मंगलवार, जनवरी 22, 2013

हिंदू आतंकवाद संबंधी बयान

 


केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे के बयान में निहित देश के राजनीतिक रंग देखे जा सकते हैं। उनका बयान राजनीतिक होकर सरलीकृत कटु राजनीति का संकेत भी है।


कें द्रीय गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे के हिंदू आतंकवाद संबंधी बयान देने के बाद देश की राजनीति चूने की बाल्टी की तरह उबलने लगी।  जयपुर के  कांग्रेस चिंतन शिविर को संबोधित करते हुए शिंदे ने कहा था कि भाजपा और संघ देश में भगवा आतंकवाद फैलाने के लिए ‘आतंकी प्रशिक्षण शिविर’ चला रहे हैं। यह भी बताया कि, ‘जांच के दौरान यह रिपोर्ट आई है कि बीजेपी और संघ आतंकवाद फैलाने के लिए आतंकवादी प्रशिक्षण शिविर चला रहे हैं। समझौता एक्सप्रेस, मक्का मस्जिद में बम लगाए जाते हैं और मालेगांव में भी बम विस्फोट होता है।’ हालांकि बाद में अपने बयान से मुकर भी गए कि ‘यह भगवा आतंकवाद है जिसकी मैं बात करता हूं। यह कई बार मीडिया में आ चुका है। इसमें कुछ नया नहीं है।’
बयान देने और फिर मुकरने की इस राजनीति ने ‘राजनीतिक-स्तर’ की ओर भी इशारा किया है। राजनीति के गिरते हालातों से यह भी पता चलता है कि कांग्रेस के सिपहसालार कहीं न कहीं सकारात्मक और सृजनशीलता की जगह विखंडन की राजनीति को अपना हथियार आज भी बनाए हुए हैं। दिग्विजय सिंह भी इस तरह के बयानों के लिए जाने जाते हैं। ये बयान देश की गरिमा और लोकतंत्र को संबोधित न होकर, विखंडन की ओर इशारा करते हैं। आज देश का लोकतंत्र विकसित हो रहा है। उसमें प्रतिरोध के स्वर भी आ रहे हैं। ऐसे में जनता को सरलीकृत बयानों से नहीं भरमाया जा सकता।  इस बयान में जो निहित था, वह राजनीतिक दल अपनी प्रतिक्रिया में बता रहे हैं। क्या गृहमंत्री की राजनीतिक सोच में ये विचार नहीं पैदा हुआ कि इस तरह के सरलीकृत बयानों से वे करोड़ों लोगों को कहीं न कहीं मानसिक आघात पहुंचा सकते हैं। यह बयान न कहते हुए भी वोट बैंक की राजनीति का हिस्सा है। आज देश को वोट बैंक की राजनीति से उबारने की आवश्यकता है। इस बयान के प्रतिप्रश्न पर संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य ने भी बयान दिया है कि गृहमंत्री को हिंदू आतंकवाद शब्द का प्रयोग करना अत्यंत अनुचित और आपत्तिजनक है। आतंकवाद आतंकवाद है, उसे हिंदू या अन्य किसी धर्म के साथ जोड़ना उचित नहीं है। उन्होंने हाल ही में दिए गए अकबरुद्दीन ओवैसी के देश विरोधी बयान का भी उल्लेख किया। ओवैसी के खिलाफ पुख्ता सबूत होने के बाद भी सरकार करवाई करने से कतरा रही थी। जनता के दबाव और न्यायालय के आदेश के बाद उन्हें करवाई करनी पड़ी। यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि इस बयान के कुछ आधार तंतु कुछ घटनाओं की जांच में आए हैं जिनका उल्लेख बयान में किया गया है। लेकिन यहां यह भी कहना जरूरी है कि आतंक से भगवा रंग, हिंदू या मुसलमान को जोड़कर एक ब्रांड बनाने का मतलब एक नए तरीके का खतरनाक राजनीतिक प्रयोग है। किसी भी तरह का आतंक देश में स्वीकार नहीं किया जा सकता। महत्वपूर्ण है कि हम अपनी राजनीति को सकारात्मक और सर्वसमावेशी बनाएं। आतंक को किसी रंग या जाति-धर्म से जोड़ने का काम नेता करते रहे हैं लेकिन आज इसे बंद karne ki आवश्यकता है।

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एमपी एक्सपोर्ट मीट

दुनिया में आर्थिक गतिविधियां केंद्र में हैं। राजनीतिक सामाजिक क्षेत्र की गतिशीलता भी इन पर निर्भर करती है। मध्यप्रदेश सरकार की ओर से हाल ही के वर्षों में निवेश के लिए संगठित और व्यवस्थित प्रयास किए जा रहे हैं। पिछले दिनों इंदौर में इस तरह के प्रयासों को देखा गया है। ग्वालियर में शुरू हुई चौथी एमपी एक्सपोर्ट का रविवार को आशाओं से भरा समापन हो गया है। ये चौथी एमपी-एक्सपोर्ट मीट थी। ग्वालियर के एक्सपोर्ट फैसिलिटेशन सेंटर में आयोजित हुई इस रिवर्स बायर सेलर मीट में लगभग 629 करोड़ के 62 व्यवसायिक अनुबंध हुए। इसमें ग्वालियर-चंबल अंचल के उत्पादकों ने182 करोड़ रूपए से अधिक के अनुबंध हासिल किए हैं। इस आयोजन में 16 राष्ट्रों के राजदूत, उच्चायुक्त एवं अन्य राजनयिकों ने हिस्सा लिया। इस मीट में लगभग दो दर्जन देशों के करीबन 75 खरीददार आए थे। इसमें ग्वालियर चंबल अंचल सहित प्रदेशभर के 110 उद्यमियों ने अपने-अपने उत्पादों को प्रदर्शित किया था। ये अनुबंध तत्काल कोई लाभ को प्रदर्शित न करते हों लेकिन ये दूरगामी व्यावसायिक सफलताओं की आधारशिला बनते हैं। ऐसा भी होता है कि कुछ अनुबंध पूरे नहीं हो पाते। हमें इसके लिए तैयार रहना चाहिए और कोशिश करना चाहिए कि हम इन अनुबंधों को हासिल करें। करार पूरे नहीं होने पर राजनीतिक शोर करने की अपेक्षा हमें कारणों की तह में जाना जरूरी है।
मध्यप्रदेश के चंबल संभाग के कई विक्रताओं ने तो विदेशी कंपनी के साथ अपने अनुबंध को एक दूर का सितारा ही समझा था लेकिन इस मेले में कई कंपनिया ने ऐसे विदेशी अनुबंधों पर हस्ताक्षर किए हैं। साथ ही सुदूर देशों से आए राजनयिक, आयातक व खरीददारों को प्रदेश के उत्कृष्ट उत्पादों ने खूब रिझाया और वे करारनामों को अंजाम देकर अपने देश लौटे। यह मीट मध्यप्रदेश सरकार द्वारा भारत सरकार एवं सीआईआई आदि के सहयोग से आयोजित की गई थी। लगभग दो दर्जन देशों से आए आयातकों व खरीददारों ने एमपी एक्सपोर्टेक के आखिरी दिन भी प्रदेश के उत्पादों को पसंद किया। यह भी उल्लेखनीय है कि 18 जनवरी से पिछली मीट की तुलना में छ: गुने करारनामे हुए। प्रदेश सरकार ने 2008 में प्रदेश के सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यमियों को विश्व बाजार मुहैया कराने के लिये एमपी-एक्सपोर्ट के रूप में की गई पहल आज नए करारों की ओर अग्रसर है। इंदौर में हुई पिछली एमपी एक्सपोर्टेक की तुलना में इस बार ग्वालियर में हुई मीट में लगभग छ: गुने अनुबंध हुए हैं। इससे जाहिर होता है कि मध्यप्रदेश के उत्कृष्ट उत्पादों ने दुनिया का ध्यान खींचा है। इसमें उल्लेखनीय बात ये है कि मध्यप्रदेश सरकार ने छोटे-छोटे उद्यमियों के लिए एमपी एक्सपोर्टेक के रूप में एक बेहतर प्लेटफॉर्म मुहैया कराया है। ये सारी चीजें ही मिलकर किसी व्यवसाय को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय होने का मार्ग प्रशस्त करती हैं। प्रदेश की आर्थिक नीतियों की दशा और दिशा को नए तरीके से संयोजित किया जा रहा है। यह संयोजन ही भविष्य में निर्मित होने वाले आर्थिक महापथ का निर्माण करेगा।

रविवार, जनवरी 20, 2013

बाबाओं की दुनिया



स्वाध्याय की कमी से आस्था अंधविश्वास में बदल जाती है और उसे सामाजिक स्वीकृति मिलने लगती है। ऐसी आस्था की छांव में कई फर्जी बाबाओं का जन्म होता है।


साराम बापू ने रतलाम में 700 करोड़ रुपए की जमीन पर कब्जा करने की बात खबरों में है। जमीन के इस मामले में गंभीर धोखाधड़ी जांच कार्यालय (एसएफआईओ) ने भारतीय दंड संहिता और कंपनी एक्ट 1956 के तहत मामला चलाने की मांग की है। इसकी अनुशंसा कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय को भी भेजी गई है। बाबाओं से संबंधित इसी तरह के कुछ और मामले भी इससे पहले सामने आते रहे हैं। बाबाओं पर आरोप एक नहीं कई तरह के हैं। स्वामी चिन्मयानंद पर आरोप लगे। इन पर साध्वी चिदर्पिता ने चिन्मयानंद रिपोर्ट लिखाई कि मेरे साथ बलात्कार किया और गर्भपात तक कराया। निर्मल बाबा पर हजारों लाखों लोगों से कई करोड़ रुपए एकत्रित करने का आरोप लगा और अब वे अदालत में केस का सामना कर रहे हैं। रामदेव बाबा की कंपनी पर कर अपवंचन का मामला दर्ज है। यह गिनती एक दो नहीं दर्जनों बाबाओं के साथ बन रही है। आखिर क्यों? सवाल ये है कि आध्यात्म और जीवन को मोक्ष की ओर ले जाने के जिन सूत्रों की चर्चा इन बाबाओं के सत्संग में होती है, उसके उलट इन पर कई तरह की अनैतिकताओं के आरोप लग रहे हैं। क्या ये समय राजनीतिक और धार्मिक आस्था के शोषण का युग बन चुका है? क्या ये युग मानसिक कमजोरी और अंधविश्वास से जनमी अंधआस्था का शिकार हो चुका है? बाबा मानसिक शोषण कर रहे हैं तो जनता भी उनके पास दौड़ कर जा रही है। जबकि भारतीय मनीषा में कर्म को प्रधानता दी गई है। ईश्वर कण-कण में विद्यमान है तो उसकी आराधना भी कण कण में की जा सकती है। ईश्वर की कृपा किसी बाबा के माध्यम से नहीं आ सकती, यह हमें अपने कर्म, चिंतन और मनन से हासिल करना होती है। लेकिन अंधविश्वास फैशन हो जाता है तो उसकी छांव में इसी तरह की घटनाओं का जन्म होता है। हर युग के अपने अंधविश्वास होते हैं। अंधविश्वास का भी फैशन होता है। हर युग में अंधविश्वास नए तरह के होते हैं। पुराने से आदमी छूटता है और नए अपना लेता है। लेकिन अंधविश्वास से मुक्त नहीं होता। अंधविश्वास की जो नींव मध्यकालीन भारत में रखी थी, वो कंप्यूटर और विज्ञान के युग में भी उतनी ही मजबूत बनी हुई है। अंधविश्वास का जो खेल 17वीं व 18वीं शताब्दी में चलता था, वो अब भी बदस्तूर जारी है। अंधविश्वास कारण स्वाध्याय की कमी है। जनता धर्म और ईश्वर पर लिखे मौलिक ग्रंथ न पढ़ कर कथित स्वार्थी बाबाओं की गिरफ्त में हैं। अगर ‘टीमलीज’ सर्विसेज की ‘सुपरस्टिशन्स एट द रेट आॅफ वर्कप्लेस’ नामक रिपोर्ट का निष्कर्ष में पाया गया है कि भारत में निजी कंपनियों में काम करने वाले प्रंबधन पेशेवरों में 62 प्रतिशत लोग अंधविश्वासी हैं। सर्वेक्षण में यह भी उल्लेख है कि विकास और आधुनिकता के प्रतीक शहर-दिल्ली और बंगलूरू अंधविश्वास के सबसे बड़े गढ़ हैं। इससे पता चलता है कि देश का पढ़ा लिखा वर्ग अंधआस्था की गिरफ्त में हैं। आज आवश्यकता है कि हम ईश्वर की व्यापकता को आत्मसात करें और अंध आस्था के आश्रमों से मुक्त एक विवेकवान विचारशील जीवन यापन करें।

डीजल के दाम बाजार के हवाले


महंगाई के प्रति सरकार का अपना आर्थिक उदारवादी नजरिया है।  वह मान कर चल रही है कि यह उदारीकरण जनता के भले के लिए हो रहा है। जबकि जनता में एक सुप्त आक्रोश पैदा हो रहा है। इस समय महंगाई के प्रश्न को सामाजिक नजरिये से देखा जाना भी जरूरी है। 

डी    जल के दाम बाजार के हवाले करने का फैसला होते ही राजनीतिक गुस्से का स्यापा जाहिर होने लगा है। विरोध की पहली आवाज सरकार में शामिल दलों की तरफ से आई है। लेकिन सवाल ये है कि इतने राजनीतिक शोर के बाद महंगाई की मा र को न तो रोका जा सका है और न ही कोई असर इसका दिखाई देता है। कहने को सभी पार्टियां एक स्वर में महंगाई का विरोध करती हैं लेकिन इस विरोध की परिणति कहीं नहीं पहुंचती। राजनीतिक पार्टियां आरोप लगा रही हैं कि सरकार जनता की उपेक्षा कर तेल कंपनियों के फायदे में लगी है। दूसरी तरफ सरकार के सब्सिडी वाले गैस सिलेंडरों की तादाद 6 से बढ़ाकर 9 करने के फैसले को राजनीतिक सेफ्टी वॉल्ब समझा जा रहा है। ऐसा लग रहा है कि अब डीजÞल की कामतें भी पेट्रोल की तर्ज पर आसमान छुएंगीं। इसके बिलकुल करीब महंगाई की सीमारेखा है। लेकिन इस महंगाई के प्रति सरकार का अपना आर्थिक उदारवादी नजरिया है।  वह मान कर चल रही है कि यह उदारीकरण जनता के भले के लिए हो रहा है। जबकि जनता में एक सुप्त आक्रोश पैदा हो रहा है। इस समय महंगाई के प्रश्न को सामाजिक नजरिये से देखा जाना भी जरूरी है। क्योंकि अंतत: महंगाई सामाजिक मुद्दा भी तो है। दूसरा प्रश्न ये है कि महंगाई का प्रभाव समस्त समाज पर समान रूप से नहीं पड़ता है।  समाज में दो तरह के लोग होते हैं। एक वे जिनकी आय का स्रोत उनकी मजÞदूरी है चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक। दूसरी तरफ, वे जिनकी आय का स्रोत संपत्ति होती है। अर्थात् ये लोग ब्याज, किराया तथा लाभ के रूप में अधिशेष अर्जित करते हैं। समाज के प्रथम वर्ग में आने वाले लोगों में भी दो वर्ग होते हैं। एक वर्ग असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों का है जिसकी आय स्थिर और न्यूनतम होती है। दूसरी तरफ, सरकारी बाबू-कर्मचारी हैं जिनकी आय महंगाई के अनुपात से बढ़ती रहती है। एक अर्थशास्त्री के नजरिये से महंगाई हमेशा संपत्तिधारी वर्ग के पक्ष में होती है, क्योंकि महंगाई के दौर में उसकी संपत्ति की कीमतें बढ़ती हैं। इससे उसका लाभ भी तेजी से बढ़ता है। यदि महंगाई की दर पांच प्रतिशत से कम हो जाए तो ये लोग उसे मंदी कह कर हाय-तौबा मचाते हैं। सीमित कमाने वाले लोग चाहे वे असंगठित क्षेत्र के मजÞदूर हों या दुकानों में काम करने वाले कर्मचारी। उनकी आय में होने वाले परिवर्तन की अपेक्षा महंगाई में होने वाला परिवर्तन कहीं अधिक होता है। इस वर्ग के लोग अपनी आय का अधिकतम हिस्सा लगभग 40 प्रतिशत खाने पर खर्च कर देते हैं। होना तो ये चाहिए कि डीजल से चलने वाली लक्जरी गाड़ियों पर सरकार टैक्स लगाए और उससे मिलने वाले धन से किसानों को डीजल पर सब्सिडी मिले। सरकार को इसकी कोशिश करनी चाहिए। महंगाई के लिए केंद्र सरकार पूरी तरह से दोषी है। डीजल और रसोई गैस की कीमतें आम आदमी के बजट की धड़कनें तय करती हैं। जनता से जुड़ा होने के कारण तमाम पार्टियों को विरोध करना ही है। लेकिन सवाल ये है कि क्या ये विरोध लोगों को राहत दिलवा पाएगा। सरकार को समझना होगा कि सामाजिक नजरिये को किसी भी तरह ओझल नहीं किया जा सकता।

बुधवार, जनवरी 16, 2013

नाबालिग साबित होने के बाद

  दि   ल्ली गैंगरेप मामले में छठे आरोपी के नाबालिग साबित होने के बाद अब बहस छिड़ गई है कि मौजूदा कानून के मुताबिक वह कुछ ही महीनों में छूट जाएगा। एक रिपोर्ट ये भी है कि अगले पांच महीनों में बालिग हो जाएगा, लेकिन मौजूदा बाल सुधार कानून में किसी भी नाबालिग को उसके अपराध के लिए अधिकतम 3 साल की सजा हो सकती है। इस बहस के दौरान लोग क्रिमिनल जस्टिस लॉ 2012 की ओर देख रहे हैं जोकि संसद में पास होने के लिए लंबित है। लोगों की मांग है कि इसी संशोधन विधेयक में जुवेनाइल की उम्र 18 से घटाकर 16 कर दी जाए। जुवेनाइल एक्ट में बालिग उम्र की परिभाषा भी बदली जाएगी।  इस संदर्भ में कई विशेषज्ञों का मानना है कि 100 साल में बहुत कुछ बदल गया है। आनुवांशिक परिवर्तन, भौगोलिक परिस्थितियां और जीवन स्तर। ऐसे में नाबालिग की उम्र कम करने में किसी तरह की संवैधानिक अड़चन नहीं है। इसके साथ ही एजूकेशन सिस्टम, इंटरनेट और अन्य सूचना माध्यमों के जरिये बच्चों को बहुत सी जानकारियां प्राप्त हो रही हैं। जो उनकी परिपक्वता को बढ़ाती हैं, इसलिए नाबालिग की उम्र कम होनी चाहिए। कुछ वर्षों से बच्चों में हारमोनल चेंज भी तेजी से होने लगे हैं। उनकी सोचने और समझने की शक्ति बढ़ी है। 16 वर्ष के बच्चे में इस तरह के मनोवैज्ञानिक परिवर्तन साफ देखे जा सकते हैं। ये चीजें नाबालिग की उम्र को लेकर नए सिरे से विचार के लिए प्रेरित करती हैं।
नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2011 में हत्या व दुष्कर्म के अतिरिक्त दिल्ली जैसी जगह में लूटपाट में 64 तथा सेंधमारी-वाहन चोरी में 290 नाबालिग अपराधी पकड़े गए। आने वाले समय में यह समस्या और भी गंभीर हो जाएगी। अपराध की तरफ उनका झुकाव अभिभावकों और समाज दोनों के लिए खतरनाक संकेत है। यही कारण है कि अब बालिग होने की उम्र कम करने को लेकर बहस तेज हो गई है। चिकित्सा विशेषज्ञ, मनोवैज्ञानिक, समाजशास्त्री सभी एक जैसा सोचने लगे हैं। न्यायविदों की राय भी  है कि बालिग उम्र घटकर 16 वर्ष होना चाहिए। करीब 138 साल पहले इंडियन मेजॉरिटी एक्ट मार्च 1875 में बनाया गया था। जिसके तहत बालिग होने की उम्र 18 साल निर्धारित की गई थी। लेकिन इतने सालों बाद इंडियन मेजॉरिटी एक्ट में बदलाव न होना लोगों को अखरने लगा है। यहां यह देखना जरूरी है और जैसी कि बाल संरक्षण आयोग ने चिंता जाहिर की है कि इससे बालश्रम को समाप्त करने के प्रयासों को आघात पहुंचेगा क्योंकि देश में18 साल तक के बच्चों की संख्या 44 करोड़ है। उम्र कम होने से कई दूसरी सामाजिक समस्याएं जन्म ले सकती हैं। इस मामले में गहन विचार की जरूरत है। यहां यह विकल्प भी मौजूद है कि 16 वर्ष की उम्र का बदलाव भारतीय दंड संहिता के तहत हो। इसे विवाह, रोजगार, फैक्ट्री एक्ट, बालश्रम और अन्य सामाजिक-राजनीतिक निकायों में लागू नहीं किया जा सकता। अत: इस विषय में और विचार करते हुए विवेकपूर्ण रास्ता निकालना होगा। इसके लिए देश के विशेषज्ञों की टीम को भी अधिकृत किया जा सकता है।
ravindra swapnil prajapati

गुरुवार, जनवरी 10, 2013

रे ल किराए में वृद्धि





 रे ल किराए में वृद्धि के साथ ही चारों तरफ हाहाकार शुरू हो गया है। महंगाई और बढ़ेगी।  सरकार ने किराया बढ़ा दिया लेकिन यह भी विचार करना जरूरी है कि आखिर रेलवे के लिए यह वृद्धि कितनी वाजिब  या कितनी जरूरी थी? भारतीय रेलवे एशिया का बड़ा संस्थान है जिसमें16 लाख से अधिक लोग रोजगार से जुड़े हैं। यह प्रतिदिन 2.5 करोड़ से अधिक लोगों को अपने गंतव्य पर पहुंचाता है। करीब 8 हजार रेलवे स्टेशनों को संभालता है। यह सब जानते हैं कि इतने बड़े नेटवर्क के संचालन के लिए विशाल पूंजी की आवश्यकता होती है। लेकिन वहीं दूसरा सवाल है कि लालू यादव ने रेलवे को जिस फायदे में पहुंचाया था, उसके बाद रेलवे की अर्थ व्यवस्था कैसे चरमराती चली गई? एक दौर में लालू ने पूरी दुनिया को इसी रेलवे के माध्यम से चौंकाया था लेकिन आज कौन सी परिस्थितियां बदल गर्इं कि रेलवे को बीच बजट में ये कदम उठाना पड़े। कैसे रेलवे को कहना पड़ा कि कर्मचारियों को पगार देने के लिए पैसे नहीं बचे। 
जनता कई तरह की महंगाई से परेशान है लेकिन सरकार सुरक्षा और सुविधाओं की बात बार-बार करती है। प्रेस कॉफ्रेंस करते हुए रेल मंत्री पवन कुमार बंसल ने किराया बढ़ाने के पीछे तर्क दिया कि रेलवे का खर्चा बढ़ा, लेकिन किराया अब तक नहीं बढ़ाया गया था। रेल मंत्री ने यह भी साफ किया कि अब इसके बाद रेल बजट में किराया नहीं बढ़ाया जाएगा।  यह तर्क क्यों?  समझ से परे है कि यूपीए सरकार हर चीज महंगी करते हुए तर्क दे रही है कि यह जनता के हित में है या यह सब जनता की सुविधाओं के लिए किया जा रहा है। पर जनता निरंतर दुखी होती चली जा रही है। रेलमंत्री कहते हैं कि लोग बेहतर और आधुनिक सुविधाओं के लिए ज्यादा पैसे देने के लिए तैयार हैं। इस तर्क पर कई प्रतिप्रश्न किए जा सकते हैं? रेलवे को आधुनिक बनाने के लिए और भी कई तरीके हैं। इन्हें अपना कर सरकार इस बजट सत्र को तो पूरा कर सकती थी। अगर हाल ही की कीमतों की बढोतरी में सिर्फ किराया ही होता तो जनता में इतनाआक्रोश नहीं फैलता। इससे पहले गैस की कीमतों ने पूरी तरह से उलझा दिया। लोग इसके लिए आज भी परेशान हो रहे हैं। हालांकि रेलवे के पक्ष से भी चीजों को देखना जरूरी है। किराया वृद्धि के इस तर्क से असहमत नहीं हुआ जा सकता कि  रेलवे का किराया पिछले आठ सालों में नहीं बढ़ा। देखा जाए तो रेलवे का यात्री किराया खर्च बढ़ने के अनुपात में कम ही बढ़ा है। राजनीतिक कारणों से रेलवे पर जनता को कई तरह  की छूट देने का दबाव होता है। कम भाड़ा और सीमित सरकारी मदद के बाद रेलवे से पर्याप्त सुरक्षा और सुविधा देने की अपेक्षा रखी जाती है। सुरक्षा की बात करें तो रेलवे के आधुनिकरण के लिए बड़ी पूंजी चाहिए और जब तक कोई सुरक्षा प्रणाली का प्रयोग होना शुरू होता है तब तक वो तकनीक पुरानी हो जाती है, इसलिए सुरक्षा में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हो पाता है। सच तो ये है कि हमारी सरकार से लेकर जनता तक काम-काज का तरीका व्यावसायिक नहीं है। रेलवे को भी इस पर विचार करना चाहिए।

बुधवार, जनवरी 09, 2013

आईआईटी की सालाना फीस में 80 फीसदी तक की वृद्धि

   
 आईआईटी इंजीनियरिंग कालेजों की फीस में सालाना चौगुना से भी अधिक फीस बढ़ाने का प्रस्ताव दिया है। क्यों? इसके पीछे विदेशी विश्वविद्यालयों को घुमाफिरा कर मदद पहुंचाने की एक बड़ी साजिश देखी जा रही है।



आईआईटी जैसे संस्थान में पढ़ने की इच्छा रखने वाले छात्रों के लिए यह एक चौकाने वाली खबर है। सरकार ने आईआईटी की सालाना फीस में 80 फीसदी तक की वृद्धि की है। मानव संसाधन विकास मंत्री एम एम पल्लमराजू की अध्यक्षता में आयोजित आईआईटी काउंसिल की बैठक में बी.टेक कोर्स की फीस बढ़ाने के फैसले को हरी झंडी दे दी गई। हालांकि फीस की बढ़ोत्तरी केवल सामान्य वर्ग के छात्रों के लिए की गई है। लेकिन इससे शिक्षा जगत में कुछ नए सवाल भी उठ रहे हैं। सरकार ने कुछ हफ्तों पहले ही केंद्रीय विद्यालय की फीस बढ़ाई गई है। इससे लग रहा है कि महंगी शिक्षा अब अनिवार्यता हो रही है। सरकार शुल्क पर अपना नियंत्रण क्यों खोती जा रही है। यह समझ से परे है? शिक्षा के प्रमुख स्रोत बनते जा रहे निजी विद्यालयों की बात ही निराली है। उनको अब सरकार नियंत्रित नहीं कर पा रही है। हर साल फीस, स्टेशनरी, यूनिफार्म के नाम पर 20 से 25 फीसदी अघोषित वृद्धि होती है। जिन स्कूलों में जहां प्रवेश शुल्क बीते साल 22 से 25 हजार थी वहीं इस साल 30 हजार रुपए तक सिर्फ प्रवेश का लिया गया। शिक्षा की यह महंगाई बच्चों को दो हिस्सों में बांट रही है। महंगी शिक्षा के कारण औसत आमदनी वाले परिवारों पर अतिरिक्त बोझ आएगा।  हर साल भारत के 15 आईआईटी में 3.5 लाख छात्र इनकी प्रवेश परीक्षा में बैठते है। जिसमें से लगभग 8 हजार छात्र चुने जाते हैं। इस कठिन परीक्षा के लिए देशभर में छात्र वर्षों कड़ी मेहनत करते हैं। महंगे कोचिंग संस्थानों में पढ़ाई करते हैं। खुद सरकार भी देश की परेशान हाल जनता को तरह-तरह से महंगाई के नागफाश में जकड़ रही है। रही-सही कसर पूरी करने का जिम्मा कपिल सिब्बल ने ले लिया है। उन्होंने आईआईटी इंजीनियरिंग कालेजों की फीस में सालाना चौगुना से भी अधिक फीस बढ़ाने का प्रस्ताव दिया है। क्यों? इसके पीछे विदेशी विश्वविद्यालयों को घुमाफिरा कर मदद पहुंचाने की एक बड़ी साजिश देखी जा रही है। इसे बढ़ोतरी में यह भी देखा जाना चाहिए कि दो साल पहले कपिल सिब्बल अमेरिका घूमकर लौटे तो दावा किया कि अनगिनत विदेशी विश्वविद्यालयों ने भारत में अपनी शाखाएं खोलने का इरादा जताया है। लेकिन जल्द ही पता चला कि अधिकांश विश्वविद्यालयों ने शाखा खोलने से इनकार कर दिया है। इसका एक बड़ा कारण प्रमुख सरकारी शैक्षणिक संस्थाओं की फीस कम होना। जैसे आईआईटी जैसी इंजीनियरिंग की विश्वस्तरीय संस्था में इंजीनियरिंग के छात्र-छात्राओं से लगभग पचास हजार रुपए फीस ली जाती है। मध्यवर्गीय लोगों को यह रकम काफी भारी पड़ती है। लेकिन शिक्षा के नाम पर लूट की मानसिकता रखने वाले राजनेताओं-अधिकारियों और शिक्षा माफिया की नजर में यह फीस मामूली है। विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए तो और भी ज्यादा जरूरी है कि फीस की रकम में भारी बढ़ोत्तरी हो ताकि दोनों में बहुत अंतर न रहे। यही कारण है कि सरकार बैंक ऋण का दुष्चक्र भी चाहती है। दुनिया में कितना भी व्यवसाय हो लेकिन वह मानवीयता से जुड़े होने पर ही शिक्षा अपनी उत्कृष्टता साबित करेगी।

शुक्रवार, जनवरी 04, 2013

अमेरिका में घृणा


एक तरफ विश्व ग्राम की बात की जाती है तो दूसरी तरफ मानव सभ्यता को घृणा जैसे मनोविकार से मुक्त नहीं किया जा सका है। दुनिया में नस्लीय घृणा की मानसिकता बढ़ रही है।


मेरिका के न्युयॉर्क में इस महीने सब-वे रेल स्टेशन पर ट्रेन के सामने धक्का देकर हत्या का यह दूसरा मामला है। इससे पहले टाइम्स स्क्वेयर पर रेलवे स्टेशन पर भी एक व्यक्ति को पटरियों पर आती हुई ट्रेन के सामने धक्का देकर मार डाला गया था। यह मामला भी घृणा से जुड़ा था। दुनिया के लिए मानवता का संदेश देने वाले अमेरिकी अब इस नस्लीय हिंसा का क्या उत्तर देंगे? जिस महिला एरिका मेनेंडेज ने इस हत्या को अंजाम दिया उसने स्वीकार किया है कि हां उसने धक्का मारा था। उसने पुलिस को बताया कि मैंने समझा कि वह एक मुस्लिम है। नस्लीय घृणा की यह मानसिकता एक उच्च सभ्यता के प्रतीक अमेरिकी समाज में फैलना कई तरह की चिंताओं का कारण बन सकता है।
हालांकि त्वरित कार्यवाही करते हुए पुलिस ने धक्का देने वाली 31वर्षीय एरिका को गिरफ्Þतार कर लिया है। पूछताछ में महिला ने पुलिस को बताया है कि 9/11 के बाद से उसे हिंदुओं और मुसलमानों से घृणा हो गई। इसके बाद पुलिस ने उस पर घृणा अपराध के लिए सेकंड डिग्री हत्या का आरोप तय किया है। पुलिस के मुताबिक उसने सेन को मुसलमान समझकर मारने के लिए ही चलती हुई ट्रेन के सामने धक्का दिया था। सुनंदो सेन क्वींस इलाके के 40 स्ट्रीट स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर खड़े थे। उस समय वह काम से घर लौट रहे थे। सतर्कता के लिए इन दो हादसों के बाद सब-वे ट्रेन प्राधिकरण के निदेशक जोसफÞ लोटा ने अपील की है कि प्लेटफÞार्म पर जÞरूरी एहतियात बरतें। जोसफÞ लोटा ने कहा, मैं सभी यात्रियों से अनुरोध करता हूं कि वह पटरी के बिल्कुल पास न खड़े हों औरÞ अगर कोई संदिग्ध व्यक्ति दिखाई दे तो फÞौरन 911 पर पुलिस को फÞोन करें। यह चेतावनी तो भारतीय नेताओं के स्तर की है। इसमें कोई सरकारी प्र्रयासों की झलक नहीं मिलती है। न्यूयॉर्क में सबवे और लाईट रेल सेवा का 85 लाख लोग रोजÞाना प्रयोग करते हैं। इतने बड़े नेटवर्क के लिए यह समस्या ही है। मूल तत्व है घृणा को तिरोहित करना। यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि जब गुस्से को उपचार नहीं होता तो वह बैर और घृणा में बदल जाता है। इससे लोग इस तरह के कामों को अंजाम देते हैं। इस पर पूरी दुनिया को गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। यह घृणा अगर संगठित रूप में सामने आ जाए तो यह आतंक का दूसरा रूप है। अमेरिकी समाज में यह तात्कालिक प्रतीकात्मक विरोध है जो धीरे धीरे हिंसक घृणा का रूप लेता जा रहा है। यह नस्लीय हिंसा सुप्त और निष्क्रि य क्रोध से पैदा होती है। यह विकृत रूप है, जो नहीं देखता है कि उसके कारण से कौन मारा जा रहा है। यह अमेरिका में फैली हताशा का परिणाम भी हो सकता है। अक्सर इस तरह की हिंसा हताश मानसिकता का प्रतीक भी है। और अंत में अमेरिका अपने लोगों के व्यवहार को कैसे बदले? हिंसा की ये घटनाएं अमेरिकी ही नहीं पूरी दुनिया को भी सोचने पर मजबूर कर रही हैं। अमेरिका में प्रवासी हिंदू और मुस्लिमों के प्रति घृणा स्वस्थ्य समाज का लक्षण नहीं है। अमेरिका को इस घृणा और क्रोध को खत्म करने के लिए दूरगामी उपायों को अपनाना चाहिए। वरना ये शुरुआत है जो घृणा और हिंसा को और अधिक फैला सकती है।

शनिवार, दिसंबर 22, 2012

रमेशचंद शाह से रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति की बातचीत



आपके बचपन और आपकी स्मृतियों से साहित्य का रिश्ता कैसा है। मैं आपके बचपन और साहित्य के बीच के रिश्ते की बात करना चाहता था।


जहां तक बचपन और कलाकारों का संबंध है तो सबसे ज्यादा अचेतन रूप से यह प्रभाव कलाकारों लेखकों पर होता है, भले हम इसके लिए सचेत हों या न हों। कहा भी गया है कि मनोवैज्ञानिक रूप से सबसे ज्यादा बचपन के पहले पांच दस वर्षो में मन पर जो छापें पड़ती हैं वह बहुत महत्वपूर्ण होती हैं।  क्योंकि दुनिया की सिखी सिखाई बातों का इस अवस्था का कोई असर नहीं होता, कोई स्वीकार नहीं होता।
वे सबसे ज्यादा टिकाऊ होती हैं और सबसे ज्यादा गहरी भी  होती हैं। हमारे जीवन में हजारों लाखों बिंब बचपन के पड़े हैं, कान के ध्वनि बिंब, दृश्य के बिंब, हवाओं के, प्रकृति के, पेड़ पौधों के हिलने झरझराने के बादल के गरजने के तमाम बिंब इस उम्र में आते हैं और जीवन का हिस्सा बन जाते हैं।
लेकिन मैं भी चकित हूं कि क्या कारण है कि कोई दस पांच बिंब और स्मृतियां ही इस दौरान बची रह पाती हैं। इस वक्त तक आदमी समाज के द्वारा सबसे अधिक स्वतंत्र रहता है। रोना है तो रोना है किसी का कोई दबाब नहीं।
हमारे जमाने पर, उस वक्त पर आज हमें तो गर्व है कि हमें तो हमारा पूरा बचपन मिला। हमें बचपन का पूरा सुख मिला। पंाच वर्ष तक हम स्कूल गए ही नहीं। हम निरक्षर भट्टाचार्य रहे। पढ़ाई बढ़ाई स्कूल की रुटीन से बिलकुल मुक्त रहे। इससे प्रकृति के आसपास का सीधा संपर्क रहा। पूरा संवाद बना।
अब जैसे कुछ स्मृतियां हैं। वह कविता में आती हैं। ये यादें बुलाने से नहीं आतीं। ऐसी ही एक कविता लिखी है वो बहुत पुरानी, बहुत बचपन की यादें हैं। उस कविता में एक बच्चा सुबह-सुबह खिड़की में खड़ा है, सामने पहाड़ है। वह हिमपात को देखता है। वो कविता मुझे याद नहीं है। तुम ढ़ृूंढ सकते हो। इस कविता में साकार हुआ, यह मेरी चेतना पर पड़ा पहला बिंब है। मैं तब दो या ढाई वर्ष का रहा हूंगा। रात भर हिमपात हुआ है। कविता में है कि एक बच्चा है, खिड़की में खड़ा है। रातभर हिमपात हुआ है। सारा पहाड़ उस हिमपात से ढका है। आश्चर्य से पहाड़ भी मुझे देख रहा है। वह बच्चा खिड़की से वह दृश्य देख रहा है। अवाक है। वह भौंचक है। वह मेरी पहली स्मृति है। जैसे बादल भी उससे कुछ कहना चाहता है। ये स्मृतियां बुलाने से नहीं आती हैं। ये अपनी तरह से आती हैं। यह बहुत फोर्स से आईं। वर्षों बाद यह उभर कर सामने आई। सब कुछ अवाक है। मैं भी और पहाड़ भी। ये इतनी फोर्स के साथ वर्षों बाद में आईं तो मैं सोचने लगा कि ये स्मृति ये बिंब कैसे आए। स्मृतियां जैसे कुछ चाबियां हैं जिनसे ताला खुलता है। मैं सोच रहा कि ये बिंब आया कहां से? मैं बहुत देर तक ये सोचता रहा।
ये मेरी चेतना पर पड़ी हुई प्रकृति की पहली छाप है। ये बहुत गहरे से मेरी चेतना में पड़ी थीं। ऐसी स्मृति कुल जीवन में दस बारह होती हैं। जब ये आती हैं तो बहुत ताकत से आती हैं। यह याद इतनी फोर्स के साथ आई, एकदम कि मैं चुप हो गया। मुझे याद है अभी भी याद है कि वह कब याद आई। यह मुझे बरसों बरस बाद याद आई। मैंने बहुत देर तक विचार करने के बाद पहचाना। इस प्रकार के कई बिंब  जीवन में लौट लौट कर आते हैं और उनमें लगता है कि जीवन का कोई रहस्य सत्य छुपा है। वह कुछ हमसे कहना चाहते हैं। हमसे बातें करना चाहते हैं। कुछ कथाएं कहना चाहते हैं। जैसे कि ये बिंब चाबियां हैं, जिनसे ताला खुलता है। ऐसा मुझे लगता है। तो बचपन के जीवन का हिस्सा बहुत महत्वपूर्ण होता है और वह कई रूपों में आपकी तरफ आता है।


स्मृतियों का सौंदर्य क्या है? आज साहित्य और कला में क्या यह बचा है? अभी जो नए साहित्यकारों और उनके साहित्य में बदलाव आए हैं उनमें ऐसी स्मृतियां नहीं हैं, आप इस बदलाव को तुलनात्मक रूप से किस नजरिये से देखते हैं?
यहां पर दो बातें हैं। मेरे साथ क्या हो रहा है और मेरे आसपास क्या हो रहा है? जहां तक मेरी रचना प्रक्रिया का सवाल है, मेरी स्मृति का सवाल है तो वह मेरी चेतना की पूंजी हैं। मेरी स्मृति मेरी चेतना का अभिन्न हिस्सा हैं। प्रकृति ही मेरी स्मृति है। प्रकृति मेरे जीवन में अवाक है। मेरी रचनात्मक चेतना के निर्माण में प्रकृति का बहुत योगदान है। मैं पहले ही बता चुका हूं कि मेरी स्मृति पहाड़ से जुड़ी है। वह मेरी चेतन की पूंजी है। मेरे बचपन में मेरी स्मृति में प्रकृति ही है। लेकिन आज की छापें जो पड़ती हैं स्मृति पर चेतना पर, उनसे मेरा संघर्ष होता है। अब जो स्मृति मेरे पास है वह अवाक है। वह नई है, उसमें दोहराव नहीं है। सच तो ये है कि प्रकृति में दोहराव होता ही नहीं। आज भी मैंने प्रकृति की कविताएं लिखी हैं। यह इसलिए कि प्रकृति मेेरे बचपन का हिस्सा हैं। वे मुझसे जुड़ी हैं।
आज भी प्रकृति मेरा सहारा है। आपको बता दूं कि रानी खेत में मेरा भाई है। उसके यहां एक छोटा सा बगीचा है। भाई वहां रहता है।  मैं उस बगीचे में छटाई कर रहा हूं। निड़ाई-गुड़ाई कर रहा हूं। यहां पुराने पशुओं की तरह पुराने पौधे एकटक देख रहे हैं। मैं वही बैठ गया हूं। आज भी लगता है कि जैसे वे पौधे मुझे देखते हैं। मैं सोचता हूं कि ये क्या बात है कि आदमियों से तो ऊब हो जाती है लेकिन इनसे क्यों नहीं ऊब लगती है।
लेकिन पौधे से आप नहीं ऊबते हैं। प्रकृति से आप नहीं ऊबते हैं। अच्छे-अच्छे साथी से आप से ऊबने लगते हैं। आज ऐसा लगता है कि ये कोई वो प्रकृति नहीं है। अब इस पर वह सब नहीं लिखा जा सकता... यह विकास मानीवय सभ्यता ऊब देती है। लेकिन ऐसा भी नहीं कि मैंने दूसरी कविताएं नहीं लिखीं। मैंने उस प्रकृति को छोड़ कर यह दूसरी स्मृति की कविताएं भी हैं।
आज मुझे ऐसा लगता है, जो कविताएं में पढ़ता हूं। उससे मुझे लगा कि आज युवा कविता है ही नहीं है। बहुत दिनों तक मैंने पाया कि युवा कविता कह-कह के आप चालीस पचास वर्ष के हो गए और आज भी आप खुद को युवा कवि कहते हैं। आप इस तरह से बिहेव कर रहे हैं कि युवा कविता कभी वयस्क होती ही नहीं है। जबकि हम हर-हर बार नई कविता को पाते हैं। हर दस साल में पूरा दृश्य बदल जाता है। उसकी अलग चुनौतियां होती हैं। और डिवलप का मतलब क्या होता है? जब हम कहते हैं कि फलाने कवि का विकास क्रम क्या है? जिसे आप विकास क्रम कहते हैं।
कविता के लिए तीन चीजों की आवश्यकता होती। ये भाव तंत्र, बुद्धि तंत्र और शरीर तंत्र है। तीनों के मिलन से कविता  संभव होती है, तीनों एकसाथ सहयोग करते हैं।
कविता अपने आसपास की चीजों का सहयोग करती है। कविता ऐसी चीज है जिसमें आपके नाक कान भी एक्टव होते हैं। आपका भाव तंत्र और विचार तंत्र भी सक्रिय होता है कविता एक समन्वित और एकीकृत प्रक्रिया है। इसीलिए यही कारण है कि कविता से मिलने वाला सुख अन्य किसी चीज से मिलने वाले सुख अधिक होता है। कविता से जो अभिव्यक्ति मिलती है वह, अनोखी होती है। इसमें आपके समूचे व्यक्तित्व को अभिव्यक्त मिलती है। इसलिए कवि से हमारे यहां खास कर भारत में, कविता में खास तरह की विजडम की मांग की जाती है। हमारे यहां ऐसा नहीं कि ये रहा धर्म ये रही कविता। यहां कविता एक एकीक्रत सन्वित प्रयास है। कविता से एक विजडम की मांग की जाती है।
क्या कारण है कि कवियों ने इस समाज को एजुकेट किया है। दुनिया में ऐसा कोई उदाहरण ही नहीं मिलता है जहां कवि एजुकेट भी करता है। मुझे याद है गांव की कि दुकान पर लोग आते थे, जिनमें से निरक्षर ही अधिक होते थे, लेकिन देश में क्या हो रहा है। राजनीति में क्या हो रहा है। इस पर बातें होती थीं। उसमें से कोई पहली पास भी नहीं होते थे। लेकिन उनको कबीर और तुलसी के दोहे चौपाई याद रहती थीं। गिरधर की कुंडलनी याद आ रही है। लेकिन वहां कोई लिखने वाला ही नहीं था। आज जो शिक्षा है वह तकनीकी है, भाव के स्तर पर उसमें कुछ नहीं है।
कविता का कितना संबंध समाज से है, यह जरूरी है। कविता अन्न की तरह उपयोगी थी। कविता की जरूरत पान सुपाड़ी तरह लोगों को रहती थी, जब गांव में लोग कोई बात कहते हैं तो उसकी पुष्टि कविता से करते थे, लेकिन आज के परिवेश में ऐसा नहीं है। उस समय कविता उदाहरण के रूप में लोगों की जुबान से निकलती थी। उक्ति के रूप में आती थी। कविता का कितने तरह से उपयोग हो सकता है यह वहां जाना। उन गांव वालों के बीच रहते हुए।

दूसरी बात आज जो मुझे बात अखरती है कि इतना सामाजिकता का दावा आज है, वह पहले कभी नहीं था। कोई दावा नहीं होता था। जैसा आज कहते हैं-हम ये बदल देंगे, ये कर देंगे, वो कर देंगे। आज कविता के साथ वो संबंध न तो समाज में रहा है, न कवियों में है। जैसे ये जो मोहल्ला है। निराला नगर (भोपाल) यहां काफी लेखक हैं, लेखक ही लेखक हैं। बाकी समाज को छोड़ दें, उसकी कोई रुचि साहित्य में नहीं है। आज कई कवि यहां हैं लेकिन कोई भी अपनी प्रेरणा के साथ नहीं आता। आज कवि खुद ही आपस में कविता को जीते हैं। जब आप लिखते हैं तो खुद के लिए लिखते हैं। जैसे रेशम का कीड़ा आपके लिए रेशम नहीं बनाता है। वह अपनी पीड़ा से बचने के लिए रेशम रचता है। आप उससे वह छीन लेते हैं जो वह अपने लिए कर रहा होता है। जो कविता है, वह खुद उसके लिए होती है। जब आप लिखते हैं तो दूसरों के लिए नहीं लिखते। कविता का प्रमाण ये है कि वह दूसरों पर असर करती है या नहीं। इसकी चिंता नहीं है इसीलिए समाज से उसका कोई संबंध नहीं रहा है।
आज भी मैंने एक कविता लिखी है लेकिन उसको सुनने वाला कोई नहीं है। वह अनुभूति शेयर नहीं हो रही है। आप छोटी सी बिरादरी में सुनते-सुनाते हों तो सुनाते हो, लेकिन मुझे आज तक याद नहीं कि कि कोई कवि ऐसा नहीं है जो अपनी कविता के साथ आया हो। आज मैंने ये कविता लिखी है। लोग कहते हैं लेकिन कविता मे वैविध्य कहीं नजर नहीं आता। आज कविता को लोग हांक रहे हैं। अभिव्यक्ति हमारे समाज की जरूरत है। और अभिव्यक्ति है तो कविता संप्रेषण भी है।
जब आप कविता लिखते हैं तो आपका चित्त एकाग्र हो जाता है। लेकिन आज के कवि ये दावा अवश्य करते हैं कि उसने इस विचारधारा का प्रतिपादन किया है। ये गरीबी को बताया है लेकिन वे यह नहीं जानते कि इंसान एक जीता जागता आदमी है। कविता अभिव्यक्ति और संप्रेषण दोनों है। वह सामने वाले तक पहुंचनी है, यह भी महत्वपूर्ण है। जब आप कविता लिखते हैं तो आपका चित्त लगातार बोलता रहता है। उसमें एकाग्र हो जाता है। शांत हो जाता है। ये कैसे होता है, क्यों हो जाता है, यह प्रक्रिया चलती है।


ऐसा क्यों हुआ? ऐसी कौन सी ऐतिहासिक गलतियां हुईं जो हमें यह भुगतना पड़ा है। कविता जनता से क्यों दूर हुई और क्यों कवियों को दावे करना पड़े कि वह जनता के लिए ये कर रहा है, वो कर रहा है? संवादहीनता की स्थिति क्यों बनी ऐसा कर रहा है? क्या वैचारिक रूप से कोई भूल हुई इन सौ सालों में। ऐसा क्या हुआ कि हिंदी कविता को अपनी ही जनता से दूर होना पड़ा? क्या हमारे समाज में लोकतंत्र खास कर अभिव्यिक्त के स्तर पर था?

इसमें कविता का आंतरिक साक्ष्य है, उसको देखिए। स्वतंत्रता के  पहले की कविता स्वतंत्रता के बाद की कविता। स्वतंत्रता के बाद की कविता मोहभंग की कविता कही जाती है। स्वतंत्रता से जिस तरह की उम्मीदें लोगों ने लगाई थीं, उससे मोह टूटा। उसकी आधुनिकता की बात भी सामने आई। सच तो ये भी है कि पहले कविता सुनने के लिए होती थी। समाज में जब कविता पढ़ते थे तब तत्काल उसका पता चलता था। आज कविता वाचिक हो गई। कवि उसे कान से सुनता था लेकिन आज मुझे लगता है कि कविताएं कान को संबोधित ही नहीं होती हैं। तो ये जो कहीं न कहीं स्वतंत्रता के बाद कविता मोहभंग की कविता है। यही समझ में आता है कि देश की जनता का प्रतिनिधित्व करने वाले गांधी जी आए थे। लोहिया आए लेकिन कोई कारण नहीं है कि उस जमाने में लोहिया के समर्थकों ने अच्छी कविता लिखी हैं। ये दो बड़ी चीजें हैं।
देश की जनता का प्रतिनिधित्व करने वाले, उनके बोलने वाले गांधी जी आए। गांधी जी अंधे-गूंगे-बहरे लोगों के प्रतिनिधि
बन कर आए थे। आजादी के बाद की कविताएं सबसे अच्छी लोहिया के विचारों से प्रभावित लोगों ने लिखी हैं। क्या कारण है कि श्रीकांत बहुत अच्छे कवि थे। सहाय थे। वे लोहिया के अनुयायी थे लेकिन उनके पास कविता में जब भी बड़ा चेंज आता है तो वह पॉज का चेंज होता है। मामूली सा चेंज होता है लेकिन बहुत बड़ा चेंज होता है।
ऐसा नहीं है कि राजनीति नहीं होगी। राजनीति नहीं होगी तब भी कविता में राजनीति होगी, लेकिन वह कविता की शर्तों पर होगी। क्या कारण है कि नई कविता अचानक छपने की कविता हो गई। ये विचार करने की बात है। जैसे रघुवीर सहाय की कविता है- बस में चढ़ती स्त्री दूर तक मैं घिसटता हूं। इस कविता में राजनीति भी है। यह व्यवस्था पर सवाल करती है। राजनीति के लिए और भी कई कवि हैं। धूमिल हैं लेकिन क्या कारण हैं कि जो स्वभाव कविता का है वह वहां नहीं है। क्या कारण है कि कविता जो सुगबुगाहट पैदा करती थी वह अब नहीं है। इसके कारण हैं। हमने कविता से देश की परंपरा और संस्कृति से भरा-पूरा जीवन निकाल दिया है। कविता एक आयामी हो गई है और अपने में सिकुड़ गई है।
कोई भी अन्याय हो रहा है, वह कर्म में प्रकट हो रहा है। आप उस अन्याय कर्म का काम कविता से ले रहे हैं। हाल की जो कविताएं हैं, वे जीवन से नहीं हैं, ये विचार से आई हैं। कविता कर्म का विकल्प नहीं हो सकती। मुझे मालूम है विजयदेव नारायण साही जी इलाहबाद के भदोही में बुनकरों के साथ काम करते थे। कविता के साथ वे काम करते थे। लोहिया जी जो कविता में चाहते थे, वे उसे जीवन में लड़ते थे। कवि जो होता है वह सामाजिक होता है। उसका रिश्ता ब्रह्मांड से होता है। चारों दिशाओं से होता है वह कविता में बजना चाहिए, वह कविता में आना चाहिए। तब वह सब तक पहुंचती है। आज वह एक आयामी हो गई, इसलिए लोगों ने आपकी कविता पढऩा छोड़ दिया है।
आप लाख खुद को समझा लीजिए, छपा लीजिए लेकिन कविता जनता के पास नहीं जा रही है। आज इतनी संख्या में कविताएं लिखी जा रही हैं, उतनी कभी नहीं लिखी गईं। लेकिन यह भी देखिए कि लोग पढ़ते भी हैं या नहीं।
मुझे लगता है कि हिंदी साहित्य में विचारधारा नाम की चीज ने बहुत गड़बड़ किया है। इसने समाज से लोगों को काट दिया। आप लोगों से नहीं मिलेंगे और एक खास गुट के बीच रहेंगे, उससे एक खास तरह की छुआछूत फैली। हमारा परंपरागत जातिवादी व्यस्था जैसा हाल हो गया। जो हमारे गुट का नहीं वह हमारा कवि नहीं। विचारधारा में हो रहा है कि आपको तय किया जाता है कि आप क्या लिखेंगे। आज भी आप अच्छी कविता लिखते हैं तो लोगों को पता चल जाता है।
गुट ने समूह ने अच्छी बुरी कविता और कवि के अच्छे-बुरे का भेद मिटा दिया है। यह विचारधारा है, विचार नहीं है। आप हमारी विचारधारा के हैं तो आपको उठाया जाता है जबकि आप कवि कमजोर हैं। ये काम हमारी जातिवादी धारणा से भी अधिक घातक हुई। जो हमारे साथ नहीं, वह एक प्रकार से कवि नहीं। यहक्या है?
विचारधारा में ये बताया जाता है कि आप क्या लिखेंगे? आपने विचारधारा के अनुरूप लिख दिया तो आप छप गए। एक खास वर्ग में आप कवि हो गए। इस प्रक्रिया में जनता की स्वीकार्यता का कोई अर्थ नहीं रहा। एक कवि को छपने के लिए जो सहज संघर्ष करना होता था, वह छीन लिया गया।
किसी कवि ने लिखा तो आपने विचारधारा में दीक्षित कर लिया। आपने उसको सहायता दे दी और उसके स्वभाविक संघर्ष को छीन लिया। उड़ान की क्षमता छीन ली।
हां ऐसे में एक कवि अपनी स्वतंत्रता की घोषणा नहीं करता। उसके विचार की सामथ्र्य ही खत्म हो जाती है। विचारधारा कविता के रंग छीन लेती है। अलग-अलग रंग नहीं रहने दिया। विचारधारा के कवि दस साल बाद भी वही लिखते हैं जो प्रारंभ में लिखते थे। कोई पड़ाव नहीं मिलते उसको। वही रुटीन मिलता है।

इससे आप मानते हैं कि समाज और कविता का रिश्ता टूटा? या उसमें असहजता आ गई?
हां समाज और कविता में सहज रिश्ता नहीं रहा। आप समाज में जाए बिना समाज की बात करते हैं। इससे आप अपने समाज को जान ही नहीं सकते। जीवन में जो आंदोलन करना चाहिए, वह आप नहीं करते। आप सिर्फ कविता में आंदोलन करते हैं। इससे आप भी जीवन से वंचित होते हैं और कविता से भी जीवन छीन लेते हैं। इससे कविता का और समाज का रिश्ता कमजोर हुआ।

मैंने ऐसे अनुभव किए हैं। जब मेरी कविता को सुधारा गया बताया गया कि ऐसे प्रस्तुत करें। इस तरह लोगों को बताएं कि आपके दुश्मन कौन हैं? तो मुझे लगा कि कविता को मोल्ड किया जा रहा है। कविता नहीं सुधारी जा रही, विचार बताया जा रहा है। मेरे मन में आया कि यह तो झूठी बात हुई। कविता तो अपने व्यक्ति के मानस के मिले जुले परिवेश से पैदा होती है जबकि मुझे पूर्व निर्धारित स्थिति के तहत लिखना बताया जा रहा है। ऐसे कई और लोगों के अनुभव भी रहे हैं, आप इस पर क्या कहना चाहेंगे?

कमजोर कवि कविता के रूप, बिम्ब और शब्द के अर्थ की बात नहीं करता है। इस शब्द के अर्थ को इस तरह बरतना है इस पर बात नहीं करता। वह इस पर बात नहीं करता क्योंकि उसे वह जानकारी ही नहीं है। वह केवल विचार की नहीं अपनी विचारधारा की बात करेगा? इससे कविता में काव्य गुणवत्ता कमजोर हुई। आप गुट बनाकर काम करते हैं तो वह सीमित स्वीकार्यता पाती है। इससे पूरे युवाओं की कविता की विविधता खत्म हुई और कविता में एकरूपता आई।
आप गुट बना कर कहते हैं कि फलां इकाई ने या गुना इकाई ने ये किया, वो किया। इससे आप लोगों को भुलावे में डाल रहे हैं। विचारधारा की बात कर कवि समझता है कि वह विश्व मानवता की सेवा कर रहा है जबकि आप कुछ नहीं कर रहे हैं।
भाषा पर आजकल कोई काम नहीं हो रहा है क्यों? क्योंकि उसने भाषा से रिश्ता जानबूझ कर खत्म किया है। विचारधाराई माहौल में, नारेबाजी के माहौल में जिस कवि को भाषा के आयाम पता नहीं है, वह कविता को कमजोर करता है।

आज इसीलिए समाज का कविता से वो रिश्ता नहीं रहा है। विचारधाराई मानसिकता ने यह तोड़ा ही बचा हुआ दूसरी चीजों ने खत्म कर दिया।
लेकिन यह होना ही था। तकनीक का विकास हुआ। नई चीजें आईं। हमारे गांव में ही रेडिया पहली बार आया तो लोगों का आकर्षण देखने लायक था। फिर टीवी आई और आज तो कई चीजें हैं। अब कई विकल्प आ गए हैं। कविता अब एकमात्र विकल्प नहीं रहा शिक्षा और मनोरंजन का। आज कविता से वैसा कोई रिश्ता नहीं रहा है। मनोरंजन के साधन बढ़ गए हैं। अब कविता से कोई मनोरंजन नहीं करता। तो समाज का कविता से वह रिश्ता पुराना रिश्ता तो बनना ही नहीं था। आज कवि गोष्ठी से जनता का कोई सबंध नहीं है, तो क्या गड़बढ़ है?
मैं एक उदाहरण देता हूं। मुक्त छंद को सबसे पहले किसने लिखा? निराला ने लेकिन उनसे बड़ा छंद किसी ने नहीं लिखा। एक और पश्चिम का बहुत बड़ा कवि है कहता है -भला हो छंद नियमों को/ हमारी हरकतों पर अंकुश लगाते हैं, मनमाने भावों को चुनने के बजाए उत्कृष्ट भावों को तलाशने के लिए मजबूर करते हैं।
यह कवि आडेन था। वो ऐसा कह रहा है- छंद हमें मनमानी से रोकते हैं, अधिक स्वतंत्रता देते हैं। मैंने छंद नहीं छोड़ा है। मुझे नहीं लगता कि उसे छोडऩे की आवश्यकता है। प्रकृति में लय है चारों तरफ। पक्षी उड़ते हैं लय में, हवाएं चलती हैं लय में, आज कवियों की लयात्मकता बहुत कमजोर है।
आडेन ने एक जगह डायरी में लिखा है कि मेरे पास कई युवा आते हैं और कहते हैं कि मेरे पास ये शब्द हैं, मैंने ये कविता लिखी है तो वह कहता है कि ये अच्छी कविता नहीं लिख सकता। जब कोई शब्दों को तलाशने आता है तो लगता है कि कविता लिखेगा। यह उसके अनुभव से उपजी बात है।
आजकल विचारधारा वालों ने एक घटिया गाली निकाली है। जो कवि अच्छा लिख रहा है, उसे रूपवादी कह दो, कलावादी कह दो। इससे ज्यादा घटिया कुछ हो नहीं सकता।
रूप को शरीर से अलग नहीं किया जा सकता। आप शरीर से आत्मा को अलग नहीं कर सकते। लेकिन ये कहते हैं। कविता होगी तो रूप भी होगा, कला भी होगी। प्रकृति में कुछ भी एक सा नहीं हो सकता, मशीन में हो सकता है। आप रूपवादी भी होंगे और कलावादी भी। विचार भी कविता में होगा। लेकिन आप कहने वाले निर्देशित करने वाले कौन होते हैं। इन्हें कौन समझाए।
लेखक स्वतंत्र है। जहां सबसे अधिक स्वतंत्रता होना चाहिए वहीं आप कुठाराघात करते हो कि नहीं ऐसा होना चाहिए। जो जितना मामूली कवि होगा, आप उसे सबसे अधिक उठाते हैं। कवि की जरूरत होगी तो वह उसके हिसाब से बनेगा। वो बात पैदा नहीं हो रही है। जब रघुवीर सहाय ने अखबार की भाषा में कविता लिखी थी तो एक अलग बात हुई थी। कविता में वैरायटी होना ही चाहिए।
अब जैसे आप हैं या कोई अन्य सात कवि हैं। सातों की अपनी आवाज होगी। कोई लंबी रेस का घोड़ा होता है बल्कि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, धर्मवीर भारती सब अलग रहे। तो आपकी पहचान होनी चाहिए। कविता बेहतरी के लिए होना चाहिए लेकिन चौंकाने से कविता कविता नहीं होती। आज आप चौंकाने की कोशिश करते हैं तो यह कविता तो नहीं होती आपकी विचारधारा हो सकती है। आपका निजी प्रयास हो सकता है। चौंका देना कविता का आसान रास्ता होता है। कविता बहुत कठिन होती है।

कविता में भारतीय चेतना का साक्षी भाव क्या है? आक्रोश की जो कविता है वह झूठी है? या फिर वह कविता नहीं है?

आपकी समझ में न दुख की गहराई है, न सुख की गहराई है। और आप आक्रोश की बात कर रहे हैं लेकिन साक्षी भाव नहीं है तो उसमें कमजोरी रहेगी। अपने अनुभव से संवेदनशील आदमी, विचारशील आदमी अपने आपको भोगता
है। आदमी की यही तो कीमत है कि वह अपने को देख सकता है। अपने आप को देख सके। यह साक्षी भाव केवल कविता का मामला नहीं है, यह जीवन की बात भी है। विचार शक्ति बिना आप काम करेंगे तो आपको जानवर कहा जाएगा लेकिन आपको जानवर कहना जानवर का अपमान ही है क्योंकि वह अपनी प्रकृति से दूर नहीं होता।
न आप सामाजिक दृष्टि से पूरे हैं और न पारिवारिक रिश्तों में पूरे हैं।

जीवन बहुआयामी है लेकिन हमने जो कविता के साथ  एतिहासक अपराध किया है वह कैसे दूर होगा? हम जब पढ़ते थे तो हमारा जो हिंदी का अध्यापक है वह एक गलती नहीं होने देता था। पिछले तीस चालीस वर्षों में भाषा की शिक्षा भाषा की पढ़ाई बहुत क्षतविक्षत हुई है। कवि जब भाषा की गलती करता है तो तो वह बहुत गलत है। कविता के लिए भाषा शिखर है। पूरी संवेदना और समुदाय की भाषा की अभिव्यक्ति कवि अपनी कविता में करता है। इसमें अमीर भी बोल रहा है गरीब भी बोल रहा है। भाषा संवेदना का फिल्टर है।
आज कवि को अपनी भाषा पर ही अपने शब्दों पर ही भरोसा नहीं है। वह घटिया वाक्य नहीं लिख सकता था। आज तुम अपनी हरकतों से और बरबाद कर रहे हो। अच्छी कविता पढ़ कर आप शिक्षित होते हैं। लेकिन एक अच्छी कविता आपकी अपनी अभिव्यक्ति होती है। वह इतनी विविध होती है कि पूरा समाज उसमें आ जाता है।
अपनी भाषा के प्रति कवि
अभी मैंने पढ़ी नहीं है, एक कहानी में मैंने पढ़ी है वागर्थ में तुम देखना उसे। वैलकम मोहम्मद... शायद कोई मलयाली कहानी है। वो कहानी पढ़ कर मैं अभीभूत हो गया। वह कहानी मैंने दो बार पढ़ी। उस कहानी में लेखक मनुष्य को चारों तरफ से समझाता है। कहानी में एक भिखारी है। सड़क  किनारे पर उसकी मौत होने वाली होती है। अब उससे मिलने के क्रम में पूरा संसार होता है। आदमी ही नहीं, कीडा मकोड़ा भी शामिल हैं। लोग निकल रहे हैं, सड़क पर एक आदमी मरा पड़ा है, कोई ध्यान नहीं देता है लेकिन उस लेखक ने पूरे सांसार से बुलवा दिया। कहानी में देखिए, पूरे संसार से ही नहीं आदमियों का समाज ही नहीं कीड़ों को भी, पेड़ पैधों को भी आमंत्रित करता है। आसमान को भी कहता है। तो इस कहानी में चारो तरह से रिश्तों को ध्वनित किया है। यहां साक्षी भाव की बात है। कीड़ों को भी, आसमान को भी कि आओ भैया थोड़ा रुक जाओ अब ये कब्र में जाएगा तो तुम्हारा भी स्वागत है। पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक और ब्रह्मांडीय चारों चीजों को लेखक उठाता है, जिनसे कोई रचना बहुआयामी बनती है।
आज का कवि अपने पहले के कवि पढ़ता नहीं है। चालीस सालों में मैंने किसी को पुराने कवियों को नाम लेते नहीं सुना। कई लोगों ने एक ही विषय पर लिखा है लेकिन आप बार बार नागाजुर्न नागाजुर्न कहे जा रहे हैं एक आदमी को आप बार बार रगोड़ोगे तो आप अच्छा नहीं कर रहे हैं। आप एक ही संदर्भ में एक व्यक्ति को हजार जगह नहीं लगा सकते। हर संदर्भ में आपको कविता और कवि भी बदलना पड़ेगा। कवि की कविता में देखना चाहिए कि कितना बड़ा आसमान कितना बड़ा फलक है। वैरायटी होना चाहिए।

यहां हम आरोप-पत्र दाखिल नहीं कर रहे हैं। यह पीड़ा की बात है कि आप कुछ कवियों को जानबूझ कर उपेक्षा करते हैं। ये किताबें रखी हैं, कितनों को आप बार-बार निकालते हैं। क्यों निकलते हैं। भाषा की उम्र सैंकड़ों साल होती है। हिंदी की उम्र हजारों साल है। पुरानी हिंदी से लेकर आज तक हजार साल की हिस्ट्री है।
निराला को आप पढ़ो तो उनकी कविता में सभी काल बोलते हैं। किसी ने कह दिया महाप्राण तो महाप्राण प्रचलित हो गया। जनता ने कह दिया बापू तो बापू चल गया। आप जनता को भी जनता नहीं समझते तो जनवाद का जन से कोई रिश्ता नहीं है। आप जन का भी अपमान कर रहे हैं। इसमें सभी लोग आते हैं। यह एक पारिभाषिक समूह ही है। जनसमाज में सभी आते हैं।
जन आपका मोहताज थोड़ी है। उसका भी अपना आत्म सम्मान है। वह कहां से अपनी खुराख खींच रहा है। उसकी भी खोज करो। जनता आपकी मोहताज थोड़ी है, उसकी अपनी पहचान है।

वेदों की ऋचाएं प्रकृति के प्रति आभार का प्रदर्शन हैं। उनमें पवन के प्रति आभार है। पानी की आराधना है। आग के प्रति हार्दिकता है। हम उस आभार से आज तक नहीं बच पाए हैं, यह सच है तो आप क्या कहना चाहते हैं?

यह भारतीय कविता की शुरुआत है। आदमी जब से पैदा हुआ है उसमें ये प्रवृति है कि वह अपने से बड़े की आराधना करता रहा है। जहां हवा की आराधना है। आग की आराधना है। वहां प्रथ्वी और सूरज को धन्यवाद है। उनमें देवता को देखा। यह बड़ी घटना है कि हम बहूदेव को स्वीकार करते हैं। आभार द्वारा पावनता महसूस करते हैं तो वह एक कवि के लिए महत्वपूर्ण चीज है। आज के विश्व के सामने सबसे बड़ी समस्या है कि वह पावनता के भाव को महसूस नहीं कर पा रहा है। आभार का भाव है जो कवि के, उसकी कविता में पावनता जनित बोध में बदलता है। पावनता का अनुभव बड़ी बात है। आज संबंधों में, रिश्तों में मित्रता में पावनता का बोध नहीं है। आपका किसी पर विश्वास नहीं रह गया है। किसी पर कोई विश्वास नहीं करता है। पवित्रता का बोध नहीं है। पवित्रता आती है हार्दिकता से, देवताओं की आराधना इसी से की जा सकी है।
आप पावनता के बिना कविता में मजाक भी नहीं उड़ा पाते। इसके बिना व्यंग्य का प्रभाव भी नहीं होता। आपको एक जनवादी के रूप में हर कहीं शोषण ही दिखाई दे रहा है अपना मनमाना अर्थ पढ़ रहा है। पाठक की भी ऐसी-तैसी कर रहा है। अपने ज्ञान बुद्धि की भी ऐसी तैसी कर रहा है।
अब वह बदले की भावना से काम कर रहा है। आज दुनिया एक हो रही है वहां भी इंसान रहते हैं। यहां महात्मा जैसे लोग रहते हैं, लोहिया रहते हैं। आपको दो कौड़ी का खाता चलाने की क्या आवश्यकता है।
जनता की बाता सब सुनते हैं आपकी बात कौन सुनता है। आप एक प्रकार का माफिया राज कायम कर रहे हैं।
इनके सामने सबसे बड़ी समस्या है कि ये दुनिया को अपने ऊपर करना  को बदलना है। जीवन में पावनता जनित बोध जब चला जाता है तो जीवन का जादू ही चला गया। आप बाजार से चीजें खरीद कार ला जरे हैं तो डर है कि कहीं नकली न हो, जहरीली सब्जिी न हो। पावनता बोध का खत्म होना त्रासदी है। बड
विश् ्रव के बड़ े बड़े कवि हैं ओडेन हैँ रिल्के हैं सबने देवताओं की आराधना की

ऐसी कोई्र व्यवस्था है जिससे कवि कविता के बारे में कोई हुनर या उसकी कला के पक्ष का हिस्सा सीख सकें समझ सकें। विचार के साथ शब्द और अर्थ की कलाकारी पर कुछ काम कर सकें?

जो हुनरमंद होगा वही आपको सिखा पाएगा। जो हुनरमंद नहीं होगा वह नहीं सिखाएगा। वह आपको दूसरी बातें बताएगा कला नहीं बताएगा। शब्दों के गहरे अर्थ से परिचय नहीं कराएगा। आज जो पुरस्कार हैं जो धंधे दुकानें हैँ उनसे अच्छा है कि आप निराला की कविता को सस्ते दामो में छापें। गांव की लायब्रेरियों में भेजें युवा कवितयों को दें।


जब मैं कक्षा आठ में पढ़ता था तो वह अनुभूति है। आज किसी को पता भी नहीं होगा िक यह कविता शमशेर बहादुर की है।
सुबह सुबह का बालक सुरज नई जगह का
पक्षी का कोलाहल बजता पग पैजन सा

यह मुझे याद रही कि इसमें लय थी। आप देखिए लय का कितना योगदान है।

गांव की मस्ती और उत्साह किसी ने मुझे किसी संघ में नहीं डाला। कभी हमको मेंबर नहीं बनाया हमें घास तक नहीं डाली। कवि सम्मेलन होते थे हम जाते थे लेकिन किसी संघ में होने से क्या फर्क नहीं पड़ता । आज हमें इन सबको देख कर शिकायत नहीं मजा आता है। आनंद आता है। हमें यह सब याद करते हुए एक कृत्ज्ञता उमड़ती है।
जब प्रारंभ में वाही-वाही या प्रसंशा मिल जाती है तो अक्सर विकास रुक जाता है। विकास के लिए जरुरी है कि आप संघर्ष करें। साहित्यकार लंबी रेस का घोड़ा होता है। वह अल्पप्राण नहीं होता।
हिंदी का कवि होना अन्य किसी भी भारतीय भाषा में कठिन है। क्योंकि हिंदी नई भाषा है। हिंदी वह नहीं है जो आज है। वह बहुत बदली है। रवीन्द्र नाथ टैगोर को या गुजाराती के किसी कवि को उतनी दिक्कत नहीं हुई जितनी कि हिंदी के साथ हुई। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात हिंदी
हिंदी में म्युजिक पैदा करना बंगाली और गुजराती से अधिक कठिन है। हिंदी समग्र भारतीय कविता का संवाहक बनना है हिंदी को, इसलिए वह इतनी समावेशी हो गई है। वह पूरे देश की आवाज है इसलिए उसमें सारे देश के शब्द हैं। अब हिंदी का महत्व कम करने के लिए अलग अलग भाषााओं को महत्व दिया जा रहा है। छत्तीसगढ़ी को राजकीय भाषा बना दो। भारतीय संविधान में और कई भाषाओं की अनुसूची में बता दो।
मैं इंग्लैंड गया था जब निराला सृजन पीठ में था। जब मैंने टैक्सी की। मैं अंगे्रजी साहित्य का नाम चाल्र्स डिकेंस का घर आगे बढ़ा तो एक घर आया अरे ये डॉ. जानसन का घर मेर ेमुंह से जोर से निकला। वह टैक्सी वाला चौंक गया। उसने पूछा आपने डॉ. जानसन की दुकान देखी हैं? मैंने कहा नहीं तो उसने कहा कि चलो में आपको ले चलता हूं। वह करीब दो किलोमीटर का चक्कर लगा कर दो सौ साल पुरानी उस किताबों की दुकान में ले गया। जबकि जानसन कोई बहुत लोकप्रिय कवि या व्यक्ति नहीं था, वह आलोचक था।

वह मुझे ड्रायडन की कुर्सी पर ले गया है। वहां लिखा है ड्रायडन चेयर। ऐसा समाज जो अपने साहित्यकारों पर इतना गर्व करता है। जब मैं घर पहुंच गया तो उसने लगभग एक पौंड कम लिया। मैंने पूछा कि क्यों तो उसेने बताया कि वह जो मैंने आपको घुमाया था वह मेरा था। मैं आश्चर्य चकित हो गया। एक टैक्सी ड्रायवर में इतना सांस्कृतिक बोध है। मैँ बहुत घबराया था। वहां मेरा क्लासफैलो था प्रजापति। उसने कहा कि अंग्रेज इन चीजों पर ध्यान नहीं देता है कि आपने उच्चारण सही किया है या नहीं वह इस बात को देखता है कि आपने क्या कहा है? वह महत्वपूर्ण को देखता है। नई बात क्या है आपके पास वे यह जानना चाहते हैं। बेफ्रिक होकर बोलना। वे यह देखेंगे कि आपके पास देने के लिए क्या है।
और ऐसा ही हुआ। हम बचपन में हम मंदिर मे देखते थे। चार छह लोग रोज आ जाते थे। लेकिन वहां ऐसा नहीं था सुनने के लिए भी वहंा पांच पौंड का टिक ट लेकर आए। चालीस पचास लोगों के बैठने की जगह में कोई भी सीट खाली नहीं थी।  वे निबंध अंग्रेजी में हैं और उनको हिंदी में भी लिया था। यात्रा वृत्तांत की किताब - एक लंबी छांव में उन लेक्चरर्स का वर्णन है।

गुरुवार, दिसंबर 20, 2012

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बच्चों में बढ़ती हिंसा

   बच्चों में बढ़ती हिंसा एक वैश्विक समस्या के रूप में सामने आ रही है। आने वाले वक्त में इसके और बढ़ने की आशंका है। हमें अभी से इसे सुधारने के प्रयास करना ही होंगे।


  रायसेन जिले के बरेली कस्बे में दसवीं कक्षा में पढ़ने वाली एक  छात्रा ने पड़ोस में रहने वाली आठवीं की छात्रा पर केरोसिन डालकर आग लगा दी। दो दिन पहले ही अमेरिका में एक छात्र को गोली बारी करने की योजना में गिरफ्तार किया गया है। किशोर उम्र के बच्चों द्वारा हिंसा की घटनाएं बढ़ रही हैं और इनसे कुछ बड़े सवाल जन्म ले रहे हैं। रायसेन जिले की घटना में आरोपी छात्रा का कहना है कि लड़की का परिवार उसके परिजनों पर चोरी का आरोप लगा कर बदनाम कर रहे थे। लेकिन इस आरोप के बाद भी कुछ ऐसे सवाल उठते हैं जो इसे एक गंभीर सामाजिक समस्या की तरफ इशारा करते हैं। किशोर उम्र लड़की के लिए  इस आरोप पर इतना बड़ा अपराध करना संभव कैसे हुआ। किशारी को किरोसिन की कैन कैसे हासिल हुई। वह हाथ में जलता हुआ डंडा लेकर किस दुष्साहस के साथ घर में आग लगाने के लिए दाखिल हुई। इससे भी बड़ी बात ये है कि आखिर उसमें इतनी हिंसा की भावना कैसे जनमी? इस हिंसा का स्रोत क्या है। निश्चय ही यह सिर्फ लड़की के अकेली चेनता की उपज नहीं हो सकती। कहीं न कहीं समाज में उपस्थित दूसरे कारण भी इसमें सहायक रहे होंगे। अपराध करने के लिए अपराध करने वाले के लिए कहीं न कहीं कल्पना की आवश्यकता अवश्य होती है। यह कल्पना कहां से मिल रही है। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि यह घटना किसी न किसी टीवी और फिल्म मीडिया के दृश्यों का कोलाज लगती है। क्योंकि इसके समर्थन में एक पुराना शोध सामने आया है। ए एच स्टेन और एल के फ्रेडरिक ने यह शोध 1972 में ‘टेलीविजन कंटेंट एण्ड यंग चिल्ड्रेन’नाम से किया है। इसमें अमेरिका में असामाजिक तत्वों और उनके समर्थकों पर किए गए 48 शोध कार्यों का विश्लेषण करते हुए लिखा कि 3से 18 वर्ष तक की आयु के बच्चों में टेलीविजन के हिंसक कार्यक्रमों ने आक्रामकता में वृद्धि की है। विगत 30 वर्षों में जितने भी शोधकार्य हुए हैं वे इसकी पुष्टि करते हैं। टेलीविजन हिंसा के प्रभाव को लेकर किए गए अध्ययन इस बात की पुष्टि करते हैं कि टेलीविजन हिंसा से आक्रामकता के अलावा असामाजिक व्यवहार में इजाफा होता है। हिंसक रूपों का प्रभाव तात्कालिक तौर पर कई सप्ताह रहता है। कई लोग टेलीविजन हिंसा को अस्थायी तौर पर ग्रहण करते हैं या केजुअल रूप में ग्रहण करते हैं। केजुअल रूप में हिंसा बच्चों के व्यवहार में आक्रामकता में इजाफा करती है। मीडिया विशेषज्ञों ने तात्कालिक प्रभाव का अध्ययन करके बताया है कि दर्शक की रिहाइश, उम्र, लिंग, सामाजिक, आर्थिक अवस्था आदि की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। मीडिया द्वारा बच्चे पर हिंसा का प्रभाव न पड़े इसके लिए जरूरी है कि बच्चे को परिवार के जीवंत संपर्क में रखा जाए। उन बच्चों में कम प्रभाव देखा गया है जिनके परिवारों में सौहार्द का माहौल है अथवा जिन परिवारों में कभी मारपीट तक नहीं हुई। अथवा जिन परिवारों में सामाजिक विश्वासों की जड़ें गहरी हैं। किन्तु जिन परिवारों में बच्चों के साथ दुर्व्यवहार होता है, उत्पीड़न होता है। वहां बच्चे हिंसा के कार्यक्रम ज्यादा देखते हैं। जो बच्चे भावनात्मक तौर पर परेशान रहते हैं उन पर आक्रामक चरित्र सबसे जल्दी असर पैदा करते हैं। इस तरह के बच्चे हिंसा के कार्टून ज्यादा चाव के साथ देखते हैं।आक्रामक या हिंसक चरित्रों को देखने के बाद बच्चों में समर्पणकारी एवं रचनात्मकबोध तेजी से पैदा होता है। टेलीविजन कार्यक्रमों के बारे में किए गए सभी अध्ययन इस बात पर एकमत हैं कि इसके नकारात्मक प्रभाव से मानसिक उत्तेजना,गुस्सा और कुंठा पैदा होती है।

गुरुवार, दिसंबर 13, 2012

  शिकार क्यों कर्मचारी


विधानसभा में उठाए गए एक प्रश्न के उत्तर में जो जबाव मिला वह चौंकाने वाला है। सरकारी महकमों के आठ हजार से अधिक कर्मचारियों पर हमले किए गए।म ध्यप्रदेश में पिछले चार सालों में सरकारी अधिकारियों कर्मचारियों के साथ मारपीट के करीब आठ हजार मामले सामने आए। मप्र सरकार ने यह बात विधानसभा में अपने एक लिखित उत्तर में स्वीकार की है। इस हिसाब से देखें तो प्रतिवर्ष दो हजार सरकारी कर्मचारियों अधिकारियों से मारपीट की गई। धक्कामुक्की की गई, एक तरह से उन्हें अपमानित किया गया। ये मामले 2008 से फरवरी 2012 तक के हैं। अगर हालिया महीनों केआंकड़ों पर नजर डालें तो मार्च 2012 से नवंबर 2012 तक 1405 शासकीय सेवकों के साथ मारपीट की गई। ये आंकड़े क्या कहते हैं? सवाल यह उठता है कि आखिर ये हिंसा क्यों की गई? कर्मचारियों अधिकारियों से मारपीट करने वाले कौन लोग हैं? इस स्थिति का निर्माण कैसे हुआ। किसकी हिम्मत है कि वह सरकारी कारिंदे पर हाथ उठाए। शासकीय कर्मचारियों के इन आंकड़ों में और भी कई सवाल छुपे हैं। इस मारपीट पर करीब एक हजार से अधिक घटनाओं पर पुलिस केस दर्ज किए गए हैं। सरकार मानती है कि इस तरह की घटनाओं को अंजाम देने वाले असामाजिक तत्व और आपराधिक प्रवृत्ति के लोग शामिल रहे हैं। सवाल उठता है कि आखिर ये लोग जनसामान्य नहीं थे। इनका वर्ग असामाजिक और आपराधिक रहा है। अपराधी भी सरकारी कर्मचारियों से मारपीट तब करता है, जब उसे किसी  प्रकार का संरक्षण हासिल होता है। यह तो नहीं कहा जा सकता कि सभी घटनाओं के पीछे कोई न कोई राजनीतिक ताकत रहती है लेकिन अधिकांश घटनाओं में राजनीतिक प्राश्रय प्राप्त लोग ही अधिक होते हैं।
सरकारी कर्मचारी किसी भी सरकार के प्रशासनिक स्तर पर एक स्थाई संरचना का हिस्सा होते हैं। उनका मनोबल और उनकी सामूहिक भावना सरकार के कामकाज पर दूरगामी प्रभाव डालती है। अक्सर सरकार के लिए अपने कर्मचारी और अपनी जनता एक तरह से दो आंखों की तरह की स्थिति का निर्माण करते हैं। दोनों ही महत्वपूर्ण और दोनों ही जरूरी हैं। अगर जनता के बीच कोई असामाजिक तत्व ऐसा करता है तो यह भी एक प्रकार की प्रशासनिक असफलता का हिस्सा है। प्रदेश में होने वाली कोई भी घटना प्रशासनिक जिम्मेदारी से मुक्त नहीं की जा सकती। सरकार को यह देखना होगा कि जनता के बीच सरकारी कारिंदों की कार्यप्रणाली और व्यवहार का स्तर क्या है? अगर सिर्फ ये आठ हजार के लगभग घटनाएं आपराधिक लोगों ने की हैं तो भी यह जाहिर होता है कि आखिर ऐसा सरकार कैसे होने देती रही? इनकी रोकथाम के पीछे हमें यह भी देखना होगा कि सरकारी कर्मचारियों से मारपीट करने वाले लोग सिर्फ मारपीट करने नहीं गए होंगे। वे किसी न किसी काम से इन कर्मचारियों अधिकारियों से मिले होंगे। ये मामले थाने में केस दर्ज करने के नहीं, जनता और सरकार के बीच उचित सामंजस्य के अधिक हैं। कहीं न कहीं सरकार और जनता के बीच उचित सामान्जस्य की कमी है। सरकार को कर्मचारियों अधिकारियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के साथ माहौल में सौहार्द और परिवेश को बदलने का है। यह मामला सरकार की कार्यप्रणाली के प्रदर्शन का हिस्सा भी है।

सोमवार, दिसंबर 03, 2012

यूनियन कार्बाइड के कचरे

  आज के हालात देख कर लगता है कि यह त्रासदी वोट हासिल करने की राजनीति बन चुकी है। राजनीतिक नेतृत्व को  इस मसले पर जितनी गंभीरता बरतना चाहिए, उस तरह से नहीं लिया गया।

भो पाल के लिए दो-तीन दिसंबर 1984 की रात काल बनकर आई थी। उस रात को याद कर के उसकी दास्ता को सुन कर लोग अजीब से डर में डूब जाते हैं। यूनियन कार्बाइड संयंत्र से गैस रिसाव होने के कारण हर तरफ मौत दिखाई देती थी। गैस के दुष्परिणाम आज भी यहां के लोग भुगत रहे हैं। आंकड़ों के मुताबिक 20 हजार से ज्यादा लोग गैस के असर के चलते अब तक जिंदगी से हाथ धो चुके हैं, वहीं साढ़े पांच लाख से ज्यादा लोग गैसे के प्रभावों से संघर्ष कर रहे हैं। इस गैस से प्रभावित लोगों के संगठनों का कहना है कि न तो उन्हें पूरा मुआवजा मिला है और न ही यूनियन कार्बाइड के कचरे को हटाया गया है। दूसरी ओर इस त्रासदी के अपराधियों को थोड़ी सी सजा दी गई थी। इसने कार्बाइड त्रासदी के अपराधियों को छूटने का मौका दिया और जो लोग इस भयानक औद्योगिक त्रासदी के भुगत भोगी हैं वे जानते हैं कि उनका जीवन इस त्रासदी के बाद एक नरक में बदल गया था। सात जून 2010 को यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड के पूर्व अध्यक्ष केशव महेंद्रा एवं अन्य सात आरोपियों को धारा 304-ए  के तहत दो साल की सजा मिली। हजारों लोगों के मौत के लिए जिम्मेदार अरोपियों को मात्र दो साल की सजा! यह  गैस पीड़ितों के लिए दूसरी त्रासदी थी। इस सजा पर कई लोगों ने आश्चर्य व्यक्त किया था। देश और प्रदेश के नेतृत्व को यह बात पता है कि यह एक लापरवाही थी जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था। यह सुरक्षा के प्रति उपेक्षा नहीं यह कंपनी द्वारा धन बचाने के लिए किया गया अपराध था। जिसको भोपाल के लोग आज तक भुगत रहे हैं। इस पूरी प्रक्रिया को न्याय नहीं कहा जा सकता।
भोपाल ग्रुप आॅफ इंफोर्मेशन एण्ड एक्शन के अनुसार फैक्ट्री के आसपास का भूजल यूनियन कार्बाइड के कचरे से दुष्प्रभावित हो रहा है। इन इलाकों के पानी में जहरीले कचरे के असर की पुष्टि हो चुकी है। क्या ये हजारों लोगों को कई सालों तक फिर से मरने को छोड़ देने की लापरवाही नहीं है? मुआवजे को लेकर भी शिकायतें कायम हैं। गैस त्रासदी से प्रभावित 94 फीसदी लोगों को सिर्फ 25 हजार रुपये का मुआवजा मिला है। संगठनों की मांग है कि सरकार हादसे के लिए जिम्मेदार कम्पनी से बतौर हर्जाना 44 हजार करोड़ रुपये की मांग करे। वर्तमान में साढ़े पांच हजार करोड़ रुपये की ही मांग की गई है। पीड़ितों के संगठनों का कहना है कि 11 अमेरिकी नागरिकों की मौत पर ब्रिटिश कारपोरेशन को 22 हजार करोड़ रुपए का दंड भरना पड़ा था, मगर भारत में हजारों लोगों की मौत पर सिर्फ साढ़े पांच हजार करोड़ रुपए। भारत सरकार को गैस पीड़ितों के लिए भी पर्याप्त मुआवजे की मांग करनी चाहिए। इतना ही नहीं जहरीले कचरे से प्रदूषित होने वाले पानी का भी दायरा बढ़ रहा है। आज के हालात देख कर लगता है कि यह त्रासदी वोट हासिल करने की राजनीति बन चुकी है। राजनीतिक नेतृत्व को  इस मसले पर जितनी गंभीरता बरतना चाहिए, उस तरह से नहीं लिया गया। वास्तव में हम एक देश के रूप में आज भी अपने नागरिकों के जीवन का सम्मान करना नहीं सीखे हैं।


गुरुवार, नवंबर 29, 2012

  सचिन का संन्यास
इसमें कोई दो राय नहीं है कि सचिन महान क्रिकेटर हैं लेकिन उम्र की अपनी सीमा होती है। नए क्रिकेटरों की ऊर्जा के आगे सचिन का खेल फीका होता जाएगा।
चिन तेंदुलकर ने मार्च में कहा था कि वह इस बात से सहमत नहीं हैं कि खिलाड़ी को करियर की ऊंचाई पर खेल से संन्यास लेना चाहिए, उनके अनुसार ऐसा करना खुदगर्जी है। मैं तब तक खेलना चाहता हूं जब तक देश के लिए खेलने का जज्बा बरकरार है। सचिन के ये विचार अपने आप में महत्वपूर्ण हैं लेकिन इस दुनिया में जो क्रिकेट हो रहा है वह सिर्फ जब्बे के साथ नहीं, जीत को भी सलाम करने वाला है। लेकिन आज  सचिन का फार्म खराब चल रहा है तो सवाल भी उठ  रहे हैं कि उनका औसत रन रेट दोनों टेस्ट मैचों में 10 से भी कम रहा है।  सचिन तेंदुलकर ने टेस्ट मैचों में पिछली 27 पारियों में कोई शतक नहीं बनाया है। तुरत फुरत क्रिकेट की शौकीन युवा पीढ़ी सिर्फ जीत को देखना चाहती है। अधिकांश खेल प्रेमियों को खेल से कम, जीत से सरोकार होता है ताकि वह कुछ जश्न मना सकें। सचिन से बार बार निराशा मिलने से टीम इंडिया के प्रशंसक बेहद खीझ गए थे। अब सचिन की नाकामी चर्चा का विषय भी बन गई है और यहीं से उनका भविष्य संन्यास की राह पर जाने वाला हो सकता है। मंगलवार को इंग्लैंड दौरे के लिए दोनों टेस्ट के लिए टीम घोषित होना थीं लेकिन चयनकर्ताओं ने सिर्फ एक टीम की घोषणा की है। जब सचिन इस टेस्ट में खुद को साबित करेंगे तब उनके लिए अगले टेस्ट के रास्ते का फाटक खुलेगा।  खबरें आई थीं कि सचिन ने चयन कर्ताओं से कोई बातचीत की है। हालांकि भारतीय क्रिकेट नियंत्रण बोर्ड (बीसीसीआई) ने दावा किया है कि टीम इंडिया के सीनियर बल्लेबाज सचिन तेंदुलकर की खराब फॉर्म के चलते राष्ट्रीय चयनकर्ताओं से हुई किसी बातचीत के बारे में उसे कुछ नहीं पता है। लेकिन सचिन ने सार्वजनिक तौर से स्वीकार किया है कि उनका मेरा फॉर्म काफी खराब चल रहा है और वह टीम इंडिया के लिए उतना योगदान नहीं दे पा रहे हैं जितना कि उन्हें देना चाहिए। इंग्लैंड के लिए जो भी टीम चुनी जाती है, वह उन्हें स्वीकार होगी।  इससे संभावना को बल मिलता है कि उन्होंने चयनकर्ताओं से कोई बात की होगी।  यहां अपने खराब फॉर्म की बात भी उन्होंने स्वीकार कर ली है। सचिन ने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में 23 वर्ष पूरे कर लिए हैं लेकिन दो दिन पहले यहां इंग्लैंड के खिलाफ भारत को 10 विकेट से मिली करारी शिकस्त के बाद उनकी आलोचना अधिक हो रही है।
वैसे सचिन तेंदुलकर दुनिया के एकमात्र बल्लेबाज हैं, जिन्होंने 100 अंतरराष्ट्रीय शतक जड़े हैं और उनके नाम टेस्ट और वन-डे में सबसे ज्यादा रन बनाने तथा इन दोनों प्रारूपों में सबसे ज्यादा शतक बनाने के भी रिकॉर्ड दर्ज हैं, लेकिन उनकी खराब फॉर्म जनवरी में सिडनी टेस्ट से जारी है। वह पिछले चार घरेलू टेस्ट मैचों में पांच बार बोल्ड या पगबाधा आउट हुए हैं, जिसने विशेषज्ञों को यह कहने पर बाध्य कर दिया है कि उनके रिफ्लेक्सेस धीमे हो गए हैं, क्योंकि वह 40 वर्ष की उम्र की ओर बढ़ रहे हैं। इसके बाद भी सचिन का खेल सदियों तक याद रहेगा। शिखर को छूने के बाद ढलान भी आता है। सचिन को जल्दी अपनी उम्र के बंधन को स्वीकार कर लेना चाहिए।

बुधवार, नवंबर 28, 2012

 
रिहाई की राजनीति

अपराध को नियंत्रित करना और समाप्त करना शासन की प्राथमिकता होती है। लेकिन कई फैसले जब शासन लेता है तो उसके राजनीतिक प्रभावों को नकारा  नहीं जा सकता।

मध्यप्रदेश सरकार ने तीन साल से कम साजा पाने वाले अपराधियों को रिहा करने का निर्णय लिया है। गृह मंत्रालय ने जिलों के लिए इस आशय का परिपत्र जारी कर दिया है। सरकार के इस फैसले का स्वागत किया जा सकता है, बशर्ते कि इसका दुरुपयोग न हो। हर ऐसे फैसले के साथ कुछ आशंकाएं जुड़ी होती हैं। सरकार जिन लोगों को विमुक्त करेगी जो सामान्य धाराओं के तहत जेल में हैं। जैसे आदिवासियों को 49 लीटर शराब जप्ती के प्रकरण हैं इससे कई आदिवासी रिहा होंगे क्योंकि आदिवासी समाज में शराब सामान्य पेय है जिसे वे सदियों से बनाते और पीते आ रहे हैं, उन पर नागर समाज के फैसलों को थोपना उचित की श्रेणी में नहीं कहा जा सकता। यहां सबसे बड़ी बात यह होगी जब सरकार रिहा किए गए अपराधियों में यह भाव पैदा करे कि वे पुन: अपराध के लिए नहीं छोड़े गए हैं। उन्हें मेहनती जीवन जीने के लिए रिहा किया गया है। चाहे तो सरकार इसके लिए उनको सामान्य प्रशिक्षण दिलवा सकती है। सामान्य: अपराध मनोविज्ञान और सामाजिक मान्यता है कि कोई भी व्यक्ति जन्म से अपराधी नहीं होता बल्कि कई बार हालात और कई बार अनजाने में लोग अपराध की राह पर चले जाते हैं। लेकिन यहां मामला दूसरा है। सामान्यतौर पर ये अपराध के गंभीर मामले नहीं हैं। अपराध की परिभाषा भिन्न-भिन्न रूपों में की गई है, जैसे- समाज द्वारा निर्धारित आचरण का उल्लंघन या उसकी अवहेलना अपराध है या किसी व्यक्ति की क्रिया या क्रिया में त्रुटि है, जिसके लिए दोषी को कानून द्वारा निर्धारित दंड दिया जाता है। अपराध करना एक सामाजिक समस्या है। इस पर कानूनी नियंत्रण तब होता है जब वह हो जाता है लेकिन पहले अपराध का जन्म मन-मष्तिस्क में  होता है।
जाने-अनजाने में अपराध करने वालों से नफरत करने के बजाए उनकी मूल समस्या का अध्ययन करके उसके समाधान का प्रयास किया जाना चाहिए और सही मार्गदर्शन से इस तरह के लोग आसानी से मुख्य धारा में शामिल होते रहे हैं। अपराध की परिभाषाओं के अनुसार किसी व्यवस्था के बनाए नियमों का उल्लंघन कर यदि कोई रात में बिना बत्ती जलाए मोटर साइकिल पर नगर की सड़क पर चले अथवा बिना पर्याप्त कारण के ट्रेन की जंजीर खींचकर गाड़ी खड़ी कर दे, तो वह भी उसी प्रकार दोषी माना जाएगा, जिस तरह किसी की हत्या करने पर। किंतु साधारण अर्थ में लोग दंडाभियोग को हत्या, डकैती आदि गंभीर अपराधों के पर्याय के रूप में ही लेते हैं। लेकिन सरकार के इस फैसले को सामान्य नहीं कहा जा सकता। इसमें सामाजिक कल्याण की भावना निहित है तो दूसरी तरफ यह चुनावों में मतदाताओं को रिझाने का उपक्रम भी माना जा सकता है। ये सारे निर्णय सरकार की राजनीतिक दूरदर्शिता का परिणाम हो सकते हैं। लेकिन उद्देश्य का पवित्र होना ही महत्वपूर्ण होता है। इससे सरकार में विश्वास कायम होगा और छोटे मोटे अपराधी भी एक सामान्य जीवन जीने की कोशिश करेंगे। लेकिन सरकार को रिहा किए जा लोगों से यह विश्वास हासिल करना होगा।

मंगलवार, नवंबर 06, 2012



ए आर रहमान: आवाज की रहमत से गूंजेगा भोपाल



अल्लाह रक्खा रहमान हिन्दी फिल्मों के एक प्रसिद्ध संगीतकार हैं। ए. आर. रहमान ऐसे पहले भारतीय हैं जिन्हें ब्रिटिश भारतीय फिल्म स्लम डॉग मिलेनियर में उनके संगीत के लिए तीन आॅस्कर नामांकन हासिल हुआ है। इसी फिल्म के गीत जय हो.. के लिए सर्वश्रेष्ठ साउंडट्रैक कंपाइलेशन और सर्वश्रेष्ठ फिल्मी गीत की श्रेणी में दो ग्रैमी पुरस्कार मिले।
6 जनवरी 1967 को चैन्ने तमिलनाडु में जन्मे। जन्म के समय उनका नाम ए. एस. दिलीप कुमार था जिसे किशोरावस्था में बदलकर वे ए. आर. रहमान बने। सुरों के बादशाह रहमान ने हिंदी के अलावा अन्य भाषाओं की फिल्मों में भी संगीत दिया है। टाइम्स पत्रिका ने उन्हें मोजार्ट आॅफ मद्रास की उपाधि दी। रहमान गोल्डन ग्लोब अवॉर्ड से सम्मानित होने वाले वे पहले भारतीय हैं।


विरासत में संगीत
रहमान को संगीत अपने पिता से विरासत में मिला था। उनके पिता आर. के. शेखर मलयाली फिÞल्मों में संगीत देते थे। रहमान जब नौ साल के थे तब उनके पिता की मृत्यु हो गई थी और पैसों के लिए घरवालों को वाद्य यंत्रों को भी बेचना पड़ा। हालात इतने बिगड गए कि उनके परिवार को इस्लाम अपनाना पड़ा। मात्र 11 वर्ष की उम्र में अपने बचपन के मित्र शिवमणि के साथ रहमान बैंड रुटस के लिए की.बोर्ड (सिंथेसाइजर) बजाने का कार्य करते। बैंड ग्रुप में काम करते हुए ही उन्हें लंदन के ट्रिनिटी कॉलेज आॅफ म्यूजिक से स्कॉलरशिप भी मिली, जहां से उन्होंने पश्चिमी शास्त्रीय संगीत में डिग्री हासिल की।

तीन बच्चे
ए. आर. रहमान की पत्नी का नाम सायरा बानो है। उनके तीन बच्चे हैं. खदीजा, रहीम और अमन।

वंदे मातरम
1991 में रहमान ने अपना खुद का म्यूजिक रिकॉर्ड करना शुरु किया। 1992 में उन्हें फिल्म डायरेक्टर मणिरत्नम ने अपनी फिल्म रोजा में संगीत देने का न्यौता दिया। फिल्म म्यूजिकल हिट रही और पहली फिल्म से ही रहमान ने फिÞल्मफेयर पुरस्कार भी जीता। इस पुरस्कार के साथ शुरू हुआ रहमान की जीत का सिलसिला आज तक जारी है। रहमान के गानों की 200 करोड से भी अधिक रिकॉर्डिग बिक चुकी हैं। आज वे विश्व के टॉप टेन म्यूजिक कंपोजर्स में गिने जाते हैं। उन्होंने तहजीब, बॉम्बे, दिल से, रंगीला, ताल, जींस, पुकार, फिजाए लगान, मंगल पांडे, स्वदेश, रंग दे बसंती, जोधा-अकबर, जाने तू या जाने ना, युवराज, स्लम डॉग मिलेनियर, गजनी जैसी फिल्मों में संगीत दिया है। उन्होंने देश की आजादी की 50 वर्षगांठ पर 1997 में वंदे मातरम एलबम बनाया, जो जबर्दस्त सफल रहा।
भारत बाला के निर्देशन में बना एलबम जन गण मन जिसमें भारतीय शास्त्रीय संगीत से जुडी कई नामी हस्तियों ने सहयोग दिया उनका एक और महत्वपूर्ण काम था। उन्होंने स्वयं कई विज्ञापनों के जिंगल लिखे और उनका संगीत तैयार किया। उन्होंने जाने-माने कोरियोग्राफर प्रुदेवा और शोना के साथ मिलकर तमिल सिनेमा के डांसरों का टुुप बनाया, जिसने माइकल जैक्सन के साथ मिलकर स्टेज कार्यक्रम दिए।


सम्मान और पुरस्कार
1. संगीत में अभूतपूर्व योगदान के लिए 1995 में मॉरीशस नेशनल अवॉर्डए मलेशियन अवॉर्ड।
2. फर्स्ट वेस्ट एंड प्रोडक्शन के लिए लारेंस आॅलीवर अवॉर्ड।
3. चार बार संगीत के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता।
5. 2000 में पद्मश्री से सम्मानित।
6. मध्यप्रदेश सरकार का लता मंगेशकर अवॉर्ड।
7. छ: बार तमिलनाडु स्टेट फिल्म अवॉर्ड विजेता।
8. 11 बार फिल्म फेयर और फिल्म फेयर साउथ अवॉर्ड विजेता।
9. विश्व संगीत में योगदान के लिए 2006 में स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी से सम्मानित।
10. 2009 में फि ल्म स्लम डॉग मिलेनियर के लिए गोल्डेन ग्लोब पुरस्कार।
11. ब्रिटिश भारतीय फिल्म स्लम डॉग मिलेनियर में उनके संगीत के लिए आॅस्कर पुरस्कार।
12. 2009 के लिये 2 ग्रैमी पुरस्कारए स्लम डॉग मिलेनियर के गीत जय हो... के लियेरू सर्वश्रेष्ठ साउंडट्रैक व सर्वश्रेष्ठ फिल्मी गीत के लिये।
यह सिलसिला अभी जारी है।
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उड़ान पर हैं तैयारियां


ए आर रहमान के पहले मंच पर प्रस्तुतियां के सिलसिले की तैयारियां जोरों पर हैं। कला अकादमी प्रांगण और संस्कृति परिषद में कृष्णायन की रिहर्सन प्रमुख कोरियोग्राफर मैत्रेयी और सहायक क्षमा मालवीय द्वारा की जा रही है। इस प्रस्तुति के लिए कलाकार एक एक स्टेप्स पर काम कर रहे हैं।

55 मिनट का कृष्णायन
इस रिहर्सल और प्रस्तुति अधिकांश भोपाल के कलाकार हैं, कुछ ही कलाकार मणिपुर से हैं। सभी अच्छा परफरमेंस कर रहे हैं। रिहर्सल में और उसके प्रबंध में कोई दिक्कत नहीं है। हमारे कलाकार कृष्णायन की प्रस्तुति करेंगे जो 55 मिनट की होगी।
मैत्रेयी, कष्णायन की प्रमुख कोरियोग्राफर
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रोमांचक रिहर्सल
हमारी सारी रिहर्सल कथक पर आधारित है। पहले भी हम इस तरह के कार्यक्रमों में प्रस्तुती दे चुके हैं। हर बार नया सीखते सिखाते हैं। हमारी कृष्णायन की तैयारी चल रही है। बच्चों को ऐसी प्रस्तुतियां बहुत रोमांच देती हैं। उनका उत्साह देखते बनता है।
क्षमा मालवीय, सहायक कोरियोग्राफर

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मैं बीस दिन से कृष्णायन की तैयारी कर रही हूं। यहां दो तरह से अच्छा लग रहा है, एक, हम नए स्टेप्स सीख रहे हैं। नए तरह के भाव और नए माहौल में नया सीखना होता है। मध्यप्रदेश स्थापना दिवस ऐतिहासिक है।

कीर्ति गोसाई, प्रतिभागी कलाकार कृष्णायन
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मैं तीन साल से   कथक सीख रही हूं। यहां ग्रुप परफारमेंस देना होता है, इसलिए कई नए तरह के स्टेप्स और भावों सीखने मिला है। रिहर्सल में कार्यक्रम जैसा सुकून मिल रहा है। मेरे लिए ये बहुत ही नए तरह का अनुभव है।
खुशबु थदानी, प्रतिभागी समूह कलाकार कृष्णायन
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मैंने नृत्य निधि मैम के निर्देशन में सीखा है। यहां इस रिहर्सल में बड़े लोगों का साथ मिला है तो अच्छा लग रहा है। उनके द्वारा सिखाई जा रही चीजें मेरे लिए बहुत ही अच्छी हैं।
अमृता सिंह, समूह कलाकार कृष्णाय प्रस्तुति
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दो दिन से लगातार इस प्रैक्टिस में हिस्सा ले रही हूं। मैं मैत्रेयी जी से बहुत कुछ सीख रही हूं। वे हमें नृत्य की बारीकियों से परिचित कराते हुए इस रिहर्सल के माध्यम से प्रस्तुति के लिए तैयार कर रही हैं।
पूनम परिहार, कृष्णायन में रुक्मणी की भूमिका में

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एआर रहमान कहते हैं


जानी-मानी लेखिका नसरीन मुन्नी कबीर ने ए आर रहमान के जीवन पर ‘एआर रहमान द स्पिरिट आफ म्यूजिक’ नाम की किताब लिखी है।
इस जीवनी में उनके विचार भी हैं।

रहमान कहते हैं, हर इंसान की जिÞंदगी में कभी-न-कभी रुकावट आती है जब लगता है कि दुनिया ख़त्म हो गई है। लेकिन मैं कहूंगा कि ऐसे वक्त में हिम्मत नहीं हारनी चाहिए क्योंकि अगर आप समाधान ढूंढेगे तो हर समस्या का समाधान है।

सूफÞी शैली इस्लाम का एक आध्यात्मिक अंग है जो आपार प्रेम और सर्वव्यापकता से जुड़ा है। मैं इससे बहुत प्रभावित हूं।


 मैं हमेशा अपने दिमागÞ में ये बात रखता हूं कि अगर मैं अगला गाना नहीं बना पाया तो मैं ख़त्म हो जाऊंगा। ये चुनौती हमेशा मेरे सामने रहती है।

दो आॅस्कर पुरस्कार जीत चुके रहमान ने आॅस्कर समारोह में कहा था कि उनके पास प्यार और नफÞरत में से एक को चुनने का विकल्प था और उन्होंने प्यार को चुना।

भारत में संगीत के नाम पर सिफर्Þ फिÞल्मी संगीत ही लोकप्रिय है। वो विदेशों में चल रहे ब्रॉडवे, सिंफÞनी और आॅपेरा की तर्ज पर भी भारत में कुछ करना चाहते हैं। उनके हिसाब से कला की कोई सीमा नहीं होनी चाहिए।


रहमान के बारे में कौन क्या कहता है



एआर रहमान का संगीत धीमे जÞहर की तरह है. ये धीरे-धीरे असर करता है. और फिर परवान चढ़ जाता है. उसके बाद तो उनका संगीत धूम ही मचा देता है।

शान, मशहूर गायक 


रहमान भारतीय फिÞल्म संगीत में ताजÞा हवा के झोंके की तरह हैं. उनकी वजह से अब दूसरे लोग भी लीक से हटकर कुछ नया करने का साहस कर पा रहे हैं.
प्रसून जोशी, गीतकार

उनके जैसे जीनियस के साथ काम करना एक अलग ही अनुभव होता है. उनके काम का स्टाइल ही अलग होता है जो उनके संगीत में सुनाई भी पड़ता है। जब मैंने फिÞल्म नायक में पहली बार उनके लिए गाना गाया तो मुझे बहुत ख़ुशी हुई चलो आखÞिर रहमान के साथ काम करने की तमन्ना पूरी हुई।
-सुनिधि चौहान, गायिका



रहमान पंडित रविशंकर, भीमसेन जोशी और किशोरी अमोनकर की तरह परंपरागत भारतीय संगीत की पहचान हैं। साथ ही वो दुनिया भर में आधुनिक भारतीय फिÞल्मी संगीत के भी प्रतिनिधि हैं।
जावेद अख्तर,गीतकार



संदर्भ से कटे नेताओं के बयान 

  संदर्भ से कटे बयानों के कारण नेताओं के बयान राजनीतिक विवादों को जन्म देते हैं। ये राजनीति से जुड़े लोगों को संवेदनशील तुलनाएं सोच समझ कर करना चाहिए ।


  सं दर्भहीन शब्द और बयान कितने विस्फोटक हो सकते हैं इसके कई उदाहरण इतिहास में मिल जाएंगे। सबसे पहला ज्ञात उदारहण है जब कृष्ण ने महाभारत युद्ध में द्रोणाचार्य को परास्त करने के लिए भीम से कहलवाया था- हतो अस्वथामा। यानी अस्वथामा मर गया। यहां संदर्भ नहीं बताया था कि अस्वथामा पुरुष था या हाथी के रूप में मरा था। संदर्भहीन वाक्य को सुनकर द्रोण ने समझा उनका बेटा मारा गया है। वे यह खबर सुन कर अचेत हो गए और उन्हें परास्त कर दिया गया। भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष नितिन गडकरी द्वारा भोपाल में दिए बयान को कुछ इस तरह ही राजनीति में स्वीकार किया गया है, खबर देने वालों ने और राजनीति में स्वीकार करने वालों ने भी कुछ इसी तरह स्वीकार किया है। भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने कहा कि स्वामी विवेकानंद और माफ़िया डॉन दाऊद इब्राहिम का आईक्यू एक जैसा था लेकिन दोनों की जिÞंदगी की दिशा अलग थी। गडकरी के संदर्भ थे कि एक का आई क्यू निगेटिव था और दूसरे का आई क्यू पॉजिटिव था। यह बयान संदर्भ के साथ देखा जाए तो बहुत अच्छा है लेकिन अगर इसे संदर्भ से काट दिया जाए तो यह तुलना खतरनाक हो सकती है। मीडिया में ये बयान संदर्भहीनता की स्थिति में उठा लिए गए। इससे यह बयान बाजी को राजनीतिक रंगत मिल गई। इस बयानबाजी से राजनीतिक सरगर्मियां तेज हो गई हैं। इस तरह संदर्भ सहित देखा जाए तो गडकरी का बयान उतना गलत नहीं था जितना शोर मचाया जा रहा है। अच्छे और बुरे दोनों व्यक्तियों का आईक्यू होता है,लेकिन दोनों में फर्क यहीं होता है कि एक अच्छे काम और दूसरा बुरे काम में अपना आईक्यू इस्तेमाल करता है। गडकरी का यह कहना भी गलत नहीं है कि मीडिया ने बयान को तोड़मड़ोर पेश किया,क्योंकि  मीडिया ने आधे अधूरे बयान को पेश किया है। अब जब राजनीति है तो ऐसे बयानों को राजनीतिक रंग तो दिए ही जाएंगे। ऐसी संवेदनशील तुलना से नेताओं को उसी प्रकार बचा जाना चाहिए जैसे कि दूध का जला छांछ भी फूंक-फूंक कर पीता है। बिना इसके कोई नेता  राजनीति  की उठापटक से नहीं बचा सकता। भारतीय लोकतंत्र में  हरेक दिन कोई न कोई नेता ऐसे बयानों से अनावश्यक विवादों को जन्म देता है। नरेन्द्र मोदी और शशि थरूर का मामला अभी ठंडा नहीं हुआ था कि नितिन गडकरी ने ताजा बयान देकर विवादों में हैं। पूर्व में भी नितिन गडकरी को कसाब और कांग्रेस वाले अपने बयान के कारण आलोचना का शिकार होना पड़ा था। कांग्रेस ने भाजपा अध्यक्ष के इस बयान की कड़ी आलोचना करते हुए उनसे सार्वजनिक माफी मांगने की मांग की है। हालांकि, नितिन गडकरी ने अपने बयान का खंडन करते हुए कहा है कि उन्होंने दाऊद और स्वामी विवेकानंद की कभी कोई तुलना नहीं की, न ही इसमें तुलना करने लायक कुछ है। लेकिन राजनीतिक लाभ हानि की प्रक्रिया में कई तरह के उतार-चढ़ाव आते हैं। नेताओं को अपने शब्द फूंक-फूंक कर ही बोलना चाहिए।

रविवार, अक्टूबर 28, 2012

भुवनेश्वर
की सूक्तियाँ
ye suktiyan hindisamya se li gyi hain

स्त्री अपने रुचित पुरुषों को ही धोखा देती है, यह उसकी सहज प्रकृति है कि अपने प्रिय पुरुष को वह अपने एक अंश का ही स्वामी बनती है।
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स्त्री के प्रेम के चार वर्ष –
    (पहला) प्राणाधार!
    (दूसरा) प्यारे!
    (तीसरा) ओह, तुम हो?
    (चौथा) संसार का और कोई काम तुम्हें नहीं है?
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स्त्री तुम्हें घृणा करेगी, यदि तुम उसकी प्रकृति को समझने का दावा करते हो।
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उस स्त्री से सावधान रहो, जो तुम्हें प्रेम करती थी और अब दूसरे पुरुष की प्रेयसी या पत्नी है, क्योंकि उसका पुराना प्रेम कभी भी लौट सकता है और इससे बड़ी प्रवंचना संसार में नहीं है।
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नारी पुरुष से कहीं क्रूर है और इसलिए पुरुष से कहीं अधिक सहनशील होने का दावा कर सकती है।
              *
जब एक पुरुष एक स्त्री से प्रेम करता है, तो वह अपने समस्त पूर्व-प्रेमियों को अपने ध्यान में रखती है, यदि उसमें और किसी भी भूतपूर्व प्रेमी में कुछ भी समानता है, तब उसकी सफलता की बहुत कम आशा है।
*

स्त्री एक पहेली है और उस पुरुष को घृणा करती है, जो वह पहेली बूझ सकता है।
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किसी भी स्त्री का तुम्हारा चुम्बन अस्वीकार देना ऐसा है जैसा तुम्हारे बैंक का तुम्हारा चेक् अस्वीकार कर देना।
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एक स्त्री से कहो, 'उसके पैर तुम्हारे पैरों से छोटे हैं', वह प्रसन्न हो जाएगी, पर यदि इससे भी पूर्ण सत्य यह कह दो कि 'उसका मस्तिष्क तुम्हारे मस्तिष्क से छोटा है, वह प्रलय कर देगी।
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एक स्त्री के लिए उसके प्रिय पुरुष को 'कोई' होना चाहिए। वह सरस हो या न हो या वह सरस ही हो, चाहे समाज में उसका कुछ स्थान हो या न हो।

एक महान् पुरुष यदि एक स्त्री के पीछे भागता है, तो इसमें स्त्री के लिए गर्व की कौन-सी बात है, जो सहस्रों अन्य स्त्रियाँ दे सकती हैं।

जब एक पत्नी की वासना अपने पति के लिए धीमी पड़ जाती है, वह एक वृद्ध और शिथिल बाघिनी के समान हो जाती है।

स्त्री के लिए प्रेम का अर्थ है कि कोई उसे प्रेम करे।

पुरुष स्त्री के लिए एक आवाहन है, निमंत्रण है, पर स्त्री पुरुष के लिए चैलेंज हैं, चुनौती है। 


संसार में 'प्रेम' कवियों और काहिलों के मस्तिष्क में ही मिल सकता है।

स्त्री फैशन की गुलाम है। जिस समाज में पति को प्रेम करना फैशन है, वहाँ वह सती भी हो सकती है।
- भुवनेश्वर के नाटक संकलन  
             'कारवाँ' से

शुक्रवार, अक्टूबर 26, 2012

 Char Tippniya
शहीदों की चिताओं पर...

देश के लिए अपनी जिंदगी सौंपने वालों के दर्द को कोई नहीं भागीदार नहीं सकता। शहीद और उसके परिवार के प्रति संवेदनशील रहना समाज और प्रशासन की नैतिक जिम्मेदारी है।

मध्यप्रदेश में शहीदों के सम्मान समारोह में नरेंद्र सिंह के परिजन नहीं आए तो दिल्ली में देश की सेवा करते हुए शहीद अर्द्ध सैनिक बलों के जवानों को श्रद्धांजलि दी गई लेकिन उन्हें सैनिकों की तरह शहीद का दर्जा नहीं दिया। नरेंद्र कुमार के मामले में यह तो नहीं कहा जा सकता कि उनके परिजन मध्यप्रदेश प्रशासन से नाराज हैं या अन्य किसी कारण से नहीं आए। क्योंकि उनकी ओर से कोई बयान नहीं दिया है, लेकिन लगता यही है कि वे प्रदेश के पुलिस अधिकारियों के रवैये से व्यथित हैं। आईपीएस अधिकारी नरेन्द्र कुमार ने मार्च 2012 में मुरैना में अपने कर्तव्य का पालन करते हुए अपनी जान गवांई थी। उनकी मौत पर प्रदेश भर में पुलिस व्यवस्था को लेकर हंगाम भी हुआ था लेकिन छह आठ माह बाद सब उसी डर्रे पर आ गया लगता है।
हर साल सैंकड़ों जवान देश के लिए अपनी जान देते हैं। वे सुरक्षा और देश की व्यवस्था के लिए लड़ते हैं लेकिन इस जान को हमारी सरकारें, सत्ता और व्यवस्था रुटीन मौत समझ कर दूर हो जाती है। जबकि इन जवानों को पहले से पता होता है कि वे जिंदगी को दांव पर लगा रहे हैं। यह उनका जज्बा होता है लेकिन उनके मरने के बाद हमारी सरकारें उनको शहीद कहने के लिए कई बैठकें करना होती हैं। ऐसा लगता है, हम अपने देश के सैनिकों और पुसिल सिपाहियों और सीमा की निगरानी कर रहे जवानों को पूरा सम्मान नहीं दे पाते। क्या कारण है कि इस देश में सैनिक को रेलवे आरक्षण नहीं मिलता। वे जनरल बोगियों में जाते हैं। उनके भोजन और राशन में भ्रष्ट्राचार सामने आते हैं।
सेना और पुलिस के जबानों के पास कई समस्याएं हैं। वे अपनी समस्याओं के लिए किसी स्थानीय प्रशासनिक अधिकारी के सामने गिड़गिड़ाने नहीं जाते। क्योंकि सेवानिवृत होने के बाद भी उसमें आत्म सम्मान होता है। सैनिक की आदत नहीं होती कि वह किसी नेता या अधिकारी से मिन्नतें करे। वह   बताए कि मेरी समस्याओं को देखिए। एक सच्चा सिपाही खुद ही अपनी समस्याएं नहीं बता सकता। लेकिन हमे अपने देश की सेवा करने वाले शहीदों के लिए पूरा सम्मान और उनकी समस्याओं के प्रति बेहद संवेदनशील नजरिया रखने की आवश्यकता है। देश में सितंबर 2011 अगस्त 2012 तक 546 जवानों ने सेवा में रहते हुए अपनी जान को कुर्बान किया है। लेकिन आधिकारिक रूप से पुलिस और अर्द्ध सैनिक बलों के लिए ऐसी कोई आधिकारिक आदेश जारी नहीं किया है। सरकारें भी इस दिशा में कोई ऐसे प्रयास नहीं करतीं जिससे पुलिस और सेना के जवानों के प्रति सामाजिक सम्मान में बढ़ोतरी हो और उनकी सुविधाओं का ख्याल रखा जाए। सामन्यत: देखने में आ रहा है कि सैनिकों, अर्द्धसैनिक बलों और पुलिस के सेवानिवृत जवानों या शहीदों के प्रति बहुत सम्मान नहीं रहा। देश पर मर मिटने की भावना को निरंतर आहत ही किया जा रहा है। सरकारें और संबंधित संस्थाएं  इस दिशा में कारगर उपाय करें। सुझाव दें ताकि देश की सीमाओं पर खड़े, आंतरिक व्यवस्था में संलग्न जवान को पूरा सम्मान मिल सके।



कचरे में कचरे की चिंता

भोपाल गैस त्रासदी का कचरा अब भी कायम है। यह जनता और प्रशासनिक कर्तव्यों के प्रति सरकारों की लापरवाही और गैर जिम्मेदारी है। हमें अपने नागरिकों के प्रति अधिक जिम्मेदार बनना होगा।


भोपाल गैस त्रासदी के जिम्मेदार कार्बाइड कारखाने से ज़हरीला कचरा 28 साल बाद भी नहीं हटाया जा सका। तमाम प्रयासों के बाद भी कचरा टस से मस नहीं हो रहा है। इस मामले में जितनी लापरवाही बरती गई है, उसका उदारहरण शायद ही दुनिया में कहीं देखने मिले। कार्बाइड परिसर में रखा 350 मीट्रिक टन कचरे को ठिकाने लगाने के लिए सैद्धांतिक रूप से शासन स्तर पर सहमती बनती है और फिर कोई न कोई अवरोध इस कचरे का रास्ता रोक लेता है। आज भी कचरा निष्पादन के स्थान को लेकर असहमति और अटकलों का दौर जारी है। अब जीओएम यानी गु्रप आॅफ मिनिस्टर्स ने तय किया है कि पहले कचरे को जला कर टेस्ट किया जाएगा। इतने सालों में ज़हरीले तत्व वातावरण में घुलकर हज़ारों ज़िंदगियों के रक्त में ज़हर घोल रहे हैं। बारिश के पानी के संपर्क में आकर ज़हरीले तत्व भूजल में मिल रहे हैं।
कचरे के लिए एडवायज़री और मॉनिटरिंग कमेटी का गठन सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद किया गया। इन प्रयासों के तहत देश में उपलब्ध 27 स्थानों की कचरा निपटाने की व्यवस्थाओं का जायज़ा लेकर आवश्यक निर्णय लिए जाने की बात कही गई लेकिन आज भी कोई प्रगति नहीं है। एडवायज़री और मॉनिटरिंग कमेटी में पहले तय किया गया था कि ज़हरीला कचरा पीथमपुर में ठिकाने लगाया जाएगा। कचरा हटाने का काम छह महीने में पूरा कर लिया जाएगा लेकिन बाद में पीथमपुर पर भी सहमति नहीं बनी और तय किया गया कि देश के 27 स्थानों का जायज़ा लेने के बाद ही कोई फैसला किया जाएगा। इस मामले में अदालत की टिप्पणी भी उल्लेखनीय है। न्यायमूर्ति जीएस सिंघवी और न्यायमूर्ति एसजे मुखोपाध्याय की खंडपीठ ने कहा, 28 साल बाद भी आप (हमारे नेता) नहीं जानते कि क्या करना है ऐसा इसलिए हैं क्योंकि जो लोग भोपाल में प्रभावित हुए और वहां रह रहे हैं, वे गरीब हैं। इस मामले से निपटने में ये आपकी नाकामी है।अदालत ने कहा कि इस समस्या से निपटने को लेकर गंभीरता का अभाव रहा है। यह समझ से परे है कि कारखाने की मालिक कंपनी को ही इस कचरे को सबसे पहले हटाना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं हो सका। क्यों? आज इस सवाल के हमारे पास हजारों उत्तर मिल जाएंगे लेकिन सवाल कचरे का अभी भी बना है। लेकिन लोककल्याणकारी सरकार होने का दम भरने वाली सरकारों ने इसे वहीं पड़ा रहने दिया। यह नागरिकों के इतिहास में दर्ज होने वाली प्रति ऐतिहासिक लापरवाही है।

सरकार की दूरदर्शिता
भूमि सुधार की आवश्यकता आजादी के तुरंत बाद से थी, लेकिन सरकारों के रवैये ने वर्षों तक लटकाए रखा। अब यह शुभ संकेत है कि सरकार इस पर विचार करने जा रही है।

दि  ल्ली की तरफ बढ़ रहे 50,000 किसानों और मजदूरों के सामने केंद्र सरकार ने समझदारी से भरा कदम उठा कर दूरदर्शिता का परिचय दिया है। इसीलिए आगरा में जन सत्याग्रहियों और केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश के बीच समझौता हो गया। इसके तहत सरकार पांच छह माह में कानून का ड्राफ्ट बनाएगी। सरकार ने कहा है कि जल्द भूमि सुधार के लिए टास्क फोर्स का गठन किया जाएगा। गौरतलब है कि जल, जंगल और जमीन के मद्दे पर करीब 50,000 आदिवासी और किसान दिल्ली के लिए पैदल ही निकले थे।  यह सत्याग्रह राष्ट्रीय भूमि सुधार परिषद का गठन की मांग पर जारी थी कि भारत के हर नागरिक को घर बनाने लायक जमीन दी जाए। आदिवासी क्षेत्रों के लिए कानून सख्ती से लागू हो। महिलाओं को भी किसान का दर्जा मिले। केंद्र सरकार की ओर से लैंडपूल बने, ताकि देशभर में खाली पड़ी जमीन के बारे में पता चल सके। इसके साथ ही उनकी मांग जमीन विवाद के निपटारे के लिए विशेष अदालतों के गठन की भी थी।
जबकि निर्धनता उन्मूलन का सबसे महत्वपूर्ण कार्य गरीबी रेखा की बहस या बीपीएल-एपीएल की बहस आंकड़ेबाजी में भटक गई है। सस्ते अनाज का कार्ड बन जाने जैसे अस्थायी मुद्दे आगे आ रहे हैं जबकि गरीबी हटाने के टिकाऊ उपाय, जैसे भूमिहीनों को कृषि भूमि उपलब्ध करवाने के लिए जरूरी भूमि   सुधार जैसे मुद्दे पीछे रह गए हैं। अत: एक बार फिर भूमि-सुधारों को गरीबी उन्मूलन की बहस के केंद्र में लाना जरूरी हो गया है। पांच वर्ष पहले 2007 में इन्हीं संगठनों के जनादेश अभियान के अंतर्गत दिल्ली में 20,000 पदयात्री आए थे। सरकार से तब जो बातचीत हुई थी, उसके आधार पर भूमि-सुधार को आगे ले जाने का महत्वपूर्ण मसौदा तैयार किया था पर सरकार ने इस मसौदे को आगे ले जाने में कोई गंभीरता व मुस्तैदी नहीं दिखाई। सरकार की इस उपेक्षा को देखते हुए वर्ष 2010 में जन-सत्याग्रह आरंभ किया गया। इसे आगे बढ़ाते हुए राष्ट्रीय स्तर पर पदयात्रा की घोषणा की गई तो सरकार हरकत में आई व उसने अपनी ओर से भूमि-सुधार को आगे ले जाने का मसौदा प्रस्तुत किया।  यह सुनिश्चित होना चाहिए कि प्राकृतिक संसाधनों की लूट व इससे जुड़े भ्रष्टाचार पर रोक लगे। सबसे गरीब परिवारों को जहां जमीन चाहिए वहां इस जमीन पर सफल खेती के लिए छोटी सिंचाई योजनाओं, जल व मिट्टी संरक्षण के कार्यों की भी जरूरत है। साथ ही लघु वन उपज पर आदिवासी अधिकारों को मजबूत करना जरूरी है जिससे वन आधारित आजीविका भी फलती-फूलती रहे।
ग्रामीण क्षेत्रों में जिन नीतियों व कानूनों के कारण विस्थापन व आजीविका का विनाश बढ़ा है उन पर रोक लगनी चाहिए। जनता के अनुरूप ग्रामीण विकास को आर्थिक नियोजन के केंद्र में लाना जरूरी है। क्योंकि इससे उनकी सक्रिय भागीदारी बढ़ेगी। भूमि सुधार का स्वरूप क्या होगा यह सरकार द्वारा बनाए जाने वाले कानूनी ड्राफ्ट आने पर बता चलेगा। फिलहाल सरकार की दूरदर्शिता की तारीफ की जाना चाहिए।
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सेना की कमजोरी कौन
सेना किसी भी देश की सबसे ताकतबर इकाई होती है। इसे चौकस, संपन्न और मजबूत बनाए रखना जरूरी है। लेकिन जब यह भ्रष्टाचार की ओर जाती है तो दोहरे खतरे वाली तलवार भी बन जाती है।

र  क्षा मंत्रालय की अंदरूनी आॅडिट रिपोर्ट में यह खुलासा किया गया है कि सेना प्रमुख जनरल बिक्रम सिंह, उनके पूर्ववर्ती जनरल वीके सिंह तथा अन्य शीर्ष जनरलों ने महज दो वर्षों में 100 करोड रुपए से अधिक के सार्वजनिक धन से अनियमित खरीदारी की है। रक्षा मंत्रालय के महालेखा परीक्षक (सीडीए) ने रक्षा मंत्री के निर्देशों पर 2009 से 2011 के बीच थलसेना के कमांडरों के 55 खरीद फैसलों की पड़ताल की। इस सब के बीच जो आदेश रक्षामंत्री महोदय ने दिए हैं, क्या यह प्रक्रिया नियमित रूप से नहीं की जानी चाहिए थी। आॅडिट करना एक नियमित प्रक्रिया है, ये खुलासे बहुत जल्दी या फिर कार्यकाल के दौरान ही होना चाहिए। सांप निकल जाता है इसके बाद लाठी पीटी जाती है। हम इस प्रकार की अनियमितताओं के लिए आज तक कोई प्रभावी नीति नहीं बना पाए हैं।
आॅडिट से यह भी खुलासा हुआ कि विदेशी उपकरण खरीदने में दिशा निर्देशों का बार-बार उल्लंघन किया। यही नहीं सेना के एक अंग ने जिन उपकरणों को खारिज किया उन्हें दूसरे अंग ने खरीद लिया। जनरलों ने अपने आपात खरीद के अधिकार के तहत चीन में बने संचार उपकरण तब खरीदे जब वे अपने-अपने क्षेत्रों के कमांडर थे। ये उपकरण सीधे निर्माता से खरीदने के बजाय एजेंट से लिए गए। इससे ये काफी महंगे पडे। बाद में पता चला कि चीन के उपकरणों में जासूसी करने वाला एक सॉफ्टवेयर भी फिट था। चीन समेत कई देशों की खुफिया एजेंसियां जासूसी के लिए ऐसे हथकंडे अपनाती हैं।आॅडिट रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर ये उपकरण भारतीय फर्मों से लिए जाते तो सस्ते मिल जाते। मामला महज फिजूलखर्ची का नहीं बल्कि नियमों की अनदेखी और सुरक्षा से जुडेÞ मामलों को ताक पर रखने का भी है।
इसी प्रकार सेना में टाट्रा ट्रकों की खरीद का मामला सामने आने के बाद सरकार ने रक्षा सौदे में बिचौलियों की मौजूदगी पर पाबंदी लगा दी थी। नई व्यवस्था में सप्लाई का आॅर्डर पाने वाली हर कम्पनी को सरकार के साथ एक ईमानदारी कायम रखने का करार करना जरूरी हो गया। इसके बाद रक्षा सौदों में दलालों की भूमिका पर भी रोक लगी थी। लेकिन इससे कंसलटेंसी के नाम पर दलाल कम्पनियों की बाढ़ आ गई, जिनमें अवकाश प्राप्त फौजी अधिकारी, विदेशी विशेषज्ञ और अन्य लोग शामिल हैं, जो धड़ल्ले से इस काम को अंजाम दे रहे हैं। लेकिन यह सब बिना शक्तिशाली राजनीतिक संरक्षण अथवा शह के संभव है? किसी देश की सेना की यह स्थिति वास्तविक अर्थों में भयानक ही कही जा सकती है। देश की सेना में हो रहे भ्रष्टाचार के खुलासों पर सरकार को परदा डालने या मौन की नीति नहीं अपनानी चाहिए। परदा डालने से सेना के अंदर हो रहे इन कर्मकांडों पर रोक नहीं लगेगी। इस मामले में अधिक मजबूत और पारदर्शी व्यवस्थाएं बनाने और उन पर सख्ती से अमल की आवश्यकता होती है। सरकार को इस दिशा में नीयत से भी काम करना होगा वरना सेना में भ्रष्टाचार फैलेगा।

गुरुवार, अक्टूबर 25, 2012

 अर्थशास्त्र का नोबल

अर्थशास्त्र के आधार पर बाजार के सिद्वांत काम करते हैं और बाजार की जरूरतों के अनुसार अर्थशास्त्र को तैयार किया जाता है। बावजूद दोनों के साथ जरूरी है मानवीय दृष्टिकोण।

चिकित्सा सेवाओं के बाजारीकरण के दौर में मरीजों के हितों की सुरक्षा को ध्यान में रखकर बाजार की कार्य प्रणाली का अध्ययन करने वाले दो अमेरिकी अर्थशास्त्रियों एलिवन रोथ और लायड शाप्ले को वर्ष 2012 के अर्थशास्त्र का नोबल पुरस्कार दिया गया है। पुरस्कार देने वाली संस्था रायल स्विडिश अकादमी आफ साइसेंस ने अपनी घोषणा में दोनों अर्थशास्त्रियों के काम को आर्थिक इंजीनियरिंग का सर्वोत्तम उदाहरण बताया।
स्वीडन फाउंडेशन द्वारा स्वीडन के वैज्ञानिक अल्फ्रेड नोबेल की याद में वर्ष 1901 मे शुरू किया गया था। यह शांति, साहित्य, भौतिकी, रसायन, चिकित्सा विज्ञान और अर्थशास्त्र के क्षेत्र में विश्व का सर्वोच्च पुरस्कार है। इसमें पुरस्कार के रूप में प्रशस्ति-पत्र के साथ 14 लाख डालर की राशि प्रदान की जाती है। अर्थशास्त्र के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार की शुरुआत 1968 से की गई। पहला नोबेल शांति पुरस्कार 1901 में रेड क्रॉस के संस्थापक ज्यां हैरी दुनांत और फ्रेंच पीस सोसाइटी के संस्थापक अध्यक्ष फ्रेडरिक पैसी को संयुक्त रूप से दिया गया था। खैर 2012 के लिए प्रदान किया जाने वाला नोबल पुरस्कार भी मानवीयता से परिपूर्ण दृष्टिकोण को ख्याल में रख कर दिया गया है। यहां बाजार है, उसकी मर्यादा है लेकिन यह पहली बार गहन अध्ययन औरशोध के साथ दुनिया के सामने आया है कि चिकित्सा सेवाओं पर बाजार और उसका अर्थशास्त्र कैसे काम करता है। उपभोग आधारित अर्थव्यवस्था में दैनिक आवश्यकताओं में चिकित्सा जैसे महत्वपूर्ण पक्ष को शामिल किया गया है, क्योंकि इसके बिना हमारे पारिवारिक, सामाजिक दायित्व सीमित हो जाते हैं।  रोथ और शाप्ले के अनुसंधान ने मानव अंगों के प्रत्यारोपण, विद्यार्थियों के स्कूल, कर्मचारियों के लिए रोजगार के संबंध में मांग और आपूर्ति का अध्ययन किया है। उनयासी वर्षीय शाप्ले और 60 वर्षीय रोथ को अलग -अलग आर्थिक कारकों का मिलान करके बाजार को मजबूत बनाने के लिए इस प्रतिष्ठित पुरस्कार के लिए चुना गया है। उनके अध्ययन से चिकित्सा सेवाओं और अस्पताल में कार्यरत नये चिकित्सकों को बाजार की कार्यप्रणाली की बेहतर जानकारी मिल सकेगी। बारह लाख डॉलर का पुरस्कार देने वाली समिति के एक सदस्य टोरे एलिंग्सेन ने कहा कि मुख्य प्रश्न यह है कि जब संसाधन सीमित हैं तो किसको क्या मिलेगा। किस कर्मचारी को कौन से रोजगार मिलेगा। कौन से विद्यार्थी किस स्कूल में जाएगा। किस मरीज को प्रत्यारोपण के लिए कौन से अंग मिलेगा।  प्रोफÞेसर अमर्त्य सेन गÞरीबी और भूख जैसे विषयों पर काम करने के लिए 1998 में अर्थशास्त्र का नोबल पुरस्कार दिया गया। वे प्रतिष्ठित पुरस्कार जीतने वाले पहले एशियाई नागरिक बने थे। उनके शोध का प्रमुख आधार गÞरीबी और भुखमरी जैसे विषय थे। उन्होंने 1974 में बांग्लादेश में पड़े अकाल पर भी लिखा था। उन्होंने अकाल और भुखमारी को खत्म करने के व्यवहारिक उपाय भी बताए थे। निश्चय ही नोबल जीतने का अर्थ है कि आपने मानवता के लिए, उसकी उत्कृष्टता के लिए काम किया है।