उपभोगवादी आधुनिक मानसिकता और निजी स्वतंत्रता मिल कर सामाज में अपसंस्कृति का जहर फैला रही हैं। यह कुत्सित मानसिकता ही है कि सात वचन लेने वाला पति, पत्नी के फोटो सार्वजनिक करता है।
आ ज देश उदारवाद और उपभोगवाद का आनंद ले रहा है। निजी आजादी जो हमको अपने काम करने की स्वतंत्रता और अवकाश देती है, लेकिन उसमें से संयम गायब हो गया है। इस आजादी को लोगों ने मानसिक कुत्साएं पूरा करने और पैसे कमाने की लालसा से भर लिया है। निजी आजादी के नाम पर कुंठित और प्रदूषित मानसिकता की अभिव्यिक्ति होने लगी है। हम जीवन को एक यज्ञ की तरह नहीं, उपभोग के वीभत्स उपकरण की तरह स्वीकार कर रहे हैं। जीवन के अनुशासनों को हमने दूर रख दिया है।
हाल ही में घटना घटी है जिसमें पति अपनी ही पत्नी के न्यूड फोटो अपने मित्रों को ईमेल करता था। इससे पहले सेना के कुछ अधिकारियों के बारे में खबर आई थी कि वे अपनी पत्नियों को अन्य के साथ संसर्ग करने के लिए दबाव डाल रहे थे। आखिर हमारे जीवन में इस तरह के विकारों को जगह कैसे मिली? क्या यह पैसे की अधिकता, उपभोगवादी मानसिकता और संस्कार रहित जीवन का प्रतीक है? आधुनिक जीवन शैली और काम के बोझ के कारण जीवन से रचनात्मकता खत्म हो रही है। एक ओर हम आधुनिकता की होड़ में अपनी संस्कृति से अलग होते जा रहे हैं। अपने संस्कार भूलते जा रहे हैं। दूसरी ओर, पश्चिमी संस्कृति को भी नहीं अपना पा रहे हैं, क्योंकि अपनी संस्कृति का मोह हम नहीं छोड़ पा रहे हैं। इस तरह जो सांस्कृतिक घालमेल हमारे जीवन में हो रहा है, उससे जो अपसंस्कृति तैयार हो रही है, उससे हमारा सामाजिक अनुशासन टूट रहा है। हम पश्चिम को अराजक मानते रहे हैं जबकि वहां जीवन पूरी तरह सामाजिक अनुशासनों में बंधा है। वहां कानून का शासन है, वहां सड़क पर पैदल चलते व्यक्ति को कार का हार्न बजा कर चौंकाया नहीं जाता। कार रोक ली जाती है। वहां रात को अकेली लड़की देख कर कोई छेड़ता नहीं है। लेकिन हम इस सबको लेकर कुंठित हो जाते हैं। अधकचरी जानकारी और अपनी जड़ों से कटने का नतीजा है कि हमारी नई पीढ़ी भी भटकाव का शिकार है। इसमें बच्चे भी भटक रहे हैं। उनमें नशाखोरी बढ़ रही है। उनको माता पिता का साया मिलना मुश्किल हो रहा है। विज्ञापन युग की बाजारवादी संस्कृति के बारे में ज्यां बोद्रिला कहते हैं कि इस विकराल उपभोग से जन्मी संस्कृति ही हमारे समय की संस्कृति है। इस संस्कृति ने सभी परंपरागत मूल्यों-अवधारणाओं को खत्म कर दिया है। हम ‘आर्थिक मनुष्य’ बनने की विवशता झेल रहे हैं, जिसमें कलाओं के लिए जगह ही नहीं बची है, पुस्तकों को क्यों पढ़ें? उनका संसार खिन्नता की मन:स्थिति रचता है। वाल्टर बेंजामिन ने टेक्नोलॉजी के उदय में मनुष्य की मुक्ति का जो सपना देखा था वह टूट चुका है। टेक्नोलॉजी ने भयानक दासता को जन्म देकर हमें कब्जे में कर लिया है। आज उपभोग की संस्कृति ने नैतिक मूल्यों को अपदस्थ कर दिया है। इस सदी के भारत में बेरोजगारी नहीं बल्कि लोगों में बढ़ रही अपसंस्कृति की समस्या प्रमुख होगी। यह समस्या समाज के लिए चुनौती बन कर उभर चुकी है।
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