शनिवार, फ़रवरी 19, 2011

प्रशन एक




जी हां वैचारिकता पर ही नहीं इसका असर कविता के दूसरे पक्षों पर भी पड़ा, जिस मजबूती से कविता में वैचारिकता हावी हो रही थी, इसके बाद उसका असर कम हुआ।

सोवियत संघ का विघटन का असर हर तरफ पडा। यह केवल सोवियत संघ का विघटन ही नहीं था इसमें दूसरी चीजों का योगदान भी षामिल था। बाजारवाद भी बढ़ रहा था। बाजार की अवधारणा नई तो नहीं थी या है लेकिन इसका संगठित रूप पहलीबार सामने आया। यह नया लगा कवियो और बूढे़ लोगों को, जो इस बात पर यकीन नहीं कर रहे थे कि जीवन में परिवर्तन होते ही हैं। सनातनता यानी निरंतरता की अवधारणा को इस संदर्भ में याद नही कर पा रहे थे उनके लिए यह अनोखी चीज थी। पर एक जीवंत कवि के लिए यह अनोखी नहीं थी- यह एक निरंतरता थी और आष्चर्यजनक भी नहीं थी।

अब कवियों की वैचारिकता पर विघटन और भूमंडलीकरण के प्रभाव की बात करें तो यह उनके लिए ही प्रभावी हुई जो सोवियत से प्रभावित रहे थे। वास्तविक कविता तो इससे प्रभावित नहीं हो सकती थी। प्रभाव पढा यह मानना पड़ेगा क्योंकि सारी तरह की कविताओं से हमारी कविताओं का संसार निर्मित हुआ है। प्रभाव की सीमा और कवि व्यक्तित्व जो इससे प्रभावित हुए, उन्होंने अगर आपनी प्रज्ञा अपनी चेतना को बचा कर रचना कर्म किया वह सफल हुए। जो प्रभावित ही होते रहे हैं वे दोनों तरह की अतियों का षिकार होकर रह गए। इस तरह की अतियों को पसंद करने वाले आलोचकों के लिए ये पसंदीदा कवि रहे हैं और वे आज भी तरफदारी कर रहे हैं। अगर एक समय कोई कवि सोवियत की तरपफदारी में लिख रहा था तो आज वही कवि पूरी तरह से बाजार की चाकाचौध के खिलाफ लिख रहा है। ये दोनों अतियां वास्तविकताओं को अभिव्यक्ति नहीं दे सकतीं। हमें अपने आसपास के अनुसार ही कुछ कहना पड़ेगा, तभी कुछ नया कहा जा सकता है। विरोध की कविता सरल है लेकिन विरोध और समर्थन के मध्य की कविता बहुत संतुलन की मांग करती है। वैचारिक भी और कलात्मक भी।



प्रष्न दो

नवें दषक के कवियों का समय साम्यवादी आषा की अंतिम अवस्था का चमकता हुआ समय था। इस दषक के कवियों ने अपनी कविताओं मंे सम्यवादी व्यवस्था के लिए लिखा है। वे यह भूल गए कि जो उदय हुआ है वह अस्त भी होगा। वे उसे परम सत्य की तरह महसूस करते रहे। कुछ कवियों ने इसे पाटने की कोषिष की थी लेकिन वे इस षोर में बहुत साहसी कदम नहीं उठा सके। सोवियत विघटन के बाद ये कवि सहम गए। कविता में भी यह दर्ज है। स्वर नर्म पड गए और कुछ अलग तरह की रचना करने की इन कवियों ने कोषिष की लेकिन अंतरनिहित स्वर को नहीं बदल पाए। युवा कवियों ने इसे बदला। वे अपने समय से संवाद करने लगे। युवा का मतलब ही यही था कि हमें जो सामने आया है उससे बात करना है। पुराने कवियों ने सिर्फ विघटन के लिए अमेरिका को कोसा, जबकि अमेरिका एक सच था जो पूंजीवाद के रूप में अभी भी है लेकिन वह साम्यवाद से अधिक डायनामिक था। साम्यवादी जड़ता के साथ आषावादी रवैया अख्तियार करे रहे और अंततः उन्हें अपने हथियार डालना ही पड़े। आषा की अपेक्षा यथार्थ से संवाद परक रवैया अधिक उपयुक्त होता, युवा कवियों ने यह करने की कोषिष की है। इस अर्थ में पूर्ववर्ती कवियों से अंतिम दषक की कविता अलग है।



प्रष्न तीन

नई कविता की बिम्ब प्रधानता अभी बदली नहीं है। अभी वह पूर्व कवियों और आलोचकों से आक्रांत है। इस पर कुछ ही कविताओं में परिवर्तन दिखाई दे रहा है। नए कवि इस पिफराक में हैं कि कविता वैचारिक न होकर कुछ कहने की स्थिति में हो। संवाद करे अपने पाठक से, उसे वैचारिक षॉक न देकर एक खास तरह का रिलेक्स दे। इस कोषिष मे नई कविता कई प्रयोग कर रही है। मैं खुद गजल और नई कविता के मेल से कविताआंे की कलात्मकता को तोड़ मरोड़ रहा हूं। कई पंद्रह सोलह साल के कवियों की बात करें तो वे इस तरह की रचनाएं कर रहे हैं वे अभी दीक्षित नहीं हुए किसी आलोचक की वैचारिकता से लेकिन उनमें यह बाद दिखने लगी है।



प्रष्न चार

हां न। अकविता की मनः स्थिति अभी है। वह कई कई बार आएगी। कई रूप बदल कर भी आएगी और चकमा देगी। इस प्रक्रिया में बसंत और आर चेतन ही नहीं कई कवि हैं। खुद इससे बचने की कोषिष कर रहे कवि भी इसमें फंस जा रहे हैं। यह कोई अनोखी घटना नहीं होगी३चीजों के छोड़ने पकड़ने का स्वभाविक क्रम है। कई लोग जल्दी हथियार नहीं डालते। कवि का व्यक्तित्व भी ऐसा ही करता है। वह भी क्यों जल्दी हथियार डाले। इस मनःस्थिति से निकलने के लिए एक दषक और लगेगा क्योंकि तब तक युवा कवियों की एक समूह और इसे अपदस्थ करने आ जाएगा। वैचारिकता एक प्रकार की बेषरम जिद की तरह भी होती है।



प्रष्न पांच

मैं खुद पहले अपना नाम लेना चाहूंगा। मेरा नाम इसलिए कि मैंने इन चीजों को महसूस किया है। इनमें आर चेतन है, बसंत त्रिपाठी है, हरे प्रकाष उपाध्याय, पवनकरण, अमिता प्रजापति, संजय कुंदन, उमाषंकर चौधरी, पंकज राग हैं लेकिन बहुत कम लिखते हैं। मनोज कुमार झा, विनोद दास आदि आदि हैं। कई को मैंने पढा नहीं है। अचानक इस तरह कई नाम याद नहीं आते। क्यों ! इसलिए कि इनमें कुछ चीजें हैं जो बिम्ब और कविता के कहने को नए यथार्थ के अनुसार स्वीाकर कर रहे हैं। मैं कई नाम आपको कविता विषेषांकों से देख कर भी बता सकता हूं।



प्रष्न छह

यह कुछ कुछ सच है और सबका षिल्प हावी नहीं रहता। किसी किसी का रहता है लेकिन हिंदी आलोचकों संपादकों की दिक्कत ये है कि वे एक सामान्यीकृत सच सुनना चाहते हैं। हम कवियों की बात कर रहे हैं, हर कवि का अपना षिल्प है। वह ऐसे ही कहेगा। उसे ऐसे ही कहना भी चाहिए। आप को उसे वैसे ही स्वीकार करना चाहिए। आप क्यों ये चाहते हैं कि जंगल में या बाग में सिर्फ आम हों। कोई पफल दे या कोई सिपर्फ छांव के लिए ही उगे३ जीवित के लिए चीजों के षिल्प में बात नहीं की जा सकती हैं। हिंदी कविता के विकास के लिए घातक है यह मानना कि सब कवियों पर षिल्प हावी रहता है। विकास के लिए घातक है कवियों के षिल्प की पार्को में लगे पौधों की तरह कांट छांट करके एक सा करना। कवि को स्वतंत्र छोड़ना घातक नहीं है, हिंदी कविता के लिए विकास में घातक है- हर कवि को एक जनरालाइज दृष्टि से देखना।



रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति



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