रविवार, अक्टूबर 28, 2012

भुवनेश्वर
की सूक्तियाँ
ye suktiyan hindisamya se li gyi hain

स्त्री अपने रुचित पुरुषों को ही धोखा देती है, यह उसकी सहज प्रकृति है कि अपने प्रिय पुरुष को वह अपने एक अंश का ही स्वामी बनती है।
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स्त्री के प्रेम के चार वर्ष –
    (पहला) प्राणाधार!
    (दूसरा) प्यारे!
    (तीसरा) ओह, तुम हो?
    (चौथा) संसार का और कोई काम तुम्हें नहीं है?
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स्त्री तुम्हें घृणा करेगी, यदि तुम उसकी प्रकृति को समझने का दावा करते हो।
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उस स्त्री से सावधान रहो, जो तुम्हें प्रेम करती थी और अब दूसरे पुरुष की प्रेयसी या पत्नी है, क्योंकि उसका पुराना प्रेम कभी भी लौट सकता है और इससे बड़ी प्रवंचना संसार में नहीं है।
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नारी पुरुष से कहीं क्रूर है और इसलिए पुरुष से कहीं अधिक सहनशील होने का दावा कर सकती है।
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जब एक पुरुष एक स्त्री से प्रेम करता है, तो वह अपने समस्त पूर्व-प्रेमियों को अपने ध्यान में रखती है, यदि उसमें और किसी भी भूतपूर्व प्रेमी में कुछ भी समानता है, तब उसकी सफलता की बहुत कम आशा है।
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स्त्री एक पहेली है और उस पुरुष को घृणा करती है, जो वह पहेली बूझ सकता है।
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किसी भी स्त्री का तुम्हारा चुम्बन अस्वीकार देना ऐसा है जैसा तुम्हारे बैंक का तुम्हारा चेक् अस्वीकार कर देना।
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एक स्त्री से कहो, 'उसके पैर तुम्हारे पैरों से छोटे हैं', वह प्रसन्न हो जाएगी, पर यदि इससे भी पूर्ण सत्य यह कह दो कि 'उसका मस्तिष्क तुम्हारे मस्तिष्क से छोटा है, वह प्रलय कर देगी।
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एक स्त्री के लिए उसके प्रिय पुरुष को 'कोई' होना चाहिए। वह सरस हो या न हो या वह सरस ही हो, चाहे समाज में उसका कुछ स्थान हो या न हो।

एक महान् पुरुष यदि एक स्त्री के पीछे भागता है, तो इसमें स्त्री के लिए गर्व की कौन-सी बात है, जो सहस्रों अन्य स्त्रियाँ दे सकती हैं।

जब एक पत्नी की वासना अपने पति के लिए धीमी पड़ जाती है, वह एक वृद्ध और शिथिल बाघिनी के समान हो जाती है।

स्त्री के लिए प्रेम का अर्थ है कि कोई उसे प्रेम करे।

पुरुष स्त्री के लिए एक आवाहन है, निमंत्रण है, पर स्त्री पुरुष के लिए चैलेंज हैं, चुनौती है। 


संसार में 'प्रेम' कवियों और काहिलों के मस्तिष्क में ही मिल सकता है।

स्त्री फैशन की गुलाम है। जिस समाज में पति को प्रेम करना फैशन है, वहाँ वह सती भी हो सकती है।
- भुवनेश्वर के नाटक संकलन  
             'कारवाँ' से

शुक्रवार, अक्टूबर 26, 2012

 Char Tippniya
शहीदों की चिताओं पर...

देश के लिए अपनी जिंदगी सौंपने वालों के दर्द को कोई नहीं भागीदार नहीं सकता। शहीद और उसके परिवार के प्रति संवेदनशील रहना समाज और प्रशासन की नैतिक जिम्मेदारी है।

मध्यप्रदेश में शहीदों के सम्मान समारोह में नरेंद्र सिंह के परिजन नहीं आए तो दिल्ली में देश की सेवा करते हुए शहीद अर्द्ध सैनिक बलों के जवानों को श्रद्धांजलि दी गई लेकिन उन्हें सैनिकों की तरह शहीद का दर्जा नहीं दिया। नरेंद्र कुमार के मामले में यह तो नहीं कहा जा सकता कि उनके परिजन मध्यप्रदेश प्रशासन से नाराज हैं या अन्य किसी कारण से नहीं आए। क्योंकि उनकी ओर से कोई बयान नहीं दिया है, लेकिन लगता यही है कि वे प्रदेश के पुलिस अधिकारियों के रवैये से व्यथित हैं। आईपीएस अधिकारी नरेन्द्र कुमार ने मार्च 2012 में मुरैना में अपने कर्तव्य का पालन करते हुए अपनी जान गवांई थी। उनकी मौत पर प्रदेश भर में पुलिस व्यवस्था को लेकर हंगाम भी हुआ था लेकिन छह आठ माह बाद सब उसी डर्रे पर आ गया लगता है।
हर साल सैंकड़ों जवान देश के लिए अपनी जान देते हैं। वे सुरक्षा और देश की व्यवस्था के लिए लड़ते हैं लेकिन इस जान को हमारी सरकारें, सत्ता और व्यवस्था रुटीन मौत समझ कर दूर हो जाती है। जबकि इन जवानों को पहले से पता होता है कि वे जिंदगी को दांव पर लगा रहे हैं। यह उनका जज्बा होता है लेकिन उनके मरने के बाद हमारी सरकारें उनको शहीद कहने के लिए कई बैठकें करना होती हैं। ऐसा लगता है, हम अपने देश के सैनिकों और पुसिल सिपाहियों और सीमा की निगरानी कर रहे जवानों को पूरा सम्मान नहीं दे पाते। क्या कारण है कि इस देश में सैनिक को रेलवे आरक्षण नहीं मिलता। वे जनरल बोगियों में जाते हैं। उनके भोजन और राशन में भ्रष्ट्राचार सामने आते हैं।
सेना और पुलिस के जबानों के पास कई समस्याएं हैं। वे अपनी समस्याओं के लिए किसी स्थानीय प्रशासनिक अधिकारी के सामने गिड़गिड़ाने नहीं जाते। क्योंकि सेवानिवृत होने के बाद भी उसमें आत्म सम्मान होता है। सैनिक की आदत नहीं होती कि वह किसी नेता या अधिकारी से मिन्नतें करे। वह   बताए कि मेरी समस्याओं को देखिए। एक सच्चा सिपाही खुद ही अपनी समस्याएं नहीं बता सकता। लेकिन हमे अपने देश की सेवा करने वाले शहीदों के लिए पूरा सम्मान और उनकी समस्याओं के प्रति बेहद संवेदनशील नजरिया रखने की आवश्यकता है। देश में सितंबर 2011 अगस्त 2012 तक 546 जवानों ने सेवा में रहते हुए अपनी जान को कुर्बान किया है। लेकिन आधिकारिक रूप से पुलिस और अर्द्ध सैनिक बलों के लिए ऐसी कोई आधिकारिक आदेश जारी नहीं किया है। सरकारें भी इस दिशा में कोई ऐसे प्रयास नहीं करतीं जिससे पुलिस और सेना के जवानों के प्रति सामाजिक सम्मान में बढ़ोतरी हो और उनकी सुविधाओं का ख्याल रखा जाए। सामन्यत: देखने में आ रहा है कि सैनिकों, अर्द्धसैनिक बलों और पुलिस के सेवानिवृत जवानों या शहीदों के प्रति बहुत सम्मान नहीं रहा। देश पर मर मिटने की भावना को निरंतर आहत ही किया जा रहा है। सरकारें और संबंधित संस्थाएं  इस दिशा में कारगर उपाय करें। सुझाव दें ताकि देश की सीमाओं पर खड़े, आंतरिक व्यवस्था में संलग्न जवान को पूरा सम्मान मिल सके।



कचरे में कचरे की चिंता

भोपाल गैस त्रासदी का कचरा अब भी कायम है। यह जनता और प्रशासनिक कर्तव्यों के प्रति सरकारों की लापरवाही और गैर जिम्मेदारी है। हमें अपने नागरिकों के प्रति अधिक जिम्मेदार बनना होगा।


भोपाल गैस त्रासदी के जिम्मेदार कार्बाइड कारखाने से ज़हरीला कचरा 28 साल बाद भी नहीं हटाया जा सका। तमाम प्रयासों के बाद भी कचरा टस से मस नहीं हो रहा है। इस मामले में जितनी लापरवाही बरती गई है, उसका उदारहरण शायद ही दुनिया में कहीं देखने मिले। कार्बाइड परिसर में रखा 350 मीट्रिक टन कचरे को ठिकाने लगाने के लिए सैद्धांतिक रूप से शासन स्तर पर सहमती बनती है और फिर कोई न कोई अवरोध इस कचरे का रास्ता रोक लेता है। आज भी कचरा निष्पादन के स्थान को लेकर असहमति और अटकलों का दौर जारी है। अब जीओएम यानी गु्रप आॅफ मिनिस्टर्स ने तय किया है कि पहले कचरे को जला कर टेस्ट किया जाएगा। इतने सालों में ज़हरीले तत्व वातावरण में घुलकर हज़ारों ज़िंदगियों के रक्त में ज़हर घोल रहे हैं। बारिश के पानी के संपर्क में आकर ज़हरीले तत्व भूजल में मिल रहे हैं।
कचरे के लिए एडवायज़री और मॉनिटरिंग कमेटी का गठन सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद किया गया। इन प्रयासों के तहत देश में उपलब्ध 27 स्थानों की कचरा निपटाने की व्यवस्थाओं का जायज़ा लेकर आवश्यक निर्णय लिए जाने की बात कही गई लेकिन आज भी कोई प्रगति नहीं है। एडवायज़री और मॉनिटरिंग कमेटी में पहले तय किया गया था कि ज़हरीला कचरा पीथमपुर में ठिकाने लगाया जाएगा। कचरा हटाने का काम छह महीने में पूरा कर लिया जाएगा लेकिन बाद में पीथमपुर पर भी सहमति नहीं बनी और तय किया गया कि देश के 27 स्थानों का जायज़ा लेने के बाद ही कोई फैसला किया जाएगा। इस मामले में अदालत की टिप्पणी भी उल्लेखनीय है। न्यायमूर्ति जीएस सिंघवी और न्यायमूर्ति एसजे मुखोपाध्याय की खंडपीठ ने कहा, 28 साल बाद भी आप (हमारे नेता) नहीं जानते कि क्या करना है ऐसा इसलिए हैं क्योंकि जो लोग भोपाल में प्रभावित हुए और वहां रह रहे हैं, वे गरीब हैं। इस मामले से निपटने में ये आपकी नाकामी है।अदालत ने कहा कि इस समस्या से निपटने को लेकर गंभीरता का अभाव रहा है। यह समझ से परे है कि कारखाने की मालिक कंपनी को ही इस कचरे को सबसे पहले हटाना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं हो सका। क्यों? आज इस सवाल के हमारे पास हजारों उत्तर मिल जाएंगे लेकिन सवाल कचरे का अभी भी बना है। लेकिन लोककल्याणकारी सरकार होने का दम भरने वाली सरकारों ने इसे वहीं पड़ा रहने दिया। यह नागरिकों के इतिहास में दर्ज होने वाली प्रति ऐतिहासिक लापरवाही है।

सरकार की दूरदर्शिता
भूमि सुधार की आवश्यकता आजादी के तुरंत बाद से थी, लेकिन सरकारों के रवैये ने वर्षों तक लटकाए रखा। अब यह शुभ संकेत है कि सरकार इस पर विचार करने जा रही है।

दि  ल्ली की तरफ बढ़ रहे 50,000 किसानों और मजदूरों के सामने केंद्र सरकार ने समझदारी से भरा कदम उठा कर दूरदर्शिता का परिचय दिया है। इसीलिए आगरा में जन सत्याग्रहियों और केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश के बीच समझौता हो गया। इसके तहत सरकार पांच छह माह में कानून का ड्राफ्ट बनाएगी। सरकार ने कहा है कि जल्द भूमि सुधार के लिए टास्क फोर्स का गठन किया जाएगा। गौरतलब है कि जल, जंगल और जमीन के मद्दे पर करीब 50,000 आदिवासी और किसान दिल्ली के लिए पैदल ही निकले थे।  यह सत्याग्रह राष्ट्रीय भूमि सुधार परिषद का गठन की मांग पर जारी थी कि भारत के हर नागरिक को घर बनाने लायक जमीन दी जाए। आदिवासी क्षेत्रों के लिए कानून सख्ती से लागू हो। महिलाओं को भी किसान का दर्जा मिले। केंद्र सरकार की ओर से लैंडपूल बने, ताकि देशभर में खाली पड़ी जमीन के बारे में पता चल सके। इसके साथ ही उनकी मांग जमीन विवाद के निपटारे के लिए विशेष अदालतों के गठन की भी थी।
जबकि निर्धनता उन्मूलन का सबसे महत्वपूर्ण कार्य गरीबी रेखा की बहस या बीपीएल-एपीएल की बहस आंकड़ेबाजी में भटक गई है। सस्ते अनाज का कार्ड बन जाने जैसे अस्थायी मुद्दे आगे आ रहे हैं जबकि गरीबी हटाने के टिकाऊ उपाय, जैसे भूमिहीनों को कृषि भूमि उपलब्ध करवाने के लिए जरूरी भूमि   सुधार जैसे मुद्दे पीछे रह गए हैं। अत: एक बार फिर भूमि-सुधारों को गरीबी उन्मूलन की बहस के केंद्र में लाना जरूरी हो गया है। पांच वर्ष पहले 2007 में इन्हीं संगठनों के जनादेश अभियान के अंतर्गत दिल्ली में 20,000 पदयात्री आए थे। सरकार से तब जो बातचीत हुई थी, उसके आधार पर भूमि-सुधार को आगे ले जाने का महत्वपूर्ण मसौदा तैयार किया था पर सरकार ने इस मसौदे को आगे ले जाने में कोई गंभीरता व मुस्तैदी नहीं दिखाई। सरकार की इस उपेक्षा को देखते हुए वर्ष 2010 में जन-सत्याग्रह आरंभ किया गया। इसे आगे बढ़ाते हुए राष्ट्रीय स्तर पर पदयात्रा की घोषणा की गई तो सरकार हरकत में आई व उसने अपनी ओर से भूमि-सुधार को आगे ले जाने का मसौदा प्रस्तुत किया।  यह सुनिश्चित होना चाहिए कि प्राकृतिक संसाधनों की लूट व इससे जुड़े भ्रष्टाचार पर रोक लगे। सबसे गरीब परिवारों को जहां जमीन चाहिए वहां इस जमीन पर सफल खेती के लिए छोटी सिंचाई योजनाओं, जल व मिट्टी संरक्षण के कार्यों की भी जरूरत है। साथ ही लघु वन उपज पर आदिवासी अधिकारों को मजबूत करना जरूरी है जिससे वन आधारित आजीविका भी फलती-फूलती रहे।
ग्रामीण क्षेत्रों में जिन नीतियों व कानूनों के कारण विस्थापन व आजीविका का विनाश बढ़ा है उन पर रोक लगनी चाहिए। जनता के अनुरूप ग्रामीण विकास को आर्थिक नियोजन के केंद्र में लाना जरूरी है। क्योंकि इससे उनकी सक्रिय भागीदारी बढ़ेगी। भूमि सुधार का स्वरूप क्या होगा यह सरकार द्वारा बनाए जाने वाले कानूनी ड्राफ्ट आने पर बता चलेगा। फिलहाल सरकार की दूरदर्शिता की तारीफ की जाना चाहिए।
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सेना की कमजोरी कौन
सेना किसी भी देश की सबसे ताकतबर इकाई होती है। इसे चौकस, संपन्न और मजबूत बनाए रखना जरूरी है। लेकिन जब यह भ्रष्टाचार की ओर जाती है तो दोहरे खतरे वाली तलवार भी बन जाती है।

र  क्षा मंत्रालय की अंदरूनी आॅडिट रिपोर्ट में यह खुलासा किया गया है कि सेना प्रमुख जनरल बिक्रम सिंह, उनके पूर्ववर्ती जनरल वीके सिंह तथा अन्य शीर्ष जनरलों ने महज दो वर्षों में 100 करोड रुपए से अधिक के सार्वजनिक धन से अनियमित खरीदारी की है। रक्षा मंत्रालय के महालेखा परीक्षक (सीडीए) ने रक्षा मंत्री के निर्देशों पर 2009 से 2011 के बीच थलसेना के कमांडरों के 55 खरीद फैसलों की पड़ताल की। इस सब के बीच जो आदेश रक्षामंत्री महोदय ने दिए हैं, क्या यह प्रक्रिया नियमित रूप से नहीं की जानी चाहिए थी। आॅडिट करना एक नियमित प्रक्रिया है, ये खुलासे बहुत जल्दी या फिर कार्यकाल के दौरान ही होना चाहिए। सांप निकल जाता है इसके बाद लाठी पीटी जाती है। हम इस प्रकार की अनियमितताओं के लिए आज तक कोई प्रभावी नीति नहीं बना पाए हैं।
आॅडिट से यह भी खुलासा हुआ कि विदेशी उपकरण खरीदने में दिशा निर्देशों का बार-बार उल्लंघन किया। यही नहीं सेना के एक अंग ने जिन उपकरणों को खारिज किया उन्हें दूसरे अंग ने खरीद लिया। जनरलों ने अपने आपात खरीद के अधिकार के तहत चीन में बने संचार उपकरण तब खरीदे जब वे अपने-अपने क्षेत्रों के कमांडर थे। ये उपकरण सीधे निर्माता से खरीदने के बजाय एजेंट से लिए गए। इससे ये काफी महंगे पडे। बाद में पता चला कि चीन के उपकरणों में जासूसी करने वाला एक सॉफ्टवेयर भी फिट था। चीन समेत कई देशों की खुफिया एजेंसियां जासूसी के लिए ऐसे हथकंडे अपनाती हैं।आॅडिट रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर ये उपकरण भारतीय फर्मों से लिए जाते तो सस्ते मिल जाते। मामला महज फिजूलखर्ची का नहीं बल्कि नियमों की अनदेखी और सुरक्षा से जुडेÞ मामलों को ताक पर रखने का भी है।
इसी प्रकार सेना में टाट्रा ट्रकों की खरीद का मामला सामने आने के बाद सरकार ने रक्षा सौदे में बिचौलियों की मौजूदगी पर पाबंदी लगा दी थी। नई व्यवस्था में सप्लाई का आॅर्डर पाने वाली हर कम्पनी को सरकार के साथ एक ईमानदारी कायम रखने का करार करना जरूरी हो गया। इसके बाद रक्षा सौदों में दलालों की भूमिका पर भी रोक लगी थी। लेकिन इससे कंसलटेंसी के नाम पर दलाल कम्पनियों की बाढ़ आ गई, जिनमें अवकाश प्राप्त फौजी अधिकारी, विदेशी विशेषज्ञ और अन्य लोग शामिल हैं, जो धड़ल्ले से इस काम को अंजाम दे रहे हैं। लेकिन यह सब बिना शक्तिशाली राजनीतिक संरक्षण अथवा शह के संभव है? किसी देश की सेना की यह स्थिति वास्तविक अर्थों में भयानक ही कही जा सकती है। देश की सेना में हो रहे भ्रष्टाचार के खुलासों पर सरकार को परदा डालने या मौन की नीति नहीं अपनानी चाहिए। परदा डालने से सेना के अंदर हो रहे इन कर्मकांडों पर रोक नहीं लगेगी। इस मामले में अधिक मजबूत और पारदर्शी व्यवस्थाएं बनाने और उन पर सख्ती से अमल की आवश्यकता होती है। सरकार को इस दिशा में नीयत से भी काम करना होगा वरना सेना में भ्रष्टाचार फैलेगा।

गुरुवार, अक्टूबर 25, 2012

 अर्थशास्त्र का नोबल

अर्थशास्त्र के आधार पर बाजार के सिद्वांत काम करते हैं और बाजार की जरूरतों के अनुसार अर्थशास्त्र को तैयार किया जाता है। बावजूद दोनों के साथ जरूरी है मानवीय दृष्टिकोण।

चिकित्सा सेवाओं के बाजारीकरण के दौर में मरीजों के हितों की सुरक्षा को ध्यान में रखकर बाजार की कार्य प्रणाली का अध्ययन करने वाले दो अमेरिकी अर्थशास्त्रियों एलिवन रोथ और लायड शाप्ले को वर्ष 2012 के अर्थशास्त्र का नोबल पुरस्कार दिया गया है। पुरस्कार देने वाली संस्था रायल स्विडिश अकादमी आफ साइसेंस ने अपनी घोषणा में दोनों अर्थशास्त्रियों के काम को आर्थिक इंजीनियरिंग का सर्वोत्तम उदाहरण बताया।
स्वीडन फाउंडेशन द्वारा स्वीडन के वैज्ञानिक अल्फ्रेड नोबेल की याद में वर्ष 1901 मे शुरू किया गया था। यह शांति, साहित्य, भौतिकी, रसायन, चिकित्सा विज्ञान और अर्थशास्त्र के क्षेत्र में विश्व का सर्वोच्च पुरस्कार है। इसमें पुरस्कार के रूप में प्रशस्ति-पत्र के साथ 14 लाख डालर की राशि प्रदान की जाती है। अर्थशास्त्र के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार की शुरुआत 1968 से की गई। पहला नोबेल शांति पुरस्कार 1901 में रेड क्रॉस के संस्थापक ज्यां हैरी दुनांत और फ्रेंच पीस सोसाइटी के संस्थापक अध्यक्ष फ्रेडरिक पैसी को संयुक्त रूप से दिया गया था। खैर 2012 के लिए प्रदान किया जाने वाला नोबल पुरस्कार भी मानवीयता से परिपूर्ण दृष्टिकोण को ख्याल में रख कर दिया गया है। यहां बाजार है, उसकी मर्यादा है लेकिन यह पहली बार गहन अध्ययन औरशोध के साथ दुनिया के सामने आया है कि चिकित्सा सेवाओं पर बाजार और उसका अर्थशास्त्र कैसे काम करता है। उपभोग आधारित अर्थव्यवस्था में दैनिक आवश्यकताओं में चिकित्सा जैसे महत्वपूर्ण पक्ष को शामिल किया गया है, क्योंकि इसके बिना हमारे पारिवारिक, सामाजिक दायित्व सीमित हो जाते हैं।  रोथ और शाप्ले के अनुसंधान ने मानव अंगों के प्रत्यारोपण, विद्यार्थियों के स्कूल, कर्मचारियों के लिए रोजगार के संबंध में मांग और आपूर्ति का अध्ययन किया है। उनयासी वर्षीय शाप्ले और 60 वर्षीय रोथ को अलग -अलग आर्थिक कारकों का मिलान करके बाजार को मजबूत बनाने के लिए इस प्रतिष्ठित पुरस्कार के लिए चुना गया है। उनके अध्ययन से चिकित्सा सेवाओं और अस्पताल में कार्यरत नये चिकित्सकों को बाजार की कार्यप्रणाली की बेहतर जानकारी मिल सकेगी। बारह लाख डॉलर का पुरस्कार देने वाली समिति के एक सदस्य टोरे एलिंग्सेन ने कहा कि मुख्य प्रश्न यह है कि जब संसाधन सीमित हैं तो किसको क्या मिलेगा। किस कर्मचारी को कौन से रोजगार मिलेगा। कौन से विद्यार्थी किस स्कूल में जाएगा। किस मरीज को प्रत्यारोपण के लिए कौन से अंग मिलेगा।  प्रोफÞेसर अमर्त्य सेन गÞरीबी और भूख जैसे विषयों पर काम करने के लिए 1998 में अर्थशास्त्र का नोबल पुरस्कार दिया गया। वे प्रतिष्ठित पुरस्कार जीतने वाले पहले एशियाई नागरिक बने थे। उनके शोध का प्रमुख आधार गÞरीबी और भुखमरी जैसे विषय थे। उन्होंने 1974 में बांग्लादेश में पड़े अकाल पर भी लिखा था। उन्होंने अकाल और भुखमारी को खत्म करने के व्यवहारिक उपाय भी बताए थे। निश्चय ही नोबल जीतने का अर्थ है कि आपने मानवता के लिए, उसकी उत्कृष्टता के लिए काम किया है।

मंगलवार, अक्टूबर 16, 2012

  दो बातें
हम क्यों हैं इतने संवेदनहीन

हम और हमारा समाज धर्मप्राण होने का दावा करता है और सरकारें लोक कल्याणकारी जबकि संवेदनहीनता की हद ये है कि बच्चे और बूढ़े भूख या इलाज बिना जहां तहां मर जाते हैं।

रकार के दावों से अलग है सरकारी योजनाओं के हितग्राहियों की कहानी। गरीब ग्रामीणों के लिए योजना का लाभ मिलने के यर्थाथ का  यह एक उदाहरण है। मध्यप्रदेश में अधिकारी कर्मचारी ग्रामवासियों के प्रति संवेदनशील नहीं हैं। इसका प्रमाण है दतिया में जिलाधिकारी कार्यालय परिसर (कलेक्टेट) में 80 वर्षीय बुजुर्ग महिला का दम तोड़ देना। मामला जननी सुरक्षा योजना के तहत मिलने वाली प्रोत्साहन राशि से जुड़ा हुआ है, कुदरी गांव के मोहन लाल जाटव की पत्नी लक्ष्मी ने बीते दिनों प्रसव हुआ था। इस पर उसे हितग्राही बतौर 1400 रुपये का चेक प्रोत्साहन राशि के रूप में दिया गया। जब इस चेक का नगदीकरण बैंक में नहीं हुआ तो मोहन नवजात शिशु पत्नी और अपनी मां के साथ कलेक्टर की जनसुनवाई में जिला मुख्यालय दतिया पहुंचा। यहां मोहन लाल ने अपनी समस्या प्रशासनिक अधिकारियों कर्मचारियों को सुनाई। वहां मौजूद अधिकारियों ने नगदीकरण के निर्देश दिए, मोहन गांव लौटने की बजाय परिवार सहित कलेक्ट्रेट परिसर में ही डेरा डाले रहा। उसने ऐसा क्यों किया? क्या उसकी समस्या का समाधान नहीं हुआ था? दो दिन बाद उसकी मां ने कलेक्टेट परिसर स्थित पार्क में ही दम तोड़ दिया। यह जांच का विषय हो सकता है कि मृत्यू के कोई और कारण भी हों, लेकिन बड़ा प्रश्न है कि आखिर मानवीय समाज में एक व्यक्ति लावारिश की तरह क्यों मर जाता है।
यह एक प्रकार से कुंठित और गैर जिम्मेदार समाज का लक्षण है। सरकारें इसी समाज का हिस्सा हैं। अगर कोई अधिकारी मोहन लाल के परिवार पर एक संवेदना भरी नजर डाल देता तो शायद राम श्री की मौत इस तरह नहीं होती। आज हालत ये हैं कि वृद्धा की मौत पर जिले का कोई भी अधिकारी बात करने को तैयार नहीं है। वहीं क्षेत्रीय विधायक व प्रदेश सरकार के प्रवक्ता चिकित्सा मंत्री नरोत्तम मिश्रा से इस बावत जानकारी के लिए बात की गई तो उन्होंने घटना से अनभिज्ञता बताते हुए दतिया पहुंचकर ही वास्तविकता से अवगत कराने की बात कही। हमारा समाज और हमारी सरकारें अपने ही समाज, अपने ही देश के एक उपेक्षित हिस्से को मानवीय नजरों से नहीं देख पा रहीं। यह किसकी असफलता है? सरकार की समाज की या उस शहर की या उस परिवार की जो सरकार के प्रतिनिधि कलेक्टर के सामने अपनी समस्या लेकर ही क्यों पहुंचा? जिम्मेदारियों को टालने का अब एक लंबा सिलसिला चल सकता है। निश्चय ही चलेगा भी। विपक्षी दल और सरकार दोनों इस मुद्दे को वोट की राजनीति का चारा बनाएंगे। आरोप प्रत्यारोपों की राजनीति में संवदेनशीलता का मुद्दा गुम जाएगा।  इस घटना के बाद फिर किसी दूसरे रूप में दूसरी तरह से कोई और घटना सामने आएगी। अब सरकार को विकास की बात करते हुए ये भी कहना चाहिए कि उसके कर्मचारी देश और प्रदेश के नागरिकों के प्रति संवेदनशील होंगे। सबसे बड़ी बात ये है कि चाहे हम सरकार में हों या न हों, अपने आसपास के नागरिकोंं के प्रति इतना भी गैरजिम्मेदार न रहें कि किसी असहाय परिवार का सदस्य खुले आसमान में मर भी जाए।


सवालों की लपटों में

केजरीवाल ने आरोप लगा दिए। वाड्रा और सलमान खुर्शीद को घेरे में लेकर राजनीति की हवा में तूफान ला दिया है। सवाल ये है कि बीजेपी चुप क्यों है। राजनीति में दो प्रवृत्तियां साफ दिख रही हैं।
अरविंद केजरीवाल का क्या किया जाए। अन्ना के बाद ये आ धमका है। ये राजनीतिक पार्टी भी बनाने जा रहा है। ऊपर से जनता के सामने एक सभ्य भारतीय लोकतंत्र में चलने वाले पार्टी शासन की शांति को ध्वस्त कर रहा है। पार्टी शासन का अनुशासन भी इसके कारण खराब हो रहा है। जो बातें जनता को नहीं बताई जातीं ये उनको बता रहा है।...केजरीवाल के आरोपों से परेशान-हलकान राजनीतिक व्यक्ति के दिमाग में यह सभी भी कहीं न कहीं चल रहा होगा। वाड्रा प्रकरण के बाद भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद पर केजरीवाल जोरदार हमले किए हैं। लेकिन इन सब आरोप-प्रत्यारोपों के बीच देश की मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा चुप क्यों है?  यह सवाल भाजपा की अस्वभाविक चुप्पी में किसी पताका की तरह आसमान में फरफरा रहा है। इस फरफराहट में यह सवाल भी खड़ा हो रहा है कि अन्य कोई पार्टी भी तो नहीं बोलती है? खैर भारतीय जनता पार्टी का कोई भी वरिष्ठ नेता इस भ्रष्टाचार पर खुलकर कुछ नहीं बोल रहा है। उधर दिग्विजय सिंह ने ट्विटर पर लिखा है कि केजरीवाल की टीम 250 लोगों की है। सवाल ये है कि सच तो एक अकेला भी बोल सकता है। एक हजार चोर खड़े होकर कहें कि वे नेक हैं तो क्या उन्हें भारतीय लोकतंत्र में सच मान लिया जाएगा? संख्या के आधार पर सच्चाई की बात करना- लोकतंत्र को अंधा बनाना हो सकता है।
सलमान खुर्शीद के मुद्दे पर पूरा देश आंदोलित है। लोगों के आंख कान इस मामले को बहुत संजीदा होकर सुन रहे हैं। क्योंकि खुर्शीद जानता के सामने कांग्रेस के प्रवक्ता के रूप में आते रहे हैं। अब हर कोई सच्चाई जानना चाहता है। भाजपा का चुप रहना एक रणनीति के तहत भी हो सकता है। वह  जानती है कि  है। बीजेपी को डर है कि अरविंद केजरीवाल का   अगला निशाना पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी हो सकते हैं। ऐसे में वह नहीं चाहती है कि किसी कांग्रेसी नेता के खिलाफ पार्टी नेता आक्रामक हों। कुछ लोग तो ये भी कहन ेसे नहीं चूक रहे कि कांग्रेस के बीच इस मसले पर समझौता भी हो गया है। अरविंद केजरीवाल द्वारा एक दूसरे के नेताओं खिलाफ मुद्दा उठाने पर दोनों पार्टियां चुप रहेंगी। भाजपा के कई नेताओं के एनजीओ और ट्रस्ट हैं। सुनाई तो ये भी दे रहा है कि इन ट्रस्टों और एनजीओं में भी खूब घोटाले हुए हैं। कहीं इनके खिलाफ भी कोई सबूत पेश कर दिया तब क्या होगा?
केजरीवाल पार्टीगत लोकतांत्रिक व्यवस्था के बीच अपना राग अलाप रहे हैं। यह राग जनता सुन भी रही है लेकिन क्या राजनीतिक व्यवस्थाओं के बीच पनप रहे लोभ लालच को इस तरह दूर किया जा सकता है। अरविंद की तैयारी अलग है और खुर्शीद की दिक्कत है कि वे पार्टी में हैं और मंत्री हैं। भ्रष्टाचार एक क्रमिक व्यवस्था सुधार की प्रक्रिया का हिस्सा भी कहीं न कहीं है। अचानक आरोप लगा कर, चौंकाने वाली राजनीति केजरीवाल कर रहे हैं, लेकिन उन्हें वह सकारात्मकता भी पैदा करना होगी जिससे जनता उन पर भरोसा कर सके।

शनिवार, अक्टूबर 06, 2012

गोपाल का गीत 
दूर जाकर न कोई बिसारा करे, मन दुबारा-तिबारा पुकारा करे,
यूँ बिछड़ कर न रतियाँ गुजारा करे, मन दुबारा-तिबारा पुकारा करे।
मन मिला तो जवानी रसम तोड़ दे, प्यार निभता न हो तो डगर छोड़ दे,
दर्द देकर न कोई बिसारा करे, मन दुबारा-तिबारा पुकारा करे।
खिल रहीं कलियाँ आप भी आइए, बोलिए या न बोले चले जाइए,
मुस्कुराकर न कोई किनारा करे, मन दुबारा-तिबारा पुकारा करे।
चाँद-सा हुस्न है तो गगन में बसे, फूल-सा रंग है तो चमन में हँसे,
चैन चोरी न कोई हमारा करे, मन दुबारा-तिबारा पुकारा करे।
हमें तकें न किसी की नयन खिड़कियाँ, तीर-तेवर सहें न सुनें झिड़कियाँ,
कनखियों से न कोई निहारा करे, मन दुबारा-तिबारा पुकारा करे।
लाख मुखड़े मिले और मेला लगा, रूप जिसका जँचा वो अकेला लगा,
रूप ऐसे न कोई सँवारा करे, मन दुबारा-तिबारा पुकारा करे।
रूप चाहे पहन नौलखा हार ले, अंग भर में सजा रेशमी तार ले,
फूल से लट न कोई सँवारा करे, मन दुबारा-तिबारा पुकारा करे।
पग महावर लगाकर नवेली रँगे, या कि मेहँदी रचाकर हथेली रँगे,
अंग भर में न मेहँदी उभारा करे, मन दुबारा-तिबारा पुकारा करे।
आप पर्दा करें तो किए जाइए, साथ अपनी बहारें लिए जाइए,
रोज घूँघट न कोई उतारा करे, मन दुबारा-तिबारा पुकारा करे।
एक दिन क्या मिले मन उड़ा ले गए, मुफ्त में उम्र भर की जलन दे गए,
बात हमसे न कोई दुबारा करे, मन दुबारा-तिबारा पुकारा करे।