बुधवार, जून 20, 2012






 


राजनीति के राष्ट्रपति

शिवसेना ने अब प्रणव मुखर्जी का समर्थन कर दिया है।यह समर्थन नीति और विचारों के आधार पर नहीं, अवसरवाद और राजनीतिक नफे नुकसान के गणित पर आधारित है।


शि वसेना ने अपना पाला बदल लिया है। वैचारिक असहमतियों और विरोधों को राजनीतिक अवसरवाद किस प्रकार अलग रख देता है, यह शिवसेना के उदाहरण से साफ हो जाता है। भाजपा की वैचारिक सहयोगी शिवसेना की इस पलटी से देश का राजनीतिक विश्लेषण करने वाला वर्ग चकित है। एक प्रकार से सभी क्षेत्रीय दलों का कुछ ऐसा ही रुझान होता है। वे अपने अस्तित्व के लिए अवसरवाद के टट्टू पर जब तब सवार हो जाते हैं। चाहे वह राष्ट्रपति चुनाव हो या कोई दूसरा।
राष्ट्रपति चुनाव को लेकर एनडीए में असमंजस की स्थिति अभी भी बनी है, लेकिन उसके घटक दल शिवसेना ने अपना रुख जता दिया है। शिवसेना पार्टी राष्ट्रपति चुनाव में यूपीए के उम्मीदवार प्रणव मुखर्जी का समर्थन करेगी।   अपनी वैचारिक छवि के मुखौटे को एक तरफ रख दिया है। शिवसेना ने अपना रुख पहले साफ नहीं किया था। उसने अपना रुख उस वक्त साफ किया जब मुखर्जी ने पार्टी प्रमुख बाल ठाकरे और उनके बेटे उद्धव ठाकरे से बातचीत की। दूसरी तरफ यह भी कहा जा रहा है कि भाजपा की वैचारिक सहयोगी शिवसेना ने राष्ट्रपति चुनाव मेें एनडीए द्वारा अपना उम्मीदवार नहीं चुने जाने पर भी निराशा जताई है। शिवसेना की निराशा जायज भी है। वह क्षेत्रीय दल होने के नाते सर्वप्रथम अपने हितों को प्राथमिकता देती है। शिवसेना की यह निराशा इसलिए बढ़ रही थी कि राष्ट्रपति का नाम तय नहीं होने से अपने रिश्तों को लेकर कोई राजनीतिक मोलभाव नहीं कर पा रही थी। 2007 के राष्ट्रपति चुनाव में भी शिवसेना ने एनडीए के उम्मीदवार भैरों सिंह शेखावत का समर्थन नहीं किया था। तब पार्टी ने यूपीए उम्मीदवार प्रतिभा पाटिल का समर्थन किया था क्योंकि वह महाराष्ट्र की हैं।
दूसरी तरफ भाजपा कोर समूह की बैठक में संगमा का समर्थन करने की संभावना बनी है। राष्ट्रपति पद की दौड़ में ए.पी.जे अब्दुल कलाम के शामिल होने से इनकार किए जाने के बाद भाजपा के कोर ग्रुप की बैठक में संगमा के नाम पर विचार किया गया। इस बैठक में यूपीए उम्मीदवार प्रणव मुखर्जी का विरोध नहीं करने और जेडीयू के रुख समेत पार्टी की रणनीति पर भी बातचीत की गई। लेकिन बीजेपी की यह कसरत कमजोर संकल्प के कारण देखने दिखाने भर की साबित हो रही है। पूरे घटनाक्रम को देखें तो भाजपा फैसले न ले पाने वाली पार्टी बनती लग रही है।
भाजपा की दूसरी दिक्कत 2014 के लोकसभा चुनावों को देखते हुए है। वह एआईडीएमके और बीजेडी जैसे दलों को अपने साथ लाने की संभावना को नजर में रखते हुए राष्ट्रपति चुनाव में मुकाबला होना चाहिए। कलाम दौड़ से बाहर हो चुके हैं।  पूर्व लोकसभा अध्यक्ष पी.ए. संगमा को समर्थन दिए जाने की संभावना है। यह संभावना तभी कारगर होगी जब भारतीय जनता पार्टी अपने चरित्र को एक स्थिरता दे। फिलहाल भाजपा इतने जोड़-घटाने में उलझी है कि उत्तर लिखने से पहले ही उसके पेपर का समय पूरा हो जाएगा।




बेलगाम ताकत के दुख


पुलिस जैसी ताकतवर संस्था जब अनियंत्रित और विवेकहीन हो जाती है तो वह अपनों को मारने लगती है। राजनीतिक कार्यकता और समाज सेवक की हत्या इसका उदाहरण बन कर सामने आई है।


पुलिस द्वारा नरसिंहपुर के एक गांव में  समाजसेवी की हत्या कर दी गई। यह घटना पुसिल के बेलगाम होने के कई उदाहरणों में से एक है। कहीं पुलिस ने शांतिपूर्ण किसानों पर गोलियां बरसार्इं हैं तो कहीं संवेदनशील प्रदर्शनों को असंवेदनशील नजरिये से निबटने की कोशिश में उसे हिंसक बना दिया है। यदि इस तरह की समस्याओं और घटनाओं को समाधानों की ओर गंभीरता से विचार करें तो, यह मामला सीधे न तो राजनीतिक कहा जा सकता है और न ही गैर राजनीतिक। मध्यप्रदेश में पुलिस द्वारा प्रताड़ना और गोली से मृत्यू होने की घटनाओं की कई शिकायतें हैं। जनसुनवाई और मानवअधिकार के आंकड़ों में सबसे अधिक शिकायत पुसिल प्रताड़ना की होती हैं। ये प्रताड़नाएं बड़ कर जनता की मौत का पैगाम भी बन जाती हैं। यह समस्या सभी राज्यों की पुलिस की है। लगभग सभी राज्यों में पुलिस द्वारा जनता के मौत के आंकड़ों में बढ़ोतरी हुई है।
पुलिस के बेलगाम होने, असंवेनशील होने और विवेकपूर्ण तरीकों को न अपनाए जाने के पीछे कुछ न कुछ कारण रहे होते हैं। स्थानीय राजनीतिक दबाव और संरक्षण इसमें प्रमुख हैं। दूसरे कारणों पर गौर करें तो  पुलिस को अच्छा प्रशिक्षण न मिलना भी है। पुलिस अधिकारी और पुलिस कर्मी पुरानी मानसिकता से ग्रस्त हैं। वे समझते हैं कि वे जनता को नियंत्रित करने, उसे सबक सिखाने के लिए तैनात किए गए हैं। उनमें जिम्मेदारी की भावना नहीं है कि वे जनता के ही प्रहरी हैं।  ह्यूमन राइट्स वॉच के एशिया क्षेत्र निदेशक ब्रैड एडम्स कहते हैं, ‘भारत तेजÞी से आधुनिक हो रहा है लेकिन पुलिस अभी भी पुराने तरीकों से काम करती है। वो गालियों और धमकी से काम चलाते हैं।
अब समय आ गया है कि सरकार बात करना बंद करे और पुलिस प्रणाली में सुधार किया जाए।’ दिल्ली के पूर्व आयुक्त अरूण भगत का कहना है कि  ‘जो ऊपर के रैंक पर हैं उनका भविष्य बेहतर है लेकिन जो कांस्टेबल है हेड कांस्टेबल है   उसका फ्रस्ट्रेशन तो देखिए। उससे गÞलतियां होगीं ही। इसे बदलने की जÞरुरत है।’रिपोर्ट के अनुसार कई पुलिसकर्मियों ने बातचीत के दौरान माना कि वो आम तौर पर गिरफ्Þतार लोगों को प्रताड़ित करते हैं। कई पुलिसकर्मियों का कहना था कि वो कÞानून की सीमाएं जानते हैं लेकिन वो मानते हैं कि अवैध रूप से हिरासत में किसी को रखना और प्रताड़ित करना जÞरूरी होता है। रिपोर्ट का कहना है कि जब तक पुलिसकर्मियों को चाहे वो किसी भी पद पर हों, मानवाधिकार उल्लंघन के लिए सजÞा नहीं दी जाएगी तब तक पुलिस कभी भी जिÞम्मेदार नहीं हो सकती है।
इसमें राज्यों की पुलिस की असफलताओं का भी जिÞक्र है। रिपोर्ट के अनुसार पुलिसवाले कÞानून की परवाह नहीं करते, पुलिसकर्मियों की संख्या कम है और उनके प्रोफेशनल मानदंड भी अच्छे नहीं हैं। पुलिसकर्मी कई मौकों पर लोगों की उम्मीदों पर पूरे नहीं उतरते हैं। पुलिस सुधार इसलिए जरूरी हैं क्यो कि जनता बदल रही है। समाज बदल रहा है।

ravindra swapnil prajapati

गुरुवार, जून 14, 2012

मध्यप्रदेश में मनरेगा, सच के सामने चिदंबरम , जोशी मोदी और भाजपा

 
 मध्यप्रदेश में मनरेगा


किसी राष्ट्रीय कल्याणकारी योजना को सफल बनाना और उसके लाभ जनता तक पहुंचाना सरकारों की जिम्मेदारी है। मनरेगा के क्रियान्वयन में मध्यप्रदेश राज्यों में तीसरे क्रम पर आ गया है।


म हात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) एक व्यापक ग्रामीण समाज के लिए वरदान साबित हुई है। बेशक इसमें भ्रष्टाचार के मामले भी सामने आते रहे हैं इसके बाद भी उसने गांवों में रोजगार देकर  52 लाख परिवारों को लाभान्वित किया है। मनरेगा के द्वारा ग्रामीण मजदूर और खेतीहर मजदूर किसानों के लिए रोजगार के अवसरों को गारंटी के साथ उपलब्ध कराना रहा है। इस योजना में 2011-12 में ग्रामीण अंचलों में जरूरतमंदों को रोजगार उपलब्ध करवाने के लिए राशि खर्च करने के क्रम में मध्यप्रदेश देश में तीसरे स्थान पर रहा है। प्रदेश में इस अवधि में 3,520 करोड़ रुपये रोजगार देने वाली योजनाओं पर खर्च किए गए हैं और 1797 लाख मानव दिवसों का रोजगार उपलब्ध करवाया गया है। इस दौरान 2 लाख 44 हजार ग्रामीण परिवारों को 100 दिवस का रोजगार दिया गया है। देश के अन्य राज्य राजस्थान, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और बिहार राशि खर्च करने के मामले में मध्यप्रदेश से पीछे रहे हैं। मनरेगा में देश भर का बजट 40 हजार करोड़ रुपए रहा है। मध्यप्रदेश ने अपने हिस्से का बजट समयानुसार खर्च कर यह साबित किया है कि वह राष्ट्रीय योजनाओं के क्रियान्वयन में भी राज्यों में शीर्ष पर है।
प्रदेश में मनरेगा के सुचारु क्रियान्वयन के लिये कई उल्लेखनीय प्रयास हुए हैं। शिकायत निवारण नियम तैयार किए गए हैं और सामाजिक अंकेक्षण पर व्यापक जोर दिया जा रहा है। निर्माण कार्यों की गुणवत्ता और समयावधि में निर्माण पूरे करने के मकÞसद से 1291 संविदा उप यंत्रियों की भर्ती की कार्रवाई अंतिम चरण में है। मनरेगा में प्रत्येक ग्राम-पंचायत में ग्राम रोजगार सहायकों की नियुक्ति ग्राम-पंचायतों द्वारा करने का निर्णय लिया गया है। इन ग्राम रोजगार सहायकों को लैपटॉप तथा कम्प्यूटर भी उपलब्ध करवाए जा रहे हैं। इस व्यवस्था से मनरेगा के कार्यों के नियंत्रण तथा बजट व्यवस्था को सुचारु बनाने में आसानी होगी।
मनरेगा के तहत अब तक बुनियादी विकास कार्यों और ग्रामीणों की बेहतरी के लिए सबसे अच्छी योजना रही है। मध्यपदेश में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के जरिये शुरुआत से अब तक विकास कार्यों और ग्रामीणों की बेहतरी के लिए लगभग 18 हजार करोड़ राशि खर्च की जा चुकी है। इससे 9 लाख 78 हजार से अधिक कार्य हुए हैं। लेकिन मनरेगा में भी धन के दुरुपयोग के मामले आए हैं। प्रदेश सरकार ने भ्रष्टाचार के मामलों को सख्ती से रोका भी है। यही कारण है कि मनरेगा के क्रियान्वयन में लापरवाही और गड़बड़ी के मामलों में प्रदेश में अब तक 2,143 शासकीय कर्मचारियों-अधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाई की गई है। इसके बावजूद, योजना के लाभों को और अधिक सटीक तरीके से हितग्राहियों तक पहुंचाने की आवश्यकता है। किसी भी बड़ी योजना में उत्कृष्ट परिणामों के लिए निरीक्षण एवं अवलोकन की निरंतरता बनी रहनी चाहिए।

सच के सामने चिदंबरम


मामला खत्म करने के लिए दायर पी चिदंबरम की याचिका को निचली अदालत ने 4 अगस्त 2011 को खारिज कर दिया था, अब हाईकोर्ट ने भी केस चलते रहने का फैसला दिया है।


पी चिदम्बरम की दिक्कतें कम या अधिक होने से इस केस का कोई वास्ता नहीं है। जैसा कि मीडिया में कहा जा रहा है कि यह सरकार और चिदम्बरम के लिए बड़ा झटका है। क्यों है यह झटका? जो सच रहा है इस केस में अदालत उसके लिए ही तो सामने लाने की कोशिश कर रही है। वास्ता सरकार को या गृहमंत्री को झटके का नहीं है, इसका वास्ता सच के सामने आने का है। चिंदबरम ने चुनावी परिणामो ंको कैसे प्रभावित किया था और यदि यह सच साबित होता है तो फिर चिदम्बरम सजा भुगतेंगे। यह न झटका है और न कोई अनोखी बात। अपराध सिद्ध होने पर आप अपराध की सजा हासिल करेंगे। इस मामले में चिदम्बरम की याचिका पर अदालत का यह फैसला मायने रखता है। मद्रास हाई कोर्ट की मदुरै बेंच ने गृहमंत्री पी. चिदंबरम के निर्वाचन विवाद में उनके खिलाफ केस जारी रखने का आदेश दिया है। कोर्ट ने कहा कि चिदंबरम के खिलाफ इस मामले में पर्याप्त सबूत हैं। चिदंबरम ने दलील दी थी कि कन्नपन की याचिका में कई खामियां हैं, लिहाजा इसे खारिज किया जाए। मामला 2009 के शिवगंगा लोकसभा चुनावों में मतगणना के दौरान चिदंबरम के विरोधी प्रत्यासी राजा कन्नपन अपने नजदीकी उम्मीदवार चिदंबरम पर बढ़त बनाए हुए थे। लेकिन आखिर में कन्नपन 3,354 वोटों से हार गए थे।  कन्नपन ने 25 जून 2009 को चिदंबरम की जीत को मद्रास हाईकोर्ट में चुनौती दी।  कन्नपन ने आरोप लगया कि चुनाव में वह जीते थे, लेकिन डाटा एंट्री आॅपरेटर ने गड़बड़ी कर उनको मिले वोट चिदंबरम के खाते में डाल दिए थे। सवाल ये उठता है कि ये आरोप सही हो जाते हैं तो चिदंबरम के राजनीतिक व्यक्त्वि का कितना हास होगा? देश के लोकतांत्रिक राजनीतिक माहौल को कितना आघात लगेगा? चिदंबरम जब एयरसेल मैक्सिस डील पर उठे विवाद में भावनात्मक अपील करते हैं कि कोई चाहे तो मेरे सीने में खंजर मार दे लेकिन मेरी ईमानदारी पर शक न करे। तो यह उनकी प्रतिबद्ध   ईमानदारी का सबब बन जाता है, लेकिन अदालत के फैसले के बाद उनकी करनी, नीति और नीयत के साथ-साथ उनकी संसद सदस्यता भी सवालों के घेरे में आ  रही है।
चिदंबरम का यह मामला यूपीए सरकार की प्रतिष्ठा का मामला भी बनता जा रहा है। चिदंबरम सरकार में गृहमंत्री हैं और निश्चय ही विपक्ष इस मामले को सरकार की प्रतिष्ठा से जोड़ेगा। ऐसा लगता है कि सरकार में सख्त फैसले लेने और उन पर अमल करने की नैतिक साहस की भारी कमी है। जो चल रहा है चलने दो की स्थिति दिखाई देती है। प्रधानमंत्री के ईमानदार होने के बाद भी, उन्हें अपने फैसलों के लिए जिम्मेदार होना ही होगा। समय पर फैसले न लेना उतना ही घातक है जितना कि फैसले ही न लेना। सरकार इस स्थिति  में कोई अंतर नहीं कर पा रही है। ऐसा लगता है कि कार्यपालिका ने देश में सब कुछ अदालतों के भरोसे छोड़ दिया है। आगे जो भी होगा सबूतों के आधार पर अदालत के फैसले से सामने आएगा। फिलहाल अदालत के फैसले ने चिदम्बरम को शक के घेरे से बाहर नहीं किया है।

जोशी मोदी और भाजपा


भारतीय जनता पार्टी में कमजोर केंद्रीय नेतृत्व का अभाव झलकने लगा है। मोदी और जोशी मामला हदें पार कर चुका है और यह पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र का गला घोटने जैसा है।


 शुक्रवार को घटनाक्रम बहुत तेजी से घटा। भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय  कार्यकारिणी से संजय जोशी को इस्तीफा देने के लिए मजबूर कर चुके मोदी ने उन्हें बीजेपी छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया।  पार्टी के अनुसार संजय जोशी ने पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी को चिट्ठी लिखकर पार्टी के सभी दायित्वों से मुक्त करने का आग्रह किया था, जिसे पार्टी ने स्वीकार कर लिया  है। इसके कुछ ही देर बाद मीडिया में पार्टी की ओर से आधिकारिक बयान भी जारी कर दिया गया।
संजय जोशी ने नरेंद्र मोदी की वजह से पार्टी छोड़ने का फैसला किया। मोदी ने भी पार्टी छोड़ने की धमकी दी थी।  नितिन गडकरी मामले को राष्ट्रीय स्तर की कुशलता से सुलझा नहीं पाए। उन्होंने किसी बड़ी पार्टी के केंद्रीय अधिकारी होने के नाते अनुशासन को भी नहीं बनाए रख पा रहे हैं। ऐसा लगता है कि भारतीय जनता पार्टी में भीतरी तानाशाही का जन्म गुजरात से हो गया है। हालांकि जोशी ने कहा कि वह नहीं चाहते कि पार्टी में उनकी वजह से कोई समस्या पैदा हो। लेकिन समस्या तो अब शुरु हुई है।  भाजपा में मोदी युग उसके राजनीतिक और वैचारिक विघटन के साथ अपनी शुरुआत कर चुका है।
जोशी और मोदी की ये दुश्मनी बीस साल पुरानी है। मोदी के आने से पहले केशुभाई के साथ उस समय चुनावों में संजय जोशी ही हारे थे। संजय जोशी की  पार्टी में वैचारिक और संघ कार्यकर्ताओं में तो पकड़ है लेकि  जनता का साथ उन्हें नहीं मिलता रहा है। केशुभाई, वाघेला, सुरेश महेता, आडवाणी, बाजपेयी, सुषमा, जेटली, वसुंधरा, जेठमलानी सब ने संजय जोशी को गुजरात में साथ दिया था तबभी और वह चुनाव भाजपा हार गई थी। जब मोदी ने कमान संभाली तो भाजपा चुनाव जीती थी।  उत्तर प्रदेश 2012 के चुनावों में मोदी को कमान न दे कर फिर संजय जोशी को कमान दी और भाजपा फिर हारी।  यही कारण है कि संजय को उनकी मांद संघ में ही पहुंचा दिया गया है।   जोशी के साथ मोदी ने हर लड़ाई में जीत हासिल कर ली है। लेकिन मोदी जिस तरह अपने राजनीतिक अभियान में आगे बढ़ रहे हैं क्या वे यह भी देख रहे हैं कि देश की जनता उनको कैसे देख रही है।
आखिर पार्टी के अंदर का लोकतंत्र खत्म किया जा सकता है तो देश के लोकतंत्र को भी मोदी खतरनाक हो सकते हैं? इसका सबूत है। बिहार के उपमुख्यमंत्री और बीजेपी नेता सुशील मोदी ने इशारों-इशारों में नरेंद्र मोदी पर हमला किया है। सुशील मोदी ने कहा कि कोई भी नेता पार्टी से बड़ा नहीं हो सकता। यह भी कहा कि जिस तरह से संजय जोशी को कार्यकारिणी से इस्तीफा दिलवाया गया वह ठीक नहीं है। सुशील मोदी ने कहा कि बीजेपी एक लोकतांत्रिक पार्टी है और ऐसे में किसी को ये कोशिश नहीं करनी चाहिए कि वह अपनी बात पार्टी पर थोप दे।  पार्टी के लिए जोशी की इस ‘कुर्बानी’ से साफ हो गया है कि से बीजेपी का बवाल थमने के बजाय और बढ़ेगा।
                                                                                                             Ravindra swapnil prajapti


सोमवार, जून 04, 2012

बंद के बहाने से


बंद विरोध प्रदर्शन का विपक्षी नजरिया है। लेकिन जब यह राजनीतिक हंगामा करके झंडा फहराने तक सीमित हो जाता है तो इसके राजनीतिक असर भी बहुत कम हो जाते हैं।



पेट्रोल की कीमतों में हुए इजाफे के खिलाफ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) और वामदलों की ओर से आयोजित बंद को जनता का समर्थन मिला। बंद की इस पूरी प्रक्रिया में पेट्रोल की बढ़ती कीमतें और महंगाई के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार माना जा रहा है। पेट्रोल-डीजल की कीमतें महंगाई का आधार विकसित करती हैं। ट्रांसपोर्टेशन से जुड़ा होेने के कारण पेट्रोलियम पर मामूली सी बढ़ोतरी व्यापारियों द्वारा कीमतें बढ़ा कर मुनाफा वसूलने का जरिया बन जाती हैं।  निम्न मध्यवर्ग जिसके हाथ में न अपनी मेहनत का मूल्य बढ़ाने की क्षमता है और वेतन। इस महंगाई से त्रस्त है। लोक कल्णकारी राज्य की परिकल्पना के बीच देश की 60 प्रतिशत कामकाजी जनता  सुप्त आक्रोश से भरती जा रही है। सरकारें अपनी खुफिया एजेंसियों के भरोसे जनमानस की विचारों को टटोलती जरूर रहती हैं लेकिन जनता की वास्तविक हकीकत तो उसके बीच रह कर  उससे बात करने से ही पता चलेगी। सरकार में बैठे नेता कहते हैं कि पेट्रोल की कीमतें अन्तरराष्ट्रीय बाजÞार के  हिसाब से निर्धारित होंगीं। लेकिन जब कच्चे तेल की कीमत 125  डॅलर प्रति बैरल से घटकर 108 डालर हो गर्इं तो पेट्रोल की कीमत बढ़ाने का क्या मतलब है?
 पिछले सात वर्षों में वित्तीय संकटों के दौरान वित्तमंत्रियों के आश्वासन भी सामान्य जैसे लगने लगे हैं। भयावह आर्थिक परिस्थितियों के बावजूद किसी पक्ष से कोई समाधान नहीं मिलता है। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है की जुआघरों की तजर्Þ पर चल रही भारतीय अर्थव्यवस्था के विद्वान स्थितियों के विवेचन और सुधार में नाकाम साबित हुए हैं। जिनमें हमारे देश के प्रधानमंत्री भी हैं। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में पूंजीवाद के नियंत्रण के गहन सिद्धांतों की समीक्षा करें तो अमेरिकी नीति निर्माताओं ने जो मानक जनहितों की रक्षा के लिए तय किए थे, उनका सबसे ज्यादा दुरुपयोग पूंजीवादियों ने किया है। मुक्त बाजÞार व्यवस्था में सरकार के राजनीतिक नियंत्रण से बाहर विशाल औद्योगिक घराने विकसित हो गए। इसके नतीजा बाजÞार का मूल्य नियंत्रण  औद्योगिक समूहों के हाथों में चला गया। आज हमारी सरकारें विकास के नाम पर इसी रास्ते पर चली जा रही हैं।
 जनता को क्रूर होती महंगाई से बचाने का एक तरीका यह है कि आर्थिक नीतियों और उपभोक्ता की सुरक्षा के लिए उत्पादन और वितरण के काम पर सामाजिक नियंत्रण होना बहुत जÞरूरी है। पूंजी के साम्राज्य को निजी घरानों के लाभ कमाने की प्राथमिकता वाले तंत्र से बाहर लाना पड़ेगा। कभी देश में यह व्यवस्था थी। नेहरू ने जिस मिश्रित अर्थव्यवस्था की बात की थी, उसमें इसको जोड़ा गया था। लेकिन  90 के दशक से उसको तबाह करने का काम शुरू किया और आज वह ख़त्म हो चुकी है। अब महत्वपूर्ण क्षेत्रों में निजी कंपनियों का दबदबा है और उनके सामने सरकार लाचार है। सरकार की यह लाचारी अगर बार-बार जनता के सामने आई तो जनता की नजर से उसका औचित्य खत्म हो जाएगा। अभी समय है कि सरकारें जनता के अर्थशास्त्र की उपेक्षा करना बंद करना सीख लें।

अन्ना-बाबा का तप



अन्ना का आंदोलन एक पवित्र जिद है। इससे देश के लोग प्रभावित होते रहे हैं। बाबा रामदेव के शामिल होने के बाद भी आंदोलन के पास दीर्घकालीन वैचारिक आधार का अभाव बना हुआ है।



अन्ना और बाबा रामदेव नई सीखों शिक्षाओं के साथ फिर राजनीतिक तपिश बढ़ाने दिल्ली में हैं। एक दिन के इस अनशन पर कुछ नई चीजें भी देखने मिली हैं। पहली ये कि मंच से किसी नेता या भ्रष्ट नेता का नाम नहीं लिया जाएगा हालांकि अरविंद केजरीवाल ने नेताओं के नाम लिए। नाम नहीं लेने वाला सुधार आंदोलन को व्यापक आधार देने के लिए किया गया है। इससे यह लगता है कि बाबा और अन्ना की जुगलबंदी में आंदोलन करने वालों ने यह  सीख ही लिया है कि किसी नेता का नाम लेने से आंदोलन व्यक्ति केंद्रित हो जाता है और उसका आधार भी सिकुड़ता है।
भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ संसद मार्ग पर एक दिन के अनशन में बाबा रामदेव और अन्ना हजारे ने अपने मतभेदों को झुठलाने की कोशिश की और आंदोलन को सशक्त बनाने-बताने का प्रयास भी किया। इस आंदोलन में अन्य पक्षों को भी मोर्चे के तरह खोला है। बाबा ने एफडीआई को ब्लैक मनी की चाबी बताया और आईपीएल पर भी सवाल उठाए। इससे लगता है कि बाबा आंदोलन को व्यापक सांस्कृतिक परिवर्तन का हिस्सा भी बनाने जा रहे हैं। दूसरी तरफ अन्ना हजारे ने कहा कि बाबा रामदेव के साथ आने से आंदोलन की ताकत बढ़ी है। काफी देर बाद टीम अन्ना सीख सकी है कि बड़े आंदोलन व्यक्तिगत नहीं होते। उनको जहां से सहयोग सहायता मिले वह स्वीकार करना चाहिए। अन्ना के आने से और बाबा के एक मंच होने से एक खास तरह का आंदोलनकारी माहौल बनाने में सफल हो सकते हैं।  इस एकता से सरकार भी दबाव में आ सकती है। मंच पर अरविंद केजरीवाल और बाबा रामदेव में मतभेद सामने आए हैं। बाबा द्वारा नाम न लेने की नसीहत देने पर केजरीवाल मंच से चले गए। यानी आंदोलन में मतभेदों को छुपाया नहीं जा सका है।
बाबा ने जो विचार व्यक्ति किए उनमें पिछली भूलों से सबक लिया दिखाई देता है, जब वे कहते हैं कि आंदोलन किसी पार्टी के खिलाफ नहीं है। आंदोलन हम क्रोध और प्रतिशोध के साथ नहीं बल्कि पूरे होश और बोध के साथ कर रहे हैं। रामदेव ने यह भी कहा कि जो लोग आरोप लगाते हैं कि योगगुरु अर्थव्यवस्था की बात कैसे कर सकता है तो वे कह रहे थे कि योग के साथ अर्थशास्त्र का भी अध्ययन किया है और योग की किताबों के साथ अर्थशास्त्र की किताबें भी लेकर चलता हूं। ये पता नहीं है कि बाबा आधुनिक अर्थशास्त्र पढ़ रहे हैं या प्राचीन।  अन्ना ने कहा कि बाबा रामदेव और उनके साथ आने से ताकत बढ़ी है। अन्ना ने रामदेव का साथ स्वीकार करके आंदोलन को टीम अन्ना की चौकड़ी से बाहर निकाल लिया है। टीम अन्ना तार्किक है लेकिन जनता के करीब नहीं पहुंच पाती। अन्ना और बाबा में भारतीय जनता से संवाद की क्षमता अधिक है। इस सब के बाद भी अभी इस आंदोलन के राजनीतिक आर्थिक वैचारिक आधारों में बहुत कमजोरी दिखाई देती है। यह आंदोलन भ्रष्टचार को तो खत्म करना चाहता है लेकिन उसके अन्य प्रभावों के अध्ययन और विश्लेषण में अभी बहुत पीछे है।


रविवार, जून 03, 2012

रणनीति को खोती हुई पार्टी



 भारतीय जनता पार्टी ताकतवर विपक्षी दल से वंचित और अपनी रणनीति को खोती हुई पार्टी में बदलती जा रही है। हालिया तीन प्रकरणों से उसकी छवि अस्पष्ट और वैचारिक रूप से कमजोर दल की हुई है बल्कि उसके राजनीतिक मुद्दों पर ढुलमुल रवैये से भी जनता में उसके प्रति उपेक्षा -भाव पैदा हो रहा है।  इसके पीछे तार्किक आवधारणाएं मौजूद हैं। भाजपा के तीन प्रकरणों में पहला है उत्तरप्रदेश चुनावों में बाबू सिंह  कुशवाह का भाजपा में स्वागत करना। आडवाणी ने उत्तर प्रदेश चुनाव के दौरान भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रहे बसपा के नेताओं को पार्टी में शामिल करने के गडकरी के फैसले की आलोचना की थी। हाल ही में आडवाणी ने ब्लॉग में लिखा है कि ‘उत्तर प्रदेश विधानसभा के परिणाम, भ्रष्टाचार के आरोप में मायावती द्वारा निकाले गए मंत्रियों का भाजपा में स्वागत किया जाना। इन सब घटनाओं ने भ्रष्टाचार के विरूद्ध पार्टी के अभियान को कुंद किया है। उस समय भी आडवाणी सहित कई वरिष्ठ नेताओं ने इसका विरोध किया था। दूसरा प्रकरण है मोदी का, जिसमें सुनील जोशी को राष्ट्रीय कार्यकारिणी से बाहर बैठाया गया। और तीसरा प्रकरण मध्यप्रदेश के अध्यक्ष प्रभात झा का कमल संदेश का संपादकीय है। उन्होंने नितिन गडकरी और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर अपरोक्ष रूप से हमला बोला है। मुखपत्र में बिना किसी का नाम लिए कहा गया है कि पार्टी के कुछ नेताओं को आगे बढ़ने की जल्दबाजी है। पार्टी के बुनायदी ढांचे को नजर अंदाज कर आगे बढ़ने की ललक गलत है। जैसे-जैसे एक नेता प्रगति करता है उसकी सोच और समझ में भी प्रगति होनी चाहिए।
भाजपा का अंदरुन अंधड़ यहीं खत्म होने का नाम नहीं लेता। इसमें जेठमलानी भी इस तेज बहती हवा में अपना मुक्का तानते हैं। बीजेपी सांसद राम जेठमलानी ने पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी को 23 मई को कड़ा पत्र लिखा है। उन्होंने बीजेपी नेताओं पर आरोप लगाया है कि वे संप्रग सरकार के दूसरे शासनकाल में बड़े पैमाने पर व्याप्त भ्रष्टाचार पर चुप्पी साध आपसी मतभेद में ही उलझे हैं। देश भ्रष्टाचार के खिलाफ उत्तेजनापूर्ण कार्रवाई चाहता है।  सरकार प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रपति पद के लिए मैदान में उतारने की योजना बना रही है। बीजेपी इस मुद्दे पर चुप है, जिससे जनता समझेगी कि उसके पास भी कुछ छुपाने लायक है। जेठमलानी ने जो लिखा है वह जनता की अपेक्षाओं का सीधा वर्णन है। वे और भी बातें लिखते हैं जैसे कि देश समझ चुका है कि गरीबी और अभावग्रस्तता चारों ओर फैले भ्रष्टाचार और मुख्य रूप से हमारे वर्तमान शासकों द्वारा राष्ट्रीय संपत्ति की बड़े पैमाने पर लूट के कारण है। कमोबेश पूरे देश का मानना है कि मौजूदा केंद्रीय मंत्रिमंडल के आधे सदस्यों को जेल में होना चाहिए। जबकि बीजेपी के नेता एक दूसरे की टांग खींचने में व्यस्त हैं। सच यह है कि भारतीय जनता पार्टी अब अपने कमजोर पक्षों के ओवर फ्लो को झेल रही है। आने वाले वक्त में उसे देश का सशक्त विपक्षी गठबंधन तैयार करना था। अब भी समय है भाजपा गलतियों से सीखे और पुर्नस्थापित होकर मैदान में आए।
ravindra swapnil prajapati

गुरुवार, मई 31, 2012

डसता खनन माफिया

 

खनन कारोबार में आपराधिक तत्व इतना अधिक मनोबल पा चुके हैं कि वे सीधे कार्रवाई कर रहे अधिकारियों पर वाहन चढ़ा रहे हैं। यह प्रशासनिक राजनीतिक अदूरदर्शिता का परिणाम है।

मु रैना में चंबल नदी से अवैध तरीके से रेत भरकर धौलपुर की ओर ले जा रहे ट्रक को राजस्थान पुलिस के हवलदार और सिपाही ने रोकने का प्रयास किया तो ट्रक चालक ने दोनों को कुचल दिया। यह खबर सिर्फ दुर्घटना की सामान्य खबर नहीं है। यह हमारे प्रशासन, राजनीतिक नाकारापन और आपराधिक लोगों के हाथों में संसाधनों की लूट की वीभत्स और खूनी लंबी कहानी का परिणाम है। यह कहानी खानों, अवैध जल जंगल और जमीन  के दोहन से लिखी जा रही है। इस घटना से पहले और भी इस तरह के हमले हो चुके हैं। सामान्य से इंसान के रूप में ट्रक या ट्रैक्टर चलाता ड्रायवर इस तरह के हमलों को अंजाम नहीं दे सकता। जब तक कि इन मातहत कर्मचारियों को यह न कहा जाता होगा कि कुछ भी हो जाए गाड़ी पकड़ना नहीं चाहिए। यह ताकत राजनीतिक प्रशासनिक कमजोरी की सड़ांध में पैदा होती है। यहां लोभ, लालच, हिंसा और अपराध को कैक्टस की तरह पाला पोसा जाता है। हवलदार को कुचलने की घटना लाचार होती प्रशासनिक राजनीतिक सामाजिक हैसियत का दीवाला निकल जाने का उदाहरण है।
यह अकेली घटना होती कि खनन माफिया ने प्रशासन के जिम्मदार लोगों पर ट्रक चढ़ाने की तो शायद यह राज्य के संगठित गिरोहों द्वारा लूट पर ध्यान न जाता लेकिन इससे पहले लगातार इस तरह की घटनाएं सामने आती रही हैं।  7 मार्च को शिवपुरी के कोलारस में पत्थर माफिया ने एसडीओ के वाहन पर ट्रैक्टर चढ़ाने की कोशिश की। दतिया में इसी दिन कंजोली रेत खदान पर वर्चस्व के लिए दो पक्षों में फायरिंग हुई। 8 मार्च को मुरैना  जिले में कार्रवाई करने पहुंचे युवा आईपीएस अफसर नरेंद्र कुमार को ट्रैक्टर से कुचलकर मार डाला गया। 18 अप्रैल को देवास के कन्नौद में अवैध उत्खनन को रोकने गर्इं तहसीलदार मीना पाल पर खनन माफिया ने जेसीबी चढ़ाने की कोशिश की। तहसीलदार ने नाले में कूदकर अपनी जान बचाई।
अवैध खनन माफिया के बुलंद हौसलों की ये खबरें प्रशासनिक मशीनरी और समाज में व्याप्त अवैधानिक तरीकों पर यकीन करने की प्रवृत्ति है। जब लोग यह सोचने लगते हैं कि अवैध कारोबार ही उनका धंधा है तो यह खतरनाक संकेत है। खतरनाक इस मायने में कि उन्हें अपने आसपास फैली कानूनी और प्रशासनिक  व्यवस्थाओं पर विश्वास नहीं होता है। वे यह महसूस करते हैं कि प्रशासन कुछ नहीं करेगा, तभी अवैध करोबार की यह प्रवृत्ति बढ़ती है। प्रशासनिक व्यवस्था राजनीतिक संरक्षण के आगे असहाय हो जाती है। दूसरा पक्ष ये है कि अपराध की अपेक्षा में अवैध खनन से होने वाला आर्थिक लाभ इस माफिया को अधिक दिखता है।  कोई भी व्यक्ति या समूह तभी अवैध कारोबार की तरफ तभी जाता है जब वह उससे बचने के तरीके पहले इजाद कर लेता है। ये घटनाएं इस बात का संकेत हैं कि अवैध खनन के मामले में हमारा कानून लचर और लाचार है।  राजनीतिक नेतृत्व को सोचना होगा कि आखिर अधिकारी कब तक अपनी जान कुर्बान करते रहेंगे?

सोमवार, मई 28, 2012

केंद्र,भ्रष्टाचार और उसके पंद्रह मंत्री

 

टीम अन्ना के आरोपों से सरकार ही हैरान नहीं है, भविष्य के नेता भी चिंतित नजर आते हैं। इसका कारण है कि जनता अब जिम्मेदारों से कुछ सवाल करने लगी है।

टी  म अन्ना का भ्रष्टाचार पर हल्ला बोलो अभियान अपना दायरा नहीं बढ़ा रहा है। शनिवार को उसने प्रेस कांफ्रेंस में यह इरादा जाहिर कर दिया। टीम अन्ना ने सबूतों के साथ टीम अन्ना ने प्रधानमंत्री समेत 15 केंद्रीय मंत्रियों पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए जांच की मांग की है। इसी के साथ टीम अन्ना ने जांच नहीं होने पर 25 जुलाई से आंदोलन का ऐलान भी किया है। यह वैसी ही बात है कि भ्रष्टाचार की वेदी पर टीम अन्ना यूपीए सरकार से पंद्रह मंत्रियों की कुर्बानी मांग रही है। अब कौन सरकार अपने ही मंत्रीमंडल पर सामूहिक अभियोग चला सकती है? टीम अन्ना की मांगें जायज या नाजायज हैं इससे अधिक महत्वपूर्ण ये है कि उन्होंने एक सरकार के सामने धर्म संकट खड़ा कर दिया। यह ऐसा धर्म संकट है कि इसमें जन सामान्य भी उलझ गया है। कोई एक या दो मंत्री की बात नहीं, प्रधानमंत्री समेत यहां पूरे पंद्रह मंत्री हैं। टीम जो आरोप लगा रही है वे कमीशन, लाभ कमाने या लाभ पहुंचाने के हैं।  येआरोप अलग अलग समय और उनके कार्यकालों के हैं।
टीम के आरोपों पर तिलमिलाए विदेश मंत्री एसएम कृष्णा ने टीम अन्ना के सदस्य अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण के खिलाफ मानहानि का केस दायर करने की बात कही है। कृष्णा की अरविंद केजरीवाल को लिखी चिट्ठी में कहा कि उन पर लगाए गए आरोप गलत और बेबुनियाद हैं और जो भी तथ्य उनके बारे में बताए गए हैं वो गलत हैं। यह अलग बात है कि ये आरोप कितने सही और कितने गलत निकलेंगे लेकिन जब टीम अन्ना जांच के लिए सरकार को छह जजों के नाम भी सुझाव देती है और कहती है कि जांच का काम इन छह में से किन्हीं तीन जजों को सौंपा जा सकता है। सरकार उनके द्वारा बताए जजों से जांच करवाए।  ऐसे में तब लगता है कि आखिर टीम अन्ना आंदोलन कर रही है या वैचारिक आंदोलन के नाम पर माइक्रो तानाशाही को लागू कर रही है?
 इस समय अरविंद केजरीवाल ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक पत्र भेजा है, जिसमें 15 मंत्रियों के खिलाफ आरोपों की  जानकारियां हैं।  इस पत्र को  ‘चार्जशीट’ नाम दिया गया है।  वास्तव में देखा जाए तो  यह सूक्ष्म स्तर पर संबैधानिक व्यवस्थाओं का मजाक है। टीम अन्ना छह जजों को नामित क्यों कर रही है? देश और सरकार द्वारा नामित जजों पर यकीन नहीं? या केवल छह जज ही भारत में हैं जो इन मंत्रियों की जांच कर सकते हैं? यह अविश्वास का बीजारोपण है।  इससे देश में एक दूसरे तरह की अराजकता का माहौल पैदा हो सकता है। टीम अन्ना जनजागरण का काम कर रही है तो ऐसा भी लगने लगता है कि वह राजनीतिक वैचारिक असंतुलन का शिकार भी है।

रविवार, मई 13, 2012

सुशासन का सम्मान

  किसी भी संस्था और संस्थान के लिए पुरस्कार उसके कामों को रेखांकित करता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जब कोई पुरस्कार या सम्मान दिया जाता है तो इसका तात्पर्य है कि यह सम्मान प्रदेश में हो रहे नवाचारों को रेखांकित किया गया है। सरकार को जब पुरस्कार मिलता है तो वह एक नई ऊर्जा ग्रहण करती है। मध्यप्रदेश के लिए यह ऊर्जा संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रदान की गई है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा मध्यप्रदेश सरकार के लोकसेवा गारंटी अधिनियम को इंपू्रविंग द डिलीवरी आफ पब्लिक सर्विसेज श्रेणी में दूसरा पुरस्कार प्रदान किया है।
मध्यप्रदेश को यह पुरस्कार जून में आयोजित सम्मान समारोह में प्रदान किया जाएगा।  वर्ष 2012 इस संदर्भ में भी महत्वपूर्ण है कि ये संयुक्त राष्ट्र लोकसेवा दिवस और पुरस्कारों की दसवी वर्षगांठ है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 23 जून को संयुक्त राष्ट्र लोकसेवा दिवस घोषित किया है। इसका उद्देश्य स्थानीय राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लोकसेवा में मूल्यों और गुणात्मकता को प्रोत्साहित करना है। उल्लेखनीय है कि 73 देशों के 471 आवेदनों में से इस पुरस्कार के लिए मध्य प्रदेश को भी चुना गया। मध्यप्रदेश का चुना जाना इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि उसे चुन लिया गया है। यह इस बात का प्रतीक भी है कि सरकार पूरी दूरदर्शिता और लोक सेवा की भावना से काम कर रही है। सरकार में बैठे जनप्रतिनिधि और प्रशासनिक अधिकारी कहीं न कहीं अपनी जिम्मेदारियों को विस्तार पूर्वक देखते हैं। वे यह जानते हैं कि आने वाले वक्त के लिए वे क्या नया कर सकते हैं।
इस सम्मान के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान बधाई के हकदार हैं।  मध्य प्रदेश पहला राज्य है जिसने सिटीजन चार्टर को कानून बनाने का काम किया है। लोकसेवा गारंटी अधिनियम जनता के लिए अधिकतम सुविधा और प्रशासनिक सेवा की सुनिश्चित्ता को तय करता है। लोकसेवा गारंटी अधिनियम के तहत 52 विभागों को शामिल किया गया है। इस अधिनियम के तहत एक निर्धारित समय सीमा में सेवाएं उपलब्ध कराना होता है, तथा ऐसा नहीं किए जाने पर संबंधित कर्मचारी-अधिकारी से जुर्माना  लेकर संबंधित व्यक्ति को उपलब्ध कराया जाता है। यह पुरस्कार इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता कि  मध्यप्रदेश में लोक सेवा गारंटी अधिनियम के तहत एक करोड़ 11 लाख आवेदन प्राप्त हुए थे जिसमें से एक करोड़ दस लाख आवेदनों का निराकरण कर दिया गया है। उन्होंने बताया कि इनमें से 16 लाख आवेदन आनलाइन प्राप्त हुए थे।  समय सीमा में सेवाएं उपलब्ध नहीं कराए जाने पर 49 अधिकारियों के वेतन से जुर्माने की राशि काटकर 113 व्यक्तियों को उपलब्ध कराई जा चुकी है। यह कानून प्रदेश के सुशासन की संभावनाओं के विस्तार का प्रतीक है। 

शनिवार, अप्रैल 07, 2012

दुनिया की सबसे बड़ी किताब

पंकज घिल्डियाल
जब हम बच्चे थे, हमारे मिडल स्कूल के हेडमास्टर जी हमसे एक सवाल अक्सर पूछा करते थे- अच्छा बच्चो, बताओ दुनिया की सबसे बड़ी किताब कौन सी है। यह उनका प्रिय सवाल था और इसे वे हर क्लास के बच्चों से पूछते थे। हमें भी इस सवाल में बहुत मजा आता था। हमारी किताबें ज्यादा से ज्यादा सौ-सवा सौ पेज की होती थीं। हेडमास्टर जी जब अपने मोटे शीशे वाले चश्मे के पीछे आंखें बड़ी-बड़ी करके बताते थे कि वह एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका है, तो उसकी मोटाई और वजन के बारे में हम तरह-तरह के अनुमान लगाते थे। अब से दो दशक पहले तक इंटरनेट इस तरह घर-घर में उपलब्ध नहीं था। तब जानकारी का सबसे विश्वसनीय और स्रोत एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका को ही माना जाता था।

पुस्तक प्रेमियों के लिए यह सचमुच मायूस करने वाली खबर है कि कई वाल्यूम वाली गहरे भूरे रंग की यह किताब अब प्रकाशित नहीं होगी। इसे सिर्फ डिजिटल फॉर्मेट में ही देखा जा सकेगा। कई वाल्यूम में छपने वाली एनसाइक्लोपीडिया में ज्ञान-विज्ञान से संबंधित हर उस चीज की जानकारी सार रूप में प्रामाणिक तथ्यों के आधार पर देने का प्रयास किया जाता था, जिसमें मनुष्य की दिलचस्पी हो सकती थी। सबसे पहले इस पुस्तक का प्रकाशन सन् 1768 में स्कॉटलैंड से हुआ। इसकी इतनी प्रतिष्ठा थी कि 1950 व 60 दशक में यह सबसे महंगी किताबों की फेहरिस्त में शामिल थी। किताबों के कद्रदान इसे हर हाल में अपना बनाना चाहते थे। अभी जिस तरह लोग घर और कार की किश्तें चुकाते हैं, ठीक उसी तरह लोग इस किताब को भी लोग किश्त पर खरीदते थे।

1990 में एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका की रेकॉर्ड बिक्री हुई। उस वर्ष अकेले अमेरिका में ही इसकी 1 लाख 20 हजार कॉपियां बिकीं। इसी दौर में इंटरनेट भी धीरे-धीरे अपने पैर पसार रहा था। नतीजा यह हुआ कि इसकी बिक्री घटने लगी। आते-आते हालात यहां तक पहुंच गए कि 2010 में छपी एनसाइक्लोपीडिया की 12000 कॉपियों में से सिर्फ 8000 को ही खरीदार मिल सके। तभी से यह चर्चा शुरू हो गई थी कि इसे आगे छापना शायद संभव न हो। पेपर पर इसका पिछला संस्करण दो साल पहले प्रकाशित किया गया था। इसके कुल 32 खण्डों में 65 हजार से अधिक लेख शामिल हैं। फिलहाल इसकी चार हजार प्रतियां बिकने के लिए शेष हैं।

ब्रिटैनिका ने इस किताब का डिजिटल अवतार 1981 में शुरू किया। इसकी सीडी 1989 में जारी की गई। 1994 वह वर्ष था जब एनसाइक्लोपीडिया इंटरनेट पर उपलब्ध हुई। इसके ऑनलाइन एडिशन के अपने फायदे हैं। कुछ जानकारी तो इसमें मुफ्त मिल जाती है , जबकि सालाना शुल्क चुका कर आप बाकी जानकारियों तक भी पहुंच बना सकते हैं। हर दो साल पर प्रकाशित होने वाले 32 खंडों के प्रिंटेड संस्करण की कीमत करीब 1400 अमेरिकी डॉलर है , लेकिन इसके ऑनलाइन संस्करण के लिए अब प्रति वर्ष केवल 70 अमेरिकी डॉलर चुकाने होंगे। प्रति माह 1.99 से 4.99 अमेरिकी डॉलर तक ऑनलाइन सदस्यता शुल्क देकर भी इसमें मौजूद सूचनाओं का लाभ उठाया जा सकता है। दुनिया के नामी - गिरामी बुद्धिजीवी ब्रिटैनिका के लिए जानकारी प्रदान करते हैं। 100 स्थायी संपादकों के अलावा संबंधित ज्ञान शाखा के विशेषज्ञ यह तय करते हैं कि विभिन्न स्त्रोतों से मिली जानकारी को कैसे पेश किया जाए।

ऐसा नहीं है कि आज अचानक ब्रिटैनिका ने पहली बार खुद को बदला है। 1768 से 2012 के बीच 244 वर्षों में इसने बहुत से बदलाव देखे हैं। बच्चों के लिए 1934 में 12 खंडों में ब्रिटैनिका जूनियर का पहली बार प्रकाशन हुआ , जिसे 1947 में बढ़ाकर 15 खंडों का कर दिया गया। 1963 में इसी का नाम बदल कर ब्रिटैनिका जूनियर एनसाइक्लोपीडिया रख दिया गया। फिलहाल इसका मालिकाना हक स्विस अरबपति ऐक्टर जैकी साफरा के पास है। इसका मुख्यालय शिकागो में है। मजेदार बात यह है कि इतने साल बाद भी लोगों के बीच इसकी विश्वसनीयता में कोई कमी नहीं आई। 1991 से अमेरिका में प्रकाशित होने के बावजूद इसकी वर्तनी ब्रिटिश अंग्रेजी ही है।

वर्चुअल दुनिया में आए दिन तथ्यों की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े होते रहे हैं। क्या हम - आप इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी पर पूरी तरह से भरोसा कर पाते हैं ? शायद नहीं। अक्सर हमें ये फैक्ट भी ठीक उसी तरह बेगाने लगते हैं जैसे नेट पर बनाए गए अजनबी फ्रेंड। आमतौर पर ब्रिटैनिका की सत्यता पर सवाल नहीं उठते। लेकिन पिछले कुछ समय में हुए विवादों ने पुस्तक प्रेमियों को कुछ निराश जरूर किया है। संपादकीय चयन के कारण ब्रिटैनिका की अक्सर आलोचना होती रही है। कहा जाता है कि कुछ बातों को अधिक जगह देने के कारण ये जरूरी मुद्दों को कम तरजीह देते हैं। जैसे इसके 15 वें अंक में बाल साहित्य , मिलिटरी डेकोरेशन और एक प्रसिद्ध फ्रेंच कवि को शामिल करना भूल गए। इसके अलावा ग्रैविटी के न्यूटन सिद्धांत को लेकर भी कुछ विवाद खड़े हुए। ब्रिटैनिका की आलोचना अक्सर इस बात को लेकर भी होती रही है कि उसके कुछेक एडिशन समय के अनुसार अपडेट नहीं हैं। एक आयरिश न्यूजपेपर ' द इवनिंग हैरल्ड ' ने फरवरी 2010 में ब्रिटैनिका पर देश के इतिहास से जुड़े कुछ अशुद्ध तथ्य शामिल करने का आरोप लगाया था।

ऑनलाइन व्यवस्था के जरिये सूचनाएं मुफ्त या कम दरों पर उपलब्ध हो जाती हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि सूचना का यह माध्यम अधिक सुविधाजनक है। आज तो स्मार्ट फोन भी जानकारी परोस रहे हैं। सटीक जानकारियों के लिए प्रसिद्ध ब्रिटैनिका का ऑनलाइन संस्करण कितनी लोकप्रियता पाता है , यह तो वक्त ही बताएगा , मगर इंटरनेट के जानकर मानते हैं कि यह माध्यम ब्रैंड को कमजोर करता है। ब्रिटैनिका के रेकॉर्ड कहते हैं कि दुनिया भर के करीब 10 लाख लोग उसकी ऑनलाइन सर्विस का फायदा उठा रहे हैं। ब्रिटैनिका के सामने सबसे बड़ी चुनौती विकीपीडिया है। विकीपीडिया जहां अपने यूजर्स को जानकारी अपलोड और एडिट करने के कई विकल्प देता है , वहीं ब्रिटैनिका बरसों पुरानी साख के दम पर ऐसे ही कुछ विकल्प अप्रूवल सिस्टम के साथ दे सकता है। विकीपीडिया का बहुत सा काम तो उसके यूजर्स ही करते है , जबकि ब्रिटैनिका के साथ एक पूरी टीम काम करती है। 

हिंदुस्तान समाचार से साभार 

रविवार, अप्रैल 01, 2012

अमृता प्रीतम का एक प्रसंग

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अपने लेखन के शुरुआती दिनों से जुड़ा एक प्रसंग अमृता प्रीतम ने एक पत्रिका के स्तम्भ में बताया:-
“वो दिन आज भी मेरी आँखों के सामने आ जाता है… और मुझे दिखती है मेरे पिता के माथे पर चढ़ी हुई त्यौरी. मैं तो बस एक बच्ची ही थी जब मेरी पहली किताब 1936 में छपी थी. उस किताब को बेहद पसंद करते हुए मेरी हौसलाफजाई के लिए महाराजा कपूरथला ने मुझे दो सौ रूपये का मनीआर्डर किया था. इसके चंद दिनों बाद नाभा की महारानी ने भी मेरी किताब के लिए उपहारस्वरूप डाक से मुझे एक साड़ी भेजी.
कुछ दिनों बाद डाकिये ने एक बार फिर हमारे घर का रुख किया और दरवाज़ा खटखटाया. दस्तक सुनते ही मुझे लगा कि फिर से मेरे नाम का मनीआर्डर या पार्सल आया है. मैं जोर से कहते हुए दरवाजे की ओर भागी – “आज फिर एक और ईनाम आ गया!”
इतना सुनते ही पिताजी का चेहरा तमतमा गया और उनके माथे पर चढी वह त्यौरी मुझे आज भी याद है.
मैं वाकई एक बच्ची ही थी उन दिनों और यह नहीं जानती थी कि पिताजी मेरे अन्दर कुछ अलग तरह की शख्सियत देखना चाहते थे. उस दिन तो मुझे बस इतना लगा कि इस तरह के अल्फाज़ नहीं निकालने चाहिए. बहुत बाद में ही मैं यह समझ पाई कि लिखने के एवज़ में रुपया या ईनाम पाने की चाह दरअसल लेखक को छोटा बना देती है.”


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Ravindra Swapnil Prajapati

शुक्रवार, मार्च 30, 2012

  धीमे जहर पर प्रतिबंध ऐतिहासिक फैसला



तंबाखू से जुड़े उत्पादों की सहज उपलब्धि से समाज में प्रतिरोध कम हो जाता है। प्रतिबंध के बाद इस पर नियंत्रण आसान होगा।


मध्यप्रदेश सरकार ने 1 अप्रैल से गुटखा पाउच बंद करने का एतिहासिक फैसला लिया है। प्रदेश में होने वाले कुल मुंह के कैंसर में 91 प्रतिशत  कैंसर तंबाखू के सेवन से होते हैं। यह फैसला स्वागत योग्य है और सरकार के वास्तविक कर्तव्य का अनुपालन भी है। किसी भी लोककल्याणकारी राज्य के लिए अपने नागरिकों के स्वास्थ्य को प्राथमिकता देना ही चाहिए। मध्यप्रदेश ने यह कदम उठाकर बड़ी पहल की है।  अब डर इस बात का है कि गुटखा खाने वाले और बेचने वाले इस प्रतिबंध को प्रभावहीन बनाने में पूरा जोर लगाएंगे। वे नहीं चाहेंगे कि करोड़ों रूपए की आया देने वाला यह उद्योग बंद हो जाए। हो सकता है कि कुछ दिनों तक गुटखा पाउच चोरी छिपे या कालाबाजारी के तहत बिकें लेकिन इसके प्रभाव दूरगामी होंगे। फिलहाल हालत ये है कि 7 साल के कई बच्चों को गुटखे पाउच खाते देखा जा सकता है। जब कोई चीज बच्चों तक पहुंचती है तो उसके असर बेहद विनाशकारी ही होते हैं। आने वाले समय में गुटखा चबाने की प्रवृत्ति इसकी सहज उपलब्धता के कारण बेहद चिंता जनक तरीके से फैल रही थी। तंबाखू से जुड़े उत्पादों की सहज उपलब्धि से समाज में  प्रतिरोध कम हो जाता है। प्रतिबंध के बाद इस पर नियंत्रण आसान होगा। समाज में भी सजगता बढ़ेगी। मध्यप्रदेश सरकार इस कठोर निर्णय लेने के लिए बधाई की पात्र है।


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गरीबी की धुंध में धनुष

भारतीय तीरंदाजी में अपनी चमक बिखेरने वाली और देश के लिए कई मेडल जीत चुकीं झारखंड की 21 साल की निशा रानी को गरीबी से तंग आकर अपना धनुष बेचना पड़ा। जमशेदपुर जिले के पथमादा गांव की निशा की कहानी सैंकड़ों खिलाड़ियों की तरह है जो गरीबी की धुंध में खो गए। निशा 2006 में वह ओवरआॅल सिक्किम चैंपियन बनीं। झारखंड में हुई साउथ एशियन चैंपियनशिप में उन्होंने सिल्वर मेडल जीता। 2006 में बैंकाक में हुई ग्रां प्री चैंपियनशिप में ब्रांज मेडल जीतने वालीं निशा भारतीय टीम की मेम्बर रहीं। 2007 में ताइवान में हुई एशियन ग्रां प्री में उन्हें बेस्ट प्लेयर अवॉर्ड से नवाजा गया। भारतीय तीरंदाजी फेडरेशन और इंडियन ओलिंपिक एसोसिएशन उनके बारे में एक बार भी सोचता तो निशा इतना मजबूर नहीं होना पड़ता। एक धनुर्धर को अपना कीमती धनुष बेचना कितना तकलीफदेह हो सकता है इसकी कल्पना की जा सकती है। निशा रानी ने चार लाख रुपए का कमान मणिपुर की खिलाड़ी को 50 हजार रुपए में बेच दिया। ऐसा लगता है कि देश सिर्फ क्रिकेट को ही जानता है। इसमें सरकारों और खेल संगठनों की लापरवाही उजागर होती है। वे खेलों को लोकप्रियता से तौल कर देखते हैं। खेल एक संस्कृति है। जिम्मेदारों को हर खेल और उसके खिलाड़ी को बराबर महत्व देना चाहिए।

रविवार, मार्च 25, 2012

Paintig : Shashank, BHOPAL

 


  तकनीक ने कला को स्पीड दी है
 

 आपने दिल्ली लखनऊ, भोपाल को देखा जिया है। इन तीनों की सांस्कृतिक हवा कैसी क्या है? इस कला त्रिकोण के बारे में क्या कहना चाहेंगे?
इन तीनों में मूल बिंदु ये बनता है कि इन तीनों में संस्कृति का विकास हो रहा है। आठवें दसक वाली स्थितियां अब नहीं रहीं। पहले की तुलना में अब सांस्कृतिक गतिविधियों का विस्तार हुआ है। दिल्ली, भोपाल और लखनऊ-पटना को भी जोड़ लें तो हिंदी भाषी संस्कृति कभी आश्रित नहीं रही। जनपद आरा से हिंदी की अच्छी पत्रिका निकलती है तो विदिशा जैसे छोटे शहर से हिंदी के कई महत्वपूर्ण कवि आए हैं। पेंटिंग और गायक भी छोटी जगहों से आ रहे हैं। भोपाल, दिल्ली में साहित्य, रंगकर्म, संगीत ही नहीं है। ये कलाएं अब कस्बों में भी पनप रही हैं। आप देख सकते हैं अधिकांश कलाकार, साहित्यकार छोटे कस्बों से दिल्ली जा रहे हैं।
इन सभी संस्कृतिकर्मियों पर महानगरीय दबाव नहीं है। न उसका अवसाद है। यह शुभ लक्षण है। कहें कि इसमें मीडिया का योगदान भी है, तब यह और मौजूं हो जाता है। इसलिए आप देखेंगे कि आने वाले कुछ वर्षो में हिंदी भाषी क्षेत्र का चेहरा बदल जाएगा।

*कला और संस्कृति के रूप किस प्रकार बदल रहे हैं? नई तकनीक, शहरी व्यस्तता, जीवन में फुरसत की कमी जैसी स्थितियों के बीच कला कौन से आकार ग्रहण करेगी?
कला संस्कृति के रूप आधुनिक तकनीक के समर्थन के कारण बदल रहे हैं। तकनीक ने इसमें बहुत बदलाव किए हैं। नाटकों में, शास्त्रीय नृत्यों में, संगीत में तकनीक का बहुत इस्तेमाल होने लगा है। अधिकांश अब प्री रिकॉर्डिड किया जाता है। उपकरणों का महत्व बढ़ गया है। लेजर, फोम और फोग का प्रयोग तकनीक का हिस्सा हैं। ये हम अपने यहां देख सकते हैं। अच्छे बुरे में नहीं बल्कि नवाचार की तरह। कई नई चीजें आ रही हैं। कभी जो काम महीने भर में हो रहा था वह अब एक दिन में हो जाता है। सेट निर्माण के लिए अगर किसी कलाकृति के  लिए या मंदिर के लिए हम पेंटर को नहीं बुलाते। गूगल की ओर जाते हैं। वहां से मंदिर का चित्र निकालते हैं और उसी दिन फ्लेक्स निकलवाते हैं। इस तरह तकनीक ने पूरी प्रक्रिया बदल दी है।

*नई तकनीक को आप अपनी पेंटिंग में इस्तेमाल कर रहे हैं?
पेंटिंग में डिजीटल का प्रयोग बढ़ रहा है। मैंने भी कई पेंटिंग डिजिटल स्केनिंग के माध्यम से तैयार की हैं। इस पर लोगों ने आपत्ति भी दर्ज की है। मेरा कहना है कि जो एचिंग की जाती थी वह भी तो यही है। एचिंग भी डिजिटल है। तकनीक ने कला को स्पीड दी है। तीव्रता दी है। चीजें बदलेंगी। थर्ड डायमेंशन दिया है। अब आगे हाई डेफिनेशन में आपको और अच्छा करना होगा। वहां घटिया चीजो ंको आप इस्तेमाल नहीं कर सकते। हाई डेफिनेशन ने गुणवत्ता की परिभाषा भी बदल दी है।
वर्तमान में प्रिंटिंग में तकनीक को पूरा इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं। फांट साइज को हम जिस तरह से बदल सकते हैं, उसका इस्तेमाल कहां है? पढ़ने की सुविधा के हिसाब से चीजों को प्रस्तुत होना चाहिए। इसी तरह हाई स्पीड बाईक आई है। वह आपका परफॉर्म भी मांगेगी। अगर आप परफॉर्म नहीं कर सके तो आप गिर जाएंगे। सभी तरफ चीजों के रूपाकार बदल रहे हैं। हमें उनके साथ योजना बना कर चलना होगा।

* पाठक और प्रकाशन के संदर्भ में बात करें तो वर्तमान में हिंदी साहित्य की स्थिति क्या है?
हिंदी में प्रकाशन बढ़ा है। 10 सालों में साहित्य की पत्रिकाओं का आकलन करें तो 40 गुणा  बढ़ोतरी हुई है। लेकिन पाठक बनाने का जो अभ्यास हमारे यहां है, वह नहीं है। हम पाठक नहीं बना पा रहे हैं। इसमें एक और स्थिति आ रही है। अब पुस्तकों की पाठ की समयावधि कम हो रही है। कविता 3 माह, उपन्यास 6 माह की हो रही है। जब प्रोडक्शन ज्यादा होगा तो आदर्श नहीं बचेगा। इसलिए पिछले दस सालों में मध्यप्रदेश में चार कवि बड़े नहीं हैं। भीड़ अधिक है। यह सब मास प्रोडक्शन के कारण हुआ है।

*साहित्य संगठनों की भूमिका अब क्या है? वे बिखराव और ठहराव का शिकार हो रहे हैं। सक्रियता कम हुई है?
अब यह तो महसूस हो रहा है कि सबको एक हो जाना चाहिए। लेकिन वे एक होने से झिझक रहे हैं। इस झिझक को तोड़ना होगा। व्यवहारिक दृष्टिकोण से युवा लेखकों कलाकारों को मानवीयता के नए पाठ को इन सबमें जोड़ना होगा।

Arti Paliwal, BHOPAL



हम ग्लोबल डेस्टनी के कलाकार हैं


 मैं कामों में ग्लोबल डेस्टनी को संभालती हूं। मैं अपने काम में दुनिया के नेचर के बारे में बताती हूं। इसी से इसमें मानवीयता जुड़ जाती है। जैसे मैं जब अपने घर से, जहां बहुत सी हरियाली है भारत भवन तक आती हूं तो दो चीजें दिखती हैं। क्रांक्रीट के जंगल और भीड़ से भरी हुई सड़कें। यह सारे दृश्य मेरे मन में जुड़ गए। ये दो धु्रव हो गए हैं। मेरे घर पर हरियाली और भारत भवन की हरियाली। प्राकृतिक वातावरण। कई दिन जब यूं ही निकल गए तो मैंने महसूस किया कि शहर का यातायात है सडकें हैं। वे उतनी सुहानी प्राकृतिक नहीं हैं। बस यहीं से सीरीज मन में आई। मैंने इसके कई शिल्पों को आकार दिया।
इस शहरी भीड़भाड़ से महसूस किया कि हमारे समाज का मानवीय जीवन कांक्रीट के जंगल में कितना बिजी हो गया है। उसका कितना बोझा लिए रहता है। सब कांसियस माइंड में यह तो है कि डेली जीवन में मॉडर्न लाइव बोझ लिए है। मैं मानती हूं कि अगर नेचर है तो ही मनुष्य सर्वाइव करेगा। जैसे सफर के लिए हेलमेट कितना जरूरी है वैसे ही ध्यान में रखना जरूरी है कि प्रकृति है तभी हम बचेंगे। इसे मैं ग्लोबल डेस्टनी कहती हूं।
हम प्रभावित होते हैं
इंसान हमेशा दो तरह से प्रभावित होता है। एक या तो वह एकदम गलत चीजों से प्रभावित होता है या बहुत अच्छी चीजों से। मैं इस बात से प्रभावित हुई कि मुझे काम करना है। मैं चाहती हूं कि निरंतर काम में इंपू्रवमेंट आना चाहिए। इसके लिए मैं सीनियर आर्टिस्ट से डिसकस करती हंू। पेंडिंग डाइंग बहुत सारी विधाएं सोच विचार में आती हैं लेकिन वे एक साथ प्रभावित नहीं करतीं।
मैं सभी तरह के भावों को स्वीकार करती हूं देखती हूं ओर फिर अपना शिल्प लेकर आती हूं। यूं कहें कि मैं एकला चलो का भाव लेकर काम करती हूं। मैं किसी शिल्प के ऊपर कितना काम कर सकती हूं तो वह मैं करती हूं। मैंने एक फिल्म देखी थी उसमें एप्पल और आई दिखा तो वह मैं उसे शिल्प में लेकर आई। इस तरह से चीजें आती हैं।
सबके लिए काम
मैं जो काम कर रही हूं वह पूरी दुनिया के लिए होता है। मैं उसे सबके लिए करती हूं। यह नहीं सोचती कि यह सिर्फ मेरे लिए है। जब मैं शिल्प बनाती हूं तो सोचती हूं यह पूरी दुनिया के लिए है। सब तरफ से सीख सबके लिए काम करना एक गतिशीलता देता है।
मैंने एक बार भारत भवन में सोलो नाटक देखा था, उस के भावों को शिल्प में दिखाने की कोशिश की थी। मुझे दूसरी चीजों को देखकर भाव आते हैं।
पढ़ना-लिखना
यह कम ही होता है। हां जब मन करता है तो पढ़ती हूं। काफी सारी किताबें हैं। पॉजिटिव थिंकिंग खास तौर से पढ़ती हूं।
मन की परिभाषा
मन की परिभाषा मेरे लिए अभी देना कठिन है। मैं मन से ही काम करती हूं। जब काम कर रही होती हूं तो अपने विचारों के साथ काम कर रही होती हूं। मैं अलग अलग नहीं कर पाती ये सब। सोचना विचारना और करना सब एक साथ ही होता है।
खोजती हूं
हर कलाकृति में मैं अपने आप को खोजती हूं। उसमें खुद को देखने की कोशिश करती हूं। कलाकृतियों में मेरा मन और मेरा समाज सब होता है।
निजी जीवन और कला
कलाकार के रूप में निजी जीवन बहुत सा प्रभावित करता है लेकिन मेरी कोशिश रहती है कि मैं अपना काम करती रहूं। कोइ आए कोई जाए मेरा काम जारी रहे। आसपास वाले कभी बोलते हैं ये करो तो अभी ये मत करो। मुझे लगता है कि हां मैं मान जाऊं । मैं एक बार काम करना प्रारंभ करती हूं तो फिर भूलती नहीं हूं। मुझे कुछ सोचना है काम करना है। मैं कैसे कर सकती हूं। दस दिन काम नहीं किया तो लगता है जैसे काम नहीं हो पा रहा है। जब मैं काम नहीं कर रही होती हूं तो सबसे अधिक बुरा लगता है और सोसायटी की बातें सोचने समझने में आती हैं।


सहयोग के भाव
प्रेम मेरे लिए कोई अलग से नहीं है। बस जिसके साथ हों उससे ट्युनिंग अच्छी हो। उससे बातचीत करना डिस्कस करना अच्छा लगे। अब इसमें घर के मेंबर भी होते हैं।  सहयोग प्रेम और साहचर्य के  भाव हमारी लाइफ का हिस्सा हंै। जो अच्छा लगता है वह काम के बीच में बाधा नहीं बनता है।

सोमवार, नवंबर 28, 2011

बाल बंधुआ मजदूर ये देश के बच्चे हैं!



इस समय देश में  6 से14 आयुवर्ग के 1 करोड़ 20 लाख से अधिक बाल मजदूर हैं। यह आंकड़ा दुनिया में सबसे अधिक है।

वि दिशा रेलवे स्टेशन पर 14 बच्चों को एक बाल मजदूरी कराने वाले गिरोह से मुक्त कराया गया। ये बच्चे बिहार के मोतिहारी जिले के हैं। मुक्त कराए गए बच्चे अपने ही गांव के दो युवकों के साथ तमिलनाडु किसी कंपनी में अंडे बीनने के काम से ले जाए जा रहे थे। बच्चों को बंधुआ बनने से रोक लिया गया है। इस मामले में सजगता दिखाने वाली संस्था के सदस्य और रेलवे पुलिस बधाई की पात्र है। सवाल ये है कि क्या ये बच्चे पहली बार बालश्रम के लिए ले जाए जा रहे थे या इससे पहले भी ले जाए जा चुके हैं।  यह आवृत्ति कितनी बार होती है, इसका कोई लेखा जोखा हमारे पास नहीं है। देश के ऐसे कितने ही बच्चे दिल्ली, गाजियाबाद, हरियाणा और दूसरे हिस्सों में बंधक बनाए जा कर काम कर रहे हैं। इस समय देश में 6 से14 आयुवर्ग के 1 करोड़ 20 लाख से अधिक बाल मजदूर हैं। यह आंकड़ा दुनिया में सबसे अधिक है। हजारों बार दोहराया जा चुका है कि बच्चे किसी भी देश का भविष्य होते हैं। हम अपने ही देश में अपने ही बच्चों से कितना भयानक खिलवाड़ करते हैं। समाज, नेता, सामाजिक कार्यकर्ता सब उन गिरोहों के आगे असफल होते चले जाते हैं। ट्रेन में बच्चों को पकड़ा है तो जाहिर है कि इससे पहले भी बच्चों को उसमें बिठा कर ले जाया गया होगा। यह मामला कानून से अधिक सामाजिक वातावरण के निर्माण से भी जुड़ा है। क्या हम ऐसा माहौल पैदा नहीं कर सकते कि समाज में बच्चों से मजदूरी करवाना और करने देना दोनों संभव न हो सकें?

तालमेल से विकास का नया अध्याय

स्थानीय तालमेल से विकास योजनाओं को अंजाम दिया जाए तो जल संरक्षण की हजारों संरचनाएं बनाई जा सकती हैं।


य  ह  ज्ञान, समझ और अनुभव का विकेंद्रीकरण है। विदिशा जिले के छोटे से गांव कुल्हार के पूर्व सरपंच की समझ बूझ ने गांव की दशा दिशा ही बदल दी। उन्होंने देखा कि तीसरा रेलवे ट्रैक बन रहा है। इसके लिए मिट्टी यहां-वहां से खोदी जा रही है। उन्होंने संबंधित कंपनी के अधिकारियों से बात कर प्रस्ताव रखा कि वे गांव वालों द्वारा प्रस्तावित जगहों से मिट्टी खोदेंगे तो गांव के लिए ऐसी संरचनाएं बन जाएंगी जहां बरसात का पानी संजोया जा सकता है। कंपनी ने कहा कि पंचायत और प्रशासन यदि बाधा न पहुंचाएगा तो हमें कोई दिक्कत नहीं है। तत्कालीन विदिशा कलेक्टर ने इस सबंध में सहयोग किया और इस तरह टैक की मिट्टी से करीब 2 लाख वर्ग फीट के चार तालाबों का निर्माण संभव हो सका। कुल्हार गांव पिछले कई सालों से पानी की समस्या से जूझ रहा था। पहली बरसात के बाद ही उसकी रंगत बदल गई।  यह सच्ची स्थानीयता है। कंपनी के अनुसार इतने बड़े तालाबों के निर्माण पर 2 करोड़ रुपया खर्च आता। यह आपसी तालमेल से विकास के दोहरे लाभों को प्राप्त करने की स्थानीय समझ है। देश में हजारों किलोमीटर राजमार्गों का निर्माण हो रहा है। दूसरी योजनाएं भी चलती हैं। अगर इनको ऐसे तालमेल से पूरा किया जाए तो गांवों शहरों में पानी संजोने के लिए हजारों तालाब उपलब्ध होंगे। बड़ी योजनाओं में संभावनाआें को तलाश कर स्थानीय लोगों को शामिल किया जाना चाहिए। राष्ट्रीय स्तर पर इस दिशा में काम करके हम विकास के नए आयामों का निर्माण कर सकते हैं।


 पैसा सब कुछ नहीं हो सकता


कौ न बनेगा करोड़पति में 5 करोड़ रुपए जीतकर मीडिया और जनता का ध्यान आकर्षित कर कंप्यूटर आपरेटर सुशील कुमार ने एक नई मिसाल कायम की है। बिग बॉस रियलिटी शो से उन्हें कई करोड़ का आॅफर था परंतु उन्होंने इंकार कर दिया। हालांकि बिगबॉस और सुशील कुमार दोनों टीवी की व्युत्पत्ति हैं। एक को सुशील कुमार ने स्वीकार किया और दूसरे को इंकार। यहां सुशील कुमार के विवेक को समझा जा सकता है। उन्होंने  बता दिया है कि आम भारतीय ग्लैमर, फैशन और पार्टियों के माध्यम से जिस पतनशील समाज को दिखाया जा रहा है, वह उसका पिछलग्गू नहीं हो सकता। टीवी जैसे माध्यम की संभावनाएं अनंत हैं। एक समय भारत एक खोज, तमस, महाभारत जैसे धारावाहिकों ने भारतीय समाज को अपनी जड़ों से जोड़ा था। आज भी लोग उस दौर को याद करते हैं। जबकि  बिगबॉस में पतनशील, मूढ़मगज और तांकझांक करने वाली मानसिकता का प्रदर्शन किया जाता है। सुशील कुमार को यदि लोग आदर्श भारतीय कह रहे हैं तो यह वाकई उनकी अच्छी पहचान है। इसे हर भारतीय को बनाए रखना भी जरूरी है।

शुक्रवार, नवंबर 25, 2011

खुदरा किराने की दुकान भी होगी इंटरनेशनल?



 विदेशी निवेश बढ़ने से निश्चय ही भारतीय खुदरा बाजार का रंग-रोगन बदलेगा। हम उपभोग के नए युग में प्रवेश करेंगे।

वि देशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआई) को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में हुई मंत्रीमंडल की बैठक में मंजूरी दे दी है। अब इस मामले को लेकर चल रही हायतौबा कुछ दिन और चलेगी। सरकार ने जो फैसला लेना था वह ले लिया है। आलोचकों के पास अब हायतौबा ही हाथ में रहेगी। मीडिया में जिस तरह की सरलीकृत खबरें आ रही हैं, उनका भी अध्ययन जरूरी है। कहा जा रहा है कि एफडीआई से भारत का 29.5 लाख करोड़ के खुदरा कारोबार बरबाद हो जाएगा। बताया जा रहा है कि इससे 22 करोड़ लोग बेरोजगार हो जाएंगे। लेकिन इस पूरे मामले में तहकीकात करें तो कई चीजÞें ऐसी भी हैं जिससे रोजगार के अवसरों बढ़ोतरी होगी। किसी भी पक्ष के नकारात्मक पहलू देखने से अच्छा है कि उसके दूरगामी परिणामों को भी ध्यान रखा जाना चाहिए। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के मामले में केंद्र सरकार ने बहुत सावधानी बरती है। जैसे कि कंपनी को कम से कम 10 करोड़ डॉलर यानी लगभग 500 करोड़ रुपए का निवेश अनिवार्य होगा। इस में 25 प्रतिशत निवेश संबंधित कंपनी को शीतगृहों, प्रसंस्करण और पैकेजिंग उद्योग पर खर्च करना होगा।  इसके अलावा 30 प्रतिशत प्रसंस्कृत उत्पाद कंपनियों को लघु इकाइयों से खरीदना होंगे। इन स्टोरों में अनाज दालें, मछली पोल्ट्री आदि उत्पादों को बिना ब्रांड के बेचा जा सकेगा। निवेश बढ़ने से निश्चय ही भारतीय खुदरा बाजार का रंग-रोगन बदलेगा। हम उपभोग के नए युग में प्रवेश करेंगे। अभी नकारात्मक या सकारात्मक किसी पक्ष की वकालत संभव नहीं।
पक्षद्रोही मंत्री
किसी विभाग का मंत्री होना एक प्रादेशिक और जनसामान्य के प्रति बड़ी जिम्मेदारी है


म  ध्यप्रदेश सरकार में पीएचई मंत्री गौरीशंकर बिसेन अपने विभाग के कामों से कम तुगलकी क्रिया कलापों से अधिक जाने जा रहे हैं। कभी वे जाति सूचकटिप्पणी कर विवाद में आते हैं तो कभी पटवारी को सार्वजनिक स्थान पर उठक-बैठक लगवाते हैं। वे जिस इंजीनियर को निलंबित करते हैं वही उनको पांच लाख रिश्वत देने बंगले पर पहुंच जाता है। गुरुवार को उनके ही द्वारा निलंबित इंजीनियर को वे अदालत में पहचानने से इंकार कर देते हैं। निलंबन की यह घटना 2009 की है। इसकी थाने में रिर्पोट दर्ज कराई जाती है। मामला अदालत में गया और जब गुरुवार को आरोपी को पहचानने की बात आई तो मंत्री मुकरे ही नहीं ऐसी घटना के होने से ही इंकार कर दिया। घटना से मुकरने पर अदालत द्वारा गवाहों को पक्षद्रोही घोषित कर दिया। मंत्री पद पर बैठे जनप्रतिनिधि के लिए ऐसे घटनाक्रम जनता में उनके प्रति हिकारत की स्थितियों को जन्म देते हैं। ये विवाद जनता में मंत्री की छवि को बहुत हलकी बना देते हैं और कई लतीफों को जन्म देते हैं। किसी विभाग का मंत्री होना एक प्रादेशिक और जनसामान्य के प्रति बड़ी जिम्मेदारी है और इस तरह की घटनाएं एक मंत्रीपद के स्तर को शर्मनाक बना देती हैं।

सोमवार, नवंबर 21, 2011

शिक्षा का पश्चिम मॉडल


भारत मे शिक्षा रटा हुआ पाठ और स्मृति आधारित कुशलता बनाई जा रही है, जिसमें रचनात्मकता गायब है।

भा रत की शिक्षा व्यवस्था और नीतियां आजादी से पहले और आजादी के बाद विवादास्पद रही हैं। प्रधानमंत्री के सूचना तकनीकी सलाहकार एवं ज्ञान आयोग के पूर्व अध्यक्ष सत्यनारायण गंगाराम (सैम) पित्रोदा ने राष्ट्रीय शिक्षा सम्मेलन में कहा है कि देश में उच्च शिक्षा का विकास पश्चिमी मॉडल से नहीं हो सकता। श्री पित्रोदा का यह कथन इशारा करता है कि आज भी हम एक अच्छी और अपने देश के लिए उपयुक्त शिक्षा व्यवस्था के निर्माण में सक्षम नहीं हुए हैं। सैम अगर सही हैं तो उनके अनुसार देश में केवल 10-15 विश्वविद्यालय ही स्तरीय हैं। वे कहते हैं कि भारत में अध्यापक शोध नहीं करते और जो शोध करते हैं वे पढ़ाते नहीं हैं। देश में फोटोकॉपी करके शोध पत्र तैयार कराए जाने के मामले सामने आने का मतलब है कि शोध की बहुत कमी है। केवल शोध करना या केवल पढ़ाना दोनों ही स्थितियां अति पर जाती हैं। इससे शोध आधारित रचनात्मक शिक्षा को बढ़ावा नहीं मिल पा रहा। भारत मेेंं शिक्षा रटा हुआ पाठ और स्मृति आधारित कुशलता बनाई जा रही है, जिसमें से रचनात्मकता गायब है। इस शिक्षा की शुरुआत स्कूलों से ही हो जाती है। भारत को शिक्षा में अत्याधुनिक नवाचारों और उसमें निहित रचनात्मक संभावनाओं पर बहुत काम करने की आवश्यकता है। शिक्षा में इंटरनेट सोशल साइट्स जैसे माध्यमों की भूमिका को जगह मिलना चाहिए।                                                                                                                                                                                                                                          






मंदी ने बनाया पशुओं को आवारा
यूरोपीय देशों में पालतू जानवार का खर्च एक इंसान की तरह महंगा होता है। उनका इलाज और भोजन दोनों खर्चीले हैं।
मं  दी किस कदर लोगों को हैरान परेशान कर रही है यह भारतीय नहीं समझ सकते लेकिन ब्रिटेन में मंदी के कारण लोग पालतू पशुओं का खर्च वहन नहीं कर पा रहे हैं। वहां पालतू पशुओं को डॉग्स एंड कैट्स होम में सौंपने की दर पिछले साल की तुलना में इस साल 50 प्रतिशत अधिक है। भारत की तरह पश्चिम में पालतू पशुओं को किसी भी स्थिति में नहीं रखा जा सकता। उनके खाने, ठहरने और इलाज पर काफी खर्च होता है। भारत में कुत्ते बिल्ली पालना उतना महंगा नहीं हुआ है जबकि यूरोपीय देशों में पालतू जानवार का खर्च एक इंसान की तरह होता है। यहां न पंजीयन की आवश्यकता है और न बीमा की। चाहो तो करा लो, वरना आपकी मर्जी। यह सांस्कृतिक भिन्नता का फर्क भी हो सकता है। यहां गाय को पाला और पूजा जाता है। उसे आवारा छोड़ देना या पालना दोनों में कोई फर्क नहीं। पश्चिम की जीवन शैली में बेहद अकेलापन है जिसे पालतू पशुओं द्वारा पूरा करने की कोशिश की जाती है। वहां की जीवनशैली में पालतू जानवर पालना सामाजिक आवश्यकता की तरह देखा जाता है। आज मंदी उनका यह सुकून भी छीन रही है।

शुक्रवार, अक्टूबर 21, 2011

अमेरिकी हस्तेक्षप छोटे देशों को हिंसा की ओर धकेल देते हैं

 


अमेरिकी हस्तेक्षप छोटे देशों को हिंसा की ओर धकेल देता  है। देश का आधारभूत ढांचा बरबाद हो जाता है।

लीबिया कर्नल मुअम्मर अल गद्दाफी की 42 साल लंबी तानाशाही से मुक्त हो गया। नागरिकों में खुशी है कि अब वे लोकतांत्रिक, स्वतंत्र और जिम्मेदार जीवन जी सकेंगे। खुशी और आशाओं के बीच यही वह समय है जब लीबिया को अधिक संभल कर चलना है। इस लड़ाई के बाद लीबिया जगह-जगह जख्मी हालत में है। नाटो सेनाओं की बमबारी में नागरिक सुविधाएं, बाजार, अस्पताल, स्कूल, व्यापार अस्त-व्यस्त हो चुके हैं। महिलाओं, बच्चों और घायल लोगों को इलाज की सख्त जरूरत है। यह मुक्ति अभी पूरी नहीं कही जा सकती। इस आजादी में अमेरिका अपना हिस्सा अवश्य मांगेगा। अमेरिका द्वारा आजादी के ऐसे संघर्षों में उसका हस्तक्षेप विश्वव्यापी हो चुका है। अमेरिका ऐसे हिंसक आंदोलनों का जनक है। क्यूबा, वियतनाम, कोरिया, अफगानिस्तान, इराक और अब लीबिया का उदाहरण हमारे सामने है। अमेरिका के ऐसे हस्तक्षेप एक देश के स्वाभाविक संघर्ष और विकास को रोकते हैं। अमेरिकी हस्तेक्षप छोटे देशों को हिंसा की ओर धकेल देते हैं। देश का आधारभूत ढांचा बरबाद हो जाता है। इस प्रक्रिया में अमेरिका अपने आर्थिक हितों को संबंधित देशों के प्राकृतिक संसाधनों से पूरा करने लगता है। लीबिया के तेल भंडारों पर उसकी निगाह रही है। अब लीबियाई नेताओं की राजनीतिक  परीक्षा का समय है कि वे स्वतंत्र देश की तरह सत्ता-संचालन करते हैं या अमेरिकी दबाव की छाया बन कर रह जाते हैं।



 पेड न्यूज

पेड न्यूज लोकतंत्र की अवधारणा को आहत करती है। चुनावों में इस तरह छवि निर्माण करवाना लोकतांत्रिक प्रक्रिया नहीं है।


पे ड न्यूज पर चुनाव आयोग ने पहली कार्रवाई करते हुए उत्तरप्रदेश की महिला विधायक उमलेश यादव को तीन साल के लिए अयोग्य घोषित कर दिया है। मामला यूपी के बिसौली विधानसभा क्षेत्र का है। तत्कालीन उम्मीदवार योगेंद्र कुमार का आरोप था कि 17 अप्रैल 2007 के मतदान से एक दिन पहले दो समाचार पत्रों में उमलेश यादव ने पैसे देकर खबरें प्रकाशित करवार्इं थीं। इन खबरों की शिकायत प्रेस काउंसिल में भी की गई। परिषद की जांच में शिकायत सत्य पाई गई कि प्रकाशित सामग्री पेड न्यूज थीं। समाचार पत्रों ने इनके नीचे एडीवीटी शब्द अंकित किया था। आयोग ने  परिषद की जांच को जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 77 के तहत कार्रवाई करते हुए कहा कि 2007 में बिसौली के लिए उम्मीदवार उमलेश यादव ने गलत चुनाव खर्च का ब्यौरा दाखिल किया और कृत्य का बचाव भी किया। इस धारा में चुनाव खर्च के मामले आते हैं। इस खबर के लिए उमलेश यादव ने 21500 रुपए का भुगतान किया था। पेड न्यूज का मामला जब तब सामने आता रहा है। पेड न्यूज लोकतंत्र की अवधारणा को आहत करती है। अगर चुनावों में उम्मीदवार काले धन का प्रयोग कर मीडिया का इस्तेमाल अपने को बेहतर साबित करने के लिए करने लगे तो इससे लोकतांत्रिक व्यवस्था के उद्देश्य ही नष्ट हो जाएंगे। आयोग की यह कार्रवाई भारत में लोकतंत्र के लिए आशा की किरण जगाती है। आयोग के इस कदम का स्वागत किया जाना चाहिए ।

गुरुवार, अक्टूबर 20, 2011

सच कहने का साहस: यानी रागदरबारी

श्रीलाल शुक्ल पर खास  ज्ञानपीठ  www.greennearth.org  मिलने पर 
-विजय बहादुर सिंह

काफी पहले हिन्दी के पुरस्कृत लेखक श्रीलाल शुक्ल से एक साक्षात्कार कर्ता ने यह सवाल किया था कि उत्तरप्रदेश सरकार के इतने बड़े पद पर रहते हुए आपने इतना बड़ा और मोटा उपन्यास कैसे लिख लिया। श्री लाल शुक्ल ने इसका जो जवाब दिया था वो मुझे अब तक याद है। उन्होंने कहा था कि सरकार का काम रुटीन का काम होता है। वहां क्यांकि विशेष का कोई महत्त्व नहीं। आप समय से आफिस आइए। समय से घर जाइए। जो फाइलें सामने आ जाएं उन्हें निपटाते रहिए। यही तो सरकारी नौकरी है। मैं भीर करता रहा। बाकी समय में लिखता रहा। इस तरह यह उपन्यास बन गया- यानी कि ‘राग दरबारी।’
मजेदार बात यह कि राग- दरबारी, केवल शासन-तंत्र की पोल पट्टी ही नहीं खोलता। वह सामाजिक जीवन में मूल्यों के पतन की कहानी भी कहता है। सामाजिक जीवन में काम करने वाली संस्थाओं कुछेक विलक्षण चरित्रों की भी कहानी है, वह खुद एक बड़ा सरकारी अफसर है- संभवत: सचिव स्तर का। अब अगर सचिव स्तर का एक अफसर है- संभवत: सचिव स्तर का अब अगर सचिव स्तर का एक अफसर खुद सरकार और समाज के भ्रष्ट चरित्र और पतन की यह कहानी  कहता है, जो कि कहीं न कहीं खुद ऊी उस पूरी व्यवस्था में उसकी संवेदनशीलता की दाद देनी होगी। और इसमें कोई शक नहीं श्री लाला शुक्ल ने यह साहस दिखाया और अपनी संवेदनशीलता के प्रति खतरा उठाने तक की ईमानदारी बरती। सो भी सरकार में रहकर, सरकार की नाक के ठीक नीचे, सरकार होते हुए।
ठीक नेहरू शासन-काल में हिन्दी गद्य में व्यंग्य की प्रवृत्ति क्यों जोर पकड़ने लगी? क्यों हास्य- व्यंग्य के कवियों की बाढ़ आने लगी? क्यों हास्य- व्यंग्य के स्वतंत्र कवि- सम्मेलन होने लगे? क्या यह सब अकस्मात् और अकारण हुआ? बगैर किसी कारण के? इसका प्रमाणिक जवाब श्री लाल शुक्ल जैसे लेखक देते हैं यह कहते हुए कि लालफीताशाही के चलते, लेटलतीफी के चलते हुए। सरकारी महकमों के निरंतर क्रूर स्वार्थी और अमानवीय होते चले जाने के कारण।
राग-दरबारी, जो  स्वयं शासन के एक बड़े अधिकारी की कलम से लिखा गया क्रूर सच था, मेरे जैसे पाठकों के मन में यह सवाल भी पैदा कर रहा था कि पंद्रह बीस सालों में ही अगर यह सरकारी तंत्र इतना लोकविरोधी और अमानवीय हो उठा है तो आगे क्या करेगा? आज तो हम अक्सर अखबारों में पढ़ते रहते हैं कि अच्छे- अच्छों की रपट थानों में नहीं लिखी गई। यह औरत उठा ली गई। गायब कर दी गई या मार दी गई? हमें इन सवालों का कोई जवाब नहीं मिलता। लेकिन क्यों? यह तो सूचना क्रांति या कहें विस्फोट का जमाना है। फिर सबसे खराब हालत सूचना- दफ्तरों की ही क्यों है? कहीं बम फूट जाता है तो पता नहीं चलता। कहीं फटने वाला है तो पता नहीं लग पाता? इससे अच्छा तो रामायण- काल वाला जमाना था कि सीता का पता लगाने वालों ने उस जमाने में लगा लिया था। वह रावण जैसे मायावी राक्षसों का जमाना था फिर भी। पर आज? सूचना क्रांति का हल्ला है चारों ओर फिर भी क्यों सूचनाएं नहीं मिलतीं? हमारी चिन्ताओं और उनसे पैदा होते प्रश्नों के उत्तर तक नहीं मिलते? क्यों?
कहते हैं कि लेखक के पास तीसरी आंख होती है जिससे वह आने वाले समयों को देख लेता है। और कुछ नहीं तो कम से कम उन बुरे समयों के प्रति हमें आगाह कर देता है। बेखबर समाज को बाखबर कर देता है। सत्तर के दशक में न बोफोर्स हुआ था, न चारा घोटाला संपूर्ण क्रांति या दूसरी आजादी का आंदोलन भी नहीं। सुगबुगाया था। पर लेखक श्री लाल शुक्ल इस आने वाले समय को देख रहे थे। गरीबों के मन में उठती हाय को महसूस कर रहे वे बैठे तो जरुर सत्ता की बड़ी कुर्सी पर थे पर उनका दिल पत्थर का नहीं हुआ था इसलिए अपनी नौकरी की परवाह किए बगैर उन्होंने  अपने भीतर उठते तूफान को जग जाहिर करने की पहल की और इसी पहल का नाम था ‘राग दरबारी’ जिसे तत्काल हिन्दी के एक श्रेष्ठ उपन्यास के रूप में साहित्य अकादमी पुरस्कार से अलंकृत किया गया। बाद में तो यह दूरदर्शन पर धारावाहिक के रूप में भी देखा जाता रहा।
जिन दिनों मैं यह उपन्यास पÞ रहा था, अक्सर यह हमारे सिरहाने ठीक तकिए के बगल में रखा रहता। कभी दोपहरी में तो प्राय: रात सोने से पहले मैं इसे डूबकर पढ़ा करता। हमारे विभागाध्यक्ष एक दिन अचानक मेरे बिस्तर के पीस आए और इसे सिरहाने रखा देख चकित होकर पूछने गे- विजय बहादुर जी! आप की रुचि क्या संगीत में भी है? मैंने पूछा- ‘क्यों सर?’ उन्होंने ऊंगली के इशारे से उपन्यास की ओर लक्ष्य किया। मैंने जवाब दिया- सर! ये संगीत की कोई किताब नहीं है। हिन्दी का एक बहुचर्चित और महत्वपूर्ण उपन्यास है जो साहित्य अकादमी से पुरस्कृत हुआ है। अच्छा। मैंने समझा था कि ‘राग दरबारी’ लिखा है तो संगीत का कोई ग्रंथ होगा। मैं उन बुजुर्ग प्रोफेसर को यह जरुर नहीं समझा सका कि साहित्यिक प्रयोग के लिए कोई शब्द या मुहावरा वर्जित नहीं होता। वे मेरे विभागाध्यक्ष जो थे। आश्चर्य है कि ऐसे नेताओं, अफसरों, प्रोफेसरों, शिक्षकों जिनका बाकयदा जिक्र उपन्यास में भी है  के कहते हुए उत्तरप्रदेश के सचिवालय में बैठा एक आला अफसर फिर भी आदमी के रूप में अपने को बचाए रख सका और सरकारी तंत्र के निरंतर विषाक्त होते   चले जाते वातावरण को अपनी चेतना के की- बोर्ड पर टांकता रहा। चकित करने वाली बात यह कि भारत सरकार की सर्वोच्च साहित्य संस्था साहित्य अकादमी और अब भारतीय ज्ञान-पीठ ने ऐसे सत्यव्रती लेखक को ज्ञानपीठ से पुरस्कृत कर साहित्य में सच कहने की परंपरा को बढ़ावा दिया है। उसकी पीठ थपथपाई है।
राग- दरबारी पढ़ने के बाद स्वभावत: मेरा आकर्षण लेखक की अन्य कृतियों के प्रति भी बढ़ा और मैं उन्हें खोज- खाज कर पढ़ता रहा। पर न तो वैसा स्वाद मिला, न वैसा सच। ‘पहला पड़ाव’ में भी नहीं। ‘सीमाएं टूटती हैं’ में भी नहीं। हां रोचक कलम का मजा जरूर आया।  उनकी जिस रचना ने मुझे बुरी तरह निराश और क्षुब्ध किया वह बाद के दिनों में लिखा उनका उपन्यास ‘विश्रामपुर का संत’ था। ऐसा नहीं कि शुक्ल जी की कलम यहां बुझ चुकी थी। ऐसा भी नहीं कि वे सिर्फ एक लेखक के रूप में अपने जिंदा और सक्रिय होने का सबूत दे रहे थे। पर कह यह रहे थे कि सर्वोदय के कार्यकर्ताओं का कैसा और कितना पतन हुआ। स्वभावत: उन्होंने उनका उपहास तो उपन्यास में उड़ाया ही था। मुझे जब म.प्र. साहित्य अकादमी की ओर से कहा गया कि रिव्यू लिखूं। मैंने लिखा और वह रिव्यू ‘साक्षात्कार’ में छापी गई। थोड़े ही दिनों बाद शुक्ल जी किसी आयोजन में भोपाल आए तो नामवरजी के साथ मैं भी उनके कमरे में चला गया, मिलने। नामवर जी के परिचय कराते ही शुक्ल जी ने मुस्कुराते हुए शिकायत की- ठाकुर साहब। आपने तो बहुत आक्रामक होकर मेरे उपन्यास पर लिखा है। मैंने भी उसी शालीनता और गंभीरता से जवाब दिया- शुक्ल जी सर्वोदय के आंदोलन को फेल करने वालों को तो आपने कुछ कहा नहीं तब मैं क्या करता। ‘वे सुनते रहे। नामवर जी ने कुछ नहीं कहा।’
मुझे अब भी लगता है कि तंत्र और समाज की जो लड़ाई चल रही है, उसमें तंत्र आंख मूंद कर समाज की रचनात्मक शक्तियों को धूल चटाने पर उतारु है। अगर ऐसा हो गया किसी दिन तो फिर लोक जीवन और लोकतंत्र का होगा क्या? ‘राग दरबारी’ के लेखक ने सत्तर के दशक में यह सवाल उठाया था। आज तो यह जन- जन का सवाल बना हुआ है।

शुक्रवार, अक्टूबर 14, 2011

भारत और पाकिस्तान को मिल जुल कर रहना होगा



आतंकवाद के पनपने से पहले पाकिस्तान की आर्थिक दशा भारत से अच्छी थी लेकिन अब स्थिति उलट गई है।



  ह क्कानी नेटवर्क से अमेरिकी अधिकारियों की गुप्त बातचीत के बाद उन्हें यकीन हो गया कि हक्कानी नेटवर्क को आईएसआई का सहारा मिल रहा है। आतंक के मामले में पाकिस्तान भी उतना ही पीड़ित है, जितना भारत या अफगानिस्तान। भारत और पाकिस्तान दोनों धार्मिक अतिवाद से ग्रस्त रहे हैं। ये ताकतें देश के हुक्मरानों पर हावी होने की कोशिश करती हैं। अफगानिस्तान और पाकिस्तान में सक्रिय हक्कानी नेटवर्क अमेरिकी सेना को नुकसान पहुंचाने का काम करता आ रहा है। अमेरिका इस बात से तंग आ चुका है कि उसके हमलों का असर क्यों नहीं हो रहा। 13 सितम्बर को अमेरिकी फौजों पर हमले करने के पीछे हक्कानी नेटवर्क का हाथ था। अमेरिका ने इस हमले के बाद पाकिस्तान पर दबाव बनाया कि वह हक्कानी नेटवर्क पर कार्यवाही करे। पाकिस्तान ने इस मामले में हल्की हिचक दिखाई क्योंकि आईएसआई में धार्मिक अतिवाद समर्थक लोग काबिज हैं। अमेरिका पाकिस्तान को अकेला नहीं छोड़ सकता क्योंकि पाकिस्तान परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र है। ऐसी स्थितियों में भारत की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। हाल ही में हिना रब्बानी ने भारत को सबसे तरजीही राष्ट्र का दर्जा देने की घोषणा की है। पाकिस्तान और भारत की जनता एक दूसरे से संवाद करना चाहती है। यह आर्थिक और राजनीतिक दोनों मोर्चो पर जरूरी है। दोनों को विकास पर जोर देना होगा। हिंसा और आतंक किसी भी इंसानी सभ्यता का हिस्सा नहीं हो सकते। किसी समय पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति अच्छी थी लेकिन आतंकवाद पनपने के बाद स्थिति उल्टी है। अमेरिका से बड़ी आर्थिक सहायता मिलने के बाद भी पाकिस्तान गरीबी से उबर नहीं पा रहा है।