रविवार, अप्रैल 18, 2010

शिक्षा ऋण पर छूट संबंधियों को भी फायदे

शिक्षा अब कुशलता केंद्रित हो चुकी है, जिसमें तकनीक और धन का महत्व बढ़ा है।


शिक्षा की अवधारणा आज बेशक व्यावसायिक हो चुकी है। इसका कारण यह है कि इसको सीधे रोजगार से जोड़ दिया गया है। व्यावसायिक शिक्षा में जितनी प्रखरता बुद्धि की चाहिए होती है, उतनी ही अधिक आवश्यकता आज अच्छे कालेज में पढ़ने के लिए धन की भी होती है, क्योंकि आधुनिक शिक्षा कुशलता केंद्रित हो चुकी है, जिसमें तकनीक और धन का महत्व बढ़ा है। आधुनिक व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में शिक्षा का पूरा दारोमदार कुशलता पर निर्भर है। इस कुशलता को प्राप्त करने के लिए गहन प्रशिक्षण, उच्च तकनीक, शुरू से ही बेहतर स्कूल शिक्षा और सुविधाएं जुड़ गई हैं। इसलिए आधुनिक समय में शिक्षा प्राप्त करने के लिए धन उपलब्ध करने के लिए सुविधाओं के विकास की आवश्यकता महसूस की गई। समाज को आज ऐसे आर्थिक परिवेश की आवश्यकता है, जिसमें हर छात्र अपनी मनमाफिक व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त कर सके और उज्जवल भविष्य बना सके। इसके लिए आवश्यक था कि ऐसी आर्थिक सुविधाओं का विकास किया जाए और नीतियां बनाई जाएं जिसमें दूर के रिश्तेदारों के बच्चे के लिए भी ऋण की सुविधा उपलब्ध हो।
नए प्रावधानों में केंद्र सरकार ने शिक्षा ऋण के ब्याज के भुगतानों में टैक्स में छूट का दायरा बढ़ाकर इस ऋण की सुविधा को संबंधियों तक पहुंचाने का प्रयास किया है। अब किसी भी शिक्षा ऋण पर दिए ब्याज पर कर नहीं देना होगा। इसके अलावा नए प्रावधान में वोकेशनल कोर्स, आर्टस और कॉमर्स जैसे विषय भी शिक्षा ऋण में शामिल किए गए हैं। आज के आर्थिक जगत में इन विषयों से संबंधित रोजगारों की संभावनाएं भी बढ़ गई हैं। अब आयकर अधिनियम की धारा 80-ई के तहत किए गए संशोधन में आयकर छूट का लाभ कामर्स एवं आर्ट्स के स्टूडेंट भी उठा सकेंगे। शिक्षा ऋण की नई अवधारणा शिक्षा के प्रसार और योग्य बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने के अधिकार को नया विस्तार देगी। आने वाले समय में सरकार का यह कदम निश्चित रूप से अपने प्रभाव दिखाएगा।



हिंसा, अपराध और हम

क्या कारण हो सकते हैं कि एक शिक्षित, विकसित और संपन्न होते समाज को हिंसा, अपराध आत्महत्या के अभिशाप झेलना पड़ रहे हैं। रविवार को इंदौर में एक ही परिवार के चार सदस्यों की निर्ममता से हत्या कर दी गई। घटना के पीछे के कारणों का अभी यह पता नहीं है। इंदौर की ही दूसरी खबर है, जिसमें एक युवती ने अच्छी नौकरी नहीं मिलने के कारण अपने कमरे में आत्महत्या कर ली। एक शहर की फिजा में पढ़ाई के दबाव के चलते पिछले महीनों में छह युवा आत्मघाती कदम उठा चुके हैं। आखिर इस बढ़ती हिंसा और युवाओं के जिंदगी से मुंह मोड़ एक पलायनवादी कदम उठाने के कारण क्या हो सकते हैं। इंदौर एक आर्थिक शहर है, जहां जीवन की आपाधापी में भी एक शांत लहर व्यापी रहती है, लेकिन अपराधों की निरंतर बढ़ती संख्या ने चिंता की लकीरें समाज के हर जिम्मेदार के माथे पर डाल दी हैं।
इन घटनाओं के कारणों और कानून व्यवस्था की स्थिति पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। अपराध और हिंसा की घटनाओं के कारणों पर बिना विचार किए समाधान खोजने की कोशिश सिर्फ घाव पर मरहम पट्टी बांधने की तरह होगी। इन मामलों में प्रशासनिक नियंत्रण का अपना महत्व है, लेकिन इन घटनाओं का जन्म कहां हो रहा है। इंसान के मन के किस कोने में और क्यों इनका ब्लूप्रिंट तैयार हो जाता है, इस पर भी विचार करना आवश्यक है। विकास का मतलब आर्थिक समृद्धि हो सकता है, लेकिन वास्तविक विकास में जीवन की शांति भी निहित है। फिलहाल तो हम समाधानों की जगह हर क्षेत्र में पैबंदों से ही काम चला रहे हैं।


जीवन की उमंग


महर्षि रमण के आश्रम के नजदीक किसी गांव में एक अध्यापक रहते थे। रोज के पारिवारिक तनाव से वह बहुत ज्यादा दुखी हो गए थे। अंत में उन्होंने इस अशांति से मुक्ति पाने की सोची, किंतु आत्महत्या करने का निर्णय लेना उन्हें इतना आसान नहीं लगा। वे अपने परिवार के बारे में सोच विचार कर रह गए। वैसे भी मनुष्य को अपने परिवार के भविष्य के विषय में भी सोचना पड़ता है। इसी ऊहापोह में वह व्यक्ति महर्षि रमण के आश्रम में पहुंचे।
महर्षि को प्रणाम कर वह बैठ गए। फिर कुछ देर बाद उन्होंने आत्महत्या के बारे में महर्षि की राय जाननी चाही। रमण उस समय आश्रमवासियों के भोजन के लिए बड़े मनोयोग से पत्तलें बना रहे थे। अध्यापक के सवाल पर उन्होंने कुछ खास नहीं कहा। अध्यापक महोदय उनके उत्तर की प्रतीक्षा करने लगे। थोड़ी देर में वह सोचने लगे कि आखिर यह मेरी बात न सुनकर पत्तलें बना रहे हैं। अध्यापक को रमण का इस तरह पत्तल बनाना थोड़ा अटपटा लगा। उन्होंने साहस कर आखिर पूछ ही लिया, 'भगवन! आप इन पत्तलों को इतने परिश्रम से बना रहे हैं, लेकिन भोजन के बाद तो इन्हें कूड़े में फेंक ही दिया जाएगा।' यही समय महर्षि चाहते थे। अध्यापक महोदय ने सही सवाल किया था। इस बात पर महर्षि ने मुस्कराते हुए बोले, 'आप ठीक कहते हैं, लेकिन किसी वस्तु का पूर्ण उपयोग हो जाने के बाद उसे फेंकना बुरा नहीं है। बुरा तो तब कहा जाएगा, जब उसका उपयोग किए बिना ही अच्छी अवस्था में उसे कोई फेंक दे। आप तो विद्वान हैं। मेरे कहने का तात्पर्य समझ ही गए होंगे।' इन शब्दों से अध्यापक महोदय की समस्या का समाधान हो गया। उनमें जीने का उत्साह आ गया और उन्होंने आत्महत्या का विचार त्याग दिया। अध्यापक वापस आकर अपने काम में लग गए और परिवार के साथ खुशी से रहने लगे।

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