रविवार, जनवरी 20, 2013

डीजल के दाम बाजार के हवाले


महंगाई के प्रति सरकार का अपना आर्थिक उदारवादी नजरिया है।  वह मान कर चल रही है कि यह उदारीकरण जनता के भले के लिए हो रहा है। जबकि जनता में एक सुप्त आक्रोश पैदा हो रहा है। इस समय महंगाई के प्रश्न को सामाजिक नजरिये से देखा जाना भी जरूरी है। 

डी    जल के दाम बाजार के हवाले करने का फैसला होते ही राजनीतिक गुस्से का स्यापा जाहिर होने लगा है। विरोध की पहली आवाज सरकार में शामिल दलों की तरफ से आई है। लेकिन सवाल ये है कि इतने राजनीतिक शोर के बाद महंगाई की मा र को न तो रोका जा सका है और न ही कोई असर इसका दिखाई देता है। कहने को सभी पार्टियां एक स्वर में महंगाई का विरोध करती हैं लेकिन इस विरोध की परिणति कहीं नहीं पहुंचती। राजनीतिक पार्टियां आरोप लगा रही हैं कि सरकार जनता की उपेक्षा कर तेल कंपनियों के फायदे में लगी है। दूसरी तरफ सरकार के सब्सिडी वाले गैस सिलेंडरों की तादाद 6 से बढ़ाकर 9 करने के फैसले को राजनीतिक सेफ्टी वॉल्ब समझा जा रहा है। ऐसा लग रहा है कि अब डीजÞल की कामतें भी पेट्रोल की तर्ज पर आसमान छुएंगीं। इसके बिलकुल करीब महंगाई की सीमारेखा है। लेकिन इस महंगाई के प्रति सरकार का अपना आर्थिक उदारवादी नजरिया है।  वह मान कर चल रही है कि यह उदारीकरण जनता के भले के लिए हो रहा है। जबकि जनता में एक सुप्त आक्रोश पैदा हो रहा है। इस समय महंगाई के प्रश्न को सामाजिक नजरिये से देखा जाना भी जरूरी है। क्योंकि अंतत: महंगाई सामाजिक मुद्दा भी तो है। दूसरा प्रश्न ये है कि महंगाई का प्रभाव समस्त समाज पर समान रूप से नहीं पड़ता है।  समाज में दो तरह के लोग होते हैं। एक वे जिनकी आय का स्रोत उनकी मजÞदूरी है चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक। दूसरी तरफ, वे जिनकी आय का स्रोत संपत्ति होती है। अर्थात् ये लोग ब्याज, किराया तथा लाभ के रूप में अधिशेष अर्जित करते हैं। समाज के प्रथम वर्ग में आने वाले लोगों में भी दो वर्ग होते हैं। एक वर्ग असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों का है जिसकी आय स्थिर और न्यूनतम होती है। दूसरी तरफ, सरकारी बाबू-कर्मचारी हैं जिनकी आय महंगाई के अनुपात से बढ़ती रहती है। एक अर्थशास्त्री के नजरिये से महंगाई हमेशा संपत्तिधारी वर्ग के पक्ष में होती है, क्योंकि महंगाई के दौर में उसकी संपत्ति की कीमतें बढ़ती हैं। इससे उसका लाभ भी तेजी से बढ़ता है। यदि महंगाई की दर पांच प्रतिशत से कम हो जाए तो ये लोग उसे मंदी कह कर हाय-तौबा मचाते हैं। सीमित कमाने वाले लोग चाहे वे असंगठित क्षेत्र के मजÞदूर हों या दुकानों में काम करने वाले कर्मचारी। उनकी आय में होने वाले परिवर्तन की अपेक्षा महंगाई में होने वाला परिवर्तन कहीं अधिक होता है। इस वर्ग के लोग अपनी आय का अधिकतम हिस्सा लगभग 40 प्रतिशत खाने पर खर्च कर देते हैं। होना तो ये चाहिए कि डीजल से चलने वाली लक्जरी गाड़ियों पर सरकार टैक्स लगाए और उससे मिलने वाले धन से किसानों को डीजल पर सब्सिडी मिले। सरकार को इसकी कोशिश करनी चाहिए। महंगाई के लिए केंद्र सरकार पूरी तरह से दोषी है। डीजल और रसोई गैस की कीमतें आम आदमी के बजट की धड़कनें तय करती हैं। जनता से जुड़ा होने के कारण तमाम पार्टियों को विरोध करना ही है। लेकिन सवाल ये है कि क्या ये विरोध लोगों को राहत दिलवा पाएगा। सरकार को समझना होगा कि सामाजिक नजरिये को किसी भी तरह ओझल नहीं किया जा सकता।

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