शुक्रवार, अप्रैल 30, 2010

भारत-पाक: लड़ते रहने वाले दो भाई

भारत-पाक के रिश्ते दो भाइयों की तरह हैं, पर ऐसे भाई, जो एकदूसरे के खून के प्यासे हैं।


सा र्क सम्मेलन में भारत और पाकिस्तान के राष्ट्र प्रमुखों की हैसियत से मनमोहन सिंह और यूसुफ रजा गिलानी की एक बार फिर मुलाकात हुई। इस बैठक में दोनों विदेश सचिव स्तर की वार्ताएं पुन: प्रारंभ करने पर राजी हुए हैं। आखिर क्या कारण है कि बार-बार बेनतीजा रही बातचीतों के बावजूद भारत-पाक के प्रमुख एकदूसरे के सामने पड़ते ही बातचीत का सिलसिला शुरू करने पर बल देने लगते हैं। अगर भारत पाक बातचीत न भी करें तो क्या फर्क पड़ने वाला है? इतिहास में जाएं तो कभी ये एक ही देश थे और जब टूट कर अलग हुए तो खून के प्यासे दो भाइयों की तरह बन गए। दोनों देशों में भाई होने का भाव नहीं होता, तो बार-बार बातचीत पर राजी नहीं होते। भारतीय महाद्वीप के परंपरागत परिवारों में दो भाइयों की बंटवारे और कब्जे की जैसी लड़ाई होती है, वैसी ही भारत और पाकिस्तान के बीच तकरार चलती रहती है। कभी-कभी तो युद्ध भी हुए हैं। परंतु दो देशों के रूप में एकदूसरे की कोई तुलना नहीं है। यह तुलना दोनों देशों की मानसिकता और प्रवृति को लेकर की जा सकती है। दो देश होने के नाते, उनमें संप्रभुता का तत्व समाहित हो चुका है। इस संप्रभुता ने उनके बीच सेना और सुरक्षा के सवाल खड़े किए हैं। वास्तविकताएं जो भी हों लेकिन भावनात्मक रूप से दोनों देश एक दूसरे के पास आने की आवश्यकता महसूस करते हैं। इसके पीछे कुछ और भी कारण हैं, जिनमें युद्ध से नुकसान, व्यापार, विश्व राजनीति और एक देश होने की पूर्व स्मृति शामिल है। साथ ही अंतरराष्ट्रीय दबाव भी। मुशर्रफ के राष्ट्रपति बनने के बाद उनके दिल्ली आगमन के समय दोनों देशों के बीच एक भावनात्मक लहर भी चली थी, जिसे बाद में कुचला भी गया। दो देशों की विशाल कूटनीति और राजनीति के बीच इस तरह की भावनात्मक लहरों का यही हश्र होता रहा है। इस मुलाकात की बड़ी उपलब्धि तभी कही जा सकती है जब पाक प्रमुख अपनी सेना और कट्टरपंथियों को पूर्वाग्रह छोड़ने पर राजी कर लेते हैं और एक सभ्य उदारवाद को पाकिस्तान अपनाता है तथा पूर्व की तरह पीठ पीछे कोई धोखेबाजी पाक नहीं करता है।

खलनायिका बनती लड़कियां


भो पाल की सेंट्रल जेल में हत्या के मामले में बंद तीन कैदियों में से दो को बैतूल जिले में पेशी के दौरान उनके परिजन और दो लड़कियां पुलिस की आंखों में मिर्ची डाल कर ले उड़े। भागे तो तीनों ही थे, लेकिन एक को पुलिस ने बाद में पकड़ लिया। यह मामला सिर्फ एक सूचना नहीं है कि कैदियों के परिजनों ने चार पुलिस कर्मियों पर हमला करके आरोपियों को छुड़ा लिया और दो लड़कियां उनको मोटरसाइकिल पर लेकर भाग गर्इं, बल्कि यह पुलिस और कानून व्यवस्था के खत्म होते भय और अपराधियों के बढ़ते हौसलों का प्रमाण है। बैतूल जिले में हुई ये घटना कई बड़े सवाल भी हमारे सामने खड़े करती है। पहला सवाल तो यही कि आखिर क्या इन लोगों को न्याय और व्यवस्था पर यकीन नहीं था? क्या वे यह नहीं जानते थे कि आखिर वे पुलिस से कहां तक भाग पाएंगे? इसके अलावा उनके परिजनों में कोई ऐसा क्यों नहीं था जो उन्हें यह बता पाता कि यह दुस्साहस कैदियों की ही नहीं, उनके जीवन को भी बरबाद करने का काम कर सकता है। दूसरा बड़ा सवाल ये है कि अब महिलाएं भी दुस्साहस के साथ अपराध की दुनिया का हिस्सा बनने लगी हैं। इस घटना के बाद जनता के मन में यह सवाल भी उठा होगा कि आखिर कोई क्यों ऐसा कर सका? क्या उन्हें कोई राजनीतिक शह मिली थी या पुलिस और जेल के मध्य व्यवस्थाओं को देखते हुए लोगों में यह दुस्साहस पनपा? गड़बड़ कहीं न कहीं तो होगी ही, तभी तो इस घटना को अंजाम दिया जा सका। सवाल पुलिस को कार्यप्रणाली पर भी उठाए जा सकते हैं, लेकिन फौरी तौर पर यह घटना समाज में प्रशासनिक तंत्र के प्रति बढ रहे अविश्वास का और पुलिस के कम होते रौब का नतीजा भी लग रही है।

चोर के टिकिट

उनकी नई-नई शादी हुई थी। हनीमून के बाद एक शानदार मकान में मजे से रहे थे। कुछ दिनों बाद उनके शहर में नामी नाटक के कलाकारों का आगमन हुआ। एक दिन उनके घर में डाक से एक लिफाफा आया, जिसमें दो टिकिट थे, साथ ही एक पुर्जा भी था। पुर्जे लिखा था बताओ इस प्रोग्राम के टिकिट तुम्हें किसने भेजे? टिकिट और पुर्जा देखकर पति-पत्नी बड़े प्रसन्न हुए । वे नाटक देखने गए। आधी रात के बाद जब वे अपने घर पहुंचे तो उन्होंने देखा उनके घर का सारा सामान गायब था। सोफा सेट तक गायब हो गए थे। वे हक्का बक् का रह गए। उन्होंने टेबल पर एक पुर्जा पड़ा देखा और उसे पढ़ा, जिसमें लिखा था अब पता चल गया होगा कि टिकिट किसने भेजे थे।

मंगलवार, अप्रैल 27, 2010

विकास के प्राधिकरण भष्टाचार के अभिकरण



यह कदम स्वागत योग्य है, पर बेहतर हो कि भ्रष्टाचार को पहले ही रोकने के उपाय किए जाएं।
्नरा ज्य सरकार ने प्रदेश के पांच नगर विकास प्राधिकरणों को भ्रष्टाचार की शिकायतों के चलते भंग कर दिया है। जिन प्राधिकरणों को भंग किया गया है, उनमें इंदौर, जबलपुर, देवास, उज्जैन और ग्वालियर शामिल हैं। इस मामले में भोपाल विकास प्राधिकरण सुरक्षित रहा, कह सकते हैं बच गया। खबरों के अनुसार उनमें अधिकतर के अध्यक्षों पर भूमि घोटालों, मिलीभगत से विभिन्न प्रकार से संपत्ति का निर्माण और राजनीतिक लाभ पहुंचाने के आरोप रहे हैं। विभिन्न राजनीतिक संगठनों और जनता द्वारा की गई शिकायतों के आधार पर इन प्राधिकरणों पर राज्य सरकार ने कार्यवाही की है। लेकिन इस कार्यवाही को पर्याप्त नहीं कहा जा सकता। प्राधिकरण भंग करने का मतलब महज इतना है कि राज्य सरकार जो हो चुका है उसे वहीं रोक कर नए अध्यक्ष नियुक्त करेगी। जिस तरह प्राधिकरणों के अध्यक्षों के खिलाफ दस्तावेजी सबूत सामने आ रहे हैं, उनके अनुसार तो उनके संपूर्ण कार्यकाल की जांच की जानी चाहिए और दोषी पाए जाने पर उन्हें न्यायालय के समक्ष न्यायिक कार्यवाही के लिए भी प्रस्तुत करना चाहिए। भ्रष्टाचार के इन मामलों में वास्तविकताएं राजनीति से सीधे प्रभावित होने के कारण ही देश के नागरिकों का पैसा और संसाधन भ्रष्टाचार की बलि चढ़ता रहता है। राजनीतिक नियुक्ति के रूप में पद पाए लोग अधिकतर मामलों में बेहद गैर जिम्मेदाराना तरीके से कार्य करते हैं। उनका उद्देश्य सेवा से अधिक लाभों पर आधारित काम करने की प्रवृत्ति होती है। राज्य सरकार द्वारा अपनी नाक को बचाने के लिए इस तरह की कार्यवाहियां करना आवश्यक है। पर जो भ्रष्टाचार हो चुका है उसकी भरपाई के लिए कोई कदम क्यों नहीं उठाया जाता। सरकारी प्राधिकरणों में जिस तरह से गैर जिम्मेदारी की भावना व्याप्त हो चुकी है और जनता भी उसको सहज भाव से ले रही है, वह लोकतंत्र के लिए एक घातक प्रवृति है। जनता द्वारा लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को जिस उपेक्षित दृष्टिकोण से देखा जा रहा है वह आगे जाकर इस व्यवस्था के प्रति विद्रोह के बीज बोने की तरह है।


किरण बेदी के मायने

अ गर महिला आरक्षण बिल लागू होता है तो मैं भी चुनाव लडूंगी। एक महिला के नाते किरण बेदी के ये विचार महिलाओं के प्रति बड़ी हार्दिकता और जीत की ओर इशारा करते हैं। कोई भी महिला अगर भारतीय लोकतंत्र में लाभ उठाने का प्रयास करती है तो यह उसका संवैधानिक अधिकार होता है। महिला आरक्षण से लाभ उठाने यानी चुनाव लड़ने की किरण बेदी की आकांक्षा एक शुभ संकेत है। महिलाओं के प्रति इस देश में सदियों से एक उपेक्षित समुदाय की तरह व्यवहार किया जाता रहा है। इसके पीछे पुरुषों के अपने कुछ ऐतिहासिक-सामाजिक-मानसिक कारण रहे होंगे लेकिन आज उनकी कोई आवश्यकता नहीं है। पुरुष मानसिकता महिलाओं के प्रति पूर्वाग्राही रही है। यह शिक्षा, धर्म और सामाजिक रूप से पिछड़ेपन का परिणाम रहा है। स्वस्थ मानसिकता मानवीय रूप में किसी भी प्रकार से महिलाओं को कमतर नहीं आंक सकती। किरण बेदी का चुनाव लड़ना एक संकेत ही नहीं है बल्कि यह एक मिशन बन बन सकता। उनका चुनाव लड़ना समाज और महिलाओं के प्रति किरण वेदी ने अपनी प्रतिबद्वता व्यक्त की है। भारतीय जनता की सामान्य सोच की बात की जाए तो किरण बेदी जैसी महिलाओं की आवश्यकता को पूरी गंभीरता से महसूस करती है। आज आवश्यकता है कि समाज को भारतीय लोकतंत्र की सफलता के लिए किरण बेदी जैसी महिलाओं को आगे लाना होगा। खुलाी बात है कि बेईमानों के बहुमत में ईमानदारों का बहुमत तो बड़ाना ही होगा। भारतीय लोकतंत्र को ऐसे ही महिला व्यक्तित्वों की आवश्यकता है। जहां कर्तव्य और ईमानदारी की कद्र होती है।


चुटकुला
स्वेटर में लगने वाला समय

महिलाओं की पार्टी हो रही थी। किसी ने मजाक-मजाक में सवाल पूछा कि - एक महिला को पूरी बांहों का स्वेटर तैयार करने में कितना समय लगेगा? उत्तर देने के लिए कई महिलाओं ने हाथ उठाए। सबके उत्तर अलग अलग थे। एक मजेदार उत्तर मिला, जो इस प्रकार है-
यदि स्वेटर प्रेमी का है, तो तीन दिन में।
यदि पड़ोसन के पति का है, तो तीन हफ्ते में।
यदि अपने पति का है, तो कम-से-कम तीन महीने या उससे भी ज्यादा लग सकते हैं।

शनिवार, अप्रैल 24, 2010

पूंजीवादी परिवारोंका आईपीएल


बड़े पूंजीवादी परिवारों के लोगों का आईपीएल चल रहा है और देश की जनता देख रही है। यह खेल क्रिकेट की तरह हो गया है, जहां आखिरी गेंद तक कुछ नहीं कहा जा सकता।

ब आईपीएल क्रिकेट यानी इंडियन प्रायमर लीग में घपले की पिच पर राजनीति की घास दिखने लगी है। फिलहाल तो खेल जारी है और 24 को फाइनल होना है। जब कोच्चि की टीम के फ्रेंचाइजी मामले में ललित मोदी शशि थरूर से भिड़े थे तो उन्हें भी अंदाजा नहीं था कि शशि थरूर तो जाएंगे पर उससे ज्यादा नुकसान मोदी और उनके हित चिंतकों को होगा। मोदी को हटाने के लिए स्टंप उखाड़े जा रहे हैं और कई लोग इसमें मैदान से बाहर रह कर भी क्रिकेट खेल रहे हैं। मोदी भी अड़े हैं कि पद नहीं छोड़ूगा। दरअसल वे जानते हैं कि लाभ की आईपीएल-गंगा में किस-किस ने हाथ धोए हैं। शुक्र है कि थरूर इस मामले में घिरे और अब पर्दा हट गया है। बड़े-बड़े लोगों ने खुद ही हाथ नहीं धोए, अपने बेटे बेटियों को भी इस गंगा में तैरा दिया। क्रिकेट की इस गंगा में प्रफुल्ल पटेल की बेटी पूर्णा पटेल का नाम आया है, उन्होंने 9 लाख के वेतन से नौकरी शुरू की और एक साल में ही तिगुने से अधिक बढ़ कर उनका वेतन 30 लाख सालाना हो गया। वैसे प्रफुल्ल पटेल इसे छोटी सी नौकरी बता रहे हैं। शरद पवार अपने दामाद के लिए आईपीएल गंगा के किनारे लेकर आए, ऐसे अनुमान भी हैं। कहा तो यह भी जा रहा है कि मोदी के पीछे तो दरअसल शरद पवार ही हैं। उनकी बेटी सांसद सुप्रिया सुले ने कहा कि किसी ने उनके पति का नाम लिया, तो वे अदालत में सबको घसीटेंगी। सुप्रिया ने प्रफुल्ल पटेल की बेटी का बचाव भी किया कि वह अच्छी लड़की है, उसे विवादों में मत घसीटिए। ऐसा लग रहा है कि आईपीएल के मैदान पर दिग्गजों द्वारा रस्साकसी की जा रही है। क्रिकेट बोर्ड अड़ गया है, दूसरे पाले में ललित मोदी भी अड़े हैं। हाईकोर्ट बीसीसीआई से पूछ रहा है कितना कमाया आईपीएल से और वह इसे कैसे नियंत्रित करता है। वहीं खेल मंत्री एमएस गिल ने भी अब कहा है कि जब किसी खेल को टैक्स में छूट नहीं दी जाती तो क्रिकेट को क्यों? बड़े पूंजीवादी परिवारों के लोगों का आईपीएल चल रहा है और देश की जनता देख रही है। यह खेल क्रिकेट की तरह हो गया है, जहां आखिरी गेंद तक कुछ नहीं कहा जा सकता।

गुरुवार, अप्रैल 22, 2010

आईपीएल: विवादों की क्रीज पर ललित मोदी

वर्तनी जाँचे
कमाई का गठजोड़ बन चुके आईपीए में हो रही अनिमितता को आयकर के छापे राज खोल रहे हैं।


आ ईपीएल क्रिकेट ग्लैमर और सनसनी का ऐसा उत्सव बन गया था, जिसमें असीम पैसा, अनंत भ्रष्टाचार और बहुत सारा सट्टा था, बल्कि कहें है यह ग्लैमर, काले धन और क्रिकेट का आधुनिक काकटेल है। आईपीएल जब प्रारंभ हुआ था तब इसका आइडिया ललित मोदी ने कहां से लिया था, यह अलग मुद्दा है लेकिन जिस तरह से मोदी प्रभावित आईपीएल ने प्रचार, मीडिया और देश के युवाओं को खेल और ग्लैमर की मादकता परोसी उसमें देश का धनी वर्ग, जो करोड़ों से कम का टर्नओवर स्वीकार ही नहीं करता, अपने कालेधन पर खेल और ग्लैमर की सफेदी चढ़ाकर खातों को जायज बना रहा था। ललित मोदी इस गेम के सबसे बड़े बेस्टमेन बन कर उभर आए हैं, अभी वे इस्तीफा न देकर, मीटिंग में न आकर क्रीज से हटने से ही इंकार कर रहे हैं। आईपीएल पर प्रवर्तन निदेशालय ने विदेशी मुद्रा विनिमय प्रबंधन (फेमा) के तहत मामला दर्ज कर लिया है। अब आईपीएल-एक की नीलामियों की मूल कापियों की आवश्यता महसूस हो रही है। यह काम तीन साल पहले किया जाना चाहिए था, जिसे अब अंजाम दिया जा रहा है। लगता है देश के हुक्मरान विवादों के बीच में अपने कतर्व्य याद करते हैं। वरना आईपीएल के करोड़ों रूपए देख कर आयकर विभाग हाथ पर हाथ रखे क्यों बैठा रहा- क्या इससे यह नहीं झलकता कि तुम भी शांति से भोजन करो और हमें भी करने दो। और तीन साल से चल रहे इस हाई प्रोफाइल गेम में अब तक न जाने कितने करोड़ का सौदा-सट्टा हो चुका है। वह किसी को दिखाई देगा? काफी समय गुजर चुका है और सबूतों को कोई भी धनकुबेर इतने दिनों तक खुली लापरवाही में रहने देगा? आयकर विभाग आईपीएल से जुड़ी फ्रेंचाइजियों के आॅफिसों में छापे मार कर दस्तावेजों की पड़ताल कर रहा है। यह आयकर विभाग बता पाएगा कि उसे काम के कितने कागजात क्या मिल रहे हैं। वरना तो उम्मीद ही नहीं है कि वहां वह रद्दी को ही खंगाल रहा होगा। इतने दिनों से चल रहे विवाद और छापों की आमद के बाद ये आर्थिक उच्चवर्ग अपने घोटालों को दफन करने की पूरी रणनीति तैयार कर चुका होगा। मामले में आज भी रफादफा के स्वर बुलंद हैं और हल की उम्मीद अभी नहीं है।


भाजपा मुद्दों की ओर


म हंगाई पर भारतीय जनता पार्टी की रैली का क्या असर हो सकता है? शायद ही इसे को कोई अर्थशास्त्री बता पाए, लेकिन इस समय कोई भी नेता इस रैली और महंगाई का बयान कर सकता है। नेता और अंधभक्त कार्यकताओं के बयानों का मतलब है कि विपक्ष ही सारी समस्याओं का एकमात्र कारण है। एक जटिल लोकतंत्र के नेता जिस तरह चीजों का सरलीकरण करते रहे हैं, अगर उनके कार्यकर्ताओं को छोड़ दें, तो कोई उनकी बातों पर ज्यादा यकीन नहीं करता। लेकिन यह अच्छी बात है कि भारतीय जनता पार्टी ने मंदिर या उस जैसे किसी मुद्दे की जगह व्यापक जनाधार वाले मुद्दे मंहगाई को चुना। महंगाई एक सरकार की असफलता हो सकती है और विपक्ष का कर्तव्य बनता है कि वह उसे उसके कर्तव्यों की याद दिलाए। भारतीय जनता पार्टी ने जिस प्रकार महंगाई के खिलाफ जिस प्रकार गांव गांव और गलीकूचों तक इस आंदोलन को पहुंचाने की अपील की है उसमें भारतीय जनता पार्टी के अंदर हो रहे परिवर्तनों की एक झलक भी मिलती है। लोकतंत्र में देश की जनता की आवाज बनना विपक्ष की आकांक्षा हो सकती है, लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि उसे अपनी राजनीतिक विचारधारा के तहत जनता के स्वरों को पहचानना आना चाहिए। भाजपा का कुछ कुछ युवा हुआ नेतृत्व अगर देश की आवाज को पहचानने की कोश्शि कर रहा है तो यह देश के लोकतंत्र और उसकी सेहत के लिए अच्छा टानिक हो सकता है। यह भाारतीय जनता पार्टी के लिए भी ताजगी भरी हवा की तरह महसूस होगा।

बुधवार, अप्रैल 21, 2010

काश! पहले ही सच्चाई स्वीकार लेते


पहले हंसी में उड़ाया था अब स्वीकारा कि यूका के आसपास की जमीन में अभी भी जहर है।

गै स त्रासदी का दंश झेल चुकी भोपाल की मिट्टी आज भी उसके दुष्प्रभाव से मुक्त नहीं हुई है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश जब भोपाल दौरे पर आए थे तो यूनियन कार्बाइड परिसर के दौरे के समय जमीन के प्रदूषण की बात उठने पर उन्होंने हंसी उड़ाते परिसर की मिट्टी को उठाते हुए कहा था- देखो कहां है प्रदूषण, मेरे हाथ तो नहीं गले। उन्हीं ने सोमवार को राज्यसभा में यह सच्चाई स्वीकारी कि यूनियन कार्बाइड के आसपास की जमीन और जल में अभी भी जहर है। जयराम रमेश का एक मंत्री के रूप में चीजों को इतने हलके रूप में लेना तब भी उन्हें शोभा नहीं दे रहा था और आज उनका तरीका उन्हें ही चिढ़ा रहा है। आखिर केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड और सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरनमेंट(सीएसई) की रिपोर्ट में आए निष्कर्षों को सरकार को स्वीकार करना पड़ा? उन्हें समझना चाहिए था कि यह एक ऐसा मामला था जिसमें हजारों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी, इसलिए इसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए था। समस्या को इतने हल्के से लेने वाले सिर्फ जयराम रमेश ही अकेले नहीं हैं, मध्यप्रदेश सरकार के मंत्री और भोपाल के नुमाइंदे बाबूलाल गौर ने भी कहा था कि अगर जहर होता, तो वहां के चूहे-बिल्ली मर जाते। हम अपने नेताओं पर कितना आश्चर्य करें कि वे कैसे अति सूक्ष्म रासायनिक अणुओं से होने वाले प्रदूषण के असर की तुलना चूहा-बिल्ली के मरने से कर रहे हैं। अब जांच में पाया गया है कि यूनियन कार्बाइड के आसपास पांच वर्ग किलोमीटर में भूजल एवं जमीन प्रदूषित हो चुकी है। इतना ही नहीं सरकार ने खुद यह स्वीकार किया है कि इस क्षेत्र के हैंडपंपों के पानी में पारा और आर्सेनिक जैसे जहरीले धातुकण उपस्थित हैं। इस समय कार्बाइड परिसर के 67 एकड़ में फैला 8000 मीट्रिक टन रासायनिक कचरा जमीन में रिस कर प्रदूषण को चिर स्थाई रूप दे रहा है। सरकार सिर्फ 300 मीट्रिक टन कचरे के ही निबटान के लिए तैयार है। अगर सरकार इस रासायनिक कचरे का निपटान नहीं करेगी तो कौन करेगा? यह सवाल अब भी हमारे नेताओं और जिम्मेदार अधिकारियों के सामने खड़ा है।

तबादला, राजनीति और शिक्षा

अ क्सर राजनेताओं और कर्मचारियों का असली संबंध तबादले की धमकी देने, करवाने और रुकवाने का अधिक होता है। यही कारण है कि मंत्री या कहें नेता अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए प्रशासनिक कुशलता से अधिक तबादले करने के अधिकार पर अपनी पकड़ मजबूत करना चाहते हैं। सोमवार को मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट की मीटिंग में नई तबादला नीति को मंजूर किया गया था। दो साल से तबादलों पर लगे प्रतिबंध को सरकार द्वारा समाप्त करने से न सिर्फ प्रशासनिक हल्कों में एक नई हलचल शुरू हो चुकी होगी, बल्कि तबादले करवाने वाले कर्मचारी नेता व दलाल भी सक्रिय हो चुके होंगे। नई तबादला नीति में कई अच्छे प्रावधान भी हैं, जिनमें विभागीय जांच व नैतिक पतन संबंधी प्रकरण चल रहे किसी अधिकारी-कर्मचारी को कार्यपालिक पदों पर पदस्थ नहीं करने का प्रावधान भी है। तीन साल की बंदिश को लचीलेपन में ही रखा गया है। शिक्षा विभाग के लिए अलग से तबादला नीति बनाई गई है। इसमें बच्चों की शिक्षा को प्रभावित नहीं होने देने का प्रयास किया गया है। प्रायमरी स्कूल में दो, मिडिल स्कूल में तीन शिक्षक कम से कम होंगे। विज्ञान विषयों के शिक्षकों के लिए भी अनिवार्य प्रावधान एक अच्छी पहल है। इन तबादलों से पहले शिक्षक संवर्ग पर विचार किया जाएगा। इससे राजनीतिक दबाव वाले शिक्षकों द्वारा स्थानांतरण की प्रवृति पर भी रोक लगेगी। नई तबादला नीति में संविदा कर्मचारियों के स्थान परिवर्तन पर रोक को हटाने पर कोई सहमति न बनना कुछ कर्मचारियों के मूलअधिकारों की अवमानना ही कही जा सकती है।

belan or neta
Type in Hindi
एक निर्दलीय नेता जी पहली बार चुनाव जीत का सदन में आए। उन्होंने एक सपना देखा। वे सोच रहे थे कि सदन में सिर्फ बैठना ही होता है या फिर भाषण देना होता है। पर वहां उन्होंने जूते चप्पल कुर्सियां और हाथापाई देखी तो घबरा गए।
उन्होंने अपने घर फोन लगाया कि अरे यहां तो दंगा हो रहा है। मुझे क्या करना चाहिए।
उनकी पत्नी ने कहा- अपना बैग देखो मैंने उसमें एक बेलन रख छोड़ा है। उसे निकालो और फेंक मारो?
नेता जी उलझ गए, पूछा धरामार वो क्यों रखा है?
पत्नी ने बताया ताकि तुमको मेरी याद आती रहे कि कोई गढ़बड़ काम करोगे तो तुमको मैं इसी से तो ठोकती थी, और अब भी ठोकूंगी?
अरे, च्ािंहुंक कर नेता जी ने बेलन छत की तरफ उछाल मारा ... टन टन ठन ठन होकर बेलन फर्श पर लुडकने लगा। चोट किसी को नहीं आई पर तत्कात सारे विधायक चुप हो गए और बेलन के सदन में आने पर शोर करने लगे। विधायकों को आश्चर्य था कि यह यहां आ कैसे गया। वे सब एक साथ इसे सरकार की साजिश करार देने लगे । उन्होंने सदन में बेलन की उपस्थित पर सरकार के खिलाफ नारे लगाए। और जांच कमीशन की मांग करने लगे।

रविवार, अप्रैल 18, 2010

आयकर अधिकारी और रिश्वत, क्या बचा अब!

दे श में समस्याएं और भी हैं लेकिन फिलहाल लगता है कि सिर्फ भ्रष्टाचार ही एक मात्र ऐसा शब्द है जो देश के हर मामले में फंसा मिलता है। आयकर विभाग भी इससे अछूता नहीं है। रिश्वत के मामले में मुंबई में सीबीआई की भ्रष्टाचार निरोधक शाखा ने आयकर विभाग की महिला अधिकारी सुमित्रा बनर्जी और उसके पति को 1.5 करोड़ की रिश्वत लेते हुए रंगे हाथों गिरफ्तार कर लिया है। सुमित्रा ने यह रिश्वत ठाणे के भवन निर्माता से उसके कर को कम करने के लिए मांगी गई रिश्वत चार करोड़ रिश्वत मांगी थी। लेकिन जिस धन पर काम करने की बात बनी थी, वह 1.5 करोड़ रुपए था। जिसे सीबीआई ने पकड़ा है। समाज में भ्रष्टाचार की व्यप्ति से इन मामलों पर सोच विचार करने वाला एक तबका चिंतित है। चाहे आईपीएल हो या फिर आयकर या दूसरी योजनाएं। भ्रष्टाचार शब्द अखबारों-टीवी में लोगों ने इतनी बार सुना है कि इसके प्रति एक राष्ट्रीय उपेक्षा भाव आ रहा है। जनसामान्य के विश्वास को इतनी बार छला जा चुका है कि अब उनका मन मानता ही नहीं है कि कोई चीज बिना घपले, भ्रष्ट आर्थिक लेनेदेन और दबावों के बिना अस्तित्व में आ भी सकती है? आखिर भ्रष्टाचार अब यदाकाद घटने वाली घटना नहीं रही यह रोजमर्रा का काम हो गया है। टीवी-अखबारों में कहीं न कहीं इस तरह की कोई खबर फंसी ही रहती है। लोगों को इस तरह की खबरों से चौंकना और चर्चा करना जैसे बंद कर दिया है। वे हजार दस हजार की रिश्वत की खबरें, गरीबों से लिए जाने वाले दो पांचा सौ रुपए कहीं गिनती में नहीं आते। अब लाखों अथवा करोड़ का मामला थोड़ी सनसनी देता है। हाल ही में मुंबई जो कुछ हुआ अब उसमें देश का हर इंसान शामिल हो गया महसूस होता है। मामला जब आयकर विभाग से जुड़ा हो तो और भी गंभीर हो जाता है। आयकर वैसे भी सबसे अधिक मलाई वाला विभाग माना जाता रहा है। यह करोड़ों की संपत्ति से सीधा जुड़ा है। ऐसा नहीं है कि यह महिला ही एक मात्र रिश्वत ले रही थी। वहां रोज ही कोई न कोई ले रहा होगा। शनिवार को महिला पकड़ा गई और बाकी नहीं पकड़ाए। भ्रष्टाचार का मामला इतना गंभीर हो चुका है कि अब इस पर बड़े पुनर्विचार की आवश्यकता है।

बाघों के 28 करोड़

प न्ना टाइगर रिजर्व में बाघों की जान बचाने के लिए वन विभाग ने 28 करोड़ रुपए फूंक दिए। जले पर नमक छिड़कने जैसा दूसरा काम वन विभाग ने यह किया है कि उसने बाघों की वह रिर्पोट भी गायब कर दी या करवा दी गई, जिसमें पन्ना टाइगर रिर्जव के बाघों की मौतों के कारणों का खुलास किया गया था। इस रिर्पोट के गायब होने की जानकारी सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी में वन विभाग ने दी। इस रिर्पोट के कारण कई बड़े अधिकारियों पर उंगली उठाई जाती। इन अधिकारियों ने पन्ना रिर्जव से गायब होते बाघों के बाद भी तीन साल से करोड़ों की भारीभरकम राशि की उपयोगिता रिर्पोट देते रहे। केंद्र से बजट बढ़वाते रहे। निश्चय ही यह गोलमाल का कारोबार रहा है, जिसमें कई बड़े अधिकारी और नेताओं की श्रृंखला काम कर रही होगी। पिछले तीन सालों में इन 28 करोड़ रुपयों का कोई सदुपयोग होता तो निश्चित रूप से ही बाघ और जंगल दोनों ही आबाद होते। सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी में वन विभाग 27.74 करोड़ की सूचना तो दे दी लेकिन वे जनवरी 04 के बाद बाघों के मरने, लुप्त होने और शिकार होने की जानकारी के सबंध में की गई जांच रिपोर्ट नहीं दे सका। इसके बाद एक गैर जिम्मेदारी भरा जबाव अवश्य वन विभाग ने दिया कि यह रिपोर्ट उसके पास नहीं है।
पन्ना रिर्जव में बाघों के गायब होने का अध्ययन कर रहे आर एस चुंडावत ने बाघों के गायब होने की जानकारी 2005 में ही दे थी। लेकिन भ्रष्टाचार में डूबे हुए अमला ऐसे आवाजें सुनने का आदी नहीं है। वह तो बाघ की दहाड़ तक गुम करने में मशगूल रहा तो फिर वह ये क्यों सुनने चला कि पन्ना रिर्जव में बाघ समाप्त हो चुके हैं। नोटों की फसल में इस देश प्रदेश का न जाने क्या क्या गुम हो चुका है।

शिक्षा ऋण पर छूट संबंधियों को भी फायदे

शिक्षा अब कुशलता केंद्रित हो चुकी है, जिसमें तकनीक और धन का महत्व बढ़ा है।


शिक्षा की अवधारणा आज बेशक व्यावसायिक हो चुकी है। इसका कारण यह है कि इसको सीधे रोजगार से जोड़ दिया गया है। व्यावसायिक शिक्षा में जितनी प्रखरता बुद्धि की चाहिए होती है, उतनी ही अधिक आवश्यकता आज अच्छे कालेज में पढ़ने के लिए धन की भी होती है, क्योंकि आधुनिक शिक्षा कुशलता केंद्रित हो चुकी है, जिसमें तकनीक और धन का महत्व बढ़ा है। आधुनिक व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में शिक्षा का पूरा दारोमदार कुशलता पर निर्भर है। इस कुशलता को प्राप्त करने के लिए गहन प्रशिक्षण, उच्च तकनीक, शुरू से ही बेहतर स्कूल शिक्षा और सुविधाएं जुड़ गई हैं। इसलिए आधुनिक समय में शिक्षा प्राप्त करने के लिए धन उपलब्ध करने के लिए सुविधाओं के विकास की आवश्यकता महसूस की गई। समाज को आज ऐसे आर्थिक परिवेश की आवश्यकता है, जिसमें हर छात्र अपनी मनमाफिक व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त कर सके और उज्जवल भविष्य बना सके। इसके लिए आवश्यक था कि ऐसी आर्थिक सुविधाओं का विकास किया जाए और नीतियां बनाई जाएं जिसमें दूर के रिश्तेदारों के बच्चे के लिए भी ऋण की सुविधा उपलब्ध हो।
नए प्रावधानों में केंद्र सरकार ने शिक्षा ऋण के ब्याज के भुगतानों में टैक्स में छूट का दायरा बढ़ाकर इस ऋण की सुविधा को संबंधियों तक पहुंचाने का प्रयास किया है। अब किसी भी शिक्षा ऋण पर दिए ब्याज पर कर नहीं देना होगा। इसके अलावा नए प्रावधान में वोकेशनल कोर्स, आर्टस और कॉमर्स जैसे विषय भी शिक्षा ऋण में शामिल किए गए हैं। आज के आर्थिक जगत में इन विषयों से संबंधित रोजगारों की संभावनाएं भी बढ़ गई हैं। अब आयकर अधिनियम की धारा 80-ई के तहत किए गए संशोधन में आयकर छूट का लाभ कामर्स एवं आर्ट्स के स्टूडेंट भी उठा सकेंगे। शिक्षा ऋण की नई अवधारणा शिक्षा के प्रसार और योग्य बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने के अधिकार को नया विस्तार देगी। आने वाले समय में सरकार का यह कदम निश्चित रूप से अपने प्रभाव दिखाएगा।



हिंसा, अपराध और हम

क्या कारण हो सकते हैं कि एक शिक्षित, विकसित और संपन्न होते समाज को हिंसा, अपराध आत्महत्या के अभिशाप झेलना पड़ रहे हैं। रविवार को इंदौर में एक ही परिवार के चार सदस्यों की निर्ममता से हत्या कर दी गई। घटना के पीछे के कारणों का अभी यह पता नहीं है। इंदौर की ही दूसरी खबर है, जिसमें एक युवती ने अच्छी नौकरी नहीं मिलने के कारण अपने कमरे में आत्महत्या कर ली। एक शहर की फिजा में पढ़ाई के दबाव के चलते पिछले महीनों में छह युवा आत्मघाती कदम उठा चुके हैं। आखिर इस बढ़ती हिंसा और युवाओं के जिंदगी से मुंह मोड़ एक पलायनवादी कदम उठाने के कारण क्या हो सकते हैं। इंदौर एक आर्थिक शहर है, जहां जीवन की आपाधापी में भी एक शांत लहर व्यापी रहती है, लेकिन अपराधों की निरंतर बढ़ती संख्या ने चिंता की लकीरें समाज के हर जिम्मेदार के माथे पर डाल दी हैं।
इन घटनाओं के कारणों और कानून व्यवस्था की स्थिति पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। अपराध और हिंसा की घटनाओं के कारणों पर बिना विचार किए समाधान खोजने की कोशिश सिर्फ घाव पर मरहम पट्टी बांधने की तरह होगी। इन मामलों में प्रशासनिक नियंत्रण का अपना महत्व है, लेकिन इन घटनाओं का जन्म कहां हो रहा है। इंसान के मन के किस कोने में और क्यों इनका ब्लूप्रिंट तैयार हो जाता है, इस पर भी विचार करना आवश्यक है। विकास का मतलब आर्थिक समृद्धि हो सकता है, लेकिन वास्तविक विकास में जीवन की शांति भी निहित है। फिलहाल तो हम समाधानों की जगह हर क्षेत्र में पैबंदों से ही काम चला रहे हैं।


जीवन की उमंग


महर्षि रमण के आश्रम के नजदीक किसी गांव में एक अध्यापक रहते थे। रोज के पारिवारिक तनाव से वह बहुत ज्यादा दुखी हो गए थे। अंत में उन्होंने इस अशांति से मुक्ति पाने की सोची, किंतु आत्महत्या करने का निर्णय लेना उन्हें इतना आसान नहीं लगा। वे अपने परिवार के बारे में सोच विचार कर रह गए। वैसे भी मनुष्य को अपने परिवार के भविष्य के विषय में भी सोचना पड़ता है। इसी ऊहापोह में वह व्यक्ति महर्षि रमण के आश्रम में पहुंचे।
महर्षि को प्रणाम कर वह बैठ गए। फिर कुछ देर बाद उन्होंने आत्महत्या के बारे में महर्षि की राय जाननी चाही। रमण उस समय आश्रमवासियों के भोजन के लिए बड़े मनोयोग से पत्तलें बना रहे थे। अध्यापक के सवाल पर उन्होंने कुछ खास नहीं कहा। अध्यापक महोदय उनके उत्तर की प्रतीक्षा करने लगे। थोड़ी देर में वह सोचने लगे कि आखिर यह मेरी बात न सुनकर पत्तलें बना रहे हैं। अध्यापक को रमण का इस तरह पत्तल बनाना थोड़ा अटपटा लगा। उन्होंने साहस कर आखिर पूछ ही लिया, 'भगवन! आप इन पत्तलों को इतने परिश्रम से बना रहे हैं, लेकिन भोजन के बाद तो इन्हें कूड़े में फेंक ही दिया जाएगा।' यही समय महर्षि चाहते थे। अध्यापक महोदय ने सही सवाल किया था। इस बात पर महर्षि ने मुस्कराते हुए बोले, 'आप ठीक कहते हैं, लेकिन किसी वस्तु का पूर्ण उपयोग हो जाने के बाद उसे फेंकना बुरा नहीं है। बुरा तो तब कहा जाएगा, जब उसका उपयोग किए बिना ही अच्छी अवस्था में उसे कोई फेंक दे। आप तो विद्वान हैं। मेरे कहने का तात्पर्य समझ ही गए होंगे।' इन शब्दों से अध्यापक महोदय की समस्या का समाधान हो गया। उनमें जीने का उत्साह आ गया और उन्होंने आत्महत्या का विचार त्याग दिया। अध्यापक वापस आकर अपने काम में लग गए और परिवार के साथ खुशी से रहने लगे।

गुरुवार, अप्रैल 08, 2010

नेता बनाने की दुकान

एक आदमी ने नेता बनाने की दुकान खोली। उसने अपनी दुकान का विज्ञापन दिया। इस विज्ञापन में उसने लिखा तीन दिन में नेता बनिए। कई युवा लोग उस दुकान पर पहुंचे। दुकान खोलने वाले ने कहा- आज आपका क्वालिटी टेस्ट का इंटरव्यु होगा। इसके लिए पांच सौ जमा कीजिए। कई युवाओं ने जमा कर दिए। दूसरे दिन सभी युवा पहुंचे तो दुकानदार ने कहा- दो घंटे तक उन्हें बिठाए रखा फिर कहा, आज आपकी छुट्टी है कल आइए। तीसरे दिन एक युवा जिसने क्वालिटी टेस्ट के पैसे नहीं दिए थे, युवाओं के बीच में खड़ा था। वह नारे लगवा रहा था-नेता बनाओ प्रशिक्षण दुकान हाय हाय... नेता बनाओ प्रशिक्षण दुकान हाय हाय... दुकानदार आया बोल बेटा तुम नेता बनने के क्वालिटी टेस्ट में पास हो गए हो। तुम तीन महीने का प्रशिक्षण लो। लड़के ने कहा हम अलग में बात करेंगे। अभी तो मैं धरने पर हूं। एक घंटे बाद धरना खत्म हो गया। लड़का दुकानदार के पास गया। दुकानदार ने कहा पांच हजार लो ये, तुम पास हुए। लड़के ने कहा इनसे धरना केवल 10 दिन तक स्थगित किया जा सकता है। दुकानदार ने कहा लो बीस हजार लड़के ने कहा अब ठीक है धरना स्थगित किया जाता है। दुकानदार ने कहा तुम तो नेता ही बन गए। वाह अब में कहूंगा कि इस दुकान से एक नेता बना है।

मां की बिजली से रोशन प्रदेश





विकास को प्रभावित करने की हद तक बिजली की कमी ने सरकार को इस समय सोचने पर मजबूर कर दिया है। इसके लिए सरकार ने नर्मदाघाटी में गैर परियोजना स्थलों पर भी बिजली पैदा करने की संभवनाएं तलाशी गई हैं। यह कार्य नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण और अन्य निजी कंपनियों के माध्यम से संपन्न होगा। इससे पहले भी नर्मदा पर निर्मित छह परियोजनाओं से करोड़ों यूनिट बिजली मिलती रही है। एक प्रकार से ऊर्जा के क्षेत्र में नर्मदा पालनहारी मां की भूमिका निभाती रही है। आज जब बिजली के लिए प्रदेश परेशान है तो फिर मां की ही धारा में आशाओं की ये किरण चमक रही हंै। आईआईटी रुड़की द्वारा नर्मदा घाटी में 182 स्थानों को पनबिजली परियोजनाओं के लिए चिन्हित करने से विकास नई ऊर्जा मिलेगी। रुड़की द्वारा चिन्हित स्थानों में प्रदेश के मंडला, डिंडोरी जैसे आदिवासी बहुल जिले भी हैं, जहां ये परियोजनाएं आकार लेंगी। बिजली के ये संयंत्र सिर्फ बिजली ही पैदा नहीं करेंगे, स्थानीय आर्थिक गतिविधियों को भी बढ़ावा देंगे। इन परियोजनाओं से उन क्षेत्रों में से क्षेत्र में रोशनी पहुंचेगी जहां अब तक विकास की विद्युत नहीं पहुंची थी। प्रस्तावित स्थानों पर बिजली उत्पादन केंद्रों का संचालन 2006 में बनाई गई लघु जल विद्युत विकास प्रात्साहन नीति के तहत किया जाएगा। इससे पूर्व प्रदेश के जल संसाधन विभाग ने बारना परियोजना को छोड़, दूसरी योजना नहीं ला सका। इस योजना के लिए शासन इंवेस्टर्स मीट का आयोजन कर रही है। ख्याल इतना ही रखना होगा कि इन छोटी योजनाओं के लिए कंपनियों को पूरी तरह परख कर ही अनुमति दी जाए। ये योजनाएं इतनी दूरगामी हों कि नर्मदा घाटी में चलते हुए संयंत्रों के रूप में दिखाई देती रहें।

bhopal मास्टर प्लान: चुप क्यों हैं बड़े नेता

वरोध के चलते मास्टर प्लान भोपाल के लोगों के खिलाफ साजिश की तरह लगने लगा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि लोगों का विरोध इस साजिश को नाकाम कर देगा।

मा स्टर प्लान का सब ओर विरोध हो रहा है। यहां तक कि भारतीय किसान संघ भी विरोध में है। अगर कोई चीज़ जनता की पसंद पर न आए तो उसे पुनर्विचार के लिए स्वीकार करना चाहिए या उस पर आ रही प्रतिक्रियाओं को गौर से सुनना चाहिए। ये बातें राजनेताओं और उनसे जुड़े योजनाकारों के लिए एक साधारण सा घटनाक्रम है। जब यही घटनाक्रम किसी शहर के लिए लागू हो और चारों तरफ से विरोध के स्वर उठ खड़े हों तो मामला फिर एक परिवार या व्यक्ति का नहीं रह जाता। भोपाल का मास्टर प्लान इस समय शहर की सबसे विवादित योजना के रूप से सामने आ चुका है। यह उसके ही रचनाकारों की नींद हराम किए है। इस नींद में सबसे अधिक खलल भोपाल के जागरूक नागरिक डाल रहे हैं। यह खलल डाला भी जाना चाहिए। यह एक शहर के जीवन मरण का सवाल है। मास्टर प्लान सदियों तक छाप छोड़ने वाली घटना होती है। एक बार लागू होने पर इसके दुष्प्रभावों को कम नहीं किया जा सकता। इसलिए क्योंकि मास्टर प्लान किसी के आंगन में परिवर्तन करने वाली बात नहीं होती। यह शहर में एक व्यापक परिवर्तन लाने वाली योजना है। शहर का विकास तो इसमें समाहित है ही, इससे शहर की संस्कृति भी जुड़ी होती है और लाखों लोगों का जीवन भी।
लोग विरोध कर रहे हैं, लेकिन नेता फिर भी क्यों नहीं सुन रहे हैं। ऐसा लगता है जैसे वे सुनना नहीं चाह रहे। लोगों का विरोध एक स्थापित सत्ता के खिलाफ है। यह उस आथारिटी के खिलाफ है जिसने इसे प्लान किया है। मास्टर प्लान के लिए अब जिस तरह से अधिकार विहीन सुनवाई चल रही है उसमें किसी परिवर्तन की उम्मीद नहीं की जा सकती। लोगों को किसी भी अतिवादी कदम के खिलाफ पूरी ताकत ने उठना ही होगा। परिवर्तन के लिए अधिकारी विहीन सुनवाई और चारों ओर हो रहे विरोध के चलते मास्टर प्लान भोपाल के लोगों के खिलाफ साजिश की तरह लगने लगा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि लोगों का विरोध इस साजिश को नाकाम कर देगा।

सोमवार, अप्रैल 05, 2010

नक्सली कायर हैं तो आप क्या हैं?




लालगढ़, पश्चिम बंगाल में कही माननीय गृहमंत्री की बात मान भी लें कि नक्सली कायर हैं, जंगल में छुप कर सरकारी अमले और सुरक्षाकर्मियों को निशाना बनाते हैं। ठेकेदारों, अधिकारियों और नेताओं से फिरौती बसूलते हैं। यह नक्सली भी कर रहे हैं और देश के अपराधी भी यह कर रहे हैं। कानून के हिसाब से दोनों अपराधी हैं। गृहमंत्री के नाते पी चिदम्बरम के इस बयान का दूसरा पक्ष भी देखना आवश्यक है। इस बयान को देखें तो इससें पी चिदम्बरम अपनी ही कमजोरी को उजागर कर रहे हैं। उनके पास सरकार है, संसाधन हैं और एक पूरा प्रशासनिक तामझाम है जिसके दम पर वे एक अरब की जनसंख्या वाले देश को सम्हाल रहे हैं। ऐसे में नक्सलियों को कायर कह कर वे क्या सिद्ध करना चाहते हैं। क्या यह किसी समस्या से जुड़े पक्ष को कायर कहने से समस्या का समाधान संभव है। क्या नक्सलियों को कायर कह कर वे खुद को बहादुर सिद्ध कर रहे हैं। अगर नक्सली कायर हैं तो पी चिदम्बरम कायर लोगों पर अपनी विजय क्यों नहीं कायम कर पा रहे हैं। कायरों पर तो बहादुर बहुत जल्दी जीत दर्ज करते हैं।
आज आवश्यकता इस बात की नहीं है कि नक्सलियों को कायर कहा जाए। जरूरत नक्सलियों को पूरी ताकत से कुचलने की है। नक्सली होने के पीछे जो कारण है उन्हें समाधानों की तरफ ले जाने की आवश्यकता है। देश में कानून की सत्ता है। उसे कायम रखने का दायित्व गृहमंत्री और उनकी सरकार का होता है। कानून सामूहिक मानवीय आकांक्षाओं को प्राप्त करने का माध्यम है। वह चाहे शांति से रहने का अधिकार हो या फिर स्वतंत्रता से। जब कानून के माध्यम से समस्याओं की जड़ों तक पहुंचना संभव नहीं होता तब वहां आवश्यक मानवीय विवेक की आवश्यकता होती है। यह विवेक ही कानून के साथ मानवीय रास्तों से समस्याओं को समाधान की ओर ले जाता है।


आसमान में इसरो

इ सरो की तमाम उपलब्धियों में अधिक भार लेकर उड़ान भरने में सक्षम राकेट के विकास के साथ ही एक और स्वर्ण इबारत दर्ज हो चुकी है। अधिक भार लेकर राकेट उड़ान की तकनीक के विकास ने देश के आंतरिक्ष अभियानों का खर्च लगभग आधा होने जा रहा है। यह तकनीक सिर्फ राकेट प्रक्षेपण तक ही सीमित नहीं होगी। इसे अन्य क्षेत्रों में भी प्रयोग किया जाएगा। वह चाहे युद्ध संबंधी मिसाइल तकनीक हो या आंतरिक्ष के अभियान। तकनीक के विकास के नए आयाम देश में वास्तविक बदलाव की इबारत लिखते हैं। इस बदलाव में भूगर्भ इंजीनियरिंग, आंतरिक्ष प्रौद्योगिकी, कृषि, कम्पयूटर सॉफ्टवेयर, मौसम, निर्माण अभियांत्रिकी आदि शामिल हैं। तकनीक के इस बदलाव में जब देश का हर पक्ष शामिल हो जाता है तब एक नई क्रांति की शुरुआत होती है। तकनीक के आधार पर आसमान पर काबिज होना एक देश की ताकत में इजाफा है। किसी देश की ताकत का आंकलन उसकी प्रौद्योगिकी पर निर्भर करता है। देश में इसरो आंतरिक्ष प्रौद्योगिकी का केंद्र है। भारत के ये केंद्र ही देश की वास्तविकताओं को बदल सकते हैं। जब इसरो ने अपनी स्वयं विकसित क्रायोजनिक तकनीक को लगभग आधा कम कर लिया है तो यह विदेशी मुद्रा जैसे महत्वपूर्ण पक्ष को भी मजबूत करेगा। देश पहले से ही छोटे देशों को राकेट लांचिंग में मदद करता रहा है। यह मदद विदेशी मुद्रा का प्रमुख स्रोत रही है। आज अगर देश दुनिया को आधे खर्च पर राकेट भेजने के लिए अपने संसाधनों का इस्तेमाल करता है तो विकास की नई तस्वीर सामने आएगी। देश का तकनीक के मामले में दबदबा भी कायम होगा। आशा है इस तकनीक का व्यवसायिक उपयोग देश को नए तकनीकी युग की तरफ आगे ले जाएगा।

रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति

रविवार, अप्रैल 04, 2010

कला में देखना





रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
इंट्रो
कला के सौंदर्य के रस को ग्रहण करने के लिए अवश्यक है कि रसिक की चेतना में स्वीकार भाव कितना है।

शेक्सपीयर ने कहा था कि सौंदर्य देखने वाले की आंखों में होता है। यह सच है कि यह देखने से ही संभव होता है। कला के संदर्भ में सौंदर्य को देखना सामान्य घटना नहीं होती। इसे संस्कृत आचार्य मम्मट ने प्रशिक्षण से ग्रहण करने योग्य कहा है। यही चीज शास्त्रीय संगीत जैसे माध्यम पर लागू होती है। इसे दो लोगों की बातचीत से समझा जा सकता है- दोनों व्यापारी थे। वे शास्त्रीय संगीत सभा में गए। एक को बचपन का अनुभव था, वह जानता था कि राग और आलाप क्या होता है। दूसरा अपने मित्र की मित्रतावश गया था। उसे इस तरह के रसास्वादन का प्रशिक्षण नहीं था और उसकी चेतना भी संवेदनशीलता के उच्चशिखर पर नहीं छू रही थी। एक मित्र शुरुआत से ही उस संगीत से जुड़ गया जबकि दूसरा सिर्फ इधर उधर देख रहा था। वह यह नहीं समझ पा रहा था कि आखिर वह कौन सी चीज है, जिसे सुन कर इतने लोग झूम रहे हैं। जिस रसिक को इसका प्रशिक्षण न मिला हो या उसकी चेतना संपन्न न हो तो वह इस संगीत के रागों को ग्रहण नहीं कर सकता। यह वैसे ही है जैसे एक मॉडर्न आर्ट के किसी केनवास को देख कर कोई बिलकुल रस ग्रहण नहीं कर पाता। कला के संदर्भ में सौंदर्य को प्राप्त करना मन के संवेदनों का झंकृत होना है। दूसरी बात आपकी चेतना में स्वीकार भाव कितना है? इस पर कला के सौंदर्य का आस्वादन निर्भर करता है। कभी-कभी यह भी संभव होता है कि कोई पहली बार संगीत और कला को देखने सुनने गया और राग या रंग की जानकारी के बिना भी उसने रसास्वादन प्राप्त किया।
यह क्यों संभव हुआ? क्योंकि उसकी चेतना में स्वीकार भाव था। वह उस संगीत से या केनवास के रंगों से सहमत हो गया। उसने कोई प्रतिरोध नहीं किया। कला के सौंदर्य के रस को ग्रहण करने के लिए अवश्यक है कि रसिक की चेतना में स्वीकार भाव कितना है। इसके बिना कोई सौंदर्य आप ग्रहण नहीं कर सकते। कला का दूसरा पक्ष ‘देखने’ का होता है। यह ‘देखना’ एकल और परस्पर दो तरह से होता है। परस्पर देखने का उदाहरण दो प्रेमियों को एक दूसरे को देखने में घटता है और एकल उदाहरणों में जब कोई अलेला ही किसी पहाड़ को देख कर कविता रचता है या पेंटिंग बनाता है तो यह एकल देखना हुआ जो कि सौंदर्य के आस्वादन का कारण बनता है। यहां ‘देखने’ का अर्थ है कि जैसी दिखाई दे रही है उसे वैसा ही ग्रहण करना। इस ‘देखने’ से किसी सौंदर्य को पहचाने जाने की घटना घटती है। सौंदर्य के बीच शब्दहीन आदान प्रदान होता है? किसी भी सौंदर्य का घटित होना, आस्वाद करने वाला और प्रस्तुत करने वाले दोनों के बीच सौंदर्य पूर्ण संवाद से घटित होता है।

सिमी की पहचान मालवा के माथे पर कलंक





पुलिस के ढीले रवैये के कारण खुफिया सूचनाएं घास के तिनकों की तरह हाथ में ही रह जाती हैं।


मा लवा की अपनी पहचान अभी भी आतंक से नहीं है। आतंक की पहचान को कोई सहन करना भी नहीं चाहता क्योंकि मालवा सुनहरे रंग वाले गेंहू से पहचाना जाता है। यह गेंहू का कटोरा कहा जाता रहा है। यह सुनहरापन ही मालवा की पहचान है। कम से कम हाल ही तक तो कोई सवाल ही नहीं उठाया जा सकता था कि इसके अलावा कोई दूसरी पहचान से लोग इस छोटे से अंचल को जानें। लेकिन पिछले कुछ सालों में स्टूडेंट आॅफ इस्लामिक मूवमेंट आॅफ इंडिया (सिमी) की गतिविधियों के कारण मालवा का नाम चर्चा में रहा है।
सि मी का नाम मालवा खासकर इंदौर, उज्जैन, खंडवा जैसे कस्बों शहरों से जुड़ा रहा है। सिमी से जुड़ा आतंक के तार। यही तार और संबंध मालवा को प्रदेश में आतंक के नए गढ़ के रूप में देखा जाने लगा है। सिमी ताकत प्राप्त कर रहा है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले साल खंडवा में हुई एटीएस कांस्टेबल सीताराम और दो अन्य लोगों का हत्यारा आज तक नहीं मिला है। पुलिस जांच पड़ताल की अपनी प्रक्रिया में कुछ और तथ्य हाथ लगे हैं। पुलिस को कई नई जानकारियां मिली हैं, एक तो यही है कि आतंकी हर उस आदमी को मारना चाहते हैं जिसे सिमी से संबंधित जानकारियां हासिल हैं। या वह सिमी का दुश्मन है। सिमी के मंसूबे पुलिस के आत्मबल को कमजोर करने के भी हो सकते हैं। सीताराम की शहदत इसका जीता जागता सबूत भी है। जानकारियां सिमी के सदस्य आतंकियों के मंसूबों को उजागर करती है। ये जानकारियां तभी उपयोगी हो सकती हैं जबकि इनका सही ढंग से इस्तेमाल किया जाए। पुलिस का रवैया अगर ढील ढाल कर मामलों को अपने आप खत्म हो जाने की मानसिकता से ग्रस्त रहा है। पुलिस के ढीले रवैये के कारण खुफिया सूचनाएं घास के तिनकों की तरह हाथ में ही रखी रह जाती हैं।




अपना गांव अपनी योजना
गांव के लोगों पर यकीन किया जाता तो आज सरकारी योजनाओं के खाते में सफल योजनाएं मील के पत्थर की तरह गांवों में दिखाई देतीं। गांवों के अधिकांश लोगों की मानसिकता सरकारी योजनाओं के प्रति अविश्वास से देखने की हो चुकी है। गांव वाले जानते हैं कि सरकारी योजनाएं उनके लिए आती तो हैं लेकिन उनकी बंदरबांट और खानपीना, मिलने न मिलने का फैसला ब्लॉक कार्यालयों, तहसील मुख्यालयों में सक्रिय दलालों और बाबूओं से घिरी एक घिनौनी तिकड़ी में फंसी रहती है। जहां सरपंच हो या सचिव सब जानते हैं कि किस अधिकारी को कितने प्रतिशत कमीशन देना है। पिछले साठ साल से अविश्वास का ऐसी दीवार बनाई गई है जिसे हम आज और मोटा किए जा रहे थे। मध्यप्रदेश के संदर्भ में देखें तो अविश्वास की इस दीवार को प्रदेश सरकार ने मांग आधारित योजना की अवधारणा के माध्यम से गिराने की कोशिश की है। इस योजना में गांव के लोगों को आवश्यकता के अनुसार योजना में बदलाव और मद बदलने अधिकार मिल रहे हैं। हर गांव का एक अलग परिवेश है। कई गांव बरसात के दलदलों में घिर जाते हैं तो वहां सबसे पहले पहुंच मार्ग की आवश्यकता है। जहां स्कूल नहीं है तो वहां पहुंच मार्ग का पैसा स्कूल के विस्तार में लगाया जा सकता है। मांग आधारित योजनाओं की अवधारणा के परिणाम सकारात्मक आ रहे हैं। इसका प्रयोग बीते वर्ष में राजगढ़, छतरपुर, रायसेन, मंडला आदि में सफल रहा है। इसका बहुत कुछ दारोमदार ग्राम सभा पर निर्भर करता है। यह एक सच्चे विकास की ईबारत है जिसे गांव का व्यक्ति अपनी तरह से लिखने की कोशिश करेगा। सरकार और दूर गांव के बीच बनी अविश्वास की दीवार गिराई जा सकेगी।

शुक्रवार, अप्रैल 02, 2010

एक महादेश की जनसंख्या

भा रत अगर अपनी जनसंख्या पर पार नहीं पा लेता, तो वह एक भीड़ भरे देश से अधिक और कुछ नहीं हो सकता। भारत की जनसंख्या दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचती रही है। भारत ही नहीं, बल्कि एशिया के अधिकांश देशों की जनसंख्या विकसित देशों के लिए एक बाजार रही है या एक अभिशाप। आज विकसित देशों का नेतृत्व जानता है कि भारत अपनी जनसंख्या के साथ एक संभावनाओं वाला युवा देश है, लेकिन ये संभावनाएं कहां हैं? और किनके लिए हैं- उनके या हमारे लिए? क्या सिर्फ देश के कुछ हजारों-लाखों युवा विदेशों में जाकर सॉफ्टवेयर इंजीनियर हो जाएं और डालर कमाकर भेजें, तो इसे संभावनाएं कहेंगे। नहीं, इसे देश की वास्तविकता नहीं बनाया जा सकता है। ये संभावनाएं तो निहित हो सकती हैं हमारे गांवों में, कृषि और ऐसी योजनाओं में जिसमें हर हाथ को काम का वादा निहित हो। व्यापकता से देखें तो आज देश को दोनों की आवश्यकता है। जनसंख्या की दृष्टि से भारत के संसाधनों का कोई अनुपात नहीं बनता। संसाधनों की भारी कमी है। आबादी का एक बड़ा हिस्सा गंदी बस्तियों में रहता है। उसे दो वक्त का भरपेट पोषक खाना नहीं मिल पाता और हम आज भी अपने देश के एक बड़े वर्ग को स्वच्छ पेयजल तक उपलब्ध नहीं करा पा रहे हैं। शहरों तक में एक बड़े वर्ग को स्वच्छ पेयजल नहीं मिलता, तो गांवोें की तो बात ही छोड़ दें। दुनिया में सबसे ज्यादा हमारी नदियां प्रदूषित हो रही है। शहरों के विकास के साथ अमानक गंदगी से भरी बस्तियों का साम्राज्य खड़ा हो रहा है। यानी हम एक ऐसी जनसंख्या को गिन रहे हैं जहां अभी सुविधाएं का विकास की प्रारंभिक अवस्था में है और कई मामलों में तो उतना भी नहीं है। जनगणना के महाकार्य को 25 लाख जनगणना अधिकारी 45 दिनों में अंजाम देंगे। देश की विभिन्न भाषाओं में 64 करोड़ फार्म में यह जानकारी एकत्रित होगी। एक विशालकाय डाटाबेस बनेगा, जिसके आधार पर करीब पिछले दस साल तक योजनाओं को बेकअप मिलेगा। देश विदेश के लोग, संस्थाएं कंपनियां इनका सदुपयोग-दुरुपयोग करती रहेंगी। कुछ ही दिनों बाद हम भारत बारे में कुछ और जानेंगे ।

इंदोंर विकास प्राधिकरण आखिर क्या चाहता था

आई डीए (इंदौर डेवलपमेंट अथॉरिटी) ने प्लाटों के मामलों में जो कुछ किया है, वह एक भूल का परिणाम नहीं हो सकता। एक बड़ी संस्था की कार्यप्रणाली के तहत भी यह गले उतरने वाली बात नहीं है। जब तक कि इसमें गोलमाल करने की मंशा से जिम्मेदार लोगों की सहमति न शामिल हो। इस घटनाक्रम के बाद जिस प्रकार के बयान आईडीए के अध्यक्ष और जवाहर नगर हाउसिंग ने दिए हैं, वे किसी आश्चर्य से कम नहीं हैं। प्लाटों के साइज कम हो रहे हैं और अध्यक्ष को पता नहीं है। इस तरह जवाहर नगर हाउसिंग सोसायटी के अध्यक्ष ने कहा कि पता नहीं चल रहा कि आईडीए में यह धांधली किसने की है। दरअसल जिसे अध्यक्ष धांधली बता रहे हैं, वह अपराध है। धांधली शब्द का प्रयोग उसके अपराध बोध को कम करके भ्रष्टाचार के स्ट्रोक को कम करता है। यह एक गंभीर किस्म का अपराध है और जिम्मेदारों पर अदालती मुकदमे चलना ही चाहिए।
जिस तरह का गेम खेला गया है, उसमें कोई उच्चस्तरीय मास्टर माइंड अवश्य ही होगा। उसका दुस्साहस आयोजन में देखा जा सकता है। जमीन का यह खेल मुख्यमंत्री के हाथों प्लॉट वितरण तक ही रहता तब तक तो ठीक था, कोर्ट के आदेश के बाद भी आईडीए ने प्लॉटों के साइजों को तय आठ सौ वर्ग फीट से घटा कर छह सौ वर्ग फीट कर दिया। यह हद से गुजरने वाली बात है। जिन छोटे-छोटे प्लाटों के लिए लोगों ने अपनी कमाई समर्पित की थी वे किस तरह से यह जो कुछ हो रहा है वह इंसान की राजनीति और कार्यप्रणाली है। जमीन के आसपास ही घूम रही है। क्या जमीन इंसान के पावर गेम का हिस्सा है? क्या यह सिर्फ हथियाने से हासिल होती है? देश के नागरिक जिस तरह से भ्रष्ट आचरण, धांधली और गोलमाल में लिप्त हो रहे हैं उससे लगता है कि कहीं न कहीं हर पक्ष शामिल हो जाता है।

गुरुवार, अप्रैल 01, 2010

एक नया सच कार्पोरेट सोसल रिस्पांसबिलिटी




कार्पोरेट सोशल रिस्पांसबिलिटी एक सच है। जब देश नई सोच और ऊर्जा से आगे बढ़ता है, तो उसे नई राहें भी तलाशना होती हैं।

सा माजिक सरोकारों के प्रति जिम्मेदारी की भावना से देश के बड़े औद्योगिक घराने प्रभावित हो गए? देश का बड़ा धनी वर्ग समाज सेवा जैसे काम में अपनी दिलचस्पी दिखा रहा है, तो हल्का सा आश्चर्य होना स्वभाविक है। देश के जाने-माने 48 समूहों ने पब्लिक प्रायवेट पार्टनरशिप के तहत मध्यप्रदेश में वाटरशेड मैनेजमेंट, कृषि भूमि की उर्वर क्षमता बढ़ाने, भूमि सुधार जैसे कामों में भागीदारी की इच्छा जताई है। इन घरानों ने गांवों में जीवन स्तर सुधारने में भी अपनी रुचि दिखाई है। अब सवाल एक ही उठता है कि आखिर व्यापार के लिए सुरक्षित पूंजी का घराने कृषि जैसे प्राथमिक क्षेत्रों में निवेश क्यों करना चाहते हैं। शक होना जायज है। बात सिर्फ यहींं तक सीमित नहीं है। कई बार वास्तव में वह वही नहीं होता जो दिखाई दे रहा है। इसलिए औद्योगिक घरानों के इस निवेश पर बेवजह शक न भी किया जाए तो यह तो मानना ही होगा कि इसे निवेश के भी कुछ कारण तो होंगे ही।
औद्योगिक घराने इससे पहले अपनी योजनाएं लेकर देश के केंद्रीय नेतृत्व से मिल चुके हैं। कुछ माह पहले प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में दिल्ली में संपन्न बैठक में कार्पोरेट सोशल रिस्पांसबिलिटी का फैसला हुआ था। इसमें तय हुआ था 1984 से संचालित राजीव गांधी वाटरशेड मैनेजमेंट कार्यक्रम में कार्पोरेट समूह अपनी विभिन्न संस्थाओं के माध्यम से पैसा लगाएंगे। कार्पोरेट सोशल रिस्पांसबिलिटी एक सच है। जब देश नई सोच और ऊर्जा से आगे बढ़ता है, तो उसे नई राहें भी तलाशना होती हैं। गांवों में निवेश की कार्पोरेट समूहों की अंतर्निहित इच्छा यह भी हो सकती है कि उनके द्वारा संचालित बाजार को गांवों तक पहुंचाना हो। एक खबर के अनुसार इसे टैक्स बचाने का जरिया भी बनाया जा रहा है। इन सारे शक सुबहा के बाद भी कार्पोरेट समूहों का सामजिक क्षेत्रों में उतरना नया यथार्थ है।

केंद्र सरकार की याचिका

रे ल कर्मचारी के इन्क्रीमेंट मामले में देश के सर्वोच्च न्यायालय में कैट और हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देने के लिए केंद्र सरकार ने एक अपील दायर की है। एक कर्मचारी के लिए केंद्रीय शासन का इस तरह अपील लेकर सर्वोच्च न्यायालय में पहुंच जाना हास्यास्पद है और केंद्र सरकार के जिम्मेदार अधिकारियों की विचारहीनता का परिचायक भी है। इस अपील में एक मात्र कर्मचारी की मामूली वेतनवृद्धि के मामले को उठाया गया है। केंद्र सरकार के अधिकारियों और मंत्रियों ने जिस प्रकार देश की संवैधानिक व्यवस्था में एक वेतन वृद्धि के लिए अपील करके इसे मजाक में बदलने की जो कोशिश की है वह फटकार देने लायक हरकत ही थी। देश के सर्वोच्च संस्थानों में काम कर रहे अधिकारी क्या यह नहीं जानते थे कि सर्वोच्च न्यायालय का समय गैर संवैधानिक और मामूली आर्थिक गतिविधियों के केस लड़ने में जाया करना गरिमा सम्मत नहीं है। यह बात कोर्ट ने तब कही जब पहले से ही दिल्ली हाईकोर्ट के समलैंगिक संबंधों पर दिए फैसले से व्यापक जनहित जुड़ा हुआ था। कोर्ट ने कहा इस मामले पर केंद्र ने अपील नहीं की, लेकिन अब छोटे-छोटे और तुच्छ मामलों पर अपील की जा रही है। सुनवाई कर रही बैंच ने कहा कि इस कोर्ट में महत्वपूर्ण और संवैधानिक प्रश्नों और मौलिक अधिकारों पर फैसले होते हैं। आप इन महत्वपूर्ण मुद्दों पर तो अपील फाइल नहीं करते। देश की अथॉरिटी कितनी बेशरम हो सकती है यह एक उदाहरण है। इसे देश की जनता के सामने यह मामला व्यापकता से उठाया जाना चाहिए। ये बातें हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली में चुनावी मुद्दा क्यों नहीं बनतीं? लोकतंत्र में इन बातों को जगह मिलना चाहिए, ताकि जनता के पैसे पर अपनी सेवा दे रहे लोगों को जिम्मेदारी का अहसास हो।