रविवार, फ़रवरी 06, 2011

संदेह - दृष्टि

संदेह - दृष्टि

ये आलेख गीत चतुर्वेदी और सबद निरंतर ब्लॉग से साभार है ...

बोर्हेस ने ‘द रिडल ऑफ पोएट्री’ में कहा है- ‘सत्तर साल साहित्य में गुज़ारने के बाद मेरे पास आपको देने के लिए सिवाय संदेहों के और कुछ नहीं।‘ मैं बोर्हेस की इस बात को इस तरह लेता हूं कि संदेह करना कलाकार के बुनियादी गुणों में होना चाहिए। संदेह और उससे उपजे हुए सवालों से ही कथा की कलाकृतियों की रचना होती है। इक्कीसवीं सदी के इन बरसों में जब विश्वास मनुष्य के बजाय बाज़ार के एक मूल्य के रूप में स्थापित है, संदेह की महत्ता कहीं अधिक बढ़ जाती है। एक कलाकार को, निश्चित ही एक कथाकार को भी, अपनी पूरी परंपरा, इतिहास, मिथिहास, वर्तमान, कला के रूपों, औज़ारों और अपनी क्षमताओं को भी संदेह की दृष्टि से देखना चाहिए।

अपनी बात को स्पष्ट करते हुए एक सूत्र तक पहुंचाने के लिए मैं फिर एक बार बोर्हेस को ही कोट करूंगा। उनकी एक कहानी है- ‘द रोज़ ऑफ़ पैरासेल्‍सस’, जिसमें एक किरदार राख से गुलाब बनाता है। जब एक व्यक्ति उससे यह हुनर सीखने आता है, तो वह मना कर देता है कि उसके पास ऐसी कोई चमत्कारी शक्ति नहीं है। उस व्यक्ति के जाते ही पैरासेल्‍सस नाम का वह किरदार फिर चमत्कार करते हुए राख से गुलाब बना देता है। बोर्हेस की यह कहानी अपने मेटाफि़जि़कल और मेटाहिस्टॉरिक अर्थों में बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन इंटर-टेक्स्चुअल रीडिंग से ज़रा खेलते हुए मैं बोर्हेस की इस कहानी को हिंदी फि़क्शन के संदर्भ में मेटाकॉमिक तरीक़े से देखता हूं।

कुछ लोग हिंदी कहानी से इसी कि़स्म के राख से गुलाब बना देने वाले चमत्कार का दावा करते हैं, लेकिन अपने किस अकेलेपन में वह यह चमत्कार कर रही है? जैसे ही वह पाठक के सामने जाती है, पैरासेल्‍सस की तरह चमत्कार से इंकार कर देती है, अपना वांछित या प्रोजेक्टेड असर तक नहीं छोड़ती, जबकि बार-बार कहा जा रहा है कि वह चमत्कारी है, तो फिर यह चमत्कार किस निर्जनता या नीरवता में है?

इस समय हिंदी कहानी में जिस तथाकथित रचनात्मक विस्फोट की बात की जाती है, उसे देखकर बरबस मुझे ‘पोएटिक्स ऑफ़ डीफैमिलियराइज़ेशन’ की याद आ जाती है। यह कला का एक सिद्धांत या प्रविधि है, जिसे पुराने ज़माने के रूसी लेखकों ने और बीसवीं सदी की शुरुआत के अमेरिकी लेखकों ने ख़ासा इस्तेमाल किया था। इसमें नैरेटर किसी जानी-पहचानी साधारण-सी चीज़ को इस क़दर नाटकीय और हल्लेदार बनाकर प्रस्तुत करता था कि देखने वाले को यह अहसास हो जाए कि दरअसल वह पहली बार ही उस चीज़ को देख रहा है। इस चौंक के कलात्मक लाभ और छौंकदार हासिल को वह फिक्शन मान लेता था। हिंदी कहानी से ज़्यादा उसका परिदृश्य इस समय उसी पोएटिक्स को एन्ज्वॉय करता जान पड़ता है।

इसके पीछे बहुधा मुझे हिंदी कहानी के विकास की सरणियों के पेचो-ख़म दिखाई देते हैं। हिंदी कथा साहित्य का विकास और हिंदी सिनेमा का विकास कुछ बरसों के आगे-पीछे में ही होता है। दोनों स्टोरी-टेलिंग की दो विधाएं हैं, लेकिन इस विकास में मुझे हिंदी सिनेमा की लोकप्रिय कथ्य-धारा अत्यधिक हावी होती दिखाई देती है। सिनेमा ने साहित्य को समृद्धि ही दी है, ऐसा हम दुनिया के कई बड़े लेखकों का आत्मकथ्य पढ़कर जान पाते हैं, लेकिन हिंदी में सिनेमा के लोकप्रिय कथानक-कथात्मक दबाव ने, कुछ ख़ास अर्थों में भारतीय-हिंदी समाज की संरचना ने भी, हिंदी कथा-साहित्य को चीज़ों को ब्लैक एंड व्हाइट में देखने का जो अत्यंत सरल, सुपाच्य कि़स्म का फॉर्मूला दिया है कि वह आज भी हमारे कथाकारों, किंचित पाठकों और अधिकतर आलोचकों से छुड़ाए नहीं छूट रहा। हमने नैरेशन की चेखोवियन शैली को तो अपना लिया, लेकिन अंतर्वस्तु की चेखोवियन जटिलताओं को ख़ुद से दूर ही रखा। आज भी हम तथाकथित पोस्ट-मॉडर्न नैरेटिव से उसी कि़स्म के सरलीकृत, लेकिन हाहाकारजनित नतीजे ही निकाल रहे हैं।

क्या इसके पीछे कहीं ये कारण तो नहीं कि हम शुरू से ही, हिंदी कथा के परिक्षेत्र में, डेमी-गॉड्स और लेसर-गॉड्स को पूजते आ रहे हैं? क्या हिंदी कहानी लगातार रॉन्ग्ड पैट्रन्स के हाथों में रही है? क्यों ऐसा होता है कि मुझे हिंदी कहानी के शिखर पुरुष हिंदी से बाहर कहीं दिखाई ही नहीं देते? और दुनिया के आला दरजे के फिक्शन का एक हिस्सा पढ़ लेने के बाद अपने इन लेसर-गॉड्स की कहानियों में मेरी कोई दिलचस्पी रह ही नहीं पाती? हां, उनकी कथेतर साहित्यिक-सामाजिक तिकड़में, शरारतें, बदमाशियां मुझे उनकी कहानी से ज़्यादा आकर्षित करती हैं। फिक्शन का अगर कोई मानचित्र हो, तो उसमें हमारी पोजीशनिंग कहां है? यक़ीनन, कहीं नहीं। हम साहित्य में रणजी ट्रॉफ़ी मुक़ाबलों से ही अंतरराष्ट्रीय विजय-प्राप्ति का आनंद भोग ले रहे हैं।

नहीं, यह न सोचा जाए कि इसके पीछे कोई पश्चिमपरस्त मानसिकता है, अपने जातीय-भाषाई स्‍वभावगत विशेष सरलीकृत तुरत-फुरत आरोप-निष्पादन की फेहरिस्त में इज़ाफ़ा करते हुए यह न कह दिया जाए कि कुछ लोगों को विदेशी चीज़ों में ही आनंद आता है, बल्कि यह एक कड़वी सचाई है, जिसे कम से कम ब्लैक एंड व्हाइट में न देखा जाए। तो वह चमत्कार जो उस कहानी में पैरासेल्‍सस कर रहा है और हमारे परिदृश्य में हिंदी कहानी कर रही है, उसे जांच लिया जाए। स्ट्रैटजिक टाइमिंग्स के सहारे नहीं, बल्कि साहित्य की गुणवत्ता को मानदंड बनाकर। हम डीफैमिलियराइज्ड की आत्मरति से बाज़ आएं, लेसर-गॉड्स के होलसेल प्रोडक्‍शन से भी.

मैं यहां किसी कि़स्म के सामाजिक यथार्थ, वर्तमान की चुनौतियां, समकालीन हिंदी कहानी का संकट, यथार्थ और विभ्रम, 90 के पहले और बाद का यथार्थ, दशा और दिशा जैसे सेमिनारी क्लीशे में नहीं जाना चाहता, क्योंकि एक ख़ास, सीमित दबाव डालने के अलावा इन सारी बातों का आर्ट ऑफ द फि़क्शन से कोई लेना-देना भी नहीं होता, लेकिन फिर भी मैं यहां पहले पैराग्राफ़ की बात को दोहराते हुए महज़ इतना कहना चाहूंगा कि हम इतिहास के साथ-साथ अपनी पूरी कथा-परंपरा को भी संशयग्रस्त होकर देखें।

(30 अक्‍टूबर 2009 को रामगढ़, नैनीताल में हिंदी कहानी पर आयोजित सेमिनार में कुछ ज़बानी जोड़ के साथ पढ़ा गया आलेख.)

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