शुक्रवार, फ़रवरी 04, 2011

बसंत मेरा दोस्त

 बसंत फूलों के खिलने की तरह नहीं आता। कैलेंडर की तारीखों से भी मैंने बसंत को नहीं पहचाना। बसंत मुझे अपने आसपास महसूस हुआ। कई सालों तक बसंत अनाम रहते हुए मुझे महसूस होता रहा जब मैं उसे पहचान नहीं पाया था। मैं उसे मना भी नहीं सका।
यह गांवों और शहरों के बीच आने जाने के दिन थे। गांव के करीब से रोड निकल रही थी। रास्ते के दरख्तों को हटाया जा रहा था।बेलगाडी की गाद्मात की जगह छोड़ा रोड आ रहा था. यह एक बदलाव था जिसे हम गांव के बच्चे आश्चर्य से देखते रहते थे। लेकिन दुखी होते थे पेडों के कटने से, जो हमारे दोस्त की तरह थे। मुझे उस समय कई पेड़ों की याद आती थी और सच बताऊ आज भी वे पेड़ न जाने क्यों स्मिरती में बने हुए हैं ।
यह बसंत का ही असर था कि मुझे पेड़ों की, छांव की यादें आने लगीं थी। यह वह समय भी था जब बिजली के खंभों को खड़ा किया जा रहा था। माहौल गांव में एक नए मौसम की ताजगी जैसा था। पेड इतने करीब थे कि वे बिजली के खंभे और खंभे इतने नए थे कि रोशनी के पेड़ जैसे लगने लगे थे।
इसी परिवर्तन के साथ मैं बसंत को महसूस कर रहा था। एक दिन मैंने महसूस किया कि मैं दौडना चाहता हूं। यह एक दोपहर थी लेकिन  मैं दौड़ा नहीं। अचानक ही मुझे लड़कियां अच्छी लगने लगीं। यह बसंत की ही कोई दोपहर थी। तब सच में मैंने गांव से बाहर की तरह दौड़ लगाई। यह मेरी दौड़ नहीं थी यह बसंत की दौड़ थी। यह बसंत का उत्साह था... यह मेरा पहला बसंत था और मैं रोज घर से बाहर कुछ फासले पर खड़े पीपल के पेड़ तक जाने लगा था। मैं देखने लगता हूं कि पीपल के फल गिर रहे हैं। उसकी शाखों पर किरउएं चिहुंक रही हैं। पुराने पत्ते झर रहे हैं। हवाओं में अजीब सी ताजगी और खनक महसूस होने लगी। क्या यह बसंत था। हां यह बसंत ही था...मैंने इसी तरह ही बसंत को पहचाना था।
बसंत को पहचानने में मैं अकेला नहीं था। गांव के कई हम उम्र थे। बसंत के परिवर्तन हम सब पर एक साथ तारी हुए थे। हमने बसंत को पेड़ों, लड़कियों और जंगलों में फैला हुआ पाया था। हमें ये समझ में नहीं आता था कि आखिर हमें अच्छा सा फील क्यों हो रहा है। क्यों हम
हमने किसी कलैंडर में देख कर नहीं मनाया था। यह मेरे तन मन में उतरा था। यह बसंत मुझे प्रकृति ने उपहार में दिया था।
कैलेंडर तो मैंने बहुत बाद में देखे। बसंत का उत्सव मैंने बाद में जाना। प्रकृति मुझे चुपचाप बसंत दे गई थी। यह बंसत कई रूपों में मेरे साथ है। स्मृति और बदलाव, जीवन और संग साथ, शहर और गांव। आज मैं बसंत को एक ऐसे मौसम के रूप में दे ाता हूं जो गांव से मेरे साथ शहर आ गया। यहां उसकी खूबसूरती शहरी चमक और तमाम तरह की रसायनिक गंधों सुगंधों में मिल गई है। पिछले कई सालों से षहरों के आसपास बसंत देखने की कोषिष करता हूं। कई बार पार्कों में लगे हुए पेड़ों पर तो कई बार कालोनियों के बड़े बंगलों में घिरे फूलों के झाड़ों पर उस दोस्त बसंत को पहचानने की कोषिष करता हूं जो मेरे गांव से साथ आया था।
मुझे यकीन नहीं होता कि मेरेा बसंत मुझसे कहीं दूर है। लगता है मेरे रहने की जगह उसे पसंद नहीं आई इसलिए वह षहर और गांव के बीच कहीं ठहर गया है। कहीं छुप गया हैं। कई दफा ऐसा हुआ है बसंत पंचमी कब आ गई यह कैलेंडर से देख कर पता चला लेकिन मैंने तो यह जाना कि बसंत तारीखो में घटने वाली घटना नहीं है। यह धरती अपने प्रेमी से मिलने की घटना है। जब यह होती है तो कण कण में यह व्यापती है। महकती है।
मैं उस महक को पहचानना चाहूं तो मुझे फिर से इस मौसम मैं अपने गांव के खेतों की ओर जाना ही पड़ेगा।  अपने उसे सखा बसंत को खोजना पडंेगा। खेतों की मेढ़ों पर टहलना और सड़कों के शोर से दूर...चाहे तो आप भी चल सकते हैं। यह बसंत है जो दूर खड़ा रह कर भी आज लिखने के लिए मजबूर कर रहा है।

-रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति 

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