शुक्रवार, फ़रवरी 04, 2011

ओ सोने जैसी धूप

मेरे रांद्रा 
ये कविता मैंने दो दिन पहले लिखी थी


ओ सोने जैसी धूप तुम मेरे साथ हो
मेरे चारों ओर शुभकामनाओं की तरह चमकती
तुम धूप हो और मैं तुममें मिला सोने का कण




ओ सोने जैसी धूप तुम मेरे साथ रहती हो
जब मैं काम पर निकलता हूं
जब मैं कुछ सोचता हूं
जब मैं कुछ करता हूं

ओ सोने जैसी धूप
जब तुम बहुत गर्म होती हो
तब भी मुझे बुरा नहीं लगता
तुम मेरी फसलें पकाती हो
तुम धरती को गर्म रखती हो


तुम मेरी अच्छी दोस्त हो
तुम मेरी व्यापक दोस्त हो



ओ सोने जैसी धूप
तुम सारे दिन मेरे साथ रहती हो
जब मैं आराम करता हूं तब भी
जब मैं किसी कल्पना में खोता हूं
कहीं जाता हूं तब भी साथ साथ 


ओ प्यार भरी सुनहरी धूप
तुम शाम को मेरे कमरे में आती हो
जब तुम जा रही होती हो
तुम मेरे दरवाजे में आती हो
आहिस्ता से मेरे बिस्तर पर बैठ जाती हो


ओ मेरी सुनहरी धूप
तुम जाते हुए मेरा माथा सहलाती हो
और फिर चली जाती हो 
पहाड़ों के पीछे अपने चांद के पास


ओ सुनहरी धूप तुम सुबह आती हो
मेरे सोफे पे बैठ कर पेपर पड़ती  हो
मुझे जगाती हो और साथ चाय पीती हो
मुझे काम करने के लिए कहती हो


ओ मेरी सुनहरी धूप
मुझे जगा कर दिन के काम बताती हो
फिर सारी दुनिया में फैल जाती हो



-रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति 







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