ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी मर्यादा से शक्ति ग्रहण करने की जगह, अपने अति आग्रहों से शक्ति ग्रहण करने की कोशिश कर रहे हैं। इस कोशिश ने उन्हें कमतर साबित किया है।
सु प्रीम कोर्ट में केस हारने के बाद गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी पसंद का लोकपाल बिल अपनी विधानसभा में पास करवा लिया है और शायद वे अब खुश हैं। लेकिन क्या यह काम एक नीतिज्ञ राजनेता के लिए उचित की श्रेणी में होगा? भारत का सर्वोच्च न्यायालय अब तक के अपने बेखौफ और शानदार न्यायिक फैसलों के लिए जाना जाता रहा है। उस सर्वोच्च न्यायालय में हारने के बाद नरेंद्र मोदी ने जो कदम उठाया वह गरिमा से युक्त नहीं कहा जा सकता। गुजरात में लोकायुक्त विवाद पुराना है। वहां 2003 से लेकर 2011 तक लोकायुक्त का पद खाली रहा। आठ साल बाद जब राज्यपाल कमला बेनीवाल ने सेवानिवृत्त जस्टिस आरए मेहता को गुजरात का लोकायुक्त बनाया तो मोदी को यह कदम पसंद नहीं आया। गुजरात सरकार ने हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक राज्यपाल के फैसले को चुनौती दी। लेकिन नरेंद्र मोदी सुप्रीम कोर्ट से भी लौटना ही पड़ा। आज मोदी ने विधेयक पारित करवा कर जो कदम उठाया है, वे यह कदम सुप्रीम कोर्ट में जाने से पहले उठाते तो बात कुछ और हो सकती थी। सुप्रीम कोर्ट से लौटने के बाद यह कदम देश की संवैधानिक संस्थाओं के प्रति उनके दृष्टिकोण में कितना सम्मान है, इसका परिचायक भी है। गुजरात राज्य विधानसभा द्वारा पारित इस विधेयक के आने के बाद लोकायुक्त की नियुक्ति में राज्यपाल की कोई भूमिका नहीं रह जाएगी। गुजरात में लोकायुक्त की नियुक्ति का अंतिम दारोमदार नरेंद्र मोदी या जो भी मुख्यमंत्री होगा उसका होगा। इस विधेयक ने मोदी के दृष्टिकोण को भी जनता के सामने रख दिया है। इससे पहले राज्यपाल द्वारा नियुक्त जस्टिस आरए मेहता की नियुक्ति को गुजरात सरकार दो बार हाई कोर्ट में और सुप्रीम कोर्ट में तीन बार चुनौती दे चुके हैं। एक बार फिर वे क्यूरेटिव बेंच में अपील करने जा रहे हैं। एक सवाल ये भी है कि एक चाकचौबंद ईमानदार सरकार के लिए लोकायुक्त कोई भी हो क्या फर्क पड़ने वाला है? अपनी पसंद के प्रमुख को संवैधानिक संस्था में नियुक्ति का अति आग्रह किसी कमजोरी की ओर भी इशारा करता है। ऐसे में क्या यह माना जाए कि नरेंद्र मोदी अपनी बादशाहत में आड़े आ रहे सभी कांटे दूर करने की तैयारी में जुट गए हैं? क्या लोकायुक्त की नियुक्त पर सुप्रीम कोर्ट से पटखनी खा चुके मोदी अब हिसाब बराबर करने कर रहे हैं। मोदी सरकार के नए विधेयक से लोकायुक्त की नियुक्ति प्रक्रिया में आमूलचूल बदलाव हो चुका है। नए विधेयक में राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों को खत्म कर दिया गया है। अब लोकायुक्त की नियुक्ति एक खास चयन समिति की सिफारिशों के आधार पर होगी। इस समिति में राज्य के मुख्यमंत्री अध्यक्ष की भूमिका में होंगे। अब लोकपाल की नियुक्ति में राज्यपाल की भूमिका नहीं रह जाएगी। लेकिन यह एक दूरगामी प्रभाव पैदा करने वाला कदम है। इस तरह के प्रयास देश को संवैधानिक रुक्षता की ओर ले जा सकते हैं। राजनीतिक पक्ष विपक्ष एक मुद्दा हो सकता है लेकिन देश की संवैधानिक व्यवस्था में सरकार हो या फिर व्यक्ति अति आग्रही होकर उठाए गए कदम उसके ढांचे को आहत करते हैं।
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