बच्चों में बढ़ती हिंसा एक वैश्विक समस्या के रूप में सामने आ रही है। आने वाले वक्त में इसके और बढ़ने की आशंका है। हमें अभी से इसे सुधारने के प्रयास करना ही होंगे।
रायसेन जिले के बरेली कस्बे में दसवीं कक्षा में पढ़ने वाली एक छात्रा ने पड़ोस में रहने वाली आठवीं की छात्रा पर केरोसिन डालकर आग लगा दी। दो दिन पहले ही अमेरिका में एक छात्र को गोली बारी करने की योजना में गिरफ्तार किया गया है। किशोर उम्र के बच्चों द्वारा हिंसा की घटनाएं बढ़ रही हैं और इनसे कुछ बड़े सवाल जन्म ले रहे हैं। रायसेन जिले की घटना में आरोपी छात्रा का कहना है कि लड़की का परिवार उसके परिजनों पर चोरी का आरोप लगा कर बदनाम कर रहे थे। लेकिन इस आरोप के बाद भी कुछ ऐसे सवाल उठते हैं जो इसे एक गंभीर सामाजिक समस्या की तरफ इशारा करते हैं। किशोर उम्र लड़की के लिए इस आरोप पर इतना बड़ा अपराध करना संभव कैसे हुआ। किशारी को किरोसिन की कैन कैसे हासिल हुई। वह हाथ में जलता हुआ डंडा लेकर किस दुष्साहस के साथ घर में आग लगाने के लिए दाखिल हुई। इससे भी बड़ी बात ये है कि आखिर उसमें इतनी हिंसा की भावना कैसे जनमी? इस हिंसा का स्रोत क्या है। निश्चय ही यह सिर्फ लड़की के अकेली चेनता की उपज नहीं हो सकती। कहीं न कहीं समाज में उपस्थित दूसरे कारण भी इसमें सहायक रहे होंगे। अपराध करने के लिए अपराध करने वाले के लिए कहीं न कहीं कल्पना की आवश्यकता अवश्य होती है। यह कल्पना कहां से मिल रही है। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि यह घटना किसी न किसी टीवी और फिल्म मीडिया के दृश्यों का कोलाज लगती है। क्योंकि इसके समर्थन में एक पुराना शोध सामने आया है। ए एच स्टेन और एल के फ्रेडरिक ने यह शोध 1972 में ‘टेलीविजन कंटेंट एण्ड यंग चिल्ड्रेन’नाम से किया है। इसमें अमेरिका में असामाजिक तत्वों और उनके समर्थकों पर किए गए 48 शोध कार्यों का विश्लेषण करते हुए लिखा कि 3से 18 वर्ष तक की आयु के बच्चों में टेलीविजन के हिंसक कार्यक्रमों ने आक्रामकता में वृद्धि की है। विगत 30 वर्षों में जितने भी शोधकार्य हुए हैं वे इसकी पुष्टि करते हैं। टेलीविजन हिंसा के प्रभाव को लेकर किए गए अध्ययन इस बात की पुष्टि करते हैं कि टेलीविजन हिंसा से आक्रामकता के अलावा असामाजिक व्यवहार में इजाफा होता है। हिंसक रूपों का प्रभाव तात्कालिक तौर पर कई सप्ताह रहता है। कई लोग टेलीविजन हिंसा को अस्थायी तौर पर ग्रहण करते हैं या केजुअल रूप में ग्रहण करते हैं। केजुअल रूप में हिंसा बच्चों के व्यवहार में आक्रामकता में इजाफा करती है। मीडिया विशेषज्ञों ने तात्कालिक प्रभाव का अध्ययन करके बताया है कि दर्शक की रिहाइश, उम्र, लिंग, सामाजिक, आर्थिक अवस्था आदि की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। मीडिया द्वारा बच्चे पर हिंसा का प्रभाव न पड़े इसके लिए जरूरी है कि बच्चे को परिवार के जीवंत संपर्क में रखा जाए। उन बच्चों में कम प्रभाव देखा गया है जिनके परिवारों में सौहार्द का माहौल है अथवा जिन परिवारों में कभी मारपीट तक नहीं हुई। अथवा जिन परिवारों में सामाजिक विश्वासों की जड़ें गहरी हैं। किन्तु जिन परिवारों में बच्चों के साथ दुर्व्यवहार होता है, उत्पीड़न होता है। वहां बच्चे हिंसा के कार्यक्रम ज्यादा देखते हैं। जो बच्चे भावनात्मक तौर पर परेशान रहते हैं उन पर आक्रामक चरित्र सबसे जल्दी असर पैदा करते हैं। इस तरह के बच्चे हिंसा के कार्टून ज्यादा चाव के साथ देखते हैं।आक्रामक या हिंसक चरित्रों को देखने के बाद बच्चों में समर्पणकारी एवं रचनात्मकबोध तेजी से पैदा होता है। टेलीविजन कार्यक्रमों के बारे में किए गए सभी अध्ययन इस बात पर एकमत हैं कि इसके नकारात्मक प्रभाव से मानसिक उत्तेजना,गुस्सा और कुंठा पैदा होती है।
रायसेन जिले के बरेली कस्बे में दसवीं कक्षा में पढ़ने वाली एक छात्रा ने पड़ोस में रहने वाली आठवीं की छात्रा पर केरोसिन डालकर आग लगा दी। दो दिन पहले ही अमेरिका में एक छात्र को गोली बारी करने की योजना में गिरफ्तार किया गया है। किशोर उम्र के बच्चों द्वारा हिंसा की घटनाएं बढ़ रही हैं और इनसे कुछ बड़े सवाल जन्म ले रहे हैं। रायसेन जिले की घटना में आरोपी छात्रा का कहना है कि लड़की का परिवार उसके परिजनों पर चोरी का आरोप लगा कर बदनाम कर रहे थे। लेकिन इस आरोप के बाद भी कुछ ऐसे सवाल उठते हैं जो इसे एक गंभीर सामाजिक समस्या की तरफ इशारा करते हैं। किशोर उम्र लड़की के लिए इस आरोप पर इतना बड़ा अपराध करना संभव कैसे हुआ। किशारी को किरोसिन की कैन कैसे हासिल हुई। वह हाथ में जलता हुआ डंडा लेकर किस दुष्साहस के साथ घर में आग लगाने के लिए दाखिल हुई। इससे भी बड़ी बात ये है कि आखिर उसमें इतनी हिंसा की भावना कैसे जनमी? इस हिंसा का स्रोत क्या है। निश्चय ही यह सिर्फ लड़की के अकेली चेनता की उपज नहीं हो सकती। कहीं न कहीं समाज में उपस्थित दूसरे कारण भी इसमें सहायक रहे होंगे। अपराध करने के लिए अपराध करने वाले के लिए कहीं न कहीं कल्पना की आवश्यकता अवश्य होती है। यह कल्पना कहां से मिल रही है। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि यह घटना किसी न किसी टीवी और फिल्म मीडिया के दृश्यों का कोलाज लगती है। क्योंकि इसके समर्थन में एक पुराना शोध सामने आया है। ए एच स्टेन और एल के फ्रेडरिक ने यह शोध 1972 में ‘टेलीविजन कंटेंट एण्ड यंग चिल्ड्रेन’नाम से किया है। इसमें अमेरिका में असामाजिक तत्वों और उनके समर्थकों पर किए गए 48 शोध कार्यों का विश्लेषण करते हुए लिखा कि 3से 18 वर्ष तक की आयु के बच्चों में टेलीविजन के हिंसक कार्यक्रमों ने आक्रामकता में वृद्धि की है। विगत 30 वर्षों में जितने भी शोधकार्य हुए हैं वे इसकी पुष्टि करते हैं। टेलीविजन हिंसा के प्रभाव को लेकर किए गए अध्ययन इस बात की पुष्टि करते हैं कि टेलीविजन हिंसा से आक्रामकता के अलावा असामाजिक व्यवहार में इजाफा होता है। हिंसक रूपों का प्रभाव तात्कालिक तौर पर कई सप्ताह रहता है। कई लोग टेलीविजन हिंसा को अस्थायी तौर पर ग्रहण करते हैं या केजुअल रूप में ग्रहण करते हैं। केजुअल रूप में हिंसा बच्चों के व्यवहार में आक्रामकता में इजाफा करती है। मीडिया विशेषज्ञों ने तात्कालिक प्रभाव का अध्ययन करके बताया है कि दर्शक की रिहाइश, उम्र, लिंग, सामाजिक, आर्थिक अवस्था आदि की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। मीडिया द्वारा बच्चे पर हिंसा का प्रभाव न पड़े इसके लिए जरूरी है कि बच्चे को परिवार के जीवंत संपर्क में रखा जाए। उन बच्चों में कम प्रभाव देखा गया है जिनके परिवारों में सौहार्द का माहौल है अथवा जिन परिवारों में कभी मारपीट तक नहीं हुई। अथवा जिन परिवारों में सामाजिक विश्वासों की जड़ें गहरी हैं। किन्तु जिन परिवारों में बच्चों के साथ दुर्व्यवहार होता है, उत्पीड़न होता है। वहां बच्चे हिंसा के कार्यक्रम ज्यादा देखते हैं। जो बच्चे भावनात्मक तौर पर परेशान रहते हैं उन पर आक्रामक चरित्र सबसे जल्दी असर पैदा करते हैं। इस तरह के बच्चे हिंसा के कार्टून ज्यादा चाव के साथ देखते हैं।आक्रामक या हिंसक चरित्रों को देखने के बाद बच्चों में समर्पणकारी एवं रचनात्मकबोध तेजी से पैदा होता है। टेलीविजन कार्यक्रमों के बारे में किए गए सभी अध्ययन इस बात पर एकमत हैं कि इसके नकारात्मक प्रभाव से मानसिक उत्तेजना,गुस्सा और कुंठा पैदा होती है।
1 टिप्पणी:
एक महत्वपूर्ण विषय पर बहुत अच्छा लेख है .
मैं भी इस विषय पर जल्द एक लेख पोस्ट करूँगी.
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