शुक्रवार, अक्टूबर 26, 2012

 Char Tippniya
शहीदों की चिताओं पर...

देश के लिए अपनी जिंदगी सौंपने वालों के दर्द को कोई नहीं भागीदार नहीं सकता। शहीद और उसके परिवार के प्रति संवेदनशील रहना समाज और प्रशासन की नैतिक जिम्मेदारी है।

मध्यप्रदेश में शहीदों के सम्मान समारोह में नरेंद्र सिंह के परिजन नहीं आए तो दिल्ली में देश की सेवा करते हुए शहीद अर्द्ध सैनिक बलों के जवानों को श्रद्धांजलि दी गई लेकिन उन्हें सैनिकों की तरह शहीद का दर्जा नहीं दिया। नरेंद्र कुमार के मामले में यह तो नहीं कहा जा सकता कि उनके परिजन मध्यप्रदेश प्रशासन से नाराज हैं या अन्य किसी कारण से नहीं आए। क्योंकि उनकी ओर से कोई बयान नहीं दिया है, लेकिन लगता यही है कि वे प्रदेश के पुलिस अधिकारियों के रवैये से व्यथित हैं। आईपीएस अधिकारी नरेन्द्र कुमार ने मार्च 2012 में मुरैना में अपने कर्तव्य का पालन करते हुए अपनी जान गवांई थी। उनकी मौत पर प्रदेश भर में पुलिस व्यवस्था को लेकर हंगाम भी हुआ था लेकिन छह आठ माह बाद सब उसी डर्रे पर आ गया लगता है।
हर साल सैंकड़ों जवान देश के लिए अपनी जान देते हैं। वे सुरक्षा और देश की व्यवस्था के लिए लड़ते हैं लेकिन इस जान को हमारी सरकारें, सत्ता और व्यवस्था रुटीन मौत समझ कर दूर हो जाती है। जबकि इन जवानों को पहले से पता होता है कि वे जिंदगी को दांव पर लगा रहे हैं। यह उनका जज्बा होता है लेकिन उनके मरने के बाद हमारी सरकारें उनको शहीद कहने के लिए कई बैठकें करना होती हैं। ऐसा लगता है, हम अपने देश के सैनिकों और पुसिल सिपाहियों और सीमा की निगरानी कर रहे जवानों को पूरा सम्मान नहीं दे पाते। क्या कारण है कि इस देश में सैनिक को रेलवे आरक्षण नहीं मिलता। वे जनरल बोगियों में जाते हैं। उनके भोजन और राशन में भ्रष्ट्राचार सामने आते हैं।
सेना और पुलिस के जबानों के पास कई समस्याएं हैं। वे अपनी समस्याओं के लिए किसी स्थानीय प्रशासनिक अधिकारी के सामने गिड़गिड़ाने नहीं जाते। क्योंकि सेवानिवृत होने के बाद भी उसमें आत्म सम्मान होता है। सैनिक की आदत नहीं होती कि वह किसी नेता या अधिकारी से मिन्नतें करे। वह   बताए कि मेरी समस्याओं को देखिए। एक सच्चा सिपाही खुद ही अपनी समस्याएं नहीं बता सकता। लेकिन हमे अपने देश की सेवा करने वाले शहीदों के लिए पूरा सम्मान और उनकी समस्याओं के प्रति बेहद संवेदनशील नजरिया रखने की आवश्यकता है। देश में सितंबर 2011 अगस्त 2012 तक 546 जवानों ने सेवा में रहते हुए अपनी जान को कुर्बान किया है। लेकिन आधिकारिक रूप से पुलिस और अर्द्ध सैनिक बलों के लिए ऐसी कोई आधिकारिक आदेश जारी नहीं किया है। सरकारें भी इस दिशा में कोई ऐसे प्रयास नहीं करतीं जिससे पुलिस और सेना के जवानों के प्रति सामाजिक सम्मान में बढ़ोतरी हो और उनकी सुविधाओं का ख्याल रखा जाए। सामन्यत: देखने में आ रहा है कि सैनिकों, अर्द्धसैनिक बलों और पुलिस के सेवानिवृत जवानों या शहीदों के प्रति बहुत सम्मान नहीं रहा। देश पर मर मिटने की भावना को निरंतर आहत ही किया जा रहा है। सरकारें और संबंधित संस्थाएं  इस दिशा में कारगर उपाय करें। सुझाव दें ताकि देश की सीमाओं पर खड़े, आंतरिक व्यवस्था में संलग्न जवान को पूरा सम्मान मिल सके।



कचरे में कचरे की चिंता

भोपाल गैस त्रासदी का कचरा अब भी कायम है। यह जनता और प्रशासनिक कर्तव्यों के प्रति सरकारों की लापरवाही और गैर जिम्मेदारी है। हमें अपने नागरिकों के प्रति अधिक जिम्मेदार बनना होगा।


भोपाल गैस त्रासदी के जिम्मेदार कार्बाइड कारखाने से ज़हरीला कचरा 28 साल बाद भी नहीं हटाया जा सका। तमाम प्रयासों के बाद भी कचरा टस से मस नहीं हो रहा है। इस मामले में जितनी लापरवाही बरती गई है, उसका उदारहरण शायद ही दुनिया में कहीं देखने मिले। कार्बाइड परिसर में रखा 350 मीट्रिक टन कचरे को ठिकाने लगाने के लिए सैद्धांतिक रूप से शासन स्तर पर सहमती बनती है और फिर कोई न कोई अवरोध इस कचरे का रास्ता रोक लेता है। आज भी कचरा निष्पादन के स्थान को लेकर असहमति और अटकलों का दौर जारी है। अब जीओएम यानी गु्रप आॅफ मिनिस्टर्स ने तय किया है कि पहले कचरे को जला कर टेस्ट किया जाएगा। इतने सालों में ज़हरीले तत्व वातावरण में घुलकर हज़ारों ज़िंदगियों के रक्त में ज़हर घोल रहे हैं। बारिश के पानी के संपर्क में आकर ज़हरीले तत्व भूजल में मिल रहे हैं।
कचरे के लिए एडवायज़री और मॉनिटरिंग कमेटी का गठन सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद किया गया। इन प्रयासों के तहत देश में उपलब्ध 27 स्थानों की कचरा निपटाने की व्यवस्थाओं का जायज़ा लेकर आवश्यक निर्णय लिए जाने की बात कही गई लेकिन आज भी कोई प्रगति नहीं है। एडवायज़री और मॉनिटरिंग कमेटी में पहले तय किया गया था कि ज़हरीला कचरा पीथमपुर में ठिकाने लगाया जाएगा। कचरा हटाने का काम छह महीने में पूरा कर लिया जाएगा लेकिन बाद में पीथमपुर पर भी सहमति नहीं बनी और तय किया गया कि देश के 27 स्थानों का जायज़ा लेने के बाद ही कोई फैसला किया जाएगा। इस मामले में अदालत की टिप्पणी भी उल्लेखनीय है। न्यायमूर्ति जीएस सिंघवी और न्यायमूर्ति एसजे मुखोपाध्याय की खंडपीठ ने कहा, 28 साल बाद भी आप (हमारे नेता) नहीं जानते कि क्या करना है ऐसा इसलिए हैं क्योंकि जो लोग भोपाल में प्रभावित हुए और वहां रह रहे हैं, वे गरीब हैं। इस मामले से निपटने में ये आपकी नाकामी है।अदालत ने कहा कि इस समस्या से निपटने को लेकर गंभीरता का अभाव रहा है। यह समझ से परे है कि कारखाने की मालिक कंपनी को ही इस कचरे को सबसे पहले हटाना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं हो सका। क्यों? आज इस सवाल के हमारे पास हजारों उत्तर मिल जाएंगे लेकिन सवाल कचरे का अभी भी बना है। लेकिन लोककल्याणकारी सरकार होने का दम भरने वाली सरकारों ने इसे वहीं पड़ा रहने दिया। यह नागरिकों के इतिहास में दर्ज होने वाली प्रति ऐतिहासिक लापरवाही है।

सरकार की दूरदर्शिता
भूमि सुधार की आवश्यकता आजादी के तुरंत बाद से थी, लेकिन सरकारों के रवैये ने वर्षों तक लटकाए रखा। अब यह शुभ संकेत है कि सरकार इस पर विचार करने जा रही है।

दि  ल्ली की तरफ बढ़ रहे 50,000 किसानों और मजदूरों के सामने केंद्र सरकार ने समझदारी से भरा कदम उठा कर दूरदर्शिता का परिचय दिया है। इसीलिए आगरा में जन सत्याग्रहियों और केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश के बीच समझौता हो गया। इसके तहत सरकार पांच छह माह में कानून का ड्राफ्ट बनाएगी। सरकार ने कहा है कि जल्द भूमि सुधार के लिए टास्क फोर्स का गठन किया जाएगा। गौरतलब है कि जल, जंगल और जमीन के मद्दे पर करीब 50,000 आदिवासी और किसान दिल्ली के लिए पैदल ही निकले थे।  यह सत्याग्रह राष्ट्रीय भूमि सुधार परिषद का गठन की मांग पर जारी थी कि भारत के हर नागरिक को घर बनाने लायक जमीन दी जाए। आदिवासी क्षेत्रों के लिए कानून सख्ती से लागू हो। महिलाओं को भी किसान का दर्जा मिले। केंद्र सरकार की ओर से लैंडपूल बने, ताकि देशभर में खाली पड़ी जमीन के बारे में पता चल सके। इसके साथ ही उनकी मांग जमीन विवाद के निपटारे के लिए विशेष अदालतों के गठन की भी थी।
जबकि निर्धनता उन्मूलन का सबसे महत्वपूर्ण कार्य गरीबी रेखा की बहस या बीपीएल-एपीएल की बहस आंकड़ेबाजी में भटक गई है। सस्ते अनाज का कार्ड बन जाने जैसे अस्थायी मुद्दे आगे आ रहे हैं जबकि गरीबी हटाने के टिकाऊ उपाय, जैसे भूमिहीनों को कृषि भूमि उपलब्ध करवाने के लिए जरूरी भूमि   सुधार जैसे मुद्दे पीछे रह गए हैं। अत: एक बार फिर भूमि-सुधारों को गरीबी उन्मूलन की बहस के केंद्र में लाना जरूरी हो गया है। पांच वर्ष पहले 2007 में इन्हीं संगठनों के जनादेश अभियान के अंतर्गत दिल्ली में 20,000 पदयात्री आए थे। सरकार से तब जो बातचीत हुई थी, उसके आधार पर भूमि-सुधार को आगे ले जाने का महत्वपूर्ण मसौदा तैयार किया था पर सरकार ने इस मसौदे को आगे ले जाने में कोई गंभीरता व मुस्तैदी नहीं दिखाई। सरकार की इस उपेक्षा को देखते हुए वर्ष 2010 में जन-सत्याग्रह आरंभ किया गया। इसे आगे बढ़ाते हुए राष्ट्रीय स्तर पर पदयात्रा की घोषणा की गई तो सरकार हरकत में आई व उसने अपनी ओर से भूमि-सुधार को आगे ले जाने का मसौदा प्रस्तुत किया।  यह सुनिश्चित होना चाहिए कि प्राकृतिक संसाधनों की लूट व इससे जुड़े भ्रष्टाचार पर रोक लगे। सबसे गरीब परिवारों को जहां जमीन चाहिए वहां इस जमीन पर सफल खेती के लिए छोटी सिंचाई योजनाओं, जल व मिट्टी संरक्षण के कार्यों की भी जरूरत है। साथ ही लघु वन उपज पर आदिवासी अधिकारों को मजबूत करना जरूरी है जिससे वन आधारित आजीविका भी फलती-फूलती रहे।
ग्रामीण क्षेत्रों में जिन नीतियों व कानूनों के कारण विस्थापन व आजीविका का विनाश बढ़ा है उन पर रोक लगनी चाहिए। जनता के अनुरूप ग्रामीण विकास को आर्थिक नियोजन के केंद्र में लाना जरूरी है। क्योंकि इससे उनकी सक्रिय भागीदारी बढ़ेगी। भूमि सुधार का स्वरूप क्या होगा यह सरकार द्वारा बनाए जाने वाले कानूनी ड्राफ्ट आने पर बता चलेगा। फिलहाल सरकार की दूरदर्शिता की तारीफ की जाना चाहिए।
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सेना की कमजोरी कौन
सेना किसी भी देश की सबसे ताकतबर इकाई होती है। इसे चौकस, संपन्न और मजबूत बनाए रखना जरूरी है। लेकिन जब यह भ्रष्टाचार की ओर जाती है तो दोहरे खतरे वाली तलवार भी बन जाती है।

र  क्षा मंत्रालय की अंदरूनी आॅडिट रिपोर्ट में यह खुलासा किया गया है कि सेना प्रमुख जनरल बिक्रम सिंह, उनके पूर्ववर्ती जनरल वीके सिंह तथा अन्य शीर्ष जनरलों ने महज दो वर्षों में 100 करोड रुपए से अधिक के सार्वजनिक धन से अनियमित खरीदारी की है। रक्षा मंत्रालय के महालेखा परीक्षक (सीडीए) ने रक्षा मंत्री के निर्देशों पर 2009 से 2011 के बीच थलसेना के कमांडरों के 55 खरीद फैसलों की पड़ताल की। इस सब के बीच जो आदेश रक्षामंत्री महोदय ने दिए हैं, क्या यह प्रक्रिया नियमित रूप से नहीं की जानी चाहिए थी। आॅडिट करना एक नियमित प्रक्रिया है, ये खुलासे बहुत जल्दी या फिर कार्यकाल के दौरान ही होना चाहिए। सांप निकल जाता है इसके बाद लाठी पीटी जाती है। हम इस प्रकार की अनियमितताओं के लिए आज तक कोई प्रभावी नीति नहीं बना पाए हैं।
आॅडिट से यह भी खुलासा हुआ कि विदेशी उपकरण खरीदने में दिशा निर्देशों का बार-बार उल्लंघन किया। यही नहीं सेना के एक अंग ने जिन उपकरणों को खारिज किया उन्हें दूसरे अंग ने खरीद लिया। जनरलों ने अपने आपात खरीद के अधिकार के तहत चीन में बने संचार उपकरण तब खरीदे जब वे अपने-अपने क्षेत्रों के कमांडर थे। ये उपकरण सीधे निर्माता से खरीदने के बजाय एजेंट से लिए गए। इससे ये काफी महंगे पडे। बाद में पता चला कि चीन के उपकरणों में जासूसी करने वाला एक सॉफ्टवेयर भी फिट था। चीन समेत कई देशों की खुफिया एजेंसियां जासूसी के लिए ऐसे हथकंडे अपनाती हैं।आॅडिट रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर ये उपकरण भारतीय फर्मों से लिए जाते तो सस्ते मिल जाते। मामला महज फिजूलखर्ची का नहीं बल्कि नियमों की अनदेखी और सुरक्षा से जुडेÞ मामलों को ताक पर रखने का भी है।
इसी प्रकार सेना में टाट्रा ट्रकों की खरीद का मामला सामने आने के बाद सरकार ने रक्षा सौदे में बिचौलियों की मौजूदगी पर पाबंदी लगा दी थी। नई व्यवस्था में सप्लाई का आॅर्डर पाने वाली हर कम्पनी को सरकार के साथ एक ईमानदारी कायम रखने का करार करना जरूरी हो गया। इसके बाद रक्षा सौदों में दलालों की भूमिका पर भी रोक लगी थी। लेकिन इससे कंसलटेंसी के नाम पर दलाल कम्पनियों की बाढ़ आ गई, जिनमें अवकाश प्राप्त फौजी अधिकारी, विदेशी विशेषज्ञ और अन्य लोग शामिल हैं, जो धड़ल्ले से इस काम को अंजाम दे रहे हैं। लेकिन यह सब बिना शक्तिशाली राजनीतिक संरक्षण अथवा शह के संभव है? किसी देश की सेना की यह स्थिति वास्तविक अर्थों में भयानक ही कही जा सकती है। देश की सेना में हो रहे भ्रष्टाचार के खुलासों पर सरकार को परदा डालने या मौन की नीति नहीं अपनानी चाहिए। परदा डालने से सेना के अंदर हो रहे इन कर्मकांडों पर रोक नहीं लगेगी। इस मामले में अधिक मजबूत और पारदर्शी व्यवस्थाएं बनाने और उन पर सख्ती से अमल की आवश्यकता होती है। सरकार को इस दिशा में नीयत से भी काम करना होगा वरना सेना में भ्रष्टाचार फैलेगा।

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