रविवार, जनवरी 20, 2013

बाबाओं की दुनिया



स्वाध्याय की कमी से आस्था अंधविश्वास में बदल जाती है और उसे सामाजिक स्वीकृति मिलने लगती है। ऐसी आस्था की छांव में कई फर्जी बाबाओं का जन्म होता है।


साराम बापू ने रतलाम में 700 करोड़ रुपए की जमीन पर कब्जा करने की बात खबरों में है। जमीन के इस मामले में गंभीर धोखाधड़ी जांच कार्यालय (एसएफआईओ) ने भारतीय दंड संहिता और कंपनी एक्ट 1956 के तहत मामला चलाने की मांग की है। इसकी अनुशंसा कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय को भी भेजी गई है। बाबाओं से संबंधित इसी तरह के कुछ और मामले भी इससे पहले सामने आते रहे हैं। बाबाओं पर आरोप एक नहीं कई तरह के हैं। स्वामी चिन्मयानंद पर आरोप लगे। इन पर साध्वी चिदर्पिता ने चिन्मयानंद रिपोर्ट लिखाई कि मेरे साथ बलात्कार किया और गर्भपात तक कराया। निर्मल बाबा पर हजारों लाखों लोगों से कई करोड़ रुपए एकत्रित करने का आरोप लगा और अब वे अदालत में केस का सामना कर रहे हैं। रामदेव बाबा की कंपनी पर कर अपवंचन का मामला दर्ज है। यह गिनती एक दो नहीं दर्जनों बाबाओं के साथ बन रही है। आखिर क्यों? सवाल ये है कि आध्यात्म और जीवन को मोक्ष की ओर ले जाने के जिन सूत्रों की चर्चा इन बाबाओं के सत्संग में होती है, उसके उलट इन पर कई तरह की अनैतिकताओं के आरोप लग रहे हैं। क्या ये समय राजनीतिक और धार्मिक आस्था के शोषण का युग बन चुका है? क्या ये युग मानसिक कमजोरी और अंधविश्वास से जनमी अंधआस्था का शिकार हो चुका है? बाबा मानसिक शोषण कर रहे हैं तो जनता भी उनके पास दौड़ कर जा रही है। जबकि भारतीय मनीषा में कर्म को प्रधानता दी गई है। ईश्वर कण-कण में विद्यमान है तो उसकी आराधना भी कण कण में की जा सकती है। ईश्वर की कृपा किसी बाबा के माध्यम से नहीं आ सकती, यह हमें अपने कर्म, चिंतन और मनन से हासिल करना होती है। लेकिन अंधविश्वास फैशन हो जाता है तो उसकी छांव में इसी तरह की घटनाओं का जन्म होता है। हर युग के अपने अंधविश्वास होते हैं। अंधविश्वास का भी फैशन होता है। हर युग में अंधविश्वास नए तरह के होते हैं। पुराने से आदमी छूटता है और नए अपना लेता है। लेकिन अंधविश्वास से मुक्त नहीं होता। अंधविश्वास की जो नींव मध्यकालीन भारत में रखी थी, वो कंप्यूटर और विज्ञान के युग में भी उतनी ही मजबूत बनी हुई है। अंधविश्वास का जो खेल 17वीं व 18वीं शताब्दी में चलता था, वो अब भी बदस्तूर जारी है। अंधविश्वास कारण स्वाध्याय की कमी है। जनता धर्म और ईश्वर पर लिखे मौलिक ग्रंथ न पढ़ कर कथित स्वार्थी बाबाओं की गिरफ्त में हैं। अगर ‘टीमलीज’ सर्विसेज की ‘सुपरस्टिशन्स एट द रेट आॅफ वर्कप्लेस’ नामक रिपोर्ट का निष्कर्ष में पाया गया है कि भारत में निजी कंपनियों में काम करने वाले प्रंबधन पेशेवरों में 62 प्रतिशत लोग अंधविश्वासी हैं। सर्वेक्षण में यह भी उल्लेख है कि विकास और आधुनिकता के प्रतीक शहर-दिल्ली और बंगलूरू अंधविश्वास के सबसे बड़े गढ़ हैं। इससे पता चलता है कि देश का पढ़ा लिखा वर्ग अंधआस्था की गिरफ्त में हैं। आज आवश्यकता है कि हम ईश्वर की व्यापकता को आत्मसात करें और अंध आस्था के आश्रमों से मुक्त एक विवेकवान विचारशील जीवन यापन करें।

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