बुधवार, सितंबर 18, 2013

रक्तअल्प महिलाएं


महिलाओं में कुपोषण की स्थिति गंभीर है। देश में पचास प्रतिशत से अधिक महिलाएं एनिमिक हैं। यह खानपान और चिकित्सा से जुड़ा गंभीर मसला है और हमारे प्रयास बेहद सीमित।

संसद की महिलाओं के पोषण से संबंधित काम काज देखने वाली केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय पर लोकसभा की प्राक्कलन समिति ने सरकार को इस बात के लिए पटकारा है कि देश में आज भी 70 प्रतिशत बच्चे और 60 प्रतिशत महिलाएं कुपोषण का शिकार हैं। देश तमाम प्रौद्योगिक विकास कर रहा है, संचार और तकनीकी के इस युग में इतना कुपोषण शर्म का विषय है। कुपोषण रोकने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन के नए ग्रोथ चार्ट  के बाद भी देश में बच्चों एवं महिलाओं की स्थिति जस की तस है। इससे लगता है िक हमारे सरकारों और उनके विभागों के बीच समन्वय का भारी अभाव है। कुपोषण खत्म करने के लिए जो योजनाएं लागू की गई हैं वे जमीनी स्तर पर प्रभावी नहीं हो पा रही हैं। आंगनवाड़ियों और स्वास्थ्य विभाग में व्यापक समन्वय की कमी है। अधिकांश बच्चों का वजन नहीं लिया जाता है। ऐसे में वास्तविकता का पता नहीं चल पाता। एक समय प्रधानमंत्री ने भी कुपोषण को देश के लिए राष्ट्रीय शर्म बताया था। लेकिन देश के लोगों के सामने एक यही नहीं, ऐसी न जाने कितनी राष्ट्रीय शर्में पानी भर रही हैं। सरकार और समाज दोनों के बीच कोई चेतना और समस्याओं के प्रति जुझारूपन देखने नहीं मिलता।
इसी समिति ने यह भी बताया है कि देश में बच्चों में कुपोषण 1998-99 के मुकाबले 2005-6 में 80 प्रतिशत हो गया। यानी कुपोषण की दर बढ़ी है। यह गंभीर मामला है कि हम जिस स्तर को स्थिर नहीं रख सके तो कम से कम उसे दुर्गति की ओर तो नहीं जाने दिया जाना चाहिए।
ग्रामीण क्षेत्रों में सुदृढ़ होती स्वास्थ्य व्यवस्थाए किसी सरकारी विज्ञापन का हिस्सा हो सकता है लेकिन वास्तविकताओं से इसका बहुत वास्ता नहीं होता। हर बार बजट बढ़ता है और हर बार कुपोषण भी सामने आता है। लेकिन हर बार कुपोषण, रक्त अल्पता, निरक्षरता की शिकार महिलाओं की संख्या करोड़ों में बाकी रहती है। कुपोषण और एनिमिक होने में कम उम्र में विवाह लड़कियों के लिए अभिशाप बन जाता है। यानी बाल विवाह भी देश में जारी है। आज देश में करीब 40 प्रतिशत लड़कियों का बाल विवाह होता। जिस वक्त संयुक्त राष्ट्र बाल विवाह को रोकने की बात कर रहा था ठीक उसी वक्त हरियाणा राज्य में एक राजनैतिक पार्टी के नेता 15 वर्ष में लड़कियों के विवाह की सलाह दे रहे थे।  भारतीय समाज, यहां का शासक वर्ग अपने हितों को बनाये रखने व राजनैतिक पार्टियां अपने चुनावी गणित की दृष्टि से पिछड़े सामंती मूल्यों को बनाये रखे हुये हैं। यही कारण है कि भ्रूण हत्या, बाल विवाह, दहेज प्रथा जैसी तमाम स्त्री विरोधी प्रथाएं और परंपराएं मौजूद हंै। शासक वर्ग इनका समाधान करने में कोई दिलचस्पी नहीं रखता है। वह मात्र कुछ रस्म अदायगी करके अपने कर्तव्य की इति श्री कर लेता है। आवश्यकता इस बात की है कि नीव में चोट करने वाले, व्यापक आंदोलन की शुरूआत हो। ये समस्याएं हैं तो इसका अर्थ है कि हम विकास के वास्तविक लक्ष्य को हासिल करने में एक असफल समाज हैं।

लालबत्ती: नया सामंतवाद
लालबत्ती समाज से अलग करती है। यह बयान लोकतंत्र के प्रति सच्ची भावना से पैदा हुआ है। हम सब भारतीय हैं और हमें अपने कामों से खास होना चाहिए न कि लालबत्ती लगा कर घूमने से।
ज ब किसी चीज को छुपाना होता है तो हर इंसान अपने आसपास तामझाम पैदा करता है। लालबत्ती एक ऐसा तामझाम है जिसमें जनता का प्रतिनिधित्व या सेवा करने वाला व्यक्ति खुद को छुपा लेता है। हूटर या लालबत्ती की आड़ में व्यक्ति सेवा नहीं अहंकार प्रदर्शित करता है। लाल बत्ती कार्य की सुविधा के लिए लगाई जाने वाली एक सुविधा थी लेकिन आज यह एक ऐसा प्रतीक बन गई है जिसमें विशिष्टाबोध समाया है। लोकतंत्र में औरों से खास दिखन के लिए लाल बत्ती नहीं जरूरी है कि हमारे काम खास हों। लाल बत्ती के मामले में कांग्रेस नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया का यह बयान लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुकूल है कि लाल बत्ती समाज से अलग करती है। एक नेता को, राजनीतिक समाज सेवा करने वाले व्यक्तित्व को लालबत्ती नहीं काम की आवश्यकता है। लालबत्ती के सदुपयोग की उतनी खबरें नहीं आतीं जितनी कि उससे मार्फत रौब गांठने महज स्टेटस सिंबल को साधने के लिए वाहनों में लालबत्ती और सायरन के दुरुपयोग पर सुप्रीम कोर्ट पूर्व में ही चिंता जता चुका है। केंद्र और राज्य सरकारों को इसके नियमों पर पुनर्विचार करने का सुझाव दिया था।  बड़े ओहदेवालों को छोड़कर इनका इस्तेमाल करने के बारे में अब वह नियम तय करेगी। कोर्ट ने कहा है कि निर्धारित नियम के मुताबिक सिर्फ एंबुलेंस, फायर बिग्रेड, पुलिस और सेना की गाड़ी में सायरन होना चाहिए बाकी सभी से इन्हें हटा दिया जाना चाहिए। लालबत्ती लगाने की अनुमति सिर्फ संवैधानिक पदों पर आसीन लोगों मसलन, राष्ट्रपति, राज्यपाल, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, संसद व विधानसभा के स्पीकर, मुख्य न्यायाधीश और राज्य के उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों को ही होनी चाहिए। ऐसे ही किसी कार्य के लिए निश्चित वाहन को छोड़कर अन्य किसी भी सरकारी वाहन में लालबत्ती लगाने की अनुमति नहीं होनी चाहिए। लालबत्ती कल्चर पर सुप्रीम कोर्ट का यह हस्तक्षेप   स्वागतयोग्य है। गुजरते वर्षो के साथ ये संस्कृति फैलती गई है। गाड़ियों के ऊपर लगी लालबत्तियां ताकत की निशानी बन गई हैं। देखा गया है कि अक्सर सत्ताधारी राजनीतिक दल अपने असंतुष्ट नेताओं को खुश करने के लिए लालबत्ती और सुरक्षाकर्मी की सुविधाएं दे देते हैं। दिल्ली का उदाहरण लें, तो यहां संवैधानिक अधिकारियों के अतिरिक्त अन्य कथित खास लोगों की सुरक्षा पर सरकार के लगभग बीस करोड़ रुपए हर महीने खर्च होते हैं, जहां 4000 से ऊपर कर्मी ऐसे लोगों की हिफाजत में तैनात हैं। यही हाल दूसरे राज्यों का भी है। जिस देश में पुलिसकर्मियों की संख्या प्रति एक लाख की आबादी पर सिर्फ 130 है । संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक यह 222 होनी चाहिए। वहां ये कितना महत्वपूर्ण मुद्दा है, समझा जा सकता है। वीआईपी की सुरक्षा के खास इंतजामों से जहां आमजन की सुरक्षा कमजोर होती है और राजकोष पर बेजा बोझ पड़ता है, वहीं आम नागरिक को भारी परेशानी भी झेलनी पड़ती है। यह रुझान खास और आम के बीच ऐसी खाई पैदा करता है, जो लोकतंत्र की मूल भावना के बिल्कुल खिलाफ है।
नई जिम्मेदारी अग्नि-5
अग्नि पांच के माध्यम से भारत ने फिर अपनी सामरिक वैज्ञानिक क्षमता को स्थापित किया है। मिसाइल परीक्षण सिर्फ ताकत का पर्याय नहीं हैं, ये देश को वैश्विक भूमिका के लिए आत्मविश्वास भी लेकर आते हैं।

भा रतीय मिसाइल वैज्ञानिकों ने देश की सैनिक ताकत को फिर विश्व में स्थापित किया है। मिसाइल परीक्षण का अर्थ सिर्फ सैनिक ताकत नहीं होता। यह एक देश की वैज्ञानिक प्रगति का सोपान भी है। परमाणु बम गिराने में सक्षम लांग रेंज की अग्नि-5 बैलेस्टिक मिसाइल का दोबारा सफल परीक्षण कर वैज्ञानिकों ने भारत से होड़ करने वाली ताकतों को संदेश दिया है कि हम किसी भी मिसाइली हमले का जवाब देने में पूरी तरह सक्षम हैं। बहरहाल,भारतीय मिसाइल कार्यक्रम की शुरुआत डॉ. कलाम के आने से हुई थी तो यह कहना अतिकथन नहीं होगा। कलाम 1962 में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन में आए। उन्हें प्रोजेक्ट डायरेक्टर के रूप में भारत का पहला स्वदेशी उपग्रह एस.एल.वी. तृतीय प्रक्षेपास्त्र बनाने का श्रेय हासिल हुआ। 1980 में इसरो लांच व्हीकल प्रोग्राम को परवान चढ़ाने का श्रेय भी उनको जाता है। डॉक्टर कलाम ने स्वदेशी लक्ष्य भेदी यानी गाइडेड मिसाइल्स को डिजाइन किया। अग्नि एवं पृथ्वी जैसी मिसाइलों को स्वदेशी तकनीक से बनाया। जब वे भारतीय रक्षा अनुसंधान एवं विकास संस्थान में निदेशक के तौर पर आए तब उन्होंने अपना सारा ध्यान गाइडेड मिसाइल के विकास पर केन्द्रित किया था। आज की अग्नि और पृथ्वी मिसाइल का सफल परीक्षण का श्रेय काफी कुछ उन्हीं को है। भारत की विभिन्न मिसाइलें देश की सुरक्षा प्रणाली का बेहद अहम हिस्सा हैं। इनमें कई जमीन से जमीन तक मार करने वाली मिसाइलें हैं तो कुछ जमीन से हवा में मार करने वाली। भारत के पास समुद्र में से दागी जा सकने वाली मिसाइलें भी हैं।
अग्नि मिसाइलें भारतीय मिसाइल प्रणाली की मुख्य रीढ़ हैं। देश में जो भी मिसाइल-परीक्षण किया जाता है,उस पर देश के करोड़ों लोगों की निगाह रहती है। इन्हें भारत की रक्षा-क्षमता और वैज्ञानिक-तकनीकी क्षमता का प्रमाण माना जाता है। इसे पड़ोसी डर और आशंका की नजर से देखते रहे हैं। इस सिलसिले में पाकिस्तान का नजÞरिया थोड़ा-सा अलग है। अग्नि-5 के परीक्षण पर दुनिया भर में हुई प्रतिक्रिया ने इस तथ्य को रेखांकित किया है कि चीन और पाकिस्तान के अलावा हमने कोई नए दुश्मन नहीं बनाए हैं। यहां तक कि भारत के परमाणु तथा अन्य सुरक्षा कार्यक्रमों पर तपाक से बयान जारी करने वाले आॅस्ट्रेलिया जैसे देशों ने भी इस बार कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं की। यह चीन के बरक्स उभरती हुई एक नई शक्ति के प्रति विश्व समुदाय की मौन स्वीकृति है। इतनी ज्यादा रेंज वाली मिसाइल की क्षमता अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस और ब्रिटेन के पास है। सैन्य लिहाज से तो शायद हमें इसकी जरूरत कभी न पड़े, लेकिन राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में इस तरह का कदम बेकार नहीं जाएगा। वह हमें विश्व के शक्ति-सम्पन्न देशों की कतार में खड़ा कर सकता है। उस कतार में, जहां अभी इंग्लैंड और फ्रांस जैसे देशों की भी उपस्थिति नहीं है, यानी अमेरिका, रूस और चीन की श्रेणी में। इस परीक्षण के बाद भारत दूरगामी राजनीतिक, कूटनीतिक और सैन्य संदर्भ नए आयाम हासिल करेगा।

मंगलवार, सितंबर 03, 2013

भूमि अधिग्रहण के अर्थ

  भूमि अधिग्रहण के अर्थ
उचित या अधिक मुआवजा किसी भी तरह परिवेश और पर्यावरण की क्षतिपूर्ति नहीं हो सकता। खेती की जमीन के बाद किसान परिवारों की आजीविका और पर्यावरण को सुनिश्चित किया जाना भी जरुरी है।

भू मि अधिग्रहण एक बहुत ही संवेदनशील प्रश्न रहा है और खाद्य सुरक्षा विधेयक के बाद संप्रग सरकार ने एक महात्वाकांक्षी ‘भूमि अधिग्रहण’ विधेयक को मंजूरी दे दी। अब किसानों की भूमि का जबरदस्ती अधिग्रहण नहीं किया जा सकेगा। विधेयक में ग्रामीण इलाकों में जमीन के बाजार मूल्य का चार गुना और शहरी इलाकों में दो गुना मुआवजा देने का प्रावधान है।
यह बिल उचित मुआवजे पर जोर देता है जिसमें शहरों में दुगुना और ग्रामीण इलाकों में बाजार मूल्य का चार गुना देने की बात कही गई है। लेकिन जो असल सवाल थे उन पर इसमें खास जोर नहीं दिया है। हम आज भी प्राकृतिक संसाधनों से संबंधित बिल या नीतियां बनाते वक्त सदैव मानव और उसके भौतिक-आर्थिक विकास को ही केंद्र में रखते हैं। हम भूल जाते हैं कि कुदरत के सारे वरदान इंसानों के लिए नहीं हैं। इन पर प्रकृति के दूसरे जीवों का भी हक है। कितने ही जीव व वनस्पतियां ऐसी हैं, जो हमारे लिए पानी, मिट्टी व हवा की गुणवत्ता सुधारते हैं। उन पर ध्यान देना हमें याद नहीं रहता। सरकार या उद्योगपति भूमि अधिग्रहण कर लेंगे लेकिन वहां रहने वाले पशु पक्षी वनस्पति और भूसंरचना को खराब करने का अधिकार उसे क्यों मिलेगा? क्या फैक्ट्री और कारखाने लगाना ही विकास है। जीवन की गुणवत्ता का कोई सवाल हमारे सांसद , सरकारें और पार्टियां नहीं करती हैं। लोकसभा की स्टैंडिंग कमेटी में सर्वदलीय सहमति होने के बावजÞूद भी कमेटी की सिफÞारिशों को लागू नहीं किया गया है। इस बिल पर जो ग्रुप आॅफ मिनिस्टर्स बना जिसमें वित्त मंत्री, कृषि मंत्री और वाणिज्य मंत्री शामिल थे उन्होंने ही इस बिल को कमजÞोर किया है।  भूमि अधिग्रहण के मामले में अब तक सभी सरकारों ने अपनी-अपनी नीति को सर्वश्रेष्ठ कहा है। भूमि अधिग्रहण को लेकर सभी सरकारें उद्योगों के साथ पूरी ताकत से खड़ी रही हैं। यह गलत तो नहीं है, लेकिन नए कानूनों में खेती, जंगल, मवेशी, पानी, पहाड़ और धरती से किसी को हमदर्दी नहीं है। 
पूर्व में अधिग्रहित औद्योगिक क्षेत्र बड़े पैमाने पर खाली पड़े हैं; बंजर भूमि का विकल्प भी हमारे पास है, लेकिन उसका इस्तेमाल हम करना नहीं चाहते। ताजा अधिग्रहणों में जरूरत से ज्यादा भूमि अधिग्रहण की शिकायतें हैं। खेती व खुद को बचाना है, तो भूमि तो बचानी ही होगी। किसान खेत के माध्यम से सिर्फ अपना पेट ही नहीं भरता; वह दूसरों के लिए भी फसलें उगाता है। उसके उगाये चारे पर मवेशी जिंदा रहते हैं। जिनके पास जमीनें नहीं हैं, ऐसे मजदूर व कारीगर अपनी आजीविका के लिए  कृषि भूमि व किसानों पर ही निर्भर करते हैं। इस तरह यदि किसी अन्य उपयोग के लिए बड़े पैमाने पर कृषि भूमि ली जाती है, तो इसका खामियाजा स्थानीय पर्यावरण को भी भुगतना पड़ता है। उन्हें कौन मुआवजा देगा? सवाल कई हैं इस बिल में निजी कार्यों के लिए उपजाऊ कृषि भूमि को हतोत्साहित करने का कोई प्रावधान नहीं है, बस अधिक पैसे देकर किसानों की भूमि लेना ही प्रमुख है।






सजा के बाद निराशा
उम्र और क्रूरता के बीच सीधा रिश्ता नहीं होता लेकिन जब क्रूरता उम्र पर हावी हो तो उम्र नहीं क्रूरता ही देखी जानी चाहिए। दामिनी रेप केस में नाबालिग को तीन साल की सजा मिली है।



दि ल्ली में गैंगरेप के नाबालिग यानी जिसकी उम्र अठारह साल से कुछ कम थी, को जुबेनाइल जस्टिस कोर्ट से सजा मिल चुकी है। इस सजा से पीड़ित का परिवार और सामाजिक रूप से सक्रिय लोग निराश हैं। लोगों के निराश होने का कारण लड़के को कम सजा होना नहीं, बल्कि उसकी क्रूरता के जो किस्से सामने आए थे, उसके अनुसार सजा न मिलने से निराश हैं। लड़के ने जो क्रूरता बरती थी उससे नहीं लगता है कि वह कानून व्यवस्था से डरने वाला  किशोर था। आज लोग इस कानून को बदलने की बात कर रहे हैं। बलात्कार को लेकर  भारतीय दंड संहिता में18 साल से कम उम्र में किए गए अपराध को बाल अपराध मानता है। इस बाल अपराध की अधिकतम तीन साल की सजा के साथ आरोपी को बाल सुधार गृह भेज देता है। यही कानून इस क्रूर अपराधी के बचने का कारण है। देश में हलचल मचाने वाले इस बर्बर गैंगरेप और हत्या के केस में आरोपी को फायदा मिल चुका है। दूसरी तरफ लड़की के पिता ने बालिग और नाबालिग का भेद मिटाने की अपील की है। पीड़िता के पिता ने कहा है कि बलात्कारी सिर्फ बलात्कारी है और उसे सख्त सजा दी जानी चाहिए। फांसी के अलावा कोई रास्ता नहीं होना चाहिए। यह विचार पीड़िता के परिजनों के हैं लेकिन बहस और विचार का मुद्दा है कि ऐसे नाबालिग जो क्रूरता और हत्या में शामिल हों, उनके मामले में उनकी मानसिकता को भी शामिल करना आवश्यक है। ऐसे मामले में भौतिक उम्र के आधार पर नाबालिग न माना जाए। उनकी मानसिक उम्र से भी उनके अपराध की गंभीरता को आंका जाना चाहिए।
आज दिल्ली के सर्वेक्षणों में यह बात साबित हो रही है कि नाबालिग की बड़े अपराधों में भागीदारी बढ़ रही है। ज्यादातर गलत काम करते हुए नाबालिग जानते हैं कि वे बच जाएंगे। ऐसे में यह छूट बेमानी हो जाती है। अब दूसरा सवाल है कि मौजूदा भारतीय कानून बलात्कार या महिलाओं के खिलाफ अपराध को   लेकर संवेदनशील नहीं है। जबकि ये वो इंसान है जो भले ही नाबालिग हो लेकिन उसने काम राक्षसों का किया। लड़की को टॉर्चर करने का सबसे जघन्य अपराध उस पर साबित हो चुका है। लड़की की मौत का सबसे बड़ा जिम्मेदार ये लड़का ही है। जांच में साबित हुआ है कि खुद को नाबालिग बताने वाले इस लड़के ने गैंगरेप के दौरान लड़की पर बेतरह जुल्म ढाए। हालांकि उतने ही दोषी वो लोग भी हैं जो इसके साथ थे या यह जिनके साथ था।
नाबालिगों के लिए बने कानून की बात करें तो नाबलिग कानून तब बनाया गया था जब समाज में इतनी आक्रामकता और हिंसा नहीं थी। जिन नौनिहालों को ध्यान में रख कर पहले के कानून बनाए गए थे..जिनसे यदा-कदा ही अपराध हो जाया करते थे। बच्चे तब अबोधता में ही रहा करते थे। लेकिन आज प्मासूमियत नहीं रहीं। नई पीढ़ी निरंकुश और स्वेच्छाचारी होने के कारण अपराध की ओर तेजी से अग्रसर है। बेहद क्रूर और विकृत मानसिकता वाले नए  नाबालिगों को सजा से मुक्त नहीं किया जा सकता।


पारिवारिक कलह निजी जीवन में अशांति का बड़ा कारण बन रही है। इससे स्त्री पुरुष दोनों परेशान हैं। लेकिन ऐसा क्यों हो रहा कि यह कलह अत्यंत हिंसक होती जा रही है।
पारिवारिक कलह में


इंदौर की घटना ने एक बार फिर पारिवारिक कलह के भयावह परिमाण उजागर किए हैं। परिवारों में खासकर एकल परिवार जिन्हें आजकल न्युक्लियर परिवार कहा जाता है, इनमें आपसी कलह के चलते हिंसा और आत्महत्या के मामले बढ़ रहे हैं। सामान्य रूप से यह कोई राजनीतिक संकट नहीं है लेकिन यह एक बड़े सामाजिक संकट के रूप में उभर कर सामने आ रहा है। परिवार में पति पत्नी के अलावा कोई नहीं होता। बच्चे पति पत्नी की लड़ाई को समझते नहीं हैं। इस कलह के दौरान वे सिर्फ मानसिक प्रताड़ना ही भुगतते रहते हैं और अक्सर गुमसुम रहने लगते हैं। पति-पत्नी की रोज रोज की लड़ाई, झगड़ा और कलह से क्रोध, आवेश, कुंठा और घृणा को ऐसा जहर बनता है जिसमें व्यक्ति हत्या अथवा आत्महत्या की और अग्रसर हो जाता है। करने के बाद उसे होश आता है कि आखिर उसने क्या कर डाला। इंदौर की इस घटना में भी क्रोध की पराकाष्ठा, पूर्व में चल रही कलह से पैदा घृणा और व्यक्ति की हताशा प्रमुख है। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि हत्या अथवा आत्महत्या अंतर्मुखी और बहिर्मुखी व्यक्तित्व का हिस्सा होती हैं। पारिवारिक कलह में आत्म-हत्या करने का निर्णय एक ‘फ्रिक्शन आॅफÞ सेकेण्ड का निर्णय’ है, जब बच्चों अथवा बड़ों का मन बिलकुल हताश हो जाता है. हताश होने के बहुत सारे कारण हों सकते हैं लेकिन किसी भी परिस्थिति में उनका आत्म-विश्वास टूटना या फिर परिस्थितियों का सामना करने की मानसिक विफलता अधिक महत्वपूर्ण होता है. उस वकÞ्त ‘अच्छे’ या ‘बुरे’ का निर्णय करने में वे विल्कुल नाकाम होते हैं. कभी-कभी वे यह भी सोचते है हों शायद ऐसा करने से सभी परिस्थितियां ‘अनुकूल’ हों जाएंगी। लेकिन यह सिर्फ अहंकार का टकराव बन कर रह जाता है। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि आम तौर पर परिवार में कलह, चाहे संयुक्त परिवार ही क्यों न हों, परिवार का कोई भी सदस्य अपनी किसी एक गलती को छिपाने के लिए एक अलग तरह का व्यवहार करने लगता है, जो सामान्य नहीं होता। उसका यह असामान्य व्यवहार प्राय: शक के दायरे में आ जाता है और फिर होती है कलह। यह अक्सर पति -पत्नी के बीच ज्यादा दिखता  है, जो न केवल बच्चों की मानसिक दशा को नकारात्मक तरीके से प्रभावित करता है बल्कि अंत में आत्म-हत्या करने की ओर भी उन्मुख करता है। इनमें अधिकांशत: पुरुष ही आगे होते हैं। पिछले वर्ष 2011 में कुल 33,000 ऐसी आत्म हत्याएं हुर्इं जिसमें पुरुषों की संख्या पैसठ फीसदी से ज्यादा थी। जीवन का अंत किसी भी स्थिति में समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। इस मनोदशा की उत्पत्ति अधिकाशत: परिवार से होती है, जहां विभिन्न परिस्थितियों में जन्म लेती है। कार्यस्थल और परिवार के बीच समन्वय न होना भी इसका कारण है। पारिवारिक बंधनों की जकड़न, सहनशीलता की कमी, पारिवारिक अकेलापन आदि के साथ एकल परिवारों में सामाजिक लुब्रीकें ट की कमी देखी जा रही है, इससे पैदा हताशा आत्मघात की ओर धकेलती है।

शुक्रवार, अगस्त 30, 2013

संसद की सर्वोच्चता की चिंता



  हमारे सांसद निहित स्वार्थों के उदाहरण बनते जा रहे हैं। संसद की सर्वोच्चता की चिंता, जनप्रतिनिधि कानून में बदलाव जनता की आकांक्षा के खिलाफ, संसद अपने भविष्य की चिंता में डूबा हुआ समूह दिखाई देने लगी है।


आपराधिक मामलों में सजा पाए सांसदों को चुनाव मैदान से दूर रखने की सुप्रीम कोर्ट की कोशिशों को हमारे माननीय सांसदों ने नकार दिया है। राजनीतिक पार्टियों ने राजनीतिक अपराधिकरण के खिलाफ जनता के सामने खूब गाल बजाए हैं लेकिन असल जगह पर वे प्रतिरोध न कर सकीं।  कैबिनेट ने जनप्रतिनिधित्व कानून में बदलाव के फैसले को मंजूरी दे दी है। यह सब सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर संसद का पलट वार ही है। सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका पर कहा था कि अगर किसी आपराधिक मामले में सांसद या विधायक को दो साल से ज्यादा की सजा मिली तो उससे वोट देने का अधिकार छिन जाएगा और वो चुनाव भी नहीं लड़ सकेगा। लेकिन मानसून सत्र से पहले एक सर्वदलीय बैठक में तमाम दलों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सख्त रुख दिखाते हुए इसे बदलने की अपील की थी। इसी विरोध के कारण सरकार जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(4) में बदलाव कर दिया। यह सरकार और राजनीतिक निहित स्वार्थों की मिलीभगत थी। हमारे संविधान का यह अजीब लचीलापन है कि कानून तोड़ने वाला अपराधी ही नए कानून का निर्माता बन जाता है। जबकि देश का सामान्य नागरिक आपराधिक छवि वाले जनप्रतिनिधियों  से  परेशान  है।  राजनीतिक परिदृश्य में उनकी संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। इससे समाज में अपराधियों को प्राश्रय मिलता है और आपराधिक मानसिकता वाले लोग हावी होते हैं। सामाजिक कार्यकर्ता ओमिका दुबे द्वारा दायर याचिका पर गौर करें तो देश में मौजूद 4835 सांसदों और विधायकों में से 1448 के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं। आपराधिक छवि वाले जनप्रतिनिधियों की संख्या में निरंतर बढ़ोत्तरी हो रही है। यह अपराध का राजनीतिकरण है। नामजद और सजायाफ्ता दोषियों को चुनाव लड़ने का अधिकार जनप्रतिनिधित्व कानून के जरिये मिला हुआ था लेकिन इस विधि-सम्मत व्यवस्था के विपरीत संविधान के अनुच्छेद 173 और 326 में प्रावधान है कि न्यायालय द्वारा अपराधी करार दिए लोगों के नाम मतदाता सूची में शामिल नहीं किए जा सकते हैं। यहां सवाल उठता है कि जब संविधान के अनुसार कोई अपराधी मतदाता नहीं बन सकता है तो वह जनप्रतिनिधि बनने के लिए निर्वाचन प्रक्रिया में भागीदारी कैसे कर सकता है? जनहित याचिका इसी विसंगति को दूर करने के लिए दाखिल की गई थी।  न्यायालय ने केन्द्र सरकार से पूछा था कि यदि अन्य सजायाफ्ता लोगों को निर्वाचन प्रक्रिया में हिस्सा लेने का अधिकार नहीं है तो सजायाफ्ता सांसदों व विधायकों को यह सुविधा क्यों मिलनी चाहिए? लेकिन सरकार ने कहा कि वह इस व्यवस्था को नहीं बदलना चाहती। उसने नहीं बदला। हितों के टकराव में सबसे पहले शुचिता पराजय होती है, इस संशोधन में देश की सभी राजनीतिक पार्टियों की स्वीकृति थी। हमारे नेता नहीं चाहते कि राजनीति से अपराधी दूर रहें। इस संशोधन के बाद नेताओं का दागी अतीत, वर्तमान और भविष्य में भी जनप्रतिनिधित्व करता रहेगा।

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युवाओं की कमजोरी
लोकतंत्र में हिंसा की राजनीति स्वीकार्य नहीं हो सकती। भय, भेदभाव और असहिष्णुता जैसे दुर्गुण लोकतंत्र में वैचारिक कमजोरी से आते हैं। लोकतंत्र के लिए युवाओं को वैचारिक दृढ़ता हासिल करना चाहिए।


म ध्यप्रदेश में युवक कांग्रेस में अध्यक्ष पद के उम्मीदवारों के बीच जमकर हंगाम हुआ। हंगामा विचार विमर्श के माध्यम से होता तब भी ठीक था लेकिन इसमें कुछ उम्मीदवार हथियारों के साथ आए थे और कुछ ने इनका इस्तेमाल भी किया। क्या यह युवाओं में लोकतांत्रिक मानसिकता का हास है? ऐसी घटनाएं लगभग सभी पार्टियों में कभी न कभी हुई हैं। लोकतंत्र में धमकी, लोभ, भय, भेदभाव और मानसिक प्रताड़ना का कोई स्थान नहीं है। मानसिक सक्षमता और वैचारिक ताकत ही लोकतंत्र का असली चरित्र है। इसका कारण है कि हम युवाओं को यह विश्वास नहीं दिला सके हैं कि लोकतंत्र में जीत हथियारों की ताकत नहीं सेवा और वैचारिक ताकत से हासिल की जाती  है। इस घटना की व्याख्या ऐसे भी हो सकती है कि कहीं गलत लोग ही इस लोकतंत्र का हिस्सा होने की कोशिश तो नहीं कर रहे हैं। युवा देश के  लोकतांत्रिक इतिहास को नहीं समझेगा, तब तक वह समाज में एक बड़ी जिम्मेदारी के लिए तैयार हो सकता। लोकतंत्र में कच्ची मानसिकता और अधैर्य हथियारों की ओर ले जाता है। क्या युवाओं को लोकतंत्र का अर्थ सिर्फ चुनाव जीतना ही बताया गया है? अगर ऐसा है तो हम सब एक बड़ी भूल कर रहे हैं।
इतिहास को देखें तो भारत की राजनीति को दिशा देने वाले युवाओं में भगत सिंह का नाम सम्मान से लिया जाता है। हिन्दुस्तान के इतिहास में युवा भगत सिंह का होना एक बड़ी घटना थी। मात्र 23 साल की उम्र में उन्होंने देश के विकास के लिए कितने सपने देख डाले थे। देश के युवा उनके इशारों पर फांसी के फंदे को भी चूमने के लिए तैयार रहते थे। उस समय मतवालों की फौज ने ही देश की राजनीति में युवाओं को आगे आने के लिए पथ-प्रदर्शन किया। लेकिन आज यह स्थति नहीं है और बेशक स्थितियां बदली हैं लेकिन आधारभूत तत्व नहीं बदले हैं। प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक व स्तंभकार फ्रेंकलिन पी   एडम्स ने लिखा था- ‘इस देश की परेशानी यह है कि यहां ऐसे कई नेता हैं, जिन्हें अपने तजुर्बे के आधार पर यकीन हंै कि वे लोगों को हमेशा बेवकूफ बना सकते हैं।’ यही चीज हमारे देश के लोकतंत्र में भी लागू होती है। यहां भी कुछ वरिष्ठ नेता सोचते रहते हैं कि वे हमेशा लोगों को भ्रमित करते रह सकते हैं जबकि ऐसा नहीं है। युवा सक्षम और मानसिक रूप से समृद्ध होता जा रहा है। देश में 50 फीसदी से ज्यादा आबादी 40 साल से कम उम्र वाले लोगों की है। यही आंकड़े हमें दुनिया का यंग लोगों को लोकतंत्र बनाते हैं। यही नौजवान किसी भी समाज और देश की सबसे बड़ी ताकत हैं और सबसे बड़े संसाधन भी। किसी देश के विकास की तकदीर युवाओं के माध्यम से लिखी और बदली जाती है। जयप्रकाश नारायण ने भी संपूर्ण क्रांति का सपना इन युवाओं के भरोसे ही देखा था। लेकिन जब युवा भटक जाता है तो विध्वंस की ओर जाता है जहां वह हर चीज नष्ट करने लगता है। हथियारों से लोकतंत्र की लड़ाई नहीं जीती जाती। हमें लोकतंत्र को इस मानसिकता से बचाना है।


चुनौतियों की सुरक्षा
खाद्य सुरक्षा बिल देश के उस आत्मविश्वास का प्रतीक है जिसके बदले देश अपने लोगों को भोजन दे सकता है। दूसरा सवाल ये है कि अगर महंगाई बढ़ती है तो इसका उलटा असर भी हो सकता है।


अंतत: यूपीए सरकार खाद्य सुरक्षा बिल के सहारे लोकसभा चुनावों की नैया पार लगाने के लिए अपने ड्रीम प्रोजेक्ट में सफल हो गई है। यानी बिल पास हो गया है। जनता को अब सस्ती दरों पर अनाज मिलेगा। लेकिन जरूरी सवाल यह है कि देश की जो मौजूदा आर्थिक और वित्तीय स्थिति है, उसमें सरकार फूड सिक्यॉरिटी बिल के अतिरिक्त भार को कैसे संभालेगी?  इस बिल के साथ ही कुछ प्रमुख चुनौतियां भी उभर कर आ रही हैं। बाजार के जानकारों के अनुसार खाद्य सुरक्षा अधिनियम लागू होने के बाद सरकार को अपनी आमदनी में हर साल कम से कम 10-15 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी करनी होगी। अर्थ व्यवस्था के जानकारों के अनुसार बिल के लागू होने के बाद पहले साल का खर्च करीब 1.25 लाख करोड़ रुपये अनुमानित है। यह 2015 तक 1.50 लाख करोड़ रुपए तक पहुंच जाएगा। अहम बात है कि हर साल आबादी बढ़ने के साथ फूड सिक्यॉरिटी बिल का बजट भी बढ़ता जाएगा। इसके साथ ही कीमतों पर कंट्रोल भी किया जाना जरूरी होगा। फूड बिल के तहत राज्यों को सब्सिडी देने के जो दिशा-निर्देश तैयार किए गए हैं, उसके तहत राज्यों को खुले बाजार से वस्तुएं खरीदने की छूट होगी। हालांकि, केंद्र सरकार तय करेगी कि राज्य खुले बाजार से किस सीमा तक महंगी चीजें खरीद सकते हैं? सवाल यह है कि अगर चीजें सरकारी सीमा से ज्यादा महंगी हो गईं तो क्या होगा? मार्केट सर्वे एजेंसी विनायक इंक के प्रमुख विजय सिंह का कहना है कि सरकार को अब थोक और खुले बाजार दोनों की कीमतों में संतुलन बनाए रखना होगा, जोकि एक टेढ़ी खीर है। देश की आर्थिक स्थिति की बात करें तो यह सरकार की महत्वाकांक्षी योजना हो सकती है लेकिन बहुत अधिक और आर्थिक मोर्चे पर बहुत अधिक सुविचारित नहीं कहा जा सकता।  इस समय सरकार के खर्चों पर बात करें तो कुल खर्चा 16.90 लाख करोड़ रुपए है और देश की  कुल आय 12.70 लाख करोड़ रुपये है। इसमें वित्तीय घाटा 5.2 प्रतिशत जीडीपी की तुलना में है।  इस वित्तीय घाटे के अलावा भी कुछ बड़ी दिक्कतें हैं जैसे कि डॉलर के मुकाबले रुपये में गिरावट का लगातार बने रहना। शेयर मार्केट से विदेशी निवेशकों का पलायन, बढ़ती महंगाई, देश से बाहर जाता भारतीय कंपनियों का निवेश, विकास दर में गिरावट आने की आशंका आदि सरकार के सामने बड़ी चुनौतियां होंगी। हालांकि इस पूरे मामले को सिर्फ निराशजनक नजरिये से ही  नहीं देखा जाना चाहिए। सरकार के पास कुछ विकल्प हैं। जैसे कि आमदनी बढ़ाने के लिए टैक्स कलेक्शन में भारी वृद्धि करनी होगी।  इनकम और सर्विस टैक्स का दायरा भी बढ़ाना होगा। निर्यात में कम से कम हर साल 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी के सुनिश्चित प्रयास करना होंगे। आयात में कम से कम हर साल 20 प्रतिशत की कटौती करना होगी। इससे सरकार इस योजना के लिए बजट का संतुलन बना सकती है। लेकिन यह सब कैसे होगा यह सरकार की कुशलता पर निर्भर करता है। 


चुनाव आयोग और मतदाता


निष्पक्ष चुनावों की सारी जिम्मेदारी आयोग निर्वाहन करता है। भारत में चुनाव आयोग की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। लेकिन कालाधन लिए उम्मीदवार और कुछ लोभी मतदाता निष्पक्षता में बड़ी बाधा हैं।                                                                                                                                                                                                                                            

बा त सिर्फ टाटा के कहने की नहीं है। देश की आम जनता भी कई महीनों से चुटकुलों में कहती रही है कि इस देश को कोई नहीं चलाता, यह रामभरोसे चल रहा है। आज हालात ये हो गए हैं कि देश के एक जिम्मेदार और अनुभवी उद्योगपति को राजनेताओं पर बात करना पड़ रही है। नेतृत्व के संकट की बात कहना पड़ रही है। क्यों? इसका एक ही कारण है कि वास्तव में देश को एक सख्त, अनुशासित और मजबूत नेतृत्व की आवश्यकता है। टाटा के कथन के कोई राजनीतिक अर्थ न भी निकाले जाएं तो हमें अपने देश की चिंता करने का अधिकार तो है। देश की अर्थ व्यवस्था पूरे विश्व का हिस्सा है। सफल विदेशनीति के बिना अच्छी अर्थ व्यवस्था संभव नहीं। अफगानिस्तान में भारत के मित्र इस डर से अपनी वफादारी बदल रहे हैं कि 2014 में नाटो सेनाओं की वापसी के बाद वहां पाकिस्तान का प्रभुत्व हो   जाएगा। इधर भारत का राजनीतिक तंत्र ऐसे बर्ताव कर रहा है जैसे कुछ भी गलत नहीं है। वाकई भारत नेतृत्व के संकट का सामना कर रहा है। सोनिया गांधी के पास शक्तियां हैं, लेकिन कोई सरकारी जवाबदेही नहीं है, मनमोहन सिंह के पास जिम्मेदारी है, किंतु कोई शक्ति नहीं है। आज वोट कबाड़ने वाली अदूरदर्शितापूर्ण राजनीति, सख्ती की कमी, भ्रष्टाचार, महंगाई का बार-बार चलने वाला चाबुक, सरकार का अनुशासनहीन मंत्रीमंडल, छोटे दलों की ब्लैकमेलिंग, उनके निहित स्वार्थों की राजनीति और राष्ट्रीय मुद्दों के प्रति ओछा नजरिया आदि, एक लंबी फेहरिश्त है। किसी को पता नहीं देश का राजनीतिक नेतृत्व जनता को छोड़ किसको नेतृत्व दे रहा है। देश की सीमाओं पर हमले हो रहे हैं। सरकार इस मामले में शुतुरमुर्ग की तरह मुंह छिपा लेती है। यह देश असफल कूटनीति, कमजोर अर्थ व्यवस्था और घटिया विदेश नीति को ढोता हुआ लगता है। ये सारी बातें हमें एक सख्त नेतृत्व की मांग की बात करती हैं। देश के नेताओं में किसी विषय पर कोई गंभीरता नहीं नजर आती। वे बचकाने बयान देते हैं।  फेसबुक पर मजाक उड़ता है तो वे उसे ही संपादित करने की बात करने लगते हैं। यह जनता को प्यार करने वाला और दूरदर्शिता से भरा राजनीतिक नेतृत्व नहीं हो सकता। कोई भी व्यक्ति या पार्टी  देश का प्रधानमंत्री बनने के लिए राजी होता है तो इसका मतलब है कि उस देश के नागरिकों के सुख-दुख का जिम्मेदार भी उसे होना होगा। जिम्मेदारियों से बच कर देश का विश्वास नहीं जीता जा सकता। अगर रतन टाटा ने कहा है कि देश में नेतृत्व की कमी के कारण आर्थिक समस्याएं गहरा रही हैं तो उन्होंने गलत नहीं कहा है।  देश को ऐसे नेताओं की जरूरत है जो आगे आकर देश का नेतृत्व करें। इसका अर्थ है कि किसी को नेतृत्व के लिए धकेल कर आगे न किया जाए। देश के जिम्मेदार राजनीतिक वर्ग को एक दिशा में काम करने की जरूरत है। राष्ट्रहित से ऊपर, निजी एजेंडों पर काम नहीं होना चाहिए। आर्थिक स्थिरता सफल राजनीतिक नेतृत्व का प्रतीक कही जा सकती है। उम्मीद है देश के नेता सामूहिक रूप से इस बात के निहितार्थ समझेंगे।

रविवार, अगस्त 25, 2013

MONDAY, APRIL 20, 2009

कीमत है कम

बाजार है बड़ा-मगर कीमत नहीं है
खूबसूरत मॉल है सुन्दर सी शॉपी है
मगर कीमत है कम

छोटी-छोटी कीमत पे बिकता है सब
कला भी है यहां मगर कीमत है कम

कीमत के टैग पे जैसे टंगा है सब
धीरे-धीरे ही सही, बिकता है सब

मैंने भी देखी दुनिया, मैं भी हूं यहीं का
मैंने भी खोला मॉल, मेरे अपने दिल का

लोग आए बहुत-दुनिया के दिलेर बनकर
कोई चैक लाया-हाथों से ख्याति लिखकर
कोई आया मॉल में, रुपयों का रूमाल रखकर
कोई आया यूं ही, जेबों में जिज्ञासा लेकर

मेरे मॉल में है सबका स्वागत
मेरे मॉल में है सबकी आगत
लोग हंसते हैं अपने स्वगत
कुछ लोग यहां हैं बड़े बेगत


मेरे सीने की जागीर मेरे दिल का मॉल है
द्वार पर शहरियों का अजीब हाल है
मॉल में हर तरफ मुहब्बत का जाल है
मॉल में एक से बढ़कर एक सामान है

प्यार की मूरत है, लौंडी खूबसूरत है
कर ले कोई मैरिज, खुली सूरत है


सोच में बैठे हैं सब सर माथे को लिए
मैंनेजमैंट की डिग्री में कहीं ये व्यापार नहीं
व्यापार की दुनिया में ये कैसा व्यापार है
माल है और सजा है सब
बिकने की शर्त पे रख है सब

मगर लोगों का कैश है रखा है सब
न चलता है न फु दकता है
कुछ तो मायूस हो लौट गए
कुछ जिद्दी हैं अहंकारी डटे हैं

इस दुनिया से बाहर रखा क्या है
कहते हैं माल कुछ लेके जाएंगे यहां से
ये कौन समझाए उनको
इस माल में चलता नहीं डालर

इस माल में चलते हैं वे सिक्के
जिनपे कीमत भी खुद खोदना है
न सरकार है न टैक्स है यहां
बस कीमत थोड़ी देना है यहां
मेरे सीने की जागीर पर खुला दिल का माल है
यहां चलता है सिक्का मगर किसी और का नहीं

रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
आपके सुझावों और कविता में प्रयोग, बिम्ब, शीर्षक आदि के सुधार के लिए विचार और सलाह आमंत्रित है।

शुक्रवार, अगस्त 23, 2013

न रेंद्र दाभोलकर की हत्या

  अंधविश्वास और जादू टोना के खिलाफ संघर्ष कर रहे पेशे से डॉक्टर नरेंद्र दाभोलकर की शहादत के बाद महाराष्ट्र सरकार ने अंधविश्वास एक्ट लाने का फैसला किया है जबकि यह बहुत पहले होना चाहिए था।


रेंद्र दाभोलकर की हत्या से यह तो साबित हो गया है किसी व्यक्ति को भूत प्रेत और जादू टोना से नहीं मारा  जा सकता। जादू टोना और अंध विश्वास की दम पर जनता को गुमराह करने वाले उनके दुश्मन थे। दाभोलकर की शहादत ने यह तो साबित कर दिया है कि वैज्ञानिक सोच के दुश्मन इस लोकतंत्र में पल रह हैं। इस विज्ञान की प्रधानता वाले समय में सबसे अधिक अंध आस्था और अंधविश्वासों से भरे काला जादू टोने टोटकों को जिस माध्यम ने सबसे प्रचारित किया है उनमें मीडिया की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। अंध विश्वास के कारण होने वाले अपराधों की आधिकारिक रिपोर्टें बताती हैं कि  केवल असम जैसे छोटे राज्य में 2001 से लेकर 2012 तक डायनों की मान्यता के चलते 61 लोग मारे जा चुके हैं। लेकिन आज तक एक भी मामले में सजा नहीं हुई है। जो लोग डायन बताकर हत्या करते हैं, वे बच निकलते हैं, क्योंकि ऐसे मामलों में कोई गवाह  नहीं मिलता है। इसके अलावा किसी एक को दोषी बताना संभव नहीं होता क्योंकि यह काम भीड़ करती है।
आज इलेक्ट्रिोनिक मीडिया, इंटरनेट आदि साधनों के माध्यम से धन बढ़ाने वाले अधंविश्वास, सामाजिक भेदभाव बढ़ाने वाले अंधविश्वासों ने समाज ेमें विज्ञान की महत्ता, ईमानदारी, सादगी जैसे विचारों को एक तरफ रख दिया है।  अंधआस्था की आंधी में वैज्ञानिक लोकतंत्रिक विचारधारा में रहने वालों को भी प्रभावित किया है। कई नेता समाज सेवा की जगह इन अंध आस्थाओं को बढ़ावा देते रहे हैं। श्रद्धा और अंधश्रद्धा में फर्क है। श्रद्धा हमें विवेकवान बनाती है। अंधश्रद्धा विवेक को खारिज कर देती है, तर्क का तिरस्कार करती है। श्रद्धा किस जगह पहुंच कर अंधश्रद्धा का रूप ले लेती है, यह अकसर मालूम नहीं चलता। लोग अंधश्रद्धा को ही धर्म तक समझ लेते हैं। आज से करीब छह शताब्दी पहले संत कबीरदास ने अंधश्रद्धा की अमानवीयता को शिद्दत से महसूस किया था। कबीर संत थे। ईश्वर में गहरा यकीन करते थे। लेकिन, ईश्वर के विधान के नाम पर समाज में व्याप्त अंधविश्वासों की उन्होंने आलोचना की। अंधविश्वासों के नाम पर होनेवाले सामाजिक भेदभाव, अस्पृश्यता की अमानवीयता के खिलाफ आधुनिक वैज्ञानिक सोच वाले लोगों  ने लंबा संघर्ष किया। दाभोलकर उनमें से एक थे। इस आस्था में छिपे शोषण को उजागर किया। आज तमाम तरक्की के बावजूद 21वीं सदी में भी यह संघर्ष आसान नहीं हुआ है, बल्कि मौत का खेल हो गया है!  पेशे से डॉक्टर रहे दाभोलकर तंत्र-मंत्र, जादू-टोना व दूसरे अंधविश्वासों को दूर करने के मिशन में जिस तरह से लगे हुए थे। वह धर्म के स्वयंभू ठेकेदारों को कभी रास नहीं आया। दाभोलकर की हत्या एक व्यक्ति की हत्या नहीं है, यह एक लंबे समर्पण के  बाद वैज्ञानिक तार्किक आधुनिक विचारों की हत्या है। उन्हें आधुनिक कबीर की संज्ञा दी जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। आज अंधविश्वास और भेदभाव को रोकना लोक कल्याणकारी सरकारों की प्राथमिकता में शामिल होना चाहिए।

शुक्रवार, अगस्त 09, 2013

बाजार आनलाइन

 

भारत में इंटरनेट उपयोग करने वाले आज दस फीसदी लोग ही आनलाइन शॉपिंग करते हैं।  आने वाले समय में इंटरनेट पर शॉपिंग करने वालों की संख्या में काफी इजाफा होगा। कंपनियां तैयार हैं।

आने वाले आॅनलाइन वक्त की आहट तकनीकी और बाजार दोनों में दिखाई देने लगी। हाल ही में देश की सबसे बड़ी आॅनलाइन शापिंग वेबसाइट फ्लिपकार्ट ने 1200 करोड़ जुटाकर आॅनलाइन बिजनेस में नई हलचल पैदा कर दी। देश में बढ़ रहे ई-बाजार में पैठ जमाने के लिए आॅनलाइन शॉपिंग कंपनियां कमर कस रही हैं। अमेजन की एंट्री के बाद तो देश में ई-कॉमर्स का बिजनेस बेहद गरम हो गया है। एक साल पहले 3000 रुपये का फोन और 1 रूपये में इंटरनेट जैसे नारे नए ग्राहकों का बूम लेकर आते हैं। यह इसलिए भी सफल होने जा रहा है कि इसमें ग्राहक को घर से बाहर नहीं निकलना होता है। टेलीकॉम कंपनियों का ये पैंतरा आॅनलाइन शॉपिंग वेबसाइटों को बहुत भा रहा है। दरअसल स्मार्टफोन पर इंटरनेट के बढ़ते चलन ने छोटे शहरों के खरीदारों को सीधे इन वेबसाइटों से जोड़ दिया है। आॅनलाइन शॉपिंग वेबसाइटों के मुताबिक छोटे शहरों के खरीदारों की संख्या लगातार बढ़ रही है। टेक्नोपेक के अनुमान के मुताबिक 2020 तक भारत में ई-कॉमर्स का कारोबार 12 लाख करोड़ रूपए का हो जाएगा। दरअसल ये दौड़ इसी बाजार पर कब्जा जमाने की है।  इस साल अब तक आॅनलाइन शॉपिंग कंपनियां करीब 1000 करोड़ रूपये जुटा चुकी हैं। और हाल ही में अकेले फ्लिपकार्ट ने 1200 करोड़ रूपये जुटाए हैं। कंपनियों के मुताबिक भारत में ई-कॉमर्स का दूसरा दौर शुरू हो चुका है। हालांकि ई-कॉमर्स कंपनियों की लागत अभी भी ’यादा है। इसलिए अधिकतर आॅनलाइन कंपनियां मार्केटप्लेस मॉडल को अपना रही है जहां थर्ड पार्टी सीधे अपना सामान बेच सकती हैं। जानकारों के मुताबिक भारत में इंटरनेट उपयोग करने वाले सिर्फ दस फीसदी लोग ही आॅनलाइन शॉपिंग करते हैं। आगे आने वाले समय में इंटरनेट पर शॉपिंग करने वालों की संख्या में काफी इजाफा होगा।
देश की प्रमुख चाय कम्पनी गुडरिक अंतराष्ट्रीय बाजार में आॅनलाइन बिक्री करने के लिए अपने वेबसाइट में सुधार कर रही है। गुडरिक ब्रिटेन की कैमेलिया पीएलसी समूह की कम्पनी है। कई छोटी बड़ी कंपनियां भी इस कारोबार में पूरी तरह तैयार होकर उतर रही हैं।
गुडरिक जैसी कई कंपनियों ने घरेलू और अंतराष्ट्रीय बाजार में एक साथ आॅनलाइन बिक्री करने के लिए अपनी कम्पनियों ने पहले ही वेबसाइट में सुधार करने के लिए एजेंसियों को नियुक्त कर लिया है। कई कंपनियों के उच्च अधिकारियों के अनुसार अगले छह महीने में अंतराष्ट्रीय ई-सेलिंग के लिए भारतीय वेबसाइटों व्यापक रूप से सुधार होने जा रहा है। वर्तमान में जो  सॉफ्टवेयर उपयोग किए जा रहे हैं वे सिर्फ भारत में ई-सेलिंग के लिए ठीक है। लेकिन अंतराष्ट्रीय बिक्री में दिक्कत आती है। आने वाले समय में ई बाजार की यह अवधारणा बाजार की मुख्यधारा होगी। देश की कंपनियों और इस विषय के जानकारों को रोजगार मिलेगा लेकिन इस सेवा में होने वाली दिक्कतों के लिए कानून की आवश्यकता भी होगी।

कागज और पर्यावरण

 आलेख

कागज और पर्यावरण

रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
टॉप -12, हाई लाइफ कॉम्पलेक्स चर्च रोड, जहांगीराबाद, भोपाल
संपक्र 0755 4057852
982682660


कागज हमारे चारों तरफ है और हर रोज इस्तेमाल में भी आता है। हम शायद ही कभी यह एहसास करते हैं कि हम जिस कागज पर लिख रहे हैं वह हजारों एकड़ जंगल की लड़की को काट कर बनाया गया है। कागज हमारे जंगलों को कितना नष्ट कर रहा है, इसके तथ्यों की जानकारी हमें पर्यावरण को हो रहे नुकसान को बता सकती है। दस जुलाई कागज विहीन दिवस है। इस दिन स्कूली बच्चों और कार्यालयों में कागज का इस्तेमाल नहीं करने की परंपरा है।
इस परंपरा को तोड़ने के लिए देश में कई संस्थाएं, आयोग और कंपनियां अपने स्तर पर काम कर रहे हैं।  यहां कुछ उदाहरण दिए जा रहे हैं जो कागज को बचाने के माध्यम से जंगल बचाने की मुहीम तक जाते हैं। बीमा नियामक एवं विकास प्राधिकरण (आईआरडीए) बीमा पॉलिसियों को कागज विहीन करने व इसके लिए एक कोष की स्थापना पर विचार कर रहा है। यह व्यवस्था शेयर बाजार के डीमैट खातों की तर्ज पर की जाएगी। आईआरडीए के सदस्य सुधीन रॉय चौधरी ने इस बारे में जानकारी देते हुए कहा कि हालांकि यह प्रस्ताव प्रारंभिक स्तर पर है। लेकिन आने वाले समय में निगम के ग्राहक बीमा पॉलिसियों को कागजी स्वरूप में रखने की बजाय डीमैट व कागज विहीन स्वरूप में रख सकेंगे। हालांकि शेयर बाजार की तरह कागज विहीन पॉलिसी अनिवार्य नहीं, बल्कि ऐच्छिक होगी व ग्राहक के पास इसे लेने या न लेने का विकल्प होगा। इसके लिए एक पृथक व स्वायत्त संस्था का गठन किया जाएगा। इस संस्था का नियमन भी आईआरडीए ही करेगा। यह एक समाचार है जो हमें बताता है कि पेपर लेस होने की दिशा में हम किस तरह कदम बढ़ा रहे हैं।
कागज को खर्च करने में कई उद्योग और संस्थाएं हैं जहां कागज एक बार इस्तेमाल होने के बाद बेकार हो जाता है। यह मात्रा बेहद अधिक होती है। हमारी संसद में जब कुछ लाइनों का एक प्रश्न पूजा जाता है तो उसमें खर्च होने वाले कागज का अनुमान लगाया जा सकता है। इस संबंध में जो जानकारी है उससे अनुमान लगाया जा सकता है कि हम कितना कागज खत्म करते हैं। संसद के किसीसत्र में प्रश्नकाल के दौरान पूछे गए हरेक सवाल पर गृह मंत्रालय का जवाब करीब 113 पृष्ठों में होता है। मीडिया में बांटने के लिए इसकी औसतन 500 प्रतियां तैयार की जाती हैं। इस प्रकार महज एक प्रश्न पर कुल मिलाकर करीब 56,500 पृष्ठों की खपत होती है। रिकॉर्ड के अनुसार, गृह मंत्रालय को नियमित तौर पर भेजे गए प्रश्नों की संख्या (821) सबसे अधिक है, जिसके बाद 665 प्रश्नों के साथ वित्त मंत्रालय का स्थान है। इस कवायद की न केवल वित्तीय लागत बल्कि इस पर खर्च होने वाले कागज की मात्रा पर गौर करने से ही दिमाग चकरा जाता है। इसलिए कागज बचाओ अभियान के तहत संसद अब प्रश्नकाल की प्रक्रिया को कागज रहित बनाने की तैयारी करती रही है लेकिन अभी उस पर अमल करने जैसा कुछ सामने नहीं आया है। इसके तहत सरकार अब प्रश्नकाल के दौरान सवाल-जवाब की मुद्रित प्रति बांटने के बजाय कागज बचाने की हर संभव उपाय करने की कोशिश कर रही है। वास्तव में पर्यावरण के अनुकूल यह पहल पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) के दिमाग की उपज है।
पीआईबी के अधिकारियों ने बताया कि शुरू में एक संसदीय समिति विभिन्न कार्यालयों में कागज का उपयोग कम करने के उपायों पर विचार कर रही थी। समिति ने कागज के उपयोग में कटौती करने का सुझाव दिया और कई सांसदों और नौकरशाहों ने इस पहल का स्वागत किया। उधर, पीआईबी ने प्रश्नकाल के दौरान मीडिया को सवाल-जवाबों की मुद्रित के बजाय इलेक्ट्रॉनिक प्रारूप में देने का सुझाव दिया। पीआईबी के एक अधिकारी ने कहा, प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों मीडिया समाचार एकत्रित करने के लिए नियमित तौर पर आॅनलाइन प्लेटफॉर्म एक्सेस करता है। ऐसे में संसद में पूछे गए सवालों को आॅनलाइन एक्सेस करने में उसे कोई कठिनाई नहीं होगी। उन्होंने कहा कि यह हमारी ई-गवर्नेंस और कागज विहीन कार्यालय पहल का हिस्सा है। फिलहाल लोकसभा में 545 सदस्य और राज्यसभा में 250 सदस्य हैं जिन्हें नियमित तौर पर प्रश्नकाल के दौरान पूछे गए सवाल-जवाबों की मुद्रित प्रतियां दी जाती हैं। हालांकि राज्यसभा ने 1 मार्च, 2013 से सवालों की मुद्रित प्रतियां बांटना बंद कर दिया है, लेकिन लोकसभा में संसद के अगले सत्र से ही इस पर रोक लगाई जा सकती है। बहरहाल, पीआईबी के प्रयास से संसद में कागज के उपयोग पर लगाम लगेगी। पहले मीडिया में बांटने के लिए प्रश्नकाल के सवाल-जवाबों की 500 प्रति मुद्रित की जाती थीं, लेकिन इस बजट सत्र से संसद में बांटने के लिए केवल 200 प्रतियां ही मुद्रित की जाएंगी। पीआईबी की प्रधान महानिदेशक नीलम कपूर ने कहा, हम कुछ समय से ऐसा करने पर विचार कर रहे थे। हमने सीडी इत्यादि में सवाल-जवाब भेजने के लिए सभी मंत्रालयों के सचिवों को पत्र लिखा। ऐसा संभव होने पर हमने प्रश्न पत्रों को मुद्रित प्रारूप में वितरण पर रोक लगाने का निर्णय लिया।
इस दिशा में इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद भी बहुत सहायता कर रहे हैं। करेंसी और अन्य प्रकार से कागज के उपयोग पर अंकुश लगेगा। भारत में 10 वर्षों के भीतर एक अरब लोग मोबाइल फोन के संपर्क माध्यम से जुÞड जाएंगे और स्वास्थ्य, शिक्षा   और सामाज सेवा सहित सब कुछ मोबाइल फोन सेवा के जरिए संपन्न होगा। इस तरह तीन दशक के भीतर सभी तरह का लेने-देन डिजिटल हो जाएगा, लिहाजा कागज के नोट लुप्त हो जाएंगे। यह अनुमान व्यक्त किया है सार्वजनिक सूचना, अधोसंरचना और उन्नयन पर प्रधानमंत्री के सलाहकार तथा राष्ट्रीय नवप्रवर्तन परिषद के अध्यक्ष सैम पित्रोदा ने। पित्रोदा का मानना है कि वर्तमान में वैश्विक स्तर पर लगभग पांच अरब मोबाइल फोन के उपयोग और प्रति वर्ष जारी होने वाले 10 अरब से अधिक के्रडिट कार्ड एवं डेबिट कार्ड के कारण 30 वर्षो के भीतर कागज के नोटों की अहमियत लगभग समाप्त हो जाएगी। कैसियो डिजिटल डायरी के अनुसंधानकर्ता पित्रोदा ने अपने ताजा नवप्रवर्तन डिजिटल वैलेट के बारे में बातचीत के दौरान कहा, तीन दशक के भीतर लेने-देन डिजिटल हो जाएगा, लिहाजा कागज के नोट लुप्त हो जाएंगे। पित्रोदा ने आईएएएनएस के साथ एक साक्षात्कार में कहा, यदि आप अपने घर और कार्यालय को कागज विहीन बना सकते हैं, तो बैंक, व्यापार और अपने बटुए को क्यों नहीं? पित्रोदा ने अपने इस विचार को अपनी हालिया प्रकाशित पुस्तक द मार्च आॅफ मोबाइल मनी: द फ्यूचर आॅफ लाइफस्टाइल मैनेजमेंट व्यक्त किया है। पित्रोदा ने कहा, मोबाइल टेलीफोन सेवा उपलब्ध कराने वाली हर कंपनी इसे अपनाएगी। प्रति उपभोक्ता औसत राजस्व में कमी के कारण डिजिटल बटुआ अधिक उपभोक्ताओं को आकर्षित कर सकता है। यह पूरी तरह सुरक्षित है। पित्रोदा की पुस्तक भारत में मोबाइल फोन के विकास पर केंद्रित है, जो कि देश में तेजी के साथ जीवन शैली में शुमार होता जा रहा है। पित्रोदा ने कहा, मोबाइल क्रांति किसी बÞडी रेलगÞाडी के आने जैसा है।
इस समय  देश में 65 करोÞड से अधिक लोग मोबाइल फोन संपर्क से जुÞडे हुए हैं, जबकि चीन में 79.50 करोÞड लोग मोबाइल फोन से जुÞडे हुए हैं। मोबाइल प्रतिदिन माह कई हजार टन बचाने का लोकप्रिय माध्यम बनने जा रहा है। क्योंकि डिजिटल रूप में रसीदों के आने से यह बचत होगी। कागज वनों की खपत का सबसे बड़ा उपभोग्ता है। जंगल बचाने के लिए हम बडेÞ स्तर पर कागज के उपयोग से दूर होना ही होगा। रिसाइकिल के लिए नवीनतम तकनीकों के प्रति उत्सुक होना होगा। कागजविहीन दिवस का अर्थ यही है कि हम कागज के उपयोग से होने वाले पर्यावरणीय नुकसानों को समझ सकें।

रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति,  ग्रीनअर्थ वि वे सोसयटी, मप्र के निदेशक
ग्रीनअर्थ जैविक खेती और पर्यावरण के लिए काम करने वाल संस्थान है

मंगलवार, जुलाई 23, 2013

सूदखोरों का शोषण


 

निजी तौर पर ब्याज पर नकद रकम देना और फिर उसका चार गुना वसूल करना, गांव कस्बों से लेकर प्रदेश की राजधानी में
शोषण का यह कारोबार धड़ल्ले से चल रहा है।



  ध्यप्रदेश के भोपाल में एक व्यक्ति ने सूदखोरों से परेशान होकर रेलवे ट्रैक पर कूद कर आत्म हत्या कर ली। यह एक सामान्य सी खबर हो सकती है लेकिन इसके पीछे सूदखोरी का दुष्चक्र दिखाई दे रहा है। भोपाल जैसे शहरों में जो हालात हैं वह बेहद भयानक हैं। सूदखोरी ने हजारों लोखों परिवारों का जीन दुस्वार कर दिया है। आजादी से पहले सूदखोरी की प्रथा को प्रेमचंद ने भारतीयों के लिए नरक निरूपित किया था।  इसमें गिरने के बाद शायद ही कोई एक दो पीढ़ी तक उबर पाता हो। आज पीढ़ी नहीं लेकिन राज्य के गली कूचों में फैले सूदखोरों द्वारा इनता शोषण किया जा रहा है कि लोगों का पूरा जीवन नरक बन जाता है। गलियों में, झुग्गियों में पलने वाले सूदखोरों ने एक समानांतर पैसे को ब्याज पर देने और उगाहने की क्रूर व्यवस्था बना रखी है। इस व्यवस्था में केवल शराबी, सट्टेबाज और आलसी ही नहीं हैं। बल्कि वे लोग अधिक हैं जो रोज कमाते खाते हैं। निम्न मध्यमवर्ग की बस्ती की हर गली में एक हजार दो हजार पांच हजार दस हजार देने वाले लोग मिल जाएंगे। इनका ब्याज सौ रुपए पर बीस तीस या चालीस रूपए प्रति माह होता है। कई दफा तो सीधा दोगुना भी। इस वेआवाज शोषण के दुष्चक्र में उन लोगों की तादाद अधिक है जो गांव से आकर बसे हैं। मजदूरी और मामूली नौकरी से अपना जीवन बसर करते हैं। रोज का धंधा करने वाले, रेहड़ी, ठेला आदि पर कारोबार करने वाले लोगा अक्सर दो चार हजार रुपए इसी तरह ब्याज पर रुपया लेकर अपना धंधा करते हैं। जब समय पर नहीं चुका पाते तो उनका ब्याज भी मूलधन में बदल जाता है और उनको एक साल में पांच हजार रुपए के बदले पच्चीस हजार भी चुकाना होते हैं। नहीं चुकाने पर धमकी, प्रताड़ना, जबरन वसूली, मारपीट के माध्यम से प्रताड़ित किया जाता है। जो लोग इस तरह सूदखोरी का शिकार होते हैं, वे गरीब और कमजोर तबकों के होते हैं और कई बार उनके परिवार को भी नहीं पता होता कि इतने ऊंचे ब्याज पर कर्ज लिया है।
इस मामले में प्रशासन और पुलिस की भूमिका बहुत कारगर नहीं है। सूदखोर अपने पैसे की दम पर धमकी और मारपीट को थाने तक पहुंचने ही नहीं देता है। ऐसे भी देखने में आया है कि पुलिस के सिपाही धन उगाही में सूदखोरों का सहयोग करते हैं। कई लोगों को पता नहीं रहता कि सूदखोरी भी एक अपराध है। सूदखोरी को उजागर करना, लोगों को इस मामले संवेदनशील बनाना जरूरी है। ब्याज सप्ताहिक 10 प्रतिशत है। याने प्रतिमाह 40 प्रतिशत और वार्शिक 480 प्रतिशत, जिसके तहत कर्ज में सिर्फ पैसा ही लगाया जाता है। जो सबसे खतरनाक है। इसके तहत कर्ज के बदले महाजन के पास जेवर, जमीन व मवेशी रखा जाता है। इसमें सबसे क्रूर बात यह है कि जेवर, जमीन व मवेशी की कीमत वास्तविक मूल्य से 400 फिसदी कम निर्धारित होती है तथा निर्धारित समय पर कर्ज वापस नहीं करने की स्थिति में जेवर, जमीन व मवेशी महाजन का हो जाता है। अधिकांश मामलों में कर्ज वापस नहीं होता है। इस तरह से समाज का एक बडा तबका कर्ज का जीवन जीता है और महाजन इसका लाभ उठाते ह तथा प्रशासन सिर्फ मूकदर्शक बना रहता है। सरकार ने कानून बनाकर सूदखोरी पर रोक लगा रखी है। उल्लंघन पर सजा का भी प्रावधान है। लेकिन पर्याप्त बैंकिंग सुविधाओं के अभाव में बहुत से लोग साहूकारों के चंगुल में फंस कर कर्ज के भंवर जाल में फंस रहे हैं। कई तो मौत को गले लगाने मजबूर हो रहे हैं।





शुक्रवार, जुलाई 19, 2013

दो पैसे के लिए लोगों का धर्म-कर्म सब बिक रहा है

 
बच्चों को भोजन देने में जितनी लापरवाही इस देश में हो रही है उसे देख कर लगता है कि हम किसी आत्माविहीन देश में रह रहे हैं, जहां दो पैसे के लिए लोगों का धर्म-कर्म सब बिक रहा है।





बिहार में मध्यान्ह भोजन त्रासदी में बच्चे अपने जीवन को जीने से पहले ही मौत की तरफ धकेल दिए गए। मध्यान्ह भोजन खाने से बीमार पड़ने जैसे शिकायतें तो आती रहती थीं लेकिन उसमें जहर भी हो सकता है यह कल्पना से परे है। इस
त्रासदी के बाद केन्द्र सरकार ने निगरानी समिति गठित करने का निर्णय किया है जो आपूर्ति किये गए भोजन की गुणवत्ता को देखेगी। उम्मीद की जाती है कि समिति मौजूदा मध्याह्न भोजन निगरानी समिति के प्रयासों को आगे बढ़ाने में मदद करेगी जो साल में दो बार बैठक करती है और राज्यों को किसी तरह की कमी के बारे में सचेत करती है। बिहार के सारण जिले में जहरीला मध्यान्ह भोजन से बच्चों की मौत सिर्फ दुखद है। इसने देश को झकझोरा है। भारत में सरकारी कामकाज गरीबों के लिए कोई मुद्दा ही नहीं है। मिलावटी राशन, खाने के सामान, मिठाइयां, सब कुछ  मिलावट की भेंट चढ़ता जा रहा है। सब कुछ जहरीला हो रहा है।  स्कूलों में खाना खाने वाले बच्चे समाज के सबसे कमजोर तबकों से आते हैं, इसलिए वे ही इसे खाने का खतरा उठाते हैं। अगर यह योजना बच्चों का सिर्फ पेट भरने के लिए नहीं, बल्कि उनके लिए अच्छा पोषण सुनिश्चित करने के लिए है, तो इसमें सबसे ज्यादा ध्यान खाने की गुणवत्ता पर दिया जाना जरूरी है। लेकिन भ्रष्टाचार और लापरवाही इतनी अधिक है कि कहीं  ठीक खाना बच्चों को मिल रहा हो, तो यह उन बच्चों का सौभाग्य है। वरना तो हमारा प्रशासन और इसके लिए जिम्मेदार लोगों ने अपना कर्तव्य और ईमान सब कुछ बेच दिया है। घटना के बाद  राजनेता बयानबाजी करके राजनीतिक लाभ लेना चाहते हैं, उन्हें भी एक बार  सोचना होगा कि इस भ्रष्टाचार और लापरवाह तंत्र को बनाने में उनकी जवाबदेही भी है। इससे पहले भी मध्यान्ह भोजन की गड़बड़ियों को सुधारने की कोशिशें की गईं थीं। ये कोशिशें नाकारा साबित हुईं, क्योंकि इस कार्यक्रम का दारोमदार जिन लोगों पर है, उन्हें ही इस कार्यक्रम पर यकीन नहीं है। हमारे देश में अच्छी योजनाएं बनती हैं, उनके पीछे अच्छे उद्देश्य होते हं, लेकिन उन पर अमल इसलिए नहीं हो पाता, क्योंकि जिन लोगों को लागू करना है, वे इसे नौकरी का हिस्सा मानते हैं। हमारे प्रशासन में किसी को जवाबदेह बनाने की कोई कोशिश नहीं होती। जिन अधिकारियों और शिक्षकों को ग्रामीण बच्चों को पढ़ाने और भोजन देने का काम सौपा जाता है, वे यह मानकर चलते हैं कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले और मिड डे मील खाने वाले बच्चे समाज के निम्न और कमजोर लोगों के बच्चों के लिए है। यह वर्ग मानता है कि इन बच्चों को जैसा भी भोजन मिल जाए, वही काफी है। उस भोजन की गुणवत्ता उनके लिए कोई मायने नहीं रखती। इस घटना के बाद जैसे कि खबरें आ रही हैं कि इस भोजन में जहर था तो यह और भी दुखद है। इस देश में बच्चों के साथ इतनी क्रूरता की जा सकती है तो यह हद दर्जे कि हम किसी आत्माविहीन देश में रह रहे हैं, जहां दो पैसे के लिए लोगों का धर्म-कर्म सब बिक रहा है।

बुधवार, जून 26, 2013

मादक पदार्थ तथा अपराध नियंत्रण

 भारत जैसे संस्कारिक देश के लिए यह बेहद दुर्भाग्य पूर्ण है। आज गली, मोहल्लों, कॉलोनियो तथा स्कूल एवं कॉलेज केम्पस में नशा करते युवक युवतियां सामान्य रूप से हैं। इतना ही नहीं 10 से 11 वर्ष की उम्र के बच्चे भी विभिन्न प्रकार के मादक पदार्थों  का सेवन करते देखे जाते हैं। नशा मुक्ति के सरकार के सारे प्रयास नाकाफी साबित हो रहे हैं। इस बात का पता अंतरराष्ट्रीय नारकोटिक्स नियंत्रण बोर्ड की वर्ष 2009 के अध्ययन की रिपोर्ट से ही चल जाता है। अंतरराष्ट्रीय नारकोटिक्स नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट को गंभीरता से लेते हुए इस दिशा में ठोस कदम उठाये जाने की आवश्यकता है। अन्यथा कल देश का भविष्य आज नशे की गिरफ्त में आ जाएगा।


   भारत में कम उम्र में ही बच्चे नशे की गिरफ्त में जा रहे हैं। पहली बार नशा करने वालों की उम्र महज 10 से 11 वर्ष होती है और नशा करने वाले 37 फीसदी स्कूली विद्यार्थियों को यह पता होता है कि वे कौन सा मादक पदार्थ ले रहे हैं। यह चौकाने वाला खुलासा संयुक्त राष्ट्र के अंतरराष्ट्रीय नारकोटिक्स नियंत्रण बोर्ड की एक अध्ययन की रिपोर्ट से हुआ है। भारत के सन्दर्भ में मादक पदार्थ तथा अपराध नियंत्रण (यूएनओडीसी) के संयुक्त राष्ट्र के दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय कार्यालय की प्रतिनिधि ने  कहा कि दक्षिण एशिया के छह देशों में हेरोइन और अफीम का सबसे ज्यादा सेवन हो रहा है। और इंटरनेट के जरिए भी फार्मा कम्पनियों की आड़ में मादक पदार्थों की तस्करी की जा रही है। भारत के संदर्भ में कहा कि  हमने हाल ही में भारत के 15 राज्यों में दो सर्वेक्षण किए। उनमें पाया गया कि देश में बच्चे सबसे पहले 10 से 11 वर्ष की उम्र में ही मादक पदार्थ का सेवन करने लगते हैं। मादक पदार्थों के आदी हो जाने वाले 37 फीसदी स्कूली विद्यार्थियों को यह भी पता होता है कि वे किस पदार्थ का सेवन कर रहे हैं।
साथ ही नहीं चौकाने वाला एक तय यह भी है कि भारत में महिलाओं में भी नशे करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। भारतीय महिलाओं में भी मादक पदार्थो के सेवन की प्रवृत्ति बढ़ रही है। यह प्रवृत्ती बेहद कम उम्र यानि औसतन 16 वर्ष की उम्र में ही किशोरियां नशे का शिकार हो रही हैं। भारत में औसतन 16 वर्ष की उम्र में ही किशोरियां घुलनशील मादक पदार्थ लेने लगती हैं, जबकि तंबाकू सेवन शुरू करने वाली किशोरियों की औसत उम्र करीब 18 वर्ष होती है। चिंताजनक यह है कि नशे की आदी भारतीय महिलाओं में से 80 फीसदी इलाज के लिए नहीं जातीं। भारत में जितने लोग मादक पदार्थो के आदी हैं, उनमें ‘ओपिएट्स’  अफीम मिली मादक दवा का इस्तेमाल करने वाले 73 फीसदी, ‘कैनेबिस’ भांग के पौधे से बने नशीला पदार्थ लेने वाले 19 फीसदी, ‘सेडेटिव्स’ दर्द निवारक या शामक दवाएं लेने वाले पांच फीसदी, एटीएस सिथेंटिक दवा लेने वाले दो फीसदी और ‘इनहेलेंट्स’ श्वांस के जरिए नशा करने वालों की संख्या एक फीसदी है। नारकोटिक्स नियंत्रण एक जटिल मुद्दा है और हम इससे जुड़े मुद्दों से अवगत हैं। वर्ष 1985 में सरकार ने नारकोटिक्स नियंत्रण के लिए विशिष्ट नीतियां बनाई थीं। इसके बाद वर्ष 2001-02 में हमने सर्वेक्षण कर पाया कि भारत में 7.32 करोड़ लोग अल्कोहल या अन्य तरह के नशे के आदी हैं।’
बहरहाल नशा मुक्ति के लिए बने तमाम कानून और सरकार के कई प्रयासों के बाद भी देश में नशे का प्रचलन तेजÞी से बढ़ रहा है। भारत जैसे संस्कारिक देश के लिए यह बेहद दुर्भाग्य पूर्ण है। आज गली, मोहल्लों, कॉलोनियो तथा स्कूल एवं कॉलेज केम्पस में नशा करते युवक युवतियां सामान्य रूप से हैं। इतना ही नहीं 10 से 11 वर्ष की उम्र के बच्चे भी विभिन्न प्रकार के मादक पदार्थों  का सेवन करते देखे जाते हैं। नशा मुक्ति के सरकार के सारे प्रयास नाकाफी साबित हो रहे हैं। इस बात का पता अंतरराष्ट्रीय नारकोटिक्स नियंत्रण बोर्ड की वर्ष 2009 के अध्ययन की रिपोर्ट से ही चल जाता है। अंतरराष्ट्रीय नारकोटिक्स नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट को गंभीरता से लेते हुए इस दिशा में ठोस कदम उठाये जाने की आवश्यकता है। अन्यथा कल देश का भविष्य आज नशे की गिरफ्त में आ जाएगा।
भारत का पड़ोसी चीन भी मादक पदार्थों की समस्या से ग्रस्त है।
चीन ने देश व क्षेत्र पारीय मादक पदार्थ तस्करी , नई किस्मों के मादक द्रव्य के उत्पादन व बिक्री तथा मादक पदार्थ से प्राप्त काले धन की धुलाई के खिलाफ सिलसिलेवार विशेष कार्यवाहियां की हैं, जिस से मादक पदार्थ से जुड़े अपराधियों के हौसले पर कारगर रूप से आघात पहुंचाया। एक वर्ष के अंदर चीन ने कुल 45 हजार अधिक मादक पदार्थ संबंधी मामलों का निपटारा किया और 58 हजार संदिग्ध अपराधियों को गिरफ्तार किया और विभिन्न किस्मों के साढे 17 टन मादक द्रव्य जब्त किया । इस तरह की त्वरित कार्यवाही से मादक पदार्थों के तस्करी और उपलब्धता प्रभावी तरीके से खंडित होती है।
वर्तमान में विश्व में मादक पदार्थाेंका बोलबाला हुआ, जिस से अनेक देश व क्षेत्र ग्रस्त हो गए और मादक पदार्थों की किस्में बढ़ीं और मादक सेवन वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है । इसलिए चीन में स्थिति भी गंभीर है । सूत्रों के अनुसार चीन की दक्षिण पश्चिम सीमा से सटा म्यांमार ,थाईलैंड व लाओस का गोल्डन ट्रिएंगल चीन को सब से ज्यादा नुकसान पहुंचाने वाला मादक पदार्थ स्रोत हैं। चीन ने म्यांमार , लाओस , थाईलैंड , भारत और पाकिस्तान आदि देशों के साथ मादक पदार्थ नियंत्रण के लिए द्विपक्षीय सहयोग सम्मेलन बुलाए और संयुक्त राष्ट्र मादक पदार्थ पाबंदी व अपराध मामला कार्यालय तथा संबंधित देशों के साथ न्यायिक काम व सूचनाओं के आदान प्रदान पर सहयोग बढ़ाया। इसके बाद भी वर्तमान चीन में मादक सेवन वाले लोगों की संख्या सात लाख 80 हजार है। नई किस्मों के मादक द्रव्य भी पाए गए हैं और मादक पदार्थ से संबंधित अपराधों की समस्या भी सामाजिक सुरक्षा को नुकसान पहुंचाती है ।
वर्तमान समय में अफÞगÞानिस्तान में मादक पदार्थों की तैयारी के लिए पांच सौ कारख़ाने मौजूद हैं और वहां पर नाटो के नियंत्रण के बावजूद प्रतिवर्ष चार लाख टन हेरोइन का उत्पादन किया जाता है। इसको विश्व के लगभग एक करोड़ तीस लाख लोग प्रयोग करते हैं। उन्होंने कहा कि ईरान बहुत ही दूरदर्शिता के साथ मादक पदार्थों से संघर्ष कर रहा है और इस संबन्ध में   वह विश्व में पहले नंबर पर है। मादक पदार्थों के विरुद्ध संघर्ष में ईरान ने अब तक अपने सात सौ से अधिक सुरक्षाबलों की कÞुर्बानी दी है और तस्करों से मुकÞाबले में एक हजÞार तीन सौ जवान घायल हुए हैं। इस्लामी गणतंत्र ईरान ने 2010 और 2011 के दौरान 500 टन मादक पदार्थ जÞब्त किये और मादक पदार्थों के तस्करों के विरुद्ध 1003 से अधिक कार्यवाहियां की हैं। इन कार्यवाहियों के दौरान ईरान के सुरक्षा बलों ने तस्करों के 400 गैंगों को नष्ट कर दिया। मादक पदार्थों को ख़रीदना-बेचना और इन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाना यह दोनों ही कार्य अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अपराध माने गए हैं। इस प्रकार के अपराध का मुकÞाबला करने के लिए वास्तव में स्थानीय एवं अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भरपूर सहयोग एवं सहकारिता की आवश्यकता है साथ ही इस कार्य के लिए संयुक्त योजनाबंदी भी आवश्यक है। क्योंकि प्रत्येक देश अपनी विशेष नीतियों और सीमित संसाधनों के साथ मादक पदार्थों से संघर्ष के लिए योजनाएं बनाता है अत: हर देश की कार्यवाहियां उसकी सीमाओं के भीतर ही सीमित रहती हैं। यही कारण है कि मादक पदार्थों से संघर्ष के अंतरराष्ट्रीय संगठनों की उपस्थिति के बावजूद अंतरराष्ट्रीय सहयोग बहुत अधिक प्रभावी सिद्ध नहीं रहा है। मादक पदार्थ का सेवन करने वालों की संख्या में तेजÞी से वृद्धि, इस वास्तविकता को दर्शाती है कि यह बुराई विश्व के विकासशील एवं विकसित दोनों प्रकार के देशों के लिए जटिल समस्या बनी हुई है।
 भारत में युवाओं की अधिक संख्या भी इसके लिए जिम्मेदार है। देश में बड़ी संख्या में बच्चे उत्तर पूर्व से मादक पदार्थ तस्करी कर उसे बिहार और उत्तर भारत के अन्य राज्यों में आपूर्ति करते हैं। दिल्ली में 50 हजार बच्चे सड़कों पर रहते हैं। इनमें से ज्यादातर नशीले पदार्थों का सेवन करते हैं। उसकी तस्करी भी करते हैं। बच्चों को बाल मजदूरी और तस्करी के धंधे में धकेलने वाले लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई नहीं की जाती। इससे अपराधी बिना डर के इस तरह की गतिविधियों को अंजाम देते हैं।  कुछ आंकड़े इसकी भयावहता को दर्शाता है- यूएनओडीसी की रिपोर्ट-विश्वभर के 21 करोड़ लोग या 15 से 64 साल उम्र की 4.9 प्रतिशत जनसंख्या नशीले पदार्थों का इस्तेमाल करती है, प्रति वर्ष दो लाख लोग मादक पदार्थों के इस्तेमाल के कारण मारे जाते हैं, मादक पदार्थो की तस्करी दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा व्यवसाय है, वर्ष 2010 में विश्वभर में अफीम की खेती 1,95,700 हेक्टेयर में हुई, अफगानिस्तान में विश्वभर के कुल अफीम उत्पादन का करीब 74 प्रतिशत हिस्सा या 3,600 टन पैदा होता है।
वैश्विक स्तर पर नशीले पदार्थो के बढ़ते इस्तेमाल के खिलाफ दिसम्बर, 1987 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 26 जून के दिन को मादक पदार्थो की तस्करी एवं गैर कानूनी प्रयोग के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय दिवस के रूप में घोषित किया, जिसे आज व्यापक जन समर्थन हासिल है। जब तक कि हम अवैध नशीले पदार्थों की मांग की कम नहीं करते हैं तब तक हम पूरी तरह से उनकी फसलों के उत्पादन या उनकी तस्करी को पूरी तरह से रोक नहीं सकते हैं। विभिन्न रिपोर्टों से स्पष्ट होता है कि यह समस्या वैश्विक है और उसी स्तर पर इससे मुकाबला किया जा सकता है।

गुरुवार, जून 20, 2013

अपसंस्कृति का जहर

उपभोगवादी आधुनिक मानसिकता और निजी स्वतंत्रता मिल कर सामाज में अपसंस्कृति का जहर फैला रही हैं। यह कुत्सित मानसिकता ही है कि सात वचन लेने वाला पति, पत्नी के फोटो सार्वजनिक करता है।

आ ज देश उदारवाद और उपभोगवाद का आनंद ले रहा है। निजी आजादी जो हमको अपने काम करने की स्वतंत्रता और अवकाश देती है, लेकिन उसमें से संयम गायब हो गया है। इस आजादी को लोगों ने मानसिक कुत्साएं पूरा करने और पैसे कमाने की लालसा से भर लिया है। निजी आजादी के नाम पर कुंठित और प्रदूषित मानसिकता की अभिव्यिक्ति होने लगी है। हम जीवन को एक यज्ञ की तरह नहीं, उपभोग के वीभत्स उपकरण की तरह स्वीकार कर रहे हैं। जीवन के अनुशासनों को हमने दूर रख दिया है।
हाल ही में घटना घटी है जिसमें पति अपनी ही पत्नी के न्यूड फोटो अपने मित्रों को ईमेल करता था। इससे पहले सेना के कुछ अधिकारियों के बारे में खबर आई थी कि वे अपनी पत्नियों को अन्य के साथ संसर्ग करने के लिए दबाव डाल रहे थे। आखिर हमारे जीवन में इस तरह के विकारों को जगह  कैसे मिली? क्या यह पैसे की अधिकता, उपभोगवादी मानसिकता और संस्कार रहित जीवन का प्रतीक है? आधुनिक जीवन शैली और काम के बोझ के कारण जीवन से रचनात्मकता खत्म हो रही है। एक ओर हम आधुनिकता की होड़ में अपनी संस्कृति से अलग होते जा रहे हैं। अपने संस्कार भूलते जा रहे हैं। दूसरी ओर, पश्चिमी संस्कृति को भी नहीं अपना पा रहे हैं, क्योंकि अपनी संस्कृति का मोह हम नहीं छोड़  पा रहे हैं। इस तरह जो सांस्कृतिक घालमेल हमारे जीवन में हो रहा है, उससे जो अपसंस्कृति तैयार हो रही है, उससे हमारा सामाजिक अनुशासन टूट रहा है। हम पश्चिम को अराजक मानते रहे हैं जबकि वहां जीवन पूरी तरह सामाजिक अनुशासनों में बंधा है। वहां कानून का शासन है, वहां सड़क पर पैदल चलते व्यक्ति को कार का हार्न बजा कर चौंकाया नहीं जाता। कार रोक ली जाती है। वहां रात को अकेली लड़की देख कर कोई छेड़ता नहीं है। लेकिन हम इस सबको लेकर कुंठित हो जाते हैं। अधकचरी जानकारी और अपनी जड़ों से कटने का नतीजा है कि हमारी नई पीढ़ी भी भटकाव का शिकार है। इसमें बच्चे भी भटक रहे हैं। उनमें नशाखोरी बढ़ रही है। उनको माता पिता का साया मिलना मुश्किल हो रहा है। विज्ञापन युग की बाजारवादी संस्कृति के बारे में ज्यां बोद्रिला कहते हैं कि इस विकराल उपभोग से जन्मी संस्कृति ही हमारे समय की संस्कृति है। इस संस्कृति ने सभी परंपरागत मूल्यों-अवधारणाओं को खत्म कर दिया है।  हम ‘आर्थिक मनुष्य’ बनने की विवशता झेल रहे हैं, जिसमें कलाओं के लिए जगह ही नहीं बची है, पुस्तकों को क्यों पढ़ें? उनका संसार खिन्नता की मन:स्थिति रचता है। वाल्टर बेंजामिन ने टेक्नोलॉजी के उदय में मनुष्य की मुक्ति का जो सपना देखा था वह टूट चुका है। टेक्नोलॉजी ने भयानक दासता को जन्म देकर हमें कब्जे में कर लिया है। आज उपभोग की संस्कृति ने नैतिक मूल्यों को अपदस्थ कर दिया है।  इस सदी के भारत में बेरोजगारी नहीं बल्कि लोगों में बढ़ रही अपसंस्कृति की समस्या प्रमुख होगी। यह समस्या समाज के लिए चुनौती बन कर उभर चुकी है।

मंगलवार, जून 11, 2013

रिपोर्ट न लिखने पर पुलिसकर्मी को जेल हो सकती है

 परंतु पुलिस के आचरण में आज भी कोई खास बदलाव नहीं दिखता है। गांवों से लेकर महानगरों तक में पुलिस सुधार की तमाम बातें अभी तक हवा-हवाई ही साबित हुई हैं। अहम सवाल यह है कि लोगों की रक्षा करने वाली पुलिस लोगों को परेशान करने वाली भूमिका में आखिर क्यों नजर आती है?


  रिपोर्ट न लिखने पर पुलिसकर्मी को जेल हो सकती है। यह अच्छी शुरुआत है जो पुलिस के रवैये को बदल सकती है। यानी एफआईआर को दर्ज करने से इंकार करने वाले पुलिसकर्मियों को जेल भेजा जाएगा। सामान्यत: कई पुलिस कर्मियों की आदत में शुमार हो चुका है कि वे प्रथम सूचना रिपोर्ट लिखाने गए व्यक्ति को ही थाने में बिठा लेते हैं। रिपोर्ट लिखने में आनाकानी करते हैं। यह कहना कि यह हमारे थाना क्षेत्र का मामला नहीं है। कई बार प्रभावशाली व्यक्ति को पहले सूचित करना कि आपके खिलाफ हमारे यहां रिपोर्ट करवाने के लिए फलां व्यक्ति आया है। कानून और व्यवस्था के लिए जिम्मेदार पुलिस महकमे पर यह सबसे गैर जिम्मेदार होने वाले आरोप लगते रहे हैं। ये आरोप सिर्फ आरोप नहीं हैं। इन आरोपों के पीछे तथ्य भी हैं। यहां हम पूरे देश की पुलिस की बात कर रहे हैं लेकिन मध्यप्रदेश के संदर्भ में बात करें तो पुलिस के खिलाफ शिकायत दर्ज कराने के मामले में मध्य प्रदेश देश में दूसरे पायदान पर है। उत्तर प्रदेश तीसरे, जबकि दिल्ली पहले स्थान पर है। देश में 2011 के दौरान पुलिसकर्मियों के खिलाफ शिकायतें मिलने के मामले में  केंद्र शासित प्रदेशों की फेहरिस्त में दिल्ली अव्वल रहा। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की सालाना रिपोर्ट ‘भारत में अपराध 2011’ के मुताबिक, दिल्ली में पुलिस कर्मियों के खिलाफ सर्वाधिक 12,805 शिकायतें मिलीं। उत्तर प्रदेश में पुलिस के खिलाफ मिली शिकायतों की संख्या 11,971 है, जबकि मध्यप्रदेश में पुलिस वालों के खिलाफ 10,683 शिकायतें मिलीं। इसमें एक तथ्य और है। देश में पुलिस के खिलाफ की गई शिकायतों में 47 प्रतिशत शिकायतें झूठी साबित हुई हैं या आरोप प्रमाणित नहीं हो सके। और 53 प्रतिशत में सत्यता पाई गई।शिकायत और अन्य अरोपों के अलावा जन सामान्य में पुलिस की छवि का महत्वपूर्ण स्थान है। सामान्य सत्य लंबे अनुभव और बार बार दोहराव से जन्म लेते हैं। इस प्रयास का प्रतिफल क्या मिलेगा यह बाद में पता चलेगा परंतु पुलिस के आचरण में आज भी कोई खास बदलाव नहीं दिखता है। गांवों से लेकर महानगरों तक में पुलिस सुधार की तमाम बातें अभी तक हवा-हवाई ही साबित हुई हैं। अहम सवाल यह है कि लोगों की रक्षा करने वाली पुलिस लोगों को परेशान करने वाली भूमिका में आखिर क्यों नजर आती है? इसके पीछे  अंग्रेजों के जमाने में बना पुलिस अधिनियम है। जब 1857 का विद्रोह को अंग्रजों ने दबा दिया तो यह बात उठी की भविष्य में ऐसे विद्रोह नहीं हो पाएं। इसी के परिणामस्वरूप 1861 का पुलिस अधिनियम बना। इसके जरिए अंग्रेजों की यह कोशिश थी कि कोई भी नागरिक सरकार के खिलाफ कहीं से भी कोई विरोध का स्वर नहीं उठ पाए। पुलिस अग्रेजों की इच्छा के अनुरुप परिणाम भी देती रही।1947 में कहने के लिए अपना संविधान बन गया। लेकिन नियम-कानून अंग्रेजों के जमाने वाले ही रहे। आज इसे बदलने के इस प्रयास को पुलिस की संवेदनशीलता और जिम्मेदारी से जोड़कर देखा जाना चाहिए।

बुधवार, मई 29, 2013

मोबाइल की रिंगटोन खतरे की घंटी हो सकती

  एक छोटे से कस्बे की खबर है कि बैरसिया में लोग मोबाइल टॉव के रेडिएशन से परेशान हैं। आबादी के बीचों बीच नियमों की अनदेखी करने का परिणाम आम जनता को उठाना पड़ रहा है। अत्यधिक आवृत्ति के मोबाइल टॉवर शहर के बीच स्थापित होना एक बड़ी उपेक्षा का परिणाम है। आने वाले समय में मोबाइल की रिंगटोन खतरे की घंटी हो सकती है। मोबाइल फोन और  टावर से निकलने वाला रेडिएशन सेहत के लिए खतरा साबित हो सकता है। टॉवरों की संख्या बढ़ने के साथ रेडिएशन का खतरा भी बढ़ता जा रहा है। देश में लागू इंटरनेशनल कमिशन आॅन नॉन आयोनाइजिंग रेडिएशन के दिशा निर्देश के अनुसार, जीएसएम टावरों के लिए रेडिएशन लिमिट 4500 मिलीवॉट/मी. स्क्वेयर तय की गई थी। ये सीताएं शॉर्ट-टर्म एक्सपोजर के लिए थीं, जबकि मोबाइल टॉवर से लगातार रेडिएशन होता है। अब इस लिमिट को कम कर 450 मिलीवॉट/मी. स्क्वेयर करने की बात होने लगी है। जानकारों के अनुसार यह लिमिट भी बहुत ज्यादा है और सिर्फ 1 मिलीवॉट/मी. स्क्वेयर रेडिशन भी मनुष्य और पशुपक्षियों को नुकसान देता है। भारत की बात छोड़ें तो यही वजह है कि आॅस्ट्रिया में 1 मिलीवॉट/मी. स्क्वेयर और साउथ वेल्स, आॅस्ट्रेलिया में 0.01 मिलीवॉट/मी. स्क्वेयरकी सीमा तय की गई है। मोबाइल रेडिएशन पर कई रिसर्च पेपर तैयार कर चुके आईआईटी बॉम्बे में इलेक्ट्रिकल इंजिनियरों का कहना है कि मोबाइल रेडिएशन से तमाम दिक्कतें हो सकती हैं, जिनमें प्रमुख हैं सिरदर्द, सिर में झनझनाहट, लगातार थकान, चक्कर, डिप्रेशन, नींद न आना, आंखों में ड्राइनेस, काम में ध्यान न लगना, कानों का बजना, सुनने में कमी, याददाश्त में कमी, पाचन में गड़बड़ी, अनियमित धड़कन, जोड़ों में दर्द आदि। एक अन्य अध्ययन के अनुसार मोबाइल रेडिएशन से लंबे समय के बाद प्रजनन क्षमता में कमी, कैंसर, ब्रेन ट्यूमर और मिस-कैरेज की आशंका भी हो सकती है। इसका कारण है कि हमारे शरीर में 70 फीसदी पानी है। दिमाग में भी 90 फीसदी तक पानी होता है। यह पानी धीरे-धीरे बॉडी रेडिएशन को अब्जॉर्ब करता है और आगे जाकर सेहत के लिए काफी नुकसानदेह होता है। यहां तक कि बीते साल आई डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के अनुसार मोबाइल रेडिएशन से कैंसर तक होने की आशंका हो सकती है। इंटरफोन स्टडी में कहा गया कि हर दिन आधे घंटे या उससे ज्यादा मोबाइल का इस्तेमाल करने पर 8-10 साल में ब्रेन ट्यूमर की आशंका 200-400 फीसदी बढ़ जाती है। ये माइक्रोवेव रेडिएशन उन इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वेव्स के कारण होता है, जिनकी आवृत्ति 1000 से 3000 मेगाहर्ट्ज होती है। माइक्रोेवेव अवन, एसी, वायरलेस कंप्यूटर, कॉर्डलेस और दूसरे वायरलेस डिवाइस भी रेडिएशन पैदा करते हैं। इस मामले में देश की सरकारें और नीति बनाने वाले लोग कंपनियों के दबाव में काम करते हैं। आज अवश्यकता है कि इस मामले को सार्वजनिक स्वास्थ्य से जोड़ कर व्यापक हित में देखा जाना चाहिए।

सोमवार, अप्रैल 15, 2013

जल संकट

    जल संकट गांव पूरी धरती की समस्या बन चुकी है।  पानी बचाने के लिए कहीं कुछ किया जाता है तो वह दुनिया के लिए किया गया काम है।
होशंगाबाद जिला पंचायत की बैठक में पेयजल की कमी पर की जा रही तैयारियों ने सबका ध्यान खींचा है। यह समस्या पूरे मध्यप्रदेश की होने जा रही है। प्रदेश में पेयजल की संघर्ष गाथा अप्रैल के आगमन के साथ कई समस्याओं के साथ सामने आ चुकी है। एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश के अधिसंख्य संभाग शहरी और ग्रामीण स्तर पर जल संकट में घिरते नजर आ रहे हैं। आज हालत ये है कि प्रदेश के 365 शहरी निकायों में से 24 प्रतिशत निकायों में पेयजल आपूर्ति गड़बड़ाने लगी है। पानी की गंभीर स्थिति के चलते कुछ ही हफ्तों में भोपाल जिला भी भूजल दोहन के आधार पर खतरनाक जÞोन में पहुंचने के करीब है। भोपाल जिले को ग्रे जोन में रखा गया है। इंदौर के कई निकायों में बहुत कम पानी की आपूर्ति हो पा रही है। प्रदेश के 90 प्रतिशत गांव पेयजल संकट की ओर जा रहे हैं। गंभीर भूजल स्तर के चलते हैंडपंप भी अपना दम तोड़ते नजर आ रहे हैं।
मध्यप्रदेश में ही नहीं पूरे देश में 1980 के दशक के शुरूआती वर्षों में पानी के संकट के संकेत नजर आने लगे थे। तब न तो सरकार ने कोई ठोस पहल की और न समाज ने इस तरफ ध्यान दिया था। कई अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं इस संकट को इतना गंभीर बना देना चाहती थीं कि लोग पानी के निजीकरण और बाजारीकरण का समर्थन करने लगें। आज यह स्थिति बनने भी लगी है। मध्यप्रदेश में जनगणना 2011 के आंकड़ों के अनुसार प्रदेश के 36 प्रतिशत लोग पेयजल के लिए दूर-दूर तक भटकने के लिए मजबूर हैं। विडम्बना यह है कि तेज विकास के इस दौर में लोगों से पानी दूर होने लगा है। इस स्थिति में गंभीर प्रयास आवश्यक हैं। प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन स्तरहीन दृष्टिकोण और दूरदशिर्ता के बिना संभव नहीं हो सकता। प्राकृतिक जल को संरक्षित करने के लिए एक उच्च स्तरीय पहल होना आवश्यक है। अदूरदर्शित वाली नीतियों से यह संभव नहीं हो सकता है। मध्यप्रदेश में वर्षा जल का 90 प्रतिशत पानी संरक्षित नहीं किया जा रहा है। पानी संरक्षण में सबसे अधिक भ्रष्टाचार है। अधिकांश स्टाप डेम संरचनागत खामियों और घटिया निर्माण के चलते अनुपयोगी पड़े हैं। सरकार भूजल प्रबंधन के नाम पर भूजल दोहन की प्रवृत्ति को बढ़ावा दे रही है। हर बार पंचवर्षीय योजनाओं में पुराने नलकूप बंद करके और गहरे नए नलकूप का निर्माण करने के लिए किया जाते रहे हैं लेकिन इससे समस्या सिर्फ तात्कालिक ढंग से दूर होती है। प्रदेश के 5400 गांवों में पानी मुश्किल से मिल पा रहा है।  जल संकट से मुक्ति के लिए बारिश के पानी को व्यर्थ बहने से बचाना एक महत्वपूर्ण उपाय है किन्तु यह भी स्थानीय समाज, स्थानीय भौगोलिक स्थिति, घनत्व और बारिश की मात्रा के आधार पर निर्भर होता है। लेकिन सरकार पानी संबंर्धन को एक ही योजना के तहत लागू करती है जिसमे जल संरक्षण में  स्थानीय कारकों को उपेक्षित किया जाता है। इससे योजनाएं असफल साबित होती हैं। वतर्मान जल संकट से निबटने के लिए एक दूरदशिर्ता से परिपूर्ण जल नीति की आवश्यकता है।

बुधवार, अप्रैल 03, 2013

अपनी पसंद का लोकपाल बिल

    ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी मर्यादा से शक्ति ग्रहण करने की जगह, अपने अति आग्रहों से शक्ति ग्रहण करने की कोशिश कर रहे हैं। इस कोशिश ने उन्हें कमतर साबित किया है।

सु प्रीम कोर्ट में केस हारने के बाद गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी पसंद का लोकपाल बिल अपनी विधानसभा में पास करवा लिया है और शायद वे अब खुश हैं। लेकिन क्या यह काम एक नीतिज्ञ राजनेता के लिए उचित की श्रेणी में होगा? भारत का सर्वोच्च न्यायालय अब तक के अपने बेखौफ और शानदार न्यायिक फैसलों के लिए जाना जाता रहा है। उस सर्वोच्च न्यायालय में हारने के बाद नरेंद्र मोदी ने जो कदम उठाया वह गरिमा से युक्त नहीं कहा जा सकता। गुजरात में लोकायुक्त विवाद पुराना है। वहां 2003 से लेकर 2011 तक लोकायुक्त का पद खाली रहा। आठ साल बाद जब राज्यपाल कमला बेनीवाल ने सेवानिवृत्त जस्टिस आरए मेहता को गुजरात का लोकायुक्त बनाया तो मोदी को यह कदम पसंद नहीं आया। गुजरात सरकार ने हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक राज्यपाल के फैसले को चुनौती दी। लेकिन नरेंद्र मोदी सुप्रीम कोर्ट से भी लौटना ही पड़ा।  आज मोदी ने विधेयक पारित करवा कर जो कदम उठाया है, वे यह कदम सुप्रीम कोर्ट में जाने से पहले उठाते तो बात कुछ और हो सकती थी। सुप्रीम कोर्ट से लौटने के बाद यह कदम देश की संवैधानिक संस्थाओं के प्रति उनके दृष्टिकोण में कितना सम्मान है, इसका परिचायक भी है। गुजरात राज्य विधानसभा द्वारा पारित इस विधेयक के आने के बाद लोकायुक्त की नियुक्ति में राज्यपाल की कोई भूमिका नहीं रह  जाएगी। गुजरात में लोकायुक्त की नियुक्ति का अंतिम दारोमदार नरेंद्र मोदी या जो भी मुख्यमंत्री होगा उसका होगा। इस विधेयक ने मोदी के दृष्टिकोण को भी जनता के सामने रख दिया है। इससे पहले राज्यपाल द्वारा नियुक्त जस्टिस आरए मेहता की नियुक्ति को गुजरात सरकार दो बार हाई कोर्ट में और सुप्रीम कोर्ट में तीन बार चुनौती दे चुके हैं। एक बार फिर वे क्यूरेटिव बेंच में अपील करने जा रहे हैं। एक सवाल ये भी है कि एक चाकचौबंद ईमानदार सरकार के लिए लोकायुक्त कोई भी हो क्या फर्क पड़ने वाला है? अपनी पसंद के प्रमुख को संवैधानिक संस्था में नियुक्ति का अति आग्रह किसी कमजोरी की ओर भी इशारा करता है। ऐसे में क्या यह माना जाए कि नरेंद्र मोदी अपनी बादशाहत में आड़े आ रहे सभी कांटे दूर करने की तैयारी में जुट गए हैं? क्या लोकायुक्त की नियुक्त पर सुप्रीम कोर्ट से पटखनी खा चुके मोदी अब हिसाब बराबर करने कर रहे हैं। मोदी सरकार के नए विधेयक से लोकायुक्त की नियुक्ति प्रक्रिया में आमूलचूल बदलाव हो चुका है। नए विधेयक में राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों को खत्म कर दिया गया है। अब लोकायुक्त की नियुक्ति एक खास चयन समिति की सिफारिशों के आधार पर होगी। इस समिति में राज्य के मुख्यमंत्री अध्यक्ष की भूमिका में होंगे। अब लोकपाल की नियुक्ति में राज्यपाल की भूमिका नहीं रह जाएगी। लेकिन यह एक दूरगामी प्रभाव पैदा करने वाला कदम है। इस तरह के प्रयास देश को संवैधानिक रुक्षता की ओर ले जा सकते हैं। राजनीतिक पक्ष विपक्ष एक मुद्दा हो सकता है लेकिन देश की संवैधानिक व्यवस्था में सरकार हो या फिर व्यक्ति अति आग्रही होकर उठाए गए कदम उसके ढांचे को आहत करते हैं।

शुक्रवार, मार्च 29, 2013




विश्व सिनेमा के आदि पुरुष चार्ली चैप्लिन की प्रतिभा के कई पहलू थे। वह अभिनेता-निर्देशक होने के साथ-साथ एक लेखक संगीतकार भी थे। ट्रैम्प का उनका चरित्र आज एक प्रतीकात्मक मुहावरेनुमा है। एक सफेद कागज पर ट्रैम्प की छवि की कुछ रेखाएं खींच देने भर से ही मानवीय अनुभूतियों की पूरी दुनिया सामने जाती है। चैप्लिन को मूलतः उनकी मूक फिल्मों और काॅमेडी से ही जाना जाता रहा है, परंतु यह उनके व्यक्तित्व का एक पहलू है। एक विचारक के तौर पर उनके व्यक्तित्व का अन्वेषण भी हुआ है, जिससे आज की पीढ़ी अक्सर अनभिज्ञ दिखती है। इसे जानने के लिए सबसे पहले उनकी आत्मकथा मैमाॅयर्स आॅफ मिलियोनेयर ट्रैम्प पढ़ी जा सकती है। उसके बाद उनके दिए अनेक साक्षात्कार हैं जिनमें सिने कलाकार से भी पहले एक गहन मानवतावादी सोच-समझ के व्यक्ति की झलक मिलती है। प्रस्तुत साक्षात्कार जो उन्होंने वर्षों पूर्व गार्जियनको दिया था, में वह ट्रैम्प के अपने विश्वप्रसिद्ध किरदार की निर्मिति का खुलासा करते हैं। इस साक्षात्कार की खास बात है कि वह मूक फिल्मों से सवाक फिल्मों में आने से जुड़ी अपने भय और सीमाओं पर भी खुलकर बात करते हैं। सवाक अभिनय की मूलभूत सीमाएं और मूक अभिनय की नैसर्गिक विराटता पर उनके विचार एक दार्शनिक सिद्धांत से कम नहीं हैं। हास्य अभिनय के जरूरी पक्ष खुद में कितने विरोधाभासी होते हैं, चेप्लिन के अलावा इस विषय पर कम ही लोग पूरे अधिकार से बात कर सकते हैं। कहना होगा कि चार्ली चेप्लिन को दुनिया भर के दर्शकों और समीक्षकों ने पसंद किया तो इसके पीछे उनकी अभिनय शैली और फिल्म निर्माण पर मजबूत पकड़ ही नहीं, बल्कि पूरी तरह से एक ऐसी मानवतावादी सोच थी, जो वैश्विक तौर पर बहुत सरलता से संप्रेषित होती थी और यही किसी भी सच्चे कलाकार की पहली पहचान भी होती है।


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रिचर्ड मेरीमैन : यह साक्षात्कार पूरी तरह से आपके कार्य और आपकी कला पर आधारित है, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। मैं आपके कार्य के बारे में एक झलक पाठकों को देना चाहता हूं।

चार्ली चैप्लिन : अपने कार्य के प्रति पूरी ईमानदारी ही मेरा मूल चरित्र है। अपने किए गए प्रत्येक कार्य के लिए मैं बहुत संजीदा रहता हूं। यदि मैं कोई अन्य कार्य इससे बेहतर तरीके से कर पाता, तो वही करता, लेकिन मैं अपने कार्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं जानता।

मेरीमैन : आपने ट्रैम्प की रूपरेखा कब निर्मित की थी ?

चैप्लिन : वह एक आपात स्थिति की पैदाइश था। एक कैमरामैन ने मुझसे कहा कि कुछ मजाकिया किस्म का मेकअप करो, और मुझे बिल्कुल भी आइडिया नहीं था कि मैं क्या करता। मैं ड्रेस डिपार्टमेंट में गया और रास्ते में सोचता रहा कि मुझे कुछ विरोधाभासी दिखाना होगा - बैगी पतलून, टाइट कोट, बड़ा सिर और छोटी टोपी - बेतरतीब लेकिन जेंटलमैननुमा। मुझे अंदाजा नहीं था कि चेहरे-मोहरे पर क्या होगा, लेकिन वह एक उदास और संजीदा चेहरा होना चाहिए। मैं उसका मजाकियापन छुपाना चाहता था, इसलिए छोटी मूंछें इस्तेमाल की थीं। मूंछें हालांकि उस चरित्र का अंश नहीं थीं - बल्कि कहें कि बचकाना थीं। वह कोई मनोभाव छुपा भी नहीं पाती थीं।

मेरीमैन : जब आपने अपनी तरह देखा तो आपकी पहली प्रतिक्रिया क्या थी ?

चैप्लिन : यही कि यह चलेगा। इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। जब तक कि मुझे इसे पहनकर कैमरे के आगे हरकतें करनी पड़ें तब तक तो कुछ भी नहीं।एंट्रेंस लेने पर अहसास हुआ कि कपड़ों से लदा हूं और हाव-भाव भी खास हैं। मुझे अच्छा महसूस हुआ और चरित्र स्पष्ट होने लगा था। एक दृश्य (मेबल्स प्रिडिकामेंट का) होटल की लाॅबी मे था जहां ट्रैम्प एक बिन-बुलाया मेहमान है और एक आरामदेह कुर्सी पर बैठकर कुछ देर आराम करने का नाटक करता है। बाकी सब उसकी तरफ शंका भरी नजरों से देख रहे हैं, और मैं वह सब काम करता हूं जो अन्य मेहमान करते हैं, जैसे होटल के रजिस्टर को देखना, सिगरेट निकालकर जलाना, चल रही पैरेड को देखना आदि। और फिर मैं एक दोमुंहे दरवाजे के पास जा गिरता हूं। यह पहला करतब था जो मैंने फिल्मों में किया था। इसके साथ ही उस चरित्र का आगमन हुआ था। मुझे अहसास हुआ कि यह बहुत मजेदार चरित्र है। लेकिन उसके बाद जितने भी किरदार मैंने किए उनमें एक ही फाॅर्मेट इस्तेमाल नहीं हुआ था।

लेकिन एक चीज थी जो समान रही - वह ट्रैम्प की पोशाक नहीं, बल्कि उसका चोट खाया पैर था। वह जितना भी उत्साही दिखता हो, लेकिन उसके पैर थकान भरे दिखते थे। मैंने वार्डरोब वालों से कहा कि मुझे दो बड़े और पुराने जूतों के जोड़े चाहिए थे, क्योंकि मेरे पैर असाधारण रूप से छोटे थे, और मुझे अहसास था कि वह जूते मजाकिया तत्व में वृद्धि कर सकते थे। मैं आमतौर पर शांतिप्रिय हूं, लेकिन बड़े पैरों के साथ ऐसा दिखना बहुत हास्य पैदा करता।

मेरीमैन : आपकी राय में क्या ट्रैम्प आधुनिक समय में सफल रहेगा ?

चैप्लिन : मुझे नहीं लगता कि आज ऐसे किसी व्यक्ति के लिए कोई स्थान है। आज दुनिया कुछ ज्यादा ही व्यवस्थित है। और मुझे नहीं लगता कि आज की दुनिया किसी भी तरह से प्रसन्न है। मुझे तंग कपड़े और लंबे बालों वाले बच्चे दिखते हैं, तो मुझे लगता है कि उनमें से कुछ ट्रैम्प बनना चाहते हैं। लेकिन पहले जैसी आत्मीयता आज नहीं है। उन्हें यह भी नहीं पता कि आत्मीयता क्या होती है, जिससे यह एक दुर्लभ वस्तु बन चुकी है। वह एक अन्य समय में अस्तित्व रखती थी। इसलिए मैं अब पहले जैसा काम नहीं कर सकता। और हां, ध्वनि - यह एक अन्य कारण है। जब सवाक फिल्में आईं तो उस जैसा चरित्र नहीं रहा था। मुझे अंदाजा नहीं था कि उसकी आवाज कैसी होती। इसलिए उसे खत्म होना पड़ा था।

मेरीमैन : आपकी राय में ट्रैम्प की आसाधारण तत्व क्या था ?

चैप्लिन : एक आत्मीय और शांत भाव वाली निर्धनता। दरअसल, हर दूसरा कमबख्त चमकदार कपड़े पहनकर नवाब दिखना चाहता है। चरित्र की कमियां ही मुझे प्यारी थीं - बहुत चुनिंदा और हर मायने में बहुत कमजोर। लेकिन ट्रैम्प की अपील के बारे में मैंने कभी नहीं सोचा था। ट्रैम्प मेरे अंदर का अंश था जो मुझे ही संप्रेषित करना था। मुझे आॅडियंस की प्रतिक्रिया से प्रेरणा मिली, लेकिन किसी आॅडियंस से जुड़ा मैंने खुद को नहीं पाया था। दर्शकों की जरूरत उसके फिल्मांकन के बाद शुरू होती थी, उसके बनते हुए नहीं। अपने अंदर मैंने हमेशा एक मजाकिया तत्व को महसूस करता था, जो मुझे कहता था कि मुझे यह संप्रेषित करना ही होगा। यह हास्य से परिपूर्ण था।

मेरीमैन : करतब वाला दृश्य आपने कैसे किया ? क्या यह शून्य से उपजा था या उसकी कोई प्रक्रिया थी ?

चैप्लिन : उसकी कोई प्रक्रिया नहीं थी। श्रेष्ठतम विचार जरूरत के अनुसार जन्म लेते थे। यदि एक अच्छी हास्य परिस्थिति आपके पास होती है तो वह अनेक क्रियाओं के साथ-साथ बनती जाती है। जैसे स्केटिंग रिंक दृश्य - रिंक में। मैंने स्केट्स पहने और शुरू हो गया था, जबकि दर्शक समझ रहे थे कि मैं गिर पड़ूंगा, वहीं मैं एक पैर पर स्केटिंग करता गया। दर्शकों को ट्रैम्प से इसकी उम्मीद नहीं थी। इसी तरहईजी स्टीटमें लैम्पपोस्ट वाले करतब में भी हुआ था। उसमें मैं एक पुलिसवाला बनकर एक बदमाश से निपट रहा था। मैं उसके सिर पर एक डंडे से मारता हूं और मारता चला जाता हूं। यह एक बुरे सपने जैसा था। वह अपनी बाजुएं ऊपर चढ़ाता जाता जैसे कि उस पर मारे जाने का कोई असर हो रहा हो। फिर वह मुझे उठाकर ऊपर-नीचे करता है। वहां मुझे अहसास हूं, कि इसमें असाधारण शक्ति है, तो वह लैम्पपोस्ट को भी मोड़ सकता है, और बवह ऐसा कर रहा होगा, मैं उसकी पीठ पर चढ़ जाउंगा और उसका सिर लाइट-गैस में दे दूंगा। मैंने ऐसी कुछ मजाकिया काम किए जो बिना किसी तैयारी के किए गए थे और उन पर खूब तालियां पिटी थीं।

लेकिन इस सब में बहुत करुणा भी थी। कई बार सारे प्रयास असफल जाते थे। दर्शकों को हंसाने के लिए कुछ नया सोचना जरूरी था। और बिना एक मजाकिया परिस्थिति के आप हंसा नहीं सकते थे। आपको जोकर की तरह कुछ करना होता है, गिरना-पड़ना कुछ भी, लेकिन परिस्थिति मजाकिया होनी चाहिए।

मेरीमैन : क्या आपको ऐसा करते लोग यहां-वहां दिखते थे, या वह सब आपकी कल्पना से ही उपजते थे ?

चैप्लिन : नहीं, हमने अपनी दुनिया खुद बनाई थी। मेरा स्टूडियो कैलिफाॅर्निया में था। सबसे खुशी के पल वह होते थे जब मैं सेट पर होता था एक आइडिया या किसी कहानी के विचार के साथ, और मुझे अच्छा महसूस होता था, जिसके बाद चीजें खुद रूप लेना शुरू कर देती थीं। कैलीफाॅर्निया और विशेषकर हाॅलीवुड में संध्याकाल अकेलापन लेकर आता है, लेकिन हमारे यहां ऐसा नहीं था, क्योंकि हम हास्य की दुनिया रच रहे थे। वह एक दूसरी दुनिया की तरह का अनुभव था, रोज की भागदौड़ से अलग। वहां बहुत मजा रहता था। वहां बैठकर आधा दिन रिहर्सल करते, फिर शूटिंग करते थे।

मेरीमैन : क्या यथार्थवाद काॅमेडी का अभिन्न अंग होता है ?

चैप्लिन : ओह हां, बिल्कुल। मेरी राय में सिने-निर्माण की दुनिया में एक ऊट-पटांग परिस्थिति को पूर्ण यथार्थ के साथ निभाते हैं। आॅडियंस को यह पता होता है और वह भी उसी मनोभाव में रहती है। यह उनके लिए बेहद यथार्थपूर्ण होता है और साथ ही बेतरतीब भी, और इसी से उन्हें आनंद मिलता है।

मेरीमैन : उसका एक अंश नृशंसता भी होता है।

चैप्लिन : वह नृशंसता काॅमेडी का बुनियादी तत्व है। शांत और ठहरा हुआ दिखने वाला बेहद अव्यवस्थित होता है, और यदि आप उसमें करुणा भरते हैं तो दर्शक उसे पसंद करते हैं। दर्शक उसमें छिपे जीवन के दंश को पहचानते हैं और उस पर इसलिए हंसते हैं कि वह उस पर रो पडें़ या उसके दुख से मर ही जाएं। यदि एक बूढ़ा व्यक्ति एक केले के पत्ते से फिसल कर धीरे से गिरता है, तो हम उस पर नहीं हंसते। परंतु यही व्यक्ति अगर एक चमचमाते कपड़े पहने अकड़ कर चलने वाला जवान हो तो हम हंसते हैं। सभी दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियां मजाकिया होती हैं, यदि उन्हें हास्य के नजरिए से देखा जाए। जोकरों को देखते समय आप प्रत्येक बेतरतीबी के लिए तैयार रहते हैं। परंतु यदि कोई व्यक्ति किसी रेस्तरां में जाता है और सोचता है कि वह स्मार्ट है, लेकिन उसकी पैंट में एक छेद दिखता है - इस स्थिति को यदि हास्य की दृष्टि से देखा जाए तो वह खासी मजाकिया हो जाती है। विशेषकर तब यदि उसे एक विशेष गरिमामय तरीके से किया जाए।

मेरीमैन : आपकी काॅमेडी कुछ मायनों में घटनाप्रधान भी होती है। यह एक बौद्धिक क्रियाकलाप नहीं होता, यह एक घटनाक्रम है जो हास्यप्रधान है।

चैप्लिन : मेरा हमेशा से मानना रहा है कि घटनाओं को जोड़कर ही एक कथा निर्मित होती है, जैसे एक बिलियर्ड टेबल पर पूल गेम। वहां प्रत्येक गेंद अपने आप में एक घटना है। एक दूसरी से टकराती है और आपको असर दिखता है। मैं इस सोच को अपने कार्य में बहुत हद तक इस्तेमाल करता हूं।

मेरीमैन : आपके कार्य में तेज रफ्तार होती है और घटनाएं एक दूसरे को लांघती दिखती हैं। क्या इसमें आपके निजी लक्षणा की झलक मिलती है ?

चैप्लिन : मुझे नहीं मालूम कि यह मेरी लक्षणा है या नहीं। मैंने अन्य काॅमेडियंस को देखा है जो अपनी रफ्तार धीमी करते हैं। मुझे लगता है कि रफ्तार में अपनी झलक मैं धीमेपन से अधिक पाता हूं। धीमेपन से चलने लायक आत्मविश्वास मुझमें नहीं है।

लेकिन एक्शन ही सबकुछ नहीं होता। प्रत्येक वस्तु का विकास होना चाहिए, नही ंतो वह सत्य से दूर हो जाती है। आपको एक समस्या है और समय के साथ आप उसे बढ़ता हुआ दिखते हैं। आप उसे बिना मतलब बढ़ता नहीं दिखाते। आप कहते हैं उसका प्राकृतिक निष्कर्ष क्या होगा ? इसके बाद वह समस्या विश्वसनीय तरीके से अधिक गहराती जाती है। यह तार्किक होना चाहिए अन्यथा आप काॅमेडी तो करेंगे, परंतु वह एक उत्साहजनक काॅमेडी नहीं होगी।

मेरीमैन : क्या संवेदनात्मकता या दोहराव से आप तंग होते हैं ?

चैप्लिन : नहीं, पेंटोमाइम में नहीं। आप तंग नहीं होते, बल्कि उसे दूर रखते हैं। और मैं दोहराव से नहीं डरता - पूरा जीवन ही दोहराव है। हम किसी किस्म की मौलिकता से रूबरू नहीं होते। हम सब तीनों समय का खाना खाकर जीते हैं, मर जाते हैं, प्यार करते हैं। एक प्रेम कहानी से अधिक दोहराव और कुछ नहीं होता, लेकिन वह होती रहनी चाहिए, जब तक कि उसे रोचक तरीके से दिखाया जाता रहे।

मेरीमैन : क्या आपको जूता खाने वाला दृश्य (गोल्ड रश में) कई बार करना पड़ा था ?

चैप्लिन : उस दृश्य पर दो दिन तक रीटेक हुए थे। वह अभिनेता मैक स्वेन दो दिन से बीमार थे। जूते मुलैठी के बने हुए थे और वह कई सारे खा चुके थे। उन्होंने मुझसे कहा, ‘मैं और अधिक ये जूते नहीं खा सकता!’ दरअसल मुझे यह विचार एक डाॅनर पार्टी से आया था (81 खोजकर्ताओं की एक वैगन रेल, जो 1846 में कैलिफाॅर्निया जा रही थी और सियेरा नेवाडा में बर्फ में फंस गई थी) वह एक दूसरे का मांस खाने लगे थे और जूते भी। मुझे विचार आया गर्म पानी में उबला जूता ? यह हास्य से भरपूर था।

लेकिन कहानी को आगे बढ़ाना मेरे लिए तब तक बहुत कष्टकारी था जब तक एक सरल निष्कर्ष नहीं निकलता: भूख। जब आप एक परिस्थिति के तर्क को सुलझाते हैं, तब उसकी व्यावहारिकता, यथार्थ और उसके पूर्ण होने से जुड़े विचार आप तक जल्दी पहुंचते हैं। यह पिक्चर के सबसे कुशल पहलुओं में से एक है।

मेरीमैन : क्या सवाक फिल्मों में उतरने से जुड़ी कुछ शंकाएं आपके मन में थीं ?

चैप्लिन : हां, बिल्कुल। सबसे पहले तो यह कि मेरे पास अनुभव था, लेकिन अकादमिक प्रशिक्षण नहीं, और यह बहुत बड़ा फर्क था। मुझे महसूस हुआ कि मेरे पास प्रतिभा है और मैं एक प्राकृतिक अभिनेता भी हूं। यह भी कि पेंटोमाइम से मैं खुद को अधिक जुड़ा पाता बजाय बोलने के। मैं एक कलाकार हूं और बोलने में बहुत कुछ समाप्त हो जाएगा। मैं अन्य उन अभिनेताओं से अलग नहीं दिखूंगा जिनके पास अच्छी संवाद अदायगी और बेहतरीन आवाज है, और यह केवल आधी जंग जीतने जैसा ही हुआ।

मेरीमैन : क्या यह प्रश्न यथार्थ के एक अन्य सिरे से भी जुड़ा था जो मूक फिल्मों की फंतासी को भंग कर देता ?

चैप्लिन : हां। मैं हमेशा से यह कहता आया था कि पैंटोमाइम कहीं अधिक काव्यात्मक है और उसमें एक यूनिवर्सल अपील भी है, और यदि उसे बेहतर तरीके से किया जाए तो सब उसका मतलब समझ सकते हैं। बोले गए शब्द एक खास किस्म के धाराप्रवाह तक सबको सीमित कर देते हैं। आवाज एक खूबसूरत चीज है, बहुत कुछ बताती है, और मैं अपनी कला के बारे में सबकुछ नहीं बता देना चाहता क्योंकि वह भी एक सीमा दर्शाएगा। ऐसे बहुत कम लोग हैं जो आवाज के साथ अनंत गहराई के मायालोक को दिखाते हैं या उस तक पहुंचते हैं, जबकि शारीरिक भंगिमाएं उतनी ही प्राकृतिक हैं जितनी कि एक पक्षी का उड़ना। आंखों के भाव - उनके लिए कोई शब्द नहीं हैं। चेहरे के शुद्ध भाव जो लोग छुपा नहीं पाते - यदि वह निराशा से जुड़े हैं तो वह सतही नहीं होंगे। सवाक फिल्मों में आने से पूर्व मुझे यह सब याद रखना पड़ा था। मुझे पता था कि भावों के निरूपण में मुझे बहुत कुछ खोना पड़ेगा। वह सब पहले जितना अच्छा नहीं होगा।

मेरीमैन : कोई एक फिल्म जो आपकी पसंदीदा हो ?

चैप्लिन : मेरे विचार से सिटी लाइट्स। वह बहुत मजबूत और अच्छी बन पड़ी है। सिटी लाइट्स एक सच्ची काॅमेडी है।

मेरीमैन : वह एक मजबूत फिल्म है। मुझे जो अंश पसंद आया वह यह कि काॅमेडी और टेजिडी कितने नजदीक हो सकते हैं।

चैप्लिन : उसमें मेरी रुचि नहीं थी। मैं समझता हूं कि वह एक अहसास है, व्यक्तिपरकता से जुड़ा। मुझे हमेशा से लगा है कि कमोबेश वह मेरी दूसरी प्रकृति की तरह है। ऐसा आसपास के वातावरण के कारण भी हो सकता है। मुझे नहीं लगता कि मानव जाति के बारे में संवेदना या अहसास की अनुपस्थिति में हास्य रचा जा सकता है।

मेरीमैन : क्या त्रासदियों से हम मुक्ति चाहते हैं ?

चैप्लिन : नहीं, मेरी राय में जीवन और बहुत कुछ है। यदि ऐसा होता तो आत्महत्याओं की तादाद कहीं अधिक होती। लोग जीवन से मुक्ति चाहते। मैं सोचता हूं कि जीवन खूबसूरत है और उसे हर हालात में जीना चाहिए, विपत्ति में भी। मैं जीवन जीना चाहूंगा। उसका अनुभव लेना चाहूंगा। मेरी राय में हास्य व्यक्ति के होश-हवास को दुरुस्त करता है। अधिक त्रासदी झेलने से हम बहक सकते हैं। हालांकि, त्रासदियां जीवन का हिस्सा होती हैं, लेकिन हमारे अंदर उससे बचने के लिए एक उपकरण भी मौजूद है, उससे बचाने वाला एक डिफेंस। मैं सोचता हूं कि जीवन में त्रासदी बहुत जरूरी है। और हास्य हमें उससे बचने का रक्षाकवच प्रदान करता है। हास्य वैश्विक है जो मेरी राय में करुणा से प्राप्त किया जा सकता है।

मेरीमैन : क्या आपको लगता है जीनियस जैसा कुछ होता है ?

चैप्लिन : मुझे नहीं पता कि जीनियस क्या होता है। शायद ऐसा कोई व्यक्ति जिसमें एक प्रतिभा है, उसके बारे में वह बहुत संवेदनशील भी है और एक तकनीक पर वह पूर्ण सिद्धहस्त हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति किसी प्रतिभा से संपन्न होता है। औसत व्यक्ति को एक रोज के घिसे हुए कल्पनाशीलता रहित कार्य के बीच अंतर बनाना होता है और जीनियस को ऐसा नहीं करना पड़ता। वह कुछ अलग