीय विजय-प्राप्ति का आनंद भोग ले रहे हैं।

नहीं, यह न सोचा जाए कि इसके पीछे कोई पश्चिमपरस्त मानसिकता है, अपने जातीय-भाषाई स्‍वभावगत विशेष सरलीकृत तुरत-फुरत आरोप-निष्पादन की फेहरिस्त में इज़ाफ़ा करते हुए यह न कह दिया जाए कि कुछ लोगों को विदेशी चीज़ों में ही आनंद आता है, बल्कि यह एक कड़वी सचाई है, जिसे कम से कम ब्लैक एंड व्हाइट में न देखा जाए। तो वह चमत्कार जो उस कहानी में पैरासेल्‍सस कर रहा है और हमारे परिदृश्य में हिंदी कहानी कर रही है, उसे जांच लिया जाए। स्ट्रैटजिक टाइमिंग्स के सहारे नहीं, बल्कि साहित्य की गुणवत्ता को मानदंड बनाकर। हम डीफैमिलियराइज्ड की आत्मरति से बाज़ आएं, लेसर-गॉड्स के होलसेल प्रोडक्‍शन से भी.

मैं यहां किसी कि़स्म के सामाजिक यथार्थ, वर्तमान की चुनौतियां, समकालीन हिंदी कहानी का संकट, यथार्थ और विभ्रम, 90 के पहले और बाद का यथार्थ, दशा और दिशा जैसे सेमिनारी क्लीशे में नहीं जाना चाहता, क्योंकि एक ख़ास, सीमित दबाव डालने के अलावा इन सारी बातों का आर्ट ऑफ द फि़क्शन से कोई लेना-देना भी नहीं होता, लेकिन फिर भी मैं यहां पहले पैराग्राफ़ की बात को दोहराते हुए महज़ इतना कहना चाहूंगा कि हम इतिहास के साथ-साथ अपनी पूरी कथा-परंपरा को भी संशयग्रस्त होकर देखें।

(30 अक्‍टूबर 2009 को रामगढ़, नैनीताल में हिंदी कहानी पर आयोजित सेमिनार में कुछ ज़बानी जोड़ के साथ पढ़ा गया आलेख.)

शुक्रवार, फ़रवरी 04, 2011

बसंत मेरा दोस्त

 बसंत फूलों के खिलने की तरह नहीं आता। कैलेंडर की तारीखों से भी मैंने बसंत को नहीं पहचाना। बसंत मुझे अपने आसपास महसूस हुआ। कई सालों तक बसंत अनाम रहते हुए मुझे महसूस होता रहा जब मैं उसे पहचान नहीं पाया था। मैं उसे मना भी नहीं सका।
यह गांवों और शहरों के बीच आने जाने के दिन थे। गांव के करीब से रोड निकल रही थी। रास्ते के दरख्तों को हटाया जा रहा था।बेलगाडी की गाद्मात की जगह छोड़ा रोड आ रहा था. यह एक बदलाव था जिसे हम गांव के बच्चे आश्चर्य से देखते रहते थे। लेकिन दुखी होते थे पेडों के कटने से, जो हमारे दोस्त की तरह थे। मुझे उस समय कई पेड़ों की याद आती थी और सच बताऊ आज भी वे पेड़ न जाने क्यों स्मिरती में बने हुए हैं ।
यह बसंत का ही असर था कि मुझे पेड़ों की, छांव की यादें आने लगीं थी। यह वह समय भी था जब बिजली के खंभों को खड़ा किया जा रहा था। माहौल गांव में एक नए मौसम की ताजगी जैसा था। पेड इतने करीब थे कि वे बिजली के खंभे और खंभे इतने नए थे कि रोशनी के पेड़ जैसे लगने लगे थे।
इसी परिवर्तन के साथ मैं बसंत को महसूस कर रहा था। एक दिन मैंने महसूस किया कि मैं दौडना चाहता हूं। यह एक दोपहर थी लेकिन  मैं दौड़ा नहीं। अचानक ही मुझे लड़कियां अच्छी लगने लगीं। यह बसंत की ही कोई दोपहर थी। तब सच में मैंने गांव से बाहर की तरह दौड़ लगाई। यह मेरी दौड़ नहीं थी यह बसंत की दौड़ थी। यह बसंत का उत्साह था... यह मेरा पहला बसंत था और मैं रोज घर से बाहर कुछ फासले पर खड़े पीपल के पेड़ तक जाने लगा था। मैं देखने लगता हूं कि पीपल के फल गिर रहे हैं। उसकी शाखों पर किरउएं चिहुंक रही हैं। पुराने पत्ते झर रहे हैं। हवाओं में अजीब सी ताजगी और खनक महसूस होने लगी। क्या यह बसंत था। हां यह बसंत ही था...मैंने इसी तरह ही बसंत को पहचाना था।
बसंत को पहचानने में मैं अकेला नहीं था। गांव के कई हम उम्र थे। बसंत के परिवर्तन हम सब पर एक साथ तारी हुए थे। हमने बसंत को पेड़ों, लड़कियों और जंगलों में फैला हुआ पाया था। हमें ये समझ में नहीं आता था कि आखिर हमें अच्छा सा फील क्यों हो रहा है। क्यों हम
हमने किसी कलैंडर में देख कर नहीं मनाया था। यह मेरे तन मन में उतरा था। यह बसंत मुझे प्रकृति ने उपहार में दिया था।
कैलेंडर तो मैंने बहुत बाद में देखे। बसंत का उत्सव मैंने बाद में जाना। प्रकृति मुझे चुपचाप बसंत दे गई थी। यह बंसत कई रूपों में मेरे साथ है। स्मृति और बदलाव, जीवन और संग साथ, शहर और गांव। आज मैं बसंत को एक ऐसे मौसम के रूप में दे ाता हूं जो गांव से मेरे साथ शहर आ गया। यहां उसकी खूबसूरती शहरी चमक और तमाम तरह की रसायनिक गंधों सुगंधों में मिल गई है। पिछले कई सालों से षहरों के आसपास बसंत देखने की कोषिष करता हूं। कई बार पार्कों में लगे हुए पेड़ों पर तो कई बार कालोनियों के बड़े बंगलों में घिरे फूलों के झाड़ों पर उस दोस्त बसंत को पहचानने की कोषिष करता हूं जो मेरे गांव से साथ आया था।
मुझे यकीन नहीं होता कि मेरेा बसंत मुझसे कहीं दूर है। लगता है मेरे रहने की जगह उसे पसंद नहीं आई इसलिए वह षहर और गांव के बीच कहीं ठहर गया है। कहीं छुप गया हैं। कई दफा ऐसा हुआ है बसंत पंचमी कब आ गई यह कैलेंडर से देख कर पता चला लेकिन मैंने तो यह जाना कि बसंत तारीखो में घटने वाली घटना नहीं है। यह धरती अपने प्रेमी से मिलने की घटना है। जब यह होती है तो कण कण में यह व्यापती है। महकती है।
मैं उस महक को पहचानना चाहूं तो मुझे फिर से इस मौसम मैं अपने गांव के खेतों की ओर जाना ही पड़ेगा।  अपने उसे सखा बसंत को खोजना पडंेगा। खेतों की मेढ़ों पर टहलना और सड़कों के शोर से दूर...चाहे तो आप भी चल सकते हैं। यह बसंत है जो दूर खड़ा रह कर भी आज लिखने के लिए मजबूर कर रहा है।

-रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति 

ओ सोने जैसी धूप

मेरे रांद्रा 
ये कविता मैंने दो दिन पहले लिखी थी


ओ सोने जैसी धूप तुम मेरे साथ हो
मेरे चारों ओर शुभकामनाओं की तरह चमकती
तुम धूप हो और मैं तुममें मिला सोने का कण




ओ सोने जैसी धूप तुम मेरे साथ रहती हो
जब मैं काम पर निकलता हूं
जब मैं कुछ सोचता हूं
जब मैं कुछ करता हूं

ओ सोने जैसी धूप
जब तुम बहुत गर्म होती हो
तब भी मुझे बुरा नहीं लगता
तुम मेरी फसलें पकाती हो
तुम धरती को गर्म रखती हो


तुम मेरी अच्छी दोस्त हो
तुम मेरी व्यापक दोस्त हो



ओ सोने जैसी धूप
तुम सारे दिन मेरे साथ रहती हो
जब मैं आराम करता हूं तब भी
जब मैं किसी कल्पना में खोता हूं
कहीं जाता हूं तब भी साथ साथ 


ओ प्यार भरी सुनहरी धूप
तुम शाम को मेरे कमरे में आती हो
जब तुम जा रही होती हो
तुम मेरे दरवाजे में आती हो
आहिस्ता से मेरे बिस्तर पर बैठ जाती हो


ओ मेरी सुनहरी धूप
तुम जाते हुए मेरा माथा सहलाती हो
और फिर चली जाती हो 
पहाड़ों के पीछे अपने चांद के पास


ओ सुनहरी धूप तुम सुबह आती हो
मेरे सोफे पे बैठ कर पेपर पड़ती  हो
मुझे जगाती हो और साथ चाय पीती हो
मुझे काम करने के लिए कहती हो


ओ मेरी सुनहरी धूप
मुझे जगा कर दिन के काम बताती हो
फिर सारी दुनिया में फैल जाती हो



-रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति 







मंगलवार, जनवरी 18, 2011

मैंने प्यार किया बादल की तरह

दो नई कविताएं 

दोस्तो ये कवितायेँ मेरे जीवन का पूरा सच नहीं है ........जो सच है वो न जाने किस शक्ल में
सामने आ रहा है . 
अक्सर उदासियों से भरे एक रिश्ते कि शक्ल है इन कविताओं में 
आप पढ़ लें ये भी क्या कम है
1
मैंने प्यार किया बादल की तरह
तुमने चांद की तरह मुस्कुराया

मैं नदी में उतर कर पानी बन गया
तुम उसमें हिलती हुई चांदनी हुईं

हमने फिर खूब प्यार किया
तुम उजली रात थीं और मैं एक पुल

उस रात शहर रोशनी से भरा था
और मै टिमटिमाता आसमान था 




........



2
पिघल कर चांद का कोई हिस्सा
तुम्हारी गलियों में गिर गया है

अंधेरे का कोई फाहा
हमारी जिंदगियों मे मिल गया है

कैसे पार करें यादों के जंगल को
फासला सा राह में आ गया है

किसी से कुछ दिल चाहता नहीं 

मैंने लफजों में बहुत रख दिया है

तुम बहुत दूर हो चुके हो
हमने अब ये मंजूर कर लिया है






रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति,
टॉप 12, क्रिसेंट स्कूल के सामने, हाईलाईफ कॉम्लेक्स, चर्च रोड, जहांगाीराबाद, भोपाल मध्यप्रदेष मो-9826782660

सोमवार, जनवरी 17, 2011

एक पत्र
जब में कुछ नहीं था तब तू आई .........तू मुझ में मिल गई .... तू हवा थी ... और
 एक दिन तुने मुझे बादल  बना दिया .... सच सा  बादल .... हम दोनों अब इस आसमान के
एक हिस्से की तरह है ....
वक्त के साथ चल रहे है .........तू कुछ कहती है और मै सुनता रहता हूँ

मुझे तेरा कुछ कहना अच्छ लगता है .... कभी  कभी तू दोनों हो जाती है कभी में दोनों हो के
 बोल उठता हूँ .... हम दोना कभी कभी एक दुसरे से भागते है
फिर कभी में तेरी गोद में सिर रख देता हूँ कभी तू मेरे सीने में दुबक जाती है
कुछ देर ठहरती है तू हवा है
तू मुझे आसमान बना कर उड़ने लगती है.....जाने कहाँ कहाँ ...........

मैं बादल हूँ ........... तू हवा ...........
चल अपने ही शहर पर उड़ते हैं

कुछ दिन और मैं

दोस्तो मैने ये कविता कुछ दिन पहले लिखी थी 
आज ये एक सच सा है ....पर अभी 

कुछ दिन और मैं

मैंने दिनों को स्ट्रीट लाइट बना दिए
मैंने अपने दिन प्यार से रंगे
मैंने शहर में हर तरफ अपने दिन टांग दिए

मेरे दिन जो नीले लाल थे

मेरे दिन चमक रहे हैं चारो ओर
सारा शहर गुजर रहा है उनके साये में 

दिनों में चमक रहा है मेरा प्यार
बरस रहा है शहर पर

मेरे दिन प्यार कर रहे हैं ...
manas ji ke in savalo ke javab likh raha hoon

हमारी त्रैमासिक पत्रिका ‘पाण्डुलिपि’ हेतु परिचर्चा के अंतर्गत इस बार ‘अंतिम दशक के कवियों का समय और उनकी कविता’ बिषय पर विमर्श प्रस्तावित है । हम चाहते हैं कि आप अपनी बात विस्तार से रखें ताकि अंतिम दशक के कवियों और उसकी कविताओं का वास्तविक मूल्याँकन हो सके । उम्मीद है आप परिचर्चा के विषय एवं महत्व की देखते हुए इस विषय पर अवश्य लिखना चाहेंगे । विश्वास है - आप अपनी सामग्री हमें 10 दिवस अर्थात् 25 जनवरी, 2011 तक ई-मेल से भेज देंगे । सादर
जयप्रकाश मानस
कार्यकारी संपादक


अंतिम दशक के कवियों का समय और उनकी कविता
प्रश्नावली
01. अंतिम दशक की कविता की शुरूआत सोवियत संघ के विघटन से हुई, भूमंडलीकरण व बाज़ारवाद जैसी अवधारणायें भी इसी दशक से प्रारंभ हुई । क्या इसका कुछ-बहुत प्रभाव अंतिम दशक के कवियों की कविताओं की वैचारिकता पर पड़ा ?
02. वैसे अंतिम दशक के कवियों का समय, अपने पूर्ववर्ती कवियों, विशेषकर नवें दशक के स्थापित कवियों से किन अर्थों में भिन्न है ?
03. नयी कविता की बिम्ब प्रधानता, अकविता की सपाटबयानी तथा समकालीन कविता के उक्ति आधारित पंक्तियों की आवृत्तियाँ व प्रतीक-ब्यौरों आदि कला के बाद अंतिम दशक के कवियों का शिल्प कितना कुछ अलहदा दिखलाई पड़ता है ?
04. क्या हिन्दी कविता के भीतर अकविता की मनःस्थिति पुनः अंतिम दशक के कवियों की कविता में परिलक्षित की जा सकती है ? ऐसा मैं आर. चेतनक्रांति की ‘हम क्रांतिकारी नहीं थे’, या वसंत त्रिपाठी की ‘कालाहांडी’ जैसी कविताओं को पढ़कर भी कह रहा हूँ ?
05. वैसे आप अंतिम दशक के कवियों में किन किन कवियों के नामों का उल्लेख करना चाहेंगे और क्यों ?
06. इस दशक के ज्यादातर कवियों की कविताओं का काव्य शिल्प, काव्य-संप्रेषण पर हावी रहता है । यदि आप भी ऐसा मानते हैं, तो यह स्थिति हिन्दी कविता के विकास के लिए कितना उचित लगती है ?

मै एक दरवाजा हूँ

मै एक दरवाजा हूँ , मुझमे से अभी अभी एक सूरत गुजरी है
मै जहाँ जहाँ हूँ गुजरता है कोई मुझ में से


गुजरती है कोई खुशबू, गुजरती है कोई सूरत

गुजरने से पहले कोई मेरे इस तरफ था
गुजरने के बाद वह  उस तरफ दिख रहा है

मेरे दोनों तरफ है  दुनिया
वही इस तरफ दिखता है वही  उस तरफ है

दोपहर १२ . ४४

रविन्द्र स्वप्निल